किसी कृति के अनुवाद में दो दृष्टियाँ महत्त्वपूर्ण होती
हैं--पहला यह कि उस कृति के कुल पाठकों में से कोई ऐसा हो, जो उसे किसी अन्य भाषा में अनुवाद लायक
समझे और दूसरा यह कि वह समझदार व्यक्ति या तो स्वयं उसका अनुवाद करे या किसी अन्य
समझदार व्यक्ति को इस काम के लिए प्रेरित करे। पर दोनों ही स्थितियों में ज्यादा
महत्त्वपूर्ण इस बात की परख है कि क्या उस कृति की प्रकृति उसे अनुवाद के अनुकूल
बनाती है?--प्रख्यात जर्मन चिन्तक और मार्क्सवादी
विचारक वाल्टर बेंजामिन (सन् 1892-1940)
के महत्त्वपूर्ण
निबन्ध ‘अनुवाद का उद्यम’ से इसी तरह का तथ्य सामने आता है। उक्त
निबन्ध वाल्टर बेंजामिन के आठ निबन्धों के संकलन ‘उपरान्त’ में संकलित है। मूल जर्मन में अथवा
अंग्रेजी में कहीं ये निबन्ध संकलित या प्रकाशित हैं या नहीं, इसकी सूचना पुस्तक के किसी अंश में नहीं
दी गई है, सूचना मात्र यह है कि ये निबन्ध लेखक के
मृत्यूपरान्त प्रकाशित हुए। इस संकलन के अनुवादक इन्दु प्रकाश कानूनगो हैं।
पर इतनी संक्षिप्त सूचना दे देने के बाद अब यह कहना, छोटा मुँह बड़ी बात होगी कि जिस आतुरता
से पाठक यह पुस्तक उठाएगा,
पुस्तक के इस पार से
उस पार जाने पर शायद ही उस आतुरता का इनाम मिले। बात सही है कि पाठक निराश नहीं
होंगे। जब वाल्टर बेंजामिन के लिखे निबन्ध हों, विषय
फ्रैंज काफ्का, ब्रेश्त, प्रूस्त, बादलिएर के अलावा साहित्य के अन्य
ज्वलन्त विषय हों और उन विषयों पर लिखे गए निबन्ध प्रख्यात अनुवादक और साहित्यसेवी
इन्दु प्रकाश कानूनगो द्वारा अनूदित हों--तो निराश होने की स्थिति आनी भी नहीं
चाहिए। पर विचारों और वक्तव्यों का जो धुँधलापन इस पुस्तक में है, उसका श्रेय किसे दिया जाना चाहिए--विषय
की गरिष्ठता को, अथवा लेखक के अभिव्यक्ति कौशल को अथवा
अनुवाद की असफलता को?...इस प्रश्न का उत्तर बहुत सहजता से मिल
सकता है। थोड़ा-थोड़ा दोष तीनों खण्ड का है, पर
सबसे ज्यादा दोष अनुवाद का है। पर इस मुद्दे पर बाद में आया जाएगा...। पहले तो यह
कहना है कि कुछ वर्ष पूर्व जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के जर्मन सेण्टर के एक
छात्र ने पी-एच.डी. की उपाधि हेतु शोध का विषय बनाया--‘वाल्टर बेंजामिन की आलोचना पद्धति से
नामवर सिंह और रामविलास शर्मा की आलोचना पद्धति की तुलना।’ इस असन्तुलन का उद्देश्य मेरी समझ में
नहीं आया था। यदि काल और कर्म की दृष्टि से तुलना होनी थी तो यह तुलना रामचन्द्र
शुक्ल (1884-1941) से की जानी चाहिए थी। नामवर सिंह (1927) और रामविलास शर्मा (1912-2000) में से दोनों, अकेले अकेले ही बेंजामिन के लिए भारी और
बेसम्हार होंगे, लेकिन शोधकर्ता ने दो-दो को एक साथ
क्यों रखा? निश्चय ही यह विदेशी विचार से दीक्षित
भारतीय आचार्यों के मन में भरी कुण्ठा और स्वदेश के प्रति भरे हुए हीन-भाव का
परिणाम है, जिसे उन्होंने अपने शोधार्थियों के मन
में भी भरने की चेष्टा की। ऊपर से तुर्रा यह कि ‘बेंजामिन
के चिन्तन क्षेत्र का आयाम इतना फैला है कि न तो अकेले नामवर की पद्धति उसे पूरा
कर पाएगी और न ही रामविलास की।’
दिवंगत चिन्तक बेंजामिन
के प्रति पर्याप्त आदर रखते हुए मैं इस तरह के कुण्ठाग्रस्त भारतीय आचार्यों को
सूचना देना चाहता हूँ कि ऊपर की पंक्ति में रामचन्द्र शुक्ल से तुलना करने की
स्थिति पर भी इसलिए सहमत हुआ हूँ कि दोनों का काल एक है, वर्ना, आचार्य
शुक्ल के विचार फलक के ओर-छोर को छूने का प्रभामण्डल बेंजामिन के यहाँ नहीं दिखता।
इस आलेख का श्रीगणेश बेंजामिन के समर्थन से ही शुरू हुआ था, फिर वही चलें। अनुवादेय कृति की परख की
बात से पहले, अनुवाद पर कहना आवश्यक है। इस पुस्तक के
अनुवादक के काम से पूरा हिन्दी-संसार परिचित है और उनके उन कामों की तुलना में ही
यह कहा जाना चाहिए कि इन्दु प्रकाश कानूनगो ने अनुवाद का मसौदा (ड्राफ्ट) ही
प्रकाशन में दे डाला,
इस पर उन्हें एक बार
कम से कम काम और करना था। दूसरी बात यह, कि
‘अनुवादक का उद्यम’ ‘एपिक रंगमंच’, ‘पुस्तकों के बक्से खोलते हुए’, ‘लेखक: उत्पादक के रूप में’--ये चार निबन्ध साहित्य के व्यापक विषयों
को छूते हैं और उसकी व्याख्या करते हैं। ‘एपिक
रंगमंच’ निबन्ध में तो कई ऐसे सवाल खड़े किए गए
हैं, जिन पर एक सार्थक बहस की तैयारी की जा
सकती है। पर इन सब में लगातार घनत्व का अभाव दिखता जाता है। बार-बार, ये निबन्ध बहुत उपजाऊ जमीन से आई अच्छी
पैदावार के ढेर की तरह,
भूसे समेत गेहूँ के
दाने की तरह लगते हैं। कुछ-कुछ भूसे जैसी भटकाती हुई पंक्तियों के बाद पुष्ट दाने
जैसी अच्छी पंक्ति मिल जाने के कारण वहाँ वापस आना जरूरी लगता रहता है। तो ऐसी
स्थिति में अनुवादक,
खासकर भारतीय भाषाओं
के अनुवादकों की जिम्मेदारी पर प्रश्न-चिह्न लगता है कि क्या अनुवाद कार्य सिर्फ
धन कमाने, या विदेशी ख्यातनाम रचनाकारों की
कृतियों का अनुवाद प्रस्तुत कर अपने ज्ञान का आतंक फैलाने के लिए होना चाहिए? यदि नहीं, तो
इन निबन्धों को प्रवाहमय अथवा संक्षिप्त कर प्रभावमय बनाने का प्रयास क्यों नहीं
किया है...?
अन्य चार निबन्ध ‘फ्रैंज
काफ्का’, ‘ब्रेश्त के साथ बातचीत’, ‘बादलिएर की काव्य-कृतियों में
अन्तर्निहित अभिप्राय’
और ‘प्रूस्त का प्रतिबिम्ब’ हैं। जाहिर है कि चारो निबन्धों का आधार
जर्मन भाषा-साहित्य के एक-एक महान रचनाकार हैं और इनमें उन रचनाकारों के लेखकीय
उत्कर्ष से मोटे तौर पर परिचित हो जाने के लिए हिन्दी के पाठकों को पर्याप्त
सामाग्री मिल जा रही है। यद्यपि भूसे में छिपे दाने की स्थिति इन निबन्धों में भी
है, पर ‘फ्रैंज
काफ्का’ और ‘मार्सेल
प्रूस्त’ पर केन्द्रित क्रमशः पहला और अन्तिम
निबन्ध अपना पूरा काम कर ही लेता है। काफ्का और प्रूस्त की कहानियों की बड़ी
सूक्ष्म और वैविध्य भरी व्याख्या यहाँ उपिस्थत है। इन कृतिकारों की विवेचना करते
हुए बेंजामिन ने न केवल इनकी रचनाधर्मिता के मुख्य फलकों पर इकहरा वक्तव्य
प्रस्तुत किया है बल्कि उसके बरक्स अन्य समकालीन रचनाकारों की प्रवृतियों और
पाठकों की प्रतिक्रियाओं के हवाले से भी अपनी बातें रखी है।
इस बात से हरेक साहित्यप्रेमी परिचित हैं कि केवल 48 वर्ष की अल्पायु में ही वाल्टर
बेंजामिन 26 सितम्बर 1940 को दुनिया से चल बसे। द्वितीय विश्व
युद्ध के दौरान फ्रांसीसी-स्पेनी सीमा पार करने में असफल होने के कारण उन्होंने
आत्महत्या कर ली। किसी भी रचनाकार की विचारधारा और जीवनदृष्टि की स्पष्ट छाया उनके
लेखन और जीवन पर रहता ही है। आत्महत्या जैसी हरकत, बहुत
अधिक ईमानदार, क्रोधी, लेकिन
अपनी क्षमता के प्रति अनास्था पाले हुए किसी व्यक्ति की अभिक्रिया हो सकती है। ये
सारी स्थितियाँ उस प्रतिबद्ध व्यक्ति के साथ आएगी, जिसके
विचार और जीवन-दृष्टि साफ-सुथरे दाने की तरह अलग न हो, उनमें कुछ भूसे मिले हों। क्रोध और
अनास्था का यह मिश्रित रूप ही किसी व्यक्ति को आत्महत्या की ओर उन्मुख करता है। इन
सारे सन्दर्भों के साथ वाल्टर बेंजामिन के निबन्धों में हीरे की तरह चमकती हुई
पंक्तियाँ विचारों और निष्कर्षों के जिस उत्कर्ष का संकेत देती है, वह चकित कर देता है और अचानक किसी अलभ्य
लाभ का सुख भावकों/पाठकों को देता है। चकित करने जैसी कुछ पंक्तियों के उदारण देखे
जा सकते हैं--
‘कोई
भी महान उपलब्धि कठिन-परिश्रम,
दुख और निराशा के
बिना असम्भव।’
‘हर
आवेग विप्लव की सरहद छूता है,
लेकिन संग्राहक का
आवेग स्मृतियों के बवण्डर तक पहुँचाता है।’
‘अनुवाद
में विश्वसनीयता और स्वतन्त्रता,
पारम्परिक तौर से, परस्पर विरोधी प्रवृतियाँ मानी गई हैं।’
आलोचना-कर्म की अनिवार्य योग्यताओं से, चिन्तन धर्म की अनिवार्य शर्तोंं से और
एक महान विचारक-चिन्तक-आलोचक की लेखकीय ईमानदारी और वैराट्य से परिपूर्ण इन
निबन्धों में मटमैलापन और अस्पष्टता की जो शिकायतें ऊपर दर्ज की गईं, वे शायद इस बात के सबूत हों, शायद असली बेंजामिन अभी हमारे समक्ष आ
नहीं पाए थे। अपना सर्वश्रेष्ठ देने से पूर्व ही वे चल बसे। यूँ काफ्का, बादलिएर और प्रूस्त की कृतियों पर जिस
तरह डूबकर, और तुलनात्मक पद्धति से उन्होंने लिखा
है, उनसे कई संकेत नजर आते हैं। प्रूस्त के
बारे में मेक्स यूनोल्ड नामक एक तेजस्वी पाठक की प्रतिक्रिया के सहारे से कहा गया
है कि ‘प्रूस्त में अर्थ-रहित कहानियों को
दिलचस्प बनाने की क्षमता है।’
इसी तरह ‘एपिक रंगमंच’ में लेखक की राय है कि एपिक रंगमंच का
समय के प्रवाह के साथ तालमतेल बिल्कुल वैसा नहीं होता, जैसा ट्रैजिक रंगमंच का। क्योंकि
ट्रैजिक रंगमंच में कथानक के अन्त के लिए सनसनी बनी रहती है, पर एपिक मंच में ऐसा नहीं होता, इसमें सनसनी विभिन्न प्रसंगों के लिए
ज्यादा जरूरी है। ‘इसलिए यह रंगमंच समय के विशालतम
विस्तारों को पनाह देता है।’
इस निबन्ध के अन्य
उपांगों से भी बात निकालकर लाएँ,
तो कुल मिलाकर यही
तथ्य सामने आता है कि बेंजामिन वैसे समय के साहित्य और वैसे रचनाकारों की रचनाओं
को ज्यादा पसन्द करते आए हैं जिन्होंने ठहर-ठहर कर विवरण की सूक्ष्मता और उसके
महत्त्व को महत्त्व दिया है। ब्रेश्त भी इनके ऐसे ही रचनाकार हैं। ‘एपिक रंगमंच’ लेख में भी उन्होंने गैलिलियो नाटक के
हवाले से अपनी बातें इसी परिप्रेक्ष्य में रखने की चेष्टा की है। ‘ब्रेश्त से बातचीत’ आलेख में तो उन्होंने विस्तार से चर्चा
की ही है।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद का समय दरअसल समूची दुनिया के लिए
तो उल्लेखनीय है ही,
पर जर्मनी और
जर्मनीवासियों के लिए इतिहास में कुछ अलग तरह से उल्लेखनीय है। किसी भी साहित्यिक
कृति की गुणवत्ता स्थान-काल-पात्र के परिप्रेक्ष्य पर आधारित होती है। हरेक
साहित्यप्रेमी हिन्दी के भक्तिकाल,
रीतिकाल, नवजागरण काल के साहित्य को; तेलुगु के तेलंगाना आन्दोलन के समय की
कृति को, बंगला के नक्सलबाड़ी आन्दोलन के समय की
कृति को, मराठी के दलित आन्दोलन पर आधारित कृति
को इन्हीं सन्दर्भों में देखते हैं। सामाजिक-राजनीतिक पटल पर घटी हुई घटनाएँ न
केवल सृजनात्मक लेखकों को बल्कि आलोचकों, चिन्तकों
को भी पूर्णतः प्रभावित करती हैं। समय का जो दंश या जो सुख सृजनात्मक साहित्य में
दर्ज रहता है, उसके औचित्यानौचित्य की व्याख्या की
कसौटी किसी भी आलोचक के लिए समकालीन जनपद का जीवन-यापन और उसकी मनःस्थिति ही होती
है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के जर्मनी का जो चित्र जिस स्थिति में काफ्का, प्रूस्त, ब्रेश्त, बादलिएर के यहाँ दर्ज हुआ उसे बेंजामिन
ने अपने इन निबन्धों में उनके समकालीनों और आसपास के अन्य लेखकों की दृष्टि के
आयास से भी समझने और समझाने की कोशिश की है। इस लिहाज से, बेंजामिन के साथ-साथ उन रचनाकारों की भी
समाज-चिन्ता और साहित्य-चिन्ता से परिचय करने को इच्छुक पाठकों के लिए यह एक जरूरी
और उपयोगी पुस्तक है,
बशर्ते कि वे भूसे से
दाने निकालने में सक्षम हों।
लेकिन इस पुस्तक में संकलित निबन्धों के सम्बन्ध में इस
जिज्ञासा से पाठक घिरे ही रह जाते हैं कि इन्हें एकत्र करने की दृष्टि क्या थी।
अनुवादक तक ने भी अपने कर्तव्य-क्षेत्र में इस बात की जगह नहीं दी। यदि यह दिया
गया होता, तो एक अच्छी बात होती।
कायदे से देखा जाए, तो
हर प्रस्तोता अथवा पुनप्रस्तोता का एक दायित्व होता है। उर्दू के किसी शायर ने
लिखा है--‘शराब ला दो ऐ शाक़ी, कह दो शराब है।’ इस ‘कह
दो शराब है’ की अहमीयत अहम है। भीमसेन जोशी, बिस्मिल्ला खाँ अथवा अमजद अली खान को
प्रस्तुत करना हो तो कन्सर्ट की भव्यता के साथ-साथ प्रस्तुति की एक गरिमामय
प्रविधि भी आवश्यक होगी। वाल्टर बेंजामिन जैसे प्रख्यात विचारक की प्रस्तुति इस
पुस्तक में जिस तरीके से की गई है,
वह कहीं से उचित नहीं
है। इस तरह से प्रस्तुत कर बेंजामिन की ख्याति पर संशय उत्पन्न किया गया है।
असल में अनुवाद सिद्धान्तों के आधार में ही कहीं छिद्र दिखने
लगता है। स्वयं बेंजामिन ने ‘अनुवादक का उद्यम’ निबन्ध में इस पर विस्तार से बातें की
हैं, अनुवाद की विश्वसनीयता और अनुवाद की
स्वतन्त्रता पर भी बातें की हैं और इस प्रसंग में रुडोल्फ पानवित्ज को उद्धृत किया
है। पानवित्ज के उस उद्धरण को यदि खींच कर आगे ले जाएँ तो उससे और भी कई
महत्त्वपूर्ण पक्ष सामने आते हैं। अनुवाद की विश्वसनीयता और स्वतन्त्रता की जोखिम
भरी सरहद वहाँ तय होती नजर आने लगती है और फिर ऐसा लगने लगता है कि अन्ततः यह
अनुवादक के विवेक पर ही निर्भर करता है कि वह स्रोत भाषा के आद्य तत्त्वों की ओर
लौटकर उस बिन्दु तक धँसे,
जहाँ कृति, बिम्ब और लय के संगम बनते हैं। इस
स्थिति के लिए एक अनुवादक को स्रोत और लक्ष्य --दोनों भाषाओं की गहन जानकारी तो
चाहिए ही, साथ ही कृति के आद्य तत्त्वों तक, कृति-बिम्ब-लय संगम तक धँसने की अभिलाषा
भी चाहिए। ‘उपरान्त’ पुस्तक
में संकलित निबन्धों के अनुवाद को देखने से इन अपेक्षाओं की पूर्ति नहीं होती है।
बहरहाल,
कई अपेक्षाओं की
पूर्ति न होने के बावजूद,
काफी मशक्कत के बाद
ही सही, इन निबन्धों ने बेंजामिन के चिन्तन फलक
का परिचय तो दिया ही है। इन अर्थों में एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक का पाठ का सुख सुखद
रहा।
उपरान्त/वाल्टर बेंजामिन/अनुवादक:
इन्दु प्रकाश कानूनगो/आधार प्रकाशन, पंचकूला/मू.150.00/पृ.148
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