जीवन-मूल्य की पहचान का महान गल्प
The Great Fiction of Sense of Life-Value
कविता की नई तारीख/काशीनाथ सिंह
Kavita Kee Nayee Tareekh/Kashinath Singh
साठोत्तरी पीढ़ी के हिन्दी कथा-लेखन के महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर
काशीनाथ सिंह का जन्म 1 जनवरी,
1937 को वाराणसी (अब
चंदौली) के जीयनपुर गाँव में हुआ। उनकी पहली कहानी ‘संकट’ कृति पत्रिका (सितम्बर 1960) में प्रकाशित
हुई। उनका पहला उपन्यास अपना मोर्चा सन् 1967 के छात्र आन्दोलन पर
केन्द्रित है। लम्बे समय बाद सन् 2002 में प्रकाशित दूसरा उपन्यास ‘काशी का अस्सी’ उनका सबसे महत्त्वपूर्ण काम माना जाता
है। कहन-शैली, कथा-भाषा, प्रसंगों
की उठा-पटक, नीति-मूल्य एवं जीवन-मूल्य की बुनियादी
शर्तों की सुरक्षा की नायाब तरकीबें...उनकी किस्सागोई की अनिवार्य पूँजी है। नई
कहानी आन्दोलन के तुरन्त बाद आई इस पीढ़ी ने हिन्दी कहानी में सम्बन्धों के विघटन
को रेखांकित करनेवाली अन्तर्वस्तु एवं तीक्ष्ण भाषा-शैली को प्रमुखता से जगह दी।
इस पीढ़ी को अलग पहचान दिलाने में इनके अलावा ज्ञानरंजन, दूधनाथ सिंह और रवीन्द्र कालिया का नाम
सम्मान से लिया जाता है। इनकी कहानियाँ अपने उत्कट भावबोध एवं प्रचलित जीवन-विरोधी
मर्यादाओं के प्रति अस्वीकार-भाव के लिए पाठकों के मन में रच-बस गईं। सन् 2011 में
उन्हें रेहन पर रग्घू (उपन्यास) के लिए साहित्य अकादेमी पुरस्कार से
सम्मानित किया गया। इसके अलावा वे कथा सम्मान, समुच्चय
सम्मान, शरद जोशी सम्मान, साहित्य भूषण सम्मान तथा उत्तर प्रदेश
सरकार के सर्वोच्च सम्मान भारत भारती से भी सम्मानित किए गए। अब तक प्रकाशित उनकी
प्रमुख कृतियों में हैं--नौ कहानी संग्रह--लोग बिस्तरों पर (1968), सुबह का डर (1975), आदमीनामा (1978), नई
तारीख (1979), कल की फटेहाल कहानियाँ (1980), सदी
का सबसे बड़ा आदमी
(1986), लेखक की छेड़छाड़ (2012), कविता
की नई तारीख
(2012), कहानी उपखान (2003), प्रतिनिधि
कहानियाँ (2008); पाँच उपन्यास--अपना मोर्चा (1972), काशी का अस्सी (2002), रेहन
पर रग्घू (2008), महुआ चरित (2012), उपसंहार
(2014); तीन संस्मरण--याद हो कि न याद हो (1992), आछे दिन पाछे गए (2004), घर
का जोगी जोगड़ा
(2007); एक नाटक--घोआस (1982); और एक आलोचना आलोचना भी रचना
है (1996) पुस्तकें प्रकाशित हुईं। ‘कहानी
उपखान’ में उनकी कुल चालीस कहानियाँ संकलित
हैं। उन्होंने दीर्घ काल तक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी भाषा एवं
साहित्य का अध्यापन किया।
कविता की नई तारीख कहानी उनकी विशिष्ट रचना है। जिन
विभाजक विशेषताओं से साठोत्तरी पीढ़ी की कहानियाँ अपनी विरासत की कथा-धारा से पृथक
मानी जाती हैं, उनके स्पष्ट लक्षण इसमें दिखते हैं।
मूल्यगत अवधारणाओं से संचालित दो कुटुम्ब परिवारों के रहन-सहन की समझ में तनाव एवं
आदर के द्वन्द्व को यह कहानी सूक्ष्मता से प्रकट करती है। शिल्प एवं संवेदना की
दृष्टि से यहाँ मनुष्य के वर्गान्तरण की जटिल पद्धति सहजता से रेखांकित है।
कविता की नई तारीख दो बहनों के पतियों (साढ़ुओं) की भिन्न
जीवन-दृष्टि एवं आर्थिक परिलब्धि के कारण उत्पन्न तनाव की कहानी है। इस तनाव में
दोनो बहनों एवं दोनो साढ़ुओं के बीच प्रेम-सौहार्द की कोई आभासी चादर चिलमन की तरह
तनी हुई है, जिसके आर-पार दोनो दम्पतियों के
सोच-विचार, नैतिकता, मूल्य-बोध, बौद्धिक फाँक, सामाजिक मान-मर्यादा, मानवीयता, आर्थिक
परिलब्धि, घूसखोरी से सम्पोषित ऐशो-आराम एवं
मिथ्या अहंकार का संघर्ष स्पष्ट दिखता रहता है। यह संघर्ष भारतीय स्वाधीनता के
दशक-डेढ़ दशक बीतते समाज में फैले भ्रष्टाचार एवं घूसखोरी के दुस्साहसी चरित्र को
बड़ी स्पष्टता से उजागर करता है,
जिसमें एक शिक्षक
अपनी नैतिकता की रक्षा करते हुए अपनी विपन्नता में ही सम्पन्न है और सीमित
संसाधनों से अपने परिवार का भरण-पोषण कर रहा है, स्वाभिमान
से जिए जा रहा है; जबकि दूसरा परिवार अनैतिक धन कमाकर
ऐशो-आराम का जीवन जीते हुए मदान्ध है एवं अपने कुटुम्ब की आर्थिक दुर्बलता पर
दयार्द्र होकर अपने कुटिल अहं को बेमतलब ऊँचा करता रहता है। भारतीय जनजीवन में
बनाई गई यह कृत्रिम विसंगति साठोत्तर काल के समाज का, और इसलिए भारतीय साहित्य का ज्वलन्त
विषय था। नागरिक जीवन में बेशर्मी से डैना फैलाए यह गिद्ध भारतीय जनजीवन का
सर्वस्व नोच रहा था। इस एक विसंगति ने पूरे समाज में असंख्य विसंगतियाँ फैला रखी
थी। इसलिए साठोत्तरी पीढ़ी के कथाकार अपने समय की तमाम विसंगतियों की जड़ों पर गहरे
आघात के लिए तत्पर रहते थे। काशीनाथ सिंह उस पीढ़ी के ऐसे जिम्मेदार कथाकार हैं, जो न केवल विषय-प्रसंग एवं घटना-क्रम से
अपनी धारणाओं को मजबूत करते हैं,
बल्कि कथा बुनने में
भी ऐसी चतुराई दिखाते हैं कि भावकगण अनायास ही उनके कथानायक के पक्ष में और
प्रतिपक्ष के विपक्ष में उद्वेलित हो जाते हैं।
इस कहानी में जिन दो पक्षों के सोच-विचार का संघर्ष है, उनमें से एक पक्ष का नायक कथा-वाचक है, जो पूरी कहानी में अपने ‘मैं’ के
साथ उपस्थित है। किन्तु उसका ‘मैं’ कहीं
किसी अहं को न्यौता नहीं देता। सारे चरित्रों के बीच गाछ की तरह खड़ा रहता है, पक्ष-प्रतिपक्ष के सभी स्त्री, पुरुष, बच्चे, पड़ोसी, सेवक, स्वामी, घर
की दीवार, वातावरण ... हर किसी को अपने विचारों पर
फैलने का भरपूर अवसर देता है। दीगर बात है कि पूरी स्वाधीनता के बावजूद प्रतिपक्षी
विचार वाचक के विचारों पर रेंग भर पाते हैं। वाचक के साथ उसकी पत्नी और दो बच्चे
भी हैं। वाचक के तीन बच्चे और हैं,
पर कहानी में उनकी
केवल गिनती भर की सूचना है,
घटनाक्रम से वे सदैव
अनुपस्थित ही रहते हैं।
कहानी के दूसरे पक्ष का नायक कथा-वाचक के साढ़ू सानू हैं, जो किसी प्रशासनिक पद पर कार्यरत हैं; निर्भीक घूसखोर हैं, उन्हें अपनी घूसखोरी-वृत्ति पर अहंकार
की हद तक का गौरव है। उनके साथ उनकी पत्नी रेखा हैं, कथा-वाचक
की साली, विवाह से पूर्व अपने कवि बहनोई के
व्यक्तित्व पर जान छिड़कती थीं;
अब वही रेखा उन्हें
हिकारत से देखती हैं। साथ में उनके दो बच्चे भी हैं।
दोनों पक्षों में गहन विषमता है। कथा-वाचक कवि और अध्यापक हैं।
उनकी आमदनी सीमित है। वेतन के अलावा कोई ऐसा स्रोत नहीं है, जिससे उनकी आमदनी पुष्ट हो। वे अत्यन्त
कर्मनिष्ठ, नैतिक और सामाजिक सरोकार के प्रति
जिम्मेदार व्यक्ति हैं। अपनी नैतिकता, मान्यता
और वैचारिकता के परिपालन में वे आमदनी बढ़ाने के लिए कोई अनैतिक आचरण नहीं अपना
सकते। बुनियादी जरूरतें पूरी करते हुए वे मध्यवर्गीय गृहस्थ की तरह अपना परिवार
चलाते हैं। पारिवारिक बजट में जरा-सी खींच-तान हो, तनिक-सा
अतिरिक्त खर्च हो जाए,
तो महीने भर का
हिसाब-किताब असन्तुलित हो जाता है।
इसके विपरीत,
उनसे कम वेतन
पानेवाले उनके साढू सरकारी सेवा में प्रशासनिक अधिकारी हैं, घूसखोर हैं, घूसखोरी से प्राप्त धन से ऐशो-आराम का
जीवन बिताते हैं, सीमित आय के कारण कथा-वाचक के जीवन में
ऐसी ठाट-बाट असम्भव है। सानू की पत्नी वकालत पढ़ी हुई हैं, इसलिए वकालत करती हैं, बल्कि वकालत का धन्धा करती हैं, पति की घूसखोरी में उनकी चतुराई का
योगदान तो रहता ही है,
पति के ओहदे का लाभ
लेकर अपनी वकालत का बाजार गर्म भी रखती हैं। उनके बच्चे महँगे अंग्रेजी स्कूल में
पढ़ते हैं, उसके खान-पान, पहनावे-ओढ़ावे, चाल-ढाल, रहन-सहन, मन-मिजाज, भाषा-व्यवहार, खेल-कूद...सारा कुछ भिन्न है। वाचक के
बच्चों को वैसी सुविधाएँ किसी भी तरह उपल्ब्ध नहीं हो सकतीं। वे सरकारी स्कूल में
पढ़ते हैं। ।
रोजनमचे की एकरसता और ऊब से भरे जीवन की जड़ता मिटाने के लिए
कथा-नायक छुट्टियों में अपने साढ़ू के घर चल पड़ते हैं। जीवन-दर्शन की विशिष्ट
परिस्थितियों का उदाहरण देते हुए यात्रा की दुर्वह दूरी जल्दी-जल्दी तय कर वे अपने
साढ़ूभाई के शहर के स्टेशन पर उतरते हैं। रेल-यात्रा सामान्य दर्जे की बाॅगी में
करते हैं, इससे उनकी अगुवाई में अपने अधिकारी
मित्रों के साथ स्टेशन आए उनके साढ़ूभाई का मान-मर्दन होता है, तौहीन होती है। झल्लाते हुए कहते हैं--‘इतने बड़े-बड़े अफसर मित्र हैं ये लोग!
आपने जरा भी अपनी प्रतिष्ठा का ख्याल किया होता! कम से कम स्लीपर तो ले लिया होता!’ मगर उनके नकली धौंस की इतनी बड़ी चिन्ता
कथा-नायक की एक पंक्ति के परिहास से हवा हो जाती है। वे निहायत बेफिक्र अन्दाज में
कहते हैं...‘ठीक है, आगे
हवाई जहाज से आऊँगा...।’
साढू-साली के घर मेहमानों की भरपूर आवभगत होती है, किन्तु आवभगत के दबाव में वाचक की पत्नी
हीनताबोध से भर जाती हैं। आर्थिक वैषम्य के यथार्थ से वे उबर नहीं पातीं। बड़े
तरकीब से घर की बुनियादी जरूरत पूरी करनेवाली स्त्री ऐसे घर की मेहमान हो जाती हैं
जहाँ हर एक साँस वैभव-प्रदर्शन में ली जाती है। यहाँ खाने की मेज पर बच्चों से भी
तहजीब की अपेक्षा की जाती है,
जबकि वाचक के दोनो
बच्चे भकोस रहे हैं। मौसेरे भाई-बहन की नफासत देखकर वे हीन-ग्रन्थि से दब जाते हैं, खुद को मिसफिट समझकर उदास भी होते हैं।
इण्डोर गेम खेलते समय खेल का आचार नहीं जानने, नासमझी
में नियम तोड़ने, जोर से बोलने के दण्ड में खेल से बाहर
कर दिए जाते हैं। बच्चों की इस दयनीयता से वाचक की पत्नी खिन्न होती हैं। बहन के
मुँह से ठाट-बाट की कथा सुनकर खिन्नता बढ़ जाती है। क्रोध में रेखा का वक्तव्य, कि उजड्ड गँवार बच्चों की सोहबत में
उनके बच्चों ने भी गालियाँ सीख ली हैं, वाचक
की पत्नी सोना और अधिक खिन्न करता है। खिन्नता के मारे कातर भाव से पति से तनख्वाह
की रकम पूछती हैं; पूछती हैं कि उनसे कम तनख्वाह पाकर भी
सानू (उनकी छोटी बहन का पति) की ऐसी ठाट-बाट कैसे है? पत्नी की खीज बर्दाश्त करने की वाचक ने
आदत बना ली है।
पत्नी की खिन्नता के स्थायी-भाव का संकेत कथाकार ने कहानी की
शुरुआत में ही दे दिया है;
हर बात पर वे एक बात
कहती हैं...‘मेरी किस्मत में ही ऐसा लिखा है!’ रेल-यात्रा की शुरुआत में पत्नी की
खिलखिलाहट देखकर वाचक को अनुभव होता है कि ‘पत्नी
भी हँस सकती हैं।...हँसना कतई नहीं भूली हैं।’ पत्नी
की ओर रेल-यात्री को घूरते देखकर उन्हें लगता है कि ‘मुमकिन है, अब भी उनमें देखने लायक चीज बाकी रह गई
हो जिस पर मेरा ध्यान नहीं गया है...।’ पर
ध्यान रहे कि परिवार के राजनीतिक मामलों में अपनी मिमियाहट को याद कर उन्हें यह भी
अनुभव होता है कि हो न हो पत्नी उन्हें दब्बू और डरपोक समझती हों! पर इनमें से
किसी भी प्रसंग में वाचक को न तो अपने अर्थाभाव के लिए हताशा है न पत्नी इच्छाओं
के लिए उपेक्षा-भाव। कदाचित वे किसी कुशल गृहस्थ की ऐसी ही चारित्रिक-संरचना पसन्द
करते हों। क्योंकि वे अपने मूल्यगत सरोकारों के बावजूद परिवेश की ठाट-बाट के सहज
आकर्षण एवं अपने अपर्याप्त बजट के संघर्ष से परिचित हैं! दायित्व-निर्वहन में वे
कोई अनैतिक आचरण भी नहीं अपना सकते। इसलिए पत्नी की अभिलाषा और खीज को वे कभी गलत
नहीं ठहराते।...
ये सारे प्रसंग कहानी में लक्ष्य-सन्धान के सहायक हैं। उनका
असल लक्ष्य तो साढ़ू के अनैतिक दुस्साहस के सहारे लोकतान्त्रिक व्यवस्था की
विद्रूपता को उजागर करना है। वे भली-भाँति जानते हैं कि उनकी प्रतिबद्धता में
पत्नी-बच्चों के मनोरथ की उपेक्षा हो रही है। अपने बच्चों के भदेस आचरण, अपनी आर्थिक विपन्नता, पत्नी की खीज को वे प्रयासपूर्वक परोक्ष
करते रहते हैं, बेफिक्री से टालते जाते हैं, किन्तु पत्नी की शिकायत क्रमशः तीखी
होती जाती है; व्यंग्य और कटाक्ष गहरे होने लगते हैं।
अन्ततः वाचक भी तनिक झल्लाहट में पहुँच जाते हैं। वे खिन्न भी होते हैं। किन्तु
पत्नी के प्रति सम्मान-बोध तब भी बना रहता है। इसलिए जब पत्नी पूछती हैं कि ‘...बेईमानी बुरी चीज है तो ये चीजें
(ऐशो-आराम के संसाधन) क्यों अच्छी लग रही हैं और सचमुच अच्छी हैं तो बेईमानी और
घूसखोरी कैसे बुरी हैं?’
वाचक इस तीखे प्रश्न
का उत्तर भी बड़े धैर्य से देते हैं,
किन्तु उस उत्तर में
उनकी चतुराई स्पष्ट दिखती है। जोर का झटका धीरे से लगाते हुए कहते हैं कि ‘डियर...मैं इतना बेवकूफ नहीं हूँ कि
तुम्हारे सवाल को न समझूँ।’
वे पत्नी को कहते हैं
कि तुम्हारे प्रश्न का अभिप्राय है कि ‘मैं
सानू को गाली क्यों नहीं देता,
उसका मजाक क्यों नहीं
उड़ाता, उसके साथ मार-पीट क्यों नहीं कर बैठता?’ झल्लाहट में वे न चाहते हुए भी उलहना दे
ही देते हैं कि मैं कोई अभद्रता इसलिए नहीं करता कि इस परिवार से रिश्ते का आधार
मैं नहीं, तुम हो। इनलोगों के साथ किसी भी अशोभनीय
आचरण का दुष्परिणाम तुम्हारे मैके के सम्बन्ध-सूत्र में खिंचाव लाएगा।...इसलिए वे
कहते हैं कि ‘याद रखो कि यह रिश्ता मेरा नहीं, तुम्हारा है, यहाँ पर मैं तुम्हारी खातिर हूँ, वरना...वरना...।’ यह दो बार ‘वरना’ शब्द
का उच्चारण वाचक की अनेक अभिक्रियाओं के सम्भावनाओं की ओर इशारा करता है। उन
सम्भावनाओं से बचने के लिए वाचक झटके से दरवाजा खोलकर बाहर निकल जाते हैं।
आर्थिक विषमता की स्थिति ने इस कहानी के दोनो परिवारों के
भिन्न-भिन्न सदस्यों को भिन्न-भिन्न तरीके से उलझा रखा है। कहानी की बुनावट इतनी
सघन है कि पूरा कथा-काल इन दोनो परिवारों के आठो सदस्यों की उपस्थिति और गतिविधि
से भरा रहता है। कोमल,
सागा जैसे नौकर-चाकर
बीच-बीच में कभी-कभी आ जाते हैं,
जिनकी भूमिका दिए गए
आदेश की पूर्ति और चुपचाप डाँट खाकर वापस चले जाने की होती है। अलबत्ता रामलाल नाम
के एक पात्र का अवतरण भी बीच में थोड़ी देर के लिए होता है, जो पाँच रुपए घूस लेने के अपराध में
नौकरी से निलम्बित है,
वह कथा-वाचक के बचपन
का सहपाठी है, वाचक के सामने अपनी पैरवी रखकर
अन्तर्धान हो जाता है। अपनी जीवन-दृष्टि एवं वैचारिकता की अवहेलना, अपने बच्चों के अपमान, और पत्नी के तानों-उलहनाओं से मानसिक
तौर पर उद्वेलित रहने के बावजूद कथा-वाचक का पूरा समय निरन्तर परिस्थितियों को
समतल और सन्तुलित करने में लगा रहता है। वाचक के साढ़ू-साली लगातार अपने धनाढ्य
होने के अहं में टर्र हैं,
बात-बेबात वाचक एवं
उनकी पत्नी के समक्ष शेखी बघारने लगते हैं। वाचक के बच्चे हीनता-बोध से भरे हैं, किन्तु भौंचक हैं; जबकि मेजवान के बच्चे की हेंकड़ी तनी हुई
है। इन बहुविध प्रतिक्रियाओं के बीच कथा-वाचक अपनी पत्नी के अकिंचनता-बोध एवं साली
के सम्पन्नता-बोध को सहलाने-गुदगुदाने में लगे हैं।
कथा के अन्तिम भाग में आकर अन्ततः वाचक की सहन-शक्ति का बाँध
टूट जाता है। फुहारोंवाली बारिश में अपने टेनिस कोर्ट में बैठकर कुछ पिकनिक जैसा
आनन्द लेने के लिए सानू उन्हें बीयर/व्हिस्की के पैग पर आमन्त्रित करते हैं। सानू
दम भर बीयर पीते हैं। सम्भवतः उन्हें मालूम है कि सामान्य दशा में लिहाज के मारे
वे वाचक के सामने कभी शेखी नहीं बघार पाएँगे, अपने
ऐशो-आराम की ठसक से उन्हें नीचा नहीं दिखा पाएँगे; इसलिए
शायद बीयर के नशे का सुरूर सिर चढ़ने पर उगलना शुरू करते हैं। अपनी घूसखोरी का
महिमा-मण्डन करते हुए अपने प्रभुत्व का गुणगान करते हैं। जाँच समिति, न्याय-प्रक्रिया, दण्ड-विधान, राजनीतिज्ञों के चरित्र, अपने माँ-पिता-कुटुम्ब...हर किसी की
धज्जियाँ उड़ाते हैं,
जैसे पूरी सृष्टि की
समस्त गतिविधियाँ उन्हीं के इशारे से चल रही हों, जैसे
वे महाभारत-कथा के कृष्ण हों। वाचक सब कुछ सुनते रहते हैं, सहते जाते हैं। उनके धैर्य का बाँध तब
टूटता है, जब सानू उनके आत्म-सम्मान पर चोट करते
हैं। नशे की ओट में लिहाज के मजबूत गढ़ का चिलमन हट जाता है। तर्क-शास्त्र के
सामान्य और सस्ते सूत्र का सहारा लेते हुए वे वाचक के आत्मसम्मान पर पहला प्रहार
करते हैं, वाचक से सहमति लेना चाहते हैं कि ‘रहमत अली शायर है और मेरा अर्दली है।
फिर क्या तर्क-शास्त्र का सहारा लेते हुए मैं यह नतीजा नहीं निकाल सकता कि जो भी
शायर या कवि है, मेरा अर्दली है?’ फिर आगे वे रामलाल का नाम जोड़कर उपहास
को और प्रहारक बना डालते हैं। साढ़ूभाई के अर्दली का काम करते हुए पाँच रुपए घूस
लेने के अपराध में सानू की कलम से नौकरी से निलम्बित ये वही रामलाल हैं जो
कथा-वाचक के बचपन के सहपाठी हैं और स्कूली जीवन में वर्ग मोनीटर हुआ करते थे।
कथा-वाचक अब भी धीरज रखकर उन्हें समझाते हैं कि ‘अब चुप हो जाओ, होश में नहीं हो तुम!’ जवाब में उद्दण्डता की हद तोड़कर वे वाचक
के मुँह पर सिगरेट का धुआँ फेकते हुए कहते हैं ‘जनाब, होश में वह नहीं रहता जिसे पीने को
कभी-कभी मिलती है...।’
बस्स, यहाँ आकर वाचक के धैर्य का बाँध टूट
जाता है और कथा अपने लक्ष्य की ओर तेजी से बढ़ चलती है। यहाँ कथाकार का चमत्कृत
कौशल उपमेय है कि दारुण क्रोध में भी उन्होंने वाचक में इतना विवेक बचाए रखा कि
परिणति किसी भी तरह वाचक की पत्नी के सम्मान को आहत न करे; क्योंकि पत्नी की चारित्रिक उज्ज्वलता
का आगमन अभी शेष है। वाचक यहाँ केवल चीखकर ‘शट
अप’ कहते हैं और गिलास, बोतल, सिगरेट, प्लेट...सब लिए-दिए मुँह के बल फर्श पर
लुढ़क जाते हैं।
घटना की कड़ी आलोचना से अलस्सुबह दोनो बहनों का संवाद शुरू होता
है --घूसखोर अफ्सर की बीवी और कवि कथा-नायक की साली रेखा अपनी बड़ी बहन सोना के
सामने अपनी शेखी बघारती,
देर तक चपड़-चपड़ करती
रहती हैं। उनके शिक्षक पति का उपहास और जर्जर आर्थिक-दशा का मखौल उड़ाती हैं। वाचक
की पत्नी सोना, अपने धीर-गम्भीर पति के अन्दाज में देर
तक सुनती और बर्दाश्त करती रहती हैं, किन्तु
जब बाँध टूटता है, तो तूफान आ जाता है। आत्मसम्मान एवं
मूल्यगत सरोकारों के लिए प्रतिबद्ध अपने पति की उज्ज्वल वैचारिकता एवं तार्किक
जीवन-दृष्टि से बँधी एक भारतीय नारी की प्रतिमूर्ति के रूप में सोना इतनी आक्रामक
हो जाती हैं कि रेखा की सारी हेंकड़ी उतर जाती है। अपने दो अवतरण के वाद में ही
सोना अपनी छोटी बहन को लिजलिजाती केंचुआ बना देती हैं। वे उन्हें भली-भाँति समझा
देती हैं कि घायल भेड़िए की तरह तुम्हारे डनलप में बेतरतीब पसरा हुआ यह मेरा पति
वही मर्द है, जिस पर किसी जमाने में तू जान छिड़कती
थी। ऐसा भूल से भी न समझना कि शराब के नशे में ये गिर पड़े और घायल हो गए। अपने
गुजरे सोलह वर्षों में मैंने इन पर किसी भी नशे का असर ऐसा नहीं देखा, जो इन्हें अक्षम बना दे। इन्होंने खुद
चोट खाई, पर सानू को आहत नहीं किया, जानती हो क्यों? क्योंकि यह आदमी मेरे सम्बन्धों से बँधा
है! सानू तुम्हारा पति है,
और तुम मेरी बहन हो।
ऐसा न होता वे कुछ भी कर सकते थे।...उन्होंने हिकारत भरी भाषा में यह भी जता दिया
कि तुम जैसी स्त्री से कोई बदला भी क्या ले, जिसे
न अपने बाप के मर जाने की खबर हो,
न भाई के जेल जाने
की।
दोनों साढ़ुओं और दोनो बहनों के इस वाग्युद्ध के बाद वाचक की
घर-वापसी का निर्णय भी बड़े स्वाभिमान के साथ होता है। मेजबान की हेंकड़ी उतारने में
वाचक और उनकी पत्नी कोई कोर-कसर नहीं छोड़तीं। रेखा और सानू मेहमानों को स्टेशन
पहुँचाने के लिए खन्ना साहब की जीप मँगवाते रहें, पर
कथानायक ने घोषणा कर दी कि इनके दिए सारे सामान निकालकर अलग रख दो, मैं रिक्शा लेकर आ रहा हूँ। उस घर से
बाहर आकर कथा-वाचक आकाश में बादल के छोटे से टुकड़े को सूरज से संघर्ष करते हुए
देखते हैं। सूरज के बादल से बाहर आते ही वाचक चिल्लाकर अभिवादन करते हैं, सम्भवतः यह समय उनकी मुक्ति का समय था, जैसे सूरज अपने तेज के कारण बादल से
मुक्त हुआ था। यह मुक्ति कथानायक को अतुलित सुख देती है। इस मुक्ति के बाद ही
कविता की, अर्थात् जीवन-मूल्य की नई तारीख शुरू
होती है।
काशीनाथ सिंह की कहानियों की अर्थ-छवियाँ कई परतों में खुलती
हैं। इसलिए कविता की नई तारीख कहानी पढ़ते हुए भावकों को उसकी ऊपरी अर्थ-छवि
से आह्लादित होकर नहीं रह जाना चाहिए कि यह समाज में फैली बेईमानी पर ईमानदारी की
विजय की कहानी है; या कि वैचारिक प्रतिबद्धता से
जीवन-संचालन करनेवाले कुछेक लोगों की जीवन-चर्या पर काशीनाथ सिंह का कथा-कौशल
मुग्ध रहता है। उनकी रचनात्मकता की चाल कभी सीधी-सपाट नहीं होती। अपनी कहानियों की
बुनावट में वे पल-पल सावधान रहते हैं। उनकी हरेक प्रयुक्ति कई-कई मूल्यों से लदी
रहती हैं। किसी भी प्रसंग पर वे सरपंच की तरह फैसला नहीं सुनाते, उसके रेशे-रेशे को उधेड़ कर रख देते हैं।
हिन्दी कथा-धारा में उनकी विशिष्ट कथा-शैली का यह अनूठा अवदान है कि उनके यहाँ
नीति-विरुद्ध आचरण करनेवालों को भी प्राकृतिक रूप से फैलने का अवसर का मिलता है।
यही कारण है कि अत्यन्त छोटा-सा कथ्य उनकी कथा-शैली के स्पर्श से एक बड़ी कहानी बन
जाती है; केवल आकार में नहीं, अर्थ-ध्वनियों के विस्तार में भी।
उल्लेख सुसंगत होगा अपनी सभी रचनाओं में कथाकार काशीनाथ सिंह रचे गए हर पात्र के
प्रति तटस्थ रहते हैं,
किन्तु पारिवारिक, सामाजिक एवं सम्बन्धगत मूल्यों की
सुरक्षा में पल-पल अपने नायक के पक्षधर रहते हैं। खल-चरित्र को फैलने का अवसर वे
बेशक दे लें, पर उनके मूल्य-विरोधी आचरण को बेपर्दा
करने में तनिक भी संकोच नहीं करते। अनैतिकता को नंगा करते समय वे क्रूरता की हद तक
की ईमानदारी बरतते हैं। अनौपचारिक भाषा-विधान एवं जनसुलभ विवरण-शैली उन्हें इस
मामले में सदैव सहायता करती हैं। संयोगवश यह कहानी भी इस तथ्य को पुष्ट करती हैं।
इस कहानी में दो विपरीत वैचारिकता के व्यक्ति, कथा-वाचक एवं उनके साढ़ूभाई सानू की
आर्थिक-दशा से उपजी परिस्थितियों का संघर्ष निरन्तर चलता है। किन्तु यह संघर्ष दो
व्यक्तियों का संघर्ष नहीं है,
समूह का संघर्ष भी
नहीं है। ऐसा होता तो कहानी फटाफट समाप्त हो जाती। असल में यह समकालीन राजनीतिक
विसंगतियों से उपजी दो विपरीत वैचारिकता के लम्बे संघर्ष की कहानी है, जिसमें एक की प्रतिबद्धता मनुष्यता एवं
मूल्यगत संस्कारों से है,
तो दूसरे की प्रतिबद्धता
विपथगामी आचरण से; जो जनविरोधी लोकतान्त्रिक नीतियों का
उपजीव्य है, सम्पोषित है, इसलिए पहले का विरोधी है। दोनो विचारों
को कथाकार ने सम्पूर्ण सुविधा से पनपने का अवसर दिया है। आजादी के बाद से लेकर
साठोत्तरी पीढ़ी तक के डेढ़-दो दशकों में भारत का नागरिक-परिवेश जिस तरह
मूल्य-विरोधी करतबों की ओर तेजी से लोलुप हुआ था, दुनिया
के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश की Ðासमान नैतिकता गर्त में जा रही थी। जिस
देश के ज्ञान-दर्शन के उत्कर्ष पर दुनिया भर के चिन्तक, उपदेशक, शासक
सम्मोहित हैं, यहाँ के ग्रन्थों का अनुवाद करवा कर
अपने ज्ञान-कूप को भर रहे हैं;
उस देश में सानू जैसे
अधोगामी अधिकारी अपनी घूसखोरी वृत्ति का महिमामण्डन कर रहे हैं, रेखा इतनी आत्मलिप्त हैं कि अपने पिता
की मृत्यु और सहोदर भाई के कारावास की सूचना वाली चिट्ठी खोल तक नहीं पाईं।
इस कहानी में दो घर हैं। सादृश्यमूलक स्थिति से दोनो सदनों को
घर कहना शायद मुनासिब न हो;
कहें कि एक बसेरा है
और दूसरा भवन। उल्लेख में आए अठारह से अधिक पात्रों में से कथा-वाचक, उनकी पत्नी सोना, वाचक की दो सन्तानें गुड्डू-छोटे, वाचक के बालसखा रामलाल, वाचक की साली रेखा, साढ़ूभाई सानू, सानू की दो सन्तानें दीपू-स्वीटी, सानू के घरेलू सेवक कोमल-सागा... कुल
ग्यारह पात्र उपस्थित हैं;
शेष सारे--वाचक की
तीन सन्तानें, ट्रेन के कई यात्री, सानू के अर्दली रहमत अली, सानू के कई अफ्सर मित्र चर्चा में तो
हैं, किन्तु कथा में अनुपस्थित हैं। सानू के
घरेलू सेवक कोमल-सागा उपस्थित होकर भी अनुपस्थित ही हैं। दोनों की उपस्थिति
आदेश-पूर्ति एवं फजीहत झेलने के लिए होती है। भदेस लालन-पालन के उदाहरण और वाचक
दम्पति की तौहीन के लिए गुड्डू-छोटे और घूसखोर अफ्सर के बच्चों की बदमिजाजी दिखाने
के लिए दीपू-स्वीटी की उपस्थिति प्रतीत होती है। वाचक के बालसखा रामलाल की
उपस्थिति सानू के चरित्र को कोढ़ में खाज साबित करने के लिए होती है। सानू उन्हें
नौकरी से इसलिए निकाल देते हैं कि उन्होंने उनके भान्जे से पाँच रुपए घूस लेने का
जुर्म किया। इस छोटे-से संवाद के बाद रामलाल सशरीर तो गायब हो गए, पर चर्चा में बने रहे। भावक चाहें तो
कसरत करें कि इस संवाद के बाद शाही ठाट-बाट छोड़कर रामलाल के साथ कथा-वाचक
अठाइस-तीस घण्टे तक कहाँ गायब रहे?
कहानीकार इस पर चुप
रह गए, क्योंकि उन्हें अपने पाठकों पर भरोसा है, वे जानते हैं कि पाठकों को तनिक चिन्तन
की आजादी रहे, तो कहानी भावकों को गहनतर भिगाती है।
ये सारे चरित्र एक घमासान युद्ध के सैनिक की तरह हैं। असल
युद्ध तो वाचक बनाम सानू और सोना बनाम रेखा के बीच हुआ। शेष सभी ने इनके युद्ध की
परिस्थितियाँ पैदा कीं। वैसे कहनीकार ने इसे जबरन कोई धर्मयुद्ध बनाने की चेष्टा
नहीं की है। नागरिक परिवेश के जीवन-मूल्यों को लेकर एक चिन्ता है, जो स्वातन्त्र्योत्तरकालीन भारत के
नागरिक जीवन की असहज स्थिति से उपजी है, जिसके
रेशे-रेशे को उधेड़कर कथाकार ने स्वयं भी देखा है, नागरिकों
को भी दिखाया है। इस युद्ध में वाचक ने कोई जय-पराजय की निर्णायक स्थिति भी नहीं
दिखाई है, अलबत्ता Ðासमान
चरित्रों की गलीज दशा और मूल्यगत प्रतिबद्धता के उज्ज्वल बिम्ब को इतना उजागर कर
दिया है कि भावकों को निर्णय पर पहुँचने में कोई दिक्कत नहीं होती। सम्बन्ध-मूल्य
की रक्षा की नैतिकता के अधीन वाचक परिवार रेखा-सानू के घर गलीज आचरण से अर्जित धन
के ठाट-बाट की साँसत में समय काटते रहे। एकरस जीवन-चर्या की ऊब और जड़ता से निजात
पाने की उनकी कामना धरी रह जाती है,
उल्टे सम्बन्ध-रक्षा
के सूत्र इनके गले की फाँस बन जाते हैं। वाचक बनाम सानू और सोना बनाम रेखा का
वाग्युद्ध काण्ड समाप्त होने के बाद तन्द्रा में पड़े कथा-वाचक को मालूम होता है कि
गृह-स्वामी सानू घर में नहीं हैं,
वे मारे खुशी के उठ
बैठते हैं; और उल्लसित भाव से पत्नी को कहते हैं--‘यार, अब
यह मर्सिया पढ़ना बन्द करो। तैयार हो जाओ जल्दी से। फटाफट! अगर वह नहीं है तो अभी
निकल चलते हैं!’ शरमाकर पत्नी के आँचल में अपना मुँह
छुपाते हैं, पत्नी उनके बालों में उंगलियाँ फिराने
लगती हैं, वे उठकर पत्नी से कहते हैं--‘भारत माता...आज्ञा दीजिए!’ ध्यातव्य है कि वाचक ने यहीं आकर पत्नी
को ‘भारत माता’ का सम्बोधन क्यों दिया? पत्नी की आँचल में मुँह छुपाकर वे किस
बात की झेंप मिटा रहे थे,
या किस बात के लिए यह
अतिरिक्त लाड़ दिखा रहे थे?
सानू-रेखा संवाद में
जीवन-मूल्य के रेखांकन की इसमें क्या
भूमिका थी?...
गृह-स्वामी सानू की अनुपस्थिति में विदा होने, उनके दिए सारे सामान निकाल कर रख देने, उनके अफ्सर मित्र खन्ना साहब की जीप से
न जाकर रिक्शा से स्टेशन जाने ... जैसे निर्णय वाचक की ओर से किसी भी तरह सम्भव
नहीं होते, यदि मेजवान सानू-रेखा की हेंकड़ी सातवें
आसमान पर चढ़ी न होती। वाचक एवं उनकी पत्नी तो पूरी कहानी में मर्यादा-रक्षण में ही
लगे रहते हैं। आवेश के मारे दो बार वाचक मर्यादा लाँघते भी हैं तो एक बार पत्नी पर
बरस जाते हैं, दूसरी बार खुद को घायल कर लेते हैं।
सोना तो मर्यादा कभी नहीं लाँघती,
पर बार-बार अपने पति
को अहसास कराती हैं कि बेईमानी बुरी चीज है तो ये चीजें क्यों अच्छी लग रही हैं?...कहानी के अधोभाग की स्थितियाँ--वाचक
द्वारा सानू को फटकार और सोना द्वारा रेखा की फजीहत...इसलिए होती हैं कि वे दोनो
बार-बार मर्यादा की सीमा लाँघकर वाचक दम्पति के स्वाभिमान पर चोट करने लगते हैं।
वाचक दम्पति की प्रतिक्रियाएँ महाभारत की तरह नहीं थीं कि युद्ध की मर्यादा पहले
कौरव-सेना ने लाँघी तो पाण्डव लाँघते चले गए। वाचक दम्पति कभी कोई अतिक्रमण नहीं
करते, केवल प्रतिपक्षी को अपने आत्म-बल और
सम्मान-बोध का अहसास कराते हैं।
दो बहनों के धन-बल और सुख-साधन का संघर्ष अतीत में लिओ
ताॅल्स्ताय की कहानी कितनी जमीन (जैनेन्द्र कुमार द्वारा अनूदित) में भी हुआ था।
उसमें भी कृषक और साहूकार से विवाहित दो बहनें अपने-अपने पति के वर्चस्व का बखान
करती हैं। उस वर्चस्व के संघर्ष का परिणाम जमीन-लोलुप पति की जान पर आ पड़ा, वे चल बसे। इस कहानी में वाचक दम्पति न
तो बार-बार मर्यादा तोड़ते,
न अपने बहुमूल्य जीवन
की आहुति देते। केवल अपने आत्म-सम्मान और मर्यादा-रक्षण के निमित्त सानू-रेखा की
हेंकड़ी जमीन पर लाकर चकनाचूर करते हैं। कोई अनिष्ट आचरण किए बिना घमण्ड तोड़ने की
ऐसी बेहतरीन जुगत कथाकार ने अनायास घटना की तरह बैठा ली है। कहीं कोई अलग तैयारी की
जरूरत नहीं पड़ी। साँप भी मर जाए,
लाठी भी न टूटे की
तरह। सारा कुछ सहजता से हुआ चला जाता है। नीति-मूल्य, जीवन-मूल्य और सम्बन्ध-मूल्य की इससे
बेहतरीन समझ देनेवाली कहानी शायद भारतीय साहित्य में कम लिखी गई हो। इस अर्थ में
काशीनाथ सिंह का कथा-नायक बादरायण व्यास या कि ताॅल्स्ताय के कथा-नायक से अधिक
समझदार है, जिन्हें अपने कर्तव्य, दायित्व और जीवन की तात्त्विक पहचान है।
उन्हें जीवन-दर्शन,
सम्बन्ध-मूल्य और
नीतिपूर्ण कमाई से परिवार-संचालन के कौशल की बेहतर समझ है। वे वैचारिक उज्ज्वलता
की तुलना में भौतिक सुखभोग और अनैतिक धनार्जन को निरर्थक समझते हैं।
नवधनाढ्यों के अहं से बैलून की तरह फूलती-फटती रेखा वहम में
सोना के मुखमण्डल पर घिर आई उम्र के संकेतों की खिल्ली उड़ाती हैं। सोचती हैं कि
अभावग्रस्त जीवन बिताती सोना कदाचित गरीबी और दयनीयता के कारण अपने पति की
भत्स्र्ना बर्दाश्त कर लेंगी! उन्हें नहीं मालूम कि दाम्पत्य की जीवनी-शक्ति
धन-दौलत में नहीं, प्रेम के विश्वास में बसती है; और सम्बन्ध-मूल्य की समझ भौतिकता के अहं
से बाहर आकर ही होती है। उनके होश ठिकाने होते तो वे अपने पति के उस वक्तव्य में
अपने जीजा की ख्याति का अनुमान कर लेतीं कि ‘भाई
साहब के यहाँ आने की खबर अखबार में आ जाए तो यहाँ के सारे कवि और लेखक भीड़ लगा
लेंगे...जानती हो कि नहीं?...
कहिए भाई साहब, तो फोन कर दें! आपकी मेहरबानी से सभी
सम्पादक अपने चेले हैं।’
अब जिसकी प्रतिष्ठा
से रेखा के पति अपने ही शहर में पहचाने जाते हैं, उस
जीजा की हैसियत प्यारी साली जी नहीं समझ पाती हैं, तो
इसमें किसका दोष माना जाए! वाचक के दाम्पत्य-सूत्र का मन्त्र तो साफ है कि
परिवार-संचालन की संहिता में पत्नी के आगे समर्पित रहना दाम्पत्य का जीवन-राग है।
रेखा-सानू कभी इसमें प्रेम की सघनता नहीं ढूँढते; वे
इनमें वाचक-दम्पति की निरीहता ढूँढते हैं।
सानू की ऊल-जरूर हरकतों को वाचक चुपचाप सहते जाते हैं; उस सहन-शक्ति में वे उन मूल्यगत
सरोकारों पर गौर नहीं करते कि वे सारा कुछ अपनी पत्नी के लिए सह रहे हैं। भावक
चाहें तो कहानी की इस सूक्ष्म अर्थ-ध्वनि का अन्वेष वाचक के उस वक्तव्य में देख
सकते हैं जब सानू की ठाट-बाट पर पत्नी भुनभुनाती हैं और वाचक कहते हैं कि ‘याद रखो कि यह रिश्ता मेरा नहीं, तुम्हारा है, यहाँ पर मैं तुम्हारी खातिर हूँ, वरना ...वरना...।’
काशीनाथ सिंह वाकई बहुत बड़े कथाकार हैं। उनकी चिन्ता न केवल
कहानी को महान बनाने में,
बल्कि अपने पाठकों के
लिए सुविधा जुटाने में भी जाग्रत रहती है। लेखन की पूरी संरचना को वे शतरंज के
सुदक्ष खिलाड़ी की तरह ऐसे घेरे रहते हैं कि अभिप्राय के अकथ रह जाने की कोई
गुंजाईश ही नहीं रहती। वे चाहते तो सानू की बदतमीजी की हद पर वाचक की चीख भर से ही
कहानी को पूरा कर लेते;
किन्तु ऐसा उन्होंने
नहीं किया; आखिरकार उन्हें वाचक की पत्नी सोना के ‘भारत माता’ स्वरूप को भी स्थापित करना था। पीछे के
पूरे वातावरण में ठाट-बाट के सम्मोहन पर जैसी टिप्पणियाँ सोना की ओर से आईं, उससे तो उनका चरित्र धूमिल-सा हो रहा
था। वैसा न दिखाते तो जीवन के घात-प्रतिघात की सहजता बाधित होती। दाम्पत्य की
रसनचैकी का भी तो अपना आनन्द होता है! मगर, जब
सानू ने देखा कि मेरे पति सहन-शक्ति के उदाहरण होते जा रहे हैं और सानू-रेखा, यहाँ तक कि बीते भर के इनके बच्चे भी
मेरे पति का मान-मर्दन किए जा रहे हैं, तब
उनके क्रोध की अंगराई उठी और वे शुरू हुईं--‘मेरी
छोटी बहन! यह आदमी...जिस पर किसी जमाने में तुम मरती थी...और जिस पर आज भी
मरनेवालों की कमी नहीं है...यह आदमी! मुझे अचरज है कि रात-भर...अपमान सहता हुआ
कैसे चुप रहा है? जिस आदमी ने सब कुछ बर्दाश्त किया है, लेकिन अपमान नहीं...यह क्यों चुप रह गया, मुझे आश्चर्य है।...इसने कभी किसी का
रोब नहीं सहा, किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया, किसी की खुशामद नहीं की, किसी का ताना नहीं सहा...और आज वही आदमी
यहाँ लाश की तरह पड़ा हुआ है?
ऐसा क्यों हुआ?...मैंने इस मर्द के साथ सोलह साल गुजारे
हैं...सारी जवानी गुजारी है इसके साथ और मैंने किसी नशे का असर नहीं देखा इस
पर--चाहे शराब हो, चाहे गाँजा, चाहे भाँग, चाहे दौलत! हाँ, दौलत! यह धनी से धनी और दबंग से दबंग
आदमी के साथ ऐसे पेश आता रहा है,
जैसे वह कौड़ी का तीन
हो!...इसने खुद अपनी ठोढ़ी क्यों फोड़ ली? जान-बूझकर
क्यों फोड़ी? क्या इसलिए कि यह सानू का कुछ कर नहीं
सकता था? क्या इसलिए कि वह मेरा रिश्तेदार और
तुम्हारा पति था? क्या इसलिए कि शुरू से ही तरह-तरह की
फरमाइशें करके, यह माँग के, वह माँग के, दूसरों की देखा-देखी अपने भीतर सपने जगा
के, औरों के आगे इसे नाचीज ठहरा के मैंने
इसे कुन्द कर दिया?
इसकी धार भोथर कर दी?...’’ यह है सोना के भारत माता का स्वरूप, जहाँ वह धन-बल की तुलना में अपने पति के
उज्ज्वल विचार, गर्वोन्नत मस्तक, तने हुए स्वाभिमान को और ऊँचा कर देती
हैं। भावक चाहें तो यहाँ कथाकार के इस कौशल को भी रेखांकित कर सकते हैं कि
गार्हस्थ की गाड़ी का जुआ एक कन्धे से भली-भाँति नहीं खिंचता, दूसरा कन्धा भी बराबर का जोर लगाता है; अर्थात् वाचक के मूल्यगत सरोकारों का
अनुपालन ऐसी तर्कनिष्ठ,
कर्मनिष्ठ पत्नी के
सहभाग के बिना असम्भव था। ‘भारत माता’ कहकर वाचक का पत्नी से आज्ञा माँगना भी
आवश्यक था, ताकि प्रतिपक्ष को सूचित हो कि जो हो
चुका, वह सब सहज था, और उन सबमें वाचक की सहमति है। गो कि
संवाद एवं वाचन पद्धति से पूरी हुई यह कहानी गार्हस्थ जीवन की खटपट और रसबोध को भी
सूक्ष्मता से रेखांकित करती है।
सानू के घर की ठाट-बाट का उपभोग वाचक भी सहजता से कर रहे थे।
उसे देखकर पत्नी की टिप्पणी है कि ‘यहाँ जिस तरह मैं तुम्हें उन सारी
सुविधाओं की तरफ ललचाई आँखों से ताकते हुए देखती हूँ तो सोचती हूँ--बुरा न मानना
मेरी बात का--सोचती हूँ इनके खिलाफ तुम इसलिए तो नहीं थे कि ये दूसरों के पास
क्यों हैं, तुम्हारे पास क्यों नहीं?’ पत्नी के इस वक्तव्य में पति की
वैचारिकता को फिर से दरियाफ्त करने का एक आयास है, जिसकी
उसे आशंका हो गई थी,
और जो आगे की
पंक्तियों में वाचक की झल्लाहट से स्पष्ट हो जाता है।
यह कहानी प्रासंगिक तो आज भी उतनी ही है किन्तु असल में यह उस
दौर की लोकतान्त्रिक व्यवस्था की घनघोर अराजकता के बहुरंगी चित्रों का कोलाज है, जिसमें एक भ्रष्ट आदमी अपनी भ्रष्टता को
महिमा-मण्डित करते हुए पूरी व्यवस्था को नंगा कर देता है। रोचक यह है कि सानू के
चारित्रिक विश्लेषण में भी कथाकार कहीं कोताही नहीं दिखाते। सानू का भ्रष्ट चरित्र
निश्चय ही ग्राह्य नहीं है,
किन्तु उसके मुँह से
कथाकार व्यवस्था का चित्र इस तरह खिंचवाते हैं कि सानू की दुर्वृत्ति पीछे रह जाती
है, पूरी व्यवस्था का कालिख पुता चेहरा
सामने आ जाता है। उल्लेख सुसंगत होगा कि अपने नायक का चरित्र उज्ज्वल बनाने के
चक्कर में कथाकार कहीं सानू के चरित्र को गलीज बनाने के प्रयास नहीं करते। वे सानू
के तर्क को भी उतनी ही मजबूती से रखते हैं। यहाँ आकर यह भी स्पष्ट होता है कि
कथाकार की नीयत न केवल दुराचारी को नंगा करना है बल्कि प्राथमिक उद्देश्य दुराचार के सांस्थानिक चरित्र को उजागर करना
है। बारिश की फुहारों में वाचक के साथ बैठकर बियर पीते हुए सानू अपनी घूसखोरी का
गुणगान करता है। यहाँ अपनी शेखी बघारने के अलावा उनका प्रबल उद्देश्य उन जैसे कवि, लेखक को अपने सामने निरीह और यूँ ही
बड़बड़ाते रहनेवाले प्राणी साबित करना भी है। इसलिए घूसखोरी का प्रसंग छेड़ते हुए वे
कहते हैं कि ‘...आपसे कोई खतरा नहीं है। इसलिए नहीं कि
आप रिश्तेदार हैं, बल्कि इसलिए कि आप कवी हैं, लेखक हैं। कागज कलम उठाते हैं, लिखते हैं और सोचते हैं कि तहलका मच
जाएगा! लिखते हैं कि...देश के अफसर निकम्मे हैं, भ्रष्ट
हैं। नेता बेईमान और अनैतिक हैं। और कहते किससे हैं--हमसे थोड़े बड़े अफसर से, उससे जिसका सारा ठाट-बाट हमारी घूस पर
खड़ा है। थोड़े बड़े नेता या मन्त्री से, जो
दस गैरकानूनी और नाजायज काम हमसे करवा चुका है! आप उससे कहते हैं जो सत्ता में है, जिसके पास अधिकार है और जिसने आपको ऐसा
कहने और लिखने का अधिकार दिया है...क्या आपने भी उसे सुनने का अधिकार दिया है? आप कहाँ से देंगे? आपके पास देने को है ही क्या?’ सानू नशे में हैं, या नशे की आड़ में अपने विचारनिष्ठ
साढ़ूभाई की पुंगी बजाना चाहते हैं,
यह जितना चिन्तनीय है
सानू का यह वक्तव्य उतना ही यथार्थ है।
वाचक उन्हें बीच में न टोकें, इसलिए
बीच-बीच में बिना टोके बताते चलते हैं कि ‘सुनिए!
पहले मेरी बात तो पूरी हो लेने दीजिए।’ अपने
लम्बे व्याख्यान में वे तर्क-शास्त्र के अधकचड़े ज्ञान और व्यवस्था की वास्तविक छवि
उकेरकर वाचक को सुना देते हैं कि आपलोगों के लिखत-पढ़त से होता क्या है? अफ्सर निलम्बित, फिर मुकद्दमा, अदालत, बाइज्जत
बरी। इस ‘बाइज्जत’ का
अर्थ? कि आप झूठे थे।...लगे हाथ वे अपने
साढ़ूभाई को दो-एक सांकेतिक गालियाँ यहाँ भी दे लेते हैं। बात को खींचते हुए वे
साहित्यकारों के चरित्र पर आ जाते हैं, जिनके
लिए वे अपने शहर में सभाएँ आयोजित करते हैं, शराब
पिलाते हैं, खाना खिलाते हैं, व्यवस्था के प्रति उनकी नाराजगी और
उत्तेजना उन्हें दिलचस्प लगती है,
उन्हें वे गम्भीरता
से लेने की जरूरत महसूस नहीं करते। वे उन्हें मनोवैज्ञानिक केस समझते हैं...उन्हें
चन्दा देकर बड़प्पन से भर जाते हैं।...यह पूरी रामायण गाकर असल में वे अपने साढ़ूभाई
की तौहीन कर रहे होते हैं। पर सानू के साढ़ूभाई अर्थात् कथा-वाचक तो देवव्रत भीष्म
की तरह हस्तिनापुर की निष्ठा (पत्नी सोना के मैकेवालों के सम्मान-रक्षण की निष्ठा)
से प्रतिबद्ध हैं। सानू को नशे में अथवा अहं में यह स्मरण नहीं रहता कि हाथी की
छींक भी चींटियों के लिए तूफान ले आती है।
पूरी कहानी वाचन और संवाद शैली में पूरी हुई है। कहानी का एक
पात्र होने के बावजूद कथा-वाचक की तटस्थता को कथाकार ने इतना क्रूर या कहें कि
विवेकशील बनाकर रखा है कि अवसर पर वे अपनी भी फजीहत कराने से बाज नहीं आते। इस
वाचन और संवाद शैली का सबसे बड़ा सद्परिणाम यह है कि इसकी संरचना का यति-विराम तक
अपने होने की सार्थकता प्रमाणित करता रहता है। आखिरकार कहानी तो काशीनाथ सिंह ने
लिखी है न! इसमें काशीनाथी तो रहेगी! स्वातन्त्र्योत्तरकालीन डेढ़ दशकों का भारतीय
प्रशासनिक ढाँचा जितनी बदसूरत हो चुका था कि उसका वास्तविक रूप इसी तरह खींचा जा
सकता था। यह कहानी भारतीय साहित्य और समाज के लिए काशीनाथ सिंह की ओर से एक अमूल्य
उपहार है; भारतीय इतिहास को भारतीय मनीषा का वरदान
भी। निश्चय ही यह कहानी किसी समय इतिहास-लेखन की स्रोत सामग्री साबित होगी, जिसमें स्वाधीन भारत के नए लोकतन्त्र का
विसंगत आचरण नृत्य करता दिखेगा।
दृष्टिकोणों की मुठभेड़ पूरी कहानी में है, किन्तु यह मुठभेड़ पाठकों की तर्क-निष्ठा
को कहीं दिग्भ्रम नहीं देती। युग-चेतना और यथार्थ-बोध कहीं बाधित नहीं होता। कहानी
के मुख्य-मार्ग पर छुट्टे साँढ़ की तरह अकड़ते हुए सानू जिस लहजे में साहित्य-सृजन
की प्रक्रिया को निष्प्रभ और सत्ता-शक्ति के समक्ष झुका हुआ बता रहे हैं, या कहें कि उस दौर के ऐसे तिकड़मी
साहित्य को जैसा निष्प्रभ समझ रहे थे, इस
कहानी की रचना कर कथाकार ने उस धारणा का अन्त कर दिया है। प्रथम पुरुष में कहे
जाने से कोई इस कहानी को काशीनाथ सिंह के निजी जीवन की घटना न मानें! अलबत्ता कोई
सुबुद्ध ऐसा मानते भी नहीं होंगे! असल में यह कहानी साठोत्तर समय एवं उसके परवर्ती
रचनाकारों के लिए एक भयावह धुन्ध को फाड़कर बाहर आने की जरूरत पर जोर देती है।
इन्हीं अर्थों में यह कविता की नई तारीख बनती है। ‘कविता’ यहाँ
सभी चेतनोन्मुख कला-विधाओं के लिए प्रयुक्त हुई है। इसी धुन्ध को फाड़ने के लिए
कथा-वाचक अपने साढ़ूभाई के घर से बाहर आने पर बादल से जूझकर बाहर आए सूरज को
चिल्लाकर ‘गुड मार्निंग सर’ कहते हैं। मैदान के बीच से चलते हुए, अपने भचकने के शारीरिक कष्ट की उपेक्षा
करते हुए बादल से निकल आए सूरज को ‘सर’ कहना, धुन्ध से मुक्ति और नई तारीख के आरम्भ
की घोषणा है।
कविता की नई तारीख कहानी का वाचक इसमें दोहरी भूमिका में
है, वह कहानी सुना भी रहा है, और कहानी का एक पात्र भी है। ऐसी कहानी
की संरचना में कथाकार पर कई खतरे मँडराते रहते हैं। हर रचनाकार की पक्षधरता अपने
नायक के प्रति बनी रहती है। फलस्वरूप नायक के प्रति सर्जक के आग्रहशील होने की
सम्भावना निर्मूल नहीं होती। पर काशीनाथ सिंह ने इस सम्भावना को सर्वथा खारिज कर
दिया है। भाव, भाषा, भंगिमा, संवाद, घटना-प्रसंग...हर
बात के संयोजन में उनका रचनात्मक विवेक औदार्य से भरा दिखता है। विवरण और
संवाद-शैली साठोत्तर काल की भाषा की सहजता, अनौपचारिकता, अन्तरंगता, विस्तृति (डिटेलिंग) में कैमरे की आँख
जैसी सूक्ष्मता, दृश्यों-प्रसंगों के चित्रण में
त्याज्य-ग्राह्य के पचड़े से निर्लिप्ति, वैचारिकता
के प्रति सजग-सावधान किन्तु प्रतिपक्ष के प्रति भी सतर्क न्यायप्रियता...इस कहानी
को सहज ही महान बनाती है।
गौरतलब है कि अपनी कहानियों में काशीनाथ सिंह विस्तार से परहेज
नहीं करते, किन्तु निष्प्रयोजनीय विस्तार से उनका
दूर का भी रिश्ता नहीं होता। जिस विवरण से बात में असर न आए, कहानी को प्रभावशाली बनाने में वह कोई
भूमिका न दिखाए, वैसे विवरण की ओर वे झाँकते तक नहीं।
छुट्टी बिताने सपरिवार चलनेवाले परिवार के लिए वे चाहते तो यात्रा की तैयारी और
रेल-यात्रा के विवरण में ही दस पृष्ठ निकाल देते। पर उन प्रसंगों में उनकी कोई
रुचि नहीं थी, उन्हें पाठकों को अपने लक्षित प्रसंग पर
ले जाने की जल्दी थी,
शब्दों के मायाजाल
में अपने प्रिय पाठकों को उलझाने का काम कभी नहीं किया। इसलिए सपरिवार प्रवास की
विस्तृत व्याख्या में इधर-उधर हाथ-पैर मारे बगैर एकदम चिड़िया की आँख पर वे निशाना
साधे रहते हैं। हर प्रसंग की गोपनीयता और तर्क इतनी जबर्दस्त है कि पूर्वानुमान
असम्भव। तीन पृष्ठ तक तो पता ही नहीं चलने देते कि वे जिसके घर जा रहे हैं, वे हैं कौन? या वे किस कारण सपरिवार आकर वाचक के घर
का आटा गीला कर जाते हैं। ये सारी व्यवस्था काशीनाथ सिंह की कहानियों में सुदक्ष
संगीतकार की तरह बनी रहती है। वे कहीं कोई सुर बेजगह नहीं लगाते। रचना का संगीत
कहीं कनसुरा तक नहीं होने देते। सानू तो उनके घर आते ही रहते थे, किन्तु उनका ताण्डव उन्होंने वहाँ नहीं
कराया। उनके अपने निवास पर जाकर कराया। हर कायर श्वान अपने ठीए पर जोर लगाकर
भौंकता है। सानू के अहंकार के रास्ते उन्हें उस दौर की सम्पूर्ण दुर्गन्धियाँ
उजागर करनी थी, जो उनके ठीए पर जाकर ही किया। पत्नी की
खिन्नता से सदैव पीड़ित रहनेवाले वाचक को कथाकार उन्हीं के सम्मान की रक्षा में
सानू से अपमानित होकर चुप रहते दिखाते हैं, और
फिर उसी पत्नी के ‘भारत माता’ स्वरूप को कथा के अन्तिम भाग में उजागर
करते हैं। भाषा, पारिवारिक एवं कौटुम्बिक प्रसंगों की
अनौपचारिकता, क्रमबद्धता, चुहलबाजी, जीवन
के घात-प्रतिघात की अनिवार्यता,
मूल्यगत सरोकारों की
समझ, घटनानुसार वातावरण-निर्माण...इन सबके
कारण कहानी लम्बी अवश्य हुई है,
पर रचनात्मक कौशल और
भाषिक व्यंजकता के कारण यह केवल लम्बी नहीं, बड़ी
(महान) भी हुई है। पठनीयता,
अर्थात् अपने पाठ की
सम्पूर्ण लम्बाई में पाठकों को सम्मोहित रखने का वैशिष्ट्य तो काशीनाथ सिंह की
कहानी-कला का मूल संस्कार है ही।
स्वातन्त्र्योत्तरकालीन भारतीय समाज एवं मूल्य-विरोधी
लोकतान्त्रिक व्यवस्था के विद्रूप चेहरे को उजागर करती काशीनाथ सिंह की कहानी कविता
की नई तारीख उन विशेषताओं से भरी हुई है, जो
साठोत्तरी कहानी को अन्य धाराओं से पृथक साबित करती हैं और परिवेश के प्रति कहीं
अधिक जिम्मेदार दिखाती है। स्वाधीनता के बाद की स्वदेशी शासन-व्यवस्था में
जनसामान्य का मोह-भंग हुआ था। साठोत्तर काल तक आते-आते व्यवस्था इतनी विद्रूप हो
चुकी थी कि अनैतिक आचरण करनेवाले निर्भीक और निश्चिन्त हो चुके थे। भ्रष्टाचारी
नैष्ठिक लोगों की खिल्ली उड़ाने लगे थे। नीति-मूल्य, सम्बन्ध-मूल्य
का कोई अर्थ नहीं था। सामजिक सरोकार सिरे से उपेक्षित हो रहा था। जन-जीवन तबाह और
हतप्रभ था। सत्ता-शक्ति के अहं में मदान्ध नेता, अफ्सर
अपनी अनैतिकता पर पैबन्द लगाने की जुगत में तत्पर रहते थे। ऐसे ही जटिल यथार्थ को
सम्पूर्ण व्यंजना के साथ अभिव्यक्ति देनेवाली सहज किन्तु व्याख्येय कहानी कविता
की नई तारीख भारतीय भाषा की निधि है।
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