Friday, November 15, 2019

आधी सदी की जनतान्त्रिक उपलब्धि/स्वप्न और यथार्थ: आजादी की आधी सदी/पूरन चन्द्र जोशी



किसी भी भाषा की समृद्धि और सार्वभौमिकता केवल कहानी, कविता और उपन्यास-नाटक के बूते नहीं बनती। साहित्य की विधाएँ, भाषा को केवल साहित्यानुरागियों तक सीमित रखती हैं, जबकि ज्ञान और जानकारी की इतर शाखाओं के प्रति अनुराग रखने वाले व्यक्ति उस भाषा में अपनी रुचि की पुस्तकें ढूँढते हैं--बीसवीं शताब्दी के अन्तिम डेढ़-दो दशकों में यह बात सर्वमान्य हो गई कि अब हिन्दी केवल साहित्य की भाषा नहीं, समय और समाज के लिए उपयोगी हर विषय पर पाठकों को पुस्तकें प्रचुर मात्र में दे रही है। भारत की आर्थिक एवं सामाजिक परिस्थितियों पर भारतीय पद्धति और भारतीय मानसिकता से गहन मनन करने वाले प्रख्यात चिन्तक पूरन चन्द्र जोशी की पुस्तक स्वप्न और यथार्थ: आजादी की आधी सदीइसी परिणति की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है।
विज्ञान और विकास के बहाव में भारतीय स्वाधीनता की आधी सदी ने जो खोया, पाया’, उसका गहन लेखा-जोखा यहाँ सूक्ष्मता से प्रस्तुत है। उल्लेखनीय है कि भारतीय समाज और संस्कृति विषय पर पूरन चन्द्र जोशी लम्बे समय से चिन्तन-मनन करते रहे हैं। हिन्दी में इस पुस्तक से पूर्व भी इस विषय पर उनकी पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। भारतीय ग्राम’ (1966), ‘परिवर्तन और विकास के सांस्कृतिक आयाम’ (1987), ‘अवधारणाओं का संकट’ (1995), ‘महात्मा गाँधी की आर्थिक दृष्टि’ (1999), ‘मेरे साक्षात्कार’(1999), आदि पुस्तकों में समय-समय पर उनके विचार आते रहे हैं। यद्यपि लेखक के बारे में आलोच्य पुस्तक की समीक्षा लिखते हुए ललित कार्तिकेय ने कहा है कि प्रारम्भ में वे वैचारिक उत्तेजना से भरते थे और घोर वैचारिक कुहासे या ऊहापोह के बीच एक नई और व्यवस्थित विचार सरणी के बनने की उम्मीद जगाते थे। अब उनका यह सामर्थ्‍य भी जाता रहा (जनसत्ता, 6 मई 2002)परन्तु इस कथन से असहमत हुआ जा सकता है। वे अभी भी वैचारिक उत्तेजना से भरते हैं। यूँ तो ललित कार्तिकेय की राय यह भी है कि इस पुस्तक में व्यक्त अवधारणाएँ, पूर्व में प्रकाशित उनकी पुस्तक अवधारणाओं का संकटके वैचारिक सन्दर्भों के इर्द-गिर्द ही घूमती है। पर, यदि ऐसा है भी, तो क्या गलत है? कोई भी लेखक या चिन्तक अपनी जीवन-दृष्टि और चिन्तन-प्रणाली पूरी तरह ठोक-बजाकर तय करता है। समय सन्दर्भ के बदलाव के साथ यदि उसके चिन्तन में कहीं कोई चूक रह जाए, तो उसमें संशोधन अथवा पुनर्मंथन करता रहता है, कोई मौलिक बदलाव तो तभी सम्भव है, जब पुरानी चिन्तन प्रणाली कच्ची रही हो और अब सुदृढ़ हुई हो या फिर पहले सुदृढ़ रही हो और अब भ्रष्ट हो गई हो। स्वप्न और यथार्थपुस्तक के रचनाकार पूरन चन्द्र जोशी की चिन्तन-प्रणाली की दिशाएँ तो हिन्दी में प्रकाशित उनकी पहली पुस्तक भारतीय ग्राम’ (1966) में ही खुलकर सामने आ गई थी।
श्री जोशी के चिन्तन का मूल स्रोत भारतीय समाज का अतीत और वर्तमान ही रहा है। पुस्तक के पूरे पाठ, लेखक की पूरी चिन्तन-दृष्टि अर्थात आजाद भारत की आधी सदी के सामाजिक परिदृश्य को इस पुस्तक का आवरण चित्र बहुत ही सूक्ष्म अर्थों में सम्प्रेषित करता है। गाढ़े नीले रंग की सुखमय पृष्ठभूमि में प्रेममय धागों के देशज, बिल्कुल ठेठ ग्राम्य गठन और काफी मजबूत बटी हुई एक रस्सी लटकी हुई है, जिसे पकड़कर शायद हमारे समाज को बहुत आगे जाने का इरादा था, अपनी उपलब्धि पर इतराना था, अपने सपनों को साकार करना था, शायद यही स्वप्न था। पर जब इस रस्सी को पकड़कर ऊपर जाने की कोशिश नागरिक ने की होगी, तो रस्सी को प्रेममय आकृति का पाखण्ड स्पष्ट हुआ, नागरिक की मुट्ठी के साथ ही, रस्सी का वह अंश फिसला और उसकी मोटी परत लेकर नागरिक इतने नीचे गिरे कि पटल से बाहर...यही हमारी आधी सदी की आजादी का परिणाम है।...इस सदमे ने भारत के आम नागरिकों को और पाखण्ड से अपरिचित चिन्तकों, बुद्धिजीवियों को नए सिरे से सोचने और जूझने की ताकत दे दी है। एक लम्बे समय में पूरन चन्द्र जोशी के चिन्तन-मनन का ओर-छोर आधी सदी की भारतीय आजादी के इसी स्वप्न और यथार्थ को बाँधता रहा है, कामना और प्राप्ति के ऐतिहासिक-राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक स्रोतों को तार्किक और तुलनात्मक दृष्टिकोण से तौलता रहा है। इन स्थितियों में क्षोभ, क्रोध और खीझ के कारण कभी-कभी परिणति की वैसी विकृति से भी सन्तुष्ट हो जाते दिखते हैं, जो प्रभुवर्ग के खिलाफ हो, भले ही तार्किक न हो।
स्वप्न और यथार्थ: आजादी की आधी सदीभारतीय समाज को केन्द्र में रखती हुई एक ऐसी पुस्तक है, जो एक साथ इस कालखण्ड के भारतीय जनजीवन की व्यूह-यात्र और अस्तित्वबोध की पड़ताल करती है। तीन खण्डों में विभक्त (स्वप्न और यथार्थ: आजादी की आधी सदी’, ‘सांस्कृतिक परिदृश्य और परिप्रेक्ष्य’, ‘भारत आज और कल: कुछ प्रश्न, कुछ चिन्ताएँ, कुछ विचार’) इस पुस्तक में कुल नौ निबन्ध और दो संवाद हैं। अन्तिम खण्ड में दोनों संवाद और एक निबन्ध हैं। यद्यपि लेखक ने अपने वक्तव्य में यह घोषणा की है कि इस पुस्तक के निबन्ध किसी पूर्व निर्धारित योजना के अन्तर्गत नहीं लिखे गए। समय-समय पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपे निबन्धों को संशोधित कर इसे पुस्तकाकार किया गया है। पर इन लेखों का तारतम्य भारतीय समाज से इतना गहरा है कि यह आजाद भारत की आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक परिस्थितियों को एक साथ सूक्ष्मता से व्याख्यायित करता है और संकलन अपने में एक मुकम्मल किताब की तरह लगता है।
स्वाधीन भारत की दिशाहारा जीवन-प्रक्रिया को विडम्बनापूर्ण स्थिति में देखकर जगह-जगह लेखक की चिन्ताएँ व्यक्त हुई हैं। आर्थिक उदारीकरण, वैश्वीकरण, विकास की महत्तम सीमा आदि के नारे एक तरफ हैं और स्थानीकरण, महत्त्वपूर्ण पारम्परिक सत्ता और विरासत की पूँजी की अधिरक्षा के सवाल दूसरी तरफ। कृषि कर्म के वजूद एक तरफ खतरे में हैं, छोटे-छोटे किसान और लघुमानव की दयनीय दशा देखकर खून के आँसू टपकते हैं, दूसरी ओर पश्चिमी मॉडल के कृषि-समाज (जो बड़े फलक के किसानों/जमीन्दारों के आँकड़े बताते हैं और जिसका अन्तिम लक्ष्य साधारण जन नहीं, वैश्विक बाजार है) की ओर ललक दिखाई जा रही है। इस परिदृश्य में तो साधारण किसानऔर ग्रामके अस्तित्व संकट में ही दिखाई देते हैं। इन विडम्बनाओं को लेखक रेखांकित करते हुए कहते हैं कि वैश्वीकरण और स्थानीकरण आज के समय की दो प्रभावशाली प्रेरक शक्तियाँ हैं, जो एक दूसरे की विरोधी बनकर उभरी हैं, एक दूसरे से टकरा रही हैं।...आज का उभरता हुआ प्रभावशाली नव-मध्यम वर्ग यानी 20-25 करोड़ सम्पन्न महानगरीय भारत के वासी वैश्वीकरण की प्रक्रिया पर बल दे रहे हैं।...लेकिन भारत के 70-75 करोड़ जनसाधारण, जिनकी जड़ें ग्राम और छोटे शहरों में रही हैं, जो सदियों से स्थानबद्ध हैं, जिनकी स्थानीय संस्कृति के आधार साधारण जन आज न स्थान के हैं, न देश के (पृ. 163)
ऐसा लगता है कि लेखक ने इन पंक्तियों में पूरे देश का खाका सूत्र रूप में खींच दिया है। लेखक ने यह भी मन्तव्य दिया है, जो सच भी है कि भारतीय नवजागरण और स्वाधीनता संग्राम के समय के बुद्धिजीवियों ने अपने व्यवहार के बल पर मध्यम वर्ग और आम जनता के बीच के मानसिक अलगाव को दूर कर दिया था, इलीट वर्ग के लोग जनसंवेदी, जनसेवी और लोकोन्मुख हो गए थे; स्वाधीनता के पचास वर्ष बिता लेने तक उत्तर-आधुनिक मानसिकता में आ गए और वे उग्र व्यक्तिवाद एवं आत्मकेन्द्रिकता के शिकार हो गए।
नव-मध्यम वर्ग के इस तरह के हृदय-परिवर्तन और चरित्रन्तरण पर लेखक की टिप्पणी है कि गाँधी-नेहरू युग की प्रतिबद्धताओं से सम्पूर्ण रूप से सम्बन्ध-विच्छेद और उसके चरित्र में बुनियादी रूप से परिवर्तन आजादी के पचास वर्षों के बाद की सबसे अधिक ऐतिहासिक महत्त्व की घटना है, जो एक नए युग का संकेत करती है (पृ. 36)इस परिवर्तन पर किए गए चिन्तन को यदि यहीं स्थगित करके देखा जाए, तो यहाँ लेखक की विचार-प्रक्रिया का अन्तर्विरोध परिलक्षित होगा। कारण कि इससे पूर्व की पंक्तियों के तेवर में इस परिवर्तन पर व्यंग्य और विडम्बना परिलक्षित है। पर, यदि इस परिवर्तन के प्रभाव को परिवर्द्धित करके देखें, जिसका प्रतिफलन पुस्तक के अन्तिम अंश (संवाद) में दिखता है, तो बात वाकई सुखकर लगती है और इस परिवर्तन में वाकई एक नए युग का संकेत मिलता है। वह इस तरह कि स्वार्थ केन्द्रित इन भावनाओं ने देश की श्रमशील जनता को बहुत मजबूती से जोड़ा है और जाति-लिंग-वर्गवाद के तमाम उदारीकरण के बावजूद इस खास वर्ग में बहुत ममत्व भरा समूहवाद पनपा है तथा इनमें आत्मविकास के साथ-साथ एक अलग किस्म की कौटुम्बिक भावनाएँ आई हैं, जो प्रभु वर्ग के प्रति अत्यधिक घृणाभाव रखती है।
नवजागरण और पुनरुत्थान के मद्देनजर लेखक के इस विचार-मन्थन में वाकई एक बड़ी बात कही गई है, नवजागरण की अब तक की प्रक्रिया में हमारे यहाँ मुख्य भूमिका प्रभु-वर्ग की ही रही है, उन्हीं का द्वन्द्व और अन्तर्विरोध इसमें उभरता रहा, उपेक्षित और उत्पीड़ित समुदाय को उस दायरे से वंचित रखा गया। उत्पीड़न से उसकी मुक्ति और उसकी जीवन्त लोक-संस्कृति को वहाँ स्थान नहीं दिया गया। और आज, जब व्यक्तिवाद और आत्मकेन्द्रिकता का उग्र स्वरूप चतुर्दिक फैला है, तो दिख रहा है कि ‘‘इतिहास में पहली बार सब आल्टर्नकी जागृति की लहर नीचे से पुरानी व्यवस्था को चुनौती देने का साहस कर रही है। यह स्थिति पुराने रिनेसाँ में प्रस्फुटित होने की सम्भावना प्रस्तुत करती है।’’ संस्कृति और समाज के इस प्रतिगामी और प्रतिरोधी नीति के सड़ाँध पर चेतना का यह जो ताड़-खजूर उगकर बड़ा हुआ है, इसकी पहचान और सम्मान एवं स्वीकृति के साथ इसकी व्याख्या-समीक्षा प्रस्तुत कर लेखक ने वस्तुतः एक बड़ा काम किया है।
उत्तर-मशीन युग, उत्तर-आधुनिक युग, उत्तर-औद्योगिक समाज...नाना तरह के इन नामकरणों के बीच तरह-तरह की घोषणाएँ की जाने लगीं, कभी शब्द के अन्त, कभी विचार के अन्त, कभी इतिहास के अन्त की बातें लोग करने लगे; लेकिन मूल बात यह है कि इनमें से अन्त किसी का नहीं आया, असल में अन्त उस रूढ़िग्रस्त खेमे के वर्चस्व का आ गया है। ऐसी स्थिति में जिस तरह कुछ कायर-डरपोक-नपुंसक अपने सामने खड़ी समस्या से नहीं जूझ पाने पर पलायन के लिए हरिकीर्तन शुरू कर देते हैं, उसी तरह इन वर्चस्ववादियों को किसी खतरे के सामने खड़े होने पर धर्म संस्कृति और परम्परा याद आने लगती है, कुछ लोग उसके विरोध में उग्र रूप अपनाते हैं, उन्हीं में से कुछ लोग धर्म निरपेक्षता के नाम पर रूढ़ियों और धर्मान्धताओं को भूलने के बजाय एक दूसरी तरह की अन्धता के शिकार हो जाते हैं। यूरोपीय धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा के फेरे में धर्म-विमुखता की जो स्थिति बनती है, वह सांस्कृतिक विरासत से हमारा सम्बन्ध विच्छेद कराती है और इस क्रम में खतरा यह है कि घर की गन्दगी बाहर करने के बजाय, हम स्वयं घर से बाहर आ जाते हैं। यूरोपीय सन्दर्भ में इस तरह की अभिक्रियाओं के विनाशकारी परिणाम देखे जा चुके हैं। एक स्थिति यह भी बनती है कि वर्चस्ववादी लोग इसी संक्रमण की स्थिति में संस्कृति का झण्डा लेकर कूद पड़ते हैं और अपने पाखण्ड के जरिए धर्मान्धता और रूढ़ियों के बीच पहुँचने में सफल हो जाते हैं। इन स्थितियों पर भी पूरन चन्द्र जोशी ने विस्तार से सामाजिक-सांस्कृतिक-धार्मिक पहलुओं की सूक्ष्मतर व्याख्या की है और अर्थतन्त्र के व्यूह में उलझी सामाजिक व्यवस्था और आचार-संहिता की जटिल गुत्थियों को बड़े सहज-सम्मान्य तर्कों से सुलझाया है। ऐसा नहीं कि इस काम के हो जाने भर से दुनिया बदल जाएगी, पर यह तय है कि ऊपर दिखते हुए महाधुन्ध के भीतर जो कुछ महत्त्वपूर्ण बातें पक रही होती हैं या पक गई होती हैं, वे सामान्य स्थिति में सामान्य जन को परिलक्षित नहीं होतीं और फिर धुन्ध के घटाटोप में आम जन के बीच हताशा भाव बढ़ने लगता है। पर समय और समाज के विभिन्न पहलुओं को सूक्ष्मता से व्याख्यायित कर अपने निबन्धों के जरिए जिस तरह लोगों को विकास की इन प्रक्रियाओं से तर्कस्नान कराते रहे हैं, वह वस्तुतः समुदाय-तोष के लिए एक महत्त्वपूर्ण बात है।
यहाँ एक बात अलग से कहने की आवश्यकता है कि अपने आलेखों में श्री जोशी ने पर्याप्त ईमानदारी, तटस्थता और तर्कप्रियता का परिचय दिया है। पक्षपात की भावना से मुक्त होकर उन्होंने अपने खेमे के लोगों तक की बखिया उधेड़ी है, उन्हें भी नहीं बख्शा है। वामपन्थी और मध्यमार्गी रैडिकल दर्शन की अक्षमताओं, अपर्याप्तताओं और भटकावों की सामाजिक संरचना के सन्दर्भ में अच्छी तरह खबर ली है।
यद्यपि इस पुस्तक की भूमिका में पहले ही लेखक ने घोषणा कर दी है कि यह पुस्तक आजाद भारत की आधी सदी का सर्वेक्षण या इतिहासपरक वैज्ञानिक विश्लेषण नहीं है, एक महत्त्वपूर्ण काल-खण्ड का समाजशास्त्रीय अवलोकन है, पर यह लेखक का उदार-वचन है, बहुत कम जगह में इस पुस्तक में समाज की बहुत विस्तृत और सूक्ष्म व्याख्या हुई है। व्याख्या की पद्धति में चिन्तन और जीवन दृष्टि की बहुआयामिता दिखती है। इतिहास, संस्कृति, सामाजिक व्यवस्था, धनाधिक्य और दरिद्रता, राजनीति, मनोवेग और कामना, मानवीय सम्बन्ध आदि तमाम दृष्टियों से चिन्तन-मनन यहाँ देखा जा रहा है। वर्गवाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद, लिंगवाद आदि प्रसंगों पर, राजनीति के दलगत द्वेष और गठजोड़ पर, राष्ट्र के क्षेत्रीय विभाजन और शासक-शासित के सम्बन्ध पर इस पुस्तक में प्रस्तुत व्याख्या पाठकों को समाज के सोचों के अतल में ले जाती है और रोमांचित करती है।
भारत: एक खोजमें व्यक्त जवाहरलाल नेहरू के विचार एक सृजनशील अल्पमत सदैव संख्या में कम होता है, लेकिन यदि वह बहुमत के प्रति संवेदी है और उसे ऊपर उठाने के लिए और उसे तरक्की की ओर ले जाने के लिए सक्रिय है ताकि अल्पमत और बहुमत के बीच की दूरी कम हो सके, तो एक स्थायी और प्रगतिशील संस्कृति की रचना होती है। उस सृजनशील अल्पमत के बिना एक सभ्यता का ह्रास अनिवार्य है।के हवाले से नव मध्यम वर्ग पर टिप्पणी करते हुए लेखक का कहना है कि ‘‘जो सृजनशील अल्पमतआजादी के संघर्ष की अग्नि-परीक्षा में तपा हुआ निकला था और भारतीय नवजागरण के मूल्यों और आदर्शों की निरन्तरता का जिसे बोध था वह सृजनशील वर्गतो इतिहास के गर्भ में विलीन हो गया है और जो नया समूह प्रभुत्व में उभरा है और सत्तावान बना है, क्या वह उस सृजनशील अल्पमतकी भूमिका निभा सकता है (पृ. 127-25)’’
इस छोटे से वक्तव्य में लेखक ने आजादी के बाद भारतीय गणतन्त्र पर काबिज प्रभु-वर्ग की सारी गुत्थियों को इतनी सूक्ष्मता से अंकित और विवेचित किया है कि आधी सदी के भारतीय गणराज्य के सारे तन्तु तार-तार होकर टंग जाते हैं। इतनी बड़ी त्रसदी को इतने कम शब्दों में चित्रित करने की यह लेखकीय सफलता पूरन चन्द्र जोशी के गहनतम चिन्तन और गम्भीर सामाजिक सरोकारों का परिचय देती है। यहीं पर लेखक ने एन्तोनियों ग्राम्शी द्वारा दी गई प्रभुत्वऔर वर्चस्वकी व्याख्या का भी उल्लेख किया है और आज की परिवर्तन प्रक्रिया की कई पेचीदगियों की गाँठें खोली हैं।
दलितों, किसानों, मजदूरों, स्‍त्रियों के बीच उभरी नई चेतना, मण्डल आयोग अथवा अन्य आरक्षणों की अन्दरूनी जुगुप्सा और इन आरक्षणों की पथ-च्युति, पूँजीपतियों, जमाखोरों, बड़े-बड़े व्यापारियों और सत्ताधारियों के प्रति श्रमजीवियों के घृणा-भाव आदि की पृष्ठभूमि की तलाश इस पुस्तक में पूरी तरह समाज की आर्थिक और सांस्कृतिक संरचना की व्याख्या के साथ की गई। हर आलेख की स्वायत्त सत्ता रहने के बावजूद सब के सब एक दूसरे से किसी खास अन्तःसूत्र से जुड़े हैं। बीते पचास वर्षों की सामाजिक गतिविधियों और प्रगति-परिणतियों को आँकने में यह पुस्तक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। पुस्तक का अन्तिम आलेख (संवाद), अगले पचास वर्षों में भारत के स्वरूप पर एक चिन्तन की तरह है। यद्यपि लेखक कोई भविष्य-द्रष्टा नहीं हैं, पर भविष्य भी अतीत और वर्तमान की कसौटी पर परिगणित होता है और यह गणना कोई चिन्तक अपने अनुभवों और विकास की व्यतीत प्रक्रियाओं के आधार पर करता है। श्री जोशी ने इसी कसौटी पर उन संकेतों को पल्लवित किया है, जो आज तक की विडम्बनाओं की मजबूत छाती फाड़कर सामने आया है।
केवल गाँधी और नेहरू के विचार दर्शनों पर पूरी पुस्तक में अत्यधिक आग्रह दिखाया गया है, यह अलग बात है। पर कुल मिलाकर यह अत्युक्ति नहीं होगी कि यह पुस्तक आजाद भारत के जनजीवन पर वैश्वीकरण, स्थानीकरण, विश्वग्राम की अवधारणा, कृषिकर्म पर पाश्चात्य मॉडल की तीखी आँखें, भारतीय किसान और मजदूर पर आर्थिक-प्राकृतिक-सामन्ती-आभिजात्य उत्पीड़न के दंश, रक्षक लघुमानव और भक्षक आभिजात्य के बीच लोक-संस्कृति की रस्साकसी, शोषण-उत्पीड़न का ताण्डव, राजनीतिक तिकड़म और कुर्सी की छीना-झपटी, उदारीकरण का पाखण्ड, सम्बन्धों का अवमूल्यन, समूहवाद और व्यक्तिवाद के जटिल व्यूह ...इन तमाम घटकों के दबाव के सर्वेक्षण का अत्यन्त ठोस संकलन है और एक तार्किक तथा दृष्टि सम्पन्न चिन्तन का परिणाम है। जो भारत के सपनों से सदा दो-चार होते रहते हैं, उन नागरिकों के लिए खासकर, यह एक जरूरी किताब है, जो हमारे सपनों को बार-बार याद दिलाती है। कोई पुस्तक मनुष्य के सपनों को साकार नहीं करती, उसका रास्ता दिखाती है। लिहाजा यह पुस्तक भी हमारे स्वप्न और यथार्थकी दीर्घ व्याख्या करती है और हमें हमारे सपनों से जोड़े रख रही है। क्योंकि सपनों के बिना जीना, जीना नहीं होता, तभी तो प्रख्यात पंजाबी कवि पाश ने कहा, ‘सबसे खतरनाक होता है, हमारे सपनों का मर जाना
संवेद, मुंगेर
स्वप्न और यथार्थ: आजादी की आधी सदी/पूरन चन्द्र जोशी/राजकमल प्रकाशन

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