अमृता प्रीतम की छह दर्जन से अधिक पुस्तकों में आत्मजीवनचरित ‘रसीदी टिकट’ सर्वाधिक चर्चित है। उन्होंने उपन्यास, कहानी, कविता, निबन्ध, आत्मकथा
आदि सभी विधाओं में रचनाएँ कीं। पर सर्वप्रसिद्ध पुरस्कार ‘साहित्य अकादेमी सम्मान’ तथा ‘ज्ञानपीठ
पुरस्कार’ दिया गया कविता संकलन ‘सुनहरे’ (1957) तथा
‘कागज ते कैनबस’ (1982) के लिए। उनके लेखन में जीवन और समाज के
यथार्थ को व्यक्त करने का जैसा बेलागपन, ताजगी, मौलिकता, तीक्ष्णता, सादगी और निडरता है, उससे पाठक सराबोर हो जाता है; ऐसा तन्मय और तल्लीन कि उन्हें निरर्थक
बातों में समय और श्रम के दुरुपयोग की इच्छा नहीं होती। अमृता उन थोड़े से गिने
चुने रचनाकारों में से हैं जो जीवन-यथार्थ की किसी नग्नता, कठोरता और कलुषता को परदा-नशीं करना
नहीं जानतीं। अपने लेखन के आरम्भिक काल से उन्होंने अपने इस स्वभाव का परिचय दिया।
उनकी कविताओं के संकलन ‘खामोशी से पहले’ में कुल चालीस कविताएँ संकलित हैं। उनके
निबन्ध संग्रह ‘काया के दामन में’ में संकलित आत्मा-परमात्मा, काया, पंचतत्त्व
आदि के विवेचन सम्बन्धी विचार देखकर इन कविताओं पर बात शुरू करने से तनिक सहूलियत
होती है। जीवन के चरम सत्य के गहनतम मसलों पर इन कविताओं में उन्होंने बड़ी
निर्भीकता और स्पष्टता से विचार किया है।
सारे लोग जानते हैं कि मनुष्य जब पढ़-लिख लेता है, तो वह ज्ञानी हो जाता है, पर आज हमारे यहाँ कहना बेहतर होगा कि
मनुष्य जब पढ़-लिख लेता है,
तो वह चालाक हो जाता
है। चालाक लोगों से कुछ सुनने/समझने अथवा उन्हें कुछ सुनाने/समझाने में सामान्य
बुद्धि/विचार के लोगों को बड़ी परेशानी होती है। हर-हमेशा यह संशय बना रहता है कि
इस चालाक मनुष्य ने न जाने कितने परदे से ढँककर इस यथार्थ को प्रस्तुत किया है, सच के स्वरूप को न जाने कितनी बार
तराशकर प्रस्तुत किया है। अमृता प्रीतम की इतनी बड़ी लोकप्रियता का मूल कारण उनकी
रचनाओं में व्यक्त विचारों की निडरता ही है। उनके यहाँ श्ूाल हैं तो शूल की तरह और
फूल हैं तो फूल की तरह। ‘खामोशी से पहले’ कविता संकलन में उन्होंने कहीं भी किसी
स्थान विशेष, क्षेत्र विशेष, वर्ग विशेष की बात नहीं की है, पूरी पुस्तक जीवन के सार्वभौमिक पहलुओं
को लेकर लिखी गई है। यह बात उन्हीं की पंक्तियों से कुछ ज्यादा साफ होती है, जब वे कहती हैं:
नज्म लिखना
मन के वनों में जाकर
एक सघन झाड़ी की ओट में
बदन की केंचुली उतार देना है...
अर्थात,
‘कलम में कयाम’ किए बगैर, ‘स्याही
की धूप में बैठे’ बगैर, ‘कागज
की छाया में ठहरे’ बगैर, ‘मन
की पगडण्डी पर चलने’
वाले अमृता के ‘अक्षरों के साए’ जब नज़्म में उतरते हैं, तो उसे वे केंचुली कहती हैं। वही
केंचुली, जो दुनिया भर के गर्द-गुबार, कीचड़-कचरे से किसी कवि के मन में उसी
तरह बनती हैं, जैसे किसी साँप की काया पर केंचुली बनती
है, इस केंचुली के उतरने के बाद, अर्थात् नज्म की अभिव्यक्ति हो जाने के
बाद, कोई कवि उसी तरह मुक्त, तरो-ताजा और पीड़ामुक्त होता है, जैसे कोई साँप, केंचुली उतारकर। यूँ इस तरह की बात
अमृता अथवा हर अच्छे रचनाकर्मी की हर सार्थक रचना के लिए कही जा सकती है, पर इस संकलन में अमृता की दूसरे किस्म
की कविताएँ हैं, जहाँ उनके दीर्घ जीवनानुभव की
महत्त्वपूर्ण और उपयोगी अभिव्यक्ति एक नए अन्दाज में मौजूद है।
वस्तुतः रचनाकार की हर रचना उनके रचनात्मक दृष्टिकोण का आइना
होता है, जिसके सहारे उनके जीवन-दर्शन की पहचान
आसानी से हो जाती है। सुनिर्धारित जीवन-दर्शन के बिना कोई रचना नहीं करता, जो करता है, वह रचना नहीं करता, कागज काला करता है। यह जीवन-दर्शन
रचनाओं में प्रयुक्त विचार-वैशिष्ट्य, शब्द-सामर्थ्य, भाषा-संस्कार के द्वारा स्पष्ट होता है।
अमृता प्रीतम की कविताओं में ‘आग’, ‘सूरज’, ‘प्रकाश’, ‘ज्योति’, ‘तारे’, ‘चाँद’, ‘आत्मा’, ‘काया’, ‘खुदा’ जैसे
शब्दों की सुदक्ष प्रयुक्तियाँ एक साथ उनके जीवन-दर्शन, रचनात्मक कौशल, अभिव्यक्ति की निर्भीकता और अनुभूति की
ईमानदारी का परिचय देती हैं।
‘खामोशी
से पहले’ संकलन में संगृहीत चालीस कविताओं में
कवयित्री ने किसी सामाजिक दुराचार अथवा राजनीतिक विकृति अथवा आर्थिक विसंगति अथवा
पारिवारिक विडम्बना के बजाय केवल वैयक्तिक बातें की हैं, एकदम निजी, अर्थात् जीवन के चरम सत्य का बयान किया
है, अपने जीवनानुभव को व्यक्त किया है, मनोवेग को अभिव्यक्ति दी है। ये कविताएँ
या तो सीधे साईं को सम्बोधित हैं या वातावरण अथवा प्रकृति अथवा किसी अमूर्त्त को:
साईं! तू अपनी चिलम से
थोड़ी-सी आग दे दे
मैं तेरी अगरबत्ती हूँ
और तेरी दरगाह पर मुझे
एक घड़ी जलना है...
कवयित्री का यह पुनरावर्तन, यह
समर्पण, कबीर की उस पंक्ति और भावना की तरह है, जहाँ उन्होंने परमात्मा की ‘काया-चादर’ के लिए कहा था: ‘दास कबीर जतन से ओढ़ी, जस के तस रख दीन्ही चदरिया।’ अमृता ने ‘काया’ की
इस सत्यता को इतनी ही गम्भीरता से पहचाना है और पंचतत्त्व रचित इस काया को उन
पंचतत्त्वों को समर्पित कर देने की इच्छा व्यक्त की है। इस संकलन की किसी भी कविता
को प्रारम्भ करने पर ऐसी स्थिति बनती है कि उसकी व्याख्या थोड़ी मुश्किल जैसी लगती।
कहा जा सकता है कि अमृता की ये कविताएँ व्याख्या के लिए नहीं, आँखें बन्द करके महसूस करने के लिए लिखी
गई हैं। एक कविता ‘गुफा चित्र’ में यह स्पष्ट है:
उस दिन सूर्य
जब गुफा के द्वार पर आया
तो कई रंगों का
शाही जामा पहनकर आया
जाने खुदा! एक गुफा में से
कैसा आकर्षण उठा था
कि सूरज सिर झुकाया
और गुफा के सँकरे द्वार में से आया
भीतर, उस गुफा की दीवारों पर
काया भोग के चित्रों को देखता
एक पत्थर शिला पर बैठ गया
चित्र प्राणमय हुए, हँसे
और कहने लगे--
काया से गुजरकर
जो काया का टुकड़ा
काया के पार जाता है
उसका कभी चित्र नहीं बनता...
अमृता का यही तेवर और यही भाव इन तमाम कविताओं में एक अनूठी
शैली में व्यक्त हुआ है,
जहाँ कुछ लोगों को ये
बातें किसी वृद्ध के प्रलाप अथवा जीवन के चौथेपन के वैराग्य की तरह लग सकती है, पर वे यदि गौर करेंगे तो उन्हें महसूस
होगा कि ये जीवनानुभव तीन चौथाई उम्र गुजारे किसी वृद्ध के पश्चाताप के आँसू नहीं
हैं, ये दृढ़ प्रतिज्ञ और जीवन-यथार्थ से पूरी
तरह परिचित किसी सृजनधर्मी व्यक्ति की सचबयानी हैं, जहाँ
यह प्रलाप नहीं कि मैंने जीवन भर बहुत पाप किया, तुम्हारा
भजन नहीं किया, मुझे माफ कर दो...कुछ नहीं, कोई अपराध-बोध नहीं, सिर्फ यह कि पूरा जीवन शान से जिया, जैसे भी जिया सोच-समझ कर जिया, पूरी ईमानदारी से मैंने अपनी भूमिका अदा
की, अब अपनी यह काया-चादर वापस ले लो।
और,
इसके साथ ही बड़ी
दिलचस्प बात है, इस तरह की निर्भीकता और आत्मविश्वास और
अपने किए की जिम्मेदारी लेने का साहस और अपने कर्मों की उज्ज्वलता पर इतनी
आश्वस्ति आज किसी योगी को भी अचानक नहीं बन पाती है, जबकि
अमृता के यहाँ यह मौजूद है। उनकी यही आश्वस्ति और यही निर्भीकता लोगों को आकर्षित
करती रही है, यदि समाज के नागरिकों को सही ढंग से
सच्चा नागरिक बनाने का काम कभी साहित्य कर पाया, तो
वह अमृता जैसे रचनाकारों की कृतियाँ ही होंगी, जो
उन्हें निर्भीक और आश्वस्त बनाएगी।
तथ्यतः आग,
आत्मा और अक्षर के
प्रति अमृता प्रीतम की ऐसी ऊँची धारणा बाल्यावस्था से ही थी। तभी तो उन्होंने ‘रसीदी टिकट’ का समर्पण इमरोज के साथ-साथ उन सभी के
नाम लिखा जो ‘मिट्टी के दीये को आग का शगुन देता है, और आत्मा का आखिरी अक्षर खुदा की झोली
में डाल देता है।’
‘खामोशी से पहले’ में संकलित सारी कविताएँ जीवन की इन्हीं
सचाइयों, परिणतियों की कविताँ हैं, और शायद आत्मज्ञान होने के बाद की अमृता
की भावनाओं की कविताएँ हैं। इस संकलन का यह छोटा-सा नाम किसी विराट और चरम अर्थ की
व्यंजना ध्वनित करता है। ध्वन्यात्मकता और प्रभावान्विति का यही उत्कर्ष अमृता की
मौलिकता है।
खामोशी से पहले/अमृता प्रीतम/किताबघर
प्रकाशन/पृ. 104/रु. 75.00
No comments:
Post a Comment