श्रीलाल शुक्ल जितने बड़े लेखक हैं, उससे कहीं अधिक बड़े मनुष्य। बड़ा लेखक
होने की आवश्यक योग्यता मेरी समझ से बड़ा मनुष्य होना ही है। जो व्यक्ति मानवीय
नहीं होगा, वह सामाजिक कैसे होगा? और, सामाजिक
नहीं होगा, तो साहित्य कैसे रचेगा? हिन्दी में वैसे उस तरह के लेखकों की
कमी नहीं है, जिन्होंने लेखक के रूप में तो अपनी बड़ी
इमारत खड़ी कर ली है,
पर व्यक्ति के रूप
में वे बहुत नीचे हैं। उनके लेखन से उनके व्यक्तित्व, आहार-व्यवहार, मान्यताएँ आदि कहीं मेल नहीं खातीं।
श्रीलाल शुक्ल इस मामले में बिल्कुल भिन्न हैं। सम्भव है कि हिन्दी में उनके जैसे
चन्द लेखक और हों, पर यहाँ हमें श्रीलाल जी की बात करनी है, जिन्होंने साहित्य-सृजन में
प्रबन्धन-क्रम को कभी महत्त्व नहीं दिया।
श्रीलाल शुक्ल के स्थापना-काल और घनघोर लेखन का जो दौर था, वह हिन्दी साहित्य में कई मायनों में
विचित्र था। सन् 1945 की अपनी कहानी बताते हुए वे अपनी एक
व्यंग्यात्मक कविता की चर्चा करते हैं, जो
उन्होंने बीस वर्ष की आयु में लिखी थी। गो कि रचने की कुलबुलाहट उन्हें उसी उम्र
में होने लगी थी। स्वाधीनता आन्दोलन की परिस्थितियाँ और आन्दोलनकारियों की करतबें
निश्चय ही उनके समक्ष रही होंगी। वे खुद अपने सक्रिय लेखन का शुभारम्भ सन् 1954 से मान रहे हैं, अर्थात् स्वाधीनता प्राप्ति के सात वर्ष
बाद। तब तक देश आजाद हो गया,
कुछ चालाक शिक्षित और
कुछ प्रशिक्षित चालाक स्वाधीन भारत की व्यवस्था में अपने लिए कुर्सी, या थोड़ी-सी जगह पा लेने के उद्योग में
लगे हुए थे; कम-से-कम कुर्सी के आस-पास भी बने रहने
की जुगत बैठा रहे थे। साहित्य का आँगन इस वृत्ति से बचा नहीं रहा था।
स्वाधीनतापूर्व के समय जिस साहित्य ने फिरंगी-वर्चस्व को धूल चटा दिया था, स्वातन्त्र्योत्तर काल में पाँव स्थिर
करने वाले कई साहित्यजीवी-साहित्यभोगी उसी भाषा-साहित्य के आँगन में धन्धा और
प्रबन्धन की विद्यापीठ स्थापित कर ली। चुनावी घोषणा पत्र की तरह साहित्य में भी
घोषणाएँ होने लगीं। साहित्य को आत्म-स्थापन और आत्म-प्रचार का माध्यम बनाया जाने
लगा था। बदकिस्मती से सक्रिय लेखन में श्रीलाल शुक्ल का आगमन उसी दौर में हुआ और
उन तमाम विसंगतियों को झेलते हुए,
उन्हें अपनी अलग छवि
दृढ़ करने की मशक्कत करनी पड़ी। हिन्दी कहानी के मद्देनजर तो बीसवीं शताब्दी का छठा
दशक कई तरह से चर्चा में है।
स्वातन्त्र्योत्तर काल के प्राथमिक दो दशक (सन् 1947-1967) भारतीय लोक-तन्त्र के लिए विकराल हलचल
का समय है। श्रीलाल शुक्ल के उपन्यास--‘सूनी
घाटी का सूरज’, ‘अज्ञातवास’, ‘रागदरबारी’ और ‘अंगद
का पाँव’(व्यंग्य संग्रह) इसी दौरान लिखे गए। इन
दो दशकों के सामाजिक,
राजनीतिक, आर्थिक और साहित्यिक परिदृश्य का जैसा
चेहरा श्रीलाल शुक्ल के समक्ष था,
उसके बरक्स साहित्य
में व्यंग्य से बड़ा हथियार कुछ नहीं हो
सकता था। सत्ता के गलियारे में भटक रहे बुद्धिजीवियों; वणिक् धर्म अपनाकर आत्म विज्ञापन, और आत्मोन्नयन के प्रबन्धन में लिप्त हो
गए साहित्यसेवियों को देखकर निश्चय ही श्रीलाल शुक्ल के समक्ष सन्नाटे की स्थिति
खड़ी हो गई होगी। आजादी की खुशी,
उन्माद और उल्लास के
आनन्द में विभोर रहने के बावजूद सन् 1947
से 1967 तक के अन्तराल में देश का विभाजन, सीमा संघर्ष, प्राकृतिक आपदाओं, विप्लवों, राजनीतिक
दलबन्दियों, हत्याओं, बलात्कारों, दंगों, तानाशाही
और शासकीय बेहयाई का जो ताण्डव मचा उससे मानवता शर्मसार हुई। मुक्तिकामी भारतीय
जनता ने इन तमाम विसंगतियों के समक्ष खड़े होकर अनाज-पानी के देवताओं और भारत के नव
निर्वाचित भाग्य विधाताओं को अपनी क्षमता का परिचय दिया। श्रीलाल शुक्ल के साहित्य
लिखने की मजबूरी ये ही स्थितियाँ बन°।
और, इन परिस्थितियों के बीच साहित्य का
धन्धा करना उनसे सम्भव नहीं हुआ।
सम्भवतः यही कारण हो कि उन्होंने सघनता और सक्रियता से कहानी लिखकर नई कहानी अथवा
समान्तर कहानी के विद्यालयों में शामिल होने की बजाए व्यंग्य का मार्ग अपनाया।
व्यंग्य श्रीलाल शुक्ल की अभिव्यक्ति का मूल धर्म है, यह उनके उपन्यासों में भी बखूबी दिखता
है। उनके अभ्यासकाल की रचनाओं में भी व्यंग्य के तीखे स्वर ही दिखाई देते हैं।
अपनी युवावस्था के आवेशपूर्ण क्षण में ही उन्होंने देश की जैसी दशा देखी थी, उसमें सम्भवतः अनुमान कर लिया था कि इस
देश में आम नागरिक के जगने से अधिक आवश्यक है बुद्धिजीवियों का जगना। और, बुद्धिजीवियों को जगाने के लिए सहज
रास्ता सही नहीं
होगा, व्यंग्य से ही उन्हें सही तरीके से
जगाया जा सकता है। व्यंग्य के मामले में उनकी राय सही है कि ‘व्यंग्य वस्तुतः एक सुशिक्षित मस्तिष्क
की देन है और पाठक के स्तर पर भी सुशिक्षित प्रतिक्रिया की माँग करता है। वह पाठक
को गुदगुदाने के लिए नहीं,
बल्कि किसी विसंगति
या विडम्बना के उद्घाटन से उसके सम्पूर्ण संस्कारों को विचलित करने की प्रक्रिया
है। तभी उसमें इकहरापन नहीं होता, अभिव्यक्ति-शिल्प के अधिकाधिक उपादानों
का खुलकर प्रयोग होता है।’
वैसे यह वक्तव्य उनका
बहुत बाद का है, पर उनके व्यंग्य की धार में यह बात शुरू
से दिखती है।
ऐसे विराट व्यक्तित्व, उदारतम
स्वभाव के महान लेखक के पूरे साहित्य पर पूरी किताब का लिख जाना भी कम पड़ेगा। यहाँ
उनकी टिप्पणियों के एक संग्रह पर बात करते हैं।
खबरों की जुगाली उनकी छियालीस व्यंग्यात्मक टिप्पणियों का
ताजा-तरीन संकलन है। ये टिप्पणियाँ वर्ष 2003-2005
में ‘इण्डिया टुडे’ (हिन्दी) पत्रिका के पाक्षिक स्तम्भ में
प्रकाशित हुई थ°, जिनमें उनकी कोशिश पाठकों के रिझाने के
बजाय तत्कालीन घटनाओं,
स्थितियों के परीक्षण
और उनमें अन्तर्निहित विडम्बनाओं-विकृतियों को उजागर करने की थी। सम्भवतः इसीलिए
इस पुस्तक का नाम खबरों की जुगाली रखा गया। अपनी अन्र्तवस्तु के कारण यह अमूल्य
कृति है।
दस उपन्यास,
चार कहानी संग्रह, एक साक्षात्कार संग्रह, नौ व्यंग्य संग्रह, एक आलोचना पुस्तक, दो विनिबन्ध, चार अनूदित पुस्तक, एक सम्पादित पुस्तक के रचनाकार श्रीलाल
शुक्ल का जितना विराट लेखकीय व्यक्तित्व है, यह
पुस्तक उसे कोई खास ऊँचा नहीं करती।
वैसे इन निबन्धों की लेखन प्रक्रिया और पुस्तक के प्रस्तावना वाक्य के आधार पर गौर
करें तो लेखक की ऐसी कोई मंशा भी नहीं थी।
वैसे निर्धारित तिथि के अन्दर निर्धारित विषय पर तयशुदा
शिष्टाचार में लिखी गई रचनाओं को श्रेष्ठ होने में जितनी कसर रहनी चाहिए, इसमें उतनी नहीं है। धारावाहिक अथवा स्तम्भ लेखन करते
वक्त प्रायः लेखक मजबूर हो जाते हैं, कई-कई
घटक उसके सौष्ठव को प्रभावित करते हैं।
विराट फलक के रचनाकार श्रीलाल शुक्ल ने कई विधाओं में रचना की
है। मगर सबसे अधिक जमे हैं उपन्यास,
व्यंग्य गद्य और
वैचारिक लेख में। कथा लेखन में वे स्वयं को अक्षम घोषित करते हैं। उनकी राय में
कथा लिखने के लिए निरन्तर नई जमीन तोड़ने की घोषणा, अपने
लेखन की व्यापारिक व्यवस्था,
समीक्षादि के लिए पत्राचार
करते रहना जरूरी था,
और यह उनके लिए
असम्भव था--इसलिए उन्होंने उपन्यास और कुछ विनोदपूर्ण लघु रचनाएँ लिखने शुरू किए।
गो कि उनके जमाने के कथा लेखक ऐसे ही किया करते थे। उम्र में श्रीलाल शुक्ल से
करीब चार वर्ष कम, मगर लेखन में उनके समकालीन राजकमल चौधरी
ने भी उस काल के कथा लेखन पर इससे मिलती-जुलती प्रतिक्रिया की थी। फिलहाल चर्चा का
विषय यह नहीं...।
करीब ढाई दर्जन पुस्तकों के लेखक श्रीलाल शुक्ल हिन्दी व्यंग्य
के मानक स्तम्भ में गिने जाते हैं। उनकी प्रसिद्ध कृति राग दरबारी को पाठकों के
बीच रामचरित मानस और गोदान की तरह प्रशस्ति मिली। उस पुस्तक का मूल स्वर व्यंग्य
ही है। उसे व्यंग्य-लेखन की दिग्दर्शिका कहें ता अति न होगा।
सन् 1945 में प्रयाग विश्वविद्यालय के छात्रावास
में रहते हुए श्रीलाल शुक्ल ने कुलपति के विरुद्ध खड़े होने के लिए एक प्रयाण-गीत
लिखा था, जिसमें व्यंग्य की तीखी धार है। वैसे
नियमित लेखन सन् 1954 से शुरू हुआ और क्रोध के साथ शुरू हुआ।
आकाशवाणी से प्रसारित किसी कार्यक्रम पर क्रोधित होकर स्वर्णग्राम और वर्षा शीर्षक
एक लेख लिखा और धर्मवीर भारती को भेज दिया। लेख निकष नामक प्रसिद्ध पत्रिका में
प्रकाशित हुआ था और श्रीलाल जी की खोज-पूछ की जाने लगी थी। श्रीलाल जी स्वयं
स्वीकार करते हैं कि उन दिनों जिस तरह की ऊर्जा और लड़ाकू स्वभाव की अपेक्षा की
जाती थी, वे उनमें थ°, मगर उनके पेशे में उसके कम इस्तेमाल
करने का प्रशिक्षण दिया गया था। लिहाजा श्रीलाल जी ऊबे हुए सिविल सर्वेण्ट के बजाए
लेखक ही हो सकते थे। जाहिर है कि क्रोध में सांघातिक असर डालने के लिए उन्हें
व्यंग्य का रास्ता अपनाना पड़ा।
श्रीलाल जी की पहली पुस्तक सूनीघाटी का सूरज उपन्यास सन् 1957 में प्रकाशित हुआ। सन् 1968 में रागदरबारी का प्रकाशन हुआ। जब
खबरों की जुगाली पाठकों के हाथ आई,
तो पाठकों के सामने
एक विचित्र स्थिति खड़ी हुई। किसी लेखक का कद जब विराट हो जाता है, खास-खास रचना के कारण पाठक अपने
मन-मस्तिष्क में उनकी महान छवि अंकित कर लेता है, तब
वह उससे नीचे उतरना नहीं
चाहता। मगर खबरों की
जुगाली से गुजरते हुए यह हर समय याद रखने की जरूरत है कि यह तत्कालीन घटनाओं और
परिस्थितियों पर चिन्तनशील लेखक का क्षणिक, मगर
जागरूक टिप्पणी है। इसे प्रस्तुत करते हुए लेखक ने साफ-साफ कहा है कि यह एक तरह की
जुगाली है, पर निरुद्देश्य नहीं है, इनमें
दर्ज शंकाओं, सम्भावनाओं, प्रश्नों का जिक्र लेखक ने पाठकों की
तरफ से किया है। पुस्तक के आच्छादप पृष्ठ पर सही लिखा गया है कि ये रचनाएँ भारतीय
लोक-तन्त्र के धब्बों,
जख्मों, अन्तर्विरोधों और गड्ढों का आख्यान
प्रस्तुत करती हैं। हमारे विकास के मॉडल, चुनाव, नौकरशाही सांस्कृतिक क्षरण, विदेश नीति, आर्थिक नीति आदि अनेक जरूरी मुद्दों की
व्यंग्य-विनोद से सम्पन्न भाषा में तल्ख और गम्भीर पड़ताल है।
स्तम्भ लेखन की सारी सीमाओं को ध्यान में रखकर इन रचनाओं को
पढ़ते हुए ही श्रीलाल जी का विराट व्यक्तित्व सामने खड़ा हो सकता है, राग दरबारी या उनकी अन्य प्रसिद्ध
कृतियों के प्रभाव के साथ इन्हें पढ़ना पुस्तक और पाठक दोनों के लिए सुकर नहीं होगा। यहाँ देखना यह है कि समाज
व्यवस्था, सता-व्यवस्था, व्यापार-व्यवस्था और राजनीति में
श्रीलाल जी की संवेदना साधारण नागरिक की जीवन प्रक्रिया से जुड़ी रहती है। वे
साफ-साफ कहते हैं कि ‘जिन्दगी की असाधारण सम्भावनाओं को समझते
हुए भी मैं सीधी-सादी साधारण जिन्दगी की कद्र करता हूँ।’ पाब्लो नेरुदा के हवाले से उन्होंने कहा
है कि कैडिलक पर चढ़कर सैर कर रहे नागरिक और नंगे पाँव सड़क पर भटक रहे नागरिक में, उन्हें दूसरे के साथ खड़ा होना मुनासिब
लग रहा था। इस आलोक में उन्होंने मुफलिसी, अशिक्षा, बेरोजगारी और ऐसी ही अनेक दुर्गतियों से
जूझते भारतीय समाज के सुख-दुख,
राग-विराग के प्रति
सजगता और संवेदना रखी है। अपने लेखन के हर मौके पर उन्हें पाठकों की रुचि और अनुभव
की गहराइयों की चिन्ता रही है। जो साहित्य उदात्त संवेदनाओं को पनपने न दे, अनुभूति-जगत की ऊपरी सतह खुरचकर ही
हरी-हरी फसल उगाने की कोशिश करे,
उसे वे घटिया साहित्य
मानते हैं, पाठक वर्ग और समाज के लिए अहितकर मानते
हैं।
इस संकलन की टिप्पणियों में वे अपने पूर्वर्धिारित छवि के पार
बेशक नहीं गए, पर इसलिए यह कहना जायज नहीं होगा कि
इनमें उनकी उक्त धारणाओं की पुष्टि नहीं होती। उन्होंने जो कुछ लिखा, सदैव की तरह अपनी मान्यताओं और
स्वानुभूति से निर्धारित मानदण्डों के अनुकूल ही लिखा। मान्यताओं के प्रति सदैव
सावधान रचनाकार श्रीलाल शुक्ल अपनी रचनात्मकता के प्रस्थान काल से ही जन-जन के
जीवन-स्तर के सुधार के नारे सुनते आ रहे थे, जो
धरातल पर सच नहीं दिख रहा था। इक्कीसव° सदी
के शुभद नारों का तुमुल कोलाहल भी थोथे साबित हुए। देश-दशा, राज-काज, धन-धान्य
अथवा समाज-संचालन के स्तर पर कोई चमत्कार जैसी बात नहीं दिखी। विकास प्रक्रिया के नाटकीय मिजाज
से सब कुछ चल रहा था। जिस दौर में ये रचनाएँ लिखी गईं और प्रकाशित होकर पाठकों के
मन-मिजाज में समायोजित हुईं,
वह दौर पूरी तरह से
अराजकता की हद पार का दौर था। सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, बौद्धिक, व्यापारिक... हर संकाय से नैतिक मूल्य
का लोप चुका था। अपने को इफरात सम्पत्ति का स्वामी बनाने में लोग सारी ऊर्जा और
सारी रचनात्मकता लगा रहे थे। इन कर्मों में तल्लीन लोगों का सारा विधान अनीति की
बुनियाद से शुरू होता था। गत शताब्दी के अन्तिम चरण में घटी कुछ महत्त्वपूर्ण
घटनाएँ--आपातकाल, कांगे्रस सरकार का पतन, विरोधी स्वरों का संयुक्त मोर्चा और फिर
लाभ-लोभ के तिकड़म में आपसी कलह,
अनस्थिर राजनीतिक
माहौल, कमजोर शासन तन्त्र, मन्दिर-मस्जिद विवाद, स्वार्थ केन्द्रित राजनीति, राजनीति का अपराधीकरण, प्राकृतिक आपदाओं का अमानवीय और
संवेदनाशून्य राजनीतिकरण,
भाषा की राजनीति, जातीय-द्रोह, साम्प्रदायिक शक्तियों का वर्चस्व, मानवीय संवेदना का लोप, रोजगार की तिजारत, बौद्धिक पाखण्ड, चिन्तकों की दायित्वहीनता, रक्षकों का भक्षक होना... भारतीय नागरिक
इन तमाम दुरवस्थाओं में सिर पटकता रहा था। संचार माध्यम तक इन तमाम खबरों की
जुगाली करता रहा और सनसनी उत्पन्न करता रहा। एक सचेतन लेखक और साधारण नागरिक की
तरह श्रीलाल शुक्ल इन जुगालियों की खबर लेते रहे। खबरों की इन जुगालियों में
उन्होंने ने कभी किसी को नहीं बख्शा।
अपने वक्तव्यों के अनुसार श्रीलाल शुक्ल साहित्य से हमेशा कोई
बड़ी उम्मीद नहीं
रखते, कोई बहुत बड़ी अपेक्षा नहीं रखते। वाकई, यदि ऐसा होता, तो उनकी इन जुगालियों से देश में बहुत
कुछ परिवर्तन हो जाता। पीछे के पच्चीस-तीस बरस के हिन्दी सिनेमा पर नजर दौड़ाएँ, तो वह सारा का सारा, देश के राजनीतिक कुकर्मों, पुलिस और प्रशासन की विकृतियों, सामन्तों-जमीन्दारों की हैवानियों और
देश के गद्दारों, माफियाओं, तस्करों, स्मगलरों की दुर्गन्धियों, न्यायिक प्रक्रिया की दुर्वृत्तियों से
भरा पड़ा है। मगर इस देश की जीवन-व्यवस्था में आज तक कोई परिवर्तन हो पाया?
मगर,
इस निराशा में
हाथ-पैर मोड़कर बैठ जाना भी उचित नहीं। यही कारण है कि श्रीलाल जी इन तमाम
स्थितियों पर गुस्सा करते हैं,
और अपने गुस्से को
व्यंग्य में व्यक्त करते हैं,
और देश के प्रबुद्ध
नागरिकों को एक कुँजी दे दी गई है। वे चाहें तो इसे जेब में रखे रहें, या चाहें तो सही इस्तेमाल से ही रास्ता
अपनाएँ। व्यंग्य, वाकई प्रबुद्ध मस्तिष्क वाले पाठकों की
प्रतीक्षा करता है।
केवल पाक्षिक स्तम्भों की ये कड़ियाँ ही नहीं, उनकी किसी भी रचना को उठाएँ, तो यह साफ दिखता है कि उनका दृष्टि-फलक
विराट है। चिन्तन की पद्धति विराट व्यंजना से भरी हुई है। बहुपठित और विज्ञ होने
के साथ-साथ नागरिक संवेदना से ओत-प्रोत लेखक श्रीलाल शुक्ल ने हर जगह अपने
जनसम्बन्ध और नागरिक चिन्ता का संकेत दिया है। छोटे-छोटे विषय की व्याख्या करते
वक्त उन्होंने विराट लक्ष्य की ओर संकेत किया है। लेखक की पूर्व स्थापित ऊँचाई को
न छू पाने के बावजूद यह कृति भारतीय लोक-तन्त्र और भारत की समाज व्यवस्था का वह
विद्रूप चेहरा अत्यन्त प्रभावकारी शिल्प में हमारे सामने प्रस्तुत है, जहाँ भारत की तस्वीर बदल डालने की हरेक
विधि पूरे वजूद के साथ मौजूद है। भारतीय लोक-तन्त्र की विकृतियों की धज्जियाँ
उड़ाती ये रचनाएँ, शायद नागरिक जीवन की तस्वीर बदलने में
सफल हो पाएँगी। आने वाले दिनों में यदि भारत की तस्वीर किसी और कारण से भी बदल पाई, तो उसमें खबरों की (इस) जुगाली का भी
महत्त्वपूर्ण अंशदान माना जाएगा।
खबरों की
जुगाली/श्रीलाल शुक्ल/राजकमल प्रकाशन/2006/पृ-148/रु.-175
श्रीलाल शुक्ल का
व्यंग्य लेखन, आजकल, जनवरी, 2013, नई दिल्ली,
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