Sunday, November 17, 2019

विकास की त्रासदी/ममता कालि‍या का उपन्‍यास दौड़




दौड़हिन्दी की प्रसिद्ध लेखिका ममता कालिया का छठा उपन्यास है। सन् 1971 में जब उनका पहला उपन्यास बेघरछपा तो उसके शिल्प, विषय और भाषा-शैली को लेकर काफी चर्चा हुई। इस उपन्यास के प्रकाशन से पूर्व ही ममता कालिया का नाम हिन्दी कथा लेखन में पर्याप्त चर्चित हो चुका था। सन् 1970 में उनका कथा संग्रह छुटकाराभी छप चुका था। कुल मिलाकर अब तक छह उपन्यास, आठ कथा संग्रह, एक नाट्य संग्रह के अतिरिक्त कई अनूदित और सम्पादित पुस्तकें हैं, अंग्रेजी में दो कविता संग्रह भी प्रकाशित हैं। अर्थात् गत शताब्दी के सातवें दशक में अपनी यशस्वी पहचान बना लेनेवाली कथा लेखिका ममता कालिया का ताजा उपन्यास दौड़जब सन् 2000 में आया, तो पाठकों के मन में एक आत्मीय ललक की उपस्थिति बड़ी सहज थी। पर एक शानदार विषय के विस्मयकर चमत्कार के बावजूद उपस्थापन और विषय के साथ ट्रीटमेण्ट के स्तर पर पाठकों को वह सन्तोष नहीं हुआ, जिसकी अपेक्षा पाठकों को थी। ममता अपने पाठकों से जो ममत्व रखती आई हैं, इस उपन्यास के पूर्वाद्ध में उसका निर्वाह नहीं हो सका। उपन्यास की आत्मा में प्रवेश करने के लिए बहुत श्रम करना पड़ता है।
नई कहानी आन्दोलन के समय में यह कहा अवश्य गया कि नई कहानी ने विधात्मक तोड़-फोड़ की। निबन्ध और कथा लेखन के शिल्प की सरहदें टूट गईं, पर उसके बावजूद, कथाक्रम का ओज बचा रहा। शायद बाजारवाद और उपभोक्तावाद के दंश से लेखिका इतनी आहत रहीं, कि उस बेचैनी और बाजारवाद की व्याख्या का लोभ संवरण नहीं कर पाने के कारण ऐसा हुआ। पर इस छोटी-सी परेशानी के साथ इस लघु उपन्यास ने वर्तमान जीवन-व्यवस्था की ऐसी त्रासद स्थिति को सूक्ष्मता से उकेरा है जो आनेवाले समय में हमारे लिए बड़ी विडम्बना का सूचक है।
विज्ञान ने स्वातन्त्र्योत्तर भारत को बहुत कुछ दिया। मानव सभ्यता का पर्याप्त विकास हुआ, पर बाजारवाद और भूमण्डलीकरण के चक्रवात में आज के मनुष्य ने अपने आपको इस तरह धकेल दिया कि वह स्वयं के लिए चाहकर भी कुछ कर नहीं पाता। कहा जाता था कि भारतीय जनमानस पर धर्म का प्रकोप, अफीम के नशे की तरह छाया हुआ है।वैसे, यह बात एक सीमा तक आज भी सच है, गणतन्त्र का जैसा मजाक भारतीय राजनीति में चल रहा है और धार्मिक उन्माद के सहारे जिस तरह की हरकतें की जा रही हैं, उन्हें देखकर लगता नहीं कि आज भी हमारा देश रूढ़ियों और धर्मान्धताओं से उबरकर उदार-चेतना के आँगन में पाँव रख पाया है। दूसरी तरफ स्वाधीन भारत की आधी सदी से अधिक अवधि के विकासक्रम पर नजर दें तो साफ-साफ दिखता है कि विज्ञान के अवदान से शिक्षण पद्धति, रोजगारोन्मुख शिक्षा, बाजार-व्यापार, सूचना तन्त्र, रहन-सहन, आहार-व्यवहार...सभी क्षेत्र में क्रान्तिपूर्ण परिवर्तन आया है। सामाजिक-पारिवारिक-मानवीय सम्बन्ध नितान्त औपचारिक होने लगे हैं।...मुझे यहाँ फतवानुमा वक्तव्य देने में असुविधा हो रही है कि भारतीय गणतन्त्र में लोग उदार हो गए हैं।यह कहना कहीं अधिक समीचीन लग रहा है कि लोग कन्फ्यूज्ड हो गए हैं। लोगों की निर्णय-शक्ति चुक गई है। लोग न तो पूरी तरह परम्पराके पोषक रह गए हैं, न पूरी तरह प्रगतिके। यह आचरण उचित भी होता, यदि दोनों की अच्छाइयों को ग्रहण किया होता। पर ऐसा नहीं हुआ। राजनीति के अपराधीकरण के कारण देश की अर्थ व्यवस्था में इतनी विसंगतियाँ आ गईं कि वह आम जनजीवन के लिए अभिशाप बन गई। क्षिप्र गति से धनशाली बनने की कुछ तरकीबें इस क्रम में आईं। आर्थिक उदारीकरण, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की बाजार व्यवस्था का फैलाव भारत देश में व्याप्त हुआ और देश की युवा पीढ़ी धनलाभ के उस चकाचौंध में इस तरह लिप्त हो गई कि उसके सामने मन की उड़ानप्रमुख हो गई; समाज और परिवार का व्यवस्था-क्रम गौण पड़ गया। विकास के इसी दौर की त्रासद परिणति का अनूठा चित्र है, ममता कालिया का लघु उपन्यास दौड़
आज लेखकों के समक्ष ज्यादातर समय में राजनीति ही प्रमुख घटक बनकर आते हैं। दौड़में राजनीति की तरफ कहीं झाँकने का भी प्रयास नहीं है, सिर्फ संवेदनशून्यता और मूल्यहीनता की तरफ बेतहाशा दौड़ती मानवता को बड़ी महीनी से अंकित किया गया है। पवन और सघन, रेखा और राकेश के दो पुत्र हैं। रेखा लेखिका हैं, राकेश पत्रकार हैं। दोनों का प्रेम विवाह हुआ। अपने समय के क्रान्तिकारी कदम उठाने में दोनों अग्रसर हैं, पर संशोधित परम्परा के पोषक भी। मानवीय मूल्य के समस्त उपादानों के रक्षार्थ चिन्तित रहे हैं, एक अर्थपूर्ण जीवन और भव्य पारिवारिक शिष्टाचार के कायल रहे हैं, जीवन-रक्षा और आत्म-सम्मान के साथ-साथ जीवन की शान्ति के लिए उत्सुक रहे हैं। पर उनकी सन्तानें, पवन और सघन, समय की आँधी में उड़कर विकृति की उस ऊँचाई पर पहुँच गए हैं, जहाँ से सम्बन्धों के राग-अनुराग, आत्मीयता की कोमल भावना, पारिवारिक स्नेह के रक्षार्थ उचित व्यवहार, जीवन की शान्ति--सब कुछ भूल गए हैं। उनकी नजर में जीवन का चरम लक्ष्य धन हो गया है। ख्यात आलोचक डॉ खगेन्द्र ठाकुर सही कहते हैं कि यह दौड़ भूमण्डलीकरण, व्यावसायिकता, आजीविकावाद, विज्ञापनबाजी, उपभोक्तावाद आदि के मिश्रण से बने मनुष्यों की कहानी बहुत प्रभावकारी ढंग से प्रस्तुत करता है। बेशक इस दौड़ ने नव-धनाढ्य वर्ग की नई पीढ़ी के चरित्र के माध्यम से हिन्दी कथा-साहित्य में एक प्रतिमान या कीर्तिमान कायम किया है।
समाज इन दिनों पीढ़ियों के द्वन्द्व से गुजर रहा है। यह द्वन्द्व दो तरह का है। एक द्वन्द्व है उन दो पीढ़ियों का, जिसमें माता-पिता की अडिग मान्यताएँ, या कहिए कि उनकी रूढ़िवादी धारणाएँ, सन्तानों के प्रगतिशील जीवन-यापन में हर क्षण बाधक बनी हुई हैं। नई पीढ़ी अपने माँ-बाप का आदर करना चाहती है, उन्हें सुख-सुविधा देना चाहती है, नए युग की उपलब्धियों और मजबूरियों से परिचित कराना चाहती है, जीवन के उल्लास में उनका सहयोग और सहभोग चाहती है, रूढ़ियों और जड़ हुई मान्यताओं से मुक्ति चाहती है, जीवन के सकारात्मक पहलू के साथ जीना चाहती है, पुरानी पीढ़ी को थोड़ा-सा लचीला बनाने की इच्छा रखती है। पर, पुरानी पीढ़ी, नए युग की अपरिहार्यताओं से बेखबर, सन्तानों की भावनाओं से बेफिक्र, अपने अतीत और अपनी मान्यताओं के प्रति मुग्ध रहते हैं। उन्हें सारे नएपन में असंस्कृति दिखती है। उन्हें नए युग के दाम्पत्य में उद्दण्डता, नए जमाने की स्‍त्रियों में अश्लीलता और नवयुवकों में पत्नी की गुलामी दिखती है। विडम्बना यह भी है कि बहू का कमाऊ होना, बहू-बेटे की अतिरिक्त आमदनी की जानकारी लेना बुरा नहीं लगता।...दूसरा संघर्ष उन दो पीढ़ियों का है, जिसकी पुरानी पीढ़ी उक्त वीभत्सता के भोक्ता भले ही न हों, पर एक सीमा तक परिचित अवश्य है। शायद यही कारण है कि यह पीढ़ी अपनी अगली पीढ़ी को समझना चाहती है। उनकी उन्नति में अपनी अतृप्त आकांक्षाओं के शेषांश की तृप्ति देखना चाहती है। इसलिए नई पीढ़ी की गतिविधियों को उदारतापूर्वक देखती है और उसे न केवल स्वीकृति देने, बल्कि उन गतिविधियों को अपने जीवन में भी उतारने की कोशिश करती है। पर जब इस पीढ़ी को अपनी सन्ततियों की भावनात्मक उड़ान और अर्थलोलुप दौड़ में जीवन की शान्ति और अर्थवत्ता नष्ट होती दिखती है, तब ये परास्त हो जाती है। ममता कालिया की उपन्यासिका दौड़की रेखा, और राकेश, ऐसी ही पीढ़ी के प्रतिनिधि हैं। दौड़उपन्यासिका इस दृष्टि से बाजार तन्त्र और उपभोक्तावाद की त्रासद परिणतियों की गाथा भर नहीं, दो पीढ़ियों के सांस्कृतिक और भावनात्मक संघर्ष का रेखाचित्र भी है। कृष्ण मोहन सही कहते हैं कि बीसवीं सदी के अन्त में भारतीय समाज के सबसे गहरे सांस्कृतिक संकट का आख्यान है--दौड़।...पुरानी पीढ़ी की अपेक्षाएँ, नई पीढ़ी की उमंगों से टकराकर कदम-कदम पर टूटती हैं।
अपने पुत्र को जब आर्थिक उन्नति हेतु राकेश बार-बार कम्पनी बदलते देखते हैं तो वे व्यथित होते हैं। उन्हें यह कृतघ्नता लगती है। छोटे बेटे को राजनीतिक पचड़ों में फँसा देखकर, बड़े बेटे से जब कहते हैं कि अपने अनुज को समझाओ और जब बड़ा बेटा टका-सा जवाब देता है कि वह जो करता है उसकी जिम्मेदारी है। कई लोग ठोकर खाकर ही सँभलते हैंभ्रातृत्व से इस तरह पल्ला झाड़ने की हरकत राकेश को कहीं गहरे तक चुभ जाती है। फिर जब छोटा बेटा हिसाब माँगता है कि आपने इतने बरसों में क्या किया? दोनों बच्चों का खर्च आपके सिर से उठ गया। घूमने आप जाते नहीं, पिक्चर आप देखते नहीं, दारू आप पीते नहीं, फिर आपके पैसों का क्या हुआ?’ राकेश सिहर उठते हैं। इधर रेखा की हालत और भी विचित्र है। लॉबी में अपनी सारी रचनाओं को सुरक्षित पाकर नई पीढ़ी और नए जमाने की उपलब्धियों पर प्रसन्न तो होती हैं, बहू-बेटे के आगमन से प्रसन्न होती हैं, उन्हें खिलाने पिलाने में निहाल होती हैं, पर बीस हजार रुपए का चेक काटकर जब बेटा देता है और कहता है कि माँ, हमारे आने से आपका बहुत खर्च हुआ है, यह मैं आपको पहली किस्त दे रहा हूँ। वेतन मिलने पर और दूँगा।तो उसे जोर का झटका लगता है लेकिन पवन या स्टैला या सघन के लिए ये सारी गतिविधयाँ कहीं से असहज नहीं हैं। वे धोखे में भी ऐसा नहीं सोचते कि हमने कुछ अनुचित किया है। उनकी दुनिया ही अलग है। राकेश और रेखा लाख प्रगतिशील हो जाएँ, पर नए जमाने की हृदयहीन हरकतों में कैसे शामिल होंगे। रेखा, अपनी बहू स्टैला को पाक कला में दीक्षित देखना चाहती है, यह अपेक्षा रखती है कि मैं स्टैला की सास हूँ, इसलिए स्टैला के माता-पिता हमसे मिलने हमारे घर आएँ। पर स्टैला, कम्प्यूटर पर ई-मेल के जरिए अपनी सास से सम्पर्क बनाए रखना चाहती है। समधन मिलानी के लिए मुकुल से एप्वाइण्टमेण्ट फिक्स्ड करती है। ये युवक-युवतियाँ उस युग में आ चुकी हैं, जहाँ विदेश में बैठा सिद्धार्थ अपने पिता की मृत्यु की सूचना पाकर बदहाल हुई अपनी माता को फोन पर बताता है कि किसी को बेटा बनाकर दाह संस्कार करवाइए। मेरे लिए तेरह दिन रुकना मुश्किल होगा।...और घर, अनजान लोगों के लिए खुला मत छोड़िएगा। इण्डिया में अपराध कितना बढ़ गया है, हम बी.बी.सी.पर सुनते रहते हैं।
सम्बन्धों के इस व्याकरण और भावनाओं के इस अंकगणित की भयावहता, भारतीय समाज के लिए आधुनिकता की देन है। भूमण्डलीकरण और नव बाजार तन्त्र के प्रभाव से मानव जीवन इतना विकृत हो जाएगा, इसकी कल्पना किसी ने नहीं की होगी। मनुष्य कमाता है सुख भोगने के लिए और मानव जीवन का सबसे कीमती सुख है--शान्ति। लेकिन इस नई बाजार-व्यवस्था में शिक्षित-दीक्षित पीढ़ी निरन्तर अशान्ति की ओर भागती जा रही है। जीवन को अशान्त रखकर धनार्जन में लिप्त व्यक्ति न चैन से खा पाता है, न चैन से सो पाता है, न चैन से पहन पाता है--यह बात किसी की समझ से परे है कि आखिर वह कमाता किसलिए है? कीमती कार पर दौड़ते रहने, कम्प्यूटर और टेलीफोन के सहारे सारे सम्बन्धों का निर्वाह करने और बाजार में उपलब्ध चीजों की गुणवत्ता बढ़ाने के बदले कीमत बढ़ाने वाली इस नई समाज-व्यवस्था के नागरिकों को ममता कालिया का यह लघु उपन्यास दौड़’, यह शिक्षा देता है कि प्रगति और विकास का अर्थ, कुछ पाना होता है, सब कुछ खो देना नहीं। इस लघु उपन्यास के पात्रों का जीवन क्रम आधुनिकता के बुखार से तप रहा है। और यह बुखार इतना तेज है कि वह डेलिरियम में चला गया है, बड़बड़ा रहा है, और कुछ की बात क्या हो, इस बुखार-पीड़ित पीढ़ी ने अपना होश तक गँवा दिया है। इस पीढ़ी ने रेलवे स्टेशन के पास खड़े रिक्शावाले को भी इतना चतुर बना दिया है कि एम.बी.ए. संस्थान की ओर जाने वाले युवकों से वह चौगुना किराया माँगता है और उलहना देता है कि एम.बी.ए. पास करके जब खुद ऊँची रकम कमाओगे तो उससे पहले हमें भी कुछ दो। पर पवन, सघन, स्टैला, सिद्धार्थ की इस पीढ़ी ने स्वयं को मानवीय मूल्य से काट लिया है। इस पीढ़ी को यह ज्ञान नहीं हो पा रहा है कि केवल अर्थशास्त्र से जीवन नहीं कटता...थोड़ा दर्शन और अध्यात्म और ढेर-सी संवेदना भी पनपनी चाहिए।
अर्थशास्त्र के आकर्षण में संवेदन शून्य होते समाज की नई पीढ़ी की मानसिकता के सहारे पीढ़ियों के संघर्ष और बाजार तन्त्र से उद्भूत त्रासदी को उकेरता हुआ यह लघु उपन्यास दौड़’, एक अर्थ में हमें मानव जीवन के आसन्न संकट से हमें सावधान करता है। लेखक चूँकि शासक नहीं होता, चौकीदार होता है, वह सावधान कर सकता है, सो ममता कालिया ने किया है। ममताजी, धन्यवाद।
विकास की त्रासदी, साक्षात्कार, भोपाल, नवम्बर, 2003
दौड़/ममता कालिया/वाणी प्रकाशन/रु. रु.75.00/पृ.96

No comments:

Post a Comment

Search This Blog