मिथकों का सहारा
श्याम मोहन अस्थाना की नाट्य कृति 'शापग्रस्त' और 'दूसरी सृष्टि'
किसी नाट्य-कृति की समीक्षा करते हुए नाट्य-परम्परा बात करना
आवश्यक नहीं, पर हिन्दी नाट्य-लेखन की क्षीण परम्परा
पर चिन्तित हुआ जा सकता है। उपन्यास, कहानी, कविता, निबन्ध, आलोचना...हर विधा की तुलना में हिन्दी
नाटक की गति और स्तरीयता अभी भी प्रश्नांकित है। बड़ी प्रतीक्षा के बाद कभी कोई
स्तरीय नाटक दिख जाते हैं। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के रंगकर्मियों को नाट्य
महोत्सव या अन्य अवसरों पर अभी भी संस्कृत या अंग्रेजी, फ्रैंच, रूसी
जैसी अन्य भारतीय-अभारतीय भाषाओं के नाटकों का सहारा लेना पड़ता है, या फिर चार-छह पुराने नाटकों को ही
बार-बार दुहराना पड़ता है,
गाए हुए गीतों को फिर
से गाना पड़ता है।
श्याम मोहन आस्थाना की दो नाट्य कृति ‘शापग्रस्त’ तथा ‘दूसरी
सृष्टि’ हिन्दी नाटकों की सूची थोड़ी लम्बी कर
देती है, बस्स। इससे पूर्व भी उनकी कई नाट्य
कृतियाँ आई हैं, उन कृतियों की संख्या से यह कहना सहज है
कि आस्थाना नाट्य-लेखन में नवसिखिए नहीं हैं, उनके
हाथ मँजे हुए हैं। पर मँजे हुए हाथ से जैसी कृति की अपेक्षा पाठकों को रहनी चाहिए, उसकी पूर्ति उनसे नहीं होती। ‘शापग्रस्त’ में दो नाटक हैं--‘शापग्रस्त’ और ‘दृष्टिहीन-दिशाहीन’। ‘शापग्रस्त’ पुराकथा पर आधारित है और ‘दृष्टिहीन-दिशाहीन’ रोजमर्रा की साधारण सामाजिक-पारिवारिक
स्थितियों पर। शापग्रस्त में यमराज की पुत्री सुनीता, तपस्वी युवकों को छेड़ने के दोष में
चित्रक द्वारा शापित होती है। शाप से बचने के लिए महर्षि अत्रि के पुत्र ‘अंग’ से
विवाह करती है। इन दोनों के पुत्र ‘बेन’ चित्रक
के शाप और विष्णु के वरदान के बीच झूलता है। पर मायावती इन सारे संकटों को
चुनौतियों के रूप में स्वीकार करती है और मनुष्य के पुरुषार्थ का ‘जयघोष’ करती
है। ‘दृष्टिहीन-दिशाहीन’ में स्वातन्त्र्योत्तर भारत की
बेरोजगारी, भ्रष्टता, नशाखोरी
आदि आदि के दंश भोगती युवा पीढ़ी की दृष्टिहीनता और दिशाहीनता को चित्रित करने का
प्रयास किया गया है। आस्थाना की दूसरी नाट्य कृति ‘दूसरी
सृष्टि’ का ताना-बाना अनार्यों के प्रमुख राजा
शम्बर द्वारा विश्वामित्रा और विदूषक ऋक्ष के अपहरण, आर्य
सेना द्वारा शम्बरपुर का घेराव,
विश्वामित्रा के
प्रति उग्रा के मन में प्रेमांकुर,
आर्य जनपद में अनार्य
कन्या का राजरानी के रूप में आगमन,
उग्रा को सामाजिक
स्वीकृति दिला पाने में विश्वामित्र की असफलता जैसे चन्द सामाजिक संघर्षों की मदद
से पूरा होता है।
इतिहास,
पुराण, मिथ आदि को प्रतीकार्थ में व्यक्त करने
और उन्हें वर्तमान समय की विडम्बनाओं से मिलाकर आज की त्रासदी को ज्यादा तीक्ष्णता
से कह पाने की परम्परा हिन्दी साहित्य में कोई नई नहीं है, नाटक में भी नहीं। मोहन राकेश, धर्मवीर भारती के नाटकों में और अन्य
रचनाकार की अन्य विधाओं में भी यह उद्यम काफी सफल हुआ है। मिथ के सहारे हिन्दी में
बातें कुछ ज्यादा प्रभावी हो पाती हैं। ‘एक
और द्रोणाचार्य’ या ‘आषाढ़स्य
प्रथमे दिवसे’ नाटक में ये बातें स्पष्ट हैं। रमेश
गौतम के शब्दों में ‘मानुष भाव यान्त्रिक बोझ के तले दबकर
साँस तोड़ रहा है।...श्याम मोहन आस्थाना का नाटक ...पुराकथा के माध्यम से इसी
मानवता को स्वर देता है।’
पर यह स्वर कुछ
ज्यादा ही प्रभावी हो पाता,
यदि आस्थाना उन
नाटकों में शास्त्रीय आडम्बर से बच पाते।
रंगकर्म को पीछे छोड़कर तत्काल पाठ की दृष्टि से ही देखा जाए, तो नाटक तीन कारणों से आकर्षक हो पाता
है--विषय चयन की सावधानी,
संवाद लेखन की
युक्तियुक्तता और लक्ष्यबोध का उत्कर्ष। प्रो. आस्थाना की दो पुस्तकों में संकलित
इन तीनों नाट्य कृतियों को तीनो तराजू पर तौलें, तो
वैसा परिणाम सामने नहीं आता जैसा सन् 1963
से प्रसिद्ध हुए नाटककार की लेखनी से आना चाहिए था। कौन-सी बात, किस शैली में, किस समय, किससे
की जाए--यह तय करना लेखक का ही दायित्व है। इन नाटकों में शास्त्रीय उपादानों का
कोई अभाव नहीं दिखता। लक्षण-ग्रन्थों के आधार पर परीक्षा की जाए तो ये सफल नाटक
गिने जाएँगे। रंगकर्म की तकनीकी दृष्टि से भी कदाचित पीछे न हों।
दर्शक-श्रोता-पाठक किसी तरह देख-सुन-पढ़ भी लें। पर, उद्देश्य
की दृष्टि से? वृहत्तर
समाज तक भाव-सम्प्रेषण के लिए नाटक सर्वाधिक प्रभावी विधा है, फलस्वरूप इस विधा से रचनात्मक उद्देश्य
की पूर्ति सुनिश्चित होती है। किन्तु इन नाटकों में ऐसे लक्ष्य-केन्द्र दिखते
नहीं। इन दोनों संकलनों के लिए जैसी घोषणा की गई, जैसा
दावा किया गया, जन-मन पर प्रभाव डालने में ये कृतियाँ
अर्थहीन हैं। इसे अभिव्यक्ति की हड़बड़ी मानी जाए या विचारधारा की जिद या कौशल का
हठधर्म--कहा नहीं जा सकता। बहरहाल,
उम्मीद की जाए कि
निकट भविष्य में उनकी कोई श्रेष्ठ नाट्य-कृति सामने आए।
मिथकों का सहारा, इण्डिया टुडे, नई दिल्ली, 24 मई 2000
शापग्रस्त, श्याम मोहन अस्थाना, राधारानी प्रकाशन, विश्वास नगर, दिल्ली
दूसरी सृष्टि, श्याम मोहन अस्थाना, राधारानी प्रकाशन, विश्वास नगर, दिल्ली
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