Friday, November 15, 2019

बडे़ कवि के विराट् फलक की कविताएँ/धर्मवीर भारती


कुछ कवि ऐसे होते हैं, जिनकी कविताओं के गर्भ तक पहुँचने के लिए सिरतोड़ परिश्रम करना पड़ता है, किसी टीका ग्रन्थ या आलोचक की मदद लेनी पड़ती है। पर, हिन्दी में कबीर, निराला, नागुर्जन, सर्वेश्वर, धूमिल ऐसे कवि हुए हैं, जिनकी कविताओं का प्रवेश-द्वार साधारण साक्षर से लेकर सुबुद्ध पाठक तक के लिए हर पल खुला रहता है। ऐसी कविताएँ जो विषय और भाषा के स्तर पर जनता और उसके मन-प्राण, इच्छा-आकांक्षा को व्यक्त करती हैं, जनता को बुलाती हैं, उसको आकर्षित करती हैं और अपने से विदा होते समय उन्हें कुछ दे जाती हैं। ऐसी कविताएँ प्रथम पाठ में ही पाठक को प्रभावित करती हैं, साथ ही हर नए पाठ में नया रस, नया आनन्द देती हैं। गंगा-स्नान की तरह, हर स्नान में नया सुख। हिन्दी के सुविख्यात कवि धर्मवीर भारती ऐसी ही कविता लिखने वाले महत्त्वपूर्ण कवियों में से एक हैं। कनुप्रिया’, ‘सात गीत वर्ष’, ‘ठण्डा लोहा’, ‘सपना अभी भीया अन्धा युगके रचनाकार धर्मवीर भारती की कविताओं से गुजरना पूरी तरह से भारत के आम नागरिक का जीवन जीना और भारतीय संस्कृति के ताने-बाने को पहचानना है। उनकी इकहत्तर श्रेष्ठ कविताओं का संकलन मेरी वाणी गैरिक वसनाइसका प्रमाण देने में पर्याप्त साबित होगी। कई खण्डों में प्रकाशित भारती की ग्रन्थावली बाजार में उपलब्ध रहने के बावजूद मेरी वाणी गैरिक वसनाअलग महत्त्व की है, भारती की कविताई मात्र ही नहीं, उनकी रचनाशीलता के गुणसूत्र को जानने समझने के लिए यह पुस्तक एक कुंजी का काम करती है, ताला खोलते जाइए, दरवाजा देखते जाइए। कहा गया है कि इस संग्रह में भारती जी की काव्य-यात्र का सर्वश्रेष्ठ संकलित है। ...भारती की कविताएँ प्रभाव और प्रासंगिकता के स्तर पर काल की सीमा में कभी नहीं बँध पाईं। भारती मूलतः एक सांस्कृतिक चेतना के कवि हैं। शायद इसीलिए उनकी कविताओं में सांस्कृतिक अन्तर्दृष्टि, मूल्य-बोध का पर्याय बनकर मुखर है।
भारती के लिए सबसे प्रिय कविताएँ वे रही हैं जो गटर में पडे़ शराबियों, हथौड़ा चलाते लोहारों और धूल में खेलते हुए बच्चों की भोली आँखों में झलकती हैं, लेकिन जिन्हें न अभी किसी ने लिखा, न किसी ने छापा (दूसरा सप्तक, पृ. 175)दूसरे सप्तक में संकलित और हिन्दी की नई कविता की पृष्ठभूमि बनाकर उसे सँवारने तक के कामों में महत्त्वपूर्ण भूमिका रखने वाले कवि भारती की इन इकहत्तर कविताओं का चयन उनकी धर्मपत्नी श्रीमती पुष्पा भारती ने किया है। पाठ के दौरान पाठकों को यह कहना पडे़गा कि वाकई पुष्पा जी ने इस संकलन में गागर में सागर भरा है।
तलाश की प्यास भारती के सृजन-संसार में खूब दिखती है। बकौल भारती, नई नई किताबों और अज्ञात दिशाओं को जाती हुई लम्बी निर्जन छायादार सड़कों के प्रति, उन्हें बड़ा आकर्षण रहा है। अपने पूरे पत्रकारिता जीवन में भारती ने केवल साहित्य की ही रचना नहीं की, साहित्यकारों की भी रचना की, रचनाकारों की तलाश की। तलाश और अनागत की प्रतीक्षा और अनुसन्धान, उनकी रचनाशीलता और उनकी जीवन प्रक्रिया-- दोनों का आवश्यक अंग था। यह विशेषता उनकी पंक्तियों में मूर्त्त हो उठती है--
भटके हुए व्यक्ति का संशय
इतिहासों का अन्धा निश्चय
ये दोनों जिसमें पा आश्रय
बन जाएँगे सार्थक समतल
ऐसे किसी अनागत पथ का
पावन माध्यम-भर है...गैरिक वसना
मेरी वाणी...
भारती की कविताएँ अपने पाठकों से वार्तालाप करती हैं। यहाँ पाठकों का रिश्ता संवाद में कायम होता है। छायावादोत्तर काल में हिन्दी कविताओं में वादके जितने सिलसिले और इनके अनुशासनों की जितनी शर्तें चलीं, भारती के यहाँ वे सब बेमानी साबित हो गईं। उन्हें गॉड फादर बनने का मोह और चर्चा में बने रहने की ललक कभी नहीं रही। ललक रही, तो सिर्फ कविता की; कविता, जो मनुष्य के जीवन में है, कवि की कोरी कल्पना में नहीं। कविता के प्रति उनकी यह आस्था रही है कि व्यास की काव्य संवेदना, जीवन-दृष्टि और शब्दशक्ति के हवाले से वे कवि को निर्माण-उन्मद मानते हैं और कहते हैं कि सिर्फ इतनी-सी ताकत यदि रहे, कोई धन-बल, शस्त्र-बल, राज-बल न भी रहे तो आज के घनघोर अन्धकार में, सूर्य के सम्पूर्ण राहुग्रस्त हो जाने के क्षण में भी तिमिर में स्वर्णवेला बाँधने का ओजस्वी आश्वासन...सिर्फ निर्माण-उन्मद कवि ही दे सकता है।
कविता की ताकत पर इतनी बड़ी आस्था रखने वाले रचनाकारों की संख्या हिन्दी में ज्यादा नहीं है। और, जहाँ तक मैं समझता हूँ, इसमें उनकी काव्य-संवेदना और जीवन दृष्टि तो महत्त्वपूर्ण है ही, उनकी शब्द-शक्ति बहुत प्रबल है। शब्दों में शक्ति भरने की उनकी अनोखी शैली है। मिथकीय बिम्ब और प्रतीकों ने उनके सृजन को तीक्ष्ण, सम्प्रेषणीय और अधिक प्रभावकारी बनाया है। बिम्ब प्रतीक तो उनकी कविताओं में बोलते से प्रतीत होते हैं। प्रमथ्यु गाथा’, ‘बाणभट्ट’, ‘वृहन्नलाआदि कविताओं के हवाले से ये बातें विस्तार से बताई जा सकती हैं, जहाँ कवि मिथकों और पौराणिक पात्रों के सहारे से आज की विसंगतियों, विडम्बनाओं को बहुत सफलतापूर्वक कह डालते हैं, वहीं यह भी दिखता है कि उनकी कविता का विषय और कविताई का शिल्प विस्तृत, और वैविध्यपूर्ण है। मजदूर वर्ग से लेकर धन्ना सेठ वर्ग तक, शासक से लेकर पुजारी तक, किसान से लेकर सामन्त तक, राजनीतिज्ञ से लेकर चमचे तक, पाखण्डी से लेकर प्रगतिशील तक--सबके चरित्र के सद्-असद् उनकी कविताई में ज्यों के त्यों मौजूद हैं। मुरली निर्माण’, ‘भूखी लाशें’, ‘सोनारू के नाम’, ‘क्योंकि’, ‘सूर्या’, ‘आस्था’, ‘निराला के प्रतिआदि कविताएँ इन सन्दर्भों में विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
भारती की कविताएँ सही अर्थों में झण्डाबरदारों की तरह किसी वादअथवा विचारधाराका नारा नहीं, ये कविताएँ मानव जीवन की बुनियादी भावनाओं का उच्छ्वास है, यहाँ मानवीय आकांक्षाओं की ऊष्मा, उसकी साँसों की धड़कनें, उसके सुख-दुख के चक्र, उसके पे्रम-घृणा, राग-द्वेष की ध्वनियाँ गुंजायमान हैं। सबसे मजे की बात है कि भारती की कविताओं को पढ़ने और समझने के लिए किसी लक्षण ग्रन्थ अथवा टीका की आवश्यकता नहीं होती, मानव-जीवन का सहारा उनकी कविताओं में डूबने, उतराने और डूब-डूबकर रससिक्त होने के लिए पर्याप्त होता है। जाहिर है कि भारती अपनी पीढ़ी में सबसे अलग हैं और हर किसम के लोगों के बीच समादृत हैं।
मेरी वाणी गैरिक वसना/धर्मवीर भारती/भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली/पृ.-176/मू.-120/-

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