हिन्दी में व्यंग्य आज एक विधा के रूप में मान्य है और यह
मान्यता निश्चित रूप से व्यंग्यकारों के तीखे तेवर और कुशाग्र प्रतिभा का परिणाम
है। वैसे तो पूरे साहित्य सृजन का मूल स्वर व्यंग्य ही है। आधुनिक काल का सम्पूर्ण
लेखन, कहानी, कविता, उपन्यास-- सबका लक्ष्यवेधी संस्कार
व्यंग्य ही है। मैला आँचल,
रतिनाथ की चाची, मछली मरी हुई, राग दरबारी, आधा गाँव, आधे
अधूरे...जिस भी श्रेष्ठ कृति का नाम लिया जाए, वह
व्यंग्य ही तो है। पर बाद के दिनों में, जब
रचनाकारों के गद्य लेखन से कथानक का लोप होने लगा और वहाँ समाज की विद्रूपता के
चित्रों का कोलाज अपनी औकात जमाने जगा, तो
पाठकों को भी और शायद रचनाकारों को भी, ऐसे
गद्य को अलग से पहचानने की आवश्यकता पड़ी। हिन्दी गद्य की इस नई कोटि को ऐसी पहचान
दिलाने में जिन पुरोधाओं का योगदान है, उनकी
एक लम्बी सूची है और उनकी साधना के मूल्यांकन के लिए इत्मीनान से विचार करने की
आवश्यकता है। बिस्मिल्लाह खाँ की तरह यह नहीं कहा जा सकता कि शहनाई-वादन को यह
प्रतिष्ठा उन्होंने ही दिलाई अन्यथा जिस तरह शहनाई वादन गली कूचे में असम्मानजन्य
स्थिति में होता था,
व्यंग्य भी अपनी
प्रारम्भिक स्थिति में विभिन्न विधाओं के भीतर कहीं खोया रहता; शोधकर्ता इसे बिम्ब और प्रतीक की तरह
ढूँढते रहते कि प्रेम जनमेजय के लेखन में व्यंग्य कितना प्रतिशत है। बहरहाल...
व्यंग्य की इसी पहचान को पूरे आत्मविश्वास के साथ रेखांकित
करने वाले रचाकारों में से एक महत्त्वपूर्ण नाम प्रेम जनमेजय का है। एक विडम्बना
ही है हिन्दी में कि आलोचक वर्ग रचनाकारों की उम्र, परिपक्वता
और उपलब्धि तीनों निगल लेते हैं। जब प्रेम जनमेजय जब पचास पार के हो गए और तीस
वर्षो के लेखन का अनुभव प्राप्त कर चुके, तब
आलोचकों की नजर में वे नए और युवा व्यंग्यकार माने गए। चिन्ता इस बात की की जानी
चाहिए कि जो दस वर्षो से लिख रहे हैं, उनके
लिए आलोचकों के पास क्या विशेषण होगा। बहरहाल...
शुरू-शुरू में सम्भवतः हास्य और व्यंग्य--दोनों का स्रोत
बिन्दु मजाक ही रहा होगा। पर विकास के क्रम में व्यंग्य कब महत्त्वपूर्ण हो गया, विषुवत रेखा की तरह किस जगह अपनी
अलक्ष्य विभाजक रेखा खींचकर समृद्धि पा गया, यह
शायद किसी को पता नहीं
चला होगा। विकृति और
उसके विरोधी भाव की अभिव्यक्ति से ही व्यंग्य उत्पन्न होता है। प्रेम जनमेजय अपने
रचना संसार में इन विकृतियों के चित्रण हेतु अपनी पीढ़ी के तमाम रचनाकारों से अलग
दिखते हैं। प्रेम जनमेजय का शिल्प,
शैली, विषय, शब्द
चयन और फार्म चयन--सब कुछ की मौलिकता उन्हें औरों से अलग करने में सहायक हुई है।
विषय का उनके पास किसी तरह का न तो अभाव है और न कोई वर्जना; कोई भय भी नहीं। निर्भीकता का एक मात्र
स्रोत ईमानदारी है। वे वृत्ति से अध्यापक, पर
स्वभाव से लेखक हैं। इन दोनों गतिविधियों पर लिखा गया उनका व्यंग्य--‘शिक्षा खरीदो: शिक्षा बेचो’, ‘अथ स्टडी लीव प्रकरण’, ‘आह! आया महीना मार्च का’, ‘कविते! तेरा क्या होगा?’, ‘साहित्यकारों का मजमा’...स्पष्ट करता है कि पानी में रहकर भी मगर
से बैर लेने का साहस उनमें कितना है।
प्रेम का व्यंग्य साहित्य मनोरंजन का उपादान कभी नहीं हो सकता, वह
मनोमन्थन का सबक है और नए रचनाकारों के लिए व्यंग्य लिखने की ककहरा पुस्तक, जो यह दिशा देती है कि आँखें इस तरह
खोलो और दृश्यों को इस तरह समझो कि तुम भी व्यंग्यकार बन जाओगे। हमारे यहाँ शिलाधर्मी
रचनाकारों की कमी नहीं
है; प्रेम जनमेजय उसके विपरीत आकाशधर्मी
रचनाकार हैं, जो अपने परवर्तियों को स्वभाव से प्रेम
और रचना से प्रेरणा देते हैं।
‘सोते
रहो’ और ‘साहित्यकारों
का मजमा’--दोनों नाटक की तरह लिखा गया है और इसमें
नगर की अपार्टमेण्ट संस्कृति तथा पुलिस व्यवस्था और साहित्यकार की अवस्था को जिस
तरह चित्रित किया गया है,
यह उनके मानवीय
सम्बन्ध को ही द्योतित करता है। ‘सुन्दरता खरीदो, सुन्दरता बेचो’, ‘मुझे सी.डी. चाहिए पापा!’ जैसे कई शीर्षक हमारी सांस्कृतिक अधोगति
के त्रासद नमूने हैं। सांस्कृतिक अस्मिता से देशवासी को सचेत करने हेतु दूरदर्शन
से सन्देश और ‘संस्कृतिनामा’ जारी होता है, पर संस्कृति भ्रष्ट करने की सारी जुगत
हमारी सत्ता स्वयं बैठाती है। प्रेम जनमेजय का पूरा का पूरा व्यंग्य-संसार हमारी
पतनशील संस्कृति, शिक्षा पद्धति, भ्रष्ट प्रशासनिक व्यवस्था, मक्कार पुलिस व्यवस्था, गलीज राजनीति, कलंकित गुरु-वृत्ति, जर्जर अर्थनीति, विखण्डित मानव मूल्य, आशंकित पारिवारिक मूल्य का अलबम है।
निर्भर पाठक पर है कि वे इसे पढ़कर टाईम पास करेंगे या अपना जीवन सँवारेंगे।
त्रिनिदाद से अपनी दैनिक गतिविधियाँ पत्र में सूचित करते हुए
प्रेम जनमेजय ने लिखा कि ‘यहाँ हिन्दी पढ़ाने भेजा गया हूँ, पर तोतों को हिन्दी रटाता हूँ। यहाँ
भारतीय मूल के लोग काफी हैं। हिन्दी पढ़ते हैं, सुनते
हैं, गाते हैं, समझते
नहीं। किसी सुन्दर युवती के मुँह से सुन्दर हिन्दी गीत सुनकर, हिन्दी में उसकी तारीफ कर दो, तो वह सूनी आँखों से एक शून्य तुम्हारे
दिल में उतार देगी।’
यहाँ मैं उद्धृत करना चाहता हूँ, कि साहित्योत्सव (साहित्य अकादेमी
द्वारा 1999 के पुरस्कार समारोह की संगोष्ठी) में
विभाजन पर लिखे गए एक पर्चे में अब्दुल बिस्मिल्लाह जिस तरह हास्य उत्पन्न कर रहे
थे, वह देखने योग्य स्थिति थी। बँटवारे का
काल मैंने तो नहीं
देखा, पर पढ़कर, सुनकर
यह सहज कल्पना की जा सकती है कि भारत और पाकिस्तान के लिए वह समय कैसा था। सोहन सिंह
‘सीतल’ के
‘तूताँ वाला खूँह’ पढ़े बगैर बँटवारे पर लेख लिखना, ‘आधा गाँव’ में
व्यक्त ग्राम्य शब्दावली को भोंडे ढंग से व्यक्त करना भी एक व्यंग्य की स्थिति थी।
काश! उस संगोष्ठी में प्रेम जनमेजय बैठे होते...!
यदि छोटा मुँह बड़ी बात न हो, तो
कह सकता हूँ कि आज व्यंग्य ही भारतीय समाज की वास्तविक छवि उभार रहा है। और, व्यंग्य विधा में रचनाकार को सफलता तब
तक नहीं मिल सकती जब तक उन्हें अपने पर हँसने, स्वयं नंगा होने, अपना मखौल उड़ाने का माद्दा न हो।
सौभाग्य से यह माद्दा प्रेम जनमेजय में है। प्रेम जनमेजय यह देख रहे हैं कि अभी
सबसे बड़ा पाखण्डी जाति साहित्यकारों, शिक्षकों, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों(?) की है, इन्हें
नंगा करना आवश्यक है। इनमें से कुछ को तो कर चुके हैं, कुछ को और करेंगे ही। पर जिनको कर चुके
हैं, उन्हें वे आगे बख्श देंगे, ऐसा भी नहीं। यदि उन्होंने सृजन और
बौद्धिकता, ज्ञान और चेतना का मखौल उड़ाना बन्द नहीं किया, तो
प्रेम जनमेजय उन्हें पर्दा नसीं नहीं रहने
देंगे, बेपर्द करेंगे ही।
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