आचार्य नलिन विलोचन शर्मा ने आलोचना को रचना का शेषांश कहा था।
साहित्यिक कृतियों की मूल्यांकनपरक पुस्तकों/आलेखों को आलोचना के इसी सन्दर्भ में
देखा जाना चाहिए। साहित्येतर अनुशासनों/विषयों/विधाओं पर लिखी गई पुस्तकों की
आलोचना को कृति का मूल्यांकन भले ही कह लिया जाए, भले
ही उसे उसकी गुणवत्ता और वस्तुनिष्ठता का अनुमापन यन्त्र कहा जाए, पर साहित्यिक कृतियों की समालोचना, कृति की गुणवत्ता के मूल्यांकन के
साथ-साथ उसकी व्याख्या भी करती है। अपने स्वभाव के अनुकूल छिलका छुड़ाने के क्रम
में शब्दों, पदों, वाक्यों, अवतरणों, प्रसंगों
के कई दबे हुए गूढ़ अर्थों को खोलती चलती है। हिन्दी के ख्यात समालोचक नन्दकिशोर
नवल की दो खण्डों में प्रकाशित पुस्तक निराला: कृति से साक्षात्कार ऐसी ही कृतियाँ
हैं। छायावाद काल से लेकर यथार्थवाद और आगे की धारणाओं, प्रवृतियों तक में फैला निराला का कविता
संसार इन दोनों पुस्तकों के आ जाने के कारण अब आम पाठकों के लिए भी बहुत सहज
सम्प्रेष्य हो गया है।
ऐसी बात नहीं थी कि निराला अपने पाठकों के बीच अबूझ और अपठित
थे, खूब पढ़े-समझे गए थे, बड़ी संख्या के अपने परवर्ती रचनाओं के
लिए प्रेरणास्पद और पाठकों के लिए आह्लादक बने रहे हैं; पर, इतना
तय है कि भाषा प्रयोग,
बिम्बविधान, वस्तु विन्यास और शब्द चयन की नितान्त
भिन्न पद्धति के कारण निराला बहुत आसान कवि नहीं रहे हैं। ‘दुरूहता का प्रश्न निराला की प्रायः सभी
कविताओं के प्रसंग में उठाया गया है और यह प्रश्न उठानेवालों में साधारण पाठक से
लेकर पं. नन्ददुलारे वाजपेयी जैसे विद्वान तक शामिल हैं’--ऐसा निर्णय देते हुए नन्दकिशोर नवल यह
भी स्वीकारते हैं कि ‘निराला की कविताएँ दुर्भेद्य हो सकती
हैं, पर अभेद्य नहीं हैं।’ महाकवि निराला की कविताओं की इन
दुर्भेद्य स्थितियों को तोड़ने हेतु नन्दकिशोर नवल की दो खण्डों में प्रकाशित
पुस्तक निराला: कृति से साक्षात्कार एक आकर ग्रन्थ है।
पूर्ववर्ती पीढ़ी में निराला-साहित्य के दो ख्यात व्याख्याकार
रहे हैं--त्रिलोचन शास्त्री और रामविलास शर्मा। निराला साहित्य की समझ बनाने और
उनमें रुचिशील होने में प्रो. नवल के प्रेरणा-स्रोत भी ये ही रहे हैं। परन्तु इस
पूरी पुस्तक में लेखक ने इनके द्वारा स्थापित मान्यताओं को भी गुरु-कथन या
आर्ष-वाक्य की तरह नहीं माना है। उन पर आवश्यकता पड़ने पर कटूक्ति भी व्यक्त की है
या खारिज भी किया है।
दोनों खण्डों में निराला की कविताओं पर ही विचार किया गया है।
निराला के पद्य की स्थिति एक सीमा तक तुलसीदास की तरह ही है। जैसे तुलसीदास के
पद्य देखने में बड़े सरल लगते हैं,
पर उसे छूने और उसमें
प्रवेश करने पर उसकी गम्भीरता समझ में आती जाती है, वही
हाल निराला के पद्य का भी है। कारण भी लगभग समान ही हैं--यति-विरामादि, शब्द-प्रयोग के चमत्कार और मानवीय
संवेदनाओं की गहनतम अनूभूति की अभिव्यक्ति--कुल तीन ही कारण हैं, जो तुलसी के यहाँ भी भावकों को दोहरे
अर्थ और सम्प्रेषण की गुंजाईश बनाते हैं और निराला के यहाँ भी। हिन्दी के सुसमृद्ध
समालोचक नन्दकिशोर नवल ने इस पुस्तक के जरिए भावकों की यह परेशानी अत्यन्त
प्रामाणिक और हृद्य साक्ष्यों के साथ दूर की है।
हिन्दी समालोचना की एक विकट स्थिति अब रूढ़ हो गई है। प्रारम्भ
से ही यह बात प्रमाणित है कि लक्षण ग्रन्थ अथवा आलोचनात्मतक कृति का मूल आधार
लक्ष्य ग्रन्थ ही रहा है। यहाँ तक कि भरत मुनि के ‘नाट्यशास्त्र’ अथवा अन्य किसी भी महान लक्षण ग्रन्थ का
आधार उससे पूर्व लिखी गई सर्जनात्मक कृतियाँ ही रही हैं। पर बाद के दिनों में
आलोचकों ने कुछ फरमे बनाए और उन फरमों में कृतियों को ठूँस-ठूँसकर उसके गुणावगुण
की व्याख्या की जाने लगी। छायावाद काल की सर्जनात्मक कृतियाँ इस तरह की व्याख्या
का सबसे ज्यादा शिकार हुईं। आलोच्य समालोचक ने भी यह बात स्वीकारी है कि ‘हिन्दी में कृति की राह से गुजरने या
पाठाधारित आलोचना की बहुत दुहाई दी जाती है, लेकिन
हिन्दी आलोचना रचना के पाठ से जितनी भटकी हुई है, उतनी
शायद ही किसी विकसित भाषा की आलोचना हो।’ लेकिन
नन्दकिशोर नवल ने ‘निराला की कविता पर विचार करने के लिए
इधर-उधर की बातों को छोड़कर रचना से साक्षात्कार करने की पद्धति अपनाई’ है। और, इस
पद्धति के क्रम में लेखक ने निराला के पद्य की व्याख्या इतनी सावधानी और इतने
शोधपूर्ण तरीके से की है कि पाठकों के समक्ष रचना के तार-तार स्पष्ट हो गए हैं।
पूर्व में निराला के पद्य पर घोषित तमाम मान्यताओं और व्याख्याओं के पाखण्ड और
ईमानदारी साफ-साफ अंकित हो गए हैं,
बिना उन पर उँगली
रखे। और, इसी आधार पर नलिन विलोचन शर्मा की बात
सच लगने लगती है कि वाकई,
आलोचना रचना का
शेषांश होता है। आलोचना-दृष्टि का जो विकास-क्रम हिन्दी में विभिन्न धाराओं में आज
दिखता है, उनमें नन्दकिशोर नवल को सीधे नलिन
विलोचन शर्मा से होते हुए रामावतार शर्मा तक जोड़ा जा सकता है, पर थोड़ा व्यापक दृष्टि डालें तो प्रो.
नवल के यहाँ दलवाद और झण्डावाद का कोई प्रामाणिक स्रोत नहीं दिखता, वे पूर्वाग्रह में हिन्दी के किसी खास
स्कूल के मतामत का न तो आँख बन्दकर खण्डन करते, न
मण्डन;...नीर-क्षीरविवेकी की तरह दूध का दूध, पानी का पानी करके रख देते। अन्ततः
आलोचना कर्म का मौलिक स्वरूप भी तो यही है।
उक्त पुस्तक,
न केवल निराला के
पद्य की साहित्यिक और समाजशास्त्रीय व्याख्या है बल्कि कृतियों की
सृजन-प्रकाशन-समालोचन प्रक्रिया का इतिहास भी है। प्रथम खण्ड में प्रो. नवल ने ‘तोड़ती पत्थर’, ‘पंचवटी प्रसंग’, ‘सन्ध्या सुन्दरी’, ‘तुम और मैं’ को छोड़कर कुछ श्रेष्ठ कविताओं को व्याख्या
का आधार बनाया है। उन्होंने माना है कि ये छोड़ी हुई कविताएँ व्याख्या सापेक्ष नहीं
हैं। यद्यपि दूसरे खण्ड के परिशिष्ट में ‘तोड़ती
पत्थर’ पर एक लम्बा आलेख है, जिसमें लेखक ने पूर्व के व्याख्याकारों
द्वारा स्थापित मान्यताओं और भ्रान्तियों का खण्डन किया है। पहले खण्ड में ‘जुही की कली’, ‘बादल-राग’, ‘जागो
फिर एक बार’, ‘तुलसी दास’, ‘मित्र के प्रति’, ‘सरोज स्मृति’, ‘प्रेयसी’, ‘राम
की शक्ति पूजा’, ‘सम्राट एडवर्ड अष्टम के प्रति’, ‘वन-बेला’--कुल
दस कविताओं का वृहद विवेचन है और परिशिष्ट में ‘जुही
की कली’ कविता के तीन प्रारूप हैं--जिनमें से एक
कलकत्ता से प्रकाशित मासिक ‘आदर्श’ में
प्रकाशित है, दूसरा ‘प्रथम
अनामिका’ में और तीसरा ‘परिमल’ के
प्रथम संस्करण में। ये तीन प्रारूप निराला की रचनाओं में उपस्थित पाठान्तर की
समस्याओं को स्पष्ट करते हैं। कुछ तो प्रकाशन के दौरान प्रूफ रीडरों ने शब्दों के
अपने अज्ञान के कारण उपस्थित कर दिए और कुछ पाठान्तर अपनी रचना को बार-बार सँवारते
रहने की निराला की आदत के कारण आए।
दूसरे खण्ड के प्रारम्भिक तीन अध्यायों में निराला के गीतों को
पूर्ववर्ती, मध्यवर्ती, परवर्ती खण्डों में बाँटकर व्याख्या की
गई है। चौथे अध्याय में ‘कुकुरमुत्ता’ कविता पर विवेचन है। पाँचवें और छठे
अध्याय में ‘ध्वंस और निर्माण’ तथा ‘माक्र्स
का प्रभाव’ शीर्षक दो निबन्ध हैं, जो निराला की कविताओं और विचारधाराओं पर
थोड़ा निर्बन्ध होकर लिखे गए हैं। सातवाँ अध्याय ‘देवी
सरस्वती’ और किसान सम्बन्धी कविताओं पर केन्द्रित
है। परिशिष्ट का दूसरा आलेख ‘हिन्दी के सुमनों के प्रति पत्र’ शीर्षक से है। जिसमें भुवनेश्वर, शिवदान सिंह चौहान तथा सच्चिदानन्द
हीरानन्द वात्स्यायन द्वारा निराला पर किए गए निर्दय आक्रमण के हवाले से बात शुरू
कर ‘सुमनों के प्रति’ कविता की व्याख्या और आगे की बात की गई
है और उन आक्रमणों के निहितार्थ को स्पष्ट किया गया है।
प्रसंगवश एक प्रकरण याद आता है। लखनऊ विश्वविद्यालय में एक
इण्टरव्यू के सिलसिले में गया था। वहाँ हिन्दी से एम.ए. कर रहे एक संवेदनशील युवक
से बातें होने लगीं। उन्होंने चर्चा की कि ‘कुछ
दिनों पूर्व यू.जी.सी. के खर्च से लखनऊ में निराला पर एक संगोष्ठी वृहत पैमाने पर
आयोजित हुई। बड़े-बड़े विद्वान(तोप) आए। लम्बे-लम्बे भाषण हुए, बहसें चलीं। खण्डन-मण्डन हुए। हम
शिक्षार्थी सब सहने-सुनने को मजबूर थे। संगोष्ठी के बाद का नतीजा यह हुआ कि निराला
को जितना हम समझते थे,
वह भी भूल गए, कन्फ्यूज्ड हो गए।’ प्रो. नवल ने इस पुस्तक के पहले खण्ड के
प्राक्कथन में ‘पाठ से हटकर’ आलोचना करने की हिन्दी की जिस प्रवृत्ति
की चर्चा की है, शोधार्थियों को भटकाने और कन्फ्यूज्ड
करने की प्रक्रिया में उसी का सर्वांश योगदान है। पाठ से हटकर, अपनी जानकारी का आतंक फैलाने वाले
समालोचकों की जो भरमार आज हिन्दी में है, लखनऊ
विश्वविद्यालय की संगोष्ठी उसी की एक परिणति थी ।
निराला: कृति से साक्षात्कार, दो
खण्डों में प्रकाशित इस पुस्तक में प्रो. नवल ने आगे के दिनों के लिए इस तरह की
दुविधा समाप्त कर दी है। इसमें संकलित निबन्ध केवल उक्त कविताओं और गीतों की
व्याख्या और अर्थ भर स्पष्ट नहीं करते, बल्कि
निराला को समग्रता में समझने की एक दृष्टि देते हैं। किसी भी लेखक की
कार्य-प्रणाली और उसके लेखन की भाषा एवं क्षेत्र, लेखक
के व्यक्तित्व की सबसे बड़ी परिभाषा होती है, लेखक
की प्रमाणिक जीवनी होती है। नन्दकिशोर नवल की कृतियों और कीर्तियों पर गम्भीरता से
एक नजर डालें, तो उक्त बात एक बार फिर प्रमाणित होती
है और प्रो. नवल के उज्ज्वल और खाँटी साहित्यिक संवेदना का प्रमाण सामने आता है। महाकवि
निराला, रामगोपाल शर्मा ‘रुद्र’, रामजीवन
शर्मा ‘जीवन’, रामावतार
शर्मा की रचनाओं के संकलन-सम्पादन के अलावा अति महत्त्वपूर्ण और ज्वलन्त विषयों पर
दर्जन भर से अधिक उनकी आलोचनात्मक कृतियाँ उनके आलोचना-कर्म, आलोचना-दृष्टि और शोध-वृत्ति को उत्कर्ष
देती हैं।
कुछ लोग यह भले कह लें कि इन पुस्तकों में प्रो. नवल ने निराला
की प्रशंसा चारण वृत्ति से की है,
परन्तु, ऐसा है नहीं, आवश्यकता पड़ने पर रचनाओं की कमजोरियों
को सही-सही रूप में अंकित किया है। उदाहरण के लिए प्रथम खण्ड, पृ.95, तीसरा
अवतरण देखा जा सकता है,
जहाँ लेखक ने निराला
के छन्द-विधान में मात्राओं की गिनती की अनियमितता बताई है। निराला जैसे छन्द-साधक
की रचनाओं में छन्द-दोष बताना इतना आसान काम नहीं है। पर प्रो. नवल ने यह काम भी
तार्किकता से कर दिखाया है। प्रो. नवल पर ऐसा अरोप लगानेवाले या तो पूरी पुस्तक
पढ़े बिना कहते हैं,
या पूर्वाग्रह से
कहते हैं। दोनों खण्डों के सारे पृष्ठों में व्याख्या का आधार निराला की पंक्तियाँ
ही रही हैं। कोई भी व्यक्ति इन पुस्तकों से एक भी पंक्ति बेवजह उद्धृत नहीं कर
सकता। यहाँ या तो निराला की पंक्तियों की व्याख्या है, या निराला पर आरोपित, स्थापित मान्यताओं का खण्डन या मण्डन।
ऐसे में प्रो. नवल पर आरोप लगाने वालों को यह भी कहाँ मालूम हो पाता है कि किसी भी
प्रगतिशील विचारधारा,
दृढ़ मान्यता वाले
व्यक्ति की नजर में कबीर और निराला--दो ऐसे रचनाकार हैं, जिनकी केवल तारीफ ही की जा सकती है, और कुछ भी नहीं। इन दिनों तो हिन्दी में
ज्यादातर छिद्रान्वेषण ही होता है,
सही काम की सही चर्चा
तो होती नहीं, अगर होती, तो
इन दोनों कृतियों पर अब तक कई चर्चाएँ आयोजित हुई होतीं। वैसे इस तरह की
निन्दावृत्ति कोई आज की बात नहीं है। स्वातन्त्र्योत्तर काल से, अथवा स्वाधीनता-संग्राम के काल से ही
शुरू हो गई थी। अपने समानधर्माओं के आक्रमण, लांछन
सहते-सहते निराला चल बसे;
स्वातन्त्र्योत्तर
काल में ख्यात हुए रचनाकारों ने तो साहित्य की धन्धेबाजी शुरू कर दी, उनमें कुछ वैसे लोग भी थे, जिन्होंने निराला पर भी कीचड़ फेंका था, अर्थात् सूर्य पर थूक फेंका था। पर, खैर...
दूसरे खण्ड के परिशिष्ट में दिए गए दोनों निबन्ध हिन्दी के
स्वनामधन्य समालोचकों की दुर्वृत्ति को जितने साक्ष्यों और तर्कों के साथ उजागर
करते हैं, वह प्रो. नवल के संवेदनशील आलोचकीय
दायित्व और प्रामाणिक साक्ष्यों की तलाश में गहनतम शोध-प्रवृत्ति का परिचायक है।
वैसे तो सारे ही निबन्धों की विश्लेषणात्मक और सूचनात्मक पद्धति उत्कृश्ट है। पर, ‘देवी सरस्वती और किसान-सम्बन्धी कविताएँ’ शीर्षक निबन्ध की व्याख्या-पद्धति इतनी
मोहक और आह्लादक है कि चकित हो जाना पड़ता है। इन दिनों हिन्दी में आलोचना-कर्म में
रत होने से पूर्व व्यक्ति अपना कर्तव्य और अपनी योग्यता की सीमाएँ भूल जाते हैं।
एक आलोचक के पास ज्ञान,
प्रतिभा, श्रम-शक्ति के अलावा क्रूरता और सहृदयता
का समन्वित-सन्तुलित रूप भी होना आवश्यक है। क्रूरता, एक तरफ आलोचक को तटस्थ और निस्पृह बनाए रखती
है, तो सहृदयता दूसरी तरफ उन्हें कृति, और कृतिकार के प्रति निर्दय होने से
रोकती है। समय और समाज के साथ कृति और कृतिकार की अन्तरंगता को विवेकसम्मत दृष्टि
से देखने की अवगति देती है। प्रो. नवल के इन निबन्धों में आलोचकीय क्रूरता और
सहृदयता का यह समन्वय उत्तम है। इन दोनों पुस्तकों के निबन्धों से यह बात पूरी तरह
स्पष्ट है कि यह अनायास लिखे गए निबन्धों का संकलन नहीं है। जमकर, सुनियोजित और सुविचारित पद्धति से बड़ी
तल्लीनता और गम्भीरता से किए गए सिलसिलेवार श्रम का प्रतिफल है। जब वे कहते हैं कि
‘इसके (‘देवी
सरस्वती’ कविता) आरम्भ और अन्त में वर्णित
सरस्वती परम्परागत ही हैं,
लेकिन इसका असली
आकर्षण इसके बीच में जो उनका वर्णन आया है, उसमें
है।’ और आगे पंक्तियों, शब्दों, पदबन्धों
की व्याख्या करते हैं,
तो यह देखकर मन
आह्लादित हो उठता है कि एक आलोचक,
एक व्याख्याकार, किसी कृति को जानने के लिए, उसका दाय उसे देने के लिए, उसके साथ न्याय करने के लिए, उसका मूल्यांकन करने के लिए, उसके हिस्से का कुछ भी नहीं बचा रखने के
लिए कितना तन्मय, तल्लीन और व्यस्त है, कृति में कितना डूबा हुआ है, शायद कृतिकर्म में कृतिकार की तल्लीनता
भी इतनी ही रही होगी।
यह बहुत गम्भीरता से कहने की आवश्यकता है कि इस पुस्तक में
पाठकों को दोहरी तल्लीनता का सुख मिलता है, कृतिकार
तथा समालोचक--दोनों की इस तल्लीनता से खुद पाठक भी तल्लीन होता है और निराला के
कृतिलोक में घूमने लगता है। ‘तुलसीदास’ निबन्ध
में यूँ तो निराला की महत्त्वपूर्ण कविता ‘तुलसीदास’ की व्याख्या की गई है, पर आवश्यकता पड़ने पर अन्य काव्य
सन्दर्भों पर भी प्रसंगवश ध्यान दिया गया है। रामविलास शर्मा, नन्ददुलारे वाजपेयी और अज्ञेय की धारणों
और निराला के सम्बन्ध में दिए गए इनके मन्तव्यों के औचित्यानौचित्य पर भी प्रकाश
डाला गया है। यद्यपि संकलन के सारे निबन्धों में पद्धति यही है, इस खास निबन्ध की चर्चा एक उदाहरण के
तौर पर की जा रही है। इस निबन्ध में और अन्य निबन्धों में भी लेखक ने निराला की
रचना, रचना-प्रक्रिया, रचना के काल-पात्र-परिवेश, प्रकाशन की गुत्थियों, समय-समय पर दी गई उक्तियों की जैसी
सूक्ष्म व्याख्या की है,
वह बड़ी सहजता से पाठक
को एक नई दृष्टि प्रदान करती है। यह पुस्तक हरेक वैसे व्यक्ति के लिए भी उपयोगी है, जो साहित्य से दूर भागते रहे हैं। यह न
केवल निराला की कविताओं की व्याख्या करती है, बल्कि
पूरे निराला को, या यूँ कहें कि किसी भी भाषा के किसी भी
सृजन को समझने के लिए,
उसमें डूबने के लिए
किसी सहृदय व्यक्ति को कितना उद्यम करना चाहिए--उसके विवेक का द्वार खोलती है।
आलोचकीय विवेक के कपाट खोलने का यह ऐतिहासिक उद्यम, न
केवल प्रो. नवल के आलोचना-कर्म की निष्ठा को द्योतित करता है, बल्कि आलोचना-कर्म के लिए अपेक्षित
दृष्टि और उदारता और उद्यम का प्रारम्भिक पाठ पढा़ता है।...किसी भी रचना की
व्याख्या, काल-पात्र-परिवेश से निरपेक्ष होकर
सम्भव नहीं है, यदि ऐसा किया जाता है, तो वह कृतिकार की निष्ठा और व्याख्याकार
के विवेक को प्रश्नांकित करता है। जिस तरह का सीधा और पूर्वाग्रहपूर्ण आक्रमण
नन्ददुलारे वाजपेयी और अज्ञेय ने,
तथा निन्दा-प्रशंसा
के द्वैध और आत्मश्लाघा की उत्कण्ठा से भरी जैसी टिप्पणी रामविलास शर्मा ने
जहाँ-तहाँ निराला पर की है;
एक नई परम्परा और नई
काव्य-धारा के कत्र्ता-पुरुष बनने को आतुर कवि अज्ञेय के समक्ष जब निराला के
सृजन-लोक का प्रभाव आ खड़ा होता है,
और कवि को उस
प्रभालोक से टक्कर लेने में संकट आता है--तो उसके लिए अपने गिरेबान में हाथ न देकर
अपनी कमजोरी के लिए दूसरों को कलंकित करने की जो पद्धति अज्ञेय ने अपनाई है--उन
सबकी व्याख्या प्रो. नवल ने पर्याप्त शोध-सन्दर्भ और विलक्षण विश्लेषण पद्धति से
की है। ‘तुलसीदास’ निबन्ध
में ‘तुलसीदास’ कविता
की व्याख्या करते हुए,
विषय-वस्तु के
सन्दर्भ के रास्ते काल-सीमा और परिवेश के यथार्थ में जाकर, समकालीन समाज की जीवन-प्रक्रिया का गुण-सूत्र
ढूँढना आलोचकीय विवेक का ही परिचय देता है। भारतीय जनजीवन के लिए तुलसीदास का काल
इतना दारुण और दयनीय था,
जहाँ तुर्कों और
अफगानों के शक्तिपुंज से पूरी संस्कृति आहत हो रही थी। उस परिवेश में सामाजिक
व्यवस्था और लोक-जीवन की क्या स्थिति थी, और
एक भावुक, प्रतिभाशाली, मानवधर्मी व्यक्ति भावना, तर्क, औचित्य
और यथार्थ के बीच तनी हुई रस्सियों के बीच क्या खिंचाव भोग रहा था, उसका चित्रण जिस सूक्ष्मता के साथ ‘तुलसीदास’(कविता)
में हुआ है, उसके विश्लेषण में प्रो. नवल ने
एँड़ी-चोटी एक कर दी है। उक्त परिस्थिति में इस कविता में आए जिस चित्रण को देखकर
रामविलास शर्मा का ध्यान निराला के इस्लाम विरोध पर जाता है, उसका बड़ा ही तार्किक काट प्रो. नवल ने
प्रस्तुत किया है। यहाँ रामविलास शर्मा द्वारा उठाए गए सवाल, इस्लाम के प्रति उसी तरह की कूटनीति को
दर्शाते हैं, जैसे आज के बुद्धिजीवी, नारीवाद के पक्ष में बेवजह और बेबुनियाद
और उलझन-उधेड़बुन वाली बातें करते हैं। या फिर अगड़े-पिछड़े, बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक की राजनीति करने
वाले व्यक्ति सोचते-बोलते रहते हैं। वे नारियों, पिछड़ों
और अल्पसंख्यकों के उत्थान की बात करेंगे और उन्हें आरक्षण देकर सबसे पहले उन्हें
हीन भावनाओं से भर देंगे। भई,
उनके बारे में बहुत
लाड़-प्यार उमड़ा है,
तो उन्हें अपनी
पंक्ति में बैठाओ! उन्हें आरक्षित कुर्सियों पर बैठाकर पहले से ही उन्हें अलग कर
देते हो और फिर उसमें समभाव भरने का ढोंग करते हो--यह कैसी विडम्बना है! नवल अपने
निबन्धों में इस कूटनीति को भी अनावृत करते हैं। ‘तुलसीदास’ कविता में निराला द्वारा अंकित
पंक्तियों में, जो तुर्काें और अफगानों के प्रति क्रोध
भाव दिखता है, उसकी आज के मुसलमानों से तुलना करना
उचित नहीं है; ठीक उसी तरह, जैसे रावण जैसे पण्डित के साथ आज के
पण्डितों, अथवा महाभारतकालीन राजपूतों की
दुश्चरित्रता से आज के राजपूतों की तुलना नाजायज है। तुर्कों और अफगानों के
शासनकाल के आततायी हमारे देश के वैसे मुसलमानों की तरह नहीं गिने जा सकते, जैसे हमारी नजर में रहीम, कबीर, रसखान, गालिब, मोमिन, फैज, मजाज
या राही मासूम रजा,
अली सरदार जाफरी, कैफी आजमी, जाकिर हुसैन, फकरुद्दीन अली अहमद, मौलाना अब्दुल कलाम गिने जाएँगे।
पाकिस्तान के अपने अनुयायी समेत परवेज मुसर्रफ या अफगानिस्तान के अपने अनुयायी
समेत मौलाना उमर, ओसामा बिन लादेन को जिस तराजू पर
तौलेंगे, उस पर अहमद फराज, बेगम अख्तर, तहमीना दुर्रानी, सलमान रुश्दी या तसलीमा नसरीन को नहीं
तौला जा सकता। प्रो. नवल ने इन सारी स्थितियों को निराला की कृति से साक्षात्कार
करते हुए स्पष्ट किया है ।
इस पुस्तक में आलोचना पद्धति का बहुआयामी दृष्टिकोण एक
श्रमसाध्य तरीके से सामने आता है। भारतीय साहित्य की पारम्परिक समीक्षा-पद्धति, आधुनिक-समकालीन -उत्तर-आधुनिक
समीक्षा-पद्धति, अलंकार और छन्दशास्त्रीय समीक्षा-पद्धति, व्याकरण के वर्ण, शब्द, पद, पदबन्ध, मात्रा, अल्पप्राण, महाप्राण सम्मत दृष्टिकोण, सांगीतिक लयात्मकता, लोक-जीवन का भदेसपन, समाजशास्त्रीय दृष्टि, व्यवहार सापेक्ष अतिक्रमण और रूढ़ि एवं
प्रगतिशीलता, पाठ को घटना और घटना को पाठ की कसौटी पर
रखकर परखने की तटस्थता--सारी की सारी आलोचना दृष्टि यहाँ अपने उत्कर्ष पर है। इस
पुस्तक की पंक्तियों का हमसफर होना किसी व्यक्ति के लिए भारतीय साहित्य के महान
रचनाकार सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ के
रचना-मानस, कृति-कर्म, सोच-विचार, जीवन-दृष्टि और उनके जीवन के राग-विराग, व्यथा-कथा का हमसफर होने, उनका भोक्ता होने का अनुभव होगा। उनके
लिए यह समाज, साहित्य, संस्कृति
और व्यवस्था के विस्तृत आयाम से गहरे तौर पर जुड़ने के लिए प्रेरणादायक होगा; क्योंकि यह ग्रन्थ केवल एक महान रचनाकार
की कृतियों की व्याख्या भर नहीं करता, यह
वास्तविक अर्थों में प्रगतिशील विचारधारा के तमाम लोगों के आदर्श के धर्म-कर्म और
मर्म के साथ थोपी गई मान्यताओं की भी विवेकसम्मत व्याख्या करता है। इस ग्रन्थ का
प्रकाशन एक साथ लेखक,
प्रकाशक और हिन्दी के
पाठक--तीनों के लिए बधाई का मौसम उपस्थित करता है।
निराला का काहा, अक्षर पर्व, मई 2003
निराला: कृति से
साक्षात्कार(दो खण्डों में)/नन्दकिशोर नवल/सारांश प्रकाशन/पृ.312
(प्रति खण्ड)/रु..300/-(प्रति खण्ड)
"पर थोड़ा व्यापक दृष्टि डालें तो प्रो. नवल के यहाँ दलवाद और झण्डावाद का कोई प्रामाणिक स्रोत नहीं दिखता, वे पूर्वाग्रह में हिन्दी के किसी खास स्कूल के मतामत का न तो आँख बन्दकर खण्डन करते, न मण्डन;...नीर-क्षीरविवेकी की तरह दूध का दूध, पानी का पानी करके रख देते। अन्ततः आलोचना कर्म का मौलिक स्वरूप भी तो यही है।" पिछलग्गुपन, वाद और पंथ के पंक में फँसे साहित्य के लिए नवल जी का यह आलोचना कर्म एक नवल संस्कार का साक्षात्कार भी कहा जाएगा। दो वर्ष पहले पुस्तक मेला की एक गोष्ठी में अरुण कमल जी के मुँह से सुना था कि निराला पर अभी शोध की अपार संभावनाएँ हैं और उन पर बहुत कुछ लिखा जाना बाक़ी है। नवल जी की यह कृति निश्चय ही उस दिशा में बढ़ा एक श्लाघ्य क़दम है। इस कृति की विस्तृत समीक्षा के लिए आपको साधुवाद! संभवतः आपकी सारगर्भित समीक्षा में समीक्ष्य कृति का बिम्ब आलोकित हो रहा है। आभार और बधाई!!
ReplyDeleteसुन्दर
ReplyDeleteचिट्ठा अनुसरणकर्ता बटन उपलब्ध करायें।
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