हिन्दी व्यंग्य का आइना
(श्रीलाल शुक्ल और प्रेम जनमेजय द्वारा सम्पादित व्यंग्य संग्रह ‘हिन्दी हास्य-व्यंग्य संकलन’)
युवा व्यंग्यकार सुभाष चन्दर द्वारा सम्पादित ‘बीसवीं सदी की चर्चित व्यंग्य रचनाएँ’ एक सौ नौ व्यंग्यकारों के एक-एक व्यंग्य
का संकलन है। एक साथ इतनी व्यंग्य रचनाओं का संचयन इससे पूर्व कभी नहीं हुआ। सन् 1997 में श्रीलाल शुक्ल और प्रेम जनमेजय के
सम्पादन में नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित संग्रह में ‘हिन्दी हास्य-व्यंग्य संकलन’ में भारतेन्दु युग से लेकर आज तक के
उनचास प्रतिनिधि व्यंग्यकारों की रचना संकलित हुईं। उस संकलन की कुछ रचनाएँ भी इस
संकलन में सम्मिलित की गई हैं।
उल्लेखनीय है रचनाकार पर सवार पाठकों को लुभाने का लोभ व्यंग्य
को हास्य अथवा चटपटे चुटकुले में परिणत कर देता है, तो
दूसरी तरफ चिन्तन-मन्थन का बोझ उसे ऊब से भरा हुआ भाषण बना देता है। अर्थात्, भारतेन्दु युग के बाद की सभी पीढ़ियों से
गुजरते हुए आज हिन्दी व्यंग्य जहाँ पहुँच गया है, वह
हिन्दी के लेखक और पाठक--दोनों के सम्मिलित प्रयास का परिणाम है। श्रीलाल शुक्ल के
अनुसार व्यंग्य ‘एक सुशिक्षित मस्तिष्क की देन है और
पाठक के स्तर पर भी सुशिक्षित प्रतिक्रिया की माँग करता है। वह पाठक को गुदगुदाने
के लिए नहीं, बल्कि किसी विसंगति या विडम्बना के
उद्घाटन से उसके सम्पूर्ण संस्कारों को विचलित करने की प्रक्रिया है।... अतिशयोक्ति, विडम्बना, सन्दर्भशीलता, पैरोडी, अन्योक्ति, आक्रोश-प्रदर्शन, ऐलिगरी, फन्तासी
आदि इसके प्रमुख उपादान हैं। व्यंग्य के पीछे लेखक का निश्चित चिन्तन तथा
दृष्टिकोण होता है जिसका आधार लेकर वह स्थिति विशेष को अपनी प्रखर आलोचना का
लक्ष्य बनाता है।’
इन विशेषताओं से युक्त ‘बीसवीं
सदी की चर्चित व्यंग्य रचनाएँ’
में भारतेन्दु युग के
दो महत्त्वपूर्ण व्यंग्यकार प्रताप नारायण मिश्र तथा भारतेन्दु की रचना नहीं होने
का तर्क शायद यह हो कि उनका देहान्त उन्नीसवीं शताब्दी में ही हो गया। परन्तु
गुलाब राय, जी.पी.श्रीवास्तव, हरिशंकर शर्मा, निराला, कुट्टिचातन, नागार्जुन, अमृत राय, धर्मवीर
भारती, विद्यानिवास मिश्र, शान्ति मेहरोत्रा, सेरा यात्री, नामवर सिंह, हरिमोहन झा, सर्वेश्वर, रघुवीर सहाय, विजयदेव नारायण साही जैसे कुछ
महत्त्वपूर्ण व्यंग्यकारों को भी इसमें सम्मिलित किया गया होता तो हिन्दी व्यंग्य
के ग्राफ की मुकम्मल तस्वीर देने में यह एक ही पुस्तक पर्याप्त होती। इन नामों में
से कुछ तो ऐसे हैं,
जो व्यंग्य ही लिखते
रहे हैं और कुछ ऐसे हैं जो ख्यात तो अन्य विधा के कारण हैं, पर कुछेक श्रेष्ठ कोटि के व्यंग्य भी
उन्होंने लिखे। इसलिए व्यंग्य के विकास में उनके समर्थन और योगदान की भूमिका को
स्वीकृति देने हेतु यह उचित होता। हर संकलनकत्र्ता की कोई न कोई मजबूरी होती है।
पर जो प्रस्तुत है,
उसकी गुणवत्ता की परख
से, कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि इस
संकलन से हिन्दी व्यंग्य के विस्तृत फलक का चित्र सामने आया है। यद्यपि इसमें कई
ऐसे व्यंग्यकारों को भी शरीक किया गया है, जो
अभी अपने निर्माण काल की प्रारम्भिक अवस्था में हैं, उन्हें
अभी परिपक्व होने देने की आवश्यकता थी, और
कुछ ऐसी रचनाएँ भी शामिल हैं,
जो नहीं शामिल करने
लायक थीं। यद्यपि सम्पादक ने स्वयं इस बात का जिक्र अपने वक्तव्य में किया है।
भारतेन्दु युग से प्रारम्भ हुआ गद्यात्मक व्यंग्य आज जिस मुकाम
पर है उसे जानने के लिए स्वातन्त्र्योत्तरकाल में प्रकाशित व्यंग्य पर गहरी नजर
डालने की आवश्यकता है। इस क्रम में हरिशंकर परसाईं, श्रीलाल
शुक्ल, शरद जोशी, रवीन्द्रनाथ
त्यागी, प्रेम जनमेजय, हरीश नवल, बालेन्दु
शेखर तिवारी, ज्ञान चतुर्वेदी...कई प्रसिद्ध
व्यंग्यकारों के नाम लिए जा सकते हैं, जिनके
अलग-अलग और कई-कई संकलन प्रकाशित और प्रशंसित हैं। आजादी से पूर्व व्यंग्य की
स्थिति अच्छी और मुखर तो अवश्य रही है, पर
अलग से यह विधा अपना वजूद कायम नहीं कर पाई इसका मूल कारण शायद यह रहा हो कि
भारतेन्दु युग में और द्विवेदी युग में और उसके बाद के समय तक भी व्यंग्य एक शिल्प
के रूप में कथा, कविता, उपन्यास
आदि में इस्तेमाल होता रहा। इसी में कभी कभी कुछ रचनाकारों द्वारा व्यंग्य लेख भी
लिखा जाता रहा। युग की विसंगतियों पर उपहासात्मक नजर, धिक्कारात्मक व्यवहार, प्रहारात्मक भाषा के साथ तीक्ष्ण
प्रतिक्रिया व्यक्त करना ही तो व्यंग्य है। व्यंग्य ही ऐसी एक प्रविधि है, जहाँ रचनाकार स्वयं अपनी, अपने रिश्तेदारों की और स्वयं अपने ही
क्रिया-कलापों की धज्जियाँ उड़ाने की व्यवस्था कर लेते हैं और फिर स्व से समष्टि का
विस्तार देकर इसमें समाज-सत्य की नग्नता दिखा देते हैं। स्वातन्त्र्योत्तर काल के
भारतीय समाज की जो दशा बनी वह स्वतन्त्रता पूर्व की दशा से अपेक्षाकृत अधिक विकृत
और कलुषित होने लगी;
इस काल में उदित और
स्थापित रचनाकारों को शायद तब कथा,
कविता, उपन्यास के फ्रेम में इस कलुष और इस
विकृति को सम्पूर्णता में रख पाना सम्भव नहीं लगा होगा। फलतः कथा-कविता-उपन्यास के
अन्तरंग तत्त्व के साथ-साथ स्वतन्त्र रूप से भी व्यंग्य का मुखर स्वरूप विकसित
हुआ। ‘बीसवीं सदी की चर्चित व्यंग्य रचनाएँ’ में संकलित व्यंग्य, व्यंग्य के इसी उतार-चढ़ाव और
शैथिल्य-तीक्ष्णता का ग्राफ प्रस्तुत करता है। संकलन की करीब-करीब रचनाएँ आज के
भारत की बेकारी, बेगारी, भ्रष्टाचार, बेईमानी, खुदगर्जी, अनैतिकता, लूट, शोषण, राजनीतिक
विकृति, सामाजिक-पारिवारिक षड्यन्त्र, बौद्धिक पाखण्ड, धर्मान्धता, धोखा आदि का जीता-जागता नमूना है, जहाँ व्यंग्यकारों ने इन स्थितियों और
उसके नुमाइन्दे की बखिया कभी अपने सहारे तो कभी रिश्तेदारों या दोस्तों के बहाने, उधेड़ी है।
कई विधाओं के तोड़-फोड़ से विकसित हुए व्यंग्य के महत्त्व को
प्रस्तुत करने में इस संकलन का अभूतपूर्व योगदान है। यद्यपि, संकलनकत्र्ता ने बीसवीं सदी के व्यंग्य
परिदृश्य पर लेख लिखते हुए कई ऐसी बातें कह डाली हैं, जिस पर मतामत अथवा कहिए कि विवाद भी
उठाए जा सकते हैं, पर उन विवादास्पद बातों को नजरअन्दाज
करके चलें तो यह भी बात सामने आती है कि इस आलेख में संकलनकत्र्ता ने व्यंग्य की
पूर्व पीठिका पर भी यथासाध्य गम्भीरता से चर्चा की है। हर व्यंग्य के अन्त में
रचनाकार का संक्षिप्त परिचय और तस्वीर भी पाठकों के लिए कम उपयोगी नहीं। कुछ
कमियाँ अवश्य हैं, पर ढेरो अच्छाइयों के साथ प्रस्तुत इस
पुस्तक के संकलक सुभाष चन्दर बधाई के हकदार हैं।
-बीसवीं सदी की
व्यंग्य रचनाएँ/सुभाष चन्दर (सं)/भावना प्रकाशन/हिन्दुस्तान, 24 मई, 2000
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