प्रयोगवाद : नई कविता : कुछ वाद कुछ संवाद
Prayogvad : Nayee Kavita : Debate and Discussion
प्रयोग एवं प्रयोगवाद
प्रयोगवाद हिन्दी कविता की एक प्रमुख धारा
है, जिसमें प्रयोग को प्रमुखता दी गई थी। 'प्रयोग' शब्द का सम्बन्ध विज्ञान की
कार्य-विधि से है। इसमें क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं के परीक्षण और प्राप्त तथ्यों
के अन्वेषण से परिणति तक पहुँचा जाता है। इस परीक्षण-प्रक्रिया में किसी वस्तु को विभिन्न
परिस्थितियों में रखकर प्रयोगी उसके व्यवहार-स्वभाव का अध्ययन करता है; प्राप्त
निष्कर्षों से सत्य के नए आयाम को स्थापित करता है। विविध जिज्ञासाओं एवं विवेक-सम्मत
वैज्ञानिक तर्कों से सम्पन्न आधुनिक मनुष्य की वैज्ञानिक-दृष्टि किसी निर्धारित
मान्यता को अन्तिम सत्य नहीं मानती। सशंकित क्षण में आज का मनुष्य हर वस्तु,
प्रसंग, स्थापना को प्रयोग की कसौटी पर रखकर परीक्षणाधीन मानता है; जाँच-पड़ताल के
योग्य मानता है। उनकी राय में परिवेश का हर जन-विरोधी आचरण त्याज्य और हर मानवोचित
मान्यता स्वीकार्य होता है। उनके अनुसार सभी नवागत मानवीय धारणाओं के स्थापन पर
बल दिया जाना चाहिए।
अर्थात्,
प्रयोगशील आचरण सदैव स्थापित धारणाओं से आगे बढ़कर नई दिशाओं का अन्वेष करता है।
'प्रयोग' का यही अवधारणामूलक अर्थ-संकेत प्रयोगवाद में दिखता है। सन् 1943 में सच्चिदानन्द
हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय द्वारा सम्पादित और भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित
काव्य-संकलन तार सप्तक से इस काव्य-धारा की शुरुआत हुई। इसमें संकलित सातो
कवियों-- गजानन माधव मुक्तिबोध, नेमिचन्द्र जैन, भारतभूषण अग्रवाल, प्रभाकर माचवे,
गिरिजा कुमार माथुर, रामविलास शर्मा और सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
-- को 'राहों के अन्वेषी' कहा गया। इस संकलन की भूमिका तथा कवि परिचय में भी प्रयोग की प्रवृत्ति पर विशेष बल दिया गया।
तार सप्तक की सम्पोषक कविताओं के लिए 'प्रयोगवाद' की संज्ञा दिए जाने
के बाद इस धारा के उन्नायक कवि अज्ञेय ने कहा कि प्रयोगशील वह है, जो आधुनिकता का
समर्थन करते हुए नए भाव-बोध को अधिक से अधिक अन्वेषण की ओर अग्रसर करे। उनकी धारणा
में अन्वेषी होना मनुष्य मात्र का सहज स्वभाव होना चाहिए।
सन् 1949
में समसामयिक काव्य की प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करनेवाली कविताओं का अज्ञेय द्वारा
संकलित काव्य-संकलन 'दूसरा सप्तक' शीर्षक से सन् 1951 में भारतीय
ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित हुआ। इसमें संकलित सात कवि -- भवानी प्रसाद मिश्र, शकुन्तला
माथुर, हरिनारायण व्यास, शमशेर बहादुर सिंह, नरेश मेहता, रघुवीर सहाय एवं धर्मवीर
भारती की रचनाएँ हैं। भाषा और अनुभव के क्षेत्र में हो रहे नए प्रयोगों का संकेत
देनेवाली कविताओं के इस संकलन की विचारोत्तेजक और विवादास्पद
भूमिका एक भिन्न बौद्धिक अनुभव देती है। इसके बाद फिर सन् 1959 में नई कविता के
सात कवियों -- कुँवर नारायण, कीर्ति चौधरी, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, मदन वात्स्यायन,
प्रयाग नारायण त्रिपाठी, केदारनाथ सिंह और विजयदेव नारायण साही -- की कविताओं का संकलन
'तीसरा सप्तक' शीर्षक से अज्ञेय के सम्पादन में भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
से प्रकाशित हुआ।
चाँद का
मुँह टेढ़ा है, भूरी-भूरी खाक धूल, अन्धेरे में, ब्रह्मराक्षस, पूँजीवादी समाज के
प्रति, दिमागी गुहान्धकार (गजानन माधव मुक्तिबोध);भग्नदूत, चिन्ता, इत्यलम, हरी घास पर क्षण भर, बावरा
अहेरी, इन्द्रधनु रौंदे हुए, अरी ओ करुणा प्रभामय, आँगन के पार द्वार, कितनी नावों
में कितनी बार (सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय); मंजीर, नाश और निर्माण, धूप
के धान, शिलापंख चमकीले, छाया मत छूना मन, भीतरी नदी की यात्रा, साक्षी रहे वर्तमान,
मैं वक्त के हूँ सामने, मुझे और अभी कहना है (गिरिजा कुमार माथुर); गीत फरोश,
सतपुड़ा के जंगल, चकित है दुःख, टूटने का सुख, त्रिकाल सन्ध्या, अनाम तुम आते हो, कालजयी,
फसलें और फूल, बुनी हुई रस्सी, सन्नाटा, वाणी की दीनता (भवानी प्रसाद मिश्र);
अमन का राग, चुका भी नहीं हूँ मैं, इतने पास अपने, काल तुझसे होड़ मेरी, उदिता, बात
बोलेगी हम नहीं (शमशेर बहादुर सिंह); ठण्डा लोहा, सात गीत वर्ष, अन्धा युग,
कनुप्रिया, सपना अभी भी, प्रमथ्यु गाथा, सृष्टि का आखिरी आदमी, देशान्तर, टूटा पहिया
(धर्मवीर भारती); वनपाखी सुनो, बोलने दो चीड़ को, मेरा समर्पित एकान्त उत्सव, शबरी, महा प्रस्थान (नरेश मेहता) –इस काव्यधारा की कुछ प्रमुख रचनाएँ
हैं।
कहा जाता
है कि प्रयोगवाद का जन्म 'छायावाद'
एवं 'प्रगतिवाद' की रूढ़ियों की प्रतिक्रिया में हुआ। भाव के क्षेत्र में छायावाद की अतिन्द्रियता
और वायवी सौन्दर्य चेतना के विरुद्ध उन दिनों एक वस्तुगत, मूर्त्त और ऐन्द्रिय चेतना
का विकास हुआ था। प्रगतिवादी काव्य पद्धति का प्रतिपाद्य विषय पूरी तरह सामाजिक समस्याओं
पर आधारित रहने के बावजूद उसके यथार्थ-चित्रण में एक राजनीतिक धारणा की बू दिखी। प्रयोगवाद का उद्भव इन्हीं दोनों
की प्रतिक्रिया स्वरूप माना गया, जो 'घोर अहंवादी', 'वैयक्तिकता' एवं 'नग्न-यथार्थवाद' को लेकर चला। लक्ष्मी कान्त वर्मा ने कहा कि 'छायावाद
ने अपने शब्दाडम्बर में बहुत से शब्दों और बिम्बों के गतिशील
तत्त्वों को नष्ट कर दिया था।' और 'प्रगतिवाद ने सामाजिकता के नाम पर विभिन्न भाव-स्तरों
एवं शब्द-संस्कार को अभिधात्मक बना दिया था।' ऐसी स्थिति में नए भाव-बोध को व्यक्त करने के लिए
न
तो शब्दों
में सामर्थ्य बचे थे, न परम्परा से मिली हुई शैली में। परिणामस्वरूप उन कवियों को, जो इनसे
पृथक थे, सर्वथा नया स्वर और नए माध्यमों का प्रयोग करना पड़ा। ऐसा
इसलिए और भी करना पड़ा, क्योंकि भाव-स्तर की नई अनुभूतियाँ विषय और सन्दर्भ
में इन दोनों से सर्वथा भिन्न थी। अज्ञेय के स्वीकारा कि 'प्रयोग सभी कालों के कवियों ने किए हैं। किन्तु
कवि क्रमश: अनुभव करता आया है कि जिन क्षेत्रों में प्रयोग हुए हैं, आगे बढ़कर अब उन क्षेत्रों का अन्वेषण
करना
चाहिए,
जिन्हें अभी छुआ नहीं गया था, जिनको अभेद्य मान लिया गया है।'
इन अन्वेषणकर्ता
कवियों में अज्ञेय ने तार सप्तक में ऐसे सात-सात कवियों को अपनाया 'जो किसी एक स्कूल के नहीं
हैं, किसी एक विचारधारा के नहीं हैं, किसी मंजिल पर पहुँचे हुए नहीं हैं, अभी राही हैं--राही नहीं, राहों के अन्वेषी।...काव्य के प्रति एक अन्वेषी
का दृष्टिकोण उन्हें समानता के सूत्र में बाँधता है।...उनमें मतैक्य नहीं
है, सभी महत्त्वपूर्ण विषय में उनकी अलग-अलग राय है--जीवन के विषय में, समाज और धर्म और राजनीति के विषय में, काव्य-वस्तु और शैली के छन्द और
तुक में, कवि के दायित्वों के प्रत्येक विषय में उनका आपस में मतभेद है।
यहाँ तक कि हमारे जगत के ऐसे सर्वमान्य और स्वयंसिद्ध मौलिक सत्यों को भी वे
स्वीकार नहीं करते, जैसे--लोकतन्त्र की आवश्यकता, उद्योगों का समाजीकरण, यान्त्रिक युद्ध की उपयोगिता, वनस्पति घी की बुराई अथवा काननबाला और सहगल के
गानों की उत्कृष्टता इत्यादि। वे सब एक-दूसरे की रुचियों, कृतियों और आशाओं और विश्वासों
पर एक-दूसरे की जीवन-परिपाटी पर और यहाँ तक कि एक-दूसरे के मित्रों और कुत्तों पर भी हँसते हैं।'
नए के प्रति
यही आग्रह इन कवियों को प्रयोगवादी बनाता है। इस धारा के कवियों ने प्रयोगवाद
के स्वरूप पर अपनी-अपनी राय भी दी। अज्ञेय ने कहा कि 'प्रयोगशील कविता में नए सत्यों, नई यथार्थताओं का जीवित बोध भी है, उन सत्यों के साथ नए रागात्मक सम्बन्ध
भी और उनको पाठक या सहृदय तक पहुँचाने, यानी साधारणीकरण की शक्ति
भी है।' वहीं धर्मवीर भारती ने कहा कि 'प्रयोगवादी कविता में भावना है, किन्तु हर भावना के आगे एक प्रश्न-चिह्न लगा है।
इसी प्रश्न-चिह्न को आप बौद्धिकता कह सकते हैं। सांस्कृतिक ढाँचा चरमरा उठा
है और यह प्रश्न-चिह्न उसी की ध्वनि-मात्र है।' गिरिजा कुमार माथुर
ने कहा कि 'प्रयोगों का लक्ष्य है व्यापक सामाजिक सत्य के खण्ड अनुभवों का साधारणीकरण
करने में कविता को नवानुकूल माध्यम देना, जिसमें व्यक्ति द्वारा इस व्यापक
सत्य का सर्वबोधगम्य प्रेषण सम्भव हो सके।'
तीनो सप्तकों
के प्रकाशन के अलावा प्रयोगवाद की प्रतिष्ठा में उस दौर की अनेक पत्रिकाओं--'प्रतीक', 'दृष्टिकोण', 'कल्पना', 'राष्ट्रवाणी', 'धर्मयुग', 'नई कविता', 'निकष', 'ज्ञानोदय', 'कृति', 'लहर', 'निष्ठा', 'शताब्दी', 'ज्योत्स्ना', 'आजकल', 'कल्पना' आदि का महत्त्वपूर्ण योगदान है।
समसामयिक जीवन का यथार्थ चित्रण, अहंनिष्ठ वैयक्तिकता, विद्रोही स्वर, लघु मानव की
प्रतिष्ठा, संशयात्मक एवं अनास्थावादी स्वर, भविष्य के प्रति आश्वस्ति, वेदना की
अनुभूति का प्रयोग, समष्टि कल्याण की भावना, वासना की नग्न अभिव्यक्ति, क्षणानुभूति,
भदेसपन, व्यंग्य, काव्य-शिल्प में नए प्रयोग, बिम्ब-योजना, नए उपमान, असंगत अनुषंग
का प्रयोग, नवीन शब्द-चयन, नवीन-प्रतीक, छन्द-विधान...आदि इस धारा की कविताओं के
मूल स्वभाव हैं। इन्हीं वृत्तियों के कारण यहाँ अतियथार्थवादिता, बौद्धिकता की
अतिशयता, घोर वैयक्तिकता, वाद एवं विचारधारा के विरोध, निराशावाद,
व्यापक अनास्था की भावना, क्षणवाद, नवीन उपमानों के प्रयोग आदि को साहसिकता और जोखिम
के साथ प्रमुखता दी गई। बाद में फिर 'लोक कल्याण की उपेक्षा’ प्रयोगवाद का सबसे बड़ा दोष माना
गया। कहा गया कि प्रयोगवादी कवि यथार्थवादी हैं, वे भावुकता के स्थान पर ठोस बौद्धिकता
को स्वीकार करते हैं।
इस काव्य-धारा
की कविताओं को 'प्रयोगवाद’ नाम सर्वप्रथम आचार्य नन्द दुलारे
वाजपेयी ने अपने एक निबन्ध 'प्रयोगवादी रचनाएँ’
में दिया
था। डॉ नगेन्द्र के अनुसार 'प्रयोगवाद’ नाम उन कविताओं के लिए रूढ़ हो गया है, जो कुछ नए भावबोधों , संवेदनाओं तथा उन्हें प्रेषित करने वाले शिल्पगत
चमत्कारों को लेकर शुरू-शुरू में तार-सप्तक के माध्यम से सन् 1943 में प्रकाशन जगत में आई और जो प्रगतिशील कविताओं के साथ विकसित
होती गई तथा जिनका समापन नई कविता में हो गया।
आत्मकेन्द्रिकता,
क्षणानुभूति के चित्रण और नितान्त अपरिचित एवं वैयक्तिक बिम्ब-प्रतीकों की
जकड़न के कारण इस काव्य-धारा पर कई आरोप भी लगे। इस पद्धति के साथ-साथ चल रही काव्य-धारा
नकेनवाद या प्रपद्यवाद के पुरोधा ने भी इस पर ऊँगली उठाई, जबकि अज्ञेय ने उन
पुरोधाओं के रचनात्मक उद्देश्य की सराहना की। सन् 1960 आते-आते हिन्दी क्षेत्र
की विचित्र राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों के कारण विभिन्न उद्घोषक
कवि समूहों द्वारा अकविता, साठोत्तरी कविता जैसी कई काव्य-पद्धतियाँ घोषित हुईं,
और निर्णायक रूप से बिना किसी परिभाषा-सूत्र के समकालीन कविता का वातावरण बन
गया। किन्तु तथ्य है कि प्रयोगवाद, या कि नई कविता अपनी परिभाषा के किसी
अव्याप्ति या अतिव्याप्तिदोष के कारण कमतर महत्त्व की नहीं रही। इस काव्यान्दोलन
पर गम्भीरता से बात किए बिना हिन्दी कविता के इतिहास की चर्चा असम्भव है। इसकी
मूल संकल्पना में माना गया कि सतत विकासशील समाज का मानवीय स्वभाव एवं सौन्दर्य-बोध
निरन्तर परिवर्तनशील रहता है, उसका रुचि-परिष्कार होता रहता है, जीवन के उमंग-उल्लास
की प्रक्रियाएँ बदलती रहती हैं। यह बदलाव मनुष्य को नए के प्रति सम्मोहित करता
है। वह देखता है कि स्थापित मान्यता जीर्ण, पुरातन, अप्रेषणीय हो जाए, तो उसे बदलने
का उद्यम किया जाना चाहिए। पर गौरतलब है कि प्रगतिशील काव्य की बुनियादी धारणा
भी तो यही थी, फिर प्रयोगवाद में नया क्या था?...
प्रगतिवाद से अलगाव
'प्रगति'
और 'प्रयोग' के युग की सामाजिक-नागरिक परिस्थितियों में बहुत अधिक भिन्नता
नहीं थी; बावजूद इसके जीवन-यथार्थ के बदलते हुए अनेक पक्षों में से प्रगतिवादियों
ने केवल आर्थिक वैषम्य एवं वर्ग-संघर्ष को ही अपने चिन्तन का मुख्य विषय बनाया।
'राहों के अन्वेषी' कवियों ने इस पद्धति को एकांगी माना, उन्हें लगा कि यहाँ जीवन
की समग्रता उपेक्षित है। जनजीवन की उन्हीं बहुपक्षीय स्थितियों को रेखांकित करने
के लिए नए कवियों को नए जतन की आवश्यकता पड़ी और वे प्रयोग की ओर मुड़े। 'प्रगतिवादी’ एवं 'प्रयोगवादी' -- दोनों धाराओं की
कविता की अन्तर्वस्तु में यही मूल अन्तर है।
'प्रगतिवादी' कविता में जहाँ शोषित, पराजित, हताश,
निम्न वर्ग को केन्द्र में रखा गया था; सामूहिक एवं सामाजिक भावना की प्रधानता दिखाई
देती थी; 'विचारधारा' एवं 'विषयवस्तु' को अधिक महत्त्व दिया जा रहा था; वहीं 'प्रयोगवादी' कविता में जीवन के भोगे हुए यथार्थ का
चित्रण हो रहा था, 'अनुभव को महत्त्व’ दिया जा रहा था, व्यक्तिगत भावना की प्रधानता दिखाई दे रही थी; 'कलात्मकता को अधिक महत्त्व’ दिया जा रहा था। प्रयोगशील कवियों
के समक्ष सम्प्रेषण की पद्धति की खोज एक चुनौती बनकर खड़ी थी। व्यक्ति के अनुभूत
सत्य को उसकी सम्पूर्णता में समष्टि तक पहुँचाने की विधि के अन्वेष की समस्या को लेकर
अज्ञेय भी तनिक उधेरबुन में थे, उन्हें बनकर यह समस्या प्रयोगशीलता को ललकारती-सी
प्रतीत हो रही थी। सन् 1951 में 'दूसरा सप्तक' की भूमिका लिखते हुए उन्हें
घोषणा करनी पड़ी कि 'प्रयोग अपने आप में इष्ट नहीं है बल्कि वह साधन और दोहरा साधन है। वह एक ओर तो सत्य को जानने का साधन है दूसरी तरफ वह
उस साधन को भी जानने का साधन है।' इसी भूमिका में प्रयोगशील कविताओं के 'प्रयोगवाद'
नामकरण पर अज्ञेय को किंचित असहजता भी महसूस हुई; उन्होंने ने घोषणा की कि 'प्रयोग
का कोई वाद नहीं है। हम वादी नहीं रहे, न ही हैं।' प्रो. नामवर सिंह ने इसे और स्पष्ट
किया कि 'सामान्यत: इसका अर्थ केवल साहित्यिक वाद का निषेध समझा जाता है। लेकिन
वाद का विरोध करते हुए प्रयोगशील कवि राजनीतिक या दार्शनिक किसी भी वाद का निषेध
करते हैं : वाद अर्थात् मतवाद या सिस्टम! प्रयोगशील कवि यह मानते हैं कि किसी वाद
को मानने से व्यक्तिगत एवं स्वतन्त्र विचार में बाधा पड़ती है, क्योंकि विचार
की दृष्टि से वाद एक तरह की बन्द विचार-प्रणाली है। प्रयोगशील दृष्टि का सूत्रपात
ही इस धारणा से हुआ कि पूर्वनिश्चित कोई भी वाद सत्य तक पहुँचने या पहुँचाने में
समर्थ नहीं है।'
तार सप्तक का पुनर्मुद्रण : दस्तावेज की
ऐतिहासिकता
सन्
1963 में 'तार सप्तक' का पुनर्मुद्रण हुआ। 'परिदृष्टि प्रतिदृष्टि' शीर्षक
से इस पुनर्मुद्रित संस्करण की भूमिका में सम्पाक अज्ञेय ने गत बीस वर्ष की अवधि
को एक पीढ़ी की आयु मानते हुए लिखा कि ''सप्तक के सहयोगी, जो सन् 1943 में
प्रयोगी थे, सन् 1963 के सन्दर्भ हो गए हैं। दिक्कालजीवी को इसे नियति मानकर ग्रहण
करना चाहिए, पर प्रयोगशील कवि के बुनियादी पैंतरे में ही कुछ ऐसी बात थी कि अपने
को इस नए रूप में स्वीकार करना उसके लिए कठिन हो। बूढ़े सभी होते हैं, लेकिन बुढ़ापा
किस पर कैसा बैठता है, यह इस पर निर्भर रहता है कि उसका अपने जीवन से, अपने
अतीत और वर्तमान से (और अपने भविष्य से भी क्यों नहीं?) कैसा सम्बन्ध रहता
है! हमारी धारणा है कि 'तार सप्तक' ने जिन विविध नई प्रवृत्तियों को संकेतित
किया था, उनमें एक यह भी रहा कि कवि का युग-सम्बन्ध सदा के लिए बदल गया था।
इस बात को ठीक ऐसे ही सब कवियों ने सचेत रूप से अनुभव किया था, यह कहना झूठ
होगा; बल्कि अधिक सम्भव यहाँ है कि एक स्पष्ट, सुचिन्तित विचार के रूप
में यह बात किसी भी कवि के सामने न आई हो। लेकिन इतना असन्दिग्ध है कि सभी
अपने को अपने समय से एक नए ढंग से बाँध रहे थे।...सप्तक के कवियों का विकास अपनी-अपनी
अलग दिशा में हुआ है। सृजनशील प्रतिभा का धर्म है कि वह व्यक्तित्व ओढ़ता
है। सृष्टियाँ जितनी भिन्न होती हैं, स्रष्टा उससे कुछ कम विशिष्ट नहीं
होते; बल्कि उनके व्यक्तित्व की विशेषताएँ ही उनकी रचना में प्रतिबिम्बित
होती हैं। यह बात उन पर भी लागू होती है, जिनकी रचना प्रबल वैचारिक आग्रह लिए रहती
है, जब तक कि वह रचना है, निरा वैचारिक आग्रह नहीं है। ... इन बीस वर्षों में
सातो कवियों की परस्पर अवस्थिति में विशेष अन्तर नहीं आया है। तब की सम्भावनाएँ
अब की उपलब्धियों में परिणत हो गई हैं।'' घोषणाओं के इस उठा-पटक से भावकों का तनिक
दिग्भ्रान्त होना उचित ही है; कविता सवक्तव्य में पाठकों के समक्ष ऐसी मुसीबत
आती ही रहती है। ऊपर से यहाँ सम्पादक ने तो संकलित सारे कवियों पर निर्णायक सम्भावना
व्यक्त कर दी है। किसी सम्पादकीय वक्तव्य से सामान्यतया अपेक्षा की जाती है
कि वह संकलित रचनाओं को समझने के लिए पाठकों को सरल-सहज कुँजी पकड़ाए; पर यहाँ तो
उलझन ही उलझन है। किसी पंक्ति में संकलित कवियों की वैचारिकता के लिए एक मार्ग
खुलती नहीं कि दूसरी बाधा उपस्थित हो जाती है। एक तरफ कहा है कि 'कवि का युग-सम्बन्ध
सदा के लिए बदल गया', फिर 'एक स्पष्ट विचार के रूप में किसी कवि के सामने यह
बात' सम्भवत: आई ही नहीं, फिर 'अपने समय के साथ नए ढंग से बँध जाने' की सुनिश्चिति
व्यक्त है, 'अपनी-अपनी अलग दिशा में सप्तक के कवियों के विकास' की भी घोषणा है।
अब हाँ और ना की किस धारणा पर पाठक अपने को दृढ़ करे, और काव्यानुशीलन की ओर
बढ़े, दिग्भ्रान्त करनेवाली स्थिति है। सन् 1943 में 'विवृति और पुनरावृत्ति'
शीर्षक से लिखी प्रथम संस्करण की भूमिका में सम्पादक ने घोषणा की थी कि इस
संकलन में 'संगृहीत कवि सभी ऐसे होंगे जो कविता को प्रयोग का विषय मानते हैं – जो यह दावा नहीं करते कि काव्य
का सत्य उन्होंने पा लिया है, केवल अन्वेषी ही अपने को मानते हैं।' जब पहले संस्करण
में कवियों की वैचारिकता इतनी साफ थी, तो बीस बरस बाद की घोषणा में कोई साफ दृष्टि
क्यों नहीं बनी – विचारणीय है?
दूसरे
संस्करण की भूमिका के अधोभाग में सम्पादक की धारणा बनी कि 'तार सप्तक ने अपने
प्रकाशन का औचित्य प्रमाणित कर लिया। उसका पुनर्मुद्रण केवल एक ऐतिहासिक दस्तावेज
को उपलभ्य बनाने के लिए नहीं, बल्कि इसलिए भी संगत है कि परवर्ती काव्य-प्रगति को
समझने के लिए इसका पढ़ना आवश्यक है। इन सात कवियों का एकत्रित होना अगर केवल संयोग
भी था तो भी वह ऐसा ऐतिहासिक संयोग हुआ, जिसका प्रभाव परवर्ती काव्य-विकास में
दूर तक व्याप्त है।'
पुनर्मुद्रित
संस्करण की इस विवादास्पद भूमिका के कारण, आलोचना के दाँव-पेंच से अनभिज्ञ पाठक
दिग्भ्रान्त-से हो जाते हैं। उनके मन में सवाल उठता है कि 'सन् 1943 के
प्रयोगी को सन् 1963 का सन्दर्भ' मान लेना या 'तब की सम्भावनाओं का अब की उपलब्धियों
में परिणत हो जाना' पर्याप्त था; फिर अज्ञेय को इतने उलझाऊ स्पष्टीकरण का प्रयोजन
क्यों पड़ा? कविता को जो करना था, वह करती; समकालीन समालोचकों को भी जो
कहना-सुनना था, उन्होंने किया! भूमिका के अन्त में तो उन्होंने कहा
ही कि 'जो अतीत की अनुरूपता के प्रति विद्रोह करते हैं, वे प्रायः पाते हैं कि
उन्होंने भावी की अनुरूपता पहले ही स्वीकार कर ली थी। विद्रोह की ऐसी विडम्बना कर
सकना इतिहास के उन बुनियादी अधिकारों में से है जिसका वह बड़े निर्ममत्व से उपयोग
करता है। नए संस्करण से उपलब्धि कुछ तो होगी, ऐसी आशा की जा सकती है। उसका
उपयोग कौन कैसे करेगा, यह योजनाधीन न होकर कवियों के विकल्प पर छोड़ दिया गया।
वे चाहें तो उस तार सप्तक का प्रभाव मिटाने में या उसके संसर्ग की छाप धो
डालने में लगा सकते हैं।' अतीत से विद्रोह और सम्भाव्य के स्वागत के लिए जिस
विडम्बना, अधिकार और निर्मम उपयोग की बात उन्होंने की है, वह उन पर भी तो
लागू होती है! बहरहाल, इस कठघरे के बयान जैसी भूमिका से बहस तो छिड़ती, सो छिड़ी।
दाखिल-खरिज का दंगल
प्रयोगशीलता
और तार सप्तक पर ऐसी मुगध घोषणाओं के समानान्तर प्रो. नामवर सिंह के समक्ष कुछ प्रत्यक्ष तथ्य थे। तार सप्तक
के प्रकाशन के तीन बरस बाद सन् 1946 में नया साहित्य के पहले अंक में शमशेर
बहादुर सिंह की लिखी पहली समीक्षा छपी थी; जिस मसौदा काव्यगत प्रयोगों तक सीमित था,
और समीक्षक को ऐसे प्रयोगों के मौलिक रूप निराला, पन्त, नरेन्द्र शर्मा जैसे कई कवियों
के यहाँ दिखे थे। दूसरी ओर नेमिचन्द्र जैन का बयान कि तार सप्तक के कवियों
जैसी बदलती हुई काव्य-चेतना की एक अभिव्यक्ति निराला के अलावा शमशेर बहादुर सिंह,
त्रिलोचन, भवानीप्रसाद मिश्र, राजेश्वर गुरु, केदारनाथ अग्रवाल और नरेन्द्र
शर्मा तक में थी; और इस परिवर्तन के अग्रणी अज्ञेय किसी भी अर्थ में नहीं थे। उनके
मुकाबले कई अन्य कवि उस दौर के नए मुहावरे के अधिक समीप थे। नामवर सिंह स्वयं देख रहे थे कि तार सप्तक
के प्रकाशन से पहले ही सन् 1937-38 में लिखी
निराला की कविताओं का संकलन अनामिका और सन् 1941 में प्रकाशित कुकुरमुत्ता
के द्वारा हिन्दी काव्य-जगत में नए परिवर्तन की जोरदार हवा बह चुकी थी। रूपाभ,
उच्छृंखल जैसी अल्पकालिक एवं हंस, विशाल भारत जैसी प्रतिष्ठित
पत्रिकाएँ इस परिवर्तन का उद्घोष कर रही थीं। विश्वभारती क्वार्टर्ली के
अगस्त-अक्टूबर1937 और नवम्बर1937-जनवरी1938 के दो अंकों में प्रकाशित 'आधुनिक
हिन्दी कविता' शीर्षक अपने अंग्रेजी निबन्ध में निराला के छवि-ध्वंस में
अपने कीमती वाक्य खर्च करते हुए अज्ञेय ने पन्त और निराला को सौन्दर्यवादी (इस्थीट)
कवि घोषित कर दिया था; निराला की कलात्मक क्षमता को मौलिकता लाने के चक्कर में विपथगा
कहकर निर्णय दे दिया था कि 'ऐज लिटररी फोर्स, एट एनी रेट, निराला इज ऑलरेडी डेड'।
अब कौन तय करे कि 'अतीत की अनुरूपता के प्रति विद्रोह' की निर्मम विडम्बना कहाँ है?
इन्हीं
साक्ष्यों के तर्क से प्रो. नामवर सिंह को
तार सप्तक के पुनर्मुद्रण की योजना में 'इतिहास
के निर्माण' के बदले 'इतिहास के लेखन' की स्पष्ट चिन्ता दिखी। उसमें ऐतिहासिक
दस्तावेज को उपलभ्य बनाकर परवर्ती काव्य-प्रगति को समझने की घोषित चेष्टा और संगति के बजाय 'कृत स्मर' होने की
स्वाभाविक मुद्रा दिखी। उन्होंने गौर किया कि पुनर्मुद्रण के
अवसर पर नई पीढ़ी के कवियों ने तार सप्तक में कोई रुचि नहीं ली, सबसे
ज्यादा दिलचस्पी तार सप्तक के कवियों ने ही ली। बहस भी उठी तो योजना के
इतिहास को लेकर! उन्होंने तो यह तक कह डाला कि'तार सप्तक के कवियों से
किसी नई सम्भावना या नए उन्मेष की आशा करना ज्यादती है।' नई सम्भावनाओं की
चुनौती के सम्मुख 'इतिहास' में मुँह छिपाने का उनका प्रयत्न उन्हें दुखद लगा ('तार सप्तक : इतिहास की आवृत्ति'/कविता
के नए प्रतिमान)। तार सप्तक की ऐतिहासिकता पर प्रश्न उठाते हुए उन्होंने
स्पष्ट किया कि यह किसी नई काव्यात्मक क्रान्ति का अग्रधावक नहीं, कुछ
आरम्भिक प्रवृत्तियों की सामूहिक अभिव्यक्ति मात्र है।
उन्नीसवीं
सदी के उत्तरार्द्ध के यूरोपीय चिन्तकों -- किर्केगार्ड, शोपेनहावर, नीत्शे, मार्क्स,
एन्जेल्स के व्यवस्था-विरोध की ओर संकेत करते हुए प्रो. नामवर सिंह ने सवाल भी
किया कि यदि प्रयोगशील कवियों की जीवन-दृष्टि 'वाद' से विद्रोह है, तो खुद को
मार्क्सवादी कहनेवाले कवियों ने प्रयोगशीलता का पथ कैसे अपनाया? उन्होंने पूर्वनिश्चित
वाद से बचने की प्रयोगियों की कोशिश का अभिप्राय बताया कि प्रयोगशीलता 'व्यक्तिगत
अन्वेषण' की वस्तु हुई, जिसे विज्ञान में 'ट्रायल एण्ड एरर' पद्धति कहते हैं।
अर्थात् कोशिश करें, गलती हो तो शिक्षा लें और फिर कोशिश करें। जीवन भर प्रयोग
का सिलसिला बना रहे। फिर व्यवस्था-विरोध की नीत्शे की कट्टरता का उल्लेख करते
हुए उन्होंने इस पद्धति पर दीर्घ टिप्पणी दी और कहा कि 'पता नहीं प्रयोग और अन्वेषण
का व्रत लेते समय प्रयोगशील कवियों के सामने नीत्शे के विचार कहाँ तक थे, किन्तु
तीसरा सप्तक के एक कवि के पचीस शील वाले वक्तव्य से स्पष्ट है, प्रयोग का सिलसिला
आगे चलकर नीत्शे तक अवश्य पहुँच गया।' क्योंकि व्यवस्था-विरोध की धारणा ने नीत्शे
को इतना कट्टर बना दिया कि उनके अपने विचारों में भी कोई व्यवस्था नहीं बन पाई,
वे पागल होकर मरे, नीत्शे के बिखरे विचार-स्फुलिंगों के प्रसिद्ध संकलन 'जरथ्रुस्ट
उवाच' से यह बात सिद्ध होती है। पर इतना सत्य है कि आगे चलकर प्रयोगशील जीवन-दृष्टि
को काव्य के क्षेत्र में एक व्यवस्थित काव्य-सिद्धान्त बनाने के प्रयत्न होने
लगे (आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियाँ)।
प्रयोगवाद का कायान्तरण और नई कविता
घोषणाओं,
विवेचनाओं के दंगल से गुजरकर, दो दशकों की यात्रा पूरी कर प्रयोगशीलता की
उद्घोषणा के साथ नई कविता हिन्दी की महत्त्वपूर्ण काव्य-धारा के रूप में दाखिल
हुई और तीसरा सप्तक के प्रकाशन तक आकर 'प्रयोगी' 'सन्दर्भ' हो गए, 'सम्भावनाएँ'
'उपलब्धियाँ' हो गईं। अर्थात् नई कविता स्थापित हो गई। 'आँगन के द्वार पार'
कविता पुस्तक के लिए सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय को वर्ष 1964 का
साहित्य अकादेमी पुरस्कार दिए जाने के बाद सन् 1965 में हिन्दी के श्रेष्ठ कवि
केदारनाथ सिंह ने सन् '60 के बाद की हिन्दी कविता शीर्षक अपने लेख में
लिखा कि 'यह आकस्मिक नहीं कि दस-पन्द्रह वर्षों के अनवरत विरोध के बाद सहसा सन्
1965 में नई कविता की एक प्रतिनिधि कृति राजकीय पुरस्कार के योग्य मान ली गई। वस्तुतः
इसके पीछे इतिहास का एक निश्चित तर्क है।' अज्ञेय को, स्वच्छन्दतावादी स्थापित
काव्य प्रवृत्ति को विस्थापित कर व्यक्ति के निजी और प्रामाणिक अनुभव को
प्रतिष्ठा दिलानेवाली भारतीय कविता की आधुनिक धारा का प्रतिनिधि कवि मानते हुए
केदारनाथ सिंह ने स्पष्ट कहा कि 'आरम्भ में इस धारा में विद्रोह के तत्त्व स्वभावत:
अधिक थे। पर धीरे-धीरे कलात्मकता प्रौढ़ता के साथ वे कम होते गए और सन् 1960 तक आते-आते उसकी
भाषा और अनुभववादी दर्शन में स्थिरता आने लगी। जीवन की सारी समस्याएँ सिमटकर कवि
अथवा कलाकार की सृजन-प्रक्रिया की समस्याएँ बन गईं। सम्भवतः नवलेखन के क्षेत्र
में यह सौन्दर्यवादी रुझान कुछ दिनों तक और चलता -- यदि अकस्मात् सन् 1962 के
राष्ट्रीय संकट ने साहित्य तथा राजनीति में एक ही साथ बहुत-से मोहक आदर्शों और
खोखले काव्यात्मक शब्दों के प्रति हमारे मन में एक विराट शंका न भर दी होती। परिणाम
यह हुआ कि कुछ आधुनिक विचारकों, और विशेष रूप से नई पीढ़ी के रचनाकारों में नवलेखन के इस सौन्दर्यवादी रुझान के
विरुद्ध एक सीधी प्रतिक्रिया हुई।' फिर उन्होंने यह भी माना कि सृजनात्मक
विद्रोह के जो तत्त्व अज्ञेय जैसे रचनाकारों की 'कृतियों से गायब हो गए थे, इन रचनाकारों
की कृतियों में उभर कर आने लगे -- इस अन्तर के साथ कि इनके विद्रोह के पीछे काम
करने वाला मानसिक विक्षोभ 'साहित्यिक' कम और 'ऐतिहासिक' अधिक है। इतिहास का यह एक विचित्र
तर्क है कि पुराने प्रतिष्ठा-प्राप्त आलोचक किसी नई प्रवृत्ति को तब तक स्वीकार
नहीं करते, जब तक स्वयं इतिहास के भीतर से ही कोई नव्यतर विद्रोही प्रवृत्ति उसके
समानान्तर नहीं उठ खड़ी होती। ऐसी स्थिति में उन्हें अपना पक्ष चुन लेने में
सुविधा होती है। इस प्रकार की अधिकांश साहित्यिक आलोचना इसी सुविधाजनक चुनाव का
परिणाम है।' तीसरा सप्तक के सम्मानित कवि केदारनाथ सिंह का यह गद्यांश सुचिन्तित
और सारगर्भित है; 'प्रयोगी' से 'सन्दर्भ' और 'सम्भावनाएँ' से 'उपलब्धियाँ' हो
जाने की सृजन-प्रक्रिया को सूक्ष्मता से रेखांकित करता है। किन्तु पूरे साहित्यिक
परिवेश पर घूमता आइना दिखाते हुए अपने निबन्ध 'तार सप्तक : इतिहास
की आवृत्ति' में प्रो. नामवर सिंह ने कहा कि 'इतिहास के भीतर से नव्यतर
प्रवृत्ति सामने आ चुकी है और उस प्रवृत्ति के बारे में अज्ञेय का रुख स्पष्ट है।
अज्ञेय की नए कवि के प्रति 'आ तू, आ तू' सम्बोधनवाली कविताएँ 1960 में ही प्रकाशित हो चुकी थीं।
कहना न होगा कि प्रतिष्ठा-प्राप्त आलोचकों को अपना पक्ष चुनने में सुविधा प्रदान
करने में स्वयं अज्ञेय का भी काफी योग है। प्रतिष्ठा कवि को चुने, इससे पहले ही कवि
ने प्रतिष्ठा का वरण कर लिया था। तार सप्तक का पुनर्मुद्रण इसी सन्दर्भ का
अंग है, अगर यह केवल संयोग भी है तो इसे ऐतिहासिक संयोग कहा जा सकता है।' काव्य के
सारे प्रश्नों को 'चितरन्तन' मानने की अज्ञेय की पद्धति से क्षुब्ध होते हुए नामवर
सिंह प्रश्नाकुल हो उठे कि सदैव रहनेवाला और निरन्तर बदलतक रहनेवाला एक साथ नित्य
कैसे होगा? 'नित्य' के स्वीकृत अर्थ में नए बोध का कारण क्या होगा? राहों के
अन्वेष और प्रयोग को प्राथमिक उद्देश्य माननेवालों में 'परम्परा' और 'ऐतिहासिक
सम्बन्ध' के प्रति इतनी चिन्ता किस कारण होगी? उन्होंने देखा कि तार
सप्तक के कवियों ने दोबारा दिए गए वक्तव्य में जिन प्रवृत्तियों की ओर इशारा
किया है, वे अन्य कवियों के यहाँ भी है। फिर 'परम्परा' एवं 'आधुनिकता' के पारस्परिक
सम्बन्ध के लिए चिन्तित गिरिजा कुमार माथुर लौकिक (कॉस्मिक) चेतना की बात
कर रहे हैं; नए लोगों से परम्परा के लिए खतरा महसूस करते रामविलास शर्मा छायावादी
कविताओं एवं कवियों से अपनी कविताओं का घनिष्ठ सम्बन्ध मान रहे हैं। इस आधार पर
उन्होंने तार सप्तक और प्रयोगशील कविताओं की सीमा एवं सम्भावनाओं का स्पष्ट
संकेत दिया (कविता के नए प्रतिमान/पृ. 81)। इस क्रम में उन्हें मुक्तिबोध
के यहाँ जनजीवन के आसन्न संकट का तीक्ष्ण बोध अवश्य दिखा, जिसे मुक्तिबोध ने 'व्यक्ति
के व्यवसायीकरण' का संवेदनात्मक नाम दिया था। 'एक आत्म-वक्तव्य' शीर्षक
मुक्तिबोध की कविता (जिसमें कवि को 'तड़के ही, रोज/कोई मौत का पठान' जिन्दगी
जीने का ब्याज माँगता दिखता है, जहाँ जीवन-सत्य किसी भयानक व्यंग्यनृत्य-सा दिखता
है, जहाँ असन्तोष मात्र सच्चा है और उसी में जन-जन का परिपोष सुनिश्चित है)
का उल्लेख करते हुए उन्होंने 'ऐतिहासिक दस्तावेज को उपलभ्य बनाने' के उद्यम को रेखांकित
किया कि इतिहास की चिन्ता वस्तुत: मुक्तिबोध के यहाँ है; जो इतिहास-लेखन की चिन्ता
नहीं, इतिहास-निर्माण की चिन्ता है। संयोग अवश्य है कितार सप्तक के
पुनर्मुद्रण के समय ही मुक्तिबोध दिवंगत हो गए और उनका पहला कविता-संग्रह 'चाँद
का मुँह टेढ़ा है' प्रकाशित हुआ; किन्तु दूसरे संस्करण की भूमिका में तार
सप्तक के प्रकाशन के औचित्य की अज्ञेय की घोषण और नव्यतर की स्वीकृति सम्बन्धी
केदारनाथ सिंह के वक्तव्य को एक साथ लपेटते हुए नामवर सिंह ने ऐसा 'ऐतिहासिक संयोग'
कहा, जिसमें ''इतिहास के द्वन्द्व का सत्य प्रत्यक्ष हो गया। अज्ञेय को साहित्य अकादेमी
ने स्वीकार किया और मुक्तिबोध को कवियों की नई पौध ने। निस्सन्देह तार सप्तक
ने अपने प्रकाशन का औचित्य प्रमाणित कर लिया।''
यहाँ
उल्लेख सुसंगत होगा कि 'तार सप्तक : इतिहास की आवृत्ति' शीर्षक नामवर
सिंह के पूरे लेख में इतिहास-निर्मिति, इतिहास-लेखन, साहित्य की नैतिक
सीमा में दाखिल-खारिज की जटिल पद्धति, परम्परा एवं आधुनिकता के मौलिक
सरोकार, समय के आसन्न संकट एवं काव्य के औचित्य पर दिग्भ्रम फैलाए गए उस
धुन्ध को मिटाने की सफल चेष्टा है; जिसे स्थापित करने की पुरजोर चेष्टा
पुनर्प्रकाशित संस्करण की उस भूमिका-लेखन से की गई थी। उसमें घोषित विवादास्पद
वक्तव्यों के कारण ही केदारनाथ सिंह का उक्त लेख संयोगवश नामवर सिंह के निशाने
पर आ गया। उस गद्यांश में कवि केदारनाथ सिंह ने अज्ञेय के प्रति कोई विरुद-गायन
नहीं किया था; क्योंकि सन् 1965 में लिखे नव्यतर की कठिन स्वीकृति
पर चिन्ता व्यक्त करने के दो ही बरस बाद ही सन् 1967 में उन्होंने 'तार सप्तक : ऐतिहासिकता
और प्रासंगिकता' शीर्षक अपने निबन्ध में लिखा कि 'जहाँ तक तार सप्तक
की कविताओं का प्रश्न है, उनमें आज की कुछ स्थितियों का पूर्वाभास या पूर्वछाया
चाहे मिल जाती है, परन्तु अनुभव और सम्प्रेषण की वह ताजगी नहीं मिलती, जो आज के
पाठक
के
भीतर संवेदना के नए स्तरों को खोल सके। वस्तुतः 'तार सप्तक' से इस बात की
माँग भी एक प्रकार की ज्यादती होगी। उसका पहला प्रयास हिन्दी काव्य-भाषा की नई सम्भावनाओं
की खोज की दिशा में था और इसमें सन्देह नहीं कि उसने तुलनामूलक अलंकारों के स्थान पर वृहत्तर
अर्थों को प्रतिध्वनित करने वाले स्वत:स्फूर्त्त प्रतीकों और आधुनिक जीवन के
संकेतों के प्रयोग द्वारा पहली बार भाषा को आज के वस्तुगत सन्दर्भ से जोड़ने की
कोशिश की। इस दिशा में मुक्तिबोध, गिरिजा कुमार माथुर और अज्ञेय की भाषा का अध्ययन
अधिक
महत्त्वपूर्ण
हो सकता है।'' सन् 1965 और 1967 के इन दो वक्तव्यों में कवि-चिन्तक केदारनाथ
सिंह ने 'तार सप्तक' की धारा की कविताओं से ताजगी गायब होने के जैसे मजबूत
तर्क दिए हैं, वे विचारणीय हैं। रचना-कर्म की गतिकता और समय-सापेक्षता को रेखांकित
करते हुए उन्होंने आगे लिखा कि ''मुक्तिबोध की भाषा की आधुनिकता पर अपेक्षाकृत
कम ध्यान दिया गया है। पर आगे चलकर 'अकेलेपन' की भयानकता की जो अनुभूति सन् 1960 के आसपास या उसके बाद की कविता
में प्रमुख रूप से व्यक्त हुई, उसे मुक्तिबोध ने बहुत पहले 'एकाकीपन का लौहवस्त्र'
के रूप में अनुभव किया था। उनकी बाद की कविताओं में जो एक नाटक का-सा गुम्फित परिवेश
मिलता है, उसकी पूर्वछाया भी तार सप्तक की कुछ कविताओं में देखी जा सकती है।
अपने नए वक्तव्य में उन्होंने 'व्यक्ति के व्यवसायीकरण' की जो बात कही है, उसके आन्तरिक
दबाव का प्रभाव शायद सबसे अधिक उन्हीं की कविता पर पड़ा है। अपने अन्य
समकालीन कवियों की परिधि से मुक्तिबोध का काफी कुछ अलग या कटा हुआ-सा दिखाई पड़ता
है, तो इसलिए कि उन्होंने सृजन के स्तर पर कला के संघर्ष को अस्तित्व के संघर्ष से
एकाकार कर लिया था। आज का नया रचनाकार उनके काव्य के इस पक्ष को नई काव्यात्मक
मान्यताओं के अधिक अनुकूल पाता है। नए कवियों के बीच मुक्तिबोध की बढ़ती हुई
लोकप्रियता का कारण भी शायद यही है।'' ध्यातव्य है कि मुक्तिबोध के सम्बन्ध
व्यक्त केदारनाथ सिंह की धारणाएँ नामवर सिंह की धारणाओं से कुछ मिलती-जुलती हैं।
समय के
वृहत्तर यथार्थ की समझ, आत्माग्रस्तता से सम्मोहन, तात्कालिकता के अतिक्रमण की अक्षमता
और स्मृति-मोह (नास्टेल्जिया) की भावनाओं पर लक्ष्य करते हुए, माथुर एवं अज्ञेय
के वक्तव्य तथा नई पुरानी कविताओं के आलोक में केदारनाथ सिंह ने आगे कहा कि ''दोनों
ही कवियों की कविताएँ शिल्प की दृष्टि से ज्यादा साफ और एक हद तक,
अपने आसपास के जीवन के प्रति 'सतर्क' दिखाई पड़ती हैं। निश्चित रूप से उनकी
काव्यात्मक प्रतिक्रियाएँ आज उतनी ताजा नहीं लगतीं -- माथुर की रूमानी कविताओं के
सन्दर्भ में यह बात कुछ ज्यादा ही सच साबित होती है। इसके बहुत से कारण हो सकते
हैं। पर एक सीधा और शायद महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि ये कविताएँ अधिकतर 'आत्मग्रस्त' (यह
शब्द मुक्तिबोध का है) और इनकी 'आत्माग्रस्तता' अपनी तात्कालिकता का अतिक्रमण नहीं
कर पातीं।...अज्ञेय की पुरानी कविताएँ आज भी, अपनी अभिव्यक्ति सम्बन्धी विशिष्टता के कारण,
एक हल्की 'नास्टेल्जिया' की-सी भावना के साथ पढ़ी जा सकती हैं -- हालाँकि उनमें
ऐसे तत्त्वों का अभाव है, जो आज के वृहत्तर यथार्थ को समझने में एक नए रचनाकार की
सहायता कर सकें।'' उन्होंने तार सप्तक के पुनर्मुद्रण को विगत दो दशकों
में लिखी गई कविताओं की ऐतिहासिकता के पुनर्मूल्यांकन और काव्य-सृजन की विकास-प्रक्रिया
के पुनरावलोकन की चुनौती के रूप में रेखांकित किया। तार सप्तक के प्रकाशन
की औचित्य-सिद्धि पर सम्पादक की आश्वस्ति का उन्होंने समर्थन भी किया। फिर
इसी निबन्ध में उन्होंने आलोचकों के प्रति विनम्र रोष भी व्यक्त किया कि''तार
सप्तक की जब भी आलोचना की गई है तो आलोचक का ध्यान
अन्य संगृहीत कवियों के विचारों और कृतियों की अपेक्षा 'अज्ञेय' के वक्तव्य और
कविताओं पर अधिक केन्द्रित रहा है।'' वस्तुत: यह वैसा दौर था, जब हर साहित्यिक
बहस में अज्ञेय का नाम तार सप्तक और प्रयोगवाद के पर्याय की तरह आ जाता
था। तीनो सप्तकों को मिलाकर अज्ञेय के अलावा और भी बीस कवियों के वक्तव्यों एवं
कविताओं का अनुशीलन होना चाहिए; पर आलोचक भी क्या करें, सम्पादक की घोषणाओं की
उपेक्षा करना आसान तो है नहीं! बहरहाल...
प्रयोगवाद
निस्सन्देह हिन्दी काव्य-धारा का महत्त्वपूर्ण पड़ाव है। सन् 1943 से 1959
के सघन संघर्ष के बाद नई कविता के रूप में मान्यता हुई, किन्तु यह आभा देर तक
कायम नहीं रही। छठे दशक का अन्त आते-आते मुक्तिबोध को नई कविता के स्वरूप के प्रति
लोगों में असन्तोष दिखने लगा; यह असन्तोष स्वयं उस धारा के कई कवियों में भी था।
ऐसी स्थिति में उस धारा का विश्लेषण-विवेचन उन असन्तुष्ट सहयात्री द्वारा होना
स्वाभाविक था। पहले सप्तक के छह कवि मुक्तिबोध, रामविलास शर्मा, गिरिजा कुमार माथुर, नेमिचन्द्र जैन, भारत भूषण अग्रवाल और प्रभाकर
माचवे ने अपने वक्तव्यों में अपनी काव्य-दृष्टि को मार्क्सवाद से प्रभावित
माना। नई कविता के आत्मसंघर्ष को रेखांकित करते हुए मुक्तिबोध के विचार सामने
आए। उन्होंने 'कृति' (फरवरी 1960) में प्रकाशित 'नई कविता का आत्मसंघर्ष'
शीर्षक अपने लेख में कहा कि ''मनुष्य जीवन का कोई अंग ऐसा नहीं है जो साहित्याभिव्यक्ति
के अनुपयुक्त हो। जड़ीभूत सौन्दर्याभिरुचि एक विशेष शैली को दूसरी विशेष
शैली के विरुद्ध स्थापित करती है। गीतों का नई कविता से कोई विरोध नहीं है, न
नई कविता को उसके विरुद्ध अपने को प्रतिस्थापित करना चाहिए। आवश्यकता इस
बात की है कि जीवन में नए तत्त्व आएँ, न कि (किसी) काव्य शैली की धारा की
समाप्ति हो। किन्तु जड़ीभूत सौन्दर्याभिरुचि जबर्दस्ती का विरोध पैदा करा
देगी। वह स्वयं अपनी धारा का विकास भी कुण्ठित करेगी, साथ ही पूरे साहित्य
का।...नई कविता के विभिन्न कवियों की अपनी-अपनी विशेष शैलियाँ हैं। इन शैलियों
का विकास अनवरत है। आगे चलकर जब वे प्रौढ़तर होंगी, नई कविता विशेष रूप से ज्योतिर्मान
होकर सामने आएगी। साथ ही, नई कविता में स्वयं कई भाव-धाराएँ हैं, एक भाव-धारा
नहीं। इनमें से एक भाव-धारा में प्रगतिशील तत्त्व पर्याप्त हैं। उनकी समीक्षा
होना बहुत आवश्यक है। मेरा अपना मत है, आगे चलकर नई कविता में प्रगतिशील तत्त्व और
भी बढ़ते जाएँगे और वह मानवता के अधिकाधिक समीप आएगी।'' अर्थात्, कुछ तो ऐसा था कि नई
कविता मानवता से दूर जा रही थी!
नई कविता का जनसरोकार
सन् 1954 में जगदीश चन्द्र गुप्त और रामस्वरूप
चतुर्वेदी द्वारा नई कविता पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ, जिसमें प्रयोगवादी
कविता को नई कविता का नाम दिया। कुछ आलोचक नई कविता और प्रयोगवाद में कोई अन्तर नहीं मानते, जबकि कुछेक की राय में दोनों
को एक समझने की भूल नहीं करनी चाहिए। पर तथ्यत: नई कविता प्रयोगवाद का
ही विकसित-परिष्कृत रूप है। साहित्य-जगत में स्वीकृत हो
जाने के बाद प्रयोगवादी कविता ही नई कविता के नाम से जानी गई।
समसामयिक
सामाजिक परिस्थितियों से उपजी प्रयोगवादी कविता के कवियों ने जीवन की मामूली घटनाओं,
चलताऊ प्रसंगों, जनोपयोगी उपकरणों से भी अपने बिम्ब-प्रतीक तैयार कर लिए। नलिन विलोचन
शर्मा ने वसन्त-वर्णन में लाउड-स्पीकर; प्रत्यूष-वर्णन में रिक्शा के भोंपू की ध्वनि,
कहीं रेल के इंजन की ध्वनि और केसरी कुमार ने व्यावसायिक जीवन के उपमान जस के तस उकेर दिए।
मदन वात्स्यायन ने कारखानों के मशीनों की ध्वनि; भारत भूषण अग्रवाल ने टाइपराइटर
की ध्वनि; रघुवीर सहाय ने सिनेमा की रील के उपमानों का उपयोग किया। चिकित्सा एवं
रसायन-शास्त्र के उपमानों से भी इन्हें कोई परहेज नहीं हुआ। गिरिजा कुमार माथुर ने औद्योगिक एवं रासायनिक युग के प्रतिमान से अपने
समय को रेखांकित किया --
उगल रही हैं खानें सोना,
अभ्रक,ताम्बा,जस्ता, क्रोनियम
टीन, कोयला,लौह, प्लेटिनम
युरेनियम, अनमोल रसायन
कोपेक सिल्क, कपास, अन्न-धन
द्रव्य फोसफैटो से पूरित!
मध्यमवर्गीय
जीवन की
दुर्बलता
उजागर करते हुए प्रयोगशील कवियों ने सदैव सामूहिकता की तुलना में वैयक्तिक जीवन की
विडम्बना को अधिक महत्त्व दिया। सामूहिकता की ओट में मनुष्य की निजता पर आघात और असंगत आचरण इन कवियों को
कतई स्वीकार्य नहीं था। मनुष्य की वैयक्तिकता और वैयक्तिक जीवन की क्षणानुभूति
उनके यहाँ बड़ी जीवनदायिनी होती थी। उन्हें हरी घास भी उन्मुक्त रागात्मक अनुराग
की अनुभूतियों के साक्षी दिखते थे। अज्ञेय ने पादपों की अनुभूतियों पर भी भरोसा किया और अपनी बान्धवी से
कहा--
आओ बैठो
क्षण भर तुम्हें निहारूँ।
झिझक न हो कि निखरना
दबी वासना की विकृति है!
चलो उठें अब;
अब तक हम थे बन्धु
सैर को आए--
और रहे बैठे तो
लोग कहेंगे
धुँधले में दुबके दो प्रेमी बैठे
हैं
वह हम हों भी
तो यह हरी घास ही जाने
दो मनुष्यों
के प्रेमावेग और अनुराग के साक्षी हरी घास की अनुभूति ने यहाँ कवि-दृष्टि को उद्बुद्ध
कर दिया, मगर गौरतलब है कि वे छायावादियों की तरह भावुकताओं से आबद्ध नहीं हुए,
बौद्धिकता बरकरार रखी; क्योंकि प्रयोगशील कवि के लिए भावुकता त्याज्य और बौद्धिकता
वरेण्य थी।
विद्रोह
का स्वर उनके यहाँ इतना प्रखर है कि वह व्यवस्था और परम्परा की उपादेयता को मोड़ता हुआ
दिखता है, जिसमें पारम्परिक साधन के बिना भी सफलता और आत्म-शक्ति के उद्घोष के रूप दिखते हैं। रूढ़ियों एवं
परम्पराओं से मुक्त होते हुए भवानी प्रसाद मिश्र को लगा कि--
ये किसी
निश्चित नियम, क्रम की सरासर सीढ़ियाँ हैं
पाँव रखकर
बढ़ रहीं जिस पर कि अपनी पीढ़ियाँ हैं
बिना सीढ़ी के बढ़ेंगे तीर के जैसे
बढ़ेंगे।
विद्रोह
के दूसरे स्वरूप में भारत भूषण अग्रवाल ने दैवत्व की पारम्परिक शक्ति को अमान्य कर दिया; अपने ज्ञान-बल
पर भरोसा किया; नियति को संघर्ष की ललकार एवं चुनौती दी--
...पूजा
है पराजय का विनत स्वीकार-
बाँधकर
मुट्ठी तुझे ललकारता हूँ
सुन रही
है तू?
मैं खड़ा यहाँ तुझको पुकारता हूँ।
उधर क्रोधाभिभूत
अज्ञेय ने आततायी परिवेश को ललकारा, चुनौती दी, क्रुद्ध वीर्य के प्रकोप से धमकाया--
ठहर-ठहर आततायी! जरा सुन ले
मेरे क्रुद्ध वीर्य की पुकार आज
सुन ले। (जनाह्वान/इत्यलम्)
जग से घिरे
होने के बावजूद अज्ञेय को अपने उद्धत विद्रोही पर विश्वास है--
तुम्हारा यह उद्धत विद्रोही
घिरा हुआ है जग से, पर है सदा अलग
निर्मोही!
जीवन-सागर हहर हहर कर
उसे लीलने आता दुर्धर
पर वह बढ़ता ही जाएगा लहरों पर आरोही! (विश्वास/इत्यलम्)
एक उष:काल
में अज्ञेय को अनुभव हुआ कि--
मैं ही हूँ वह पदाक्रान्त रिरियाता
कुत्ता--
मैं ही वह मीनार-शिखर का प्रार्थी
मुल्ला--
मैं ही वह छप्पर-तल का अहंलीन शिशु
भिक्षुक--
और हाँ, निश्चय,मैं वह तारक-युग्म,
अपलक द्युति, अनथक गति, बद्ध नियति
जो पार किए जा रहा नील मरु-प्रांगण
नभ का
--(उष:काल की भव्य शान्ति/इत्यलम्)
उसी अज्ञेय
ने दु:ख को दर्शन भी बना दिया--
दु:ख सबको माँजता है
चाहे स्वयं सबको मुक्ति देना
वह न जाने किन्तु--
जिनको माँजता है।
उन्हें वह सीख देता है कि
सबको मुक्त रखे।
अर्थात्,
समस्त विरोधी-विद्रोही भावों के बावजूद प्रयोगवादी कवि जीवन की आशाओं-आकांक्षाओं
से अपनापा बनाए हुए थे। वैज्ञानिक युग से प्राप्त ज्ञान-बोध के कारण उन सत्यान्वेषी
कवियों ने जिन पुरातन धारणाओं, मान्यताओं, चरित्रों का पाखण्ड समझ लिया था, उनके
प्रति उन्हें कोई श्रद्धा नहीं रह गई थी। देवी-देवता, भाग्य-दुर्भाग्य, मन्दिर-मस्जिद, लोक-परलोक में उन्हें कोई आस्था
नहीं रह गई थी। वे स्वर्ग, नरक, ऋषि, महात्मा, परी, देवता...हर किसी से निर्भीक हो गए थे।
इसीलिए 'ओ प्रस्तुत मन' कविता में भारत भूषण अग्रवाल ने एक रात में स्वप्न
देखा
कि मेनका अस्पताल में नर्स हो गई
है
और विश्वामित्र ट्यूशन कर रहे हैं
उर्वशी ने डांस स्कूल खोल लिया है
नारद गिटार सीख रहे हैं
और बृहस्पति अंग्रेजी में अनुवाद
कर रहे हैं।
प्रयोगवादी
कवियों ने कभी अपनी कुण्ठाओं और वासनाओं को भी छिपाने की चेष्टा नहीं की, उसे पूरी नग्नता से प्रस्तुत किया।
'अपनी कुण्ठाओं की/दीवारों में बन्दी' बने घुटते हुए भी धर्मवीर भारती ने
'टूटा पहिया' शीर्षक कविता में लघु से लघुत्तम तक की चिन्ता रखी; लघु मानव
की क्षमता में इतिहास की गति में अप्रत्याशित मोड़ लाने की अभिलाषा और सम्भावना देखी
--
अपने पक्ष को असत्य जानते हुए भी
बड़े-बड़े महारथी
अकेली निहत्थी आवाज़ को
अपने ब्रह्मास्त्रों से कुचल देना
चाहें
तब मैं
रथ का टूटा हुआ पहिया
उसके हाथों में
ब्रह्मास्त्रों से लोहा ले सकता
हूँ !
मैं रथ का टूटा पहिया हूँ
मैं रथ का टूटा पहिया हूँ
लेकिन मुझे फेंको मत
इतिहासों की सामूहिक गति
सहसा झूठी पड़ जाने पर
क्या जाने
सचाई टूटे हुए पहियों का आश्रय ले
लघुत्तम
और अकिंचन तक में वे उज्ज्वल सम्भावना रेखांकित करते थे। पराजय एवं जनसमूह को आक्रान्त
करने वाली परिस्थितियों के बावजूद सामूहिक शक्ति के प्रति उन कवियों का विश्वास
नहीं डिगा। विजयदेव नारायण साही ने घोषणा की कि--
हर आँसू
कायरता की खीझ नहीं होता
बाहर आओ
सब साथ मिलकर रोओ
यह भारतीय
जनजीवन के वैसे समय का रेखांकन है, जब 'आदमी का चेहरा' उसकी पहचान बताने में
विफल होने लगा था, कपड़ों से मनुष्य की हैसियत और अस्तित्व की पहचान की जाने
लगी थी। ऐसे ही समय में रेलवे स्टेशन पर सामान ढोते एक कुली को कुँवर नारायण ने देखा
कि वह सिर पर सामान लादे उनके स्वाभिमान से दस क़दम आगे जा रहा था--
सामान सिर पर लादे
मेरे स्वाभिमान से दस क़दम आगे
बढ़ने लगा वह
जो कितनी ही यात्राओं में
ढो चुका था मेरा सामान
कुली की
पहचान तो लोग उसके चेहरे से नहीं, उसकी लाल कमीज़ पर टँके नम्बर से करते हैं; इसलिए
कुँवर नारायण ने--
आज जब अपना सामान ख़ुद उठाया
एक आदमी का चेहरा याद आया
कहकर जनवृत्त
को समझाया कि मौका पाकर लघुता कितनी विराट हो जाती है। कदम-कदम पर संशय और अनास्था
देखते हुए भी उन कवियों ने आस्था और नव-निर्माण के स्वर मुखरित किए। नरेश मेहता,
रघुवीर सहाय, गिरिजा कुमार माथुर, हरिनारायण व्यास ने तो काव्य में अनास्थामूलक तत्त्वों
को
सिरे से
निरर्थक माना। अज्ञेय ने तो अपनी कविताओं में आस्था की सफल अभिव्यक्ति की--
मैं आस्था
हूँ
तो मैं
निरन्तर उठते रहने की शक्ति हूँ
...
जो मेरा
कर्म है,उसमें मुझे संशय का नाम नहीं
वह मेरी अपनी साँस-सा पहचाना है
इस धारा
के कवियों ने कभी वेदना से मुँह नहीं मोड़ा, उससे लड़ा। भारत भूषण अग्रवाल को तो वेदना उत्साह देने लगी--
पर न हिम्मत
हार
प्रज्ज्वलित
है प्राण में अब भी व्यथा का दीप
ढाल उसमें
शक्ति अपनी
लौ उठा
व्यष्टि-सुख
की तुलना में समष्टि-कल्याण उनके यहाँ अधिक महत्त्वपूर्ण माना गया। धरती के जनजीवन
को मंगलमय बनाने के लिए रघुवीर सहाय ने सूर्य को आमन्त्रण दिया कि--
आओ स्वीकार निमन्त्रण यह करो
ताकि, ओ सूर्य,ओ पिता जीवन के
तुम उसे प्यार से वरदान कोई दे जाओ
जिससे भर जाए दूध से पृथ्वी का
आँचल
जिससे इस दिन उनके पुत्रों के लिए
मंगल हो
समष्टि
हित में ये कवि कई बार अपने व्यक्तिवाद और अहं के विसर्जन को भी तत्पर हुए। सन् 1953 में लिखी अपनी
कविता 'यह दीप अकेला' में अज्ञेय गर्व से भरे मदमस्त एकाकी दीए को यदि पंक्ति
को
समर्पित
करने को तत्पर हो उठे, तो इसका कारण सामूहिकता के हित में अहं का विसर्जन ही है--
यह दीप अकेला स्नेह भरा
है गर्व भरा मदमाता,पर
इसको भी पंक्ति को दे दो
यह वह विश्वास, नहीं जो अपनी लघुता में भी काँपा,
वह पीड़ा, जिसकी गहराई को स्वयं उसी ने नापा,
कुत्सा, अपमान, अवज्ञा के धुँधुआते कड़वे तम में
यह सदा-द्रवित, चिर-जागरूक, अनुरक्त-नेत्र,
उल्लम्ब-बाहु, यह चिर-अखण्ड अपनापा
जिज्ञासु, प्रबुद्ध, सदा श्रद्धामय
इस को भक्ति को दे दो
यहाँ यह
गर्वोन्नत एकाकी दीप अहं का प्रतीक है, जिसे कवि ने पंक्ति को, अर्थात् समूह को
समर्पित करना चाहा। समर्पण-भाव की इस उद्भावना में कवि नागरिक अपनी लघुता के कारण
काँप नहीं रहे थे, अपनी पीड़ा की गहराई नहीं नाप रहे थे; कुत्सा, अपमान, अवज्ञा की कड़वी घूँट पीकर भी, गहन
अन्धकार में रहकर भी वे सदा द्रवित और जागरूक थे; तेजमय नेत्र, विराट बाहुबल, अखण्ड जिज्ञासा...सब के साथ वे
समूह हित में मिल जाने को तत्पर थे।
प्रयोगशील
कवि अतल-मन की नग्न-अश्लील वृत्तियों के चित्रण में भी किसी दुविधा से आबद्ध नहीं
होते थे। प्रयोजन पड़े तो यौन-प्रसंगों के उन्मुक्त चित्रण से भी उन्हें कोई परहेज
नहीं था, वे समस्त वर्जनाओं से मुक्त थे। यौन-क्रियाओं को वे मानवीय वृत्तियों एवं
प्रेरणाओं की अनिवार्य परिणति मानते थे। आत्म-बुभुक्षा, यौन-पिपासा, आत्म-सुरक्षा
की कामना तो मनुष्य की आदिम वृत्तियाँ होती हैं; इसलिए इसका चित्रण काव्य में
वर्जित क्यों हो! मगर मुख्य बात यौन-चित्रण का समावेश नहीं, उस युक्ति के औचित्य का है। उल्लेख सुसंगत
होगा कि भावकों के यौन-भाव में ऐसे चित्रणों से गुदगुदी पैदा करना कभी किसी कवि
का काम्य नहीं होता; जैविक-वृत्तियों के रेखांकन में कवि प्रयोजनवश ऐसे दृश्यें
का सहारा लेते हैं। इस क्रम में विचारणीय है कि जीवन-यापन की क्रियाओं के दौरान
मनुष्य के यौन-भावों के साथ-साथ उसकी चेतना-वृत्ति भी सतत जाग्रत रहती है; और मनुष्य
सदैव उससे नजरें चुराता रहता है। क्योंकि मनुष्य की चेतना उसकी सबसे बड़ी विवेकशील
अध्यापिका, दिग्दर्शिका होती है; उसे तार्किक जीवन जीने और मानव-विरोधी आचरणों
से संघर्ष करने की प्रेरणा देती है। जो लोग इसकी उपेक्षा कर आहार-निद्रा-मैथुन में
ही प्रवृत्त रहते हैं, जिनके जीवन का परम-चरम उद्देश्य आमाशय, यौनाशय, गर्भाशय
की अपेक्षाओं की पूर्ति मात्र हो, उन पर व्यथित धिक्कार से कुँवर नारायण ने कहा
कि--
आमाशय
यौनाशय
गर्भाशय
जिनकी जिन्दगी का यही आशय
यही इतना भोग्य
कितना सुखी है वह
भाग्य उसका ईर्ष्या के योग्य!
हाय पर मेरे कलपते प्राण तुझको
मिला कैसी
चेतना का जीवन मान
जिसकी इन्द्रियों से परे जाग्रत
हैं अनेको भूख।
यहाँ कुँवर
नारायण की चिन्ता में कबीर (सुखिया सब संसार है खावै अरु सोवै/दुखिया दास कबीर है
जागै अरु रोवै) और तुलसी (सबसे भले हैं मूढ़, जिन्हें न व्यापै जगत गति) के जीवन-दर्शन
को शामिल करना लाभप्रद होगा, जहाँ इन्द्रिय-सुख और आत्म-सुख में स्पष्ट अन्तर
इसी रूप में चित्रित है। कुँवर नारायण की इस चिन्ता में सामान्य जगत-व्यवहार
पर व्यंग्य भी है। यथास्थिति पर मनुष्य की नि:चेष्टा के लिए यह व्यंग्य और
कवि-मन की पीड़ा व्याख्येय है। जाहिर है कि 'चक्रव्यूह' संकलन की इस कविता
में दर्ज ऐसा चित्रण यौन-दशा का निरूपण मात्र नहीं है। 'कनुप्रिया' (धर्मवीर
भारती) में चित्रित सम्भोग-दशा का वर्णन--
मैंने कसकर तुम्हें जकड़ लिया है
और जकड़ती जा रही हूँ
और निकट, और निकट
कि तुम्हारी साँसें मुझमें प्रविष्ट
हो जाएँ
...
और मेरा यह कसाव निर्मम है
और अन्धा और उन्माद भरा; और मेरी
बाँहें
नागवधू की गुँजलक की भाँति
कसती जा रही है
और तुम्हारे कन्धो पर, बाँहों पर,
होठों पर
नागवधू की शुभ्र दन्त-पंक्तियों
के
नीले-नीले चिह्न उभर आए हैं ...
भी यौन-क्रिया
मात्र का चित्र नहीं, क्षण विशेष की अनुभूतियों को यथारूप प्रस्तुत करने की प्रवृत्ति
है, जिसमें कवि ने क्षण मात्र में ही सम्पूर्णता के दर्शन किए। ये
क्षणानुभूतियाँ केवल आनन्द तक सीमित नहीं हैं। प्रयोगशील कवियों के यहाँ क्षण विशेष
की अनुभूतियाँ सुख-सुविधा, दुख-दुविधा, संयोग-वियोग, आशा-निराशा हर रूप में व्यक्त हुई हैं। इस नागवधू के दंश और जकड़
को सामान्य जनजीवन पर तत्कालीन क्रूर व्यवस्था के दंश और जकड़ के रूप में देखने
की जरूरत है, जिसने भोले-भाले इनसान को क्षणिक तृप्ति में इस तरह मोहाविष्ट कर
दिया था कि वे अपने अन्धे उन्माद के लिए सर्वस्व लुटाकर निश्चिन्त और तृप्त
थे।
सौन्दर्य
मात्र का चित्रण प्रयोगशील कवियों का काम्य नहीं था। उनकी दृष्टि में निरापद सौन्दर्य
कहीं नहीं होता; जीवन में हर सुन्दर के साथ-साथ असुन्दर, विकृत, घृणित विषय, वस्तु,
प्रसंग लगे होते हैं। फलस्वरूप जीवन की सम्पूर्णता में सौन्दर्य के मूल्य पर अन्य प्रसंगों
की उपेक्षा नहीं की जा सकती; उन विकृतियों में भी सन्दर्भमूलक सौन्दर्य ढूँढने
की चेष्टा होनी चाहिए। अज्ञेय की कविता 'शिशिर की राका-निशा' में इस स्थिति
का बेहतर उदारण प्रस्तुत हुआ है--
वह शून्यता के अवलेप का प्रस्तार-
इधर-केवल झलमलाते चेतहर,
दुर्धर कुहासे का हलाहल-स्निग्ध मुट्ठी में
सिहरते-से, पंगु, टुंडे, नग्न, बुच्चे, दईमारे पेड़!
पास फिर, दो भग्न गुम्बद, निविडता को भेदती चीत्कार-सी मीनार,
इधर-केवल झलमलाते चेतहर,
दुर्धर कुहासे का हलाहल-स्निग्ध मुट्ठी में
सिहरते-से, पंगु, टुंडे, नग्न, बुच्चे, दईमारे पेड़!
पास फिर, दो भग्न गुम्बद, निविडता को भेदती चीत्कार-सी मीनार,
बाँस की टूटी हुई टट्टी, लटकती
एक खम्भे से फटी-सी ओढ़नी की चिन्दियाँ
दो-चार!
निकटतर-धँसती हुई छत, आड़ में निर्वेद,
मूत्र-सिंचित मृत्तिका के वृत्त
में
तीन टाँगों पर खड़ा, नतग्रीव, धैर्य-धन गदहा।
निकटतम-रीढ़ बंकिम किए, निश्चल किन्तु लोलुप खड़ा
वन्य बिलार-पीछे, गोयठों के गन्धमय अम्बार!
गा गया सब राजकवि, फिर राजपथ पर खो गया।
गा गया चारण, शरण फिर शूर की आ कर, निरापद सो गया।
मानवीय
वृत्तियों की कुटिलता, अविश्वसनीयता, राजनीतिक धूर्तता, मनुष्य के दोमुँहे आचरण,
नीचता, अविवेक, सभ्यता के ढोंग, धर्म के पाखण्ड, लुप्तप्राय सम्बन्ध-मूल्य, स्वार्थपरता ...सब कुछ पर
आजिज होते हुए अज्ञेय व्यंग्य किया--
साँप !
तुम सभ्य तो हुए नहीं
तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगर में बसना
भी तुम्हें नहीं आया।
एक बात पूछूँ--(उत्तर दोगे?)
फिर कैसे सीखा डसना--
विष कहाँ पाया?-- (साँप इन्द्रधनु रौंदे हुए ये/1954)
प्रयोगशील कवियों ने शिल्प के क्षेत्र में
भी पारम्परिकता त्यागकर नए-नए प्रयोग किए। अपने काव्य-सृजन में उन्होंने भाषा-प्रयुक्ति,
शब्द-योजना, छन्द-विधान, लय-बोध, अलंकार-योजना, बिम्ब-विधान, प्रतीक-योजना, उपमान-नियोजन
के नए-नए
प्रयोगों
पर बहुत ध्यान दिया। विषय की अपेक्षा उन्होंने काव्य में सदैव तकनीक पर बल दिया। विषय-वस्तु एवं प्रसंगों
को सरलीकृत करने के बजाय इन कवियों ने उसकी सूक्ष्मता और वैयक्तिकता पर जोर दिया।
काव्य-दृष्टि की इस नवीनता का उन्मेष मुक्तिबोध, अज्ञेय, शमशेरबहादुर सिंह, गिरिजा
कुमार माथुर, प्रभाकर माचवे के यहाँ देखा जा सकता है। शमशेरबहादुर सिंह ने तो फ्रांसीसी
प्रतीकवाद के प्रभाव में भी ढेरो प्रयोग किए। प्रो. नामवर सिंह को शमशेर, प्रभाकर माचवे और नकेनवादियों
के यहाँ बिखरे स्मृति-चित्र प्राय: दिखे। उन्हें माचवे एवं नकेनवादियों के यहाँ
जहाँ किताबी नियमों में ध्यान रखकर 'फ्री-एसोसिएशन' ले आने के सचेष्ट उदाहरण दिखे;
वहीं शमशेर के यहाँ अनायास आते स्मृति-चित्र। नरेश की 'वेदना-निग्रह' कविता
में उन्हें सायास भद्दे ढंग से 'फ्री-एसोसिएशन' ले आने के उद्यम दिखे। शास्त्रीय
रूपक-विधान के आश्रय का यह क्रम नकेनवाद के अन्य दो कवि नलिन विलोचन शर्मा एवं
केसरी कुमार की कविताओं में भी परिलक्षित है। प्रयोगवाद की यथार्थवादी, अन्तर्मुखी
और बौद्धिक प्रवृत्ति के दबाव से आक्रान्त कवियों की सृजन-प्रक्रिया में अबूझ,
अगोचर प्रयुक्तियाँ देखकर प्रो. नामवर सिंह को विचित्र-सा लगा। उन्होंने अज्ञेय
द्वारा प्रयुक्त – निविड़ाऽन्धकार, घनावृत्त ऐक्य, प्रस्वेदश्लथ सम्भार, आत्म-लय के
रुद्र-ताण्डव का प्रमाथी तप्त आवाहन – जैसे पदबन्धों के उदाहरण देते
हुए कहा कि 'आरम्भिक दिनों में अज्ञेय, मुक्तिबोध, नेमि आदि की रचनाओं में एक
प्रकार के बुद्धिप्रसूत बड़े-बड़े क्लिष्ट और दुरुच्चार्य शब्दों के प्रयोग की
बहुलता दिखाई पड़ती है। छायावदियों के शब्द जहाँ कल्पनाकलित कुसुम-कोमल थे, वहाँ
आरम्भिक प्रयोगवादी कविता के शब्द अनगढ़ ठोकरों-से कड़े थे।' किन्तु 'धीरे-धीरे
आतंकमय विशेषणों का समस्त सम्भार उस दर्पस्फीत आवेग के साथ' उन्हें सीधे-सादे
हल्के-फुल्के शब्दों की ओर जाता दिखा। प्रतीकों की जटिलता देखते हुए भी प्रो.
नामवर सिंह ने यद्यपि सम्पूर्ण प्रयोगवाद को प्रतीकवाद नहीं माना; अज्ञेय, शमशेर
जैसे कवियों की प्रतीक-योजना को रहस्य-प्रतीकों पर आधारित नहीं माना; किन्तु छायावादी
लाक्षणिक वक्रता से भी कहीं अधिक गूढ़-जटिल प्रतीकों के कारण उन्होंने यह अवश्य
देखा कि इनके प्रतीकवाद का सैद्धान्तिक आधार भी मूलत: वही है। उन्होंने कहा कि
'इन प्रतीकवादियों को स्पष्ट रूप से यथार्थ का चित्रण करते हिचक होती है, इसलिए
यथार्थ की कटुता, नग्नता और भयंकरता से बचने के लिए प्राय: ये संकेतगर्भी प्रतीकों
का प्रयोग करते हैं।' प्रयोगवादी कवियों की बिम्ब-योजना भी बड़ी प्रभावी रही। इनसे
पूर्व की कविताओं में बिम्ब-योजना का ऐसा सफल निदर्शन विरल है। जीवन्त एवं प्राकृतिक-बिम्बों
के
चित्रण
से यहाँ अभिप्राय अचानक-से अनावृत हो उठते हैं--
बूँद टपकी एक नभ से,
और जैसे पथिक छू
मुस्कान चौंके और घूमे
आँख उसकी जिस तरह
हँसती हुई-सी आँख चूमे,
उस तरह मैंने उठाई आँख
बादल फट गया था,
चन्द्र पर आता हुआ सा
अभ्र थोड़ा हट गया था।
मुस्कान चौंके और घूमे
आँख उसकी जिस तरह
हँसती हुई-सी आँख चूमे,
उस तरह मैंने उठाई आँख
बादल फट गया था,
चन्द्र पर आता हुआ सा
अभ्र थोड़ा हट गया था।
बूँद, नभ,
पथिक, मुस्कान, चौंक, आँख, हँसी, बादल, चन्द्र, अभ्र जैसे शब्दों
की प्रयुक्ति के समेकित प्रभाव से भवानीप्रसाद मिश्र ने वस्तुत: इस कविता में
चमत्कार उत्पन्न कर दिया है। नभ की ऊँचाई से किसी बूँद का टपकना, किसी पथिक का
मुस्कान को छूना, छूकर चौंकना, चौंककर घूमना, आँखों का आँखों को चूमना, उस तरफ कवि
की आँखों का उठना, बादल का फटना, चन्द्र तल से अभ्र (बादल) का थोड़ा-सा हटना...सबने
मिलकर एक चमत्कारिक सम्मोहन पैदा किया है। इस बिम्ब-योजना से भावक अनायास ही अनुभूतियों
की अतल गहराई में गोता लगाने लगते हैं।
प्रयोगवाद
के समय तक भारतीय समाज का जीवन-जगत बदल चुका था। सामुदायिक रहन-सहन में आधुनिकता
का समावेश भली-भाँति हो चुका था। चेतना-सम्पन्न समाज का नया मानस बन रहा था, पर
व्यवस्था एवं परम्परा के नाम पर समाज एवं सत्ता की रूढ़ियाँ ढोई जा रही थीं। प्रयोगशील
कवियों की सजग दृष्टि इस परिवर्तन पर कायम थी। लिहाजा युग-यथार्थ की सहज अभिव्यक्ति
के लिए उन कवियों ने तदनुकूल उपादानों का भरपूर उपयोग किया। विज्ञान, प्रौद्योगिकी,
मनोविज्ञान, राजनीति, लोकाचार, व्यक्तिवाचक संज्ञा...किसी भी क्षेत्र/प्रसंग की
शब्दावलियों, प्रतिमानों से प्रतीक गढ़ने में उन्होंने संकोच नहीं किया। रावण, वटवृक्ष, ब्रह्मराक्षस, गाँधी, सुभाष, तिलक जैसे शब्दों से बने प्रतीक
उदाहरण के लिए देखे जा सकते हैं। भाषा एवं शिल्प के फलक-विस्तार में भी उन्होंने
कोताही नहीं की। गद्य, खबर, लोक-गीत, वक्तव्य...हर तरह के शिल्प, शैली की प्रयुक्तियाँ
इस धारा के कवियों ने अपनाई। इसी में कभी भारत भूषण अग्रवाल ने गद्य या वक्तव्य
शैली अपना ली--
तुमने सारे ठाठ इस आधार पर बनाए
थे
कि एक की विजय
और दूसरे की पराजय होगी
तुमने दुनिया के लोगों को
या तो शत्रु समझा
या फिर मित्र (विभाजन)
या फिर
आज जब घर पहुँचा शाम को
तो बडी अजीब घटना हुई
मेरी ओर किसी ने भी कोई ध्यान ही
न दिया।
चाय को न पूछा आके पत्नी ने
बच्चे भी दूसरे ही कमरे में बैठे
रहे
नौकर भी बडे ढीठ ढंग से झाडू लगाता
रहा
मानो मैं हूँ ही नहीं-
तो क्या मैं हूँ ही नहीं? (विदेह)
या फिर
अज्ञेय ने लोक-गीत की शैली अपना ली--
मेरा जिया हरसा।
खडख़ड़ कर उठे पात, फड़क उठे गात।
देखने को आँखें घेरने को बाँहें।
पुरानी कहानी?
ओठ को ओठ, वक्ष को वक्ष-
ओ पिया, पानी!
मेरा हिया तरसा।
गरज यह
कि प्रयोगवाद ने बेशक दुरूहता का आरोप झेला, पर हर क्षेत्र में नवीनता के आग्रह के
साथ
यह हिन्दी
काव्यधारा की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है।
निजी अनुभूतियों
से उपजी, नवीनतम प्रयुक्तियों से पगी प्रयोगवादी काव्य-धारा मध्यवर्गीय समाज के
दु:ख-दैन्य एवं दुर्बलताओं को अत्यन्त साहसिकता और संवेदना से उद्घाटित करनेवाली
कविता है। निष्प्रभ हो गए प्रतिमानों और जर्जर मान्यताओं को त्यागकर इसने सामूहिकता
के साथ-साथ जीवन की वैयक्तिक विसंगतियों को भी प्रमुखता से रेखांकित किया। ह्रासोन्मुख
जनसमूह की अनास्था से आहत इस धारा के कवियों ने अमानवीय होती जा रही समाज-व्यवस्था
के संवेदनशील तन्तुओं को पकड़ने में अपनी पर्याप्त प्रतिबद्धता एवं निष्ठा दिखाई।
इसकी आत्मकेन्द्रिकता प्रो. नामवर सिंह को बेशक संकीर्ण लगी तथा औरों के साथ-साथ
प्रयोगवादी कविता पर भी इस संकीर्णता के घातक परिणाम की सम्भावना उन्हें दिखी;
प्रयोगवादी कविताओं में उन्हें 'एक विशेष प्रकार की घुटन और एकरसता' भी दिखी जो
'कवि और पाठक दोनो की प्रवृत्तियों को गहराने के नाम पर संकुचित' कर रही थी और 'इस
तरह उन्हें व्यापक विश्व-समाज और प्रकृति में फैलने से रोककर मनुष्य को जीवन्मृत'
बना रही थी। किन्तु ये कविताएँ ही उन्हें इस अर्थ में ऐतिहासिक महत्त्व की लगीं
कि अत्यन्त आत्मनिष्ठा के बावजूद इसने 'समाज के एक खास अंग की यथार्थ मन:स्थिति
को प्रतिध्वनित किया है और उस प्रतिध्वनि के द्वारा हममें से कुछ की कुण्ठित
संवेदनशीलता को उद्धृत किया है।' सचमुच इस धारा की कविताओं ने जनजीवन के दारुण यथार्थ
की तीक्ष्ण कटुता, मध्यवर्गीय सामुदायिक जीवन की खण्डित आस्था, सशंकित जीवन-बोध,
ह्रासमान जीवन-मूल्य की वास्तविकता को प्राणपन से उजागर किया। प्रयोगवादी कविताओं
ने बेशक इन परिस्थितियों से निजात पाने का रास्ता नहीं दिखाया, पर निष्ठा
के साथ इन परिस्थितियों का बोध करा देना भी कोई छोटा अवदान नहीं है; प्रयोगवाद
और प्रयोगवादी अपने इन अवदानों के लिए इतिहास में सदैव मान्य रहेंगे।
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