अतुल्य भारत की कृषि-संवेदना
विज्ञापन जुटाने का हुनर हो, तो
हिन्दी में पत्रिका निकालने का काम बहुत आसान हो गया है, जोखिममुक्त धन्धा भी। यही कारण है कि इस
समय हिन्दी में पत्रिकाओं की भरमार है। सौभाग्य से साहित्य, संस्कृति और कला की समग्र मासिक पत्रिका
‘कथादेश’, पत्रिकाओं
की इस भीड़ से अलग खड़ी है। वैसे तो यह पत्रिका बत्तीस वर्ष पुरानी है, पर विगत सोलह वर्षों से निरन्तर छप रही
है। कुशल सम्पादक हरिनारायण और वरिष्ठ कथाकार अर्चना वर्मा के सम्पादन सहयोग से यह
पत्रिका लगातार अपनी सार्थक उपस्थिति का अहसास हिन्दी पाठकों देती रही है। विमर्श
के अपने स्थायी स्तम्भ से इस पत्रिका ने साहित्य और संस्कृति के ज्वलन्त मसलों पर
लगातार संवाद किया है। स्त्री विमर्श और दलित विमर्श जैसे विषय को हिन्दी में
आन्दोलनात्मक रुख अपनाने में इस पत्रिका का महत्त्वपूर्ण योगदान है--हिन्दी के
पाठक इस बात से भली-भाँति परिचित हैं। अभी किसान जीवन के यथार्थ पर एकाग्र इसका
ताजा अंक, मई 2012
प्रकाशित हुआ है। कहना मुनासिब होगा कि इस अंक ने भी अपनी स्थापित परम्परा के
अनुसार पाठकों को किसान जीवन और कृषि संस्कृति पर विचार करने के लिए फिर से
प्रेरित किया है। पत्रिका के सामग्री संचयन और विषय उपस्थान के कौशल को देखकर सुबुद्ध
अतिथि सम्पादक सुभाषचन्द्र कुशवाहा की सुनिश्चित विचार पद्धति झलकती है। किसान
जीवन की दुर्दशा का संकेत वैसे तो लम्बे समय से खबरिया चैनल और दैनिक अखबार देते
रहे हैं, पर यह पत्रिका उन खबरों से बहुत आगे आकर
लोगों को व्यवस्था के इस घटाटोप में मूल समस्या की तरफ चिन्तातुर कर रही है।
इस पत्रिका के सम्पादकीय पृष्ठ में कृषि-कर्म के प्रस्तुत
आँकड़े एक तरफ भौंचक करते हैं,
तो दूसरी तरफ
हृदय-विदारक करुणा उत्पन्न करते हैं। सरकारी सूचना है कि वर्ष 2010 में भारत के 26 राज्यों के 15000 किसानों ने आत्महत्या कर ली। त्रासदी तब
और तीक्ष्ण हो जाती है कि जब कहा जाता है कि इसका पता लगाने के लिए संयुक्त संसदीय
समिति के गठन का प्रस्ताव दिया गया है। दो बरस सर्वेक्षण में लगे तो कुछ बरस इसमें
भी जाए!
तथ्य है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने भारत की कृषि संस्कृति
को तंग-तबाह किया है। यहाँ के कृषि अनुसन्धान केन्द्रों की सूझ-बूझ को धता बताकर
अपने हाइब्रिड बीज,
रासायनिक खाद और
कीटनाशकों का व्यापार बढ़ाने के लिए अपने डैने फैलाए हैं। किसान-जीवन को इस क्रूरता
का शिकार बनाया है;
परम्परागत बीज
संरक्षण और उर्वरक तैयार करने की पद्धति को रोककर कृषि उपादानों के लिए उन्हें
पराश्रित बनाया है।
अमेरिका की वालमार्ट और मोंसेटो कम्पनियों की विषाक्त साँसों
से झुलसे हुए भारतीय कुटीर उद्योग और लघु व्यवसाय के कारण भारत की लोक-कला, पारम्परिक हुनर आदि तो आहत हुआ ही, यहाँ की संस्कृतियों पर भी इसका घातक
हमला हुआ। अब कृषि कर्म को भी पंगु बनाने की निरन्तर कोशिश चल रही है। इस अंक के
सम्पादकीय वक्तव्य में इन प्रसंगों का विवचेन जितनी सूक्ष्मता से हुआ है, रोंगटे खड़े हो जाते हैं, और व्यावसायिक समझौते में हमारी उत्साही
सरकारी व्यवस्था अपने ही उस्तुरे से अपनी नाक काटने को अग्रसर है।
पत्रिका के साक्षात्कार खण्ड में भारत के दो महान साहित्यकार
गुरदयाल सिंह और विवेकी राय से बातचीत और कृषि विमर्श में मैनेजर पाण्डेय, प्रणय कृष्ण, गोरेलाल चन्देल, नरसिंह दयाल, सुमन सहाय, शम्भु गुप्त के आलेख से इस अंक का
कृषि-विमर्श व्यापक हुआ है। यह विचार-पद्धति भारतीय किसान जीवन की तबाही के
बुनियादी सवालों पर सोचने के लिए मजबूर करती है। प्रश्नकत्र्ता विनोद शाही और
मन्धाता राय के सवाल जितने ज्वलन्त हैं, गुरदयाल
सिंह तथा विवेकी राय के जवाब उतने ही तल्ख और भारतीय कृषि के तात्त्विक परिदृश्य
पर केन्द्रित। भारतीय कृषि की आन्तरिक व्यवस्था को यहाँ स्पष्टता से समझा जा सकता
है। वाकई भारत के किसान जीवन की समस्या अनन्त है, और
हर समस्या अपने उद्भव में ही अगली समस्या उत्पन्न करने का संकेत पा लेती है। बीते
तीन दशकों की किसानी-संस्कृति के मुआयने में स्पष्ट दिखता है कि प्रकृति और
वातावरण से लेकर मनुष्य,
विज्ञान और नसीब तक
ने उन्हें हतप्रभ किया है। निरन्तर रसायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों के उपयोग से बंजर होती धरती, नीचे होते जा रहे जलस्तर, बाढ़-सूखा, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, असमय आँधी, तूफान, बारिस, उन्नत बीज के अभाव, पशुधन की मृत्यु...सभी तरह की आपदाओं के
कारण फसल का आहत होना;
उद्योगीकरण, मण्डीकरण आदि के कारण उसके क्षतिग्रस्त
उत्पाद का समुचित विपणन न होना,
उनके जीवन में
असन्तोष और विपन्नता बढ़ाता जा रहा है। फलस्वरूप तनाव और चिन्ता की अवस्था में
पारिवारिक कलह बढ़ता जा रहा है,
अपनी समस्याओं से
निजात पाने के बदले वह लगातार दूसरी मुसीबतों में फँसता जा रहा है। दोनों
साक्षात्कार इन समस्याओं को उजागर करने के साथ-साथ घड़ियाली आँसू बहाने वाले
समकालीन पाखण्ड पर भी ऊँगली रखते हैं।
प्रो. मैनेजर पाण्डेय ने अपने लेख में सही कहा है कि किसानों
की तबाही, बर्वादी और आत्महत्या का मुख्य कारण उन
पर लदे कर्ज का बोझ है। उनकी स्पष्ट टिप्पणी है कि आज की महाजनी सभ्यता कई अर्थों
में अंग्रेजी राज की तुलना में कहीं अधिक चालाक और खूँखार है। जितनी बड़ी संख्या
में इधर किसानों ने आत्महत्या की है, उतनी
अंग्रेजी राज में भी नहीं की थी। ‘शाइनिंग इण्डिया’ और ‘इनक्रेडिबल
इण्डिया’ के नारे देने की व्यवस्था पर वे बहुत ही
घातक व्यंग्य करते हैं कि इस मामले में भारत अपूर्व और अतुल्य तो है कि विगत बीस
वर्षों में इतनी बड़ी संख्या में भारत के किसानों की आत्महत्या पूरे मानव समाज के
लिए इतिहास है। प्रो. पाण्डेय ने किसानों की दुर्दशा को पूरे साहित्यिक परिदृश्य, सामाजिक परिस्थिति और भिन्न-भिन्न
चिन्तकों के बरक्स रखकर भी देखा है। भारत में विश्वव्यापी पूँजीवादी, साम्राज्यवादी देशों के आग्रहों और
दबावों के अधीन पूँजीवादी विकास की प्रक्रिया जिस तरह उन्मादित है, उसकी जड़ों की ओर इशारा करते हुए
उन्होंने साफ कहा है कि अपने प्रारम्भिक दौर से ही पूँजीवाद कृषि और कृषकों का
शत्रु बना रहा है। कर्ज के बोझ तले दबे हुए किसान अपने टूटे मनोबल और टूटे
स्वास्थ्य के कारण हर तरह से पस्त रहते हैं। फसल की निरन्तर बर्वादी के कारण कम
उपज, घर आए दानों के विपणन में फिर से नुकसान, दायित्वों और औपचारिकताओं की पूर्ति से
बढ़ती गरीबी ...सब कुछ मिलाकर देखें तो कृषि कर्म में किसानों को घाटा पूँजीपतियों
के लिए स्वास्थ्यप्रद होता है। वे प्रेमचन्द की कहानी ‘सवा सेर गेहूँ’, ‘बलिदान’ आदि
में तो इस स्थिति को देखते ही हैं,
गोदान के होरी की
आत्महत्या का संकेत भी इसी दिशा में देखते हैं। गाँवों में तो बैल बेचकर, खेत बेचकर आज भी कर्ज निपटाया जाता है; शादी, श्राद्ध, मुण्डन किए जाते हैं, समाज तथा बिरादरी द्वारा सुनाए गए फैसले
का सम्मान किया जाता है। अपने इस आलेख के माध्यम से प्रो. पाण्डेय ने उन बिन्दुओं
की ओर भी संकेत दिया है,
जिसके सहारे किसानों
की आत्महत्या को व्यापक रूप से देखा जा सकता है। संचार माध्यमों में विगत कुछ
वर्षों से खूब धूम मची है,
पर प्रो. पाण्डेय की
राय सही है कि किसान जीवन की इस दुर्दशा की जानकारी का अभी हिन्दी साहित्य में
समुचित संज्ञान नहीं लिया गया है। क्योंकि हिन्दी साहित्य में अभी तक वैसी कहानी
या कविता नहीं लिखी गई जो पाठकों को आन्दोलित करे। माक्र्स और जाक पोडशे ने
आत्महत्या को एक बीमार समाज के लक्षण के रूप में देखा है। वाकई, ब्रह्म और जीव की दिशा से भी देखना शुरू
करें, तो रोंगटे खड़े हो जाएँगे कि जो मनुष्य
एक चींटी तक की हत्या के दोष से बचना चाहता है, वह
अपनी ही हत्या कर लेता है। आखिरकार इस निर्णय पर पहुँचने और ऐसा जघन्य काम करने से
पहले उसे किन यातनाओं से गुजरना पड़ा होगा! निर्णय से पहले की उसकी पीड़ा का दंश
कितना घातक रहा होगा!
प्रणय कृष्ण ने कुछ आँकड़ों और तथ्यों के सहारे विदर्भ के
किसानों की समस्याओं की वास्तविकता के सहारे बड़ी सूक्ष्मता से इसे देखा है।
उन्होंने विसंगतियों और विरोधाभासों से जूझ रहे भारत के उस विकृत चेहरे की तरफ खास
कर संकेत दिया है, बल्कि व्यंग्य किया है कि जो भारत
विकसित परमाणु शक्ति कहलाता है,
आई. टी. महाशक्ति, और उभरता हुआ एशियाई शेर कहलाता है, उसी भारत की दो तिहाई आबादी कृषि कर्म
पर निर्भर है, और उसकी दशा लगातार बदतर होती जा रही
है। इधर आत्महत्या कर रहे किसानों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है, उधर अनाज-पानी के देवताओं और भारत भाग्य
विधाताओं को इसके लिए कोई बेचैनी नहीं है। कृषि में निरन्तर नुकसान देखकर लोग
दूसरे-दूसरे पेशे में पलायन कर रहे हैं। सत्यापित आँकड़ों के अनुसार सन् 1991-2001 के दस वर्षों में 80 लाख किसानों ने खेती से मुँह मोड़ लिया।
हैरत की बात है कि इन सबके बावजूद हमारे यहाँ कोई खास चिन्ता का संकेत नहीं दिखता।
विश्व व्यापार संगठन के तहत कृषि के बारे में जो समझौता हुआ, उसमें व्यापार उदारीकरण को प्रश्रय दिया
गया। प्रणय कृष्ण साफ-साफ मानते हैं कि विदर्भ और तेलंगाना में कपास उत्पादकों की
ऋणग्रस्तता और आत्महत्याओं को खास तौर पर व्यापार उदारीकरण का विनाशकारी नतीजा
समझा जाना चाहिए।
प्रो. गोरेलाल चन्देल ने प्रागैतिहासिक, समाजशास्त्रीय एवं अर्थशास्त्रीय
विश्लेषण परक लेख में कृषि संस्कृति के अर्थशास्त्र को लोक-संस्कृति के सन्दर्भ
में देखा है। उन्होंने पूरे सन्दर्भ में लोक-जीवन से कृषि संस्कृति के सम्बन्ध को
रेखांकित किया है और सामन्ती संस्कार के कारण किसान, मजदूरों
के अभाव और जीवन की भयावहता का संकेत पुराने समय में भी दिखाया है। उस दौर में
किसानों के शोषण का सबसे कारगर हथियार धर्म को बनाया जाता था। नरसिंह दयाल ने अपने
लेख में भारतीय कृषि की दशा-दिशा को हरित-क्रान्ति के दौर में भारत की वैज्ञानिक
संस्थाओं और निकायों पर अमेरिकी प्रभाव और बहुराष्ट्रीय कृषि व्यापार समझौते के
सन्दर्भ में देखा है। सुमन सहाय ने बीज और फसल से सम्बन्धित विवाद और बर्वादी के
मद्देनजर जी.एम. तकनीक पर आगे बढ़ने से पहले व्यापक बहस की जरूरत को रेखांकित किया
है। प्रसिद्ध समालोचक रवि भूषण ने प्रेमचन्द के साहित्य में किसान जीवन के चित्रण
और स्वाधीनता पूर्व के भारतीय किसान की जीवन-दशा को सूक्ष्मता से देखा है। भारत के
नागरिक जीवन, कृषि संस्कृति और साहित्यिक विधाओं के
आपसी सम्बन्ध को जानने के लिए यह लेख आधार वक्तव्य की तरह उल्लेखनीय है। प्रेम
कुमार मणि ने फणीश्वरनाथ रेणु के साहित्य का विश्लेषण करते हुए भारत की ग्रामीण
संस्कृति और कृषि कर्म के जीवन्त और ज्वलन्त मसलों को रेखांकित किया है। क्षमाशंकर
पाण्डेय ने महावीर प्रसाद द्विवेदी के यहाँ, अवधेश
ने नागार्जुन के यहाँ,
तरसेम गुजराल ने
जगदीश चन्द्र के यहाँ चित्रित भारतीय कृषि एवं कृषकों की वास्तविक छवि और साहित्य
के साँस-साँस सम्बन्ध को बड़े ममत्व से विश्लेषित किया है। राजेश जोशी, राजेन्द्र कुमार, निलय उपाध्याय, दिनेश कुशवाहा, बल्ली सिंह चीमा की कविताएँ, शम्भु गुप्त का अनुशीलन इस अंक को
सार्थकता प्रदान करता है। महत्त्वपूर्ण पक्ष यह है कि इस अंक में संकलित सभी
कहानियाँ, कविताएँ, फिल्म
चर्चा, विविध प्रसंग, यहाँ तक कि आवरण-चित्र और रेखांकन तक
में किसान-जीवन की विडम्बनाओं के ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनीति, आर्थिक
परिप्रेक्ष्य को रेखांकित किया गया है। भारत के नागरिक परिदृश्य के इतने बड़े और
इतने महत्त्वपूर्ण हिस्से में लोग जिस संशय, आतंक
और त्रासदी के साथ जी रहे हैं या मर रहे हैं या आत्महत्या कर रहे हैं, उस पूरे प्रसंग पर हमारे भाग्य विधाता
जिस बेखबरी और बेदिली से गुलछर्रे उड़ा रहे हैं, यह
अंक निश्चय ही प्रजाजनों को उतना उद्वेलित कर देगा, इसमें
प्रस्तुत आँकड़े और जीवन-यथार्थ लोगों को इस तरह जाग्रत कर देगा कि यह मसला आन्दोलनात्मक
रुख की ओर चल पड़ेगा।
कृषि कौशल प्रबन्धन
की समझ,
अन्तर्राष्ट्रीय
संगोष्ठी पत्रिका, 24-26 अगस्त 2010
किसानी की विडम्बना, जनसत्ता, रविवार, 17 जून, 2012, नई दिल्ली
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