वंचित रह जाना काम्य नहीं
(राघवचेतन राय की कविताएँ)
जीवन का बोझ ढोते-ढोते मनुष्य थक जाता है, मनुष्य की जिम्मेदारियाँ ढोते-ढोते
जानवर थक जाता है, नौकरशाहों-नौकरीशुदाओं और नौकरों की
कवायद एवं उपेक्षाओं-अपेक्षाओं से भरी टिप्पणियाँ ढोती-ढोती फाइल थक जाती है, राजनेताओं की किच-किच झेलती-झेलती संसद
थक जाती है, समय-समाज और जनता के पाप धोती-धोती गंगा
थक जाती है, मैली हो जाती है; पर कविता नहीं थकती! इतिहास, भूगोल की नाना तरह की गाथाएँ, पराक्रम, स्वार्थनीति, कूटनीति, प्रेम-संघर्ष, घृणा-प्रतिस्पर्धा, न्याय-अन्याय, जय-पराजय, आचार-विचार, नेत-नियम आदि का वहन हजारों वर्षों से
करती आ रही है, पर कहीं भी अपना कन्धा सहलाने की
आवश्यता इसे महसूस नहीं हुई। अर्थात्, कविता
थकती नहीं, मैली भी नहीं होती। बेशक यह रुष्ट होती
है, और अपनी रुष्टता जुबानों से नहीं हरकतों
से व्यक्त करती है। यदि कविता जुबानों से कहती, तो
यही कहती कि ‘देख रे मानवीयता के दुश्मनो! सदियों की
मेरी दीर्घायु मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकी। सदियों का म्लेच्छ शासन भारत की अस्मिता
का कुछ नहीं बिगाड़ सका। पर,
तुम्हारे पाँच दशकों
के गणतन्त्र ने इसकी मौलिकता को तहस-नहस कर डाला। लगातार मुझे अपनी धारा बदलती
रहनी पड़ी।’ छायावाद के प्रवेश (सन् 1918) के बाद से, वस्तुतः हिन्दी कविता को किस-किस तरह
अपनी करवटें बदलती रहनी पड़ी है,
यह कविता के इतिहास
पर नजर डालने से स्पष्ट होता है।
अंग्रेजों के पराभव, पड़ोसी
देशों से सीमा संघर्ष की व्यथा,
मित्र-राष्ट्रों की
धोखाधडी़, भारतीय गणतन्त्र के आन्तरिक पाखण्ड आदि
को ढोती-ढोती जब कविता,
आपातकाल तक आई तो इसे
लगने लगा कि वाकई मनुष्य जाति खेमे में बँटे रहने के लिए अभिशप्त है। शोषित, शासित जनता अपने बुद्धि-बल-पराक्रम के
बूते मुक्ति पा ले,
तब भी वह निश्चिन्त
नहीं बैठेगी। फिर उसे अपने बीच में ही शोषक-शासक पैदा होगा और मुट्ठी भर पराक्रमी
लोग, समुदाय भर लोगों को शोषित-शासित बनाएगा।
बुनियादी सुविधाओं से वंचित विशाल जनसंख्या के जीवन-क्षेत्र को ये मुट्ठी भर लोग
अपना चरागाह बनाए रखेगा। गत शताब्दी के सातवें दशक में होश सँभाले कवि राघवचेतन
राय की इकत्तीस कविताओं का ताजा संकलन ‘वंचितों
का निर्वाचन क्षेत्र’
ऐसी ही स्थितियों का
दस्तावेज है।
आधुनिक चेतना सम्पन्न कवि राघवचेतन राय, वर्षोंं से विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में
निबन्ध आलोचना, कविता, टिप्पणी
आदि लिखते आ रहे हैं। अरबी कवि निसार कब्बानी तथा अंग्रेजी कवि सी.एच.सिसन की
कविताओं के अतिरिक्त विश्व के अनेक सुप्रसिद्ध साम्यवादी कवियों की कविताओं का
उन्होंने हिन्दी में सफल अनुवाद किया है। हिन्दी में इससे पूर्व उनके दो
कविता-संग्रह--‘वह गिरी बेचने वाला लड़का’ तथा ‘बहनें
अब घर में नहीं हैं’--प्रकाशित और प्रशंसित हुए हैं। कवि
राघवचेतन राय, वृत्ति से प्रशासक और स्वभाव से कवि, अर्थात् जनसामान्य की दुख-दुविधा, सुख-सुविधा के सहभोक्ता हैं; इसलिए उन्हें शासकीय महकमे से लेकर
शासित क्षेत्र तक की तमाम स्थितियों की जानकारी है। और इसीलिए देश-दुनियाँ, घर-परिवार, समाज-परिवेश, नगर-नगरपालिका, मनुष्य-जानवर, मौसम-प्रकृति, पेड़-पौधे--हर कुछ का जायजा लेने के बाद
वे तय नहीं कर पाते हैं कि जो ‘फूल तोड़े जाने पर मुस्कुराते हैं/भगवान
पर चढ़ाए जाते हुए मुस्कुराते हैं’
या जो कुत्ते ‘मृत्युपर्यन्त/कोई सवाल नहीं
पूछते/मालिक से सूफियाना मुहब्बत करते रहते हैं’ या
जो घोड़े ‘सभी दिशाओं में दौड़-दौड़कर/आदमी को पीठ
पर लिए/भविष्य के कोहरे से बाहर/सभ्यताओं का आविष्कार’ करते हैं, उनसे
जीवन जीने की कला सीखना अच्छा होगा या नहीं। संकलन की कविताओं में कवि का ‘मैं’ निज
वाचक नहीं है, समष्टिवाचक है। फूल और कुत्ते और घोड़े, यहाँ मात्र उदाहरण और उपादान नहीं हैं, यहाँ व्यंजना की विराट ध्वनि स्पष्ट
करने में कवि की कला प्रशंसनीय है। व्यथा और पीड़ा की स्थिति में भी सौन्दर्य और
मुस्कान बिखेरने, बिना शर्त, बिना किसी आशा-कामना के दूसरे पक्ष की
नेकी-बेदी पर आस्था रखकर प्रेम-भक्ति-समर्पण न्यौछावर करने; और किसी के आचरण की सम्पूर्ण समीक्षा
किए बगैर उसकी अक्षमता-अयोग्यता को भूलकर अपने बुद्धि-बल-पराक्रम के बल पर ऊँची से
ऊँची मंजिल पर पहुँचा देने की तीन स्थितियों को भी इन पंक्तियों की व्यंजना में
जगह दी जा सकती है। और तब आकर कवि के यहाँ कथन का मर्म दोहरे-तिहरे व्यंग्यार्थों
में खुलने लगता है।
कवि राघवचेतन की कविताओं की एक अन्य विशेषता यह भी है कि वे
अपनी कविताओं में दूर की कौड़ी लाने के फेरे में नहीं रहते, कहीं आस-पास बिखरे हुए उपेक्षित से विषय
उठा लेते हैं और क्षीर-सागर के सुरासुर की तरह नहीं, मात्र
एक या दो देशी गाय रखने वाले किसी अदना किसान की तरह उस दूध (विषय) को मथते रहते
हैं और अन्त में कविता निकाल डालते हैं। ‘जीवन-यापन’ उनकी कविताओं में बड़ी प्रमुखता से आया
है। जैसा कि ऊपर कहा गया,
उन्होंने केवल अपना
जीवन नहीं जीया है,
रसोइए से लेकर खाने
वाले तक, आदर पानेवाले से लेकर तिरस्कार पाने
वाले तक, बनने वाले से लेकर बनाने वाले तक के
जीवन का मर्म, सहयात्री और सहभोक्ता की तरह जाना है और
अपनी कविताओं में जीवन की दुविधाओं को अंकित किया है। ‘साम्यवाद’ जैसी
व्यवस्था उनकी चेतना में हरदम कौंधती रहती है, इसलिए
जीवन यापन की विसंगतियाँ उन्हें बेतरह आहत करती रहती हैं। ‘जीना जीते हुए’ कविता में रसोइया सोचता है कि ‘अच्छे मौसम का/महूरत नहीं होता, बेखबर हैं घटनाएँ/तारतम्य से/जो बारात
नहीं चढ़ती/मोरी के पास/खाने की प्रतीक्षा में/सड़क का कुत्ता/हलवाई के पास...’
इस कुत्ते के नसीब और इसकी हरकतों पर चिन्ता और पीड़ा भी उस
व्यक्ति को होती है,
जो स्वयं वंचितों में
से है, शादी के जश्न की तमाम रंगीनियों से
वंचित है, पण्डाल में रात काट लेने को अभिशप्त है, खुद वंचित है, इसलिए वंचितों की पीड़ा जानने-समझने को
तैयार है। कुल मिलाकर संकलन की तमाम कविताओं के केन्द्र में वंचितों के जीवन की
त्रासदी ही है। ‘डाकिया’ कविता
में तो ग्लोबलाइजेशन के बाद की स्थिति को निशाना बनाकर ऐसा तमाचा जरा गया है कि
सन्नाटे की स्थिति आ गई है। संकलन के अन्तिम भाग में दो व्यक्तिपरक कविताएँ हैं--‘महाश्वेता देवी’ और ‘अली
सरदार जाफरी।’ दोनों ही कविताओं में भारतीय साहित्य की
इन दो विराट शख्सियत की प्रतिबद्धताओं और विचारधाराओं को रेखांकित करते हुए
मानवीयता के मूल धर्म और मर्म की तरफ इशारा किया गया है। ‘वे जानती हैं पानी और/परछाइयों का/मर्म’ और ‘उन्हें
सब मालूम था/बुद्ध की इतनी बड़ी प्रतिमा/अफगानिस्तान में कैसे है?/यह उन्हीं को मालूम था/संगम में सरस्वती
कहाँ है’ जैसे पद्यांश में कवि ने सूचना मात्र के
निमित्त ये बातें नहीं कही हैं। ‘पानी’, ‘बुद्ध’, ‘संगम’, ‘सरस्वती’ जैसे शब्द इन कविताओं में मिथकीय
प्रतीकों के सहारे विराट व्यंजना ध्वनित करते हैं।
सूचना और खबरधर्मी कविताएँ सामान्यतया सपाट और बयानबाजी जैसी
लगती हैं। पर, इन कविताओं के जरिए यह बात कवि राघवचेतन
के पक्ष में जाती है कि सूचनाधर्मी होने के बावजूद ये कविताएँ बयानबाजी नहीं हैं।
यहाँ शब्दों और वाक्यों के अनुगुम्फन में कवि का चातुर्य जगह-जगह दिखता है। पर एक
बात, जो आहत करती है, वह यह कि ये कविताएँ किसी लगनशील और
परिश्रमी किसान के खलिहानों में फसलों के उस ढेर की तरह लगती है, जिसमें से अभी दाने और भूसे को अलग करना
बाकी था। विचारों और व्यथाओं के झुण्ड में कई बार कविताएँ दब गई हैं, छिप गई हैं। ‘आज भी रात क्यों चुप रहे’, ‘केवल सिर्फ वही उसे शान्ति’ जैसी पंक्तियों में भाषाई सम्पादन की
जरूरत तो रह ही गई है,
पर असली कसर तो कथन
के सम्पूर्ण प्रभाव पर है,
जहाँ कवि की
यथार्थानुभूति और अभिप्रेत की ध्वनि कथन-कौशल के कारण मद्धम पड़ गई है।
हालाँकि कविता सुनने-पढ़ने-समझने वालों के कान बड़े तेज होते है।
वे बड़े आराम से कविता की ध्वनियों को सुन-समझ लेते हैं। यही कारण है कि ‘उजाड़ घरों के लोग’, ‘बड़े छोटे लोग’, ‘समझदार लोग अखबार नहीं पढ़ते’, ‘जो जमीन पर उड़ा हो’ आदि कविताओं की ध्वनियों को और उन
ध्वनियों की तीक्ष्णताओं को बड़ी आसानी से सुना और बड़ी गम्भीरता से महसूस किया जा
सका। पर भोथरी संवेदनाओं से परिपूर्ण आज के मौसम में क्षीण ध्वनि के छिप जाने अथवा
अलक्षित-उपेक्षित रह जाने का खतरा बना हुआ रहता है। भूमण्डलीकरण के बाजारूपन ने इस
समय, हमारे समाज और सामाजिक पद्धति को जिस
कदर निर्मम बनाया है,
जन-जन की श्रवणशक्ति
को क्षतिग्रस्त किया है,
इसमें ध्वनियाँ नहीं, धमाका ही कारगर हो सकता है। आज हम जिस
समय में जीवन-यापन कर रहे हैं,
उसमें उस लता को
देखकर हमें क्रोध से तमतमाने और चीत्कार करने की आवश्यकता है, जो ‘लता
लोगों के पैरों तले/रौंदी जाती है/औरतें उन्हें काट/जलावन बनाती हैं/फिर भी उसका
अन्त नहीं होता/न ऊपर से न नीचे से’
पर होता कुछ और है।
मिल की ओर गन्ना लदी गाड़ी को खींचकर ले जाते हुए बैलों को देखकर हम सोचते हैं कि ‘आफत है/किनारे वाले बैल की/जिसे अपनी ओर
के पहिये को/सड़क की ओर खींचे रहना होता है/यह सन्तुलन बनाए रखने की/अतिरिक्त यातना
कहते हैं जिसे/परम दुख/हममें से अधिकांश का हाल/आज यही है...(सोचते चलते हुए)।’
इन कविताओं के सर्जक को आज के इस माहौल से त्रस्त गरम-दल यदि
पूछे कि दर्द की हद पार कर जाना ही जब दवा हो जाती है, तो आप इन स्थितियों पर मात्र दुखी और
परम दुखी कब तक होते रहेंगे,
आगे की बात कब
सोचेंगे, तो शायद कवि को चुप रह जाना पड़ेगा।
यह दीगर बात है कि कवि तलवार नहीं चलाता, कलम चलाता है। पर यह बात भी तय है कि
कवि की कलम तलवार रखने वाली भुजाओं में ताकत भरती है। शायद कवि राघव चेतन के अगले
संकलन से हम इस ताकत की उम्मीद कर पाएँगे।
--वंचितों का निर्वाचन
क्षेत्र/राघव चेतन राय/प्रवीण प्रकाशन/ पृ 72/रु. 100.00
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