बीते कुछ दशकों में भारतीय भाषाओं में अनुवाद-कार्य विपुल मात्रा
में हुआ है। जाहिर है कि अनूदित कृतियाँ विभिन्न भारतीय भाषाओं में प्रकाशित भी
खूब हुई हैं। हिन्दी प्रकाशन इस दिशा में अपेक्षाकृत अधिक अग्रसर रहा है। इन
प्रकाशनों में मानविकी और सामाजिक विज्ञान की पुस्तकें अधिक संख्या में अनूदित और
प्रकाशित हुई हैं। साहित्यिक और चिन्तनपरक ग्रन्थों के अनुवाद की इस शृंखला से एक
बड़ी बात यह हुई कि विचार और विचारधारा की यात्रा (जर्नी ऑफ आइडिया एण्ड ऑडियोलॉजी)
खूब हुई। देश-देशान्तर की चिन्तनधारा विभिन्न भाषा और भौगोलिक परिवेश में आवाजाही
करने लगी।
भारत के साहित्यालोचन की पद्धति पर इस आवाजाही का स्वाभाविक
असर हुआ। साहित्यालोचन के भारतीय सूत्रों की अनदेखी करते हुए नव चिन्तक समाज ने उस
ओर अपना रुख कर लिया,
जिधर उन्हें पराया
सारा कुछ बेहतर, और अपना सारा कुछ कमतर लगने लगा।
उन्होंने सर्वगुणसम्पन्न अपने सूत्रों की व्याख्या पद्धति और अर्थगर्भिता को
माँजने के बजाय दूसरों के उपस्करों से काम चलाना शुरू कर दिया; अपने उपस्करों को निरर्थक समझकर किनारे
रख दिया। उन्हें सस्यूर,
चॉम्स्की तो सार्थक
और उपयोगी लगने लगे;
भामह, दण्डी अप्रासंगिक। अधुनातन का स्वीकार, सत्कार निश्चय ही प्रगतिशीलता का
परिचायक है; पर पुरातन से अकारण और अचिन्तित विमुखता
दृष्टिहीनता ही कही जाएगी। अधुनातन और पुरातन साहित्यशास्त्र के सूत्रों के
संगमधर्मी आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी ने इस दिशा में लम्बे समय से महत्त्वपूर्ण
काम किया है, जिसका एक उदाहरण उनकी नई पुस्तक नया
साहित्य नया साहित्यशास्त्र है।
कुल पन्द्रह आलेखों के इस संकलन में लेखक ने भारतीय
साहित्यशास्त्रों के सूत्रों की न केवल नई व्याख्या दी है, बल्कि नई पीढ़ी के लोगों के लिए उन
सूत्रों की नई व्याख्या करते रहने की निरन्तरता बनाए रखने की नई दृष्टि भी दी है।
उन्होंने इस पुस्तक के प्राक्कथन में घोषणा की है कि ‘पश्चिम में सस्यूर, सूसन लैंगर, चॉम्स्की आदि के प्रतिपादन तथा
उत्तर-आधुनिकतावाद के संरम्भ के सन्दर्भ में संस्कृत के आचार्यों द्वारा सुनिर्मित
अलंकार तत्त्व की महती पीठिका पुनः उजागर करना आज जरूरी हो गया है।’ संरम्भ का अर्थ उतावला या प्रचण्ड या
आक्रमणकारी प्रवेश होता है। इस घोषणा के आलोक में संकलित निबन्धों में प्राचीन
साहित्य की शास्त्रीय कसौटियों के आधुनिकतम उपयोग की पद्धति भी दिखाई देती है।
‘लम्बी
कविता का एक अलंकार’
शीर्षक निबन्ध में
आचार्य भामह द्वारा बताए गए ‘भाविक’ अलंकार
की उपस्थिति और उपादेयता पर सूक्ष्मता से किए गए उनके विचार चकित करते हैं। विल्हण
की ‘चौरसुरत पंचाशिका’ से लेकर अज्ञेय की ‘शेखर: एक जीवनी’ और निराला की ‘राम की शक्तिपूजा’ तक का अनुशीलन करते हुए, उन्होंने प्रसंगवश निकोलाई बुखारिस, रुय्यक और आचार्य दण्डी की भी चर्चा की
है। तमाम उदाहरणों के सहारे लेखक ने किसी कृति के पाठ में भावक के उतरने की
सावधानी और कौशल का बेहतरीन संकेत दिया है। भाविक अलंकार से कृति में प्रभाव
उत्पन्न करना किसी रचनाकार के लिए बड़ा ही दुष्कर उद्यम है, इसके लिए बड़ी साधना की जरूरत होती है।
विचित्रता, उदात्तता; अर्थात्
अद्भुत वृत्तान्तों के समावेश,
प्रसंगों के नाटकीय
चित्रण और अनुकूल शब्दों के उपयोग...भाविक अलंकार के अनिवार्य तत्त्व माने गए हैं।
यह बड़ा ही कठिन काम है। दरअसल,
अतिशय आवेग की
थरथराहट में की गई रचनाओं के शब्दों और घटनावलियों को निष्कम्प रख पाना बड़ा ही
मुश्किल काम होता है। कोई भी रचनाकार अपने जीवन के यथार्थभोग को ही अपनी रचनाओं
में उकेरता है। दृश्यों और घटनाओं के मौलिक अनुभव से प्रभावित अपने मन, मस्तिष्क पर काबू कर पाना और घटनावलियों
के निरूपण में अपनी संवेदना से कौशल का इतना सन्तुलित रिश्ता रख पाना आसान नहीं
है। गौरतलब है कि महाकवि निराला ने सरोज स्मृति कविता की रचना अपनी पुत्री की
मृत्यु के लगभग दो दशक बाद की थी। उक्त कृतियों में इस तटस्थता और संवेदनशीलता का
उत्कृष्ट निदर्शन दिखाते हुए आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी ने न केवल पुराने सूत्रों
से नए साहित्य की व्याख्या की है,
बल्कि अपने ही
वैचारिक सूत्रों से अपने नए साहित्य की नई और विलक्षण व्याख्या करने की दृष्टि दी
है।
इस संकलन के सारे ही आलेखों में किसी कविता की-सी विलक्षणता
कौंधती है। खेल-खेल की तरह लेखक ऐसी चमक पैदा करते हैं कि विचार की प्रखर किरणें
फूट-फूट पड़ती हैं। अलंकार-नियोजन की तुला पर किसी भी नई-पुरानी रचना का
अनुशीलन-विवेचन एक रोचक और विरल उद्यम है। काव्य-सौन्दर्य और काव्य-सौष्ठव की
चर्चा में अलंकारों का विवेचन तो सब दिन से होता रहा है, पर सभी आधुनिक भारतीय भाषाओं को मिलाकर
भी ऐसे आलोचनाकर्मियों की संख्या न्यून ही होगी, जिन्होंने
अलंकार का उपयोग आलोचनात्मक उपस्कर के रूप में किया हो! संकलन के पहले ही निबन्ध ‘कविता में विरोध और विरोध की कविता’ में वे ‘विरोध
अलंकार’ की चर्चा करते हैं। भवभूति की कृति ‘उत्तर रामचरित’ में राम के आचरण को ‘वज्र से भी कठोर और कुसुम से भी कोमल’ कहा गया है। इस उक्ति के सहारे वे
श्रीलाल शुक्ल की ‘रागदरबारी’ और हरिवंश राय ‘बच्चन’ की
कविता ‘दानव का शाप’ में विरोध अलंकार की उपस्थिति का
संज्ञान लेते हैं, इस सन्दर्भ में वे अपनी धारणा को आचार्य
मम्मट की मान्यता से पुष्ट भी करते हैं, कि
विरोध न होने पर भी विरुद्ध रूप में प्रतिपादन से विरोध अलंकार होता है। दरअसल यह
रचनाकार की प्रतिभा ही होती है जिसके कारण वह दो वस्तुओं या बिम्बों में छिपे
विरोध को पहचान लेता है और उसे प्रतिपादित कर देता है। इस प्रतिपादन से ही वह रचना
उन वस्तुओं और बिम्बों के स्थापित मानदण्डों की सीमा तोड़कर उनके नए रूपों को
स्पष्ट करता है और चमत्कार उपस्थित करता है। यही चमत्कार भावकों को एक तरफ नई
पहचान शक्ति देता है तो दूसरी तरफ रचना को कालजयी बनाता है। अवगाहन के समय इस
विरोध अलंकार के कारण भावकों के मन में रोष और करुणा, नैराश्य और सौजन्य, उदासीनता और सहानुभूति का आवागमन होता
रहता है। भावक निरन्तर तटस्थ होकर मनन करने की कोशिश में तल्लीन रहते हैं, रचनाकार के कौशल से रचना में पिरोए गए
संघर्ष के सूत्र, अन्ततः भावक के चिन्तनफलक को उचितानुचित
का समर-क्षेत्र बना देता है,
परिणामस्वरूप रचना की
व्यंजना विराट हो जाती है।
भवभूति के ‘उत्तर रामचरित’, या ऋग्वेद के ‘कितव सूत्र’, या मम्मट की धारणा, या रत्नाकर के ‘हरविजय’ महाकाव्य
की प्रसंग-चर्चा के साथ आधुनिक काल के नए साहित्य की व्याख्या करते हुए आचार्य
राधावल्लभ त्रिपाठी ने भारत के आधुनिकतावादियों और अपनी जड़ों से कटे हुए लोगों को
यह बोध देने की सफल चेष्टा की है कि हमारे प्राचीन साहित्य एवं लक्षण-ग्रन्थों की
शाश्वतता असन्दिग्ध है;
आज के जटिल जीवन और
जटिलतम समाज-व्यवस्था में भी उनकी प्रासंगिकता बरकरार है।
इन निबन्धों की उपस्थापन शैली रोचक और रमणीय है। विलक्षण भी।
लगभग सारे निबन्धों की शुरुआत एक प्राचीन ग्रन्थ के किसी अंश की समीक्षा से होती
है, और उसी पद्धति एवं आलोचनात्मक उपस्कर से
आधुनिक काल की आधुनिकतम रचना शैली की समीक्षा सामने आने लगती है। समीक्षा की यह
विलक्षण शैली; आलोचना-कर्म के लिए भारतीय निजता और
अपने विरासतीय उपस्करों के उपयोग की यह गर्वीली पद्धति, अत्याधुनिकता के उन झण्डाबरदारों की
हेकड़ी उतार देते हैं,
जो यह कहते नहीं थकते
कि आज के साहित्य की व्याख्या के लिए काव्य-समीक्षा के प्राच्य प्रतिमान ओछे हो गए
हैं।
संकलन का ऐसा ही एक जबरदस्त आलेख है--‘परभावकरण अर्थात् कविता में उतरना जड़भरत
का।’ जड़भरत एक पौराणिक पात्र है, जो अपने आचरण और मान्यताओं के कारण अलग
ही पहचान बनाता है। सुख-दुख,
लाभ-लोभ, मान-अपमान से परे; आडम्बर और शिष्टोक्ति से निर्लिप्त।
बेलाग-बैलौस बातें करना,
अलंकार के आडम्बर और
निरर्थक वचोवितान से परहेज रखना उसका स्वभाव है। यहाँ लेखक ने माना है और सचाई भी
है कि जड़भरत का चरित्र ‘प्रपंच’ में
रहकर भी उसे अतिक्रान्त करना और उसमें सार्थक परिवर्तन के लिए हस्तक्षेप करना है।
प्रपंच की निरर्थकताओं से अपेक्षा रखने के कारण उसमें जड़ता है तो दूसरी ओर सार्थक
हस्तक्षेप और उदात्त मूल्यबोध की स्थापना की दृष्टि से भरण वृत्ति है। समकालीन
कविताओं की आत्मा में यह जड़भरत इसी तरह और इन्हीं विशिष्टताओं के कारण उतरता है।
परभावकरण की इसी प्रवृत्ति के उल्लेख के लिए लेखक ने भरतमुनि की उस उक्ति का
उल्लेख किया है, जिसमें अभिनेता उस जीव की तरह होता है, जिसमें वह एक चोला छोड़कर दूसरे चोले में
घुस रहा होता है। अमरुकशतक में इसे उदाहरण के साथ समझा जा सकता है। इन तमाम
विवरणों के साथ ही लेखक यहाँ कविता की समझ बनाने के लिए बेहतरीन, लेकिन सहज सूत्र समझाते हैं, जो एक साथ ऋग्वेद, श्रीमद्भागवत, अमरुकशतक और त्रिलोचन शास्त्री की
कविताई तक को समझने की दृष्टि देता है। वे कहते हैं कि ‘कविता में कवि का जड़भरत रूप कविता में साक्षीभाव
को जन्म देता है। साक्षीभाव के बयान में निस्संगता आती है, इस निस्संगता में अवस्थित कवि भोगी और
भोग्य दोनों को देखता है।’
कविता में कवि के इस
जड़भरत रूप की तलाश और प्राचीन सूत्र के नए उपयोग की दृष्टि देकर लेखक ने अपनी
विलक्षण पहचान शक्ति का परिचय दिया है।
हिन्दी समालोचना के क्षेत्र में यह दृष्टि देने के लिए आचार्य
राधावल्लभ त्रिपाठी पीढ़ियों तक याद किए जाएँगे कि आज जब सारी ही भाषाओं के
आलोचनाधर्मी लोग अणुवीक्षण पद्धति से पश्चिम की उद्घोषणाओं के बुझे हुए अलाव में
समीक्षा-सूत्र की चिनगारियाँ ढूँढने में लिप्त हैं, आचार्य
राधावल्लभ त्रिपाठी अपनी विरासत के सूत्रों की शृंखला दिखाते हुए आलोचना कर्म की
विलक्षण दृष्टि स्पष्ट कर देते हैं। ‘अवज्ञा, तिरस्कार और अस्वीकार की कविता’ शीर्षक आलेख में बारहवीं शताब्दी के
नव्यन्याय के तत्त्वान्वेषण की शैली से बात शुरू कर पण्डितराज जगन्नाथ से लेकर
निराला, नागार्जुन, त्रिलोचन तक की काव्य-कला में अवज्ञा, तिरस्कार और अस्वीकार की गहनता और
सूक्ष्मता ढूँढना एक विलक्षणता की ओर संकेत करता है। प्रारम्भ में पण्डितराज
जगन्नाथ की जीवन पद्धति,
विद्वता, अक्खड़पन, राजदरबार
में उनके मान-सम्मान का जिक्र करते हुए समकालीनों की ईष्र्यावृत्ति और
तिरस्कार-कर्म को रेखांकित कर जिस तरह उनके काव्यांशों में अवज्ञा और तिरस्कार
अलंकार की उपस्थिति का उल्लेख किया है, वह
किसी रचनाकार के रचना-कौशल में स्वानुभूति के आगम का परिचायक है। विदित है कि
पण्डितराज जगन्नाथ की मान-प्रतिष्ठा को देखकर उनके समकालीन पण्डित लोग उनसे चिढ़े
रहते थे, इस कारण उन पर चारित्रिक लांछन लगाया
करते थे। तथ्य है कि वे जहाँगीर और शाहजहाँ दोनों बादशाहों के आश्रय में रहे।
दाराशुकोह से उनके अनुरागपूर्ण सम्बन्ध थे, मुगलिया
शानोशौकत का उपभोग भी करते थे,
संरचना के स्तर पर
उनकी रचनाओं में कभी दरबार की चकाचौंध झलक उठती थी, पर
वे रचनाएँ अपने गहरे अर्थों में पारम्परिक बोध से भरी रहती थीं। आचार्य त्रिपाठी
ने उनमें जाग्रत कवित्व प्रतिभा और उद्भट आचार्यत्व का मणिकांचन योग देखा है। उनका
कहना है कि ‘सत्रहवीं शताब्दी के आचार्य का अपने से
पहले के दो हजार वर्षों की काव्यचिन्तन और सौन्दर्यशास्त्र की परम्परा पर सवाल खड़े
करने का साहस और अभिनवगुप्त और मम्मट आदि आचार्यों के आधिपत्य को तोड़ने की सामर्थ्य--दोनों
पण्डितराज में देखी जा सकती हैं।’
यह उद्धरण केवल
पण्डितराज जगन्नाथ की प्रशंसा के लिए नहीं है, बल्कि
इसमें आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी ने उनके उस जुझारू मनःलोक का निदर्शन कराया है, जो काव्य में ‘तिरस्कार’ और
‘अवज्ञा’ अलंकार
की परिकल्पना हेतु उनका सूत्र बना होगा। आजकल विद्वत्जन काव्य विवेचन के प्राचीन
मानदण्डों का तिरस्कार कर कविता के पूरे विमर्श के आधार पर काव्यालोचन करने लगे
हैं; इसलिए रस और अलंकार की चिन्ता कम ही की
जाती है; पर इस निबन्ध में अलंकार के सहारे किसी
आधुनिक कविता की व्याख्या करने की जो पद्धति बताई गई है, वह हमें अपने ही मानदण्डों पर
गौरवान्वित होने का साहस देती है। लेखक ने इस तिरस्कार और अवज्ञा की कसौटी को न
केवल पण्डितराज जगन्नाथ के कई श्लोकों पर लागू किया, बल्कि
बाणभट्ट, भर्तृहरि, अभिनवगुप्त, कबीर, निराला, हरिऔध, सुमित्रानन्दन
पन्त, नागार्जुन और त्रिलोचन शास्त्री की
पंक्तियों की व्याख्या में उसका उल्लेख किया है। सत्य है कि इस आलेख के प्रारम्भ
में पण्डितराज जगन्नाथ के निजी जीवन और उनकी तेजस्विता की चर्चा किंचित विस्तार से
की है, पर वह विस्तार हमें एक समझ बनाने की
दृष्टि देता है कि किसी रचनाकार को अपनी काव्य-कला का रूप-बन्ध तय करने में उनका
निजी जीवन किस तरह सहायक होता है। बल्कि जीवन का भोगा हुआ यथार्थ कैसे किसी
रचनाकार के कौशल को दिग्दर्शित करता है। पण्डितराज जगन्नाथ के जीवन की तरह हम कबीर, निराला, पन्त, हरिऔध, नागार्जुन, त्रिलोचन की जीवन-पद्धति और परीक्षित
जीवन-दृष्टि पर विचार करें और तब उनकी रचनाओं में तिरस्कार और अवज्ञा को लागू कर
देखें तो इन महान रचनाकारों की काव्य-दृष्टि का जायजा लेने में और भी सुविधा हो
जाती है। जाहिर है कि यह ‘तिरस्कार’ और
यह ‘अवज्ञा’ अकविता
आन्दोलन के दौर के नकार का समानार्थी नहीं है। व्यंग्य के तीखे प्रहार ने इस ‘तिरस्कार’ और
‘अवज्ञा’ अलंकार
को इन कालजयी रचनाओं में प्राणवन्त कर दिया है।
आशय यह नहीं है कि संस्कृत के आचार्यों द्वारा सुनिर्मित
अलंकार तत्त्व की महती भूमिका इतनी महत्त्वपूर्ण है कि हमें दुनिया भर में चल रहे
विमर्शों की कोई जरूरत नहीं;
बल्कि यह पुस्तक एक
शिष्ट निवेदन प्रस्तुत करती है कि आधुनिकता की आँधी में हम अपनी प्राचीन कसौटी की
अवहेलना न करें, हम उसके उपयोग पर भी ध्यान दें, बल्कि कभी-कभी अपने इन प्राचीन
मानदण्डों से नवागत उपस्करों के सरोकार निर्मित करने की भी चेष्टा करें। ‘टूटना पुनः तर्क का’ आलेख में तुलसीदास की चौपाई और बिहारी
के पद में असंगति अलंकार की चर्चा से बात शुरू करते हुए छठी-सातवीं शताब्दी के
संस्कृत प्रहसन ‘भगवदज्जुकम’ में आचरण के असंगत उलटफेर की विस्तार से
चर्चा हुई है और बात फिर सीधे गिरीश कर्नाड के ‘हयवदन’ (जहाँ असंगत स्थितियों के कारण मनुष्य की
पहचान का वस्तुनिष्ठ सवाल उपस्थित होता है); नन्दकिशोर
आचार्य के ‘देहान्तर’ (जहाँ
ययाति के मिथक को व्यापक दृष्टि से अंकित किया गया है); मिलान कुन्देरा की कहानी, जिसमें नायिका अपने दिवंगत पति की कब्र
का नवीकरण कराना भूल जाती है और कब्रिस्तान के अधिकारी कहते हैं कि बूढ़े मुर्दों
का दायित्व होना चाहिए कि नए मुर्दों के लिए जगह बनाएं; मुद्राराक्षस के ‘योर्स फेथफुली’ (जिसमें मुर्दे को जिन्दा और जीवित को
मुर्दा मानकर जीवन की विडम्बना प्रस्तुत की गई है) की व्याख्या की है; और यह स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि इस
समय समाज की विडम्बनाओं,
विसंगतियों को; समाज की अमानवीयता और मानवों की
असामाजिकता को आज के भारतीय साहित्य के सर्जक जिस तल्ख जबान में आहत करने की
चेष्टा कर रहे हैं;
और अपनी चेष्टा में
सफल हो रहे हैं; वह वस्तुतः असंगत स्थिति या असंगति
अलंकार उत्पन्न कर व्यंग्य की पुरजोर चोट करते हैं; जो
जटिल वर्तमान के यथार्थ को कुछ ज्यादा प्रभावी बना देते हैं।
प्राप्य से निराशा और प्राप्त में अवांछित घटकों के समावेश
होने से उसके प्रति निषेध भाव की स्थिति विगत आधे से अधिक शताब्दी के भारतीय
साहित्य में मुख्य तत्त्व के रूप में दिखता है। राधावल्लभ त्रिपाठी अपने विश्लेषण
को पीछे की ओर कालिदास तक ले जाते हैं और मालविकाग्निमित्र में सूत्रधार के
वक्तव्य में उस निषेध तत्त्व की पड़ताल करते हैं। यहाँ वे अपह्नुति अलंकार का
उल्लेख करते हैं, मम्मट, भामह, भोज आदि आचार्यों का सहारा लेते हुए
प्रत्यक्ष का निषेध कर अन्य की स्थापना को अपह्नुति अलंकार बताते हैं, जिसे जयदेव ने अतथ्य के आरोपन हेतु तथ्य
को छिपाना कहा है। पर यहीं भर्तृहरि का सहयोग लेकर बताते हैं कि कविता का अर्थ, अर्थात् कविता में अपह्नुति का उद्देश्य
अतथ्य की स्थापना नहीं है;
यहाँ जो भी अतथ्य
प्रेषित होता है, वह तथ्य की परख के लिए ही होता है। तभी
तो रवीन्द्रनाथ टैगोर की पंक्ति ‘मेरी मुक्ति की पद्धति नहीं है यह’, फैज़ की पंक्ति ‘दाग़ दाग़ उजाला’ या ‘गीत
नश्तर हो नहीं, मरहमे-आज़ार सही’, भारतेन्दु की पंक्ति ‘क्यों सखि साजन, नहि अंगरेज’ में जिस ‘निषेध’ का तत्त्व उन्होंने ढूँढा है, वह निषेध, नकार
या अतथ्य की स्थापना नहीं है। ‘कविता में निषेध और निषेध की कविता’ शीर्षक निबन्ध में उन्होंने अपह्नुति
अलंकार के निषेध तत्त्व की खोज जिस तरह की है, वह
पद्धति चमत्कृत करती है। यहाँ संगीत-सभा के उस प्रभावोत्कर्ष का उल्लेख किया जा
सकता है कि बन्द कमरे में कोई श्रेष्ठ गायक मल्हार गा दे, तो बारिश होने लगती है; दरअसल वह बारिश होती नहीं, बारिश का प्रभावोत्कर्ष उस संगीत से
उत्पन्न हो जाता है,
और प्रतीत होता है कि
बारिश हो रही है। अपह्नुति के इस निषेध की पड़ताल से यहाँ लेखक ने साहित्यालोचन की
वह दृष्टि दी है, जिससे एक बेहतरीन रचना में तथ्य के
निषेध और अतथ्य के आरोपन की स्थिति के बावजूद प्रभावोत्कर्ष की ऐसी शमाँ बँध जाती
है, अन्ततः उस आरोपन और उस वंचना की परिणति, तथ्य की प्रतिष्ठा के रूप में ही होती
है। अलंकार और अलंकार के तत्त्वों के सहारे इस संग्रह के सभी निबन्धों में आचार्य
राधावल्लभ त्रिपाठी ने आज के समालोचकों को एक बेहतर विकल्प दिया है कि साहित्य के
विश्लेषण-विवेचन के लिए वस्तुतः ‘दृष्टि’ प्राथमिक
आधार होता है, ‘दृष्टि’ में
‘तेज’ न
हो तो कैसा भी उपस्कर उसके समक्ष भोथरा हो जाएगा। ‘दृष्टि’ हो तो विषादन अलंकार की व्याख्या से
शुरू होकर बात कालिदास,
महाकवि बाणभट्ट और
बोरिस पास्तरनाक की तुलनात्मकता और फिर ‘रघुवंश’ और ‘हर्षचरित’ या ‘अभिज्ञान
शाकुन्तल’ और ‘डॉ
जिवागो’ की तुलनामकता तक पहुँच जाती है। विरोध, विसंगति, विषाद, वंचना, निषेध, आदि से सम्बद्ध अलंकारों के सहारे
सामान्य स्थिति में कोई सुखकर प्रसंग तो प्रस्तुत नहीं किया जा सकता; पर इन तत्त्वों की पड़ताल करते हुए
भयकारी प्रसंग हाजिर करने वाली रचनाओं का विश्लेषण रोमांचक ढंग से किया जा सकता
है। ‘भयानक खबर की कविता’ शीर्षक निबन्ध में मुद्राराक्षस का नाटक
‘मरजीवा’, कालिदास
का ‘अभिज्ञान-शाकुन्तल’, भास का ‘उरुभंग’, मुक्तिबोध की कई कविताओं का ऐसा ही
अनुशीलन यहाँ किया है। संकलन के अन्य निबन्धों में भी एस.एल.भैरप्पा, विनोद कुमार शुक्ल, सूरदास, भर्तृहरि, जायसी, धूमिल, हजारीप्रसाद द्विवेदी, राखलदास बंद्योपाध्याय...आदि की कृतियों
की विवेचना की है। कहा जा सकता है कि यह पुस्तक सम्भवतः अत्याधुनिक सोच के
नए-पुराने समालोचकों को एक साथ अपने विरासत की ओर गौरवान्वित भाव से झाँकने, अपनी आलोचकीय क्षमता की जड़ों को मजबूत
करने और कई बार आयातित उपस्करों को झकझोड़ने की शक्ति देगी।
आलोचना दृष्टि अलोचना
का सवसे बड़ा उपस्कर, पुस्तकवार्ता 47, जुलाई-अगस्त 2013
नया साहित्य नया
साहित्यशास्त्र/राधावल्लभ त्रिपाठी/राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली/रु. 200 पुस्तक वार्ता/अंक 47/जुलाई-अगस्त 2013/पृ. 57-60
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