ऊबे हुए कथानायक का गीत
(मधुकर गंगाधर का कहानी लेखन)
हिन्दी की नई कहानी आन्दोलन के दौर में कई श्रेष्ठ कथाकार
दत्तचित्त होकर काम कर रहे थे। चर्चित कथाकार मधुकर गंगाधर का पदार्पण संयोग से
उन्हीं दिनों हुआ। एक मेहतरानी के जीवन पर लिखी कहानी से सन् 1954-55 में कथा लेखन में उनका प्रवेश हुआ। ‘नई कहानी’ तब
तक आकार ग्रहण नहीं कर पाई थी। उस पीढ़ी के तमाम कथाकार, जो बाद के दिनों में अपनी-अपनी जिम्मेदारी
के साथ हिन्दी कहानी के प्रमाण बने,
अपनी-अपनी क्षमता और
अपने-अपने कौशल के साथ रचनाशील थे। देश स्वतन्त्र हो चुका था पर हिन्दी कथाकार उस
दौर की कई समस्याओं से जूझ रहे थे। घृणा और स्वीकार की खींचातानी ने उनके मनोभावों
को अजीब-सी उलझन में डाल रखी थी। उस अवधि को चित्रित करते हुए राजेन्द्र यादव ने
लिखा कि ‘‘युगों की पराधीनता के बाद किसी देश का
स्वतन्त्र होना ही अपने आप में बहुत बड़ी घटना है, फिर
अपने यहाँ तो इस घटना के साथ ही देश का विभाजन भी जुड़ा है...शरणार्थियों और
विस्थापितों के वे काफिले जुड़े हैं जो भूखे-प्यासे, खून
से लथपथ एक देश से दूसरे देश में आए, वे
सारी हत्याएँ और नृशंसताएँ भी जुड़ी हैं जो दोनों देशों के लोगों को भुगतनी पड़ी, लाखों लोगों के अतीत की जलती चिताएँ
जुड़ी हैं जहाँ पिछला सब कुछ,
सभी कुछ भस्म हो गया
...अच्छा भी और बुरा भी...तेजी से विघटित होते जीवन-मूल्यों के भूकम्प जुड़े हैं
(एक दुनिया: समानान्तर,
भूमिका पृ. 19)।’’
इन सारी परिस्थितियों के साथ-साथ इनसे उद्भूत और स्वतन्त्र रूप
से संचालित अन्य असंख्य समस्याएँ उन दिनों जबरन चुभने वाले काँटों की तरह समकालीन
कहानीकारों की आँखों में,
मन-प्राण में चुभ रही
थीं। सब कुछ गँवाकर स्वाधीन हुआ भारत नया जीवन बसा रहा था। संसार के वैज्ञानिक, तकनीकी, सांस्कृतिक, सामाजिक, बौद्धिक, नैतिक उत्थान से लालायित मन और
विकासोन्मुखी प्रतिभा उछाल मार रही थी। सन् 1956
तक पहला चुनाव हो चुका था। मगर स्वाधीन देश भारत में स्वाधीनता का कोई ठोस स्वरूप
नहीं दिख रहा था। और,
वह समय मधुकर गंगाधर
के कथाकार मन को बेरहमी से कुरेद रहा था। गोया, उनकी
रचना दृष्टि को ठोक-ठोककर मजबूत कर रहा हो और आखिरकार उसने मजबूत करके ही दम लिया।
कहानी लेखन को परिभाषित करते हुए स्वयं मधुकर गंगाधर ने कहा कि
‘कहानी प्रसव का क्षण है, गर्भाधान का उपाख्यान या बालक के नामकरण
का समारोह नहीं।’ इस बात की व्याख्या कथाकार ने स्वयं
अपने एक साक्षात्कार में भी और अपनी महत्त्वपूर्ण कहानी ‘ढिबरी’ में
भी बड़ी सूक्ष्मता से की है। कथाकार के इस स्पष्टीकरण और कहानी के माध्यम से इसके
प्रमाण देने की कला पर कई कारणों से विश्वस्त हुआ जा सकता है। मधुकर गंगाधर की यह
कहानी ‘ढिबरी’ कई
स्तरों पर अपना भेद खोलती है। परत-दर-परत खुलती हुई यह कहानी हर बार अपना नूतन
चेहरा दिखाती है।
कहानी एक महिला की प्रसव-वेदना से प्रारम्भ होती है और बच्चे
के जन्म का संकेत मात्र देकर चुप हो जाती है। पूरी कहानी में पाठक-वर्ग गोपनीयता
और स्पष्टता के सूत्र तलााशने में लगे रहते हैं; पाठकों
के इस मानसिक कसरत से कहानी,
या कहें कि लेखक
बेफिक्र रहते हैं। उन्हें पाठकों यह सूचना देना आवश्यक नहीं लगता कि-- ठाकुर वंश
में पैदा हुआ सचीत एक मुसहरनी के साथ रह रहा है, क्यों
रह रहा है? उस मुसहरनी सोनी के प्रसव समापन में
इतनी परेशानी हुई है,
क्यों हुई है? गाँव की सामन्ती प्रथा से इतना टक्कर
लिया गया, क्यों लिया गया?...वह नवजात शिशु बेटा है या बेटी? ... सारी बातें गोपनीय हैं। पाठक जूझते
रहें। गोपनीयता और स्पष्टता से जूझते पाठकों के रुचिपूर्ण मानसिक कसरत को लेखक ‘कहानी कला’ कहते हैं। कहानी एक औत्सुक्य के साथ
समाप्त होती है, जो इसकी पहली पंक्ति से ही पैदा होती
है।
कहानी का दूसरा अर्थ प्रतीकार्थ में खुलता है। प्रतीक-योजना की
सहज स्वीकार्यता कविताओं में लम्बे समय से थी, कहानियों
में प्रतीक-विधान का चलन नया-नया हुआ था। इस नए उपादान से कहानी में अर्थोत्कर्ष
दिया जाने लगा था। इस विषय में राजेन्द्र यादव राय हुई कि ‘‘कहानी को प्रतीकों ने निश्चय ही सार्थक
कलात्मकता और सांकेतिकता प्रदान की है। अन्तर्जगत् के लक्ष्यहीन बहते यथार्थ को
लक्ष्य और बहिर्जगत की लक्ष्योन्मुख दौड़ती वास्तविकता को गहराई दी है।
यथार्थ--कथानक--पहले गढ़ा जाता था,
फिर उसकी प्रतिक्रिया
में विशृंखलित हो गया--अब उसे सार्थक गठन देने का श्रेय भी प्रतीकों को ही दिया
जाएगा (एक दुनिया: समानान्तर भूमिका पृ. 67)।’’ दिलचस्प है कि राजेन्द्र यादव की इस
स्थापना से काफी पहले मधुकर गंगाधर के यहाँ और उस दौर के कई कहानीकारों के यहाँ
प्रतीकों की मौजूदगी बेशुमार है। हाँ इतना तय है कि प्रतीकों में अर्थ खोलने का
कौशल पुख्ता किए बगैर यदि कहानीकार इस पर हाथ साफ करने लगते हैं तो वे प्रतीक
पाठकों तक पहुँच नहीं पाते,
लिहाजा कहानी चू-चू
का मुरब्बा बनकर रह जाती है। निस्सन्देह मधुकर गंगाधर का यह कौशल पुख्ता है और
उनकी कई कहानियों पर प्रतीक विधान के हवाले से बात की जा सकती है।
राजेन्द्र यादव की धारणा है कि नई पद्धतियों के अनुसार ‘‘वस्तुतः कहानी में प्रतीक, बिम्ब इत्यादि भाषा और शब्दों के स्तर
पर नहीं, विषय बोध और उसे ध्वनित भर सकने वाले
शिल्प के धरातल पर आते हैं। कहानी की सांकेतिकता शब्दों, या ध्वनि, लहजे
की सांकेतिकता नहीं,
विषय के प्रस्तुतीकरण, संघटन, कोण, निर्वाह और सब मिलाकर प्रभाव की
सांकेतिकता होती है। उसमें वातावरण का संगीत नहीं, प्रभाव
का संगीत होता है। विषय बोध से भी पहले कथाकार की समस्या अपने अस्तित्व-बोध की है, उसके प्रति उसके एप्रोच की है--जीवन और
परिवेश के प्रति उसकी धारणा और दृष्टिकोण की है। कहानी तो उन सबका परिणाम और
प्रतिफलन ही हो सकती है (एक दुनिया: समानान्तर, भूमिका
पृ. 51)।’’
इस लिहाज से,
शब्दों, पंक्तियों और भाषा-प्रयोगों के आधार पर
मधुकर गंगाधर की ‘ढिबरी’ कहानी
किसी भी तरह कहानी राजनीतिक होने का संकेत नहीं देती। किन्तु एकदम से सामाजिक लगने
वाली यह कहानी जब प्रतीकों के सहारे अपना अर्थ खोलती है तो प्रती होता है कि
पर्याप्त त्याग, निष्ठा, सहनशीलता, बलिदान आदि से प्राप्त ‘स्वाधीनता’ का अभी संकेत ही मिला है, जैसा कि उस बच्चे के जन्म के पश्चात् ‘चेहों’ का
एक स्वर उभरता है। अभी इसका कोई स्वरूप तय नहीं हुआ है अथवा स्पष्ट नजर नहीं आ रहा
है। अर्थात् राष्ट्रीय स्वतन्त्रता को कहानीकार ने कई मायने में इस ‘ढिबरी’ कहानी
में प्रतीकित किया है। ‘बैल का विद्रोह’ जैसी अन्य कई कहानियों की समीक्षा भी इस
तरह की जा सकती है।
लेकिन,
मुधकर गंगाधर की ‘कहानी कथा’, ‘कथा मानस’ और
‘कथा भूमि’ का
वैशिष्ट्य इन साँचों और फार्मूलों से नहीं निकाला जा सकता। अप्रैल 1959 के ज्ञानोदय में उनके नए संग्रह ‘तीन रंग: तेरह चित्र’ की समीक्षा करते हुए राजकमल चौधरी ने
लिखा, ‘‘मधुकर गंगाधर ने इस कथा संग्रह की
कहानियों द्वारा सामान्यतः भारतीय गाँवों और विशेषतः बिहार के एक इलाका विशेष के
गाँवों का ईमानदार और सबल चित्र उपस्थित किया है।...ये कहानियाँ सिर्फ इतनी-सी बात
कहती है कि देश के गाँव अभी मरे नहीं हैं और बड़ी-बड़ी मशीनों की मुर्दनी ने उन्हें
अभी तक खरीद नहीं लिया है;
कि अभी भी गाँवों में
धान के खेत लहलहाते हैं,
आम की डालों पर कोयल
कूकती है, गली में खेलते बच्चों के शरीर से धूल
झाड़ती हुई माताएँ खिलखिला उठती हैं।’’ अर्थात्
भारतीय कथा-साहित्य में ग्राम्य-जीवन की जो लम्बी परम्परा अपने पूरे वजूद के साथ
स्पष्ट होती रही है,
वह मधुकर गंगाधर के
यहाँ पूरी तरह अपनी मान-मर्यादा के साथ मौजूद है।
‘ग्राम्य
जीवन’ और ‘लोक-तत्त्व’ का सम्बन्ध बहुत भिन्न नहीं है। बीसवीं
शताब्दी के पूर्वार्द्ध बीतते न बीतते हिन्दी कहानियों के विविध रंग अपने पूरे फलक
के साथ स्पष्ट होने लगे थे और वहाँ ‘ग्राम्य
जीवन’ और ‘लोक-तत्त्व’ का बखूबी उपयोग होने लगा था। अभिप्राय
यह नहीं कि ग्राम्य जीवन हिन्दी कहानी के लिए अछूत क्षेत्र था, प्रेमचन्द के यहाँ ग्राम्य जीवन का
बहुरंग अपनी तरह से स्पष्ट है। बाद के दिनों में ‘ग्राम्य-जीवन’ और ‘लोक-तत्त्व’ अनूदित रूप में नहीं, मूल रूप में आने लगा था। कुछ आलोचकों ने
कहना प्रारम्भ कर दिया कि ‘‘जो कहानीकार इतने जागरूक चिन्तक और पैनी
सामाजिक दृष्टि वाले नहीं हैं,
उन्होंने अछूते जीवन
क्षेत्रों का सहारा लेकर पाठकों को अपनी ओर खींचने की कोशिश की है। अपने-अपने अंचल
या जनपद के लोक-जीवन को कहानी में ले आने की प्रवृति इसी का परिणाम है...(कहानी, विशेषांक 1956, पृ. 19)।’’ पर ऐसा सोचने वाले विद्वानों की नीयत
शायद साफ नहीं थी। साहित्य तो लोक-जीवन के उन परिदृश्यों का इतिहास होता है, जिसकी व्याख्या इतिहासकार नहीं कर पाते
हैं। इतिहास तो तत्कालीन सामन्तों,
राजाओं और प्रशासकों
के जीवन और रहन-सहन की जानकारी देता है। आम जनता के जीवन-बसर की जानकारी तो
साहित्य के माध्यम से मिलती है। यदि ‘कीर्तिलता’ और ‘कीर्तिपताका’ नहीं लिखी गई होती, तो शायद उस काल के आम-जनजीवन से रू-ब-रू
होना आज असम्भव हो जाता। परवत्र्ती काल के साहित्यकारों ने इस आवश्यकता को ज्यादा
तल्खी से समझा। हिन्दी में फणीश्वर नाथ रेणु, नागार्जुन, राजकमल चौधरी, मधुकर गंगाधर प्रभृति ने इसी आवश्यकता
की पूर्ति की। बंगला में देवेश राय,
तमिल में सु.
समुत्तिरम, मलयालम में एम. मुकुन्दन आदि-आदि कई
रचनाकार तमाम भारतीय साहित्य में गिनाए जा सकते हैं, जिन्होंने
अछूते जीवन क्षेत्रों को अपने सृजन संसार में सम्मानपूर्वक स्थान दिया और उन
रचनाओं से सामान्य जनजीवन के विविध रंग साहित्य में भरे। इस तरह के रचनात्मक
प्रयोग से न केवल साहित्य में विषय वैविध्य आया बल्कि साहित्य समृद्ध भी हुआ।
मधुकर गंगाधर के कथा संसार पर नजर डालते हुए इस सम्पन्नता का अहसास होता है।
अपने कथा-सृजन के सम्बन्ध में मधुकर गंगाधर का कहना है कि ‘‘हमारी कहानियाँ जन्मान्ध धृतराष्ट्र के
लिए संजयी रिपोर्ताज नहीं,
वह व्यास का रक्तरागी
काव्य है...जब तक गाँव में था,
गाँव की कहानियाँ लिखी।
शहर में रहकर, यहाँ के जीवन, संघर्ष, मानसिकता
से एकाकार होने पर शहर की कहानियाँ लिखता रहा हूँ। वस्तुतः मैं तो आदमी के संघर्ष
और उसकी विजय की खोज में रहा हूँ--वह गाँव का परिवेश हो, शहर का परिवेश हो या कसबे का परिवेश। आज
के भारत का प्रत्येक हिस्सा भौतिक और राजनीतिक रूप से चेतना के स्तर पर जुड़ा हुआ
है।’’
जाँच-पड़ताल करके देखा जाए तो मधुकर गंगाधर का कथा लेखन इसी
सिद्धान्त वाक्य का व्यावहारिक पक्ष है। जीवन संग्राम के कुरुक्षेत्र में ये वाकई
धृतराष्ट्र की तरह संजय की आँखों के साथ नहीं, अपनी
खुली आँखों के साथ घूमते रहे हैं और अपने पाठकों को उसके सूक्ष्मतर तन्तुओं के
चित्र आपूरित करते रहे हैं। आम जनजीवन को मर्माहत करती कहानी ‘बैल का विद्रोह’ में राजनीतिक बहेलियों के सारे षड्यन्त्र, सारी चालाकियाँ खुलकर सामने आती हैं; भोली जनता के रचनात्मक कदम उठकर भी उलझ
जाते हैं। यह कहानी भारतीय राजनीति के उस रहस्य को उजागर करने का मुखद्वार है, जिसमें वंचनाओं का रोमांचक जखीरा है।
जनमत के व्यापारी जानते हैं कि उनका वजूद जनकृपा से है, इसलिए वे चाहेंगे कि आम नागरिक को
महत्त्व बेशक न दें,
पर महत्त्व देने का
नाटक और प्रचार अवश्य करें,
ताकि भ्रम बना रहे।
मधुकर गंगाधर की कहानी ‘खून’ उनकी
विलक्षण दृष्टि, ग्रामीण राजनीति पर सूक्ष्म पकड़ और
मानवीय हरकतों के वैचित्र्य का बेहतरीन उदाहरण है। आम नागरिक को यह कहानी समझा
चुकी है कि भारतीय गणतन्त्र एक धोखा है, यहाँ
की न्यायिक प्रक्रिया एक धर्मान्धता है, ‘पंचायत’ का फैसला एक पाखण्ड है, जैसे कोई कामी जेठ अनुजवधू के सिर पर
घूँघट डाले। मधुकर गंगाधर के सारे पात्र और पाठक भी ये बातें जान गए हैं। न्यायालय
और पंचायतों से उनके पात्र का विश्वास उठ चुका है, वे
अपना फैसला खुद करते हैं,
खुद ही अपराधियों को
दण्ड देते हैं। भारतीय दण्ड विधान पर निर्भर रहकर वे कुण्ठित और कमजोर नहीं होना
चाहते। ‘खून’ का
‘तेतर’ ‘अजोधिया’ के खून का प्यासा है, दारोगा के सामने उसे पहचानने से मुकर
जाता है, पर गुस्से में खुँखरी लेकर उसे काटने
आया तेतर, भयभीत देखकर उसके मुण्ड पर थूक फेंककर लौट
आता है। कथा समाप्ति के बाद घटनाओं के इस वैचित्र्य से पाठक एकाएक कई प्रश्नों से
टकराने लगते हैं। क्या तेतर ने अजोधिया को डरपोक, औरत
के प्रेम का आश्रित,
रेंगता हुआ कीड़ा
समझकर छोड़ दिया? उस डरपोक कीड़े को मारकर उसे अपना पौरुष
गन्दा नहीं करना था?
या एक स्त्री की
सिन्दूर पूरित माँग देखकर उसकी नैतिकता प्रबल उठी...? या एक व्यक्ति के साहस की हत्या को ही
उसने अपने शत्रु की हत्या समझ ली...? मधुकर
गंगाधर की कहानियाँ इन्हीं प्रश्न-गुच्छों के साथ समाप्त होती हैं और मानव जाति की
विजय और भारतीय व्यवस्था के पाखण्ड की नग्नता का चित्र प्रस्तुत करती हैं।
‘हिरना
की आँखें’ तथा ‘कागभाखा’--कहानियाँ प्राचीन लोक-कथा की बुनियाद पर
खड़ी हुई हैं, पर कथाकार ने इनमें अजीब-सी नूतनता और
चमत्कृत करने वाला एप्रोच भरा है। यहाँ उनकी कुछेक कहानियों की चर्चा के सहारे ही
उनके कथाकौशल और उन कहानियों की सामाजिक उपादेयता पर बात की जा रही है। उनकी
दृष्टि हरदम उन उद्देश्यों पर टिकी रहती है जहाँ से उनके पाठक चौंक उठते हैं, पूरे पाठ के दौरान मन्त्रमुग्ध रहते हैं, कथा समाप्ति प्रश्नों और सम्भावनाओं से
घिर जाते हैं। विलक्षण भाषा,
जनपदीय मुहावरों, लोकोक्तियों, लोकाचारों के चमत्कारपूर्ण उपयोग, लोक-जीवन के टोटकों के शोषण, पाखण्डों पर व्यंग्य-व्यवहार आदि के
कारण ही सम्भवतः ऐसा हो सका है। ‘हिरना की आँखें’ में लछना, छबीला
चौकीदार, महिन्नर बाबू, बसमतिया की माय, लोधू ...सब प्रसन्न है, बस एक बसमतिया दुखी और आहत है। यह कहानी
प्रेम का त्रिकोण गढ़ती है या अर्थ का त्रिकोण गढ़ती है, आत्म-स्थापन का या आत्म-विजय का या फिर
तात्कालिक लिप्सा के मूल्य पर नैतिकता भूलकर अराजकता का चित्र प्रस्तुत करती
है--यह समझना जरूरी है।
मधुकर गंगाधर एक तरफ बड़े धीरज से कहानी कहने के आदी हैं, तो दूसरी तरफ तीव्र तरंगायित समुद्र की
लहरों पर पाठकों को उछाल-उछालकर विहार कराते हैं। विषय-प्रसंग की बची-खुची
अर्थ-छवियाँ, जिज्ञासाएँ उनके कथा-शिल्प में खुलती
हैं, अर्थात् उनकी कहानियाँ भाव-बोध के फलक
को विस्तार देती हैं। ‘हिरना की आँखें’ में स्पष्ट उल्लेख नहीं होने के बावजूद
कहानी रचाव से कुछ जिज्ञासाएँ उठती हैंै--क्या बसमतिया और लोधू के प्रेम
प्रतिद्वन्द्वी का परोक्ष हो जाना ही लोधू की प्रसन्नता का कारण है? प्रेम सम्बन्ध बसमतिया और लोधू के बीच
है, या बसमतिया और महिन्नर बाबू के बीच? जैसा बसमतिया के पिता समझते हैं, महिन्नर बाबू वाकई देवता हैं? बसमतिया के माँ-बाप को पता है कि
महिन्नर बाबू क्यों देवता हैं और छबीला चौकीदार क्यों धन-सम्पन्न व्यक्ति हो
गया...? ‘उठे हुए हाथ’, ‘दाँत’ जैसी
कहानियाँ भी पाठकों को ऐसी ही जिज्ञासाओं से उद्वेलित करती हैंै।
मधुकर गंगाधर को अपनी कहानियों में मारपीट, खून-खराबा, बन्दूक-पिस्तौल, लाठी-भाला आदि से कोई परहेज नहीं है।
उनके पात्रों को भारत के नागरिक-पंचायत अथवा न्याय-पद्धति पर कोई आस्था नहीं है।
उनके पात्र कार्यपालिका,
विधायिका और
न्यायपालिका की अपनी व्यवस्था लागू करते हैं। आरक्षी और दण्डविधान के संचालन हेतु
वे खुद को सक्षम समझते हैं। अपराधी को दण्ड देने के निर्णय में, और निर्णय को लागू करने में समय नहीं
लगते। कत्ल तक का निर्णय और क्रियान्वयन बड़े आराम से करते हैं। उदाहरणस्वरूप कई
कहानियाँ हैं--‘उठे हुए हाथ’ की ‘बसन्ती’ और ‘बसन्ती’ के बेटे के निर्णय से नैतिकता के सारे
शास्त्र और न्यायालय के सारे अनुच्छेद विवर्ण हो उठते हैं। ‘फाँसी’ की
‘गीता’ का
विवरण भारतीय न्यायिक पद्धति का निर्लज्ज नमूना है।
उनके ज्यादातर पात्र सामाजिक व्यवस्था से ऊबे हुए हैं। ऊबकर
अपनी दयनीयता पर वे रोते नहीं,
उस व्यवस्था को
तिलांजलि देकर, अनुकूल व्यवस्था बनाते हैं और ऊब की
स्थिति लाने वालों को दण्डित करते हैं, पाठकों
को सन्देश देते हैं कि इस व्यवस्था से मुक्ति ही जीवन की सार्थकता होनी चाहिए।
साहस मनुष्य को सब कुछ दे सकता है। वे आश्वस्त हैं कि इस समाज का मनुष्य भूखे शेर
के पिंजरे में खड़े मनुष्य से अधिक असुरक्षित है। हथियार उठाए बगैर इस समाज में
जीया नहीं जा सकता। स्थपित व्यवस्था पर आस्थावान होने का अर्थ है--घुट-घुटकर मरते
हुए जीना; मर-मरकर मर जाना; आकाओं की नाजायज सन्तानों का बाप बनना, उनके तलुवे चाटकर भूख मिटाना, उनके थूक चाटकर प्यास भगाना।
जाहिर है कि उनकी कहानियों का यह तेवर उनके राजनीतिक आग्रह का
सूचक है। भारतीय गणतन्त्र और प्रशासनिक व्यवस्था की उनकी अपनी परिकल्पना है। पर इस
धारणा के कारण समाज-व्यवस्था में नकार, स्वेच्छाचारिता, नृशंसता का जैसा परिदृश्य व्याप्त हुआ, जिस तरह की विकृतियाँ उत्पन्न हुईं, मधुकर गंगाधर यह देखते रहे हैं। उन
प्रसंगों पर सम्भवतः उनकी कोई कहानी नहीं आई। नक्सली झण्डा ओढ़कर नरसंहार, डकैती, लूटपाट
करने वालों के कुकृत्य पर नक्सलियों ने सुचिन्तित दृष्टि से विचार भी किया, ऐसा संकेत उनकी रचनाओं में कहीं नहीं
है। स्वेच्छाचारिता समाज के इनसानों को हैवान बनने की प्रेरणा देगी, इस बात से मुकरा नहीं जा सकता।
किसी रचनाकार की रचनाओं की गिनती, उत्तम-मध्यम-अधम का वर्गीकरण कोई स्वस्थ
विचार नहीं है। किसी रचनाकार ने अपने परवर्तियों को एक भी श्रेष्ठ रचना दे दी, तो समझा जाना चाहिए कि वह ऋणमुक्त हो
गया। इस अर्थ में मधुकर गंगाधर ऋणमुक्त हैं। यद्यपि ‘चरित्र’, ‘गन्ध’, ‘वशीकरण’ जैसी
कुछ कहानियों में उग्र और अनियन्त्रित क्रोध के कारण उन्हें अपेक्षित सफलता नहीं
मिली है। वैयक्तिक शैतानियों से लहूलुहान मानवता के चेहरे का चित्र उनकी कई
कहानियों में पाठकों को उद्वेलित करता है। उनमें मानवीय मूल्य के प्रति कहानीकार
की गहन चिन्ता उनकी रचनात्मकता के प्रति आश्वस्त करता है। पर ‘चरित्र’ की
व्याख्या, ‘गन्ध’ का
आकर्षण, ‘वशीकरण’ का
महत्त्व जितना है, उन्हें परिपक्व होने देने का इन्तजार उन्होंने
नहीं किया। सम्भवतः इसी कारण कुछ पाठक विश्वसनीयता के क्षरण का शिकार हुए होंगे, और एक महत्त्वपूर्ण बात ग्रहण करने से
वंचित रह गए होंगे। क्रोधावेश के कारण ऐसी कहनियाँ किशोरों की कुपित चर्चा बनकर रह
गई। एक विराट् व्यंजना का सन्देश आना था, सो
आया अवश्य; पर ऐसी कुछ कहानियों का अहित तो हो गया।
इनमें कहानीकार अपने उद्देश्य पर एकाग्र नहीं हैं, डाल-डाल
पर उछल उछलकर अपनी खीझ स्पष्ट करना चाह रहे हैं। फलतः बात ऊबाऊ हो गई है।
उल्लेखनीय है कि मधुकर गंगाधर की भाषा और रचनाशीलता
में गाँव का वातावरण, रंग की तरह घुला हुआ है। गाँव के सहारे वे जब कभी अपने
पाठकों के सामने आते हैं, कहीं अधिक आकर्षक, प्रिय, अनुभवी और अपने लगते हैं।
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