कविता ही खोलेगी कपाट
दिनेश कुमार शुक्ल का कविता संग्रह 'कभी तो खुलें कपाट'
हिन्दी के पाठकों को ध्यान में रखते हुए यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि कविता में छन्द-मुक्ति का
दौर आने के बाद कविता की दशा यह आ गई कि सबसे अधिक लोकप्रिय विधा कविता आज सबसे
अधिक अलोकप्रिय होने लगी है। कविता से लोग दूर भागने लगे हैं। दिनेश कुमार शुक्ल
के संग्रह ‘कभी तो खुलें कपाट’ की कविताएँ इस स्थिति को खण्डित करती
हैं। सही कहा गया है कि ‘पिछले कुछ वर्षों से लिखी जा रही हिन्दी
कविता पाठकों से दूर होती गई है। अपनी परम्परा, आन्तरिक
लय और जन-जीवन से कटी हुई कविता कब प्राणहीन शब्द जाल बन गई इसका काल निर्धारण
करना बहुत कठिन नहीं
है। परिणाम यह हुआ कि
हिन्दी साहित्य की सबसे पुरानी और लोकप्रिय विधा धीरे-धीरे सबसे अधिक अलोकप्रिय, दम्भपूर्ण और हास्यास्पद होती गई।
हिन्दी कविता का यह संकट भाषा का संकट भी बन सकता है।...ऐसे कठिन समय में दिनेश
कुमार शुक्ल की कविताएँ पौधे की तरह लोक-जीवन की धरती पर पनपी हैं और अपना जीवन रस
वहीं से प्राप्त करती हैं।’
इस संग्रह में संकलित तिरपन कविताओं में कवि सबसे अधिक
प्रतिबद्ध, समाज और अपने आस-पास के जनजीवन के प्रति
दिखते हैं। और, यही कारण है कि उनके सामाजिक सरोकारों
के गुणसूत्र उनकी कविताओं के रचाव में आ बसे हैं। अग्नि, जल, क्षिति; भूख-प्यास-प्रकाश; हृदय-भावना-मनोवेग...इन कविताओं की
पंक्तियों में अपने पूरे वजूद और अपने मौलिक अर्थों में उपस्थित हैं। नीम और हल्दी
के पेटेण्ट की बात जब चली थी तो बुद्धिवाद के सहारे बड़ी लच्छेदार बातें होती थीं, पर दिनेश का क्लेश इस बात को लेकर मानव
जीवन के दैनन्दिन क्रिया-कलापों से होता हुआ हमारे लोकाचार तक चला गया:
घूमेंगे अशौच दशा में
नीम की दातून किए बिना लोग
लड़कियाँ कुँवारी रह जाएँगी
नहीं चढे़गी हल्दी, क्योंकि अब...
उपभोक्तावाद के फैलते साम्राज्य को लेकर दिनेश का इस कदर
चिन्तित होना, पाठकों को तमाम खतरों के साथ कविता की
उपयोगिता से जोड़ता है।
चीखता है अर्थदानव...
कि कवि को मार डालो...
वह लोगों को बोलना
व पे्रम करना सिखाते हुए
पकड़ा गया है कई बार(अवध्य नहीं है कवि)
इन पंक्तियों में दिनेश कवि-कर्म का वास्तविक संकेत और कवि
कर्म पर उठी आवाजों की चर्चा कर वस्तुतः अपने समय का चित्र जीवन्त करते प्रतीत
होते हैं। वाकई यदि कोई कवि या उसकी कविता समाज को दखलन्दाजी करना या कि बोलना और
पे्रम करना सिखा दे,
तो जीवन में मनुष्य
को और कुछ सीखने की आवश्यकता नहीं रह
जाती। मानव जीवन के सौविध्य में ऐसी दखलन्दाजी, बोलने
और पे्रम करने की ऐसी बुनियाद कबीर के यहाँ रखी गई थी। नामवर सिंह के हवाले से
कहना सुसंगत होगा कि ‘जो अग्नि निराला-नागार्जुन से होती हुई
मुक्तिबोध और धूमिल में कल तक जल रही थी वह आज भी बुझी नहीं है। बीच में थोड़ी शंका होने लगी थी।
कविता पर कला का शौक ऐसा चढ़ा कि कवि के शब्दों में सब कुछ था, बस अग्नि नहीं थी।...कविता जब दूर की कौड़ी लाने के
चक्कर में पड़ती है तो अपने आसपास की दुनियाँ से दूर चली जाती है।’ बल्कि यह अग्नि कबीर के यहाँ से चलकर
लम्बी दूरी तय कर दिनेश की कविताई में सुरक्षित है--
भूख बनकर
दहक रही थी अग्नि
लाखों उदर कन्दराओं में
अपनी तमाम कविताई में वाकई दिनेश दूर की कौड़ी लाने के चक्कर
में नहीं पड़ते, वे
अपने आस-पास की दुनियाँ में काबिज रहते हैं, लिहाजा, ये कविताएँ जनजीवन की असली प्रतिकृति बन
पाती है और पाठकों को लगता है कि हमारा सब कुछ--अग्नि, जल, क्षिति...भावना, मनोवेग, अन्तर्व्यथा...सारा-का-सारा
यहीं है।
दिनेश की ये कविताएँ वक्त-बेवक्त केवल अपने आस-पास ही नहीं, अपनी सम्पूर्ण साहित्यिक परम्पराओं से
भी जुड़ी रहती हैं। रहीम और हमारे अन्य कई निर्माताओं के यहाँ जो कुछ सर्वोत्तम था, वह अपने गम्भीर अतीत के साथ यहाँ मौजूद
है। जहाँ बिना पानी के रहीम ने जीवन को ही निस्सार बताया, वहाँ दिनेश का अनावृष्टि के हवाले से
कहना है--
पानी कहीं नहीं है
सिर्फ पे्रत आत्माओं के
फव्वारों के मायाजाल को छोड़कर
बादल वृक्ष पशु आदमी
निपानी कर दिए गए हैं--
हीरे का जैसे उतरते ही पानी
वह बन जाता कोयला
फर्क सिर्फ इतना है कि दिनेश आज के माहौल को देखते हुए उपदेश
या सलाह देने की आवश्यकता नहीं समझते, स्थितियाँ सम्प्रेषित कर देते हैं। और, आज जहाँ लोग साँसों के जोर से फूँक-फूँक
कर भटके मानसून को फिर से आकाश में वापस खींच लाने को तैयार हो जाते हैं, खुद-ब-खुद, वहाँ सलाह या उपदेश की आवश्यकता प्रतीत
नहीं होती।
वस्तुतः दिनेश की कविता प्रश्नाकुलता, उद्यम करने की आतुरता, खबर देने की सचेतनता और खबर लेने की
जाग्रतता एवं मानवीयता की कविता है। आज की कविता यदि इतना ही करती रही, तो कविता को दूर की कौड़ी लाने की जरूरत
कभी नहीं होगी, वह
आप से आप जनजीवन में बसी रहेगी,
सुसुप्त जनता के
दरवाजे पर दस्तक देती रहेगी। और,
लगातार दस्तक पडे़गी, तो कभी न कभी तो खुलेंगे ही कपाट!
कविता ही खोलेगी कपाट, इण्डिया टुडे
कभी तो खुलें
कपाट/दिनेश कुमार शुक्ल/अनामिका प्रकाशन, इलाहाबाद/पृ. 144/मू. 50/-
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