‘हास्य’ और ‘व्यंग्य’ को लोग सामान्यतया अव्ययवाची या
पर्यायवाची की तरह उपयोग में लाते हैं। पर, इन
दोनों के स्थायी भाव में बुनियादी फर्क है। इस फर्क को रेखांकित करना मुश्किल है।
विदित है कि दूसरों की ‘विकृति’ हमारे
भीतर ‘हास्य’ उत्पन्न
करती है, जबकि व्यंग्य की उत्पत्ति उन विकृतियों
के मूल की तलाश से,
संवेदनशीलता के साथ
उन पर विचार से होती है। व्यंग्य में भी हास्य की भरपूर गुंजाइश हो सकती है, किन्तु हास्य में उलझे रहने से व्यंग्य
पीछे छूट जाता है।
भारतीय साहित्य में ‘हास्य’ और ‘व्यंग्य’ की परम्परा पुरानी है। प्राचीन नाटकों
में कम से कम एक हास्य दृश्य अवश्य ही दिखते हैं। ग्रामांचल में कला प्रस्तुत करने
वाली कम्पनियों में एक ‘बिपटा’ अवश्य
ही होता है। चिकित्सकों की राय में भी हास्य, अर्थात
हँसना, एक अनिवार्य व्यायाम है।
सुविख्यात व्यंग्यकार श्रीलाल शुक्ल तथा प्रेम जनमेजय के कुशल
सम्पादन में नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित पुस्तक ‘हिन्दी
हास्य-व्यंग्य संकलन’
मानव जीवन की इसी
जरूरत की भरपाई करती है। भारतीय स्वाधीनता के आधी सदी बाद भी नागरिक जीवन से गायब
हँसी-खुशी के बुनियादी सूत्र की तलाश यह संकलन करती है।
व्यंग्य लेखन जोखिम भरा काम है। इसमें ‘सावधानी हटी, दुर्घटना घटी’ वाली स्थिति रहती है। थोड़ी-सी चूक से यह
भोंडे हास्य या फिर संचारहीन वार्तालाप बन जा सकती है। यह ‘हास्य’ इतना
घटिया होता है कि वे कायदे से सस्ते चुटकुले भी नहीं हो पाते। हास्य चूँकि
जीवन-जगत की विकृतियों से उठता है,
इसलिए वीभत्स होता है, अमानवीय भी।
हिन्दी हास्य-व्यंग्य के रचनाकारों ने इस जोखिम की चुनौती को
प्रारम्भ से ही बड़े साहस के साथ स्वीकारा है। यह साहस ‘हिन्दी हास्य-व्यंग्य संकलन’ में मौजूद है। ये रचनाएँ पाठक को वैसे
नहीं हँसातीं जैसे केले के छिलके पर पाँव पड़ जाने के कारण फिसलकर गिरते हुए पथिक
पर कोई हँसता है, ये वैसे हँसातीं, जैसे बटोही को गिरता देखकर उसे उठाता
हुआ आदमी उस छिलका फेंकने वालों और उन हँसने वालों पर हँसता है।
हिन्दी साहित्य की हास्य-व्यंग्य परम्परा अतीत में दूर तक जाती
है, पर यहाँ केवल भारतेन्दु युग से लेकर आज
तक के हिन्दी व्यंग्य साहित्य को ही प्रतिनिधि रूप में प्रस्तुत किया गया है।
प्रारम्भ से ही लिखे गए व्यंग्यों को समाविष्ट कर पाना शायद सम्भव भी नहीं था।
स्वयं श्रीलाल शुक्ल इस पुस्तक की भूमिका में लिखते हैं, ‘भारतेन्दु काल के पहले का हिन्दी
साहित्य मूलतः कविता पर केन्द्रित है। गद्य की जो छिटपुट रचना अठारहवीं सदी के
अन्त से मिलने लगी थी,
उनका ऐतिहासिक
महत्त्व ही अधिक है। पूर्ववर्ती काव्य-साहित्य में हास्य-व्यंग्य की स्फुट रचनाओं
का सर्वथा अभाव नहीं है। पर वहाँ हास्य के स्रोत-स्वरूप वैसे वैविध्यपूर्ण और
उन्मुक्त नहीं हैं जैसे कि वे आज आधुनिक साहित्यों में पाए जाते हैं। वहाँ हास्य
में परिहास के तत्त्व,
प्रायः शृंगारिक
क्रीड़ाओं से प्रेरित होते हैं और ‘शृंगाराज्जायते हासः’ की पुष्टि करते हैं। व्यंग्य की स्थिति
और भी सीमित हैं। पूर्ववर्ती काव्य में जो व्यंग्य मिलता है, वह किसी सामाजिक स्थिति पर कवि की खीझ
को भले ही व्यक्त कर दे,
पर पाश्चात्य आवधारणा
के ‘सटायर’ के
मुकाबले वह बहुत सीमित और साधारण है।’
इस संकलन में बालकृष्ण भट्ट समेत भारतेन्दु की पीढ़ी के कई
रचनाकारों से लेकर ज्ञान चतुर्वेदी,
सुरेश कान्त तक की
पीढ़ी के उनचास महत्त्वपूर्ण व्यंग्यकारों की प्रतिनिधि रचनाओं को संकलित किया गया
है। भारतेन्दु युग से लेकर आज तक के हिन्दी व्यंग्य लेखन की इस तरह की यह पहली
पुस्तक है, जहाँ इतने लम्बे अन्तराल के व्यंग्य
लेखन का मुकम्मल चित्र मौजूद हो।
‘व्यंग्य
वस्तुतः एक सुशिक्षित मस्तिष्क की देन है और पाठक को गुदगुदाने के लिए नहीं, बल्कि किसी विसंगति या विडम्बना के
उद्घाटन से उसके सम्पूर्ण संस्कारों को विचलित करने की प्रक्रिया है।’ श्रीलाल शुक्ल के इस वाक्य से सहमत होना
स्वाभाविक है। यह संकलन बीते दिनों के हमारे आस-पास के जनजीवन की विसंगतियों को
बड़े आक्रामक तेवर के साथ उद्घाटित करता है।
इस संकलन में एक साथ कई पीढ़ियों के व्यंग्य लेखन का नमूना
उपलब्ध है। पराधीनता से स्वाधीनता तक के भारतीय समाज का प्रतिबिम्ब यहाँ सूक्ष्मता
से दर्ज है। इन वर्षों में भारतीय समाज में क्या-क्या परिवर्तन हुए, भारत के नागरिक स्वाधीन होने के बाद
कैसे-कैसे हिरण से भेड़िया की योनि में तब्दील हुआ, कैसे-कैसे
खरगोश से लोमड़ी बना,
कैसे-कैसे कबूतर से
बाज बना--इसका स्पष्ट चित्र यहाँ मौजूद है।
विदित है कि साहित्य की सारी विधाएँ अन्ततः व्यंग्य ही है।
अपने समाज की भीषण परिस्थितियों को धिक्कारता हुआ शब्द, व्यंग्य के सिवा और हो भी क्या सकता है।
परन्तु व्यंग्य लेखन के दीर्घ अन्तराल में स्वातन्त्र्योत्तर काल के व्यंग्य लेखन
में रचनाकारों की एक ऐसी सशक्त पीढ़ी तैयार हुई और व्यंग्य लेखन का एक ऐसा आक्रामक
तेवर सामने लाया गया कि अलग से चर्चा करना आलोचकों को मुनासिब लगने लगा। भारतेन्दु
युग से प्रारम्भ हुआ गद्यमय व्यंग्य आज अपने जिस मुकाम पर है, इसका श्रेय व्यंग्य लेखन में तन्यमता से
लगे हमारे व्यंग्यकारों की तीक्ष्ण प्रतिभा, अपूर्व
कौशल, सुशिक्षित मस्तिष्क को ही जाता है।
पाठकों की निरन्तर बढ़ती ग्रहण शक्ति को भी कम नहीं। पाठकों की विलक्षणता और
विकासमान ग्राह्यता ने भी इन व्यंग्यकारों को काफी समृद्ध किया है।
व्यक्ति और परिवार के परिदृश्य से शुरू हुआ व्यंग्य साहित्य आज
राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दों को जिस गम्भीरता से डील कर रहा है, उसका प्रमाणिक परिणाम यहाँ मौजूद है।
व्यक्ति-व्यक्ति, परिवार-व्यक्ति, समाज-व्यक्ति, समाज-राजनीति, राजनेता-राजनीति--सब की सामूहिक, वैयक्तिक और आत्मिक गुत्थियों पर आज का
व्यंग्य इत्मीनान से और बड़े साहस से अपनी बात करता है।
आज की सामाजिक,
आर्थिक, राजनीतिक परिस्थितियों के मद्देनजर यह
बात बेहिचक कही जा सकती है कि जब आदमी इतना अनैतिक हो जाए कि नीति समझाने पर भी वह
अपनी करनी से बाज न आए तो कोई भी सुशिक्षित मस्तिष्क उसके लिए ‘सर्पवध’ की
तरह लाठी या तलवार नहीं लाएगा,
वह व्यंग्य ही
लिखेगा। हमारे देश की इसी परिस्थिति से बालकृष्ण भट्ट, भारतेन्दु, प्रताप नारायण मिश्र, बालमुकुन्द गुप्त, प्रेमचन्द, निराला, अज्ञेय, नागार्जुन, हरिशंकर परसाई, श्रीलाल शुक्ल, नामवर सिंह, सर्वेश्वर, रघुवीर सहाय, विजय देव नारायण साही, शरद जोशी, रवीन्द्रनाथ
त्यागी, के. पी. सक्सेना, प्रेम जनमेजय, विष्णु नागर...का उदय हुआ है। मातादीन
को चाँद पर भेजकर क्या हुआ,
कुत्ते और कुत्ते में
क्या फर्क है, बापू की विरासत का क्या हò हो रहा है, नए वर्ष के आगमन से क्या होता है, इण्टरव्यू देने आए बेरोजगारों को रास्ता
किधर मिलेगा, मनुष्य और ठग के बीच कितना फासला है, कुर्बानी किस तरह मौत और मौत किस तरह
कुर्बानी होती है, सूअर के बच्चे और आदमी के बच्चे में
क्या फर्क है--इन परिस्थितियों को तो हमारे देश के आम नागरिक अपने आसपास लम्बे समय
से देखते आए हैं...। परन्तु ये ही स्थितियाँ हमारे व्यंग्यकारों की नजर से धुलकर
जब हमारे सामने आती हैं तो हमें किस कदर अन्दर तक छेदती हैं, किस तरह हमें विचलित करती हैं, उद्धेलित करती हैं, परेशान करती हैं, हमारे पूरे संस्कार को मथती हैं--इसका
अनूठा उदाहरण यह संकलन है।
इस संकलन से भारतेन्दु काल से लेकर आज तक के हिन्दी व्यंग्य
साहित्य की गुणवत्ता मूर्तिवान हो उठती है और तब हिन्दी व्यंग्य की गुणवत्ता के
विकास का यह ग्राफ चकित करता है। इस दीर्घ अन्तराल में हिन्दी व्यंग्य के कई आयाम
खुले हैं। कई पीढ़ियों के प्रतिभा-सम्पन्न रचनाकारों की अनासक्त साधना से समृद्ध
हुआ हिन्दी व्यंग्य आज जिस तेवर के साथ हमें उपलब्ध है, एक तरह से स्वाधीन भारत के पचास वर्ष की
एक उपलब्धि है। यूँ,
यह एक हास्यास्पद
स्थिति है कि समाज की विकृतियों पर सुशिक्षित मस्तिष्क में उठी हुई खीझ की
अभिव्यक्ति को हमें उपलब्धि कहना पड़ रहा है। काश! इस देश के चेहरे में इतनी
विकृतियाँ न आई होतीं।
बहरहाल,
इस पुस्तक की हर रचना
और इसमें संकलित हरेक रचनाकार पर पृथक-पृथक समालोचना लिखने की आवश्यकता है। एक
आलेख में उनचास रचनाकारों की रचनाओं पर बात होना असम्भव है। पर तय है कि इस शताब्दी
के बीते वर्षों के हिन्दी व्यंग्य की उपलब्धि और स्वाधीन भारत के विकल चेहरे को
साफ-साफ और इकट्ठा देख पाने के लिए यह मुकम्मल और आवश्यक पुस्तक है।
-गगनांचल, अक्टूबर-दिसम्बर 1997
हिन्दी व्यंग्य की
मुकम्मल तस्वीर, गगनांचल, नई दिल्ली, अक्टूबर-दिसम्बर 1997
हिन्दी हास्य व्यंग्य
संकलन,
नेशनल
बुक ट्रस्ट, इण्डिया, नई दिल्ली
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