Thursday, November 28, 2019

बबूल वन में चन्दन उगाने की जिद/चन्दन का पेड़(कवि‍ता संग्रह)/असलम परवेज़



बबूल वन में चन्दन उगाने की जिद

असलम परवेज़ का 'चन्दन का पेड़'(कवि‍ता संग्रह)

कविता जब भी यथार्थ के बहुत नजदीक जाती है, अथवा यथार्थ को अपने बहुत नजदीक लाती है, उसके जीवन-विवेक पर सबसे अधिक दबाव पड़ जाता है। वह सब, जो हो रहा, सही-गलत का मिला-जुला रूप है, यथार्थ है, व्यावहारिक है; वह सब जो होना चाहिए, यथार्थ से दूर हो सकता है। कविता यथार्थ को नजदीक से देखती, मगर दूर की सोचती है। वह एक बारीक मगर जरूरी फर्क करती है। जीवन-यथार्थ और जीवन-सत्य के बीच। दुनिया जैसी है और जैसी उसे होना चाहिए के बीच कहीं वह एक लगातार बेचैनी है। एक कवि में अगर दूर तक सोच सकने की ताकत नहीं है तो उसकी कविता या तो यथार्थ की सतह को खरोंच कर रह जाएगी या किसी भी आदर्श से चिपक कर--कवि कुँवर नारायण की इन पंक्तियों के आलोक में यह कहना होगा कि असलम परवेज की कविताएँ नजदीक से देखती है, दूर की सोचती है और यथार्थ की सतह पर कोई खरोंच भर नहीं, एक गहरा निशान दे जाती हैं, जो संवेदनशीलता के तन्तुओं को झनझना देती हैं। यह दीगर बात है कि कवि के आस-पास की स्थितियों पर इन कविताओं में कहीं परदा नहीं डाला गया है, बातें बिना किसी लाग-लपेट की कही गई हैं।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा केन्द्र में उर्दू विभाग के वरिष्ठ आचार्य असलम परवेज, उर्दू साहित्य के जाने-माने विद्वान हैं और--उन्होंने भारतीय भाषा केन्द्र में हिन्दी-उर्दू के अध्ययन-अध्यापन के लिए नए-नए आयाम तलाशने हेतु एक मिसाल कायम की है। चन्दन का पेड़हिन्दी में उनका पहला कविता-संग्रह है। इस पुस्तक की भूमिका प्रो. नामवर सिंह ने लिखी है और कवि परिचय प्रो. केदारनाथ सिंह ने। चन्दन का पेड़वाकई एक चन्दन का पेड़ ही है, जिसके जर्रे-जर्रे से एक खुशबू आती है। यह खुशबू चैन और आराम से जीवन बसर करते लोगों के इत्र के फाहे की नहीं है, स्वार्थपूर्ति के तिकड़म की नहीं है, यह खुशबू है विकृतियों के इस माहौल में मानवता की तलाश में रत एक इन्सान की भावना की। यही खुशबू है, जो इस संकलन के महत्त्व को आँकने की प्रेरणा भी देती है और इसके मूल्यांकन में मदद भी करती है।
एक और दृष्टि से भी इस पुस्तक के महत्त्व पर विचार किया जाना है। वह है हिन्दी एवं उर्दू साहित्य के बीच में एक नई सर्जनात्मकता की तलाश। हिन्दी एवं उर्दू--दोनों भाषाओं की कविताओं की संरचना के स्तर पर इसमें गजलें हैं, नज्म हैं, दोहे हैं, कविताएँ हैं। विधागत इन काव्य प्रसंगों की चर्चा तो आगे होगी, लेकिन इतना तय है कि हिन्दी-उर्दू के सम्बन्धों की व्याख्या में इस पुस्तक की महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। समाज से उठाए गए सारे विषय तो एक भी हो सकते हैं, किन्तु असलम परवेज ने भाषा, शब्द चयन, रूप आदि के स्तर पर जिस तरह हिन्दी एवं उर्दू की काव्य-संवेदना को एकमेक किया है, वह काबिले-तारीफ है। केदारनाथ सिंह के शब्दों में--चन्दन का पेड़, इस नाम में एक खुशबू है और इन कविताओं से गुजरते हुए लगेगा कि वह खुशबू जितनी हिन्दी की है, उतनी ही उर्दू की। असलम परवेज की कविता अपने सर्वोत्तम रूप में, उसी खुशबू को पकड़ने की कोशिश करती है, यह एक ऐसी कोशिश है, जिसमें वे लगभग अकेले हैं, अपनी भाषा की बनावट और अपनी काव्य-संवेदना, दोनों में है।
दरअसल आज के माहौल में विज्ञान की व्यस्तता और भौतिकता के प्रभाव ने मनुष्य की संवेदनाओं को इतनी भोथरी बना दिया है कि उसको सुसुप्तावस्था से जगाने हेतु एक सनसनाहट काफी नहीं होती, उसे जगाने के लिए खुली अर्थों वाली बातों से गहरी खरोंच डालने की जरूरत पड़ती है। असलम परवेज इन कविताओं में अर्थ के इसी खुलेपन और गहरी खरोंच के साथ उपस्थित दिखते हैं। बिम्ब-प्रतीकों के उपयोग से कविताओं का विषय संक्षिप्त अवश्य होता है, सम्प्रेषणीयता भी बढ़ती है, पर इन कविताओं, दोहों, गजलों और नज्मों में असलम परवेज ने साबित कर दिखाया है कि बिम्ब-प्रतीक का सहारा लिए बिना भी रचनाओं की सम्प्रेषणीयता बरकरार रह सकती है। चन्दन का पेड़’, ‘लकीरजैसी कई कविताओं में बिम्ब के उज्ज्वल रूप भी भरे हैं।
यहाँ कथ्य पर अनावश्यक आवरण डालना कवि का काम्य नहीं दिखता। दो पंक्तियाँ गौरतलब हैं:
तश्बीह के गिलाफ में कब तक रहेगी फिक्र
तलवार को मियान से अब तो निकाल लो।
नामवर सिंह सही कहते हैं, ‘असलम परवेज को तश्बीह से परहेज नहीं है। बिम्बों और प्रतीकों को इस्तेमाल करना वे भी जानते हैं और अक्सर करते भी हैं। लेकिन जब फटकार कर सच कहने का मौका आता है तो वे उस सच को खूबसूरत तश्बीहों में लपेटना जुर्म समझते हैं, जैसा कि कभी कबीर समझते थे।
इस संग्रह की कविताओं को कवि ने चार कोटियों में बाँट रखा है--गजलें, नज्में, दोहे और कविताएँ। ये रचनाएँ आश्वस्त करती हैं कि तल्ख अनुभव की अभिव्यक्ति किसी हदबन्दी में विश्वास नहीं रखती, अभिव्यक्तियों के तरीके ही उन रिवाजों की सीमा का निर्धारण करते हैं। परवेज ने गजलों में कहीं बहुत पुरानी, बल्कि लुप्त होती जा रही रवायतों को पुनर्जीवित किया है। जिसे एक ही साथ उर्दू सृजन प्रक्रिया की उपलब्धि भी कही जा सकती है और कवि की उदारता एवं अपनी प्राचीन परम्परा से उनका लगाव भी। छद्म के लिए उनके पास कोई जगह नहीं है। प्रगतिशीलता के छद्म में उचित परम्परा को नकारना उनका स्वभाव नहीं। छद्म साहस दिखाने वालों की मानसिकता पर घातक व्यंग्य इजात करते हुए कहते हैं--
हम किनारे पे तुम्हें डूब के दिखला देंगे
पहले तुम हमको जरा पार उतर जाने दो।
टुकड़े-टुकड़े में बँटे इनसान, इनसानों का सूनापन, इनसानों का एकाकीपन, मानवीय सम्बन्धों के विघटन का वह घिनौना स्वरूप यकायक नजरों के सामने तब साफ हो जाता है, जब कवि कहते हैं:
भटक रहा हूँ अकेला नगर की गलियों में
अगरचे कहने को है मेरे साथ एक हुजूम।
उनकी तमाम गजलें मानवीय संवेदनाओं के कोमल पक्षों, सियासी हैवानियों, सामाजिक विकृतियों और लहूलुहान मानवता के चीत्कारों का चित्र प्रस्तुत करती हैं, जहाँ कवि अपने गुस्से में और कभी समय की अनुपयुक्तता में व्यंग्य करते हुए प्रतीत होते रहते हैं, कभी तो धिक्कार भी उठते हैं:
कब तक सुकूँ की राह पे चलते रहोगे यूँ
कुछ देर हादिसात के साए में दम तो लो।
नज़्मों में कवि की अनुभूतियाँ कुछ अधिक मुखर हुई हैं। जर्जर परम्परा और पीढ़ीगत द्वन्द्व को कवि ने अपनी एक छोटी सी नज़्म में बड़ी बारीकी से पिरोया है। यहाँ कवि अर्थ की कई परतें खोलते नजर आते हैं--रूढ़ियों के प्रति नकारात्मक रुख, नई शक्ति का आग्रह, संघर्ष के क्षितिज की तलाश, चुप बैठने और आरामतलब होने के खतरे और उन खतरों के लिए चेतावनी यकायक इस नज़्म में निखर उठती है:
बूढ़ों की बातों में मत आना
बूढ़े बरगद के पेड़ों की मानिन्द
बरगद
की छाया में जो बैठोगे
धूप से लड़ने की शक्ति खो दोगे और फिर
मौका पाते ही एक दिन
चढ़ते सूरज की गर्मी
तुमको खा जाएगी।
प्रचलित धारणा है कि आदमी को सबसे बड़ा भ्रम अपने बारे में होता है। कवि असलम परवेज इस भ्रम से काफी दूर हैं और आम जनमानस की प्रवृत्ति को दर्शाने के लिए कम शब्दों में एक बड़ी बात कह जाते हैं। यह कवि के जीवन-दर्शन और उनकी अन्तर्दृष्टि को भी उजागर करती है:
मैं सागर की तह में बैठा
सोच रहा हूँ
परबत की चोटी पर रहने
वाले कितने छोटे-छोटे से होते हैं
हिन्दी और उर्दू की जिस मिश्रित खुशबू की बात केदारनाथ सिंह ने की है, मूल रूप से वह खुुशबू असलम परवेज की इन्हीं नज़्मों में और आगे की कविताओं में विद्यमान है। गरज यह नहीं कि ऐसा अन्यत्र नहीं है। नज़्मों और कविताओं में भाषा के स्तर पर, सोच के स्तर पर और प्रस्तुति के स्तर पर...हर तरह से यह खुशबू आती है। इन नज़्मों में ज्यादातर जगह पर कवि का आत्मसाक्षात्कार, आत्म-स्वीकृति, आत्ममन्थन, आत्मबोध झलकता है, जहाँ कवि बड़े साफ शब्दों में अपनी खामियों-खूबियों को बेपर्द करते हैं। अपनी बेइमानी, ईमानदारी, अपने दायित्व, अपने सामाजिक सरोकार एवं जवाबदेहियों के निर्वाह आदि पर रोशनी डालते हैं और आम जनजीवन के विभिन्न पहलुओं पर गम्भीरता से विचार करते हैं। ईंट का इक्का, दो पंछी, वो ही राहजन है तिरा--जैसी कुछ नज़्में कथा-काव्य की शैली में हैं, जो प्रतीकों के सहारे इस सियासत की आम जनता का चित्र खींचती हैं। कविता पर लिखते हुए अशोक वाजपेयी ने एक जगह कहा है--इधर एक-डेढ़ सदी से हम भारत में साहित्य को सामाजिक यथार्थ, आज के समय के प्रति उसकी सजगता और कुल मिलाकर मनुष्य की नियति से जोड़कर देखने लगे हैं। कहना चाहिए कि उसकी नितान्त समसामयिकता को प्रमुखता दी जाने लगी है। बल्कि सत्य का साहित्य के सन्दर्भ में अर्थ ही यथार्थ, समय और मनुष्य की स्थिति और नियति हो गया है...।असलम परवेज अपनी कविताओं में समकालीन समाज के इसी सत्य, इसी यथार्थ के प्रति चिन्तित दिखते हैं, समकालीन विकृतियों के प्रति क्षुब्ध दिखते हैं।
इन दिनों इस देश में सबसे सस्ती इनसानों की जिन्दगी है। मौजूदा माहौल में इनसानों को अपनी जान का डर हिंसक जानवरों के बजाय मनुष्यों से होने लगा है। खून-खराबा इस देश की आम घटना हो गई है। किसी दिन हत्या, अपहरण आदि समाचार अखबारों में न दिखे तो लोग हैरत में पड़ जाते हैं। परवेज एक शेर में इन हैवानियों और समकालीन विडम्बनाओं को अंकित करते हैं:
वो तिफ्ल जिनको किया तुमने दाखिले मकतब
कोई भी लौट के उनमें से घर नहीं आया।
ओस में डूबी घासशीर्षक में कुछ दोहे हैं जिनमें कवि की नजरें विविध दिशाओं में जाती हैं। कहीं मनुष्य की कोमल भावनाएँ जाग्रत होती हैं तो कहीं व्यवस्था की निष्ठुरता आगे आ खड़ी होती, कहीं जनजीवन की विकृतियाँ उभरती हैं तो कहीं पौराणिक सन्दर्भ की अर्थहीनता और थोथापन स्पष्ट होता है। यहाँ कबीर के प्रति कवि अपने झुकाव भी स्पष्ट करते हैं:
जितने भी जीवन में मिले हैं साधू-सन्त फकीर
उनमें हम को एक ही भाया जिसका नाम कबीर।
कहना मुनासिब होगा कि ये कविताएँ समकालीन जनजीवन के चित्र हैं, अपने आस-पास की तमाम असुन्दर और बेबर्दाश्त घटनाओं को कवि ने विवश होकर झेला है और उस पीड़ा को हू-ब-हू लिपिबद्ध किया है। इस असुन्दर को अपनी कलात्मकता से सुन्दर बनाने का अनावश्यक प्रयास नहीं किया है।
खामियाँ हर चीजों में होती हैं। इसलिए कुछ खामियाँ इस संकलन में भी हो तो हर्ज नहीं। किसी भी चीज का महत्त्व उसकी खूबियों से ही जाना जाता है और इस संकलन के महत्त्व में अभी एक बात और जुड़ती है। सांस्कृतिक वैमनस्य की अभी जो पराकाष्ठा है, ऐसे में इस संकलन की अहम भूमिका है, जो कई मायने में सराहनीय है --भाषा के स्तर पर भी और कथ्य के स्तर पर भी। भारतीय भाषा केन्द्र ने एक लम्बे समय से हिन्दी-उर्दू सम्बन्ध की जो विरासत बनाई है, कवि परवेज की ये कविताएँ उसी विरासत की कड़ी हैं। यहाँ पर कवि अपने व्यवहार और अपने लेखन में एकमेक होते दिखते हैं।
बबूल वन में चन्दन उगाने की जिद/जे.एन.यू. परिसर पत्रिका प्रवेशांक
चन्दन का पेड़/असलम परवेज़/रु. 75.00/वर्ष 1994

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