कृष्ण को भी पश्चाताप हुआ था
प्रसंग : काशीनाथ सिंह का उपन्यास उपसंहार
उपसंहार हिन्दी के मशहूर कथाशिल्पी काशीनाथ सिंह का पाचवाँ
उपन्यास है। कहानी,
उपन्यास, नाटक, संस्मरण, साक्षात्कार, शोध-समीक्षा की अब तक उनकी इक्कीस
पुस्तकें प्रकाशित हैं। पूरे आर्यावर्त के वर्तमान परिदृश्यों के मद्देनजर उनकी यह
ताजा कृति साहित्य-प्रेमियों को कई तरह से चौंकाता है। अपने रचना-विधान के क्षिप्र
परिवर्तन से इस तरह पाठकों-आलोचकों को चुनौती देना कोई आसान काम नहीं होता।
पाठक-आलोचक अक्सर अपने प्रिय रचनाकार की रचनात्मक संरचना में एक सुनिश्चित विधान
के अभ्यस्त हो जाते हैं और उनकी हर कृति में उन्हें उसी विधान के साथ देखना पसन्द
करते हैं। ऐसे में जब काशीनाथ सिंह विषय-वस्तु और भाषा-शिल्प की अपनी पूरी छवि के
स्थापित विधान को त्यागकर अचानक नए रूप में सामने आते हैं तो पाठकों का चौंक जाना
स्वाभाविक है।
उपसंहार उत्तर महाभारत की कृष्ण-कथा है। अर्थात महाभारत-युद्ध
का समस्त उद्वेलन समाप्त कर कृष्ण की द्वारका वापसी और उनके शेष जीवन की व्यथा-कथा
है। पर, ध्यातव्य है कि काशीनाथ सिंह इस उपन्यास
के जरिए कोई मनभावन या हियसीदन कथा भर नहीं सुना रहे हैं। वे इसके रचना-विधान से
समकालीन पाठकों और पद-मद-ऐश्वर्य के आखेटकों को उन सवालों एवं अवश्यम्भावी घटनाओं
से सामना करवा रहे हैं,
जिसकी चिन्ता से वे
समकालीन छुद्र लिप्साओं के कारण बेफिक्र हैं, उन्हें
नहीं मालूम कि वे कहाँ जा रहे हैं।
महाभारत-युद्ध की समाप्ति के बाद द्वारका लौटी हुई बची-खुची
नारायणी सेना से वीरगति-प्राप्त सैनिकों की सूचना पाकर शोकाकुल परिजनों और कभी न
लौटने वाले सैनिकों की प्रतीक्षा में पथराई आँखों के साथ द्वारका की निःशब्द भीड़
देखकर अपने नगर लौटे हुए द्वारकाधीश के आत्ममन्थन से उपन्यास की कथा शुरू होती है, और सर्वश्रेष्ठ निषाद धनुर्धर जरा के
तीर-प्रहार से उनके देह-त्याग पर समाप्त होती है।
उल्लेख हुआ है कि कंसवध के बाद मथुरा पर जरासंध के बेशुमार
हमलों से ऊबकर यादवकुल को बचाने हेतु जो कृष्ण द्वारका आ बसे; जिस कृष्ण ने बाल्यकाल से ही राजाओं के
आततायी, क्रूर और बर्बर आचरण देखे थे, चाटुकारिता और नृशंसता देखी थी, भयत्रस्त जनता की आँखों में आतंक का
साया देखा था; उस कृष्ण के मन में द्वारका बसाने का
अर्थ एक सपना था। अपने सपनों को पूरा करने के लिए वे रैवतक पर्वत के पास कुशस्थली
जैसी मनोरम जगह में आकर द्वारका के रूप में ऐसा गणराज्य बनाना चाहते थे, जहाँ भव्य और निर्भीक नागरिक जीवन हो, जहाँ के राजा लोक और लोक के महत्त्व को
जाने समझे। यादव-कुल के नागरिकों की आपसी खींचातानी से परिचित कृष्ण के लिए ऐसे
गणराज्य का गठन चुनौतीपूर्ण काम था,
पर उन्होंने ऐसा
किया। द्वारका में स्थिर होने के बाद क्रूर, अहंकारी, बर्बर शासकों और दानवों का सफाया करने
की नीयत से वे आर्यावर्त के दूसरे छोर प्राग्ज्योतिषपुर (असम) तक गए और क्रूर दानव
नरकासुर को परास्त किया;
भौमासुर के कैद से
विभिन्न वंशों, जातियों, राज्यों
की सोलह हजार रूपसी युवतियों को अत्याचार से मुक्त कराया। पितृ-गृह और
पति-गृहकृदोनों जगहों की अस्वीकृति से भयाकुल उन रूपसियों की सम्मान-सुरक्षा हेतु
उन्हें द्वारका ले आए और उन सब के बीच अपने नाम का मंगलसूत्र बँटवाया। नागरिक-जीवन
की सुव्यवस्था और नारी-सम्मान सुरक्षा के ऐसे संस्थापक कृष्ण की उस पीड़ा को कौन
समझे कि उनके ही द्वारा संस्थापित गणराज्य के छोकरे उन स्त्रियों पर कुदृष्टि
डाले घूमने लगे। वीरगति प्राप्त अपने जिन योद्धाओं की सन्तानों से उनकी अपेक्षा थी
कि वे अपने पिता से दो-चार हाथ आगे जाएँगे और अपनी कलाओं से त्रिभुवन को चमत्कृत
करेंगे; वे व्यभिचार में डूब गए। खुद उनकी ही
सन्तानें वैसे अनाचार करने लगे जिसके दण्डस्वरूप अपने व्यतीत जीवन में वे दोषियों
का संहार करते रहे थे। सारथि दारुक से किए गए प्रश्न ‘भगवान होने के लिए पत्थर होना जरूरी है
क्या?’ में कृष्ण की घनघोर पीड़ा का अनुभव किया
जा सकता है। कृष्ण ने जिस द्वारका गणराज्य की स्थापना हेतु सारी चुनौतियों का
सामना किया; सर्वत्र सभ्य नागरिक-जीवन व्यवस्थित
करने के लिए निर्लिप्त लड़ाइयाँ लड़ीं, जिस
यादव-कुल की रक्षा हेतु इतने उद्यम किए; अब
वही कृष्ण अपने जीवन के अधोभाग में अपने ही अहंकारों और नीति विरुद्ध आचरणों के
कारण यदुवंश का नाश होते देख रहे हैं। उपसंहार उत्तर महाभारत काल के कृष्ण-जीवन की
इन्हीं मानसिक पीड़ाओं और उनके व्यतीत-जीवन के अभिकर्मों का लेखा-जोखा प्रस्तुत
करता है, बल्कि विलक्षण कथा-कैशल से कृष्ण के
आस-पास फैली घटनाओं के ध्वन्यार्थों से कृष्ण के मूक मनस्ताप को ध्वनि देता है।
जाहिर है कि उपन्यास की कथा प्राचीन है, जिसकी प्रमाणिकता बरकरार रखने हेतु
काशीनाथ सिंह ने कई प्राचीन,
अर्वाचीन ग्रन्थों का
सहारा लिया है। उन्होंने अपनी ओर से कथासूत्र में कहीं किसी कल्पना की कीलें नहीं
ठोकीं; उनकी प्रस्तुति निश्चय ही नई है। कहते
हैं कि बड़े-बड़े लेखकों को कोई बड़ी बात कहने के लिए जब समकालीन तौर-तरीके नाकाफी
लगने लगते हैं तो वे अपनी चिन्ता का हल ढूँढने अतीत में चले जाते हैं; वहाँ उन्हें कोई न कोई हल अवश्य मिल
जाता है। पूर्व में भी कई महान चिन्तकों को ऐसा हल मिलता रहा है। द्वितीय
विश्वयुद्ध की चिन्ता से परेशान रामधारी सिंह दिनकर को कुरुक्षेत्र युद्ध की मनःयात्रा
करनी पड़ी थी।
आज हमारा देश चतुर्दिक व्याप्त जिन विपत्तियों से जूझ रहा है; खुद को सामाजिक कार्यकर्ता और देश का
सेवक घोषित करने वाला व्यक्ति,
दल और दलसमूह जिस तरह
के अनाचारों में लिप्त है;
बेशर्म मुस्कान के
साथ अपनी जयगाथा और पराजय पीड़ा बता रहा है; आक्षेपों-प्रत्याक्षेपों
की शृंखला से वाग्युद्ध करते हुए पूरी पीढ़ी को उद्दण्डता का प्रशिक्षण दे रहा है; समाज में बहू-बेटियों के साथ अनाचार हो
जाता है और सत्ताधीश उसे अपने पक्ष में भुनाने लगते हैं; उन्हें भान तक नहीं होता कि जिस
प्रभुत्व के लिए वे इतने बड़े पापाचार में लिप्त हो रहे हैं, वह कितनी देर उनके साथ रहेगा!...काशीनाथ
सिंह को देश-समाज की यह पीड़ा वर्षों से बेधती रही है। उनकी हर कृति के नायक
नायिकाओं द्वारा उक्त घटनाओं के वीभत्स चित्र अंकित होते रहे हैं; पर इस समय देश की जो दशा है उसमें
काशीनाथ सिंह भी द्वापर युग के उस कृष्ण की पीड़ा से ही व्यथित हैं। वे कृष्ण नहीं
हैं किन्तु उनकी पीड़ा कहीं कृष्ण से भी जटिल है; वरना
जनपदीय भाषाशैली और समकालीन विषयबोध की अपनी विलक्षण प्रस्तुति के लिए ख्यात
काशीनाथ सिंह यूँ ही अतीत और पौराणिकता में भटकने नहीं चले जाते।
यह उपन्यास भारतवर्ष के सियासी और प्रशासनिक वातावरण के बेशर्म
गाल पर, जो वक्त-बेवक्त बेशर्मी से बजता रहता है, एक झन्नाटेदार तमाचा है कि खुद को भगवान
साबित करने वाले जनरक्षको! कभी तुम भी कृष्ण की तरह अपने पालितों के आचरण से
व्यथित होकर कुछ रास्ता निकालो। अपनी जिस शक्ति के अहंकार में चूर हो, कृष्ण की शक्ति उससे बहुत बड़ी थी, हर विवेकशील प्राणी अपने इतिहास-पुराण
से प्रेरणा लेता है,
कृष्ण-जीवन से
तुम्हें कोई प्रेरणा नहीं मिलती?
कृष्ण के निरन्तर
सद्प्रयासों के बावजूद जब पद-मद के आखेटकों के अनीति-अनाचार से यदुवंश का विनाश हो
गया तो तुम्हारी हैसियत क्या है?
कृति के कथा-विधान और भाषा-शैली में धिक्कार-धमकी के सारे रूप
बहुलता से मौजूद हैं। यद्यपि जिस भाषा-शिल्प के लिए काशीनाथ ख्यात हैं, विषय और कथाकाल की बदली हुई परिस्थिति
के कारण इस उपन्यास में बदला हुआ है, पर
उसमें उनकी राष्ट्र-चिन्ता और सामाजिक सरोकार को गम्भीरता से देखने की जरूरत है।
भारतीय साहित्य में ऐतिहासिक-पौराणिक सन्दर्भों पर कथात्मक पुनर्कथन की पुरानी
परम्परा है। कई पुनर्कथन अब तक हो चुके हैं, पर
अधिकतर प्रसंगों में देखा गया है कि वहाँ कला-कौशल के हस्तक्षेप से इतिहास-पुराण
की प्रामाणिकता खण्डित हो गई है या फिर कथा की गतिकता बाधित हो गई है। इस अर्थ में
उपसंहार कुछ गिनी-चुनी कृतियों में से है, जिसमें
पौराणिक कथा की मौलिकता तो बरकरार है ही, काशीनाथ
सिंह के विलक्षण रचनाशिल्प के कारण उसकी गतिकता भी पूरी तरह ऊर्जस्वित है, और हर अंश में लेखक इस पौराणिक कथा की
समकालीन उपादेयता देते चले हैं।
इस उपन्यास की कथाभूमि में काशीनाथ सिंह ने अलग से कुछ नहीं
जोड़ा है; पर विलक्षण उपस्थापन-शिल्प और भाषा की
कुशाग्रता में नहाकर वे पौराणिक और मिथकीय प्रसंग तरोताजा और सम्पूर्ण उपादेयता के
साथ समकालीन हो गए हैं। एक पुराने पाठ के पुनर्कथन को नूतनता देने का यह स्पृहणीय
कौशल काशीनाथ सिंह की तमाम रचनाओं में है। अपनी अन्य रचनाओं के विषय भी वे कहीं से
खोदकर नहीं ले आए, सारे प्रसंग अपने आस-पास के ही हैं।
फर्क सिर्फ इतना है कि उन्होंने उन प्रसंगों को देख लिया, सुखकर है कि देख लेने की ये विलक्षण
आँखें उन्हीं के पास हैं। किसी लाश के खुले पोपले मुँह और गन्दे दाँतों पर
भिनभिनाती मक्खियों को कई लोग देखते हैं, पर
उन मक्खियों की भूख और सेठ के दाँतों में दबी जमाखोरी केवल काशीनाथ सिंह देख पाते
हैं। ठीक उसी तरह कृष्ण-गाथा से परिचित इस समाज के करोड़ों नागरिक इन शृंखलाबद्ध घटनाओं
से परिचित हैं। हजारों वर्षों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसका पुनर्कथन होता आया है, पर काशीनाथ सिंह का रचना-कौशल यहाँ उनके
विलक्षण अवलोकन का सबूत पेश करता है।
चूँकि उपसंहार उत्तर महाभारत की कथा है इसलिए इसमें कृष्ण-गाथा
के अनुषंगी प्रसंग प्रसंगवश ही आते हैं, बाल-लीलाएँ
सिरे से अनुपस्थित हैं। महाभारत-युद्ध और अर्जुन-युधिष्ठिर भी चर्चा के क्रम में
ही आते हैं। उत्तर महाभारत काल में यदुवंशियों की अभद्र क्रीड़ाएँ और कृष्ण की
मानसिक पीड़ाएँ केवल प्रमुखता से रेखांकित हैं। युद्ध में जय-पराजय किसी भी पक्ष का
हो, हनन तो दोनों का होता है। जिस महाभारत
को धर्मयुद्ध कहा गया,
उसकी शिराओं से अनर्थ
के कितने अँखुवे फूटे,
उसके बाद कृष्ण की
मनोदशा क्या हुई, यह किसी इतिहास-पुराण में कृष्ण के
वक्तव्य के रूप में दर्ज नहीं है,
अलबत्ता काशीनाथ सिंह
ने भी इस उपन्यास में दर्ज करने की मशक्कत नहीं की है, पर प्रसंगों की उपस्थापन शैली से
उन्होंने मानवीयता के पक्षधर कृष्ण की पीड़ा के रूप में और उनके द्वारा गठित
द्वारका गणराज्य के लोक-चेतना-सम्पन्न नागरिकों की जीवन-व्यवस्था के रूप में
निरन्तर स्पष्ट हुई है। बेटों की प्रतीक्षा में खड़े वृद्धों, पिताओं की प्रतीक्षा में खड़े बच्चों, पतियों की प्रतीक्षा में खड़ी ग्वालिनों, भाइयों की प्रतीक्षा में खड़े चरवाहों की
द्वारका की भीड़ की मनोदशा भाँपकर कृष्ण इस तरह बेचैन हुए कि उन्हें गोशाला में
बँधी गउओं के रँभाने की ध्वनि तक सुनाई नहीं दे रही थी। युद्धोत्तर परिदृश्य के
ऐसे स्वरूप, उनके प्रभुत्व-प्रचार के कारण यदुवंश की
सन्ततियों की ऐसी विवेकहीनता के बारे में कृष्ण जैसे नीतिज्ञ ने कभी पूर्व में
सोचा होगा?...सवाल कृष्ण के सोचने, न सोचने का नहीं है, सवाल आज के भारत की राजनीतिक-प्रशासनिक
परिस्थिति का है। सारी नीतियों को ठोक-ठठाकर लागू करने वाले कृष्ण कुछ तो अपने
विवेक चिन्तन से, और कुछ परिजनों, प्रजाजनों के आक्षेपों से पीड़ित हैं, उन आक्षेपों से तो कुछ ज्यादा ही, जिसकी आड़ में यदुवंश की नई पीढ़ी निरन्तर
दुर्वृत्तियों के गड्ढ़े में गिरते जा रहे थे।
सर्वाधिक प्रेरक प्रसंग तो अधोकाल में देखे गए कृष्ण के वे
सपने हैं, जिसमें प्रपंच से मारे गए एक-एक योद्धा
उनके शयनकक्ष में आकर उनकी भूलें बताते हैं। कृष्ण के मस्तिष्क में जयद्रथ, कर्ण, दुर्योधन
आदि की प्रपंचपूर्ण हत्याओं का लेखा-जोखा लगातार इस तरह कौंधता है कि वे सारे
प्रसंग उनके सपनों के अंग बन गए हैं। वर्तमान व्यवस्था के पोषकों, पालकों, भुक्तभोगियों
के लिए कृष्ण की वह स्वीकारोक्ति विराट प्रेरणा का स्रोत है, जिसमें वे अपने सारथि दारुक से कहते
हैं--मेरे उपदेश के बाद अर्जुन की दृष्टि भले कर्म पर टिकी रह गई हो, मेरी दृष्टि बराबर उसके परिणाम पर बनी
रही,कृअपनी प्रतिष्ठा के लिए, अपनी मर्यादा के लिए, अपने ऐश्वर्य के लिए। मुझे हर हाल में
युद्ध जीतना ही थाकृचाहे धर्म भंग हो, चाहे
नियम टूटे। हार जाता तो कौन-सा मुँह दिखाता दुनिया को?...उस समय मैंने यह नहीं सोचा था कि जो कर
रहा हूँ, उसे देर-सबेर द्वारका को, मेरे घर को भुगतना पड़ेगा।...
वरदान-लिप्सा और अनिष्ट-भय में बड़े-बड़े शूरमाओं की मिट्टी पलीद
होने का ध्वनि-संकेत भी दुर्वासा के आदेश से कृष्ण-रुक्मिणी के निर्वस्त्र शरीर
में खीर लगाकर छकरा ढोने में दिखता है। अर्थात् आज के स्वघोषित देवताजन देख लें कि
अपनी जिस प्रभुताई के विस्तार और भोग के आविष्कार में वे समस्त मानवीयता को दानवी
चेष्टा से रौंद रहे हैं,
आम नागरिक के
इज्ज्त-आबरू, जान-माल, इच्छा-अभिलाषा
से दलगत खेल खेल रहे हैं,
नीति और विचारों की
तस्करी कर रहे हैं,
उसे कब तक कायम रख
सकेंगे! अन्ततः कृष्ण के पैर में भी धनुर्धर जरा के तीर लग ही गए थे।...
जनसत्ता
उपसंहार/काशीनाथ
सिंह/राजकमल प्रकाशन/पृ. 128/रु. 250.00
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