भरोसे की बलि
(श्यौराज सिंह बेचैन का कहानी संग्रह 'भरोसे की बहन')
श्यौराज सिंह बेचैन की दस कहानियों का संकलन भरोसे की बहन एक
अर्थ में भारतीय समाज के पिछले तीन दशकों का समाज-शास्त्र है; जहाँ धर्म, धर्माचरण, नीति, नैतिकता, पेशागत
शिष्टाचार, मानवीयता, सम्बन्ध-मूल्य...सबके
सब निरर्थक हो गए हैं। नागरिक-जीवन,
सामाजिक-परिवेश, शासन-व्यवस्था और जन-सरोकारों के
ताने-बाने में आदर्श स्थिति का कोई भी मानक अब बचा नहीं रह गया है। जनजीवन के सारे
ही क्रिया-व्यापार और उक्ति,
वक्तव्य अब सन्देह
उत्पन्न करते हैं। धर्माधिकारी,
शासन-तन्त्र के
प्रतिनिधि और राजनीति के ठेकेदारों की बात तो दूर, प्रेम
डगर के पथिक और शिक्षा के सिपाही भी अपने आचरण और व्यवहार को कलंकित कर बैठे हैं।
ऐसे समाज की इन कहानियों का विवेचन समाज-शास्त्र और मनुष्य की मनोभूमि की कसौटी पर
ही सम्भव हो सकता है।
विगत तीन दशकों में साहित्यिक विमर्श के लिए जितने भी
केन्द्रीय विषय उभरे हैं,
उनमें दलित-विमर्श
सर्वप्रमुख है। हिन्दी साहित्य में दलित-विमर्श ने जब से सिर उठाया है, सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में
दलितों के साथ दमन-नीति उससे पहले भी बदस्तूत जारी थी और कागजी तौर पर दलितों के
उत्थान हेतु उन दिनों भी आश्वासन के बताशे बाँटे जाते थे। यदा-कदा साहित्य में भी
इन बातों का जिक्र होता था,
पर विगत तीन दशकों से
हिन्दी साहित्य में इस मसले पर गम्भीरतापूर्वक विचार-विमर्श होने लगा है। लिहाजा
राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था थोड़ी चाक-चौबन्द अवश्य हुई है। पर वास्तविक धरातल पर
दलित वर्ग एक विचित्र भँवर के गिरफ्त में आ गया है। उसके उत्थान हेतु व्यवस्थाओं
के ऐसे सब्जबाग गढ़े गए हैं,
जिसके बल पर उसे एक
ओर सावन के दृगान्ध बनाने की साजिश चल पड़ी, दूसरी
ओर उसकी सुविधाओं के प्रचार से उसके प्रतिपक्ष में ईष्र्या की ऐसी मीनार खड़ी होने
लगी, जिससे समाज में मानव-द्रोह उत्पन्न हो
गया। इधर अपने हिस्से की सुविधाओं से वंचित दलित समुदाय प्रतिपक्ष में खडे़ लोगों
की हिकारत सुन-सुन कर ठगे से रह गए हैं। इस समय हिन्दी में दलित चिन्तन की दिशा
में कई सम्मानित लोग पर्याप्त तल्लीनता से क्रियाशील हैं, पर कथाकार श्यौराज सिंह बेचैन का
दलित-चिन्तन अपनी गहरी संवेदना,
सूक्ष्म
परीक्षण-शक्ति और ईमानदार सोच के कारण इस दौर के अन्य तमाम चिन्तकों से भिन्न है।
सचाई है कि बीते दिनों स्त्री-विमर्श और दलित-प्रश्न पर भारतीय साहित्य-धारा में
गम्भीरता से विचार होने लगा है,
और उन तमाम चिन्तनों
का समाज पर यत्किंचित प्रभाव भी पड़ रहा है। पर यह भी सच है कि इन दोनों मसलों पर
सोचते-लिखते समय कुछ लोग विषय के मूल में जाने के बजाय, प्रतिपक्ष का विरोध करना अपना धर्म समझ
लेते हैं, फलस्वरूप वे रास्ते में कई बार भटकते
हुए दिखाई देते हैं। इस प्रसंग में श्यौराज सिंह बेचैन का शीर्षक गौरतलब है--मूल
खोजो विवाद मिटेगा,
अन्याय कोई परम्परा
नहीं। अपने में परिपूर्ण और सुविचारित यह शीर्षक, लेखक
के लक्ष्य-सन्धान की एकाग्रता को रेखांकित करता है। मैं समझता हूँ श्यौराज का लेखन
उन भटके हुए लोगों के लिए पथ-प्रदर्शक का भी काम करेगा, क्योंकि उनका दलित-चिन्तन, व्यवस्था की विसंगतियों की जड़ तलाशता है, शिकारी श्वानों को खदेड़ने और गाली देने
में अपनी ऊर्जा और समय का अपव्यय नहीं करता।
श्यौराज के नायक/नायिकाओं के समक्ष व्यवस्थाजन्य विसंगतियाँ
कई-कई स्तरों पर सामने आती हैं,
पर उनके पात्र अतिक्रान्तिकारी
की तरह कहीं अतिरिक्ति उत्साह में अपना सामथ्र्य जाया नहीं करते। वे सब के सब समय
की नब्ज को बड़ी गभ्भीरता से पहचानकर आगे बढ़़ते हैं। क्योंकि उनके समक्ष केवल
समाज-व्यवस्था का दलित विरोधी वातावरण ही सीधे नहीं खड़ा है, समकालीन राजनीतिक और शासकीय व्यवस्था का
दुर्दमनीय व्यूह बड़ी मायावी शक्ति के साथ उपस्थित है। कई बार तो उन्हें अपने घर
में ही अपने रखवालों से साबका पड़ता है। इस संकलन की तीन महत्त्वपूर्ण कहानियाँ
भरोसे की बहन, होनहार बच्चे और शोध प्रबन्ध का पूरा
रचाव इस तथ्य को प्रमाणित करता है।
श्यौराज की कहानियाँ, खासकर
भरोसे की बहन कहानी उक्त परिस्थितियों का जीवन्त और वास्तविक चित्र प्रतीत होती है, जहाँ जीवन की तमाम बुनियादी सुविधा से
वंचित रामभरोसे, अपने पारिवारिक दायित्व तक को भूलकर, प्रतिपक्षी की तमाम हिकारतें झेलकर भी
दलित सत्ता के समर्थन में समर्पण-भाव से जुड़ा रहता है, पर उसे हासिल कुछ नहीं होता। श्यौराज की
यह कहानी दलितों के उत्थान हेतु किसी नए चिन्तन का निमन्त्रण देती है। उनके नायक
की अटूट आस्था एकदम सही है कि ‘दलित जीवन के लिए संघर्ष करता है, पलायन नहीं।’ यह वाक्य केवल नायक की मान्यता नहीं है, खुद कथाकार का विश्वास भी है।भरोसे की
बहन कहानी के नायक रामभरोसे की निष्कलंक आस्था और निद्र्वन्द्व समर्पण किसी भी
चेतना-सम्पन्न व्यक्ति को भौंचक कर देता है। भक्ति-आन्दोलन के किसी भी समर्पित
सन्त को यह स्थिति चुनौती दे सकती है। समाज-व्यवस्था के दीर्घकालीन दमन और अमानवीय
आचरण से ऊबा हुआ कोई व्यक्ति सामाजिक परिस्कार हेतु एक नई व्यवस्था का समर्थन करता
है, और उस व्यवस्था में समाज को मानवीय
बनाने का सपना देखता है;
पर नई व्यवस्था का
दुष्चक्र उसके सपनों को किस तरह चकनाचूर कर देता है, इसकी
जीवन्त तस्वीर इस कहानी में सामने आई है। उल्लेखनीय है कि सामाजिक सन्दर्भों की
जड़ता पर श्यौराज की कहानियाँ चौतरफा प्रहार करती हैं। चिन्तन के स्तर पर यहाँ एक
तरफ जड़ीभूत रूढ़ियों पर निर्मम प्रहार है, तो
बुनावट के स्तर पर दूसरी तरफ सुचिन्तित सन्धान का उद्यम। पर अपने इस प्रयाण में
कथाकार कभी बेताब नहीं होते,
प्रतिपक्ष को आहत
करने की जल्दबाजी में अपना आपा खोकर सुविचारित शृंखला को दिशाहीन नहीं होने देते।
लक्ष्य-सन्धान की एकाग्रता हर जगह सुरक्षित रहती है। पात्रों के कथोपकथन और बहस
में भी बाबासाहब भीमराव अम्बेडकर की सुचिन्तिति मौजूद रहती है। मुसीबतों से जूझते
रहने के बावजूद उनके पात्रों को कहीं अपने संघर्ष में अनास्था नहीं होती। ऊर्जा का
अजस्र स्रोत हरदम बरकरार रहता है। संघर्षशील व्यक्ति की उद्देश्यमुख चेतना के लिए
यह बहुत बड़ी बात है कि पछाड़ खाकर भी उनके पात्र कभी टूटते और भटकते नहीं, अपनी तमाम बौद्धिकता के बावजूद उनके
पात्र कहीं उपदेशक की मुद्रा में खड़े होकर सामने खड़े लोगों को तुच्छ और हीन साबित
नहीं करते। जहाँ कहीं इस तरह की थोड़ी बहुत भनक ऊपर-ऊपर लगती है, वहाँ उनके व्यंग्य को गम्भीरता से परखने
की जरूरत होती है।
रामभरोसे की पत्नी रामकली पूरी कहानी में रामभरोसे के राजनीतिक
कार्यकर्ता होने की स्थिति पर व्यंग्य करती है। जिस बीवी की सोच-समझ पर पूरी कहानी
में कथानायक सवाल दागता रहता है,
उस रामकली की
राजनीतिक समझ भले ही स्पष्ट नहीं हो, पर
एक गृहस्थ-परिवार की स्त्री अपने पारिवारिक जीवन में राजनीतिक निस्सारता पर जितनी
हिकारत भरती है, वह एक भारतीय स्त्री की गहरी पारिवारिक
समझ और गृहस्थाश्रम की बारीकियों को भली-भाँति समझने का संकेत देती है। मियाँ-बीवी
की इस बहस में राजनीतिक दुर्गन्धियाँ बड़ी स्पष्टता से उजागर हुई हैं। रामभरोसे की
राजनीतिक चेतना पार्टी के मेनिफेस्टो और उसके सिद्धान्तों से निर्देशित होती है, पर रामकली की व्यावहारिकता समाज की सचाई
पर। बड़े ही सपाट वक्तव्य में रामकली कह जाती है कि ‘गरीब
की कोई भैन-फेनि नांय होति। अमीर को बहनें राखी बाँधे है।’ इस एक वाक्य में रामकली भारत देश की
राजनीतिक व्यवस्था और दलितों की राजनीति करने वाले दल की ऐसी-तैसी कर देती है। इस
कहानी का नायक रामभरोसे है। पर पूरी कहानी में कथाकार कहीं उसके उद्यमों में अपनी
सहानुभूति परिलक्षित नहीं होने देता, अलबत्ता
ऐसा भी नहीं कि उसे गलत साबित करता। सिर्फ विषय-वस्तु के साथ अपने ट्रीटमेण्ट से
ऐसा स्पष्ट करते हैं कि गलीज राजनीति की दरिन्दगी मुखर भर हो जाए और कथानायक के
आराध्य द्वारा जिस बेरहमी से कुचले जाने जाने के बावजूद उसकी अटूट आस्था, अनासक्त समर्पण नहीं टूटने की निश्छलता
स्पष्ट हो जाए। वह कहता है--बहनजी अपने लिए सत्ता की भूखी नहीं है। वे तो मिशन के
उद्धार की भूखी हैं।--इस कहानी को पढ़कर कोई भी पाठक आसानी से याद कर ले सकता है कि
इसकी पृष्ठभूमि लखनऊ में आयोजित बसपा की वह विशाल रैली है, जिसमें असंख्य दलितों को जान से हाथ
धोना पड़ा; पर वह सत्य घटना इस कहानी के कथावस्तु
का अधार भर है, इसकी जीवन्तता का आधार कथाकार की
समाज-दृष्टि है।--दलित,
जीवन के लिए संघर्ष
करता है, पलायन नहीं--जैसी कुछ पंक्तियाँ तो नए
जमाने की लोकोक्ति प्रतीत होती हैं।
भारत की शिक्षा-व्यवस्था और दलित परिवार के बच्चों की शैक्षिक
दुव्र्यवस्था की दुर्गन्धियाों पर कमोबेश टिप्पणियाँ इस संकलन की सभी कहानियों में
प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप में हैं,
पर शोध प्रबन्ध, नाॅनरिफण्डेबल, शीतल के सपने, कहानी हंसा की आदि कहानियाँ विशेष रूप
से उल्लेखनीय हैं। उच्चतर शिक्षा में दलितों और स्त्रियों की निस्सहाय स्थिति आज
भी कारुणिक है। शोध-प्रबन्ध कहानी के लिए श्यौराज को पाठकों की बधाइयाँ अलग से
मिलनी चाहिए, जहाँ उन्होंने न केवल गुरु-सम्प्रदाय की
निर्लज्जता को उजागर किया है,
बल्कि भुक्तभोगी
स्त्री द्वारा उठाए गए जुझारू कदम से उस शिक्षक को भी ‘शिक्षा’ दी
है। यह कहानी खासकर उच्च-शिक्षा के पके घाव के मवाद को बेरहमी से बाहर निकालती है, उसकी बदबू से शिक्षा-जगत के सफेद चेहरों
का कलंकित नेपथ्य उजागर करती है। श्यौराज की कहानियों की एक खास विशेषता उनके
पात्रों की अदम्य जिजीविषा है,
जो उसे गहन निराशा के
क्षण में भी टूटने नहीं देती। तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी उनके पात्र अपने
अटूट विश्वास के साथ न केवल खड़े रहते हैं, बल्कि
हर समय अपने प्रतिपक्ष को असहाय और झुकने के लिए मजबूर बना देते हैं। शोध-प्रबन्ध
की नायिका ‘रीना’ इसी
का उदाहरण है, जिसने अपने शोध-निदेशक को सारी
अय्याशियों और षड्यन्त्रों को वाजिब सबक सिखाया। यह कहानी शैक्षिक जगत के तमाम
षड्यन्त्रों का पर्दाफाश करती है। जिस शिक्षक को गुरु कहा जाता है, माँ-पिता से भी ऊँचा दर्जा दिया जाता है, उम्मीद की जाती है कि वे अपनी शिष्याओं
को बेटी की तरह मानेंगे,
वे शिक्षक अपनी
शिष्याओं के साथ, खासकर दलित शिष्याओं के साथ, किस तरह का व्यूह रचकर उसे अपनी कामुकता
में फँसाते हैं, उसका जीवन्त नमूना यह कहानी पेश करती है; वस्तुतः यह कोई कहानी नहीं, इस समय के शैक्षिक परिदृश्य की सचाई है, और समाज को इस बात से बाखबर करती है कि
भारतीय सामाजिक ढाँचों की विडम्बना में दलित स्त्रियाँ, दोहरी मार झेलती हैं--एक दलित होने की, दूसरी स्त्री होने की। रीना जैसी
कथानायिका इस अर्थ में श्यौराज की विलक्षण सर्जनात्मक दृष्टि का सबूत है कि वह इस
दोहरी मार को झेलती हुई भी अपने संघर्ष में दृढ़ रहती है। समाज-व्यवस्था की शिकार
बनी ऐसी दलित स्त्री को इस व्यवस्था के साथ कितनी मुस्तैदी से लड़ने की और सावधान
रहने की जरूरत है, यह कहानी उस परिदृश्य पर बड़े साहस के
साथ उँगली रखती है। कथानायिका द्वारा अपने शोध-निदेशक की गोद में शोध-प्रबन्ध की
जगह अपना बच्चा रखकर उसे मजबूर कर देना, महज
एक घटना नहीं है; वस्तुतः यह ऐसा आचरण करनेवालों के लिए
चेतावनी और पीड़ित स्त्रियों के लिए सम्बल है। उच्चतर शिक्षा जगत में स्त्रियों के
दैहिक शोषण और उसके प्रतिकार में खड़ी मजबूत वैचारिक शक्ति वाली नायिका की यह कहानी, अपनी तरह की अनूठी और पथदर्शी रचना है।
इस कहानी में अध्यापकों की नैतिकता और वैचारिकता का जैसा घिनौना रूप प्रस्तुत हुआ
है, वह गुरु-सम्प्रदाय का कलंकित चेहरा
प्रस्तुत करता है। नाॅन रिफण्डेबल कहानी शिक्षा जगत की व्यापारिकता और नृशंसता के
साथ-साथ इस तथ्य को भी सामने लाती है कि काॅन्वेण्ट पद्धति से भारत में चलाए जा
रहे शिक्षा-व्यवसाय के समक्ष भारतीयता, नैतिकता, सादगी जैसी बातें निरर्थक प्रलाप है। इस
व्यापारिकता में मानवीयता का पक्ष सिरे से गायब है, और
यदि ऐसा ही है, तब फिर भारतीयता के बारे में एक बार फिर
से सोचना होगा।
होनहार बच्चे,
रावण और ओल्डएज होम
कहानी भारतीय परिवेश की सामाजिक गुत्थियों की ऐसी स्पष्ट छवि अंकित करती है कि
रोंगटे खड़े हो जाते हैं। समाज-व्यवस्था की नृशंसता यहाँ भौंचक कर देती है। पूरे
घटनाक्रम में कहानीकार ने जिस अन्तर्सूत्र को उजागर किया है, उसमें सवर्ण सोच की तमाम पशुता खुलकर
सामने आती है, जिसमें खुद को निविष्ट और सदाचार की प्रतिमूर्ति
साबित करने वाले व्यक्ति नौकरी पाने अथवा जमीन हथियाने के लोभ में नीचता की सारी
सीमा पार कर जाते हैं,
सारी इज्जत, सारी हेंकरी धरी की धरी रह जाती है।
कहाँ तो कोई दलित, सवर्णों का रास्ता लाँघ दे, तो छूत हो जाती है; और कहाँ लाभ-लोभ दिखे तो सगा भाई! पण्डित
सदानन्द तिवारी, निर्वंशिया चमार धीरा से अपने बेटे का
बाप बनने की गुहार लगा बैठते हैं,
ताकि आरक्षण का लाभ
लेकर वह नौकरी पा ले। कहाँ तो मूलसिंह, गाँव
की रामलीला में रावण तक का किरदार नहीं निभा सकता, क्योंकि
सवर्णों के समुदाय में कोई दलित मंच पर कैसे चढ़ेगा?...गाँव
के सवर्णाें ने मार-मारकर उसका कचूमर निकाल दिया; और
जब उससे जमीन लिखवानी की स्थिति आई,
तो वही सवर्ण मूलसिंह
से माफी माँगकर, गाँव की मिट्टी का वास्ता देकर किसी तरह
उसे गाँव लिवा लाने का प्रपंच गढ़ डाले। ओल्डएज होम में अमानवीयता की त्रासदी और भी
चौंकाती है। कहते हैं कि समान त्रासदी के शिकार हुए दो लोग, आपस में मित्र हो जाते हैं; पर इस कहानी में अपनी सन्तानों की
दुत्कार खाकर ओल्डएज होम में बची-खुची जिन्दगी बिताकर मर-खप जाने के लिए आए हुए
लोगों को भी जातीय दम्भ और छूत-अछूत का रोग पीछा नहीं छोड़ता। और तो और, यहाँ पर जूठे बर्तन धोने के कामों में
लगे लोग भी दलित सदस्यों को हिकारत की नजर से देखने लगते हैं।
इन तमाम कहानियों की उल्लिखित कथाभूमि में अलग से रेखांकित
करने लायक एक सर्वनिष्ठ बात यह भी है कि इसकी बुनावट में सामाजिक और सांस्कृतिक
शिष्टाचार बड़ी बारीकी से गूँथा हुआ है; जिसमें
आचार-सम्मत पाखण्ड के जरिए रचे गए व्यूह की जटिलता खुल कर सामने आई है। इस
व्यूह-रचना का नेपथ्य श्यौराज की पैनी नजर और व्यंग्य से बच नहीं पाता है। ‘मन में आन बगल में छूरी’ वाली समाज-व्यवस्था किस तरह प्यार-भरी
और सम्मानजनक बातें करते-करते दलितों के पाँव के नीचे से जमीन खींच ले जाती है, इसका विवरण यहाँ इत्मीनान से दिया गया
है। दलितों को सब्जबाग दिखाते रहने और घात लगाकर सदा-सदा के लिए दास बनाए रखने की, केवल आर्थिक ही नहीं, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक रूप से भी उन
पर अपना वर्चस्व कायम रखने की अनोखी रीति किस तरह समाज गढ़ता है, इसका बेहतरीन और पर्याप्त उदाहरण इन
कहानियों में मौजूद है;
जो विवरण शैली, भाषिक मौलिकता, जनपदीय शब्दावलियों, और पात्रोचित भाषा-व्यवहार के कारण न
केवल प्रभावी, बल्कि विश्वसनीय यथार्थ भी लगता है।
कहानी हंसा की में कथानायक हंसा अपने बेटे की शिक्षा-दीक्षा के बहाने अपनी अस्सी
वर्ष की जीवन-यात्रा को याद करता है, और
अपने बीते दिनों की अनुभूतियों के आधार पर मन बनाता है कि उसका बेटा किसी तरह
चपरासी हो जाए तो जन्म सुधर जाएगा,
पेशगार हो जाए
पीढ़ियाँ सुधर जाएगी।...दलितों के सपने भी कितने कुतर दिए जाते हैं...! वैसे यह
पूरी कहानी हंसा की जुबानी इस तरह पेश होती है जैसे कोई गहन-गूढ़ समाजशास्त्रीय और
प्राशासकीय ढाँचा पेश किया गया हो।
क्या करे लड़की की नायिका ‘प्रेम’ और समाज की नृशंसता के दुष्चक्र का
शिकार हो जाती है। ‘प्रेम’ जैसे
पवित्र सम्बन्ध के नाम पर आज के नागरिकवृन्द, माँ-बाप, समाज-रिश्तेदार कितने नृशंस हो जाते
हैं! यह ऐसा समाज है,
जहाँ ‘प्रेम’ करने
से, अन्तर्जातीय विवाह करने से इज्जत और
सामाजिक हैसियत मिट्टी में मिल जाती है; पर
इन प्रेमियों की हत्या करवा देने से उनकी मान-मर्यादा में चार-चाँद लग जाते हैं।
क्या करे लड़की और सन्देश कहानी ऐसे ही प्रेमियों, और
रिश्तेदारों की जड़ें खोदकर उसे तेज और स्वच्छ हवा का झोंका लगवाती है।
कुल मिलाकर सकारात्मक सोच से भरे हुए संघर्षमय जीवन की ये
कहानियाँ निश्चय ही हिन्दी के दलित-विमर्श को नई दिशाएँ देती प्रतीत होती हैं।
संघर्षमय जीवन की
कहानियाँ,
सम्यक
भारत,
नवम्बर
2012,
नई
दिल्ली एवं जनसत्ता में प्रकाशित
भरोसे की बहन/श्यौराज
सिंह बेचैन/वाणी प्रकाशन/रु. 250.00/पृ. 164
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