कहानी,
कविता, निबन्ध, उपन्यास, आत्मकथा एवं अन्य चिन्तनपरक निबन्धों के
सत्तर से अधिक प्रकाशित संकलनों की प्रख्यात रचयिता अमृता प्रीतम के लिए यह कहना
अब ओछापन होगा कि ये मात्र पंजाबी साहित्य की महान लेखिका हैं। इस उत्कर्ष पर
पहुँची लेखिका अमृता प्रीतम सम्पूर्ण भारतीय साहित्य की धरोहर हैं। सन् 1956 में उन्हें ‘सुनहरे’ कविता
संग्रह के लिए साहित्य अकादेमी पुरस्कार से और सन् 1982
में भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। ज्ञानपीठ पुरस्कार उनकी
कविताओं का संग्रह ‘कागज ते कैनबस’ के लिए दिया गया था। अब तक संसार की चौंतीस
भाषाओं में उनकी कृतियाँ अनूदित हो चुकी हैं, कई
देशी-विदेशी पुरस्कारों से और उपाधियों से उन्हें नवाजा जा चुका है और कई देशों की
यात्रएँ कर चुकी हैं।
कुछ समय पूर्व उनकी पुस्तक ‘काया
के दामन में’ छपकर सामने आईं, तो पाठकों के मन में एक आत्मीय ललक, आतुरता स्वभावतः आई। कुल तेइस निबन्धों
के इस संकलन में यकीनन लोगों ने ‘रसीदी टिकट’ अथवा अन्य ऐसी ही कृतियों के अनुभवों को
तलाशना शुरू किया। अगस्त 1919 की अन्तिम तिथि को उनका जन्म हुआ।
जुलाई 1930 की अन्तिम तारीख को जब उनकी माँ का
देहान्त हुआ, उस समय अमृता अपने जीवन के ग्यारह वर्ष
पूरे करने वाली थी। कच्ची उम्र की इसी दहलीज पर उन्हें जीवन के कटु यथार्थ का
परिचय मिला था। और उसी दिन उन्होंने तय कर लिया था कि ‘ईश्वर किसी की नहीं सुनता, बच्चों की भी नहीं।’ उसी दिन उन्होंने तय किया था कि ‘ईश्वर कोई नहीं होता, अगर वह होता तो मेरी बात न सुनता?’ ‘काया के दामन में’ पुस्तक में संकलित सारे निबन्ध अमृता के
पूरे जीवनानुभव की कसौटी पर जाँचा परखा हुआ वह दर्शन है, जो पाठकों को अपेक्षाकृत कम उम्र में ही
जीवन की सचाइयों की अवगति दे सकता है। दार्शनिक अभिधेयार्थ के साथ लिखे इन
निबन्धों का बीजारोपण अमृता में जीवन के ग्यारहवें वर्ष में ही हो गया था।
अमृता का पूरा लेखन एक तरफ सामाजिक अन्याय की तपिश में झुलसते
इनसान और भावुकता की उड़ान में प्रथम प्रेम में प्रवंचना की शिकार होती स्त्री की
तरफदारी करता है तो दूसरी तरफ जीवन के घात-प्रतिघात, अभिशाप-वरदान, जीवन के दुखद यथार्थ और सम्भावित उल्लास
का उदाहरण लेकर उनके पात्र पाठकों के सामने उपस्थित होते रहे हैं। ‘काया के दामन में’ में उनके जितने निबन्ध संकलित हैं, वे सबके सब अचानक उनके पिछले तेवर से
अलग हैं। यूँ अपने पूर्व लेखन में वे इस तरह के संकेत देती रही हैं। उन्होंने एक
जगह साफ कहा है, ‘जिन्दगी जाने कैसी किताब है, जिसकी इबारत अक्षर-अक्षर बनती है, जिसके साथ हर हादसा एक वह कड़ी बनकर
सामने आता है, जिस पर किसी ‘मैं’ को
पैर रखकर ‘मैं’ के
पार जाना होता है।’
दुनिया भर के इतिहास, पुराण, मिथक, धर्म, दर्शन
आदि के हवाले से अमृता ने जिन्दगी की जिन वास्तविकताओं का संकेत किया है, वह सचमुच एक दीर्घ जीवन को असंख्य
झंझावातों और यात्राओं के अनुभवों का नवनीत है।
‘काया
के दामन में’ शीर्षक से दो निबन्ध इसमें संकलित हैं, जिनमें से एक में लेखिका ने अत्रि ऋषि
द्वारा अग्निवेश को काया-तन्त्र का रहस्य समझाने की प्राचीन गाथा के हवाले से यह
चित्रित किया है कि ‘इस कलिकाल की बेला में मूर्छित-से पड़े
हुए काया के इस दामन’
में बहुत सी
सम्भावनाएँ हैं। और,
दूसरे में एक यूनानी
मिथक की तुलना एक भारतीय मिथक से करते हुए पूरब और पश्चिम की मान्यताओं के सादृश्य
की चर्चा की है। इन दोनों आलेखों को बहैसियत इस पुस्तक की भूमिका के रूप में भी
लिया जा सकता है। बाकी के निबन्धों में काया के दामन में पड़े रंगों, सितारों, चाँद, विरासत, खयालों, खामोशियों, स्मरणों, चेतनाओं
के साये पर दुनिया भर की पुस्तकों,
विद्वानों, चिन्तकों के कथनों के सहारे चित्रित
किया गया है। मनुष्य के जीवन में रंगों की पसन्द किस तरह उसके स्वभाव, संस्कार और प्रवृत्तियों को द्योतित
करती है, एनी बिसेंट, सी.डब्ल्यू.लैण्ड बीटर, रजनीश आदि के चिन्तनों और अपने अनुभवों
के सहारे लेखिका ने इसको प्रमाणित किया है और अन्त में नीले रंग को रूहानी अहसास
कहते हुए बताया है कि भारतीय चिन्तन ने कृष्ण की काया के नीले रंग को परम अवस्था
का प्रतीक क्यों माना है।
इस पुस्तक में संकलित तमाम निबन्धों में लेखिका ने यही बात
कहने की कोशिश की है कि इस काया के दामन में वह सब कुछ है, कायदे से देखा जाए, तो वह सारा कुछ, जो बाहर दिखता है अथवा दुनिया भर में
मनुष्य की हरकतों में दिखाई देता है, उसकी
केन्द्रीय शक्ति काया के दामन में बैठी है। और, ये
बातें लेखिका ने किसी अन्धविश्वास और रूढ़िग्रस्तता की बैसाखी के सहारे नहीं, पूरब और पश्चिम के तमाम चिन्तकों के
चिन्तनों, अपने और जीवन को संगति-विसंगति, प्रेम-प्रतिष्ठा, समय-सहचरता देने वाले तमाम मित्रों, रिश्तेदारों, परिचितों, पड़ोसियों, आदर्शों के साथ उठते-बैठते, बात करते हुए प्राप्त जीवनानुभवों की
प्रमुख बुनियाद पर कही हैं,
इन्हें झुठलाया नहीं
जा सकता, इन निचोड़ों का विकल्प नहीं रखा जा सकता।
‘दामन
में बैठी कृष्ण चेतना’,
‘दामन में उतरती
कायनात की ध्वनि’ और ‘दामन
में उतरती काल की परछाइयाँ’--ये तीनों निबन्ध इस संकलन में विशेष
महत्त्व के हैं, यूँ ऐसा कहने से अन्य निबन्धों का
महत्त्व कम नहीं हो जाता। ‘काल की परछाइयाँ’ वाले निबन्ध में लेखिका ने रजनीश के एक
शिष्य और अपने परिचित ध्यानयोगी कुणाल की डायरी के हवाले से ध्यान में उतरने के
बाद काल के न जाने कितने चेहरों का दर्शन कराया है, यह
अनुभव चकित करता है कुछ ‘अति प्रगतिशील’ विचारधारा वाले लोगों को सम्भव है कि
अमृता के ये निबन्ध ‘हारे को हरिनाम’ जैसे लगें, सम्भव है कि वे ये समझें कि चौथेपन में
शायद हर कोई वैराग्य और आत्मा-परमात्मा की बात करने लगता है। पर अमृता के लेखन में
संकेत रूप में इन बातों के सूत्र पहले भी मिलते रहे हैं। इन निबन्धों में गीता-सार
की तरह जो कुछ भी कहा गया है,
वह खोखला नहीं है, ठोस है। कृष्ण चेतना और रजनीश के
चिन्तनों का अमृता के जीवन-दर्शन पर पर्याप्त प्रभाव है, यह बात छनकर इन निबन्धों से आती है।
हाँ,
यह भी सच है कि इस
पुस्तक की भाषा थोड़ी बोझिल हैं,
यूँ हिन्दी लिखते समय
अमृता की भाषा में उर्दू और पंजाबी शब्दों की भरमार हर जगह रहती आई है। पर हर
रचनाकार को अपने पाठकों का दर्द समझना चाहिए। कथात्मक कृतियों में थोड़े से अपरिचित
शब्द भी रहें तो वे अखरते नहीं,
अर्थ सम्प्रेषण में
बाधक नहीं होते, परन्तु चिन्तन-दर्शन-उपदेश का पाठ
प्रस्तुत करने वाली किसी पुस्तक के एक-एक शब्द के नेपथ्य-सम्मुख से पूरी तरह पाठक
परिचित न हो, तो वह पुस्तक ऊब पैदा करेगी और इस
पुस्तक का दोष यह है। इस पुस्तक में जहाँ-तहाँ पंजाबी ठाठ की हिन्दी का उपयोग किया
है, मसलन ‘मैंने
जाना है’, जाहिर है कि इस तरह का भाषा-प्रयोग किसी
भी भाषा का अहित करता है। अमृता बहुत महान लेखिका हैं, यह मानने में संसार में किसी को द्वैध
नहीं है। पर भाषा को डाइल्यूट करने के लिए यह पुस्तक यदि अमृता के किसी हिन्दी दाँ
शिष्य को दी गई होती,
तो शायद इन निबन्धों
से ऊब निकल जाती। बहरहाल,
इस पुस्तक को निश्चित
रूप से गीता-सार की तरह ही लिया जाना चहिए। कहा जा सकता है कि कई मायने में यह
गीता-सार से भी आगे है,
क्योंकि गीता, मात्र कृष्ण का उपदेश है, पर यह पुस्तक उपदेश नहीं, दुनिया भर के श्रेष्ठ और सामान्य और अति
सामान्य व्यक्तियों के जीवन के दर्शन का निचोड़। इस रूप में यह उपदेश नहीं, उदाहरण है। पाठक इसे जैसे चाहें पढ़ें, मिले तो घी, वर्ना शक्कर।
काया के दामन
में/अमृता प्रीतम/किताबघर प्रकाशन/रु.90.00/पृ-132
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