स्वातन्त्र्योत्तर काल का भारत अपने सामाजिक-आर्थिक परिवेश के
कारण हरेक संवेदनशील व्यक्ति के लिए एक खण्डित स्वप्न की स्थिति उत्पन्न करता रहा
है। आजादी के बाद लिखे गए हर भारतीय भाषा के साहित्य पर एक विहंगम दृष्टि डालने पर
यह आँकड़ा सामने आता है कि इधर कुछ स्वार्थ-लिप्त लोग आजादी के जश्न मनाने से मुक्त
भी नहीं हुए कि उधर कुछ संवेदनशील रचनाकारों ने आम जनता के ढहते हुए स्वप्न-महल की
चिन्ता करने लगे। मुट्ठी भर लोगों की सुख-सुविधा और ऐशो-आराम की पूर्ति हेतु विशाल
जनपद में दुख-दुविधा बढ़ती जा रही थी। और, देश
के प्रतिभा सम्पन्न रचनाकार अपनी-अपनी भाषा के साहित्य में इन स्थितियों के
बुनियादी सूत्रों को नंगा करने लगे थे। देखते-देखते दो दशक बीत गए।
मजदूरों-किसानों के बीच लगातार असन्तोष बढ़ता गया। श्रमिकों के श्रम की उपेक्षा, अवमानना और अवमूल्यन होने लगा। फलतः देश
के कई क्षेत्रों से आन्दोलन के बिगुल बजने लगे। भिन्न-भिन्न प्रान्तों में
राजनीतिक स्थितियों ने भी करवटें बदलीं। राजनीतिक पार्टियों में भी अन्दरूनी
असन्तोष आए। बंगाल से उठा नक्सलबाड़ी आन्दोलन ऐसी ही स्थिति की एक महत्त्वपूर्ण
परिणति है।
कहा जाता है कि साहित्य, हर
ऐतिहासिक आन्दोलन की अगुआई करता है। बंगला साहित्य अपने समय के सत्य को उजागर करने
में सदा से आगे रहा है। स्वातन्त्र्योत्तर काल की उक्त दुश्चिन्ताओं से भरा
उपन्यास ‘अशुभ वेला’ (समरेश मजुमदार) इसी क्रम का एक
महत्त्वपूर्ण पड़ाव है। समकालीन समाज की स्थितियों परिस्थितियों को साहित्य की
भिन्न-भिन्न विधाओं में आँकने-टाँकने में बंगला साहित्य ने पूर्व में भी कई
मिसालें कायम की हैं। बंकिम,
शरत, आशापूर्णा, महाश्वेता से लेकर मलयराय चौधुरी, समीरराय चौधुरी, सुभाष मुखोपाध्याय, शक्ति चट्टोपाध्याय, सुकान्त भट्टाचार्य समेत कई
महत्त्वपूर्ण नाम लिए जा सकते हैं। बंगला के कुछ ऐसे ही चोटी के रचनाकारों में से
एक नाम समरेश मजुमदार का है।
‘अशुभ
वेला’ समरेश की बहुप्रशंसित बंगला उपन्यास ‘काल वेला’ का
हिन्दी अनुवाद है। इससे पूर्व बंगला में इनकी अन्य प्रकाशित कृतियाँ हैं: दौड़, एइ आमि रेणु, उत्तराधिकार, बन्दी निवास, बड़ पाप हे, उजान, गंगा, वास भूमि, लक्ष्मीर
पांचाली, उन्नीस विश, सओयार आदि। कलकत्ता और आस-पास के
छोटे-बड़े-मझोले शहरों में घूमती-फिरती इस उपन्यास की कथा उग्र साहस की क्रान्ति, तीक्ष्ण प्रवाह की विचारधारा और
पवित्रतम भाव की निष्ठा और नैतिकता का उदाहरण प्रस्तुत करती है। उपन्यास के नायक ‘अनिमेष’ और
नायिका ‘माधवीलता’ के
जीवनक्रम को रेखांकित करती यह कहानी, कलकत्ता
और आस-पास के बंगाली जनपद के सुख-दुख, राग-विराग, रहन-सहन को अपनी बुनावट में सहेजती
अवश्य है, पर मूल रूप से यह स्वातन्त्र्योत्तर
भारत के पुलिसिया दमन और हैवानी को नंगा करती है। स्वाधीनता संग्राम के अगुआ गाँधी
जी ने भारत की जनता को जिस सत्यवादिता, निष्ठा
और नैतिकता, जनपदीय प्रेम और सामाजिक समभाव, वसुधैव कुटुम्बकम् का पाठ पढ़ाया--वह पाठ
आगे के वर्षों में उसी स्वाधीन भारत की राजनीतिक विडम्बनाओं और प्रशासनिक
आततायियों के कारण आम जनता के लिए कितना महँगा पड़ा--इसका उपयुक्त उदाहरण इस
उपन्यास के नायक ‘अनिमेष’ का
जीवनक्रम है। नाना तरह की कामनाओं से भरी हुई मानसिकता के साथ उत्तर बंगाल से पहली
बार कलकत्ता आया हुआ एक युवक ‘अनिमेष’ का
जीवन, नियन्त्रण और भावुकता की खींच-तान में
अजीब-सी स्थिति में पड़ता है। उसके भीतर अभिलाषा है, उत्साह
है, उतेजना है, भावुकता है, जोश है...एक सहज और निष्ठावान मनुष्य के
भीतर अँकुरने और पल्लवित-पुष्पित होने वाला सब कुछ है। पर कलकत्ता आने के बाद
अचानक वह ‘अन्य लोगों की तरह बहता हुआ जीवन का
रास्ता बदल लेता है। छात्र-राजनीति उसे जटिल आवर्त में ले जाती है। इस देश और
देशवासियों के साथ खड़े होने की दुर्वह वासना में विभक्त कम्युनिस्ट पार्टी के
पताका के नीचे जा खड़ा होता है। किन्तु मनुष्यत्व और मानसिक मूल्यबोध उसे उग्र
राजनीति में बहा ले जाते हैं। सत्तर की उस आग में कूदने के बाद अनुभव करता है कि
दग्ध वस्तु में सृष्टिशील क्षमता नहीं रहती।...’
जीवन के उत्साह को आजाद भारत के पाखण्ड, षड्यन्त्रपूर्ण राजनीतिक स्थिति और
स्वार्थ लोलुपता की आग ही वह चीज है, जिसके
कारण देश में अफसरशाही और पुलिस तन्त्र की छाँव में आतंक, नृशंसता, शोषण, अत्याचार आदि फलते-फूलते रहे हैं। जनपद
के हित की बात सोचता हुआ और इन तमाम आँधियों-तूफानों से जूझता हुआ अनिमेष जब एक नई
सोच के साथ, नई किरण की तलाश के लिए आगे बढ़ता है तो
वह तानाशाही और निर्मम पुलिसिया अत्याचार का शिकार होता है। प्राण से ज्यादा
प्यारी प्रेमिका माधवीलता से अलग हो जाता है और नृशंसताओं के अभिशप्त भोक्ता की
तरह नित नई-नई यातनाएँ भोगकर विकलांग हो जाता है। आम जनता के प्रति ममत्व और आपकता
से भरे हृदय का यह उत्साही युवक पूरे कथा-जीवन में देश की छद्म स्वाधीनता, देश की जनता पर थोपी गई आर्थिक दुर्दशा
और व्यवस्थागत संस्कार के बोझ से व्याकुल होता रहता है। राजनीतिक सगूफेबाजी की
प्रवंचना का शिकार जनपद के बारे में सोचकर परेशान रहता है। पर ये सारी स्थितियाँ
अनिमेष को हमेशा तार्किक और बौद्धिक बनाती हैं। इतनी व्यथाओं के साथ वह कई बार
टूटता है, पराजित होता है, पर कभी टूटकर बिखरता नहीं, अपने को निष्क्रिय बना लेने का कोई कारण
नहीं ढूँढ पाता। वह सोचता रहता है कि ‘विरोधी
दल की दृष्टि से कांग्रेस की नुक्ताचीनी करने या विक्षोभ प्रकट करने में बहादुरी
है, किन्तु गठनमूलक काम-काज करना, जिससे देश के सब मनुष्यों में
सामाजिक-आर्थिक विषमता टूट जाए,
वह बिल्कुल अलग बात है।
कम्युनिज्म की थ्योरी सब देशों में अलग-अलग तरह से प्रयोग में लाई जाती है।
क्योंकि हर देश की मिट्टी और मनुष्य का मन एक जैसा नहीं होता।’ अपनी सोच-समझ में इतना तार्किक होना भी
एक महत्त्वपूर्ण पहलू है। अपराध और अन्धकार के सागर में डूबी मानवता के बीच कहीं
उत्थान की एक चिनगारी ढूँढने की इसी पहल ने राजनीतिक मोहभंग की कथा से भरे इस
उपन्यास को महत्त्वपूर्ण बनाया है।
उपन्यासकार समरेश मजूमदार ने इस उपन्यास में न केवल चरित्र के
तार्किक विकास और घटनाओं की सुसंगति बैठाई है, बल्कि
उपन्यास की कथा की कालावधि को सुचिन्तित ढंग से व्याख्यायित किया है। अंगीठी की
लकड़ी की तरह खुद को जलाकर दूसरों को ऊष्मा देने वाले युवक अनिमेष की वैचारिक
निष्ठा एक तरफ पाठकों को देश-दशा की वीभत्सता पर आक्रान्त करती है तो अनिमेष के
प्यार की निशानी अपने गर्भ में और फिर समाज में पालती हुई कुँआरी माँ माधवीलता की
प्रतिबद्धता दूसरी तरफ आह्लादित करती है।
माधवीलता कभी राजनीति में हिस्सा नहीं लेती, पर अनिमेष से प्रेम करती है; समाज की तमाम दुर्वृत्तियों के बीच आलोक
स्तम्भ की तरह सिर ऊँचा किए खड़ी रहती है। अवमाननाओं और उपेक्षाओं के जहर का प्याला
पी-पीकर विषहारा बनी रहती है। अर्थात् ‘बंगाल
की यह लड़की धूप की तरह खुद को दग्ध करके भविष्य को सुन्दर करना चाहती है।’ और इसी कारण अन्त में जब विकलांग अनिमेष
को कुँआरी माँ माधवीलता अपने निवास पर लाती है तो वह अपने उस पुत्र के पैरों की
तरफ देखकर प्रमुदित होता है,
जिसके लिए उसने कभी
कोई पितृधर्म नहीं निभाया। और,
पुत्र के पैरों को
देखकर वह पल भर में अपनी विकलांगता भूल जाता है, उसे
भविष्य में कुछ दिखाई देने लगता है और ‘देश
के निर्माण करने के लिए विप्लव में निष्फल, हताशा
में डूबे हुए अनिमेष को अहसास होता है कि विप्लव का दूसरा नाम माधवीलता है।’
चरित्रों को इतना ताकतवर और निष्ठावान तथा घटनाओं को इतना
विचारशील बनाने वाले श्रेष्ठ उपन्यासकार समरेश मजूमदार अपने इस शानदार उपन्यास ‘अशुभवेला’ के
लिए बंगला में और अब हिन्दी में भी,
अर्थात् पूरे देश में
समादृत होते रहेंगे।
उपन्यास की भाषा प्रभावशाली है। पर अपनी उद्घोषणा के अनुसार
अनुवादिका ने इसमें मूल भाषा का स्वाद भरने के क्रम में कहीं-कहीं बंगला के भाषा
संस्कार को ही अक्षुण्ण छोड़ दिया है। यद्यपि अर्थोत्कर्ष में कोई बाधा नहीं होती, पर वाक्य सौन्दर्य पर कहीं-कहीं आघात
अवश्य होता है। यदि इससे भी बचा गया होता तो इस उपन्यास के लिए ‘सोने में सुगन्ध’ की बात निश्चय ही कही जाती।
अशुभ बेला/समरेश
मजुमदार (बंगला से अनुवाद: आशा गुप्त)/वाणी प्रकाशन, पृ. 520/ रु. 395.00
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