जनपदीय उक्ति है--‘चार
कोस पर पानी बदले आठ कोस पर बानी।’
इस ‘पानी’ और
‘बानी’ का
अर्थ केवल अभिधा में नहीं लिया जा सकता, इसे
केवल ‘जल’ और
‘ध्वनि’ के
रूप में देखकर नहीं चला जा सकता,
पूर्वजों ने इसके
अर्थ ढूँढने के पर्याप्त रास्ते दिखा दिए हैं। सबसे पहले तो ‘रहिमन पानी राखिए’ और ‘ऐसी
बानी बोलिए’ में ही इसे ढूँढें तो सारे सूत्र सुलझ
जाएँगे। अर्थात् ‘पानी’ और
‘बानी’ का
‘मिट्टी’ और
‘मनुष्य’ के
साथ जो अनुराग सदा से स्थापित है,
उस आधार पर कहा जा
सकता है कि लोक-संस्कृति (लोक-गीत,
लोक-कथा, लोक-गाथा, लोकाचार, लोक-परम्परा) ही किसी भूखण्ड की
क्षेत्रीय अस्मिता को रेखांकित करती है। किसी भी जनपद के आम नागरिक के जीवन-यापन
और रहन-सहन के मौलिक सूत्र और उसकी जीवनी ताकत वहाँ की लोक-संस्कृति में अक्षुण्ण
रहती है।
बीते कुछ दशकों के विकास की परिणति और भूमण्डलीकरण की वणिक्
परिस्थिति का, लोक-संस्कृति और लोक-परम्परा पर
विस्मयकर असर पड़ा है। कुछ वर्ष पूर्व हिन्दी के विख्यात आलोचक प्रो. मैनेजर
पाण्डेय का लेख, ‘आधुनिकता की आँधी में लोक का लहंगा’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। इस लेख के
शीर्षक ने ही पूरे पाठ को ध्वनित कर दिया था। आज भी स्थिति वही है। बल्कि आँधी और
शान्ति के बीच लोक-परम्परा की सुरक्षा का नाटक और तिरस्कार का त्राटक कुछ ज्यादा
ही विकृति उत्पन्न करता है। भूमण्डलीकरण के बाजार में जीवन-यापन करता आज का मानव, किस समय अपने भौतिक लाभ का संकेत पाकर
लोक-परम्परा का पोषक (शोषक) हो जाएगा और किस समय अपने भदेसपन की आशंका से उसकी
अनुपयुक्तता का उद्घोषक हो जाएगा--कहा नहीं जा सकता।
ऐसी विकराल परिस्थिति में कर्मठ, प्रतिबद्ध
और अन्वेषी युवा सम्पादक,
पीयूष दईया ने ‘लोक’ पुस्तक
का सम्पादन कर लोक-परम्परा के बिखरे सूत्रों को समन्वित रूप में प्रस्तुत किया है, इसे एक ऐतिहासिक कर्म के रूप में गिना
जाना चाहिए। यह पुस्तक हमें एक बार,
फिर से मानव समाज की
सभ्यता-संस्कृति-परम्परा की विकास प्रक्रिया को आद्योपान्त निहारने के लिए बाध्य
करती है और इस क्रम में हम अपने को ही खो गया-सा पाते हैं। नागर जीवन-पद्धति के
विकास क्रम के प्रारम्भिक सूत्र पर नजर डालें तो वहाँ लोक-परम्परा के अलावा और कुछ
नहीं था। ‘लोक’ के
उसी आदि-रूप को तरास-तरासकर हमने शास्त्र बना लिया। वैज्ञानिकों के हर आविष्कार की
प्रारम्भिक स्थिति संकल्पना (हाइपोथिसिस) से शुरू होती है। ठीक उसी तरह, बल्कि इससे भी ज्यादा वजन के साथ यह बात
सच है कि आज किसी भी शास्त्रीयता की जड़ ढूँढने चलें, तो
उसकी परिकल्पना अथवा संकल्पना अन्ततः लोक में ही मिलेगी। संगीत की ही बात लें तो
जो शास्त्रीय संगीत आज हवाई जहाज में उड़ता है, करोड़ों
के वातानुकूलित भवन की गद्दीदार कुर्सियों में तालियों की ऊष्मा महसूस करता है, और लाखों में खेलता है, उसने अपनी जीवनी शक्ति लोक-गायन से ही
विकसित की है। बिना व्याकरण,
बिना गणित और बिना
शास्त्रीय अनुशासन के अनुशरण के,
जब इस लोक-गीत के पद, लय और ताल की नींव पड़ी होगी, और शताब्दियों तक इसकी परम्परा जब
लोक-कण्ठ के जरिए कई पीढ़ियों तक पली-बढ़ी होगी, तब
किसी ने कल्पना नहीं की होगी कि आने वाले समय के भूमण्डलीकृत बाजार और आधुनिकता की
आँधी में यह परम्परा लुप्त होने लगेगी अथवा बहुत सहानुभूति अर्जित कर पाई, तो किसी संग्रहालय की चीज हो जाएगी। आज
लोक-परम्परा की समस्त शाखाएँ,
या तो व्याकरण से
अनुशासित होकर शास्त्रीयता में ढलती जा रही हैं अथवा अनुदान के जरिए संकलित
हो-होकर संग्रहालय में बन्द होती जा रही हैं। संग्रहालय किसी परम्परा के अन्तिम
अवशेष को एक सीमा तक सुरक्षित और दर्शनीय तो बना सकता है, वर्द्धिष्णु नहीं, विकासशील नहीं।
असल में लोक-जीवन, लोक-परम्परा, लोक-कला, लोक-संस्कृति, लोक-साहित्य का मूल स्वरूप वहीं जाकर
तलाशा जा सकता है, जहाँ मशीन का प्रवेश अभी भी नहीं हो
पाया है। ऐसे स्थानों की स्मृति अभी भी जिनके पास बची हो, वे बता सकते हैं कि रस्सी बटने, चौपाल में बैठकर रात-रात भर किस्सा
सुनने, खेतों में धान रोपते हुए, फसल काटते हुए, श्रम करते हुए ऋतु-गीत अथवा श्रम-गीत
गाने, तीज-त्योहारों अथवा अन्य अवसरों पर
प्रफुल्लित स्त्रियों को लोक-गीतों, लोक-नृत्यों
में लिप्त दिखने, जन्म-जीवन-विवाह-मृत्यु आदि अवसरों के
सांस्कारिक गीतों-लोकाचारों को निभाने के स्रोत अर्थात जीवन में लोक और लोक में
जीवन के अन्योन्याश्रय सम्बन्धों के सूत्र किस रहस्य-लोक में समा गए।
लोक-जीवन और लोक-परम्पराओं के इन तमाम सूत्रों को समेटकर इस
कृति ‘लोक’ में
पीयूष दईया ने एक पुनरुत्थान का काम किया है। खासकर उन भारतीयों के लिए, जिन्हें अपने को आधुनिक साबित करने के
लिए अपनी विरासत को मटियामेट करना जरूरी लगता है, क्लाॅद्
लेवी स्त्रॅस के तीन और आक्टेवियो पाज़ के एक निबन्ध, इस
पुस्तक में चेतना के पुंज की तरह हैं, ताकि
वे समझें, कि जहाँ आधुनिकता बहुत आगे आ गई है, वहाँ भी ‘लोक’ का महत्त्व कितना अधिक है।
इसमें संकलित निबन्धों के जरिए कला और संस्कृति की विभिन्न
शाखाओं, चित्र-
संगीत-शिल्प-साहित्य-अभिनय-गायन-वाचन-गाथा-विरुद और आचार-विचार, आहार-व्यवहार, तीज-त्योहार, उत्सव-आयोजन आदि की लोक-परम्पराओं को
विशाल भारत की क्षेत्रीय अस्मिता के साथ पहचानने की कोशिश की गई है।
इस पुस्तक में संकलित गुजराती, पंजाबी, मराठी, राजस्थानी
और आदिवासी भाषा-भाषी क्षेत्र से सम्बद्ध निबन्धों की संख्या के साथ अन्य क्षेत्र
की लोक-परम्परा से सम्बद्ध निबन्धों की संख्या की तुलना करने पर असन्तुलन अवश्य
दिखता है। इससे आम पाठकों तक एक गलत सन्देश जाता है कि या तो अन्य क्षेत्रों की लोक-परम्परा
के स्रोत क्षीणप्राय हैं,
या संकलक ने उनमें
पर्याप्त दिलचस्पी नहीं दिखाई। पर भारत के विस्तृत भूखण्ड की लोक-परम्पराओं के
वैविध्य के कारण एक मजबूरी भी है। कोई भी एक व्यक्ति, सर्वज्ञ नहीं होता; इस तरह के महत् आयोजन में उसे किसी न
किसी पर विश्वास करना ही पड़ेगा,
भिन्न-भिन्न क्षेत्र
के लोगों से उसे सहयोग की अपेक्षा रहेगी ही। यदि इस आशा के साथ धोखा और अपेक्षा के
साथ उपेक्षा का भाव प्रबल हो जाए,
तो कार्य की पूर्णता
खण्डित होती है। ऐसी दशा में एक संकट तो यह होता है कि कई बार उचित व्यक्ति का
सहयोग नहीं मिलता और कई बार जो सहयोग देने को तैयार होते हैं, वे अपनी जिम्मेवारी को गम्भीरता से नहीं
लेते। इस संकलन में संकलित मैथिली क्षेत्र से सम्बद्ध निबन्ध के उदाहरण से यह बात
ज्यादा स्पष्ट हो जाएगी। सम्पादक ने बड़ी आस्था के साथ मैथिली के श्रेष्ठ रचनाकार
जीवकान्त और नई पीढ़ी की स्थापित लेखिका विभा रानी से इस सहयोग की अपेक्षा की होगी।
मैथिली, मिथिलांचल की मातृभाषा है और बिहार
राज्य के बड़े भूखण्ड के कई जिलों में यह बोली जाती है। मिथिलांचल के जनपद की काफी
समृद्ध लोक-परम्परा है,
लेकिन यह हैरतअंगेज
बात है कि जिस मिथिला में जन्म से मृत्यु तक के सारे संस्कार, चूल्हा-चक्की से लेकर खेत-खलिहान तक के
सारे आचार, और प्रेम-भक्ति-वात्सल्य से लेकर
ईष्र्या-द्वेष-घृणा तक के सारे व्यवहार लोक-परम्पराओं से भरे हों, जहाँ का हर दूल्हा शिव और राम, हर दुल्हन पार्वती और सीता, हर माँ-पिता कौशल्या-दशरथ हों या
सुनयना-विदेह हों, जहाँ राम-कृष्ण-शिव के साथ होली के
हुरदंग हों और हास्य-विनोद हों,
जहाँ सलहेस, नैका-बनजारा, गोनू झा, डाक, कारू खिरहैर जैसे हीरो, लोक-परम्परा में आज भी जीवन्त हो रहे
हों, जहाँ तन्त्र-साधकों की गीली धोती आकाश
में भगवती सुखाती हों और दूसरे दिन घाट पर नहाते समय पहुँचाती हों, जहाँ स्वयं शिव ने उगना बनकर विद्यापति
की नौकरी की हों, उस मिथिला की लोक-परम्परा को इतने हल्के
ढंग से, मैथिली के इतने बड़े लेखकों ने क्यों
प्रस्तुत किया। बहरहाल...
इस संकलन (लोक) के आवरण-पृष्ठ पर प्रसिद्ध चिन्तक, कवि, आलोचक
नन्दकिशोर आचार्य की उक्ति है कि ‘शास्त्र लोक के रचनात्मक अनुभवों का
तत्त्वान्वेषण और संहिताकरण ही तो है। यह तत्त्वान्वेषण जहाँ लोक के स्वरूप की
सार्वकालिकता को उजागर करता है,
वहीं संहिताकरण के
चलते उसमें एक रूढ़िबद्धता भी आ जाती है।’ यह
उक्ति थोड़ी-सी व्याख्या की माँग करती है। असल बात तो यह है कि आज लोक के भदेसपन की
तुलना में जिसे शास्त्रीय कहकर महान साबित किया जा रहा है, वह ठहरा हुआ है, गतिहीन, विकासहीन, व्याकरण-बद्ध (रूढ़िबद्ध) है, उसमें गति और वार्द्धक्य की कोई
उत्कण्ठा नहीं है, विकास का कोई लोच नहीं है और अपने
प्रारम्भिक रूप में वह लोक का ही अंग था।
वस्तुतः लोक,
मानव-जीवन का सहचर
होता है, जीवन को सहजता देने हेतु वह समय-समय पर
अपना स्वरूप बदलता रहता है,
और इसीलिए वह
विकासमान है, उसमें नूतनता है, उसमें जन-जीवन की गतिविधियाँ धड़कती रहती
हैं। इसी लोक को स्थायित्व और प्रामाणिकता देने के निमित्त, सुसंगत और सुसंस्कृत करने हेतु उसे
अंकित किया जाता है,
उसका ‘तत्त्वान्वेषण’ और ‘संहिताकरण’ किया जाता है। इस तत्त्वान्वेषण के क्रम
में उसके कई जरूरी तत्त्व,
गैरजरूरी समझकर
अलक्षित कर दिए जाते हैं,
फलस्वरूप इसकी शक्ति
का ह्रास होता है और संहिताकरण के क्रम में इसकी गति-उन्मुखता को अवरुद्ध कर दिया
जाता है, इसके संचालन-परिचालन की जो पद्धति
तत्त्वान्वेषण से बनाई जाती है,
और जहाँ स्वयमेव हजार
त्रुटियाँ हो गई होती हैं,
उससे इसे रूढ़िबद्ध कर
दिया जाता है। इस तरह,
‘लोक-परम्परा’ की मौलिक शक्ति का लोप कई रूपों में हुआ
है। रस्सी बटने से लेकर वीणावादन तक, कण्डे
थापने से लेकर कम्प्यूटर चलाने तक,
कठपुतली नर्तन से
लेकर व्यापारिक सिनेमा तक की तमाम बातों का सूक्ष्मता से अध्ययन किया जाए तो बड़ी
सफाई से ये बातें सामने आती हैं।
यह सार्वजनिक सत्य है कि गतिहीन ज्ञान की पुनरावृति, प्रयोगधर्मिता और विकासशीलता की
विरोधिनी है। क्योंकि उसमें मानव मस्तिष्क का कपाट बन्द हो जाता है और वह उस दायरे
से बाहर आकर सोचने की जरूरत नहीं महसूस करता, अपने
सीखे हुए और अपने द्वारा सिखाए गए ज्ञान को ही प्रमाण मानता है। संहिताकरण और
शास्त्रीयता, इसी का पर्याय है। जबकि लोक-परम्परा में
पल-पल नए-नए अन्वेषण होते रहते हैं,
हर प्रस्तोता अपनी
प्रस्तुति के हरेक अगले क्रम में उसकी बेहतरी के लिए और समाज की उपयुक्तता के लिए, पूर्व की प्रस्तुति की अपेक्षा कुछ जोड़
या घटा देता है, जो आम जनजीवन के लिए सदा से रुचिकर बना
रहा है। किसी भी आचार-संस्कार-व्यवहार पर सामान्य जीवन में नजर डालें तो बड़ी
गम्भीरता से यह बात सामने आती है कि वहाँ की शास्त्रीयता कर्मकाण्ड पर सवार रहती
है, इधर ज्ञान-काण्ड उस पर तर्क करने को
आमदा रहता है, बीच में लोक का प्रवेश होता है और वह एक
सुविधा-काण्ड के जरिए मनुष्य को सारे संकटों से उबार लेता है। इस तरह, गम्भीर चिन्तन-मनन के बाद सामने यही बात
आती है कि शास्त्रीयता,
वैयक्तिक या
अल्पसांख्यिक मस्तिष्क द्वारा किए गए श्रम की ठहरी हुई परिणति है, जबकि लोक सार्वजनिक उद्यम की प्रवाहमय
पद्धति है। अनगढ़पन,
उबड़-खाबड़, गुणवत्ता नियन्त्रण (क्वालिटी कण्ट्रोल)
का निषेध, वैज्ञानिकता का अभाव लेकिन लोकोन्मुखता
का उत्कर्ष, वर्जनाओं-बन्धनों-द्वन्द्वों से मुक्त
होना, लोक-परम्पराओं का मूल स्वभाव है और
ज्यों ही ज्ञान की शाखाएँ,
कला की विधाएँ, मनुज दल से निकलकर मशीन पर पहुँचती है, वहाँ इसकी उक्त सारी विशिष्टताएँ समाप्त
हो जाती हैं। दुर्योग से हमारा समाज अभी ऐसे मौसम से गुजर रहा है, जिसमें लोक के कुछ तत्त्व या तो
संग्रहालय में कैद होकर प्राण त्यागेंगे या मशीन पर चढ़कर अपना अस्तित्व मिटाएँगे; और जो कुछ विस्मृति की ओर अग्रसर हो गए
हैं, उसकी सुधि कौन लेंगे?
ऐसी परिस्थिति में ऐसे सम्पन्न-समृद्ध संकलन का आना एक नए
शंखनाद की तरह है। संकलन का औपचारिक रूप से किसी भी तरह का विभाजन नहीं किया गया
है, परन्तु पाठकीय सुविधा का पर्याप्त
समावेश यहाँ है। क्लाद् लेवी स्त्रॅस के तीन निबन्ध शुरू में ही दिए गए हैं, जिनमें प्रजाति के रूप में व्यक्ति, मिथक और इतिहास, एवं फ्रैंज बोआस द्वारा संग्रहित ‘सीमशियन इण्डियन’ से विकसित ‘आसदीवाल की कहानी’ को केन्द्र में रखकर गम्भीरतापूर्वक
विचार किया गया है। इसके बाद ऑक्टेवियो पाज़ का निबन्ध क्लाॅद् लेवी स्त्रॅस पर है, जिसमें लेवी स्त्रॅस की विचार पद्धति और
मिथकों एवं परम्पराओं पर व्याख्यापरक विवेचना है। ये चारो निबन्ध मिथक, इतिहास, लोक, परम्परा, सभ्यता
एवं संस्कृति की विकास-प्रक्रिया आदि को बड़ी सूक्ष्मता से विश्लेषित करते हैं और यहाँ
इन पहलुओं को अध्ययन-विश्लेषण के विराट दायरे में देखा गया है। यद्यपि अनुवाद के
क्रम में किसी-किसी निबन्ध में विचार की तीक्ष्णता मद्धिम हुई है। कहीं-कहीं
अनुवाद असम्प्रेषित भी रह गया है,
पर पूर्णता में इस
संकलन का उद्देश्य यहीं से खुलता नजर आता है और पाठकों को चित्र एवं शिल्प की
दुनियाँ में प्रवेश मिलता है।
चित्रकला और शिल्प पर संकलित सात निबन्धों में से चार तो
लोक-कला और लोक-दृश्यों के विभिन्न पहलुओं को सूक्ष्मता से अंकित करते हैं, पर शेष चार छत्तीसगढ़, ओड़ीशा, मणीपुर
और राजस्थान के शिल्प और चित्रकला की भिन्न-भिन्न शैलियों के वैशिष्ट्य को
रेखांकित करते हैं। इन निबन्धों में लोक-चित्रों की प्रतीकात्मकता से आम जनजीवन के
गहरे सम्बन्ध, और भिन्न-भिन्न क्षेत्र के सम्प्रदाय और
सांस्कृतिक पहचान के सूत्र उजागर हुए हैं। शेखावटी के भित्ति-चित्र जैसी समृद्ध
लोक-कला की संक्षिप्त लेकिन सूक्ष्म व्याख्या तो यहाँ है ही, साथ ही इस कला-शैली के उद्भव के संकेत
भी चौंकाने वाले हैं।
आगे की बारह प्रविष्टयों में से सात तो मराठी के लोक-गीतों, मराठी स्त्रियों के खेल-गानों, मराठी सन्तों के कूटकाव्य, मराठी लोक-कथा, मराठी व्रत-कथाओं (व्रतकथा को मराठी में
‘कहाणी’ कहा
जाता है) पर आधारित हैं,
जिनमें महाराष्ट्र
क्षेत्र की लोक-परम्पराओं का विषद् विवरण प्रस्तुत किया गया है। यहाँ तक कि ‘कहाणी’ को
महाराष्ट्र की लोक-संस्कृति का उपनिषद कहा गया है। और, सबसे प्रसन्नता की बात यह है कि ये सारी
प्रविष्टियाँ मूलतः मराठी में लिखी गई हैं। जबकि पूर्व के अवतरण में चर्चित ‘शेखावटी भित्ति-चित्र’ पर केन्द्रित लेख मूलतः गुजराती में है।
यह तो फिर भी सन्तोषदायक है कि भारत के एक जनपद की लोक-परम्परा और लोक-कला पर भारत
के दूसरे जनपद के भाषा-भाषी लिखते हैं, विडम्बना
तो तब होती है, जब भारत की लोक-परम्परा पर
गम्भीरतापूर्वक काम अंग्रेजी एवं अन्य विदेशी भाषाओं में मिलता है और हमें स्रोत
सामग्री के लिए दूसरों का मुँह जोहना पड़ता है। बहरहाल, इस खण्ड में लोक-साहित्य के इतिहास का
परिदृश्य प्रस्तुत करता आलेख भी मूल मराठी में ही है। रामचन्द्र चिन्तामण ढेरे के
इस छोटे से लेख में,
लोक-साहित्य का
प्रारम्भ नृवंशशास्त्र के रूप में माना गया है और इसकी इतिहाससम्मत व्याख्या की गई
है।
कोमल कोठारी,
सी. डब्ल्यू. वॉन
सीदोव तथा जी. एस. कर्क के एक-एक निबन्ध लोक-कथा के विभिन्न स्रोतों की व्याख्याओं
और सूचनाओं से भरे हैं। दन्तकथा,
धर्म, अनुष्ठान आदि तमाम बातों के हवाले से
तैयार किए गए ये आलेख पर्याप्त शोधोन्मुख और सूचनापरक बन पड़े हैं। वागीश कुमार
सिंह का आलेख ‘बातपोशी की बात से निकली बात’ राजस्थान की ‘बातपोशी’ की
सूचना तो देता ही है,
साथ ही ‘बतरस’ का
आनन्द लेने की अखिल भारतीय परम्परा को राजस्थान के सिलसिले से उठाकर एक प्राचीन
परम्परा का संकेत देता है। ‘जैसे केले के पात-पात में पात, वैसे ‘लोक’ के बात-बात में बात’ जैसी उक्ति सच लगने लगती है।
इसके अलावा विभिन्न क्षेत्र की जनजातियों के लोक-गीतों एवं
उनकी प्रथाओं, संस्कृतियों, संस्कारों पर आठ आलेख हैं। इन आलेखों
में आदिवासी संस्कृति के जिन संकटों की चर्चा की गई है, वे कमोबेश देश के हरेक क्षेत्र की
लोक-संस्कृति की हैं,
पर जनजातीय समुदाय का
संकट कुछ अधिक ही है। अभी भी उनमें अपनी उस थाती को बचा रखने की लालसा बची हुई है।
वे उन्हें ठीक उसी तरह बचाकर रख पा रहे हैं, जैसे
आपद-विपद आने पर बिल्ली अपने बच्चों को दाँत के सहारे पकड़ती है और कहीं सुरक्षित
जगह की ओर उठा भागती है। पर,
उस संस्कृति का सबसे
बड़ा सवाल और सबसे बड़ा संकट उस बिल्ली की तरह ही है, मार्यार-मीमांसा
की तरह। अपना आहार जुटाने में बिल्ली जिन दाँतों को हथियार बनाती है, वे ही दाँत उन्हें बच्चों को उठाने में
मदद करते हैं। मार्यार-मीमांसा में उनके वात्सल्यजन्य सुरक्षा और हत्या में उतना
ही फर्क है, जितना तृप्ति और भूख में है। जनजातीय
संस्कृति के खतरों का सीधा रिश्ता उनके जीवन-यापन के आयुध से भी है। इन दिनों जिस
तरह लोक-संस्कृतियों को भीख का कटोरा बनाने की साजिश पूरे देश में व्याप्त है, उनमें ये संस्कृतियाँ कब तक अपने वजूद
में रह पाएँगी, यह चिन्ता का विषय है। ये आलेख, लोक-काव्य से लिए गए ये गीत, और लोक-जीवन की प्रथाओं, आचारों के ये विवरण और कुछ दें चाहे न
दें, एक सहृदय पाठक को इसके महत्त्व का
ओर-छोर अवश्य ही दिखाते हैं,
इसके सम्मान एवं
संवर्द्धन के लिए प्रेरित करते हैं।
वैरियर एल्विन के दो आलेख ‘मृत्यु
के अनुष्ठान: साओरा जनजाति में’
तथा ‘यौन चेतना का विकास: बैगा जनजाति में’ विशेष महत्त्व के हैं, और काफी शोधपूर्ण एवं सन्दर्भ-सम्मत
हैं। वैरियर एल्विन की ख्याति तो उनकी अनुसन्धित्सु प्रवृत्ति के लिए है ही, जनजातीय जीवन पद्धति और मानव सभ्यता के
प्रामाणिक इतिहास के सिलसिलेवार अध्ययन-क्रम पर भी उनका विशेष अधिकार रहा है, जिसके प्रमाण इन निबन्धों में स्पष्ट
मिलते हैं। साओरा जनजाति में मृत्यूपरान्त जो भी अनुष्ठान होते हैं, उसकी न केवल उन्होंने यहाँ जानकारी
प्रस्तुत की है, बल्कि उस लोकाचार से सम्बद्ध लोक-मत और
लोक-मान्यताओं का भी सन्दर्भ सहित उल्लेख किया है। इसके साथ बैगा जनजाति में
यौनाचार पर जिस तरह की जानकारी आँकड़े सहित दी है, और
उन जानकारियों को एकत्र करने की जो पद्धति बताई है, वह
चौंकाने वाली है। पहली नजर में उनके प्राथमिक स्रोत कोई सन्दर्भ ग्रन्थ अवश्य
दिखते हैं, पर बाद में क्षेत्र-सर्वेक्षण, जन-सर्वेक्षण आदि भी करते हैं और अन्तिम
रूप से उन सब के तर्कपूर्ण अनुशीलन के साथ ही उसे प्रस्तुत करते हैं। ये दोनों
आलोख इस मायने में अत्यन्त महत्त्व के हैं।
यौन अभिप्राय पर यद्यपि डा. श्यामसुन्दर दुबे का भी एक आलेख
यहाँ है, पर उस आलेख का लक्ष्य कुछ और है। लोक की
महत्ता साबित करते हुए यहाँ डा. दुबे को उद्धृत करने का लोभ संवरण नहीं हो रहा है, ‘जिसे हम नागर-जन अश्लील मानते हैं, लोक-संस्कृति में वह अश्लील नहीं है।
उसे लोक, जीवन के सहज प्रवाह की तरह स्वीकार करता
चलता है। उसके लिए यौन-क्रियाओं की चर्चा किसी तरह की कुण्ठा का उन्मूलन नहीं है।
लोक कुण्ठाग्रस्त नहीं होता,
आदिम लोक-संस्कृति
में यौनक्रियाएँ, यौनसम्बन्ध, और यौन-चर्चा अगोपनीय हैं।’ वाकई लोक-कण्ठ में बसे असंख्य गीतों और
लोक-वाणी में प्रचलित असंख्य लोकोक्तियों, मुहावरों
में यौन प्रसंग की उन्मुक्त चर्चा है। दरअसल सृष्टि का कारण काम-क्रीड़ा है, मन अनुरंजन और आनन्दातिरेक का साधन
कामक्रीड़ा है, और चूँकि जीवन की अन्य क्रियाओं की तरह
इसका कोई प्रशिक्षण नहीं होता,
इसलिए ‘काम-केलि की रस-विदग्धता से नितान्त
अपरिचित नए जोड़े को हम इस विज्ञान से परिचित कराने के लिए लोक-गीत, लोक-शिक्षक की तरह इस्तेमाल करते हैं
(लोक/पृ. 571)।’ वैसे
भी लोक-जीवन की अगोपनीयता-गोपनीयता की सीमाओं का निर्धारण जटिल है। निर्बन्ध होना
इसका सौन्दर्य भी है और जीवन्तता भी।
राजस्थान की लोक-संस्कृति पर संकलित चार प्रवृष्टियों में से
दो में राजस्थानी के सोलह लोक-गीत (हिन्दी अनुवाद सहित मूल) प्रस्तुत किए गए हैं।
विख्यात रचनाकार चन्द्रप्रकाश देवल और नन्द भारद्वाज द्वारा प्रस्तुत किया गया यह
अनूठा काम राजस्थानी लोक-गीतों में लोक-जीवन की धड़कनों की वास्तविक झाँकी प्रस्तुत
करता है। गृहस्थ जीवन के मांगलिक अवसरों पर गाए जाने वाले ये ‘बधावे’, केवल
गीत ही नहीं, यहाँ जीवन के गम्भीर प्रतीकार्थ द्योतित
हैं। लोक-गीतों में पारिवारिक सम्बन्ध, सम्बन्ध
के अनुकूल हास्य विनोद,
ऋतु के अनुकूल
वातावरण, कृषिकर्म के सूत्र, शृंगार के उत्कर्ष, पशु-पक्षी-प्रकृति की सुषमा और दैनन्दिन
जीवन की गतिविधियाँ जीवन्त हो उठी हैं। प्रीतम के आगमन का सन्देश कौवे से पूछती
हुई रसवन्ती विभोर हो उठती हैं। दूसरी ओर अन्य दो आलेखों में इतिहास और मिथक के
सहारे साम्प्रदायिक संश्लिष्टीकरण और सामूहिक सम्बन्धों का पर्याप्त संकेत
राजस्थानी लोक-गीतों में और लेाक-प्रथाओं में दिखाया गया है। ‘मेवों की महाभारत’ में ‘देवल
कथा’ के जरिए, और
लोक-संगीत की व्याख्या करते हुए ‘घूमर’, ‘लूर’, ‘गवरी’ आदि
नृत्य नाटिका के जरिए लोक-प्रथा की विरासत के ऐसे धरोहरों का संकेत दिया गया है, जो न केवल आज के लिए, बल्कि भावी पीढ़ियों के लिए भी
प्रेरणादायी स्रोत और दस्तावेज के रूप में उपयोगी हैं।
पंजाब क्षेत्र के लोक-गीतों पर दो आलेख हैं, जिसके आधार पर एक संकेत तो यह मिलता है
कि यहाँ सुख चैन के माहौल कुछ ज्यादा ही हैं, प्रेम
में भी अनुरंजन की स्थिति पर्याप्त है, वियोग
की गुंजाईश विरले ही है। पर,
यह एक बड़ा संकेत है
कि इन लोक-गीतों में जीवन के प्रति उल्लास और उमंग की भावनाएँ अधिक हैं और मनुष्य
को इस तरह का जीवन जीना चाहिए।
बंगाल के लोक-जीवन की परम्पराओं-प्रथाओं-संस्कृतियों को तीन
आलेखों में व्याख्यायित किया गया है। यहाँ जनमत और जनविश्वास के जरिए
लोक-संस्कारों की भिन्न-भन्न स्थितियों का विवरण है, दूसरी
ओर लोक-गीतों के उद्भव का केन्द्र लोक-जीवन को मानकर कहा गया है कि ‘लोक-गीत लोक-जीवन की दलील है। ...जरूरत
पड़ने पर लोक-गीत प्रतिवाद के अस्त्र में परिणति हो जाते हैं।...परिवार, समाज, शासक
कुल, ईश्वर, अल्लाह--ये
सभी प्रतिवाद के दायरे में हैं (पृ.314)।’ बंगला लोक-गीतों के कुछ उदाहरण जो दिए
गए हैं, वे इस बात को प्रमाणित भी करते हैं। और
यहीं आकर यह बात सच साबित होती है कि, लोक-जीवन
की पद्धतियाँ वाकई बड़ी ईमानदार,
तटस्थ और नर्भीक होती
हैं। निर्बन्ध और निद्र्वन्द्व होती हैं।
इसके अलावा गुजरात, केरल, आन्ध्र प्रदेश, ब्रज, भोजपुर, बुन्देलखण्ड आदि क्षेत्र की
लोक-संस्कृति से सम्बन्धित आलेख कम हैं, पर
इस अभाव में भी वहाँ की सम्पन्न विरासत का पर्याप्त संकेत यहाँ है। कुछ आलेखों में
संस्कृत साहित्य के सूत्रों की व्याख्या और कुछ में मिथक, पुराण, इतिहास
तथा लोक-देवता और लोक-मान्यता के स्रोतों से लोक-जीवन की प्रथाओं और आधारों की
व्याख्या की गई है। ऐसे आलेख किसी क्षेत्र विशेष के न होकर पूरे भारत के जनपद में
लोक-परम्पराओं के मौलिक स्रोतों की जानकारी देते हैं। लोक- परम्पराओं की व्याख्या
यहाँ ज्यादातर सैद्धान्तिक ही है,
कुछ व्यावहारिक भी।
ये सारे आलेख अपने में पूर्ण होने के बावजूद एक वृहद व्याख्या के सू़त्र छोड़ जाते
हैं।
रंगमंच की लोक-परम्परा और आधुनिक रंगमंच की बारीकियों को
चन्द्रशेखर खम्बार और हँसमुख बराड़ी के दो आलेखों में बड़ी गम्भीरता से अंकित किया
गया है। यहाँ लोक-नाट्य के कुछ मूल बिन्दुओं पर प्रकाश डाला गया है और लोक-जीवन की
वास्तविकताओं से उसके सम्बन्ध की व्याख्या की गई है। इस आलेख से एक महत्त्वपूर्ण
पहलू जो सामने आता है कि लोक-नाट्य का मूल लक्ष्य केवल लोकानुरंजन ही नहीं, बल्कि एक खास तरीके से सामाजिक सरोकारों
को मजबूती देना भी होता है। दूसरे आलेख में ‘भवई
लोक-नाट्य परम्परा’
के सैकड़ो स्वांगों
(वेशों) की चर्चा की गई है और चित्तौड़ के बहादुर योद्धा वीकाजी के स्वांग का अविकल
प्रकाशन किया गया है। इस स्वांग की पटकथा की शैली कई महत्त्वपूर्ण बातों का संकेत
देती है।
भानु भारती द्वारा एक छोटे से राइट-अप के साथ कुछ छाया-चित्र
प्रस्तुत किए गए हैं--‘गवरी: एक छायालेख।’ ‘गवरी’, गौरी
का ग्राम्य उच्चारण है। गौरी को भील समुदाय, भील-कन्या
मानते हैं और ये लोग गवरी-अनुष्ठान करते हैं। अनुष्ठान के कुछ प्रसंगों के चित्र
और उस दौरान किए गए कुछ करतबों-प्रस्तुतियों-भंगिमाओं एवं लोक-कलाओं के चित्रों का
सिलसिलेवार संकलन-समायोजन इस आलेख में इतना प्रभावकारी है कि बहुत कम जगह में ये
चित्र एक दीर्घकथा और विराट परम्परा की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। लोक-कला के
वैविध्य की ऐसी जबर्दस्त प्रस्तुति मनोहारी है।
किन्तु,
देवीलाल सामर का
पुनर्मूल्यांकन और लोक-परम्परा के अनुरक्षण में समर्पित दो विराट शख्शियत कोमल
कोठारी एवं हबीब तनवीर से बातचीत का प्रकाशन इस संकलन की गुणवत्ता को और भी
उत्कर्ष देता है। मात्र ये तीन प्रविष्टियाँ ही एक मुकम्मल किताब का काम करती हैं।
इस बातचीत में बातें तो यद्यपि कोमल कोठारी और हबीब तनवीर की गई हैं, पर इनके इन उत्तरों में उदय प्रकाश और
शम्पा शाह के प्रश्नों की भूमिका भी प्रबल मानी जाएगी। कोमल कोठारी, समूह-संस्कृति (मास कल्चर), लोकप्रिय संस्कृति (पॉपुलर कल्चर) और
पारम्परिक संस्कृति (ट्रैडीशनल कल्चर) से बात शुरू करते हैं और गरबा, डाण्डिया (गुजराती लोक-नृत्य) के
तन्तुओं पर चर्चा करते हुए,
भिन्न-भिन्न प्रान्त
की लोक-परम्पराओं पर आते हैं और घोषित करते हैं कि ‘फोकलोर
या लोकाख्यान के अन्दर कोई भी विषय ऐसा नहीं है, जिसका
स्वरूप अखिल भारतीय न हो या अखिल विश्व का न हो। चाहे वह संगीत हो, चाहे कथा हो, चाहे महाकाव्य (एपिक) हो या और कुछ हो।’ पर आज के उत्तरआधुनिक सामाजिक सोच और
उपभोक्ता संस्कृति के दबाव में लोक-कला और लोक-परम्परा की दशा दयनीय है। यहाँ तक
कि लोक-कला का जो ज्ञान पहले पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होता था, उससे अब नई पीढ़ी को अरुचि पैदा हो गई
है। लोक-परम्पराओं के प्रति उपेक्षा का यह भाव वस्तुतः हमें अपनी जड़ से काट रहा
है। कोमल कोठारी लम्बे समय से इस विषय पर सोचते आए हैं, इस बातचीत में आज के समय में ‘लोक’ की
दिशा पर गम्भीरतापूर्वक दिए गए उनके विचार हमें कई तरह से सावधान करते हैं।
लोक कलाकारों के जरिए अभिनय कराने की एक अलग ही शैली विकसित कर
देने वाले हबीब तनवीर,
रंगकर्म की दुनिया
में ऐसे व्यक्ति हैं,
जिन्होंने शास्त्रीय
नाटक की भी प्रस्तुति लोक-शैली में की है और वह प्रस्तुति जीवन्त हो उठी है। शम्पा
शाह के साथ बातचीत करते हुए उन्होंने, देश-विदेश
की परम्पराओं और भाव-भंगिमाओं,
भाषा-साहित्यों, कृति-कृतिकारों से तमाम परिचय के बावजूद
अपने क्षेत्र की मिट्टी,
पानी और बानी को
महत्त्वपूर्ण माना है। उन्होंने तो यहाँ तक कहा कि ‘छत्तीसगढ़ी
कलाकारों के साथ हिन्दी में नाटक करने से बात बनती नहीं। वही कलाकार जो अपनी भाषा
में बेबाक, दमदार, खुलेपन
से संवाद बोलते हैं,
वे ही कलाकार हिन्दी
में संवाद बोलते हुए डरे-डरे से मालूम होते हैं।’ गरज
यह कि ‘लोक’ के
तत्त्वों में एक क्षेत्रीय ताकत भी होती है। लोक-रंगमंच के सम्बन्ध में देशव्यापी
स्थिति पर चर्चा करते हुए अपने क्षेत्र के बादशाह हबीब तनवीर ने अपनी बात
लोक-शैलियों के एक विराट वैशिष्ट्य पर उँगली रखते हुए समाप्त की है कि जीवन की
तमाम बारीकियाँ और सचाइयाँ ही यथार्थ हैं और उसका हू-ब-हू चित्रण लोक-शैली में ही
हो सकता है, क्योंकि वहाँ कल्पना की गुंंजाइश नहीं
है।
आज के विश्व-बाजार की कल्पना, बेवजह
की रंगीनी, और फैण्टेसी की तरफ बेतहाशा भागते हुए
नागरिक की जीवन-प्रक्रिया में लोक-शैली ही ऐसी सहायिका है, जो जीवन में स्थिरता दे सकती है। ऐसे
में शास्त्रीय संगीत-नृत्य के बरक्स लोक-संगीत और लोक-नृत्य को मजबूती से खड़ा करने
वाले देवीलाल सामर की देन को रेखांकित करता, मोहन
कृष्ण बोहरा का आलेख एक महत्त्वपूर्ण और जरूरी उद्यम है। इस आलेख में लोक-नाट्य के
प्रारम्भिक स्वरूप पर चिन्तन-मनन से लेकर उसके भिन्न-भिन्न तत्त्वों, स्वरूपों पर विचार किया गया है और साथ
ही उस दिशा में देवीलाल सामर की चिन्तन-प्रक्रिया को रेखांकित किया गया है। सामर
जी की चिन्ता में लोक-कलाओं का भविष्य प्रश्नवाचक स्थिति में है। सत्य तो यह है कि
जिस कला और परम्परा को जीवनी शक्ति ‘लोक’ में मिलती है, उसका परिरक्षण और संवर्द्धन वहीं हो
सकता है, उसकी आवृति से, उसके प्रदर्शन से। संग्रहालय-अभिलेखागार
और ऑडियो-विजुअल कैसेट में उसकी सुरक्षा तो हो जाएगी, पर वह जीवन्त नहीं रह पाएगी, वह ठहर जाएगी। लोक-परम्परा की जीवन्तता
और मौलिकता, उसकी गतिशीलता ही है, और यह उसे लोक-जीवन के साथ ढलते-बदलते
हुए ही मिलेगी।
पर इस पूरे संकलन के इतने बड़े महत्त्वाकांक्षी काम के बावजूद, क्या हमलोग परम्परा के वास्तविक
परिरक्षण के प्रति आश्वस्त हो पाएँगे? यह
प्रश्न हमारे सामने सुरसा के मुँह की तरह खड़ा है। इसके रक्षण-संवर्द्धन की सबसे
बड़ी ताकत होगी, इसके प्रति हमारी अनुरक्ति। इसे
संग्रहालय में रखकर हम सुरक्षित नहीं रख सकते। और हमें अन्ततः यह भी मानकर चलना
चाहिए कि काश! विकास के उद्दाम प्रवाह में लोक-परम्परा को हमने यदि संग्रहालय की
चीज नहीं मान लिया होता,
उसे लोक-जीवन का
अनुषंग माना होता, तो जीवन-क्रम में आज की असुविधाएँ हमारे
सामने न आई होतीं, मानवता का इस कदर लोप न हुआ होता, हमारी भावनाएँ स्वार्थ केन्द्रित न हुई
होतीं। बहरहाल, कहीं-कहीं अनुवादजन्य कुछ असुविधाओं को
किनारे कर देखें तो यह संकलन हमें अपनी खोई हुई तमाम विरासत के नजदीक, वापस पहुँचाने का आकर ग्रन्थ साबित होता
है। संकलक/सम्पादक श्री पीयूष दईया को धन्यवाद और भारतीय जनता को इस हेतु बधाइयाँ
दी जानी चाहिए।
लोक-जीवन के अलौकिक
रंग,
रंग
प्रसंग,
नई
दिल्ली,
जनवरी-जून, 2003
लोक/पीयूष दईया(सम्पा)/भारतीय लोक कलामण्डल, उदयपुर(प्रका.)/पृ.702/रु.750/
कमाल की समीक्षा है सर। इस बेहतरीन पुस्तक से परिचित कराने के लिए आभार।
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