‘प्रेम’
मानव जीवन का उतना ही आवश्यक तत्व है
जितना मानव जीवन का अस्तित्व। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल कहते हैं--प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की
चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है, तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य
के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। आदि से अन्त तक इन्हीं
चित्तवृत्तियों की परम्परा को परखते हुए साहित्य-परम्परा के साथ उनका सामंजस्य
दिखाना ‘साहित्य का इतिहास’
कहलाता है। इस आधार पर यह बात बेहिचक
मानी जानी चाहिए कि ‘प्रेम’
और ‘साहित्य’ के ताल्लुकात बुनियादी तौर पर बड़े गहरे हैं।
सृजन के प्रारम्भिक वर्षों से आज तक का साहित्य हर भाषा में अपने परिवेश
की चित्तवृत्ति को चित्रित करता आया है। और, हर भाषा के साहित्य का एक महत्त्वपूर्ण अंश प्रेम के
नाम समर्पित रहा है। यदि थोड़ा व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो किसी भी ‘रस’ के साहित्य-सृजन का मूल कारण ही प्रेम होता है। आदिकवि वाल्मीकि को
क्रौंचवध के बाद यदि करुणा उत्पन्न हुई तो इसका मूल कारण प्रकृति के सारे जीवों से
प्रेम ही था और जिससे उन्हें प्रेम था उसका वध देखकर करुणा उत्पन्न होना लाजिमी
था।
तमाम आधुनिक भारतीय भाषाओं में मैथिली पर्याप्त समृद्ध भाषा है। किसी भी
भाषा की सम्पन्नता उसके सृजन की विरासत के उत्कर्ष, और जनपद में उसके सम्मान के आधार पर आँकी जाती है।
उल्लेखनीय है कि हिन्दी साहित्य के इतिहास में विद्यापति, आदिकाल के रचनाकार माने गए हैं। जबकि मैथिली साहित्य
का मध्यकाल विद्यापति से शुरू होता है। मैथिली भाषा साहित्य में विद्यापति से
पूर्व के साहित्य को आदिकाल में रखा गया है। उनसे पूर्व ज्योतिरीश्वर के ‘वर्णरत्नाकर’ में गद्य का स्वरूप पर्याप्त परिपक्व और सुगठित है,
जिससे यह तय करना आसान है कि ‘वर्णरत्नाकर’ से सैकड़ों वर्ष पूर्व मैथिली में पद्य रचना की एक
समृद्ध परम्परा रही होगी, जो
मुद्रण व्यवस्था तथा संरक्षण के अभाव में उपलब्ध नहीं रही। यहाँ ऐतिहासिक तथ्य
खोजना ध्येय नहीं।
वैसे तो यह साहित्येतिहास लिखनेवालों की इतिहास-दृष्टि पर निर्भर करता है
कि उन्होंने काल-विभाजन का आधार क्या निर्धारित किया है। हिन्दी में इन्हें आदिकाल
में रखे जाने का तर्क यह है कि इनका अवसान सन् 1438 से 1448 के बीच हुआ, जो हिन्दी
साहित्य के आदिकाल का अन्तराल है, और
जिसे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने, उस
दौर के वीरगाथात्मक रचनाओं की बहुतायत और प्रमुखता के कारण वीरगाथा काल कहा है।
आचार्य शुक्ल ने विद्यापति की कृति ‘कीर्तिलता’ को इतना
महत्त्वपूर्ण माना कि उनकी अन्य रचनाओं की गरिमा काल-विभाजन की रूपरेखा तैयार करने
में उपेक्षित हो गई। पर मैथिली के साहित्येतिहास लेखकों के लिए विद्यापति की भाषा
और समाज सम्बन्धी घोषणाएँ प्रमुख साबित हुईं, और ‘देसिल
वयना सबजन मिट्ठा’ के उद्घोषक से
नए युग (अर्थात् मैथिली साहित्य का मध्यकाल) की शुरुआत मानना उन्हें उचित, और प्रीतिकर लगा। हालाँकि दोनों भाषाओं के
विवेचकों को रमानाथ झा की यह घोषणा मुसीबत में डाल देती है, कि ‘कीर्तिलता’
विद्यापति के प्रारम्भिक समय की पुस्तक
नहीं है। वह बाद के दिनों में नागरिकों के अनुनय पर बेमन से लिखी किताब है,
और ‘कीर्तिपताका’ की तो पूरी पुस्तक भी उपलब्ध नहीं है। बहरहाल...
‘वर्णरत्नाकर’ को कविकर्म
की निर्देशिका मानी जाए तो अनुचित न होगा। इस गद्य ग्रन्थ में ज्योतिरीश्वर ने
विविध जैविक उपादानों का वर्णन किया है। कल्लोलों में विभक्त इस ग्रंथ के ज्यादातर
कल्लोलों में प्रेम के स्वरूप खोजे जा सकते हैं। नायक, नायिका, शृंगार, स्नान, ऋतु, कामावस्था, वर्षा,
चन्द्रमा, वेश्या आदि के वर्णनों में रचनाकार के लोक-सम्बन्ध,
जीवन के तत्वों से तादात्म्य बड़ी
सूक्ष्मता से परिलक्षित हैं। इन सारी स्थितियों के वर्णन में प्रेम के तत्व मूर्तिमान
हैं। नायिका की हँसी का वर्णन करते हुए ज्योतिरीश्वर लिखते हैं--कुमुद, कुन्द, कदम्ब,
कास, भास, कैलास,
कप्र्पूर, पीयूषक कानि प्रसारी सन, शरतक पूर्णिमा, चाँदक ज्योत्स्ना अइसन, त्रैलोक्यो वश करइतें...। कल्पना सखी, शयन... और उपमा की यह विविधता रचनाकार के
विराट अनुभव, तीक्ष्ण प्रतिभा और
वास्तविक लोकजीवन के यथार्थ से गहरे सरोकारों का सबूत है। इस ग्रन्थ के अवलोकन से
यह तय करना बहुत सहज है कि मैथिली साहित्य में प्रेम का उत्कृष्ट रूप प्रारम्भिक
दिनों से ही रहा है। इसी वर्णरत्नाकर में लोककण्ठ में बसे कुछ मौखिक साहित्य ‘विरहा’ और ‘लगनी’
आदि की जैसी चर्चा है, उस आधार पर प्रारम्भ से ही, लोकजीवन में भी जड़ जमाए प्रेम-काव्य का स्वरूप
निर्धारित होता है।
साहित्य के तीन प्रधान रस--भक्ति,
वात्सल्य और शृंगार--का मूल केन्द्र ‘प्रेम’ ही
है। मात्र इतने को ही प्रेम के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो आज जो कविताएँ आम
जनता के दुख-दर्द का गुणगान करती हैं, उनका आधार-तत्व भी प्रेम ही है।
ज्योतिरीश्वर युग की समाप्ति के तुरन्त बाद मैथिली साहित्य में महाकवि
विद्यापति आते हैं। शंृगार का जैसा उत्कृष्ट उदाहरण विद्यापति के साहित्य में है,
वैसा संसार की किसी भी भाषा के साहित्य
में मिलना दुर्लभ है। यद्यपि विद्यापति पर बहुत दिनों तक बंगला और हिन्दी के लोग
दावा करते रहे। बाद में बंगला के विद्वान निश्चिन्त होकर बैठ गए; पर हिन्दी के लोग अभी भी अपना दावा रखे हुए
हैं। यह विडम्बना ही है कि जिन बारह पुस्तकों को लेकर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने
हिन्दी साहित्य के वीरगाथा काल का नामकरण किया उनमें से सबसे प्रामाणिक पुस्तक ‘कीर्तिलता’ और ‘कीर्तिपताका’
के रचनाकार विद्यापति, फुटकल खाते में डाल दिए गए। बहरहाल, साहित्येतिहास का विवाद सुलझाना इस निबन्ध का
ध्येय नहीं, इसलिए विद्यापति की
शृंगारिक रचनाओं की चर्चा ही श्रेयस्कर होगी।
प्रेम एवं शृंगार सम्बन्धी विद्यापति की जो भी रचनाएँ हैं, वे विद्यापति पदावली में ही हैं। प्रेम के सार
का उत्कर्ष उनकी पदावलियों में ही मौजूद है। मैथिली से हिन्दी तक के ज्यादातर
विद्वान उनकी लोकप्रियता एवं ख्याति का आधार उनकी पदावली को ही मानते हैं। संयोग
शृंगार हो अथवा वियोग शृंगार--हर
स्थिति में पदावलियों में ‘प्रेम’
की अनुभूति की जो तीव्रता दिखती है,
वह भावक के मन को व्याकुल और विह्वल कर
देती है। यहाँ नायिकाओं का नख-शिख वर्णन, नायकों का चरित्रगान, सद्यःस्नाता
के उन्नत उरोजों और स्निग्ध कपोलों, भीगे नीवी-बन्ध और आकुल केश-पाश के वर्णन ही नहीं, मिलन की स्थिति में सुध-बुध खोकर आनन्द के सागर में
गोता लगाने की स्थिति और विरह की स्थिति में दोनों पक्षों की आतुरता का वर्णन
जीवन्त हो उठता है।
राधा-कृष्ण के प्रेम का चित्र उकेरते हुए विद्यापति ने प्रेम के उन सारे
सूक्ष्मतर बिन्दुओं को मूर्त किया है, जो मनुष्य के क्षण विशेष के तीव्र मनोवेग का अनुषंग है। उनके यहाँ
वयःसन्धि, मानसिक और आचरणगत
चंचलता का चित्र जितना विस्तृत और स्पष्ट है, उतना ही मूर्त नायिका के आंगिक विकास का...।
यौवनोन्माद और प्रियमिलन की उत्कण्ठा उनके यहाँ कितना शालीन है और कितना उद्धत--यह तय कर पाना मुश्किल है। उनकी नायिका कहीं
अभिसार हेतु जाते समय घर के गुरुजनों का डर भूल जाती हैं तो दूसरी तरफ अभिसार को
गुप्त रखने के लिए तरह-तरह के उद्योग में लगी रहती है--
सखी हे, आज जाएब मोहिं
घर गुरुजन डर न मानब, वचन चूकब नाहि
इधर प्रिय-मिलन के लिए दिए गए वचन निभाने हेतु, अभिसार हेतु घर के बुजुर्गों का कोई डर नहीं मानती,
उधर शुक्लाभिसार या कृष्णाभिसार या
पावसाभिसार के लिए ऐसे वस्त्रा, ऐसे
आभूषण का चयन करती रहती हैं कि रात में जाते हुए समाज के लोग या परिवार के लोग
उनके परिधान के कारण उन्हें पहचान न पाए। शुक्ल पक्ष की चाँदनी रात में जब नायिका
अपने प्रिय से मिलने जाएगी तो धवल परिधान धारण करेगी, अपने काले बालों को भी श्वेत पुष्प गुच्छ से इस तरह
सजा लेगी कि रास्ते में चलते समय किसी की नजर पड़े भी तो उसे सन्देह न हो कि कोई
मनुष्य है, वह यह सोचे कि यह
चाँदनी का ही अंश है। यहाँ तक कि पायल से आवाज न निकले, इसका अभ्यास घर में ही कर लेगी। विद्यापति के प्रेम
विषयक पदावली की नायिका, राधा का
यह शालीन और साहसी आचरण प्रेम जीवन के साहस और कोमलता का परिचायक है।
राधा-कृष्ण प्रेम विषयक कविताएँ कई भाषाओं में उस काल के कई कवियों ने
लिखी हंै। पर जहाँ जयदेव के यहाँ राधा का स्वरूप प्रेम में भाव-विह्वल है, चण्डीदास के यहाँ राधा प्रेम में मुग्ध है,
वहीं विद्यापति की राधा विलास और उसकी
कल्पना में खोई हुई दिखती हैं। उनके यहाँ आम तौर पर राधा का वय किशोरी से पूर्ण
युवती तक दिखता है, जहाँ कभी वह
मदनोन्माद में प्रियतम को कोसती है ‘मदन वेदन बड़ पिया मोरा बोलछड़’; कभी सहेली को अपने प्रिय मिलन का अनुभव सुनाती है ‘सखि की पूछसि अनुभव मोहि’; कभी अपने प्रियतम को सन्देश भेजने के लिए दूत ढूँढती
है ‘के पतिया लए जाएत रे,
मोरा प्रियतम पास’; कभी सहेली से अपनी विरह-वेदना सुनाती है ‘सखि हे! हमर दुखक नहि ओर’; कभी अपने बेमेल विवाह की व्यथा समाज से कहती
है ‘पिया मोरा बालक हम तरुणी गे!’
साहस और शालीनता के बीच अनिर्णय की
स्थिति में पड़ी, कभी-कभी असहज
हरकतें भी कर लेने वाली विद्यापति की नायिका, राधा के इतने रूप, मानव जीवन की विविधता और समय विशेष के सामाजिक ढाँचे
को स्पष्ट करते हैं।
विद्यापति के यहाँ विरहावस्था की व्याकुलता ‘सखि हे! हमर दुखक नहि ओर’, ‘लोचन नीर तटिनि निर्माणे’, ‘सजनि के कह आओत मधाई’, ‘के पतिया लए जाएत रे’, ‘माधव कठिन हृदय परवासी’, ‘विरह व्याकुल बकुल तरु तर, पेखल नन्द कुमार रे’, ‘नयनक नीर चरण तर गेल’कृजैसे गीतों में तो दिखती ही है; विरह के बाद मिलन और फिर मिलन के बाद की
अतृप्ति भी वहाँ नए क्षितिज का निर्माण करती है। उनके यहाँ विरहावस्था का ‘क्षण’, ‘युग’ जैसा
और मिलनावस्था का ‘युग’,
‘क्षण’ जैसा बीतता है। मिलन के उस सुख की अतृप्ति नायिका के
इन शब्दों में दिखती हैः
सखि की पूछसि अनुभव मोय
सोइ पीरित अुनराग बखानइते तिल तिल नूतन होय
जनम अवधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित भेल
सेहो मधुर बोल श्रवणहि सूनल श्रुति पथे परस न
गेल
कत मधु यामिनी रभसे गमावल न बुझल कैसन केलि
लाख-लाख युग हिय-हिय राखल तइयो हिया जुड़ल न
गेल
वास्तविक अर्थों में ‘प्रेम’
दो मन के अनियन्त्रित विचरण, और व्यवहार से परिभाषित होता है। प्रेम के फलक
भी मन ही की तरह अमूर्त, और उसके
कार्य व्यापार मन के फैलाव की तरह विशाल और विशृंखल होते हैं। विद्यापति की
पदावलियों में प्रेम के फलकों की यह विशालता साफ-साफ दिखती है। जिनकी नायिका का
हाल ‘आध आँचर खसि आध वदन हँसि
आधहि नयन तरंग’ है, जिनकी नायिका मदन-वेदना में इतनी व्याकुल है
कि वह ‘पिया’ को ‘बोलछड़’ जैसी गाली दे
बैठती है, उन्हीं की नायिका के
प्रेम की निष्ठा यह है कि वह राधा आराधिका का प्रतीक बन जाती है। प्रेम का वह
आराध्य स्वरूप निखर उठता है। फिर प्रेम नर-नारी के यौन मिलन तक सीमित नहीं होता;
भक्त और भगवान का समन्वय दिखने लगता है।
भगवान वहाँ ‘रमण’ होते हैं और भक्त ‘रमणी’।
इस दशा में प्रेम का यह तरंग उसी भगवान के सागर से उठता है और फिर उसी में समा
जाता है--‘तोहे जनमि
पुनि तोहे समाओब सागर लहरि समाना!’
प्रेम का यह स्वरूप आध्यात्मिक है, जो जीव और परमात्मा के सम्बन्ध जैसा दिखता है। उन्माद
के सारे क्रिया-व्यापार की मौजूदगी के बावजूद विद्यापति के यहाँ प्रेम कहीं अभद्र
और शरीरी नहीं लगता, यह प्रेम
जीवन का पर्याय होता है। वहाँ प्रेमी और प्रेमिका के सम्बन्धों का स्वरूप यह है कि
नायिका, जब नायक की अनुपस्थिति
में उन्हें याद करती है तो वह अपना अस्तित्व तक भूल जाती है: ‘अनुखन माधव माधव सुमरइत, सुन्दरि भेलि मधाई, ओ निज भाव सुभाबहि बिसरल अपने गुण लुबाधाई’। यह वही स्थिति है जब महामिलन में भक्त और
भगवान का भेद समाप्त हो जाता है। इसे ही amalgamation with God या immersion in
the absoulte कहा जाता है।
इतने दृष्टान्तों से यह भी नहीं समझा जाना चाहिए कि विद्यापति के यहाँ
प्रेम की यह शृंखला ‘वन वे
ट्राफिक’ है। मिलन की स्थिति में
नायक द्वारा ‘मान’ भंग करने हेतु किए गए यत्नों को देखकर,
प्रेम की आकुलता और प्रेम का घनत्व समझा
जा सकता है। विरह-वेला की समाप्ति के बाद मिलन की स्थिति में नायिका रूठ जाती है
और नायक को कुछ देर तरसाकर दण्डित करने हेतु मान ठान देती है, ऐसे समय में नायक के मन की बातें ‘मानिनि! आब उचित नहि मान’, ‘मान परिहरिहे करु वचन मोरा’, ‘मानिनि आकुल हृदय मोर’कृजैसे गीतों में स्पष्ट और प्रभावी ढंग से चित्रित
हुई हैं।
विद्यापति का प्रभाव मैथिली भाषा और साहित्य के परवर्ती काल में लम्बे समय
तक न केवल बना रहा, बल्कि सारे
रचनाकार उनके यहाँ अपने रचनात्मक कौशल के लिए जीवन-रस प्राप्त करते रहे। विद्यापति
के बाद गोविन्ददास जैसे पुरोधा कवि ने उनकी परम्परा को कुछ तो पुष्ट किया, और कुछ नवीनताएँ दीं। बीच में भी कुछ छुट-पुट
रचनाएँ हुईं। पर उनमें ज्यादातर शृंगारपरक, कुछ भक्तिपरक रचानएँ भी र्हुइं। उस अन्तराल की
शृंगारपरक रचनाएँ भाषागीत संग्रह और राग तरंगिणी में संकलित हैं। इन संग्रहों में
संकलित शृंगारपरक रचनाओं में वैसे प्रेम का वह उत्कर्ष नहीं दिखता जिसकी चर्चा
गम्भीरता से की जाए। अमृतकर, हरपति,
दशावधान ठाकुर, कंसनारायण जैसे रचनाकारों की कुछ रचनाओं में रूप,
रस, वर्णन और किंचित विरह वर्णन मिल जाता है।
गोविन्ददास ने तो विद्यापति के प्रभाव को अपनी रचनाशीलता में साफ-साफ
स्वीकारा--‘कविपति विद्यापति
मतिमाने, जाक गीत जगचित्त चोराओल
गोविन्द गौरि सरस रस जाने!’ परन्तु
उनकी रचनाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि उनके यहाँ राधा-कृष्ण प्रेम विषयक प्रसंग
मानवीय नहीं हैं, वे भक्तिप्रधान
हैं। कहीं-कहीं नायिका के रूप-वर्णन में पदलालित्य का उत्कर्ष अवश्य दिखता है।
प्रभाव का फलक वस्तुतः एकतरफा नहीं होता। प्रभावित करने वाला, और प्रभावित होने वाला--दोनों की प्रतिभा,
मनःस्थिति, वैचारिकता, वातावरण, रचनात्मक
उत्कर्ष, रचनाओं का सामाजिक
सरोकार और शाश्वतता, समय,
आवेग...सारा कुछ मिलकर ही प्रभाव डालने
और ग्रहण करने की स्थिति तय करता है। इसलिए गोविन्द दास के यहाँ प्रेम का भक्ति
में परिणत हो जाना कोई असहज नहीं है। विद्यापति के प्रभाव की यह दशा औरों के यहाँ
भी हुई।
इतना अवश्य है कि विद्यापति की गीति-परम्परा आधुनिक काल तक के रचनाकारों को
प्रभावित करती रही। उमापति, रमापति,
नन्दीपति, रत्नापाणि, हर्षनाथ प्रभृत्ति सतरहवीं से उन्नीसवीं शताब्दी तक के ऐसे कवियों में से
हैं जिन्होंने नाटक भी लिखा, तो
उनमें अपने गीति कौशल का भरपूर उपयोग किया। उनके नाटकों के विषय सामान्यतया
शास्त्रा पुराणों की प्रेम-कथाएँ ही रहे, और रचनाकारों ने उनमें मान, विरह के चित्रण में जीवन्तता भरने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पारिजात हरण
नाटक में उमापति ने जितने भी पद रचे उनमें पति-प्रेम गर्विता सत्यभामा के
गर्व-वाचन, मानिनी सत्यभामा का
विरह वर्णन, कृष्ण द्वारा
सत्यभामा का मानप्रसादन जितना निखरा हुआ प्रतीत होता है, उतना और कोई प्रसंग नहीं। मान प्रसादन में जब कवि नायक
से कहलवाते हैं:
अरुण पुरुब दिसि बहल सगर निसि,
गगन मलिन भेल चन्दा,
मुदि गेल कुमुदिनी तइओ तोहर धनि
मूदल मुख अरविन्दा!
तो मानप्रसादन का यह उत्कर्ष कवि के प्रेमकाव्य सृजन-कौशल का परिचायक है,
और इस पंक्ति में महाकवि विद्यापति के
रचना-शिल्प और विषय फलक का गहन प्रभाव दिखता है।
रमापति के पद ‘गिरिवर
लीन मलीन निसारकर अलप नखत नहि भासे, मुदित कमलवनि नहि तुअ धनि नयन सरोज विकासे!’ में उमापति के उक्त पद की स्पष्ट छाया तो दिखती है,
पर यहाँ रमापति के कौशल के उत्कर्ष की
अनदेखी नहीं की जा सकती। नन्दीपति के नाटक कृष्ण केलिमाला, रत्नपाणि के नाटक उषाहरण तथा हर्षनाथ के नाटक उषाहरण
में जितने पदों की रचना की गई है, उनमें
चित्रित विरह वेदना, मिलन सुख,
और नख-शिख वर्णन देखकर इन कवियों के
प्रेम चित्रण के आयाम दिखते हैं। इन पदों में चित्रित प्रेम प्रसंग और जीवन यापन
के वैविध्य को कम, तथा देह की
जरूरत को ज्यादा रंजित करता नजर आता है। वास्तविक अर्थों में यह देखा जाना चाहिए
कि ये रचनाएँ जिस दौर की हैं, वह
समय हिन्दी साहित्य में रीति काल का है, जब ‘प्रेम’, विलास और क्रीड़ा में केंद्रित था। मैथिली के
इतिहासकारों ने इस अन्तराल का नाम ‘उत्तर
विद्यापति युग’ दे तो दिया,
पर इस भाषा साहित्य में भी रचनाकर्म
उन्हीं बिन्दुओं पर केन्द्रित था। कविवर जीवन झा (सन् 1856-1920) के यहाँ विरह गीतों में चित्रित प्रेम का स्वरूप
जीवन की वास्तविकताओं से रू-ब-रू अवश्य होता है। यूँ तो जीवन झा ने भक्ति एवं
शृंगार--दोनों तरह की रचनाएँ
कीं। कल्पना की सूक्ष्मता, शब्द
विन्यास और मधुर संगीतात्मकता उनकी दोनों तरह की रचनाओं में है, परन्तु शृंगारपरक रचनाएँ ही अपेक्षाकृत बेहतर
हैं और विरहावस्था में नारी मनोदशा की व्याकुलता उकेरने में रचनाकार का चमत्कार
दिखता है। रात ढलने पर घने जंगलों में नायिका वृक्ष से पूछती है कि मेरे प्रिय
किधर रुक गए:
एक तँ राति निबिड़तम दोसर विपिन घनघोर
कहु तरुवर मोर जीवन पहु बिलमल कोन ओर
और यहाँ से मैथिली साहित्य में प्रेम काव्य सृजन का स्रोत लगभग सूखता-सा
प्रतीत होता है। ऐसे तो कहा जाना चाहिए कि विद्यापति के बाद मैथिली साहित्य में
प्रेम काव्य सृजन की परम्परा अत्यन्त क्षीण ही रही और यह क्षीणप्राय स्थिति
उन्नीसवीं सदी के पाँचवे दशक तक चलती रही। बीच-बीच में जो कुछ प्रेमपरक कविताएँ
लिखी गईं वे एक तरह से उसकी मौजूदगी मात्र का संकेत देती रहीं।
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