स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी कहानी-लेखन की बात मन्नू भण्डारी की
चर्चा किए बिना असम्भव है। जटिलताओं के आक्षेप से दबे नई कहानी आन्दोलन के दौर की
कहानियों की सक्रिय लेखिका होने के बावजूद उनकी कहानियाँ सदैव जटिलताओं से परे
रहीं। सच्चे अर्थों में आम पाठकों का प्यार पाती रहीं। आम पाठक का मतलब एकदम आम, किसी भी तरह से खास नहीं। लोग कहते रहें
कि जिस तरह संगीत-सभा में बैठने के लिए लयसिद्ध होना आवश्यक है, उसी तरह साहित्य के अवगाहन के लिए
रससिद्ध होना आवश्यक है--मन्नू भण्डारी की कहानियों का पाठक इस टिप्पणी को खारिज
करता है। बिना किसी कलाबाजी और बौद्धिकता के घटाटोप के उनकी कहानियाँ सहज लय में
उठती हैं, तथा मनुष्य की दिनचर्या अथवा
साँस-प्रक्रिया की तरह लगातार अपने गसाव के साथ पूरी हो जाती हैं, कहीं कोई दर्शन-सूत्र का बोझ नहीं, कथन-भंगिमा की बहु-परतीय व्यवस्था नहीं, गन्ने से निचोड़-निचोड़कर अर्थ और रस
निकालने के बौद्धिक-उद्यम का प्रयोजन नहीं...बड़ी से बड़ी बात आसान से आसान लहजे में
उनकी कहानियाँ कहती रही हैं। विषय के प्रति उनकी कथन भंगिमा के सहज बर्ताव के कारण
ही सम्भवतः उनकी कृति फिल्मिस्तानियों को भी आकर्षित कर पाई।
पिछले दिनों जब उनकी पुस्तक ‘एक
कहानी यह भी’ प्रकाशित हुई, तो लोगों को उनके बारे में फिर से सोचने
की आवश्यकता हुई। इस पुस्तक के बारे में कहा गया कि यह उनकी आत्मकथा नहीं है, लेकिन इसमें उनके भावात्मक और सांसारिक
जीवन के उन पहलुओं पर भरपूर प्रकाश पड़ता है, जो
उनकी रचना-यात्रा में निर्णायक रहे। एक ख्यातनाम लेखक की जीवन-संगिनी होने का
रोमांच और एक जिद्दी पति की पत्नी होने की बाधाएँ...ऐसे कई-कई विरोधाभासों के बीच
से मन्नू जी लगातार गुजरती रहीं...। पुस्तक के स्पष्टीकरण अंश में स्वयं मन्नूजी
कहती हैं कि उनके लेखकीय व्यक्तित्व को निस्सन्देह राजेन्द्र यादव (मन्नू जी के
पति और हिन्दी के श्रेष्ठ कथाकार) ने प्रेरित, प्रोत्साहित
किया, उनके साथ होने वाली गप्प-गोष्ठियाँ उनके
लिए प्रेरणा-स्रोत बनीं। पर उनके व्यक्तित्व के पत्नी-रूप पर उन्होंने जो और जैसा
प्रहार किया, उससे उनके लेखन का आत्मविश्वास निरन्तर
खण्डित हुआ, और इस कारण उनके लेखन में आए गतिरोध के
सिलसिले से विराम लग गया।...प्रश्न उठता है कि इस पुस्तक में इतना कुछ लिख लेने से
क्या वह विराम और गतिरोध मिट गया?
पुस्तक के ब्लर्ब में लिखा गया है कि ‘यह आत्मस्मरण मन्नू जी की
जीवन-स्थितियों के साथ-साथ उनके दौर की कई साहित्यिक-सामाजिक और राजनीतिक
परिस्थितियों पर भी रोशनी डालता है और नई कहानी के दौर की रचनात्मक बेकली और
तत्कालीन लेखकों की ऊँचाइयों-नीचाइयों से भी परिचित कराता है। साथ ही उन परिवेशगत
स्थितियों को भी पाठक के सामने रखता है, जिन्होंने
उनकी संवेदना को झकझोरा।’
एकदम सही है। बचपन से
लेकर 76 वर्ष की आयु तक में एक सहज और सुलझी
हुई लेखिका ने जीवन के कौन-कौन से पड़ाव देखे, कितनों
को जाना-पहचाना, पूर्ववर्ती से अनुवर्ती पीढ़ियों के साथ
उठते-बैठते अपनी पीढ़ी के तमाम लेखकों के छल-छद्म प्रपंच-प्रवाद, तटस्थता-प्रतिबद्धता ... सारा कुछ अपनी
आँखों से कैसे देखा;
किसकी सादगी, तल्लीनता और ईमानदारी से लेखिका की
आँखों में चमक आई; और किसके प्रपंच-दुराचार से मन बैठता
रहा, आहत होती रहीं... ये सारी बातें बेबाक
ढंग से इस पुस्तक में चित्रित हैं। इस पूरे अन्तराल की साहित्यिक गतिविधियों का
आँखों देखा हाल यहाँ उल्लिखित है। नई पीढ़ी के पाठकों को इन सारे तथ्यों के
वास्तविक चित्र का परिचय मिला है। कथन भंगिमा ही सारी घटनाओं की वास्तविकता का
प्रमाण दे रही है। कितना अच्छा होता कि अपने नामानुरूप यह पुस्तक कहानी ही होती।
वैसे, पाठक चाहें, तो इसे एक कहानी के रूप में पढ़ सकते
हैं। पर इस गाथा को पढ़ते वक्त इस कहानी के चरित-नायक और चरित-नायिका से राजेन्द्र
यादव और मन्नू भण्डारी जैसी दो महान शख्सीयत का अलगाव रखने की तटस्थता हिन्दी
साहित्य का अदना-सा पाठक भी नहीं रख सकता। पूरी हिन्दी पट्टी में इस दौर के इन दो
महान रचनाकारों और अपनी मान्यताओं पर केन्द्रित इन दो व्यक्तियों की महत्ता से कोई
भी व्यक्ति अपरिचित नहीं है। इसके साथ ही विगत वर्षों में इन दोनों शख्सीयतों को
लेकर प्रचारित, प्रचलित वाद भी लगा रहा।
इस पुस्तक को बेहिचक एक औपन्यासिक वृतान्त, अथवा ‘मैं’ शैली में लिखी गई कहानी, अथवा आत्मजीवनचरित के रूप में पढ़ा जा
सकता है। पर राजेन्द्र यादव और मन्नू भण्डारी की विराट् शख्सीयत का पाठक क्या करे? कथालेखन और काल-चिन्तन के क्षेत्र में
दोनों ने जो ऊँचाई पाई है,
और उस कारण लोगों की
नजर में उनकी जो छवि विराजित है,
उससे अलग जाकर इस
पुस्तक के नायक को गल्प का नायक कैसे माने? जाहिर
है कि इस मंशे से यह किताब लिखी भी नहीं गई, इसलिए
पाठक भी इतना श्रम क्यों करे।
हर कृति की रचना की पृष्ठभूमि में रचनाकार की कुछ न कुछ धारणा
होती है। हिन्दी या कि किसी भी भारतीय भाषा, या
फिर संसार की किसी भी भाषा की कोई भी महत्त्वपूर्ण और कालजयी कृति निश्चय ही किसी
महत् उद्देश्य के साथ रची जाती है। बाबा तुलसीदास ने ‘स्वान्तः सुखाय रघुनाथ गाथा’ भले ही लिखी, पर उस ‘स्वान्तः
सुखाय’ का उदय-क्षेत्र भी उद्देश्यपरक था।...हर
समय का साहित्य अपने समकालीन अनिष्ट और अनीति पर विजय प्राप्त करने की ललकार के
रूप में खड़ा हुआ है। स्वाधीनतापूर्व तक के हिन्दी साहित्य पर तो इस तरह की बात कही
ही जा सकती है। स्वातन्त्र्योत्तर काल में भी लाख विसंगतियों के बावजूद ज्यादातर
ठीक ही चलता रहा। कुछ लोगों ने अपने को कालपुरुष साबित करने हेतु ढेर सारे
उल्टे-सीधे काम किए। पर,
यह सत्य है कि नई
कहानी आन्दोलन का दौर,
जो राजेन्द्र यादव और
मन्नू भण्डारी की तीक्ष्ण और तीव्र सक्रियता का चरम काल था, उसमें लेखकों के बीच आचरणगत विडम्बनाएँ
विषाणु की तरह फैलीं। आत्मस्थापन और आत्मविज्ञापन की ओर लोग व्याकुलता से मुड़े। इस
व्याकुलता में अपने समकालीनों को कलंकित करने, उन्हें
चबा जाने की प्रवृत्ति बढ़ी। आपातकाल का समय आते-आते यह रोग इतने गहरे समा गया कि
अब बहुत सारे लोगों को ‘न लिखने के तो अनेक कारण’ दिखते हैं, पर ‘लिखने
के कारण’ एक ही दिखते हैं--कीचड़ उछालो। विज्ञान
के कारण प्रकाशन की विराट सुविधा उपलब्ध है, और
निन्दा रस प्रेमी लोगों के कारण चर्चा-प्रसंग का असीम क्षेत्र। फिर लोग वैयक्तिक
कीचड़-उछाल से क्यों बचें?
बदनाम होऊँगा तो क्या
नाम न होगा!
कुछ दिनों पूर्व जब राजेन्द्र यादव बनाम मन्नू भण्डारी प्रसंग
सुर्खियों में था, हिन्दी के सभी अखबार पत्रिकाओं को एक
विषय मिल गया था, एक काम मिल गया था। साक्षात्कार लेकर
मुहावरे उछालने वाले भेंटकत्र्ताओं और व्याख्याकारों की भीड़ उमड़ आई थी। उन दिनों
मन्नू जी एकदम से चुप्पी साधे थीं। कहीं कुछ उनका वक्तव्य नहीं आता था। इधर
राजेन्द्र यादव के वक्तव्यों को पढ़कर सावधान पाठक उनके आचरण से खिन्न होता था।
सबका मन व्यथा से भर उठता था। सामान्य पाठकों के तो होश गुम हो जाते थे। वे क्या
करें, राजेन्द्र यादव और मन्नू भण्डारी में से
किसे चुनें, किसे छोड़ें। उनका परिचय तो इन लोगों के
लेखन से हुआ था। आज भी इन दोनों के ऐसे चहेते विशाल संख्या में होंगे जिन्होंने आज
तक फोटो, अथवा दूरदर्शन के अलावा कभी इन्हें देखा
नहीं होगा। जाहिर है कि परिचित-अपरिचित हर किसी के तराजू का पलड़ा मन्नूजी की तरफ
झुका रहता था। कारण मात्र इतना कि मन्नू जी अपनी श्रेष्ठता अथवा प्रतिपक्ष की
अश्रेष्ठता साबित करने हेतु कहीं वक्तव्य नहीं देती थीं। आज, जब यह किताब लोगों के हाथ में है, तब लोग एक बार फिर से सोच रहे
हैं--मन्नू जी जैसी मजबूत विचार-शक्ति वाली स्त्री, आजाद
हिन्दी फौज के मुकदमे के जमाने में मुख्य बाजार चौराहा, अजमेर में भाषण देने वाली लड़की, ‘महाभोज’ और
‘आपका बंटी’ जैसे उपन्यास की लेखिका, दिल्ली विश्वविद्यालय के सेवाकाल में
अनगिनत लड़कियों को अपनी अध्यापन-शैली से मजबूत विचार-शक्ति और दृढ़ इच्छा-शक्ति
देकर तैयार करने वाली अध्यापिका,
अपनी कहानियों के
प्रभाव से असंख्य लोगों को चेतना सम्पन्न करने वाली कथा लेखिका क्या इतना कमजोर हो
जाएँगी कि उन्हें अपने पक्ष में कुछ लिखना पड़ेगा!
आज कई लोगों को यह बात मानने में असुविधा हो रही है कि गत कुछ
वर्षों, या कई वर्षों के राजेन्द्र जी के आचरण
से मन्नू जी की लेखिका का कुछ बिगड़ नहीं सका। व्यक्ति मन्नू भण्डारी, पत्नी मन्नू भण्डारी, माँ मन्नू भण्डारी, पड़ोसी मन्नू भण्डारी का बहुत कुछ बिगड़ा, इसमें कोई शक नहीं; पर यदि लेखिका मन्नू भण्डारी का कुछ
बिगड़ा होता, तो यह कृति कैसे आई होती?
उस दौर की राजनीतिक और साहित्यिक धारा के गुण-सूत्रों की गाथा
के रूप में तो यह विशिष्ट कृति है,
पर पति-पत्नी या
व्यक्ति-व्यक्ति के आपसी रिश्तों को लेकर पूरी हिन्दी पट्टी में मन्नू जी के
चहेतों पर इस किताब के न आने से भी कोई फर्क नहीं पड़ता। कथाकार मन्नू भण्डारी की
छवि पाठकों के मन-मिजाज पर इतने पक्के रंग से खचित है कि बीते वर्षों के प्रवादों
ने तनिक भी उस छवि को प्रभावित नहीं किया। इस विवरण से पाठकों पर मामूली-सा असर
इतना हुआ है कि लोगों को क्रम की थोड़ी सी जानकारी मिल गई। बाकी सब कुछ जस के तस
हैं। विगत वर्षों के प्रवादों ने उनका कद बाल बराबर भी कम न कर सका था। इस पुस्तक
ने उनका कद थोड़ा बड़ा जरूर किया है,
पर इस कारण नहीं कि
इसमें उन्होंने राजेन्द्र जी के कारनामों को उजागर किया, बल्कि इसलिए कि इस पूरे दौर की
साहित्यिक गाँठों को उन्होंने ढीला कर दिया है, उसे
और ज्यादा खोलने की लोगों को सुविधा दे दी है। व्यथा और पीड़ा से ही सही, मन्नू जी ने यह काम न किया होता, तो हिन्दी के करीब छह दशकों का यह खेल
इतनी ईमानदारी और निष्ठा से शायद सामने न आता। नई पीढ़ी के लोग इस नाते लेखिका और
प्रकाशक के प्रति कृतज्ञ हैं। इस पुस्तक के घटना-क्रम में यदि कथन भंगिमा थोड़ी
मुलायम रही होती, मंशा ‘लक्ष्य’ पर ऊँगली रखने की न होकर ‘कथावाचन’ की
रही होती, तो मुझे लगता है कि इसका असर और अधिक
होता। ध्यातव्य है कि ये बातें राजेन्द्र जी के बचाव के लिए नहीं हैं, क्योंकि उनके जैसे विराट व्यक्तित्व का
बचाव मुझ जैसा व्यक्ति कर भी नहीं सकता। मुझे, या
मेरे जैसे असंख्य पाठकों की यह धारणा सिर्फ इसलिए है कि हम मन्नू जी जैसी विराट
कथा लेखिका का बहुत अधिक आदर करते हैं।
साक्षी भारत, नई दिल्ली, सितम्बर 2008
एक कहानी यह भी, मन्नू भण्डारी, राधाकृष्ण प्रकाशन
No comments:
Post a Comment