Sunday, July 12, 2009

राजकमल चौधरी का कथा साहित्य और विखण्डित समाज का सच

राजकमल चौधरी के साहित्य में समाज का सच

हर प्राणी का अपना समाज होता है और कायदे से देखा जाए तो साहित्य उस समाज का इतिहास होता है। इतिहासयद्यपि विषय के रूप में अलग से स्वीकृत है, पर उस इतिहास में सम्बद्ध काल के राजा के जय-पराजय, क्रूरता-दयालुता, शौक-स्वार्थ, नीति-नीयत, जन्म-मृत्यु, विवाह-व्यवस्था आदि का वर्णन होता है। आम जनता के दुख-दर्दों से उन्हें कोई खास मतलब नहीं होता, बडे़ झटके से वे सामान्य जनता की जीवन पद्धति पर एकाध पंक्ति कहकर निकल जाते हैं। यहाँ तक कि राजा के राज्य के सीमा-विस्तार में शहीद हुए सिपाहियों की स्थिति भी उन्हें प्रभावित नहीं करती। वे सिर्फ राजा के निकटवर्ती मन्त्राी, महामन्त्राी, राजपण्डित आदि पर एकाध टिप्पणी करने की स्थिति भी बमुश्किल ही बना पाते हैं । यूँ एक इतिहासज्ञ या इतिहासकार से इससे अधिक की अपेक्षा भी नहीं की जाती।कृइतिहासकार से जिस बात की अपेक्षा नहीं की जाती और इतिहासकार जिस बात की उपेक्षा कर देते हैं, साहित्यकारों की लेखनी उसे पर्याप्त प्रतिष्ठा देती है। अर्थात्, इतिहास यदि समकालीन राजा का वृतान्त होता है तो साहित्य समकालीन जनता की जीवन प्रक्रिया, समकालीन जनपद की चित्रावृत्ति का। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में कहा जाए, तो प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्रावृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है...जनता की चित्रावृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है(हिन्दी साहित्य का इतिहास/पृ.-1)
मानव सभ्यता के प्रारम्भिक काल से ही विकास प्रक्रिया लगातार जारी रही है और इस क्रम में इसके रहन-सहन, संस्कृति-लोकाचार, खान-पान, आहार-व्यवहार आदि में विकास होता रहा है। परन्तु मनुष्य का मूल स्वभाव, उसकी इच्छा-आकांक्षा, सदा से उसकी मानसिक स्वच्छन्दता और मानसिक सृजनात्मकता की अनुचरी रही है। बाद में चलकर समाज को सभ्य बनाए रखने के लिए जो आदर्श बनाए गए, वे समकालीन अर्थ-समृद्ध और शिक्षा-सम्पन्न लोगों द्वारा संचालित होने लगे। फलस्वरूप अधिसंख्य लोग तो उन आदर्शों के जाल में जकड़ गए और मुट्ठी भर समृद्ध लोग इनके भाग्य विधाता बन गए। आगे चलकर यह व्यवस्था और भी विकृत होती गई। मानव निर्मित ये आदर्श पहले तो धार्मिक और पौराणिक ग्रन्थों से निकलकर आम जनता को पाप-पुण्य की परिभाषा समझाते थे, बाद में इसे कानून बना दिया गया। पाप-पुण्य का अमूर्त दण्ड मूर्त हो गया और बकायदा मनुष्य को आर्थिक-सामाजिक-शारीरिक रूप से प्रताड़ित करने लगा। बीसवीं शताब्दी का पूर्व काल आते-आते ये आदर्श और इन आदर्शों में व्याकुलता से फड़फड़ाता मानव समुदाय उस स्थिति में आ गया जहाँ से उन दृश्यों पर घिन आने लगी थी। आदर्शों के रक्षक वर्ग के कुकर्मों की दुर्गन्ध काफी बढ़ गई थी, उन कुकर्मों में उनके सहायकों की करतूतें विकृत दिखने लगी थी और सामान्य जनता का आर्थिक, शारीरिक, मानसिक शोषण वीभत्सता पैदा करने लगा था। राजकमल चौधरी की साहित्यिक यात्रा ऐसी ही परिस्थितियों में प्रारम्भ हुआ।
राजकमल चौधरी का जन्म 13 दिसम्बर 1929 को अपने ननिहाल रामपुर हवेली में हुआ। यह समय भारत की जनता के लिए गुलामी का समय था। सन् 1947 आते आते ये अपनी उम्र के अठारहवें वर्ष में प्रवेश कर चुके थे। जाहिर है कि इनकी पूरी की पूरी किशोरावस्था अंग्रेजों की गुलामी में बीती। भारतीयों पर अंग्रेजों के अत्याचार और उन आत्ततायियों को मदद देते अर्थ-पद लोलुप मुट्ठी भर भारतीयों की घिनौनी हरकतें इन्होंने देखी। इसके साथ-साथ समाज में व्याप्त अन्य दुरवस्था भी इनकी नजरों के सामने थी--जो किसी भी तरह से सियासी नहीं थी, पूरी तरह स्थानीय थी, वहाँ जानवरों से भी बदतर स्थिति थी। कहने को सामाजिक आचार संहिता की लम्बी-चौड़ी व्याख्या थी, पर व्यवहार में आदमी-आदमी को खा जाने को उद्यत थे, बड़ी मछली छोटी मछली को खा रही थी। सामाजिक सुरक्षा और समर्थन के गीत सबके लिए गाए जा रहे थे पर किसी भी निर्धन और असहाय और अशक्त लोगों की इज्जत-आबरू और उसका हक सुरक्षित नहीं था। देश की अस्मिता और निर्धन पड़ोसियों के अस्‍तित्व की दलाली करने के लिए हर कोई तैयार और तैनात थे। राजकमल के भीतर का रचनाकार इसी भट्ठी में तैयार हुआ था।
मैथिली में इनकी पहली कविता फरवरी-1955 में, पहली कथा अक्टूबर-1954 में तथा हिन्दी में पहली कविता सितम्बर-1956 में और पहली कहानी मार्च-1958 में छपी। पर इनकी अप्रकाशित डायरी में मौजूद रचनाओं की स्तरीयता से स्पष्ट होता है कि ये निश्चित रूप से स्वाधीनता पूर्व से ही गहन रचना-कर्म में जुटे रहे होंगे। बहरहाल...
राजकमल चौधरी का देहान्त 19 जून 1967 को हुआ। साढे़ सैंतीस वर्ष की कुल आयु में से बालापन को निकालकर गणना की जाए तो एक चैंकाने वाला तथ्य सामने आता है। इतने कम समय में इतना अधिक लिखकर छोड़ देने वाले राजकमल चौधरी का मूल्यांकन हिन्दी और मैथिली के अध्येतागण क्यों नहीं कर पाए? लेकिन इस विवादास्पद मुद्दे पर जाना यहाँ उचित नहीं
साहित्य तो हर समय समकालीन क्रान्ति का अगुआ होता रहा है। स्वाधीनता पूर्व से लेकर स्वातन्त्र्योत्तर काल तक के समयान्तराल पर यदि नजर डालें तो यह बात बड़ी बेवाकी से स्पष्ट होती है कि दलालों, आत्ततायियों, बेईमानों, मुनाफाखोरों, अनैतिक लोगों के दुष्कर्मों से समाज और समाज के नागरिक परेशान थे। यहाँ अफसरशाही, शोषण, अनाचार, अनीति, चोरी, बेईमानी, धोखेबाजी, पाखण्ड आदि का बोलबाला बढ़ता जा रहा था। राजकमल चौधरी का साहित्य इन्ह° स्थितियों से ऊबी हुई जनता की अन्तश्चेतना, इच्छा-आकांक्षा की प्रतिकृति है।
वस्तुतः साहित्य मनुष्य की अन्तश्चेतना की वह भाषात्मक अभिव्यक्ति है जो लेखक के निर्णय, विचार, चेतना आदि से पाठक को प्रभावित कर सके और उन्हें उस अनुभूत सत्य का सहभोक्ता बना सके। भाषात्मक अभिव्यक्ति में यह ताकत भरने की कला सबमें नहीं होती। यही वह विशेषता है जिसके कारण वह आम जनता से कुछ अलग भी होता है। राजकमल के साहित्य में यह ताकत शब्द-प्रयोग के चातुर्य, शिल्प के कौशल और विषय-उपस्थापन शैली से आती है। शब्द के मामले में सार्त्र का कहना है--शब्द पारदर्शी होता है। उसकी पारदर्शिता को रंगीन काँच की अपारदर्शी टुकड़ी मिलाकर नष्ट करना मूर्खता है।1
किन्तु यह मूर्खता तो शब्दों की ताकत से लापरवाह लोग ही करेंगे। प्रकारान्तर से शब्द-प्रयोग में शैली का स्वरूप निदर्शित होता है। शब्द और शिल्प पर अनुशासन नहीं रहने से कृति की स्वाभाविकता मर जाती है, शब्द की पारदर्शिता नष्ट हो जाती है। राजकमल इस मामले में बडे़ उस्ताद थे। इनके शब्द प्रयोग किसी मँजे हुए निशानेबाज की तरह हर जगह प्रयुक्त हुए हैं। सार्त्र ने शब्द को गोली भरी पिस्तौल और बोलने को गोली दागना कहा है।2 राजकमल के शब्द प्रयोग में यही ताकत दिखाई देती है, लक्ष्यवेध की ताकत।
कोई भी रचनाकार सबसे पहले एक सामाजिक प्राणी होता है। वह अपनी जिन्दगी के साथ-साथ एक वृहद् समाज की मुकम्मल जिन्दगी का भी भोक्ता होता है। उस भोग से जुटाए गए यथार्थ का चित्राण साहित्य में होता ही है। पर, यह अनुभूत यथार्थ साहित्य में व्यक्त होकर अपनी सार्थकता तभी साबित कर पाता है, जब वह कलाकार के मस्तिष्क से प्रमाता के मस्तिष्क में उसी रूप में पहुँच जाए। यह संक्रमण रचनाकार के कौशल से प्रभावकारी हो पाता है। रचनाकार की अनुभूति, नितान्त वैयक्तिक रहने के बावजूद साहित्य में आकर निर्वैयक्तिक हो जाता है, या यूँ कहा जाए कि वह सामूहिक हो जाता है। राजकमल के कौशल में ऐसा बहुत कुछ था, जो उनकी अनुभूति को सामूहिक बनाता था ।
किसी भी लेखक का जनसम्बन्ध उसके रचना-संसार से झाँकता रहता है। जनसम्बन्ध का स्तर ही उसके अनुभव को परिपक्व करता है अथवा कच्चा रखता है। अनुभव की मौलिकता और अनुभव की कोटि इस बात से निर्धारित होती है कि लेखक अपने को किस वर्ग से किस सीमा तक जोड़ पाता है। यह जनसम्बन्ध ही रचनाकार के नजरिए को दुरुस्त करता है, लेखक अपनी जीवन-दृष्टि का निर्धारण इस जनसम्बन्ध के आधार पर ही तय करता है। यदि कोई लेखक अपनी कथा एक राजासे शुरू करता है, तो वहीं वह लाखों लोगों को उसकी प्रजा बना देता है, हजारों को भूखा-नंगा बना देता है, राजमहल में सैकड़ों दासियाँ, रखैल, विषकन्या, सुन्दरी नियुक्त कर देता है। ज्यों ही लेखक उस राजा का राज्य विस्तार करता है, त्यों ही वह सैकड़ों सैनिक की हत्या कर देता है, युद्ध करता है, गुलाम बनाता है, मनुष्य की स्वाधीनता नष्ट करता है। और एक सही लेखक, जो मानवीय मूल्य का रक्षक है, इस तरह की अमानवीय हरकत कदापि नहीं करेगा। राजकमल शुद्ध रूप से मानवीय धर्म का सूक्ष्मता से पालन करने वाले थोड़े से लेखकों में से थे, जिनकी प्रतिबद्धता जनसाधारण के हित से जुड़ी हुई थी। अपने जीवन के लगभग अन्तिम समय में इन्होंने एक परिचर्चा चुनाव के बाद का भारत: लेखकों की दृष्टि मेंमें सन् 1967 में लिखा था--बुद्धिजीवियों का --खासकर लेखकों और कवियों का यह सामाजिक कर्तव्य होता है कि वे जनता को सही जानकारी दें--उसकी स्थिति के विषय में और उसकी मुक्ति के विषय में। समाज-जीवन, अर्थ-चक्र, शिक्षा-व्यवस्था, कृषि और उद्योग, संसार और संस्कृति के सारे मोर्चों पर क्रान्ति के लिए आमूल परिवर्तन के लिए--जनता को प्रस्तुत करना, केवल हमलोगों का कर्तव्य है--क्योंकि, अन्य सभी सामाजिक कार्यकत्र्ता, अर्थात् पत्राकार, उपदेशक, शिक्षक, नेता, संन्यासी और राज्याश्रित बुद्धिजीवी स्वार्थ लाभ और सत्ता की राजनीति में इस तरह उलझ गए हैं कि खेतों में काम करनेवाली जनता और मशीनों में काम करनेवाली जनता उनके पास पहुँच नहीं पाती है, और वे लोग जनता के पास जाने की इच्छा नहीं रखते हैं, अब भी नहीं
मैं, राजकमल चौधरी, अपनी तरफ से जनता के पास वापस चले आने का वादा करता हूँ-- मेरी सही यात्रा वहीं से शुरू होगी।3
हालाँकि राजकमल शुरू से ही जनता के पास थे, सदा जनता के जीवन के दुख-सुख ही उनकी रचनाओं में व्यक्त होते रहे। इन्होंने लिखा--
बीसवीं शताब्दी के इस मीशनी युग में अभी भी
फैक्ट्री का भोंपा नहीं, यन्त्रा सुन्दरी का लौह-जूड़ा नहीं
ट्रैक्टर का विकट निनाद नहीं, पूँजीपति से श्रमिकों का विवाद
नहीं
कण्ट्रोल का गेहूँ, भूखमरी, अकाल नहीं, दंगा, जुलूस, हड़ताल
नहीं
--बजता है कर्ण-गुहर में अभी भी निर्झर संगीत।
किन्तु, कौन टोकेगा, किसको अवगति है?
कविवर सुनिए, परम्परा की यह छाया
सहस्रछिद्र चलनी की छाया है...4

जिस राजकमल की प्रतिबद्धता ऐसी थी, जिस राजकमल ने आम जनमानस के सुख-सौहार्द में अपनी खुशियाँ तलाशी थी, वे राजकमल यह कैसे बर्दाश्त करते कि स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात भी भारत की जनता जहालत भरा जीवन ही जीए। काफी दिनों तक यातना, अत्याचार, शोषण, दमन सहने के बाद भारत की जनता को अस्‍तित्व बोध हुआ था। विदेशी शासकों की दमनपूर्ण हरकत और विदेशी भाषा के जबर्दश्ती प्रत्यारोपण से यहाँ की जनता के मन में अपने राष्ट्र और अपनी भाषा के प्रति प्रेम अंकुरित हुआ था। इसी प्रेम ने आम जनता को विद्रोह पर आमादा किया था। विद्रोह के पश्चात् स्वाधीनता हासिल हुई। परतन्त्र भारत में गढे़ गए सपनों की पूर्ति के प्रति सब लालायित हुए। पर वे स्वप्न महल ध्वस्त हो गए । स्वाधीन भारत की सुख-सुविधाएँ मुट्ठी भर लोगों के कब्जे में चली गईं। राजनेता, व्यापारी और प्रशासक वर्गों के गिरफ्त में सुविधाएँ कैद हो गईं। साहित्य-कला-संगीत के रक्षक, बुद्धिजीवी वर्ग उन सुविधाओं का शेयर बाँटने हेतु उनकी कीर्ति गाथा रचने लगे। अर्थात् बुद्धि, ज्ञान और प्रतिभा पर पूँजी और पावर का कब्जा हो गया था। ऐसी परिस्थिति में साहित्य के उद्देश्य और साहित्य के स्वरूप की नई व्याख्या प्रस्तुत की जाने लगी थी। ऐसे ही समय में राजकमल का सृजन कर्म परवान चढ़ रहा था। यह महसूस किया जाने लगा था कि साहित्य संयोग-वियोग की कथा नहीं बल्कि जीवन की व्यख्या है, यहाँ जीवन की समस्याओं पर विचार किया जाना चाहिए । साहित्य सृजन के लिए लेखक को कोई आश्चर्यजनक घटना तलाशने की आवश्यकता नहीं रही। वहाँ जीवन के उन सत्यों की खोज की जाने लगी जो मनुष्य को गलीज जीवन की पहचान मिटाने की साजिश कर रहा था, अर्थात् साहित्य उन स्थितियों का चित्रा उपस्थित करने लगा था जिनमें मनुष्य दुखी होता था, सुखी होता था, दुखी होने पर सुख तलाशने का उद्यम करता था। कुल मिलाकर राजकमल का लेखन आम जनजीवन की विकृतियों, विसंगतियों, दुख-सुख, इच्छा-आकांक्षाओं का अलबम हो रहा था। राजकमल यह तय कर चुके थे कि यह समय जनसाधारण को आन्तरिक पीड़ा, मानसिक यातना, दैहिक-आर्थिक शोषण, उत्पीड़न के अलावा और कुछ दे नहीं रहा है। राजनीतिक व्यवस्था और अवस्था का आलम यह था कि वहाँ देश और देश की जनता की चिन्ता किसी को नहीं थी। सारे के सारे पद-लोलुप व्यक्ति कीट की तरह अपने सारे दायित्वों और सारी नैतिकताओं को भूलकर कुर्सी के चारों ओर मँडरा रहे थे। ऐसे समय में नल-दमयन्ती, गौतम-अहिल्या, बाघ-गीदड़ अथवा अन्य किसी धार्मिक पौराणिक विषय की कथा वैसे नागरिकों के लिए बेमानी हो रही थी, जो भूख-प्यास, अभाव-कुभाव, बेकारी-बेगारी, शोषण-उत्पीड़न की ज्वाला में जल रहे हों। इसलिए साहित्य में मानव जीवन के नए सत्य को उजागर करना आवश्यक समझा जाने लगा था। हिन्दी साहित्य में तो इस तरह के काम प्रेमचन्द, जैनेन्द्र आदि के यहाँ पहले से प्रारम्भ हो चुके थे, मैथिली साहित्य फिर भी बहुत पीछे था। राजकमल ने अपने साहित्य में इसे प्रमुखता दी। राजकमल यह बात समझ चुके थे कि--
आदमी खुद बिके या बेच ही डाले अपनी आँखें, अपना देश
मगर भीड़ अब खाने के लिए गेहूँ और सो जाने के लिए किसी भी गन्दे बिस्तरे के सिवा कोई बात नहीं कहती है...5
राजकमल यह देख चुके थे कि देश स्वाधीन तो हो चुका है पर स्वाधीनता का कोई भी संकेत यहाँ नहीं दिखता। पूँजीपति, राजनेता, आलसुखलीन बुद्धिजीवी, सरकारी अफसर, गैरसरकारी ठेकेदार, कानून, पुलिस, सेना...सबके सब षड्यन्त्रा कर निरीह जनता का शोषण तत्परता से कर रहे हैं। जनता पर अंकुशविहीन शासन-व्यवस्था थोपने की साजिश चल रही थी, लोगों को इस निरंकुश शासन व्यवस्था के लिए अभ्यस्त बनाया जा रहा था:
आदमी को तोड़ती नहीं है लोकतान्त्रिक पद्धतियाँ केवल पेट
के बल उसे झुका देती है
धीरे धीरे अपाहिज, धीरे-धीरे नपुंसक बना लेने के लिए उसे
शिष्ट राजभक्त देश प्रेमी नागरिक बना लेती है आदमी को...6
इस व्यवस्था की शुरुआत बहुत पहले हो चुकी थी। शोषण और दमन कला में प्रवीण, छद्म और पाखण्ड में दक्ष, व्यवस्था के ये ठेकेदार जनता को शिष्ट राजभक्त बनाकर अपाहिज और फिर आश्रित बनाने की प्रक्रिया चला रहे थे। अंग्रेज शासकों के दमन-दैन्य से ऊबी हुई जनता स्वच्छन्दता चाहती थी। ऊब में लिया गया कोई भी निर्णय ठोस नहीं होता। गरमी में सूखे हुए तालाब की मछलियाँ जब प्राणभय और गर्म पानी की ऊब से जान बचाने हेतु कूद कर बाहर आती है, तो वह सूखी जमीन पर आ जाती है। कष्ट से मुक्ति के प्रयास में जान गँवा बैठती है। विदेशी शासन से ऊबी हुई जनता के साथ भी यही हुआ था। मनुष्य परिवर्तनकामी होता है, पर वह पर्याप्त सहनशील और धैर्यवान भी होता है। लम्बे समय तक ऊर्जा संचित कर लड़ता है और जब एक बार लड़ाई शान्त हो जाए तो मनोनुकूल व्यवस्था न मिलने पर भी बडे़ धैर्य से समय बिता देता है। ऐसा अज्ञान के कारण नहीं , अजाग्रत मनोदशा के कारण होता है। प्रेमचन्द के शब्दों में मनुष्य की सहानुभूति साधारण स्थिति में तब तक नहीं जागरित होती जब तक कि उसके लिए उस पर विशेष रूप से आघात न किया जाए। हमारे हृदय के अन्तरतम भाव साधारण दशाओं में आन्दोलित नहीं होते।7
जनता को अपाहिज बनाने की इसी साजिश को रोकने और जनता की अजाग्रत सहानुभूति पर यही आघात करने हेतु राजकमल ने साहित्य सृजन शुरू किया था। उन्हें मालूम था कि हर देश की हर राजनीतिक पार्टी...जनसामान्य का फायदा नहीं चाहती है, चाहती है पार्टी का फायदा। पहले पार्टी का हित, पहले पार्टी के उसूल, बाकी सारा कुछ बाद में। जनता का फायदा तो कोई नहीं चाहता...राजनीतिक पार्टियाँ अनाज पैदा करने का आन्दोलन नहीं करती है। इस आन्दोलन का उन्हें पता तक नहीं होता है। उनके लिए आन्दोलन का मानी होता है खिलाफत और बगावत। सिर्फ खिलाफत, और नारे और जुलूस और निहत्थी जनता को पुलिस के हथियारों के सामने खड़ा कर देना...8
जिस देश में राजनीतिक पार्टियों का यह हाल हो, जहाँ स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात भी किसी तरह का मौलिक परिवर्तन न दिखा हो; अन्न, सुरक्षा, शिक्षा, रोजगार, सरकारी सेवा, अफसरशाही, वस्तुमूल्य, नीति मूल्य, अर्थ-मूल्य, वचन-मूल्य अथवा अन्य किसी स्थिति में ही कोई साधारण परिवर्तन भी न हुआ हो, नए शासक के शासन काल में देश की जनता को अपना प्रतिनिधि उचित व्यक्ति को बनाने का अधिकार और सुअवसर न मिले--उसे स्वाधीनता कहना कितना उचित होना चाहिए?
इस परिस्थिति में राजकमल चौधरी का साहित्य एक ज्वाला की तरह सामने आया, जहाँ इन तमाम दुर्गन्धियों के कुरूप चेहरे लटके दिख रहे थे। ऐसे विकराल समय में भी, जहाँ देश के पढे़ लिखे ईमानदार युवक, शरीर श्रम को उद्यत कर्मठ व्यक्ति रोजगार के लिए भटक रहे थे, स्त्रियाँ पेट भरने के लिए अय्याशों के बिस्तर पर जा रही थीं, सेठ साहूकार के गोदामों में चूहे मोटे हो रहे थे, सडे़ अनाज की बास चारो तरफ फैल रही थी पर देश की जनता भूखों मर रही थी, भूखी नंगी जनता अनाज-पानी और वस्त्रा के देवताओं से भीख माँग रही थी, उस समय में भी इन राजनीतिज्ञों के पिट्ठू बने बुद्धिजीवियों की कमी नहीं थी। पर राजकमल ने जब कलम उठाया तो साहित्य में उन्हें उस तरह के शास्त्रीय अरण्यरोदन और अशास्त्रीय प्रलाप--दोनों में से कुछ भी नहीं भाया। उन्होंने साफ-साफ अपना रास्ता तय किया। साहित्य सम्बन्धी उनकी धारणा यूँ है:
मैं व्यक्ति-सत्यों और वस्तु-सत्यों को किसी स्वप्नवेष्ठित आदर्श से अधिक महत्त्‍व देता हूँ। अर्थनीति और ऑटोमेटिक मशीनों के इस युग में कविता का शास्त्राीय अरण्यरोदन, अथवा अशास्त्राीय प्रलाप, दोनों में से कुछ भी मुझे पसन्द नहीं है।
कविता मेरे अन्तःकरण और मेरे संसार में मेरी निरन्तर यात्रा का प्रतिफल है ; अपने अन्तःप्रदेश में और अपने चतुर्दिक की वस्तुओं, स्थितियों, घटनाओं, यन्त्रों, चक्रों और काल-प्रवाह के अन्तःप्रदेश में! यह यात्रा किन्तु मेरे मनुष्य की यात्रा है। क्योंकि, मैं मनुष्य हूँ, और मनुष्य बने रहना मेरे लिए पर्याप्त है। इसके साथ ही, अपने कवि कर्म को मैं अपना सबसे महत्त्‍वपूर्ण, स्थायी, अनिवार्य और प्राथमिक कर्म मानता हूँ। नेपोलियन ने जो काम तलवार से शुरू किया था, बालजाक उसे अपनी कलम के हौसले से पूरा करना चाहता था। अपनी एक सौ बीस पुस्तकों में बालजाक ने अपना हौसला पूरा किया। और, लेखिका जार्ज सैड से बालजाक ने कहा: साहित्य? साहित्य का कोई अस्‍तित्व नहीं है। अस्‍तित्व केवल मनुष्य-जीवन का है, और राजनीति तथा कला इस जीवन का है।...मैं मनुष्य हूँ, और अपना जीवन जी रहा हूँ, साहित्य में, कला में...।9
जीवन को जीवन-दृष्टि के साथ और अपनी विचारधारा तथा अपनी प्रतिबद्धता के साथ पूरा करने और जीवन की सार्थकता साबित करने के अपने-अपने हथियार, अपने-अपने तरीके होते हैं, राजकमल ने भी अपना हथियार और हथियार चलाने का अपना तरीका चुना। जो बातें इन्होंने अपने कवि और अपनी कविता के बारे में कही है, वे इनके पूरे रचना संसार और पूरी सृजन-प्रक्रिया में लागू होती है।
सम्पूर्ण समाज की समस्त पीड़ा, सफलता-असफलता, सुख-दुख, अभाव-समस्या का जहर पीकर जो उच्छवास निकला, उस वेदना और अवसाद से मुक्ति पाने की जो तरकीब सामने आई, वही उच्छ्वास और वही तरकीब है राजकमल का साहित्य। साहित्य को भी राजकमल ने सदा जीवन की तरह जीया। जीवन और साहित्य में उनके यहाँ कोई द्वैध नहीं दिखता। उनका कहना था, ‘मेरे जीवन और मेरी कविता में कोई भेद, कोई दूरी नहीं है। मेरी कविता मेरे आन्तरिक जीवन और मेरे अस्‍तित्व के रहस्यों, यथार्थों और योजनाओं को प्रकट एवं अंकित करती है।...कविता एक ऐसी कला है, जो व्यक्ति-कारण में आस्था रखती है...अगर मेरी कविता मुझे मुक्त नहीं करती है, तो उसे मैं मात्रा एक वक्तव्य मानता हूँ, कविता नहीं मानता...।10
यह मुक्ति, उन तमाम वेदनाओं से मुक्ति है, जो सामूहिक जीवन की यातनाओं से इन्होंने जमा किया। इनकी हर व्यथा जनसमूह के जीवन से लाई हुई व्यथा है। मनोवेग और अनुभव का विस्तार और उसका सूक्ष्मीकरण इनके साहित्य में बडे़ वैराट्य के साथ दिखता है। व्यक्ति-सत्य को समूह-सत्य बनाने और समूह-सत्य को व्यक्ति-सत्य की तरह भोगने की इनकी प्रक्रिया गजब थी:
क्यों एक ही युद्ध मेरी कमर की हड्डियों में और कभी वियतनाम में
होता है क्यों इन्दिरा गाँधी क्यों तुम वह
मैं क्यों कुछ नहीं...11
अस्पताल में पडे़-पडे़ शारीरिक व्याधि को देश-देशान्तर तक का फैलाव देना इनकी विस्तृत रचना दृष्टि का ही परिचायक है।
राजकमल चौधरी हिन्दी साहित्य और मैथिली साहित्य के ऐसे रचनाकार हैं, जो दोनों भाषाओं में अपनी रचनाओं के बूते मीनार की तरह खडे़ हैं और अपने तमाम समकालीन रचनाकारों की भाँति तिकड़मबाज नहीं रहने के बावजूद सिर्फ रचना और रचना की गुणवत्ता के बल पर उन सबों के बीच ऐसे खडे़ हैं, मानो सारे के सारे बौनों के बीच ताड़ का पेड़ खड़ा हो गया हो...।
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1. सार्त्र, व्हाट इज लिट्रेचर, पृ.-15
2. वही, पृ.-14
3. आलोचना-31, अपै्रल-जून 1967
4. कविता राजकमलक, पृ.-63
5. मुक्ति प्रसंग, पृ.-7
6. वही, पृ.-32
7. साहित्य का उद्देश्य, पृ.-75
8. राजकमल चौधरी, नदी बहती थी, पृ.-117
9. लहर, फरवरी-1968, पृ.-47-48
10. लहर, फरवरी-1968, पृ.-47
11. मुक्ति प्रसंग, पृ.-10

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