पटकथा लेखन का जरूरी पाठ
मनोहर श्याम जोशी की पुस्तक ‘पटकथा लेखन: एक परिचय’
भारतीय स्वाधीनता के दशकों बाद ज्ञान की विविध शाखाओं के
प्रचलन को देखते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँचना सरल है कि ‘पटकथा लेखन’ हमारे लिए बड़े काम की चीज हो गई है।
वैज्ञानिक प्रगति और ज्ञान की शाखाओं के विकास ने हमारी पारम्परिक शिक्षण पद्धति
और प्रशिक्षण प्रक्रिया को इतना समृद्ध किया कि अब हमारे यहाँ अनुवाद अध्ययन, पुस्तक प्रकाशन जैसे अनुशासनों में
डिग्री-डिप्लोमा मिलने लगी। विकास-प्रक्रिया ने बौद्धिक विलास और मानसिक तोष के
अलावा अर्थोपार्जन की इतनी गुंजाइशें निकाल दीं कि इस तरफ लोग बड़ी आतुरता से
अग्रसर हुए, लिहाजा इनके सिद्धान्तों और अनुशासनों
पर भी गम्भीरता से चर्चा होने लगी। ‘पटकथा
लेखन’ ज्ञान की इन्हीं शाखाओं का एक अंग है।
ज्ञान की यह प्रविधि ग्रामीण जनपद में शहीद होती, विलुप्त
होती लोक-कथाओं की स्थिति में न चली जाए, इसके
लिए बहुत आवश्यक था कि इसके सैद्धान्तिक और व्यावहारिक पक्षों पर गम्भीर विचार के
साथ कुछ लिखित सामग्री उपलब्ध हो। अंग्रेजी भाषा में पटकथा-लेखन से सम्बद्ध
पुस्तकों की कमी नहीं है। विदेशों में तो कई विश्वविद्यालयों में इस पर विधिवत
पाठ्यक्रम भी चलते हैं। हिन्दी में ही इसका अभाव था, जबकि
दूरदर्शन और सिनेमा के बहुमुखी विकास से इस दिशा में गुंजाइश बहुत है। कई छोटे-बड़े
लेखकों ने इसमें अपनी सक्रिय भूमिका निभाई है।
हिन्दी के सुविख्यात रचनाकार मनोहर श्याम जोशी की पुस्तक ‘पटकथा लेखन: एक परिचय’ के प्रकाशन से हिन्दी क्षेत्र की यह बड़ी
रिक्तता भर गई। पटकथा लेखन के कई अन्तरंग पक्षों की गम्भीर व्याख्या करती हुई और
इस विधा की कई उलझी हुई गाँठें सुलझाती हुई यह पुस्तक हिन्दी भाषा के लिए एक
इतिहास कायम करेगी--यह स्वीकारने में हिन्दी के पाठकों को कोई दुविधा नहीं है।
कुल तेइस छोटे-छोटे अध्यायों में लिखी इस पुस्तक में सिनेमा, सीरियल, पटकथा, कथा, आइडिया, कथासार, चरित्र, दृश्य, सेट-अप, डाक्यूमेण्ट्री, चरित्र-चित्रण, दृश्योद्देश्य, भाषा-शैली, निर्देशन, लेखन
आदि पक्षों की विषद् और गम्भीर चर्चा हुई है।
अजमेर में जन्मे, लखनऊ
में पढ़े मनोहर श्याम जोशी ने जीवन के कई क्षेत्रों का मौलिक अनुभव जमा कर रखा है।
बेरोजगारी से लेकर मास्टरी,
क्लर्की से लेकर
सम्पादन-लेखन तक का अनुभव अपने मानसलोक में उन्होंने संजो रखा। ‘कुरु-कुरु स्वाहा’, ‘कसप’, ‘हरिया
हरक्यूलीज की हैरानी’,
‘हमजाद’, ‘टा टा प्रोफेसर’ आदि उपन्यास, विपुल संख्या में व्यंग्य, साक्षात्कार, कहानी आदि के साथ अपने गम्भीर पाठकों के
प्यारे रचनाकार मनोहर श्याम जोशी ने दूरदर्शन के धारावाहिकों में जब काम शुरू किया
तो ‘मुंगेरीलाल के हसीन सपने’, ‘कक्काजी कहिन’ आदि से दर्शकों के मनोमस्तिष्क पर राज
करने लगे। फिल्मों के लिए उन्होंने कई काम किए।
मूलतः विज्ञान के छात्र रहने के बावजूद, साहित्य और विविध कला जगत में इन्होंने
जो योगदान दिया है,
वह अप्रतिम है।
श्रव्य-दृश्य माध्यमों और लिखित साहित्य--दोनों ही क्षेत्रों में उनके द्वारा किया
गया काम उनकी उत्कृष्ट कल्पनाशीलता और श्रेष्ठ प्रतिभा का परिचायक है।
मनोहर श्याम जोशी के सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि उन्होंने
बहुत लिखा, पर ऐसा कुछ भी नहीं लिखा जिसे उसके
इकहरे अर्थ के साथ चलताऊ ढंग से ग्रहण कर छोड़ दिया जाए। उनके पूरे लेखन में दोहरे, तिहरे या उनसे भी ज्यादा अर्थोत्कर्ष और
व्यंजना के विराट फलक मौजूद हैं। उनका कोई भी लेखन टाईम पास का उदाहरण नहीं है। ‘कुरु-कुरु स्वाहा’ हो, ‘कसप’ हो, ‘हरिया
हरक्यूलीज की हैरानी’
हो, ‘मुंगेरी लाल के हसीन सपने’ हो, जो
कुछ भी हों, वहाँ विराट् बौद्धिकता की गरिमा, श्रेष्ठ रचनाशीलता की पारदर्शिता, सहज-सरल-सलिल गतिकता, युग-यथार्थ की विकृति, भाषा का प्रवाह और अन्ततः लेखकीय
ईमानदारी और जिम्मेदारी के साथ आम जनजीवन से अपने सरोकार उन्होंने व्यक्त किए हैं।
आज जहाँ दृश्य-माध्यमों के चटोरे दृश्यों से आम जनता की रुचि प्रदूषित हो गई है, वहाँ उन्होंने बड़ी जिम्मेदारी से अपने
धारावाहिकों में हास्य के साथ-साथ गम्भीर व्यंग्य डाला और प्रदूषित होती जनरुचि को
विशाल अन्धकार की तरफ जाने से बचाया।
सिनेमा,
दूरदर्शन और रंगकर्म
से गहरे ताल्लुकात रखने वाले मनोहर श्याम जोशी अपनी प्रतिभा और गतिविधियों की
बहुआयामिता के कारण हर जगह अव्वल रहे हैं। इसलिए ‘पटकथा
लेखन’ के गम्भीर पहलुओं से पाठकों को और इनसे
जुड़े कर्मियों को परिचित कराने की आवश्यकता को उन्होंने समझा होगा। आलोच्य पुस्तक
में लेखक ने जितनी गम्भीरता और सूक्ष्मता से इस विधा के एक-एक तन्तु की व्याख्या
की है, वह न केवल एक परिचयात्मक नोट प्रस्तुत
करती है, बल्कि दृश्य माध्यमों के एक-एक दोषादोष
के लक्षण, कारण, प्रभाव, परहेज, परिणाम, परिणति सब बता देती है। महाभारत के
सम्बन्ध में जैसे कहा गया है कि यहाँ वह सब कुछ है, जो
कहीं भी है और जो यहाँ नहीं है,
वह कहीं नहीं है। उसी
तरह, इस पुस्तक के सम्बन्ध में कहना अनुचित न
होगा कि एक स्वस्थ और कल्याणमय समाज की स्थापना और उसके विकास को जिस तरह के
सिनेमा, धाारावाहिक, डाक्यूमेण्ट्री, डॉक्यूड्रामा आदि से बल मिलेगा, वैसी पटकथा लिखने हेतु यदि पटकथा लेखक
प्रतिबद्ध हों और समाज को पथभ्रष्ट और कफ्यूज्ड करने वाली सामग्री से बचाने की
उनमें मनेच्छा हो, तो यहाँ हर कुछ पा सकते हैं, यह पुस्तक उनके लिए अन्धकारमुक्त राह पर
निर्देशिका और रश्मिरेखा का काम करेगी।
इस पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता तो यह है कि एक किस्सागो की
शैली में उन्होंने इसकी शुरुआत की और वार्तालाप करने जैसी भाषा में सारी बातें
कीं। ‘देखने सुनने की चीज है सिनेमा’, ‘पटकथा क्या बला है?’, ‘कथा हो तो पटकथा बने’, ‘अथ आइडिया महात्म्य’, ‘कथासार और उसका विस्तार’, ‘पटकथा का कंकाल: स्टेप आउट लाइन’, ‘मिथक-पुराण उर्फ चरित्रों की खान’, ‘अपने पात्रों के बारे में सब कुछ जानिए’, ‘चरित्र, कर्म
कथानक: मुर्गी, अण्डा, आमलेट’, ‘पटकथा का छन्द: द्वन्द्व-प्रतिद्वन्द्व’, ‘भूमिका ही नहीं तो चरित्र क्या करेगा!’, ‘पटकथा की शरीर-रचना’, ‘पहला अंक: सेट-अप’, ‘दूसरा अंक: टकराहट’, ‘तीसरा अंक: चरमोत्कर्ष और समाधान’, ‘दृश्य लेखन’, ‘दृश्य का उद्देश्य: कथा-निरूपण और
चरित्र-चित्रण’, ‘सीक्वेन्स: एक माला बने दृश्यों की’, ‘सोप ऑपेरा, हाॅर्स ऑपेरा, वगैरह वगैरह’, ‘डाक्यूमेण्ट्री’, ‘डाक्यूड्रामा और डबिंग’, ‘कला और फार्मूला उर्फ अच्छी फिल्में, बुरी फिल्में’, ‘सिनेमा की भाषा-शाॅट बोलेंगे, ‘लेखक बनाम दिग्दर्शक’ इत्यादि शीर्षकों के अध्यायों में मनोहर
श्याम जोशी ने पटकथा लेखन,
दिग्दर्शन, प्रस्तुति, दृश्य, अभिनय, सेट-अप, सीक्वेन्स, गीत-योजना, भूलें, चालकियाँ, लोकानुरंजन, धनउगाही, सामाजिक-प्रतिबद्धता, मानवीय जिम्मेदारी सब पर चर्चा की है और
यह बात स्पष्ट कर दी है कि किस तरह प्रतिभाहीन लेखक, दिग्दर्शक, अभिनेता, प्रस्तोता
अपनी प्रतिभाहीनता और असफलता छुपाने के लिए दर्शकों को बरगलाते हैं और किस
गोरखधन्धे से जनपद का अहित कर अपना काला मुँह ढक लेते हैं। सारी वर्जनाएँ, सारे उद्यमों, सारी गतिविधियों, सारे प्रयासों, अभ्यासों के जरिए एक स्वस्थ समाज और
परिष्कृत जनमानस का सिलसिला बनाने के सारे रास्ते लेखक ने इस पुस्तक में अंकित किए
हैं। यह निर्भर तो लेखक,
दिग्दर्शक, अभिनेता, प्रस्तोता
पर करता है कि वे इन्हें किस रूप में ग्रहण करें।
गरज यह नहीं कि यह पुस्तक कोई ‘गीता’ है
जिसके पाठ के बिना किसी दूरदर्शनकर्मी अथवा सिनेमाकर्मी का उद्धार नहीं होगा। ऐसे
बहुत सारे लोग हैं, जो इस पुस्तक के छपने से पूर्व भी अच्छा कर रहे थे और आगे
भी, बगैर इस पुस्तक को पढ़े अच्छा करेंगे। कुछ ऐसे लोग भी होंगे
या हो सकेंगे, जो इससे भी बेहतर पुस्तक लिख ले सकेंगे, पर चूँकि इस पुस्तक ने एक नया मार्ग बनाया है, और हर नया मार्ग बनाने वालों के पैर लहूलुहान होते हैं, उनके शरीर पसीने से भीगते हैं, इसलिए उस लहू और उस पसीने की स्तुति होनी चाहिए, सम्भावनाएँ तो अनन्त होती ही हैं, आगे तो बहुत कुछ होगा...।
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