अपनी विलक्षण रचना शैली और दृष्टि-सम्पन्नता के लिए विख्यात
उपन्यासकार जोगेन्द्र पॉल की महत्त्वपूर्ण औपन्यासिक कृति ‘ख्वाबरौ’ उर्दू
ही नहीं, सम्पूर्ण भारतीय साहित्य के लिए अमूल्य
उपहार है। ‘नादीद’ जैसे
बहुप्रशंसित उपन्यास के यशस्वी रचनाकार की यह कृति हिन्दी भाषा के पाठकों के सामने
युग सन्दर्भ के अन्तःपक्ष का जीता-जागता प्रतिबिम्ब है। ख्वाबों में जीनेवाला आदमी
नितान्त कल्पनाजीवी होता है,
लेकिन इस उपन्यास में
कल्पना के उन सन्दर्भों को लेखक ने रचनात्मक कौशल से जीवन्त किया है, सारे प्रसंगों में वास्तविकता के प्राण
फूँक कर उन्हें चिरस्मरणीय बनाया है। ख्वाबों की दुनिया में खोया हुआ आदमी, यहाँ सृजनशीलता से अनुरंजित होकर समाज
के वर्ग विशेष का प्रतीक बन गया है। अपने पूरे चरित्रांकन में पात्र एक अजीब-सी
विडम्बना भोगता रहता है। रत्ती भर मानवता जिसे खोजे नहीं मिलती, वह दमित आकांक्षाओं का शिकार हो जाता
है। यही दमन दीवाने मौलवी साहब के अचेतन में बस जाता है और उन्हें ख्वाबजीवी बना
देता है। हैवानी की बारूदी सतह पर जीवन व्यतीत करता आदमी जिस अन्धी सुरंग से
गुजरकर खुद को परिभाषित करता है,
उसका यहाँ स्पष्ट
चित्र अंकित हुआ है।
देश विभाजन से उठी समस्याएँ इस उपन्यास का केन्द्रीय विषय है।
इस मुद्दे पर अनेक कहानियाँ और उपन्यास लिखे गए हैं, किन्तु
अपने वातावरण के कारण यह कृति सबसे भिन्न है। एक अच्छा-खासा शहर, जो नायक के मन-प्राणों में बसा हुआ है, जहाँ की संस्कृति नायक के हृदय से गहरा
जुड़ाव रखती है, वह मुट्ठी भर आतताइयों का शहर बन जाता
है। नायक इस विकृत माहौल में जीता हुआ सारी विसंगतियों को झेलता है। ‘ख्वाबरौ’ एक
संवेदनशील व्यक्ति की अन्तरात्मा से उठी उस हूक का चित्र है, जो दैनन्दिन बिगड़ते मानवीय सम्बन्धों और
कुत्सित अहंकार की जननी है। दीवाने मौलवी साहब इस उपन्यास के नायक ही नहीं, मानवता की वकालत करनेवाले और
प्रेम-सौहार्द की पूजा करनेवाले उन तमाम लोगों के प्रतीक हैं, जो हैवानी की इस भयावह स्थिति को भोगता
है, अपने सिद्धान्तों के अनुरूप अपनी
जिन्दगी जीता है और ख्वाबों की चादर की तानी-भरनी बुनता है। ये सारी अभिक्रियाएँ
इस कोटि के लोगों की विवशता बनकर खड़ी है, इन
विवशताओं की व्यथा इन्हें भोगनी ही है।
पाकिस्तान के परिवेश में इस उपन्यास की कथा-भूमि निर्मित हुई
है। देश विभाजन के दौरान भारत के लखनऊ शहर की सांस्कृतिक विरासत से आपादमस्तक
अभिभूत लोगों को साम्प्रदायिकता के स्तर पर पाकिस्तान की धरती पर लाया जाता है, लेकिन नायक के साथ एक पूरा का पूरा दल, जो इस तरह स्थानान्तरित हुआ, कि लखनऊ की जिन्दगी से मुक्त भी नहीं हो
पाया, शीघ्र ही कराँची में भी नए लखनऊ का
स्वरूप स्थापित कर लिया। नायक के में अपने जन्म-स्थान एवं पारम्परिक संस्कार के
प्रति ऐसे अनुराग की बसावट एक विरासत की उत्कृष्ट पहचान है। लखनऊ के परिवेश में यह
नायक इस तरह पगा हुआ है कि उस जगह के प्रति उसका प्रेम कहीं डिगता ही नहीं; जहाँ कहीं जाता है, लखनऊ की ही जिन्दगी जीना चाहता है। यही
उस व्यक्ति के प्रेम का उत्कर्ष है। इस उपन्यास में लखनऊ शहर की प्रयुक्ति भी
प्रतीक अर्थ में हुई है। यहाँ की शान्ति, प्रे्रम, सौहार्द आदि का स्थान न केवल दीवाने
मौलवी साहब के हृदय में है,
बल्कि उनके अचेतन मन
में भी इसका स्थायी चित्र उग गया है, जो
पल-पल उनको उस शान्ति का और उस लखनऊ-वास का ख्वाब बुनने को बाध्य करता है। अपने
इन्हीं ख्वाबों को साकार करने हेतु इतनी शीघ्रता से यहाँ आए शरणार्थियों ने लखनऊ का
माहौल तैयार किया। ‘कराँची’ में
‘लखनऊ’ स्थापित
किया। दीवाने मौलवी साहब यहाँ लखनऊ की तरह मन लगाने लगे। अपने शौक, अपने ख्वाब और अपने कुटुम्बियों से गहन
सम्बन्ध रखते हुए वे कथा सूत्र के विविध आयामों से जुड़कर जीते रहे। शहर की हर
छोटी-बड़ी घटनाएँ उनकी संवेदनशीलता को झंकृत करती रही। फिर भी वे अपनी धुन के साथ, अपनी दीवानगी के साथ, अपनी अच्छी बेगम के साथ समय व्यतीत करते
रहे।
शान्ति की गोद में इस कदर चैन की नीन्द सोनेवाले व्यक्ति मौलवी
साहब के हृदय पर तब गहरा आघात पड़ता है, जब
उन्हें अपनी कोठी की तरफ से आती हुई विस्फोटक आवाज सुनाई पड़ती है और उन्हें यह पता
लगता है कि इस बम से उनका ही मकान ध्वस्त हुआ है। किसी दुष्ट की करतूत से धराशायी
उस महल में दीवाने मौलवी साहब की बेगम, वधू, पुत्र और पौत्री की जानें चली जाती हैं।
यह घटना उपन्यास के इस नायक के मन में एक प्रलय और एक सृजन की स्थिति कायम करती
है। अचानक उनका भ्रम टूटता है और उन्हें लगता है कि वस्तुतः वे ‘लखनऊ’ नहीं, कराँची में रह रहे हैं। दीर्घकाल से
इनके मन में पलता यह ख्वाब खत्म तो हो जाता है, किन्तु
यहाँ से फिर दूसरा भ्रम प्रारम्भ हो जाता है...। परिवार में आए इस तूफान के पश्चात
दीवाने मौलवी साहब के साथ केवल उनका एक पोता और एक पोती बच जाती है। इन अनाथ
बच्चों को स्नेह-प्रेम से पालने के लिए बच्चों के चाचा इसहाक मिर्जा, सपरिवार अपनी ससुराल से उठकर स्थायी रूप
से यहाँ आ जाते हैं। दीवाने मौलवी साहब यहाँ खूब रो-धो कर एक नई दीवानगी को जन्म
देते हैं। अब उन्हें लगता है कि अच्छी बेगम, चाँद
बीवी, नवाब मिर्जा और मिर्जा की छोटी-सी
बेटी--अपने परिवार के सदस्यों की इस वीभत्स मृत्यु ने दीवाने मौलवी साहब के
तन्तुओं को झनझना दिया है। उन पर फिर से एक नया पागलपन सवार हो जाता है। अब वे
यथाशीघ्र लखनऊ वापस होना चाहते हैं और अपनी बेगम आदि से मिलना चाहते हैं। वहाँ से
रवाना होने की बात सोचते हैं...। उपन्यास के नायक की यह अभिक्रिया लोगों को ख्वाब
भले लगे, लेकिन ऐसे अवसर के आत्मसीदन को किसी
भोक्ता के अनुभव रूप में महसूस किया जाना चाहिए, किसी
हास्य की तरह नहीं।
इस नायक के ख्वाबों के बहाने कही गई पाकिस्तान की भयावह स्थिति
की दास्तान, निश्चित रूप से जोगेन्द्र पॉल के विषय
चयन की अन्तर्दृष्टि तथा शिल्प निर्माण की प्रांजलता की सूचक है। सम्पूर्ण कथा
किसी घटना का आँखों-देखा हाल की तरह कही गई है। लेखक, नृशंसता के परिवेश में जीवन जीते आदमी
के हृदय में शान्ति की कल्पना का नवांकुर फोड़ते हैं और उसे जीवन के विविध फलकों से
देखते हुए उत्कर्ष देते हैं। डॉ अनवर सदीद के शब्दों में--‘जिस मामले पर पाकिस्तानी अदीबों को गौर
करना और उसकी गम्भीरता को सामने रखकर एक आला दर्जे का उपन्यास लिखना चाहिए था, उस पर जोगेन्द्र पॉल ने ‘ख्वाबरौ’ जैसा
नावल लिखा, जो न सिर्फ पाकिस्तानी नजरिए को व्यक्त
करता है, बल्कि इस समस्या को व्यापक मानवीय
दृष्टिकोण से देखता है।’
समाज के कोने-कोने में फैली पैशाचिक वृत्ति को गम्भीरता से
लेते हुए लेखक ने प्रतीक रूप में इस उपन्यास में व्यक्ति के अन्तस् में खौलती
व्यथा को उजागर किया है। यूँ तो इसे पाकिस्तानी परिवेश के रूप में चित्रित किया
गया है और इसमें ख्वाबों की कथा कही गई है, किन्तु, कथा की आत्मा से झाँकता अमानवीयता का
हिंसक रूप इसे सर्वत्रव्यापी और शाश्वत बनाता है।
एक छोटी-सी घटना को चित्रित करने में पूरा उपन्यास अत्यन्त
कलात्मकता से खत्म होता है। मूल कथा को गति देने के लिए अवतरित पात्र इसहाक मिर्जा
पारम्परिक रूढ़ियों से निरपेक्ष,
वास्तविकता में जीने
वाला एक तटस्थ इनसान है। भावुकता और काल्पनिक उड़ानों से भी यह पात्र मुक्त रहता
है। जीवन-दर्शन के कठोर परिणामों से यह परिचित रहता है। जीवन की सारी
रीति-कुरीतियों को एक सधे हुए खिलाड़ी की तरह लेता है। अपने मित्र ममेरे भाई हाशिम
को लिखे अपने दो पत्रों में जीवन की उलझनों की गुत्थी को उन्होंने काफी परिपक्वता
से उठाया है।
उपन्यास के अन्य पात्र नवाब मिर्जा, हाशिम, मनवा
चौकीदार, चायवाला, रसोइया
आदि ने भी इसमें अपने अल्पजीवन और जीवन्तता का परिचय दिया है। उपेक्षित पात्रों की
छोटी-छोटी हरकतों ने भी इस कृति में काफी सूक्ष्मता से अपना उत्कर्ष दिखाया है।
प्रसंगवश, मानवीय स्वभावों की कतिपय विडम्बनाओं को
चित्रित कर इसकी प्रभावोत्पादकता को बहुमुखी बनाने का प्रयास सराहनीय है।
कृति के अन्तिम अंश में लेखक की कलात्मकता में कुछ कमजोरी
दिखती है। पूर्व भाग का कौशल अन्त के कुछेक पन्नों पर नहीं दिखता। यह उपन्यास
हिन्दी के उन पाठकों के लिए बहुत बोझिल साबित होगा, जिन्हें
उर्दू का ज्ञान नहीं है। कहने को तो यह उर्दू से भाषान्तरित है, किन्तु, वास्तविकता
यह है, कि इसका लिप्यन्तरण हुआ है, भाषान्तरण नहीं। बल्कि पूरी तरह इसे
लिप्यन्तरण कहना भी उचित नहीं होगा।
नवभारत टाइम्स, नई दिल्ली, 19.07.1992
पाकिस्तान की भायावह
दास्तान/जोगेन्द्र पाल
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