शब्द के अन्त में ‘ना’ हो,
और उससे किसी क्रिया-व्यापार का होना
जाना जाए, तो उसे क्रिया कहते हैं। अर्थात् ‘प्रेम करना’ से लेकर ‘सोना, खाना, पढ़ना, चलना’ सब व्यापार है। सच पूछें तो जीवन-यापन का पूरा ढाँचा ही एक व्यापार पर है—छोटों को प्रेम बेचकर बड़े आदर खरीदते हैं; बड़ों को आदर बेचकर छोटे प्रेम खरीदते हैं। विक्रेता सामान
बेचकर रुपया; ग्राहक, रुपया
बेचकर सामान खरीदता है। सभ्यता के आदिकाल से सामाजिक व्यवहार का ढांचा इसी विज्ञापनविहीन
व्यापार पर आधरित रहा है। विख्यात अभिनेत्री रेखा एवं अभिनेता ओमपुरी अभिनीत
फिल्म 'आस्था' में इस फिलॉस्फी को बेहतरीन ढंग से समझाया गया है।
पर आज का 'व्यापार' बगैर 'विज्ञापन' के असम्भव
हो गया है। ‘विज्ञापन’ शब्द का रूढ़ उपयोग स्वातन्त्र्योत्तर काल के वैज्ञानिक
उपलब्धियों में पनपी उपभोक्ता संस्कृति की देन है। ‘सूचना’ और
‘जानकारी’ जैसे शब्द ‘विज्ञापन’ के पूर्वकालिक
शब्द हैं। थोड़ा और पीछे जाने पर इसके स्वरूप गुरुओं, साधु-सन्तों, विद्वानों के उपदेशों और राजाओं, सामन्तों के फरमानों में निहित प्रतीत होते हैं। ‘जानकारी’ से ‘विज्ञापन’ तक की इस यात्रा की व्याख्या तो सभ्यता का
विकास-क्रम करेगा;
पर तथ्य है कि विज्ञापन, उपभोक्ता
को उत्पाद की सूचना देता है, उपदेश
देता है, सलाह देता है, फरमान जारी करता है--और ये सारे काम वे ही कर
सकते हैं, जिनके पास विशेषज्ञता अथवा क्षमता हो। इन दिनों क्षमता का अर्थ है संसाधन।
जिसके पास धन है, वह ज्ञानी भी
है, अधिकारी भी और विशेषज्ञ भी।
वह खुद विशेषज्ञ नहीं है, तो
विशेषज्ञता खरीद लेगा। समय के देवताओं, अर्थात् किसी हीरो को खरीदेगा; उसके मुँह
में अपनी बात डालकर उपभोक्ता के कानों में उड़ेलेगा, और विशेषज्ञ घोषित हो जाएगा।
प्राचीन समय में ज्ञान के तीन स्रोत होते थे--गुरुकुल,
ऋषि-आश्रम और राजदरबार के पण्डित।
स्थितियाँ बदलीं, तो ये
अड्डे--स्कूलों, मन्दिरों-मठों
और सामन्तों-जमीन्दारों-प्रशासकों के दरबार में बदल गए। फिर छापाखना के आ जाने से
पुस्तकों का प्रादुर्भाव हुआ, अखबार
और रेडियो आया। दूरदर्शन आया। इण्टरनेट जैसे सर्वाधिक लोकप्रिय सूचना-तकनीक को
पीछे छोड़कर जनमानस के मन-मिजाज पर कब्जा दूरदर्शन ने ही किया। विज्ञापन जैसे
सन्दर्भों में यह साफ-साफ दिखता है। प्रतीत होता है जैसे दूरदर्शन का मूल लक्ष्य
विज्ञापन ही हो।
इक्कीसवीं सदी के नए पड़ाव पर आकर हमारा देश
बहुत तरक्की कर गया है। भोग-विलास के साधनों की भरमार हो गई है। विलासिता से
मितव्ययिता तक, चोरी-बटमारी से
पूजा-पाठ-तपस्या तक, रसोईघर से फैक्ट्री
की कार्यशाला तक, बिछावन से
कार्यालय की कुर्सी तक, तन और
प्रतिष्ठा ढक पाने लायक वस्त्र से अधिकतम अंगप्रदर्शन करने लायक फैशन तक, दवा से दारू तक, ज्ञान से अज्ञान तक की तमाम सुविधा और व्यवस्था जुटाने
के अवसर हमारे यहाँ या दुनिया के अन्य देशों में उपलब्ध है और सुविधा हासिल करने
की आर्थिक स्थिति में भिन्न-भिन्न तरीके से भिन्न-भिन्न आय वित्त के लोग हैं। फिर
तो यह बहुत जरूरी है कि उन सारे उपादानों की सूचना लोगों को रहे।
आज के उपभोक्ताओं को नए उत्पादों की जानकारी चाहिए। पहले ये
जानकारियाँ विशेषज्ञ देते थे, अर्थात्
शिक्षक, वैद्य, पण्डे-पुजारी, राज-पाट के मुनीम और अधिकारी देते थे, परन्तु आज हर कुछ की जानकारी दूरदर्शन देता
है। अर्थात् दूरदर्शन के माध्यम से देश के उद्योगपति और पूँजीपति देते हैं,
लिहाजा दूरदर्शन ने उद्योगपतियों को हर
बात का विशेषज्ञ बना दिया है। इस समय आम जनता तक सूचना सम्प्रेषित करने का सबसे
जनवादी साधन रेडियो और दूरदर्शन ही है। दूरदर्शन के माध्यम से निरक्षरों तक भी
सन्देश पहुँचाया जा सकता है। सम्भवत: इसी कारण दुनिया के सारे उद्योगपतियों ने
दूरदर्शन को ही विज्ञापन का अड्डा बनाया है।
स्वातन्त्रयोत्तर काल के उपभोक्तावाद और
भौतिकतावाद की चकाचौंध से सम्मोहित स्वदेशी प्रतिभा और स्वदेशी-विदेशी पूँजी की
जुगलबन्दी से भोग-विलास के साधन तैयार हुए। अर्थोपार्जन की नैतिकता बदली।
गुणवत्ता उपेक्षित हुई। घटिया को बढ़िया साबित करने के नारे बदले। सत्ता-पक्ष,
प्रतिभा-मण्डल, खरीदार, जमाखोर--सबके सब अंकुशविहीन होकर मानवेतर
हरकतों पर उतर आए। पूँजीपतियों के उत्पाद को गुणवत्ता का प्रमाण-पत्र देने वाली
संस्थाएँ और जनसमूह का विश्वास जीत लेने वाले नायक समुदाय, पूँजीपतियों और जमाखोरों के हाथ बिक गए। जनता ने समझा
कि जिन चीजों की तारीफ इतने बड़े-बड़े नायक कर रहे हैं, वे निश्चय ही उम्दा होंगे। जनता को आँकड़ों का यह
जाल कहाँ से समझ में आएगा कि अपने उत्पाद की तारीफ के लिए कम्पनी के मालिक जितने
धन इन नायकों पर लुटा रहे हैं, उसका
मुआबजा भी उन्हीं से वसूला जा रहा है! सुना है कि एक समय के हीरो सुनील गावस्कर
ने प्रण किया था कि किसी विदेशी कम्पनी के उत्पादों का मॉडल नहीं बनूँगा। नेत्रदान
और पोलियो ड्रॉप जैसे मानवीय आचरण का विज्ञापन करने वाले नायक को तेल-साबुन का
प्रचार करते हुए अपने सस्तेपन का बोध कैसे नहीं होता है, यह अचरज की बात है। जिन
कम्पनियों के पास सुविख्यात हीरो खरीद पाने की क्षमता नहीं है, वे छोटे-छोटे भाँड-मिरासी खरीदते हैं। आखिरकार
भौतिकतावाद और उपभोक्तावाद को साथ-साथ ले चलना है न!
दूरदर्शन पर कीटनाशक, चूहानाशक, भोजन-वस्त्र-आवास के घटक, प्रसाधन
सामग्री, स्वाथ्यवर्द्धक,
आदि-आदि चीजों से लेकर निरोध, गर्भनिरोधक, उत्तेजनावर्द्धक रसायन तक के विज्ञापन आखिरकार जनता को
क्या देते हैं? परिवार नियोजन,
साक्षरता अभियान, आयकर, गर्भपात,
घूस, अनाचार, यातायात नियम, पर्यावरण
सुरक्षा, नेत्रदान आदि की उपयोगी सूचनाएँ
विज्ञापन के माध्यम से दी जाती हैं, जनता क्रमश: इन सबसे सुशिक्षित हो रही है। पर, जब से प्रायोजित
कार्यक्रमों का सिलसिला चला है, विज्ञापनों
के कारण जनता
आजिज हो गई है। यौन प्रसंगों को लेकर तो कई बार ऐसी स्थिति आ जाती है कि परिवार के
साथ बैठे हों तो उठकर भागना पड़ जाता है। यह शुचितावादी धारणा नहीं है, भारतीय
जीवन-पद्धति का सांस्कृतिक अंग है। निरोध, गर्भनिरोधक गोलियाँ, सैनीटरी पैड, ब्रा, पैण्टी आदि के
प्रचार आते ही शर्म से सिर झुक जाता है। दाद-खाज-खुजली की दवा से लेकर
अश्वगन्धारिष्ट तक का विज्ञापन देकर दूरदर्शन, लोगों को इतना बेखबर या बाखबर कर देना चाहता है कि
गाँव में आग भी लग जाए तो ‘अश्वगन्धारिष्ट’
की टिकिया खाया व्यक्ति कहता है ‘नो टेन्शन’। प्रेक्षकों के लिए ये विज्ञापन बड़े ही त्रासद हो गए
हैं।
तकनीकी और व्यावहारिक दृष्टियों से विज्ञापन आज
के समय में उपयोगी तो है, पर हर
विज्ञापन में स्त्री-अंगों के उभार का क्या प्रयोजन है? फेस क्रीम, ब्रा-बनियान, किचन मसाला, साबुन-शैम्पू, मोटर
साइकिल, रेजर, कण्डोम...हर
पदार्थ के विज्ञापन में एक स्त्री का, शरीर प्रदर्शन में अग्रगण्य किसी उदार स्त्री का, उत्तेजना पैदा करती भंगिमा
और नग्नता का प्रदर्शन क्यों जरूरी है? इन विज्ञापनों द्वारा हमारे देश के
उपभोक्ताओं की किस मानसिकता का दोहन हो रहा है, या उनके किस जीवन-स्तर को
प्रचारित किया जा रहा है? अन्तरानुशासनिक शोध ने अब शोधार्थी को इस दिशा में
भी अग्रसर किया है कि वह खास कालखण्ड में राष्ट्र विशेष में लोकप्रिय हुए विज्ञापनों
के सर्वेक्षण से उपभोक्ता और व्यवसायी के मनोविश्लेषण का सहारा ले और उस देश
का सांस्कृतिक मूल्यांकन करे। ऐसा होने लगे तो ये विज्ञापन भारत की कैसी तस्वीर
पेश करेगा?
धनलाभ के लालच में जब कोई सुन्दर अभिनेत्री
साबुन, क्रीम लगाकर किसी युवती को सुन्दर होने, और अच्छी नौकरी पा लेने का नुसखा
देती हैं; या तेल लगाकर कोई अभिनेता तनाव दूर करने, और घुटने का दर्द मिटाने की
सलाह देते हैं, तो उन्हें अनुमान नहीं होता कि वे कितना बड़ा अपराध कर लेते
हैं? जिन भोली जनता ने उन्हें प्रतिष्ठा दी, उनकी संवेदना का दुरुपयोग कर वे
किसी पूँजीपति का खजाना भरने लगते हैं, और जनता का शोषण करते हैं, सही मायने में
यह जनद्रोह है।
विज्ञापन के कारोबारियों को भली-भाँति मालूम
हो गया है कि इन दिनों झूठ को बार-बार दुहराकर सच बनाने की पद्धति कामयाब है।
उपभोक्ताओं की सन्तुष्टि में व्यवसाय की चरम सफलता मानने का जमाना अब लद
चुका। उपभोक्ताओं से कारोबरियों के रिश्तों का आधार आज पूरी तरह बदल चुका है।
अब वे जनता को सम्मोहित करने में विश्वास रखने लगे हैं। संवेदनात्मक प्रसंगों
से जनभावना का दोहन करने में उन्हें कोई गुरेज नहीं होता। ऊलजलूल और बेतुकी
लुभावनी बातों को जोड़कर ऐसे संवादों का विज्ञापन बनाते हैं कि कथन का कोई सूत्र
नहीं बैठता। नारियल तेल की बोतल से अपने घरौंदे की मेड़ तोड़ती बच्ची अपनी माँ का
कथन दुहराती है—'क्योंकि नारियल
शुद्ध होता है।' अब इस तेल और इस नारियल की शुद्धता तो देखी जाएगी, पर उस दिए गए संवाद का
तो कोई अर्थ हो!
दरअसल विज्ञापनदाता और विज्ञापन-निर्माता के पूरे
तिजारत में सोच-संरचना की बड़ी पेचीदगी है। तथ्यत: लालच और नैतिकता का रिश्ता
व्युत्क्रमानुपाती होता है। विज्ञापन के संवाद लेखक कम्पनी के मालिक से अधिकतम धन
ऐंठने के चमत्कार की गुंजइश बनाते रहते हैं। मॉडल स्त्री/पुरुष पैसे पाएँ तो आम को इमली और जहर
को अमृत कहने में क्यों परहेज करें? प्रायोजित कार्यक्रमों के प्रोड्यूसर और दूरदर्शन
के अधिकारी तो अनुबन्ध और आमदनी के आगे मजबूर हैं, वचनबद्ध भीष्म की तरह; आमदनी से बड़ी नैतिकता इस समय और क्या हो सकती है?
अधुनातन मॉडलों के नंगे टखने और उन्मादक भंगिमाएँ दिखाकर उत्पाद बेचनेवाले विज्ञापनदाता
का इस सफलता पर मुदित होना लाजिमी है। नैतिकता और सामाजिक सभ्यता जाए भाड़ में!
मारी गई बेचारी जनता; कुछ तो इसलिए कि
वे अपनी ही टी.वी. का उपयोग अपने अनुकूल नहीं कर सकते, और कुछ इसलिए कि विज्ञापनों की अश्लीलता, अभद्रता और अव्यावहारिकता से वे सिर धुनते
रहते हैं।
बेशक कुछ बेहतरीन और जरूरी विज्ञापन बड़े काम
के आ रहे हैं, जिसे दिखाए जाने की बड़ी आवश्यकता है। एक बेहतरीन नागरिक परिदृश्य
के गठन में उन विज्ञापनों की बड़ी भूमिका होगी; पर बरसाती मेंढक की तरह टर्राते विज्ञापनों
ने उन्हें इस तरह दबोच लिया है कि तंगमिजाजी में लोगों से अक्सर इसकी आभा छूट
जाती है। तेल, साबुन, डिटर्जेण्ट, कण्डोम, यौनशक्तिवर्द्धक टिकिया के बीच
नेत्रदान, रक्तदान, साफ-सफाई के उपदेश दबकर खो जाते हैं। इन विडम्बनाओं का कुछ निराकरण
होता, तो जनता की साँसत खत्म
होती। परन्तु यह है असम्भव। विज्ञापनदाता, विज्ञापनकर्ता, विज्ञापन प्रस्तोता-- सबके सब लालच के सागर में गोता
लगा रहे हैं। दूरदर्शन में ऐसी कोई व्यवस्था है नहीं कि विज्ञापन के सन्देश और
उत्पाद की गुणवत्ता जाँच कर उन्हें सामने लाया जाए, प्रस्तोता चूँकि शुल्क जमा कर देते हैं, इसलिए उन्हें कुछ कहा नहीं जा सकता, तब तो यह बहुत सहज है कि जनता इन अनैतिक
कर्मियों के लालच की आँच पर भुने जाएँ और दूरदर्शन मजबूर होकर दूर से
कहे--आहा-हा...बेचारों के साथ बहुत अन्याय हो रहा है।
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