हिन्दी साहित्य का काल विभाजन करते हुए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने विक्रम
सम्वत् 1050-1375 की अवधि को
वीरगाथाकाल (आदिकाल), सम्वत् 1375-1700 को पूर्व मध्यकाल (भक्तिकाल) और सम्वत् 1700-1900 की अवधि को उत्तर मध्यकाल (रीतिकाल) की
संज्ञा देते हैं। इस्वी सन् में इसकी गणना करें तो आचार्य शुक्ल के मतानुसार सन् 1318 में वीरगाथा काल (आदिकाल) समाप्त हो जाता है
और सन् 1318-1643 भक्तिकाल और
सन् 1643-1843 रीतिकाल माना
जाएगा।
पूर्व मध्यकाल का परिचय शुरू करते हुए आचार्य शुक्ल लिखते हैं--देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो
जाने पर हिन्दू जनता के हृदय में गौरव, गर्व और उत्साह के लिए वह अवकाश न रह गया। उसके सामने ही उसके देव मन्दिर
गिराए जाते थे, देव मूर्तियाँ
तोड़ी जाती थीं, और पूज्य पुरुषों
का अपमान होता था, और वे कुछ भी
नहीं कर सकते थे। ऐसी दशा में अपनी वीरता के गीत न तो वे गा ही सकते थे, और न बिना लज्जित हुए सुन ही सकते थे।कृइतने
भारी राजनीतिक उलट फेर के पीछे हिन्दू-जनसमुदाय पर बहुत दिनों तक उदासी छाई रही।
अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की शक्ति और करुणा की ओर ध्यान ले जाने के
अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था (हिन्दी साहित्य का इतिहास/पृ.-34)?
वस्तुतः हिन्दी साहित्य के मध्यकाल, भारतीय इतिहास के मध्यकाल और विश्व इतिहास के मध्यकाल
में फर्क है। विश्व इतिहास में सातवीं शताब्दी से सतरहवीं शताब्दी के अन्त तक का
समय मध्य युग माना जाता है, जबकि
भारतीय इतिहास में छठी शताब्दी के अन्तिम चरण से ही मध्य युग का प्रारम्भ माना
जाता है। सन् 606 में
हर्षवर्द्धन ने गद्दी सँभाली, सन्
630 में ह्वेनसांग ने भारत की
यात्र की, सन् 632 में शंकराचार्य का जन्म हुआ, सन् 761 में मुहम्मद बिन कासिम द्वारा भारत पर पहला मुस्लिम
आक्रमण हुआ, सन् 1000 में महमूद गजनी ने भारत पर चढ़ाई की, सन् 1017 में अलबिरुनी ने भारत यात्र की, सन् 1191 में मुहम्मद गोरी और पृथ्वीराज चौहान के बीच तराई का
पहला युद्ध हुआ, सन् 1288 में मार्को पोलो भारत आए। इन तमाम घटनाओं की
भली-बुरी परिणतियों के साथ सामाजिक जीवन की दशा के मद्देनजर बारहवीं शताब्दी के
अन्त तक के समय को पूर्व मध्ययुग और तेरहवीं से उन्नीसवीं शताब्दी तक के समय को
उत्तर मध्ययुग कहा जाता है। इसी दौरान खिलजी सल्तन की स्थापना(सन् 1300), विजयनगर अम्पायर(सन् 1336-1565), वास्कोडिगामा की पहली गोआ-यात्र(सन् 1498)
हुई। काबुल के मुगल शासक बाबर ने सन् 1526 में दिल्ली और आगरा पर हमला किया और सुल्तान
इब्राहिम लोधी को मार डाला। सन् 1530 में बाबर की मृत्यु हुई, हुमायूँ
ने गद्दी सँभाली। सन् 1556 में
हुमायूँ की मृत्यु के बाद उनके बेटे अकबर ने गद्दी सँभाली। सन् 1600 में इंगलैण्ड ईस्ट इण्डिया कम्पनी का गठन
हुआ। सन् 1605 में अकबर की
मृत्यु के बाद उनके बेटे जहाँगीर और सन् 1628 में जहाँगीर की मृत्यु के बाद उनके बेटे शाहजहाँ
गद्दी पर बैठे। सन् 1630 में
शिवाजी का जन्म, सन् 1658 में शाहजहाँ द्वारा ताजमहल, जामा मस्जिद और लाल किले का निर्माण, सन् 1674 में मराठा अम्पायर की स्थापना, सन् 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई से मराठा अम्पायर के विस्तार का अवरोध, सन् 1818 में मराठा अम्पायर के पतन और अधिकांश भारतीय भूखण्ड
पर ब्रिटिश नियन्त्रण भी इसी दौर की प्रमुख घटनाएँ हैं। सन् 1829 में सती प्रथा पर रोक लगा और सन् 1857 में भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम हुआ,
जिसे भारत का सैन्य-विद्रोह भी कहा जाता
है। आगे चलकर सन् 1885 में
इण्डियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना हुई। इस अवधि की ये नवतावादी घटनाएँ भारतीय
समाज में नवता और आधुनिकता के प्रवेश के संकेत देती हैं।
दरअसल हर्षवर्द्धन की मृत्यु के बाद उत्तर भारत के राजनीतिक क्षितिज पर
राजपूतों का वर्चस्व छाया हुआ था। तथ्य है कि राजपूत अपनी बहादुरी और शौर्य के लिए
जाने जाते रहे हैं, पर पुश्तैनी
शत्रुता और अहंकार के प्रबल संकेतों के कारण अक्सर उनके बीच संघर्ष चलता रहा।
निरन्तर आपसी लड़ाइयों के कारण वे कमजोर पड़ते गए। राजपूतों के इसी अलगाववादी हरकतों
के कारण विदेशी तुर्कों का भारत में प्रवेश सम्भव हुआ। अपने समय के सबसे बड़े
राजपूत शासक पृथ्वीराज चौहान का मुहम्मद गोरी के हाथों पराजय हुआ, और इस अनिष्ट से भारत के इतिहास में एक नया
अध्याय शुरू हुआ।
मुहम्मद गोरी की मृत्यु के बाद, लेफ्टिनेण्ट कुतुबुद्दीन ऐबक ने गुलाम सल्तनत की स्थापना की। इसके साथ ही
दिल्ली सल्तनत अस्तित्व में आया। ऐबक के बाद उसके गुलाम इल्तुतमिस का शासन रहा। और
उनके बाद उनकी बेटी रजिया ने बहुत अल्प समय के लिए सन् 1236-1239 तक शासन की वागडोर सँभाली। गुलाम सल्तनत के
बाद खिलजी, तुगलक, सईद और लोदी सल्तनत चला। इन सल्तनतों के
प्रमुख शासक बलबन, अलाउद्दीन
खिलजी, और मुहम्मद बिन तुगलक थे।
अलाउद्दीन खिलजी(सन् 1296-1316) बड़े योग्य शासक साबित हुए। दक्षिण में सैन्य आन्दोलन के साथ-साथ
बाजार-सुधार और मूल्य नियन्त्रण मानक व्यवस्था के लिए उन्हें प्रमुखता से याद किया
जाता है। मुहम्मद बिन तुगलक (सन् 1324-1351) बड़े ही दृष्टि सम्पन्न शासक थे, पर दुर्भाग्यवश उनकी सारी ही योजनाएँ असफल हो गईं।
दिल्ली से हटाकर दौलताबाद में राजधानी बनाने की उनकी योजना सर्वाधिक विवादास्पद
योजना थी। इन सबके बाद मुगल साम्राज्य के संस्थापक, बाबर (सन् 1526-1530) के हाथों पानीपत की लड़ाई में इब्राहिम लोदी के मारे
जाने के बाद दिल्ली सल्तनत का अन्त हो
गया। इस काल में पूरे उपमहाद्वीप के नागरिक-जीवन और समाज-व्यवस्था में इस्लामिक
पद्धति और प्रशासनिक आचार लागू हो गई और दो विश्वव्यापी सभ्यताओं के बीच सम्वाद
स्थापित करने की चकित करने वाली पृष्ठभूमि तैयार हुई। तैमूर और चंगेज खाँ के वंशज
बाबर, अपने चचेरों द्वारा मध्य
एशिया की अपनी छोटी-सी जागीर से निकाल दिए गए थे, उन्होंने भारत में आकर अपने भाग्य आजमाने की इच्छा की,
सन् 1526 में उन्होंने अन्तिम लोदी सुल्तान इब्राहिम को हराया
और मुगल साम्राज्य कायम किया। उनके बाद उनके बेटे हुमायूँ ने गद्दी सँभाली,
पर शीघ्र ही अफगानी लड़ाके शेरशाह द्वारा
दिल्ली से खदेड़ दिए गए।
शेरशाह ने यद्यपि सन् 1540-1555 तक की अल्प अवधि तक ही शासन किया, पर उन्होंने शासन तन्त्र के अपूर्व कौशल का उदाहरण
प्रस्तुत किया। ग्रैण्ड ट्रंक रोड के निर्माता और राजस्व पद्धति के पुनर्संस्थापक
के रूप में उन्हें सदैव याद किया जाता रहेगा।
अपने लगन और उत्साह के बल बूते दिल्ली की सत्ता पर फिर से काबिज होने में
यद्यपि हुमायूँ सफल हो गए, पर वे
अधिक दिनों तक शासन न कर सके, उसी
वर्ष उनका देहान्त हो गया। और इसी घटना के साथ भारत के प्रतापी शासक अकबर महान का
शासन-काल शुरू हुआ। अकबर (सन् 1556-1605) ने बड़ी दक्षता से पूरे राजनीतिक परिदृश्य को समेकित करते हुए पूरे उत्तर
भारत में और दक्षिण के कई भूभागों पर अपना शासन कायम किया। उन्होंने शीघ्र ही अपनी
शासकीय समझ विकसित कर ली, और
सुनिश्चित किया कि किसी बेहतर और स्थायी शासन-व्यवस्था के लिए समाज के सभी पहलुओं
पर गम्भीरतापूर्वक सोचना जरूरी है। इसके मद्देनजर उन्होंने राजपूतों के साथ भी
सहकार व्यवस्था कायम की। शहंशाह अकबर ने अपनी इस धारणा का सफलतापूर्वक उपयोग,
अपने जीवन और अपनी शासन-व्यवस्था--दोनों
में किया; जिसके बड़े अच्छे
परिणाम सामने आए।
अकबर के पुत्र जहाँगीर (सन् 1605-1627) सुखमय जीवन-पद्धति के मुरीद थे। समकालीन इतिहासकारों
के मतानुसार जहाँगीर के शासन काल में, शाही-व्यवस्था में, उनकी
पत्नी नूरजहाँ से सम्बन्धित परसियन कुलीनतावाद बहुत प्रभावशाली था। जहाँगीर के बाद
शासन की वागडोर उनके पुत्र शाहजहाँ (सन् 1928-1958) ने सँभाली। शाहजहाँ को स्थापत्य-कला से बहुत प्रेम था।
ताजमहल के अलावा लाल किला और जामा मस्जिद का निर्माण उनके स्थापत्य-प्रेम के
प्रमुख उदाहरण हैं।
शाहजहाँ के पुत्र औरंगजेब (सन् 1658-1707) एक बहादुर, साहसी और कुशल शासक थे, पर
उनका यह सारा गुण उनकी हठधर्मिता, धर्मान्धता
और कट्टरता के दोष से ढक गया था। उनके शासन काल में मुगल साम्राज्य अपने चरम पर
पहुँच गया था। पर साथ ही उन्होंने अपनी ऊर्जा और संसाधन का अत्यधिक क्षय मराठाओं
और अन्य स्थानीय शासकों एवं जागीरदारों के साथ संघर्ष करने में किया। उनकी मृत्यु
के साथ ही मुगल साम्राज्य लड़खड़ाने लगा। उनके उत्तराधिकारी सुविस्तृत साम्राज्य को
सँभालने में कमजोर और अक्षम साबित हुए। चारो ओर से प्रान्तीय जागीरदारों ने
स्वाधीनता के दावे के साथ शाही-नुमाइन्दों को चुनौती देना शुरू कर दिया। पश्चिमी
भारत में शिवाजी(सन् 1637-1680) ने
एक ऊर्जावान सैनिक इकाई के रूप में मराठाओं को संघटित किया, और उसे राष्ट्रीय पहचान के साथ खड़ा किया। उन्होंने
मुगलों को शिकस्त देने के लिए गुरल्लिा पद्धति की लड़ाई का रास्ता अपनाया। सतरहवीं
और अठारहवीं शताब्दी के दौरान भारत के राजनीतिक परिदृश्य में, मुख्यतः मराठाओं का, पंजाब में सिक्खों का, और मैसूर में हैदरअली (सन् 1721-1782) का वर्चस्व रहा।
विभिन्न राजवंशों और साम्राज्यों के इस संक्षिप्त उल्लेख के साथ यह बहुत
स्पष्ट रूप से दिखता है कि न केवल मध्य काल, बल्कि हिन्दी साहित्य के आदिकाल की प्रवृत्तियाँ भी
इतिहास के मध्य-युग (सन् 1200-1857) में परिसीमित हैं। इतिहास की इसी अवधि की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थियों
के प्रभाव से तत्कालीन साहित्य और विभिन्न भारतीय भाषाओं की वास्तविक छवि विकसित
हुई तथा अस्मिता तय हुई। हर्षवर्द्धन के शासन काल की समाप्ति के साथ ही भारत की
राजनीतिक सत्ता में जैसा विघटन हुआ, उसी का परिणाम था कि उत्तर भारत से हिन्दू राज्य-शक्ति लुप्त हो गई और
राजपूतों ने तुर्कों को भारत में प्रवेश का अवसर दिया। बारहवीं शताब्दी का अन्त
आते-आते उस काल का महान शासक और वीर योद्धा पृथ्वीराज चौहान, मुहम्मद गोरी से परास्त हो गए, भारत के इतिहास में, नागरिक जीवन के परिप्रेक्ष्य और समाज व्यवस्था के फलक
में, विचित्रताओं का सूत्रपात
यहीं से हुआ। स्थानीय शक्तियों के द्वन्द्व, द्वेष, और
दुराव-दुर्भाव के परिणामस्वरूप मुस्लिम शासन की केन्द्रीय शासन-पद्धति विकसित होने
लगी। इस परिवर्तन का जनमानस पर घनघोर असर पड़ा। सत्ता और सामन्तों के सम्बन्ध आम
नागरिक से दूरस्थ होने लगे। राजनीति के प्रति जन-समाज की उदासीनता अत्यधिक बढ़ गई।
जनपदीय गणराज्यों के विनाश और साम्राज्यों की स्थापना के बाद राजभक्ति के रूप में
गहराती हुई जनभावना घृणा में परिणत होने लगी। गंगा-यमुना की घाटी में कवियों के
राजाश्रय की सम्भावनाएँ समाप्त हो गईं। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश के राजाश्रित कवियों में चरित-काव्य की वीरगाथा लिखने की जो
परम्परा थी, वह राजस्थान में
अपभ्रंश और रासो-काव्य के रूप में थोड़ी-बहुत अवशेष के रूप में रह गई। पर, वहाँ भी जनता की भावनाएँ सिरे से गायब थीं। इस
तरह के राजनीतिक पराभव और सामाजिक दुरवस्था की स्थिति से थोड़े समय के लिए
साहित्यिक शून्यता दिखने लगी, मगर
इसी शून्यता के सन्नाटे को चीड़कर पुनर्जीवी शक्ति का उदय हुआ। तथ्य है कि तेरहवीं
शताब्दी के प्रारम्भ से सोलहवीं शताब्दी की शुरुआत तक एक किस्म की निरंकुश शासन
व्यवस्था कायम रही, पर मुगल
साम्राज्य के अस्तित्व में आते ही धीरे-धीरे सभ्य शासन-व्यवस्था बनने लगी। शहंशाह
अकबर की धार्मिक उदारता और सुव्यवस्थित शासन-पद्धति के परिणाम स्वरूप समाज में
सर्वांगीण विकास की स्थिति बनी। कला, साहित्य, संस्कृति और
ज्ञान की भिन्न-भिन्न शाखाओं के कौशल को उन्नत करने की दिशा में सत्ता पक्ष की
उदारता और सहृदयता देखी गई। अकबर तथा उनके परवर्ती शासकों ने हिन्दी के रचनाकारों
को यथेष्ट प्रश्रय दिया, पर उस
दौर के साहित्य की अतुलनीय विशेषता के रूप में इसे रेखांकित किया जा सकता है कि उस
समय के अधिकांश उत्कृष्टतम रचनाकारों का राजसत्ता से कोई सरोकार नहीं रहा, उस दौर की विशिष्ट रचनाओं का बहुलांश जनकवियों
द्वारा ही रचा गया। ध्यातव्य है कि अपने राज्य के मनसबदार के रूप में अकबर ने
तुलसीदास को आमन्त्रण दिया था, पर
सन्त कवि तुलसीदास ने यह कहते हुए मना कर दिया था कि
हम चाकर रघुबीर कौ, पट्टौ लिखौ लिलार
तुलसी अब का होइहौं, नर के मनसबदार
स्मरणीय तथ्य है कि इतिहास का उत्तर-मध्य युग न केवल राजनीतिक और शासकीय
व्यवस्था की दृष्टि से, बल्कि
धार्मिक दृष्टि से भी व्याख्येय था। सातवीं से बारहवीं शताब्दी तक का समय भारत में
न केवल राजनीतिक सत्ता के विघटन का काल है, बल्कि धार्मिक मान्यता और आस्था के स्खलन का काल भी
है। सांस्कृतिक दृष्टि से तो इसे तान्त्रिक काल कहा जाता है। तान्त्रिक गुह्य
साधनाओं में शारीरिक भोगवाद की पराकाष्ठा थी। इस चरम प्रवृत्ति से न केवल बौद्ध
महायान, और वज्रयान की परम्परा
में आए सहजयान आक्रान्त हुआ, बल्कि
शैव, शाक्त और वैष्णव मत में भी
तन्त्र प्रक्रियाओं का घुसपैठ हो गया था। विस्मयकर लगता है कि एक ही समय में इधर
तान्त्रिक भोगवाद की स्थिति अपने चरम पर थी, उसके ठीक विपरीत शंकराचार्य के मायावादी अद्वैतवाद से
वैराग्य भाव की धारणाएँ बलवती हो उठी थीं। पर उसी अन्तराल में प्रख्यात विद्वान
मण्डन मिश्र के अद्वैत वेदान्त का प्रवृत्ति मार्ग अपने गृहस्थाश्रम के रास्ते
भली-भाँति प्रचारित हो रहा था। उधर निवृत्ति मार्ग के प्रवक्ता शंकराचार्य का
मानना था ब्रह्म चिन्तन और मुक्ति के लिए संन्यास ही एक मात्र रास्ता है, इधर प्रवृत्ति मार्ग के समर्थक मण्डन मिश्र का
कहना था कि संन्यासियों और वैरागियों को निवृत्ति मार्ग से चलकर मुक्ति मिल जा
सकती है, पर गार्हस्थ जीवन
व्यतीत करते हुए यदि दान, तप,
यज्ञादि का आचरण करते रहें तो मुक्ति और
सहजता एवं सरलता से मिल सकती है। इन विस्मयकर परिस्थितियों में ही वज्रयानी
सिद्ध-सम्प्रदाय से विकसित नाथ पन्थ के योगियों द्वारा कुछ उद्यम किए जा रहे थे,
पर पूरे जनसमुदाय को आन्दोलित करने लायक
शक्ति इसमें नहीं थी।
इसी दौरान महत्त्वाकांक्षी मुस्लिम आक्रमणकारियों और धर्मान्ध मुल्लाओं की
सांस्कृतिक और धार्मिक कट्टरता के प्रवेश से जनजीवन में कुछ नई परेशानियों का उदय
हुआ। जाहिर है कि विभ्रम और परस्पर विरोधी इन परिस्थितियों से आक्रान्त समाज
व्यवस्था के नागरिक असमंजस की स्थिति में थे। उन्हें भीतर और बाहर के इन
संघर्षपूर्ण स्थितियों से जूझते हुए अपने अस्तित्व की रक्षा का सवाल सामने दिख रहा
था। जीवन-संग्राम की इन्हीें परिस्थितियों में उस काल के नागरिक ने खुद को
पुनर्जाग्रत किया, और भक्ति
आन्दोलन के बहाने मानव-मूल्य की प्रतिष्ठा करते हुए समकालीन समस्याओं के समाधान
हेतु रास्ता निकाला। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल भले कह दें कि ‘अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की शक्ति और
करुणा की ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था?’ पर सचाई यह है कि उस दौर का यह नागरिक-आचरण ‘हारे को हरिनाम’ नहीं था। वस्तुतः यह तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी
मनुष्य की जीवनी शक्ति को एक दिशा और आकार देने का उद्यम था।
सही कहा गया है कि ‘इस
धार्मिक आन्दोलन की कदाचित् सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें जहाँ एक ओर ऐसी
विविधताएँ और साम्प्रदायिक संकीर्णताएँ दिखाई देती हैं, जिनकी संगति मिलना असम्भवप्राय जान पड़ता है; वहाँ इतनी मूलभूत एकता और व्यापकता है,
जो मानवता को ही नहीं, पशु-पक्षी, कीट-पतंग, जड़-चेतन सभी को एक सूत्र में बाँधकर समेटती चलती है। कारण, यह है कि इसे मात्र तात्कालिक परिस्थितियों ने
आपद्धर्म के रूप में जन्म नहीं दिया, वरन्् इसकी जड़ें अत्यन्त गहरी, इसकी परम्परा अत्यन्त प्राचीन तथा इसकी भूमिका अत्यन्त पुष्ट और दृढ़ थी
(साहित्यकोश/ भाग-2/पृ.-471)।’
सचमुच, नाथपन्थी अलखवादी
जोगियों की परम्परा को व्यापकता देने वाले कबीर, रैदास, नानक,
दादू आदि निर्गुण धारा के सन्त; अनलहक के द्रष्टा, सूफियों के अनुयायी, प्रेममार्गी कुतबन, मंझन, जायसी,
उसमान; रसावतार श्रीकृष्ण और रासेश्वरी राधा के कीर्तन करने
वाले प्रेमभक्ति के प्रचारक वल्लभ, चैतन्य,
हरिवंश, हरिदास, सूरदास, नन्ददास;
मर्यादा पुरुषोत्तम पूर्णब्रह्म राम और
जगज्जननी सीता के उपासक, मर्यादा-भक्ति
के प्रतिष्ठापक तुलसीदास; प्रेम
और भक्ति के समन्वयक और शैव्य, शाक्त,
वैष्णवकृसभी धाराओं को रेखांकित करने
में अग्रणी विद्यापति,कृसब के सब
सांसरिक भोग-विलास को जीवन की सार्थकता-निरर्थकता की कसौटी में अपनी तरह से व्याख्यायित
करते हुए प्रवृत्ति और निवृत्ति के यथोचित सामंजस्य द्वारा आध्यात्मिकता और
इहलौकिकता की धरातल पर रेखांकित कर रहे थे। प्रवृत्ति और निवृत्ति के पारस्परिक
द्वैध को किसी सूत्र से भरने का उद्यम कुछ अलग अर्थों में सूर और बिहारी के यहाँ
भी दिखता है। पूरे भारत के फलक पर देखें तो अन्य भाषा-भाषी जनवृत्त के भक्त कवियों
के यहाँ भी मानव जाति की इस जीवनी-शक्ति का उद्यम दिखता है। भक्ति आन्दोलन के
काव्य में सांसारिक वैभव के प्रदर्शन और धार्मिक पाखण्ड का घटाटोप नहीं, बल्कि उन सब के यहाँ जीवन की बाह्याभ्यन्तर
शुद्धता और निर्मलता पर बल है। यहाँ वसुधैव कुटुम्बकम की कसौटी पर प्रेम के विविध
भावों के उदात्त स्वरूप की प्रतिस्थापना दिखती है; शास्त्रीय मर्यादा से बाहर आकर, वर्णाश्रम व्यवस्था से अलग होकर, बिखराव भरे सामाजिक जीवन को पुनर्संघटित करने
का उत्साह और स्फूर्ति भरने का उद्यम यहाँ दिखता है। भक्ति आन्दोलन के दौर में
जीवन की समग्रता से भरी काव्य दृष्टि दिखती है, जहाँ मनुष्य जाति को जीवन जीने का मार्ग दिखाया गया है,
समाज से वर्गभेद मिटाकर उच्च वर्ग से
निम्न वर्ग तक में चेतना की नई लहर, जीवन के प्रति उमंग, उल्लास
और उत्साह भरा हुआ-सा दिखता है; सुसुप्त
क्रियात्मक शक्तियाँ प्राणवेग से जाग्रत हुई दिखती हैं; कला-साहित्य-संगीत के सृजन की लोकोन्मुख प्रवृत्तियाँ
दिखती हैं।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने तो मध्य युग के भक्ति-काव्य की प्रवृत्तियों की
प्रेरक शक्तियों के रूप में मुस्लिम आक्रमण से उत्पन्न राजनीतिक पराभव और
सांस्कृतिक विध्वंस को रेखांकित किया है। उनकी राय में इन परिस्थितियों के
परिणामस्वरूप समाज में फैली निराशा और हताशा बड़ी त्रसद थी। उनकी धारणा को आधार
मानकर बाद के दिनों में जितने भी ग्रन्थ लिखे गए, उनके कारण भी यह धारणा बद्धमूल हो गई कि भक्ति साहित्य
अपने समय के आक्रमणों से आकान्त समाज की हताश वृत्तियों का चित्रण है। पर बाद के
समय में हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे कुछ मनीषियों ने इस धारणा का खण्डन किया। सचाई
है कि उक्त आक्रमण से जैसा राजनीतिक पराभव और सांस्कृतिक विध्वंस हुआ, उसका असर समाज के मनोभाव पर था, और कदाचित भक्ति-आन्दोलन के लिए उन
परिस्थितियों ने ही पृष्ठभूमि तैयार की। जैसा कि पूर्व में कहा गया, वे परिस्थितियाँ ‘हारे को हरिनाम’ वाली नहीं थी, उसका उत्स हताशा और नकार भाव की जमीन पर नहीं था; उसकी भावभूमि प्रति-रक्षात्मक कदापि नहीं थी, वह पूरी तरह सकारात्मक, सृजनात्मक, और धनात्मक भाव से शुरू हुई थीं। हताशा से उठी हुई प्रति-रक्षात्मक
धारणाएँ इतनी बलवती कभी नहीं हो सकती थी, इतना सुसम्बद्ध, उत्साहपूर्ण
और सकारात्मक तो हो ही नहीं सकती थी। प्रति-रक्षा के प्रयाण में हर-हमेशा भयाकुल भाव
समाया रहता है; जबकि
भक्ति-आन्दोलन जीवनी-शक्ति के उल्लास और सुसम्बद्धता से भरा हुआ और सकारात्मक सोच
से पूरिपूर्ण दिखता है।
इतिहास के इस उत्तर-मध्य युग में धर्म और भक्ति की धारणाओं से शुरू हुआ
आन्दोलन सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आन्दोलन था, जिसका सीधा सम्बन्ध सामाजिक और सांस्कृतिक
पर्यवस्थितियों से था। इसे भक्तिकाल कहा गया। आधुनिक आर्य भाषाओं के माध्यम से इस
आन्दोलन का प्रचार-प्रसार किया गया। जाहिर है कि हिन्दी उसका मुख्य आधार हुआ।
हिन्दी साहित्य के इतिहास में इसे मध्यकाल कहा जाता है, और इसकी अवधि चौदहवीं शताब्दी से उन्नीसवीं शताब्दी के
मध्य तक मानी गई है। वैसे काल-निर्धारण में जाएँ, तो फिर से बखेरा खड़ा हो जाएगा, क्योंकि आचार्य शुक्ल पूर्व-मध्यकाल (भक्तिकाल) का समय
सम्वत् 1375-1700, अर्थात् सन् 1318-1643 बताते हैं। यदि कबीर से भक्तिकाल की शुरुआत
मानें, तो यह निर्धारण मुश्किल
होगा, क्योंकि कबीर का जन्म सन् 1398 और मृत्युकाल सन् 1518 माना जाता है। पर आचार्य शुक्ल भक्तिकाल का सामान्य
परिचय देते हुए वज्रयानी सिद्धों और कापालिकों के देश के पूरबी भागों में और
नाथपन्थी योगियों के पश्चिमी भागों में फैलने की स्थिति का विस्तार से परिचय देते
हैं और इस संशय को पहले ही मिटा देते हैं। वज्रयानी सिद्धों और नाथपन्थी जोगियों
के विधि-विधान, तीर्थाटन,
पर्वस्नान आदि के द्वारा निस्सारता का
संस्कार फैलाने का जो उद्यम किया जा रहा था; आचार्य शुक्ल के अनुसार वह जनता की दृष्टि को
आत्म-कल्याण और लोक-कल्याण के सच्चे कर्माें की ओर ले जाने के बजाय उन्हें कर्म
क्षेत्र से हटा रहा था। उनके अनुसार, सच्चे धर्मभाव का हªास
इस तरह हो गया था कि प्रतिवर्तन के लिए किसी जोरदार धक्के-धमाके की जरूरत थी।
शास्त्राज्ञ विद्वानों की धारणाओं पर उनकी बानियों का कोई प्रभाव नहीं हो रहा था।
वे अपनी ही मान्यताओं के साथ शास्त्रार्थ और खण्डन-मण्डन में रत थे। फलस्वरूप
पारम्परिक भक्तिमार्ग के सिद्धान्तों के कई नूतन रूपों का विकास भी हुआ। इधर सच्चे
शुभकर्मो के रास्ते सहज भगवत्भक्ति में लगे रहने के बजाय, वज्रयानियों और नाथपन्थियों की बानियों के प्रभामण्डल
में आकर जो सामान्य जनता मन्त्र, तन्त्र
उपचारों में उलझने लगी थी और अलौकिक सिद्धियों में, गुह्य-रहस्य में, बाह्य जगत को छोड़कर घट के भीतर में जाने का जैसा
रहस्यमय पाठ उन्हें पढ़ाया जाने लगा था, उस दौर के कालदर्शी कवियों ने जनता की दबी हुई भक्ति को जगाने का यत्न
किया और क्रमशः भक्ति का प्रवाह प्रबल वेग से विकसित होता गया। यह प्रवाह इतना
संवेगात्मक साबित हुआ कि उस दौर की न केवल हिन्दू जनता, बल्कि देश में बसे न जाने कितने मुसलमान इस धारा में आ
गए। आचार्य शुक्ल ने स्पष्ट कहा कि ‘प्रेमस्वरूप ईश्वर को सामने लाकर भक्त कवियों ने हिन्दुओं और
मुसलमानों--दोनों को मनुष्य के सामान्य रूप में दिखाया और भेदभाव के दृश्यों को
हटाकर पीछे कर दिया...।’ उन्होंने
आगे कहा कि ‘भक्ति का जो सोता
दक्षिण की ओर से धीरे-धीरे उत्तर भारत की ओर पहले से ही आ रहा था, उसे राजानीतिक परिवर्तन के कारण शून्य पड़ते
हुए जनता के हृदय क्षेत्र में फैलने के लिए पूरा स्थान मिला (हिन्दी साहित्य का
इतिहास/पृ.-35)।’
सचाई भी है कि रामानुजाचार्य (सन् 1016) द्वारा निरूपित शास्त्रीय पद्धति की सगुण भक्ति जनता
को अत्यधिक आकर्षित करने लगी थी, गुजरात
में मध्वाचार्य(सन् 1197-1276) के
द्वैतवादी वैष्णव सम्प्रदाय की ओर कुछ लोग आकर्षित हुए थे; इधर देश के पूरबी भागों में जयदेव और कवि कोकिल
विद्यापति (सन् 1380-1460) के
राधा-कृष्ण विषयक प्रेमगीतों की गूँज फैलने लगी थी। रामानुजाचार्य की शिष्य परम्परा
के सुप्रसिद्ध आचार्य रामानन्द (सन् 1400-1470) को रामभक्ति का प्रथम आचार्य कहा जाता है। अन्य
विद्वानों की तरह उनके जीवनकाल और जन्म-स्थान के सम्बन्ध में भी मतैक्य का अभाव है,
पर इस बात पर आम सहमति है कि राम-उपासना
की प्रखर धारा चलाकर उन्होंने रामभक्ति का सम्प्रदाय खड़ा किया। उन्हीं की प्रेरणा
से मध्ययुग में तथा उसके बाद के समय में रामभक्ति-साहित्य की विपुल रचना हुई।
परवर्ती काल के दो विराट सन्त कवि कबीर और तुलसी--दोनों की यशःकीर्ति का
सम्बन्ध-सूत्र उनके द्वारा संस्थापित भक्ति-धारा से मिलता है। तथ्य है कि उन्होंने
स्त्री और शूद्र--दोनों के लिए भक्ति का द्वार खोला, फलस्वरूप मध्यकाल की वैचारिकता में उदारता का भाव और
अधिक बढ़ा। उन्हीें की उदारता के कारण हिन्दू और मुसलमानों के बीच निकटता बढ़ी।
रामानन्द को अपना आदर्श और प्रेरणा-स्रोत मानने वाले अधिकांश सन्त कवि मुसलमान ही
हैं।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार ‘उत्तर या मध्य भारत में एक ओर तो ईसा की 15वीं शताब्दी में रामानुजाचार्य की शिष्य
परम्परा में स्वामी रामानन्द जी हुए जिन्होंने विष्णु के अवतार राम की उपासना पर
जोर दिया और एक बड़ा भारी सम्प्रदाय खड़ा किया, दूसरी ओर वल्लभाचार्य जी ने प्रेममूर्ति कृष्ण को लेकर
जनता को रसमग्न किया। इस प्रकार रामोपासक और कृष्णोपासक भक्तों की परम्पराएँ चलीं
जिनमें आगे चलकर हिन्दी काव्य को प्रौढ़ता पर पहुँचाने वाले जगमगाते रत्नों का
विकास हुआ। इन भक्तों ने ब्रह्म के ‘सत्’ और ‘आनन्द’ स्वरूप का साक्षात्कार राम और कृष्ण के रूप में इस
बाह्य जगत् के व्यक्त क्षेत्र में किया (हिन्दी साहित्य का इतिहास/पृ.-35)।’
गौरतलब है कि दक्षिण भारत से उत्तर की ओर आकर जड़ जमाई हुई भक्ति की इस
भावना ने नया अलख जगाया। ‘गुह्य’
और ‘रहस्य’ से
बाहर आकर लोग सहज भक्ति में रसमग्न होने लगे। जाति भेद, सम्प्रदाय भेद, लिंगभेद का बन्धन टूटा। सम्प्रदाय भेद से ऊपर उठकर
महाराष्ट्र के सुविख्यात सन्त नामदेव (सन् 1271-1351) ने सामान्य भक्तिमार्ग चलाया। इनके बाद कबीर आए,
और पूरी तत्परता से उन्होंने व्यस्थित
रूप से निर्गुणपन्थ शुरू किया। निराकार
ईश्वर की अवधारणा में उन्होंने भारतीय वेदान्त और सूफी प्रेमतत्व का समन्वय कर ‘निर्गुण पन्थ’ चलाया। श्रद्धा और प्रेम के योग से उत्पन्न भक्ति का
यह रूप चल पड़ा। आचार्य शुक्ल के शब्दों में ‘यह सामान्य भक्तिमार्ग एकेश्वरवाद का एक अनिश्चित
स्वरूप लेकर खड़ा हुआ, जो कभी
ब्रह्मवाद की ओर ढलता था और कभी पैगम्बरी खुदावाद की ओर। यह निर्गुण पन्थ के नाम
से प्रसिद्ध हुआ। इसकी ओर ले जानेवाली सबसे पहली प्रवृत्ति जो लक्षित हुई, वह ऊँच-नीच और जात-पाँत के भाव का त्याग,
ईश्वर भक्ति के लिए मनुष्य मात्र के
समान अधिकार का स्वीकार था। इस भाव का सूत्रपात भक्तिमार्ग के भीतर महाराष्ट्र और
मध्य देश में नामदेव और रामानन्द जी द्वारा हुआ।कृये दक्षिण के नरुसीबमनी (सतारा
जिला) के दरजी थे... महाराष्ट्र के भक्तों में नामदेव का नाम सबसे पहले आता है।
मराठी भाषा के अतिरिक्त इनकी हिन्दी रचनाएँ भी प्रचुर परिमाण में मिलती हैं। इन
हिन्दी रचनाओं में एक विशेष बात यह पाई जाती है कि कुछ तो सगुणोपासना से सम्बन्ध
रखती हैं और कुछ निर्गुणोपासना से। इसके समाधान के लिए इनके समय की परिस्थिति की
ओर ध्यान देना आवश्यक है... (हिन्दी साहित्य का इतिहास/पृ.-36-37)।’
जाहिर है कि यह परिस्थिति हर समय के, मनुष्य मात्र के लिए नियामक शक्ति बन जाती है। समकालीन
परिस्थितियाँ ही एक ऐसा घटक है जो किसी कालजयी व्यक्ति की अपराजेय क्षमता और
बुद्धि-विवेक को उद्बुद्ध करती हुई उसे अपनी मान्यताओं के साथ खड़े होने में सहयोग
करती है। हर समय के चिन्तकों की अवधारणा को उसके अतीत की घटनाएँ प्रभावित करती
हैं। यह प्रभाव नामदेव पर भी पड़ा, ज्ञानदेव
पर भी और कबीर पर भी।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की मान्यता एकदम से तर्कसम्मत है कि ‘सगुणोपासक भक्त भगवान विष्णु के सगुण और
निर्गुण दोनों रूप मानता है, पर
भक्ति के लिए सगुण रूप ही स्वीकार करता है, निर्गुण रूप ज्ञानमार्गियों के लिए छोड़ देता है
(हिन्दी साहित्य का इतिहास/पृ.-38)।’
अपने इसी तर्क के आधार पर आचार्य शुक्ल,
भक्त नामदेव को उनकी हिन्दी रचनाओं के
हवाले से सगुण और निर्गुण--दोनों ही धारा में देखते हैं। पर वे कहते हैं कि ‘निर्गुण मार्ग के निर्दिष्ट प्रवर्तक कबीरदास
ही थे जिन्होंने एक ओर तो स्वामी रामानन्द
जी के शिष्य होकर भारतीय अद्वैतवाद की कुछ स्थूल बातें ग्रहण कीं और दूसरी ओर
योगियों और सूफी फकीरों के संस्कार प्राप्त किए। वैष्णवों से उन्होंने अहिंसावाद
और प्रपत्तिवाद लिए। इसी से उनके निर्गुणवाद वाले दूसरे सन्तों के वचनों में कहीं
भारतीय अद्वैतवाद की झलक मिलती है तो कहीं योगियों के नाड़ी चक्र की, कहीं सूफियों के प्रेमतत्व की, कहीं पैगम्बरी कट्टर खुदावाद की और कहीं
अहिंसावाद की। अतः तात्विक दृष्टि से न तो हम इन्हें पूरे अद्वैतवादी कह सकते है
और न एकेश्वरवादी। दोनों का मिला-जुला भाव इनकी बानी में मिलता है। इनका लक्ष्य एक
ऐसी सामान्य भक्ति पद्धति का प्रचार था, जिसमें हिन्दू और मुसलमान दोनों योग दे सकें और भेदभाव का कुछ परिहार हो।
बहुदेवोपासना, अवतार और मूर्तिपूजा
का खण्डन, ये मुसलमानी जोश के
साथ करते थे और मुसलमानों की कुरबानी (हिंसा), नमाज, रोजा
आदि की असारता दिखाते हुए ब्रह्मज्ञानी बनकर करते थे। सारांश यह कि ईश्वर-पूजा की
उन भिन्न-भिन्न बाह्य विधियों से ध्यान हटाकर, जिनके कारण धर्म में भेद-भाव फैला हुआ था, ये शुद्ध प्रेम और सात्विक जीवन का प्रचार
करना चाहते थे (हिन्दी साहित्य का इतिहास/पृ.-39)।
निर्गुण धारा की इस भक्ति की दो शाखाएँ स्पष्टतया निर्दिष्ट होने लगी
थीं--पहली शाखा ज्ञानाश्रयी थी, तथा
दूसरी शाखा प्रेमाश्रयी। ज्ञानाश्रयी शाखा भारतीय ब्रह्मज्ञान और योगसाधना को लेकर
आगे बढ़ी, जिसमें मौके-बेमौके
सूफियों के प्रेम-तत्व भी आते रहे; जबकि
प्रेमाश्रयी शाखा शुद्ध रूप से सूफी कवियों की प्रेममार्गी शाखा हुई। ज्ञानाश्रयी
शाखा में बहुदेवोपासना और मूर्तिपूजा के खण्डन के भाव स्पष्टतया परिलक्षित हुए। इस
शाखा की रचनाओं की भाषा-शैली अधिकतर अव्यवस्थित देखी गई। तथ्य है कि इस शाखा का
कोई भी प्रभाव उस काल की शिक्षित जनता पर नहीं पड़ा, क्योंकि यहाँ उनके लिए कोई आकर्षक बात नहीं दिखती थी।
इस प्रसंग में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने साफ-साफ लिखा कि ‘संस्कृत बुद्धि, संस्कृत हृदय और संस्कृत वाणी का वह विकास इस शाखा में
नहीं पाया जाता जो शिक्षित समाज को अपनी ओर आकर्षित करता। पर अशिक्षित और निम्न
श्रेणी की जनता पर इन सन्त महात्माओं का बड़ा भारी उपकार है। उच्च विषयों का कुछ
आभास देकर, आचरण की शुद्धता पर
जोर देकर, आडम्बरों का तिरस्कार
करके, आत्मगौरव का भाव उत्पन्न
करके, इन्होंने इसे ऊपर उठाने का
स्तुत्य प्रयत्न किया ‘(हिन्दी
साहित्य का इतिहास/पृ. 39)।’
इस उद्धरण और इस धारा के सामाजिक सार्वजनिक प्रभाव के मद्देनजर इस बात का
उल्लेख महत्त्वपूर्ण होगा कि तथाकथित अशिक्षित और निम्नश्रेणी जनता का सामाजिक
सरोकार और महत्त्व सुनिश्चित करने में इसका प्रबल योगदान था। इसके साथ-साथ सगुण
धारा के साधक कवियों ने प्रेमतत्त्व पर बल देते हुए प्रेम के आलम्बन, ईश्वर से मिलने की कथा कहना शुरू किया। लौकिक
प्रेम की कथा के सहारे यहाँ अपने प्रियतम, ईश को प्राप्त करने के क्रम में सामने आए तमाम बाधाओं को झेलते हुए,
प्रेम की पीड़ा का बखान करते हुए,
लोकोत्तर प्रेम में परिणति दिखती थी।
हिन्दी साहित्य के इतिहास में निर्गुण धारा के प्रमुख कवि कबीर दास,
रैदास, गुरुनानक, दादूदयाल, मलूकदास आदि
हैं। निर्गुण धारा के प्रेममार्गी साधकों में कुतबन, मंझन, मलिक
मुहम्मद जायसी आदि गिने जाते हैं। सगुण भक्ति के प्रमुख कवि हैं--रामानन्द,
गोस्वामी तुलसीदास, नाभादास, वल्लभाचार्य, सूरदास, नन्ददास,
कृष्णदास, परमानन्ददास, कुम्भनदास, चतुर्भुजदास,
छीतस्वामी, गोविन्दस्वामी, मीराबाई, रसखान आदि।
उल्लेखनीय है कि हिन्दी साहित्य का भक्तिकाल केवल साहित्य-सृजन की दृष्टि
से ही नहीं सांस्कृतिक चेतना, सामाजिक
सक्रियता, और कलात्मक
अभिव्यक्ति... हर दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। सच कहा जाता है भक्ति आन्दोलन ऐसा
आन्दोलन साबित हुआ जिसने पूरे देश में भावनाओं का एक समवेत उच्छ्वास उत्पन्न किया,
इस धारा के समस्त युगनिर्माता कवियों की
रचनाओं से पूरे भारतवर्ष में समतुल्य भाव-धारा आन्दोलित हो उठी। महान चिन्तक
ग्रियर्सन ने स्पष्ट रूप से घोषित किया कि ‘हम अपने को ऐसे धार्मिक आन्दोलन के सामने पाते हैं,
जो उन सब आन्दोलनों से कहीं अधिक विशाल
है, जिन्हें भारतवर्ष ने कभी
देखा है, यहाँ तक कि बौद्ध धर्म
के आन्दोलन से भी अधिक विशाल है, क्योंकि
इनका प्रभाव आज भी वर्तमान है। इस युग में धर्म, ज्ञान का नहीं बल्कि भावावेश का विषय हो गया था। यहाँ
से हम रहस्यवाद और प्रेमोल्लास के देश में आते हैं और ऐसी आत्माओं का साक्षात्कार
करते हैं, जो काशी के दिग्गज
पण्डितों की जाति के नहीं, बल्कि
जिनकी समता मध्य युग के यूरोपियन भक्त बर्नार्ड आव क्लेयर बाक्स, थामस ए. केम्पिस और सेण्ट थेरेससे हैं
(साहित्यकोश, भाग-2/पृ.-442-443)।’ वैसे
कुछ मत इस प्रकार भी हैं कि प्रारम्भिक काल में ही पश्चिमी समुद्र पर आ बसे अरब
नागरिकों के कारण फैले इस्लामी प्रभाव की यह देन है; या फिर मुसलिम आक्रमणकारियों के अत्याचारों से उत्पन्न
सामाजिक दुव्र्यवस्था से आंतकित भारतीय नागरिक के मन में उमड़ी हीनताबोधक भावनाओं
की प्रतिच्छवि है; पर इस विषय पर
तर्क सम्मत व्याख्या देते हुए प्रो. सतीशचन्द्र ने अपनी पुस्तक ‘मध्यकालीन भारत में इतिहासलेखन, धर्म और राज्य का स्वरूप’ में संकलित आलेख ‘उत्तर भारत में भक्ति आन्दोलन के उदय की ऐतिहासिक
पृष्ठभूमि’ में विस्तार से चर्चा
की है। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि ‘देश
में ईसा पूर्व छठी और ईसा के बाद दूसरी सदियों के मध्य बौद्ध धर्म के उदय और विकास
के बाद, मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन
भारत का सर्वाधिक व्यापक, बड़ा,
और बहुआयामी आन्दोलन था। भक्ति-आन्दोलन
ने समय-समय पर लगभग पूरे देश को प्रभावित किया और उसका धार्मिक सिद्धान्तों,
धार्मिक अनुष्ठानों, नैतिक मूल्यों और लोकप्रिय विश्वासों पर ही
नहीं, बल्कि कलाओं और संस्कृति
पर भी निर्णायक प्रभाव पड़ा। बदले में इन्होंने मध्यकालीन राज्य और शासक वर्गों के
नैतिक ढाँचे पर अपना प्रभाव डाला। कुछ क्षेत्रों में इसके विकास की एक खास अवस्था में,
मुगल राज्य के केन्द्रण का विरोध करने
वाले तत्वों ने भक्ति आन्दोलन को एक प्लेटफॉर्म के रूप में इस्तेमाल करने की कोशिश
की। सांस्कृतिक क्षेत्र में, क्षेत्रीय
भाषाओं, संगीत, नृत्य, चित्रकला, शिल्पकला इत्यादि के विकास का भक्ति आन्दोलन से निकट सम्बन्ध रहा (पृ. 83)।’
वैसे विचारणीय बिन्दु यह भी है कि अपने इस वक्तव्य के तत्काल बाद प्रो.
सतीश चन्द्रा ने इस आन्दोलन को मुक्त कण्ठ से जन-आन्दोलन स्वीकार नहीं किया। उनका
मत है कि इस आन्दोलन का उद्देश्य प्रत्यक्ष रूप से जनसाधारण के जीवन की
परिस्थितियों में परिवर्तन लाने के बजाय ईश्वर से रहस्यात्मक मिलन का था। और,
यहाँ मार्ग दर्शक अथवा गुरु की सहायता
से मुक्ति अथवा ईश-सान्निध्य प्राप्त करने हेतु अपेक्षित दैवी कृपा पर बल दिया गया
था। पर इतना तय है कि मोक्ष कामना, ब्रह्मसिद्धि,
और ईश मिलन की इस भावना के आन्दोलनात्मक
प्रचार-प्रसार के कारण पूरे भारतवर्ष में बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी आते-आते ऐसी
स्थिति बनी कि एक रोचक लोकप्रिय भावनाओं की अभिव्यक्ति होने लगी। सचाई यह भी है कि
इस भक्तिभाव के उदय और समाज के सामान्य नागरिक जीवन में संयोजकीय शक्ति के अँखुवे
उस दौर के वर्ग विभेद के कारण भी फूटे थे। इस भावना का क्षेत्र इतना व्यापक हो गया
कि इसमें विभिन्न वर्ग, समुदाय
और पृष्ठभूमि के स्त्री-पुरुष, अपने
तमाम वर्गभेद की धारणाओं को त्यागकर एकत्रित होने लगे। इस उद्यम के साथ आम
नागरिकों के बीच उस संयोजन-सूत्र का विकास हुआ, जो मानवतावादी आचरण को बल देता था। इस पर समन्वय और नई
सामाजिक-संरचना के उद्भव से उनमें संघर्ष करने की ऐसी शक्ति विकसित हुई, जिसके बल बूते वे उन तानाशाहों का डटकर सामना
करने लगे, जिन्होंने उनके जीवन
को असहज बनाने की व्यवस्था रच दी थी। भक्ति आन्दोलन की इस विशिष्टता के मद्देनजर उस
दौर के सामाजिक, सांस्कृति,
राजनीतिक परिदृश्यों का अवलोकन-विवेचन
जरूरी प्रतीत होता है।
स्वीकृत तथ्य है कि ईसा पूर्व पहली शताब्दी से ही बौद्ध धर्म के समर्थकों
में किंचित मतभेद हो गया था। वैशाली-संगीति में पश्चिमी तथा पूर्वी बौद्ध अलग-अलग
हो गए थे। उन्होेंने त्रिपिटक में कुछ परिवर्तन भी किया था। पूर्वी शाखा को
महासन्धि का नाम दिया गया जिसे आगे चलकर महायान कहा गया (साहित्य कोश, भाग-1/पृ.-491)। इस महायान का
अभिप्राय श्रेष्ठ और प्रशस्त मार्ग था, जिसे हीनयान से बढ़कर माना जाता था। तथ्य है कि बौद्ध धर्म की प्रारम्भिक
शाखा को हीनयान की संज्ञा से जाना जाता है। शाब्दिक अर्थ लगाने पर इसकी ध्वनियाँ
भले हीन भाव की तरफ ले जाएँ, पर
सचाई है कि इस हीन प्रणाली का उपयोग बौद्ध भिक्षुगण मोक्ष के लिए करते थे।
पाली-साहित्य में इसका व्यवहार एक शाखा रूप में ईसा पूर्व 250 तक होता रहा। पर इसवी सन् की पहली शताब्दी
आते-आते जब बौद्ध दार्शनिकों के बीच विवाद शुरू हुआ और पाली के स्थान पर संस्कृत
का वर्चस्व बढ़ने लगा, तब संस्कृत
समर्थकों ने इस हीनयान को तिरस्कार भाव से देखना शुरू किया और इसके शाब्दिक अर्थ
के मद्देनजर दुर्वचन के लिए इसका प्रयोग शुरू कर दिया (साहित्य कोश, भाग-2/पृ.-977)। कहना कठिन है
कि वस्तुतः महायान की शुरुआत कब हुई, पर सचाई है कि महायानियों ने खुद को श्रेष्ठ घोषित करते हुए इस प्राचीन
मतावलम्बियों को हीनयानी कहना शुरू कर दिया। वैसे हीनयानी और महायानी भिक्षुओं के
बीच के तात्विक भेद और सामाजिक सरोकार को स्पष्टता से रेखांकित करना थोड़ा मुश्किल
है, क्योंकि दोनों एक ही संघ में
रहते थे, एक ही ‘विनय’ का पालन करते थे। वैसे तिब्बती इतिहासकार तारानाथ ने लिखा है कि दूसरी
शताब्दी में कनिष्क के पुत्र के राज्य में महायान का प्रचुर प्रचार-प्रसार हो गया
था।
महायान-धर्म पूजा की भावना से जनता में लोकप्रिय होता गया तथा लोग उसकी ओर
आकर्षित होते गए। बुद्ध तथा बोधिसत्व की प्रतिमाएँ तैयार होने लगीं। गान्धार शैली
में बौद्ध मूर्तियाँ निर्मित होने लगीं। बुद्ध को योगी और भिक्षुक के रूप में तथा
बोधिसत्व को राजकुमार के वेष में (वस्त्रालंकारयुक्त) दिखलाया गया (साहित्य कोश,
भाग-2/पृ.-492)। भारतवर्ष में धर्म और कला का गहरा सम्बन्ध रहा है। शुरू से ही कलाकार
लोग अपनी कलाओं में धर्म की अभिव्यक्ति करते रहे हैं। और, उन्हीं अभिव्यक्तियों में अक्सर सामाजिक चित्तवृत्ति का
प्रतीक भी संचित होता रहा। बौद्धकला का जन्म धर्म को ही आधार मानकर हुआ, जिसमें कलाविदों ने बाद के दिनों में प्रतीकों
का भरपूर प्रयोग किया।
एक बार फिर थोड़ा पीछे चलकर देखते हैं कि जिन दिनों ब्राह्मण ग्रन्थों के
हिंसाप्रधान यज्ञों की प्रतिक्रिया में बौद्ध-जैन सुधार आन्दोलन चल रहे थे,
उससे भी पहले ईसा पूर्व 600 के आसपास एक उपासना प्रधान सम्प्रदाय विकसित
हो रहा था। प्रारम्भ में यह उपासना वृष्णि-वंशीय क्षत्रियों की खास जाति तक सीमित
थी, जो शूरसेन, अर्थात आधुनिक ब्रज में बसने वाले सात्त्वत
जाति के थे। सात्त्वतों के भ्रमण और स्थानान्तरण के परिणामस्वरूप यह धारा पश्चिम
की ओर भी फैली। इस सम्प्रदाय ने वैदिक परम्परा का विरोध नहीं किया, बल्कि अपने अहिंसात्मक धार्मिक रवैये को
वेदसम्मत बताया। जाहिर है कि इनकी प्रवृत्ति बौद्धों और जैनों के सुधार-आन्दोलन की
तरह खण्डनात्मक और प्रचारात्मक नहीं थी, इसकी कोई वैसी धूम भी नहीं मचाई जा रही थी। ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में
पाणिनि की ‘अष्टाध्यायी’ में वासुदेवोपासक के होने के स्पष्ट प्रमाण
मिलते हैं। ईसा-पूर्व तीसरी-चौथी शताब्दी से लेकर पहली शताब्दी तक प्राचीन साहित्य
और पुरातत्त्व सूचना के आधार पर इसके उल्लेख मिलते हैं। वासुदेव और बलदेव तो जैनों
के शलाका-पुरुष माने गए हैं, प्राचीन
जैन-बौद्ध साहित्यों में भी इनका उल्लेख है। प्राचीन तमिल साहित्य में वासुदेव के
अनेक सन्दर्भ मिलते हैं। इन साक्ष्यों के मद्देनजर सहज अनुमान किया जा सकता है कि
वैदिक पुरुवंश के एक जाति विशेष के ये लोग मगध के राजा जरासन्ध से आक्रान्त होकर
कुरुपांचाल के सूरसेन प्रदेश से पश्चिमी सीमान्त प्रदेश की ओर पलायन कर गए थे।
रास्ते में इनमें से कुछ लोग मालवा और उसके दक्षिण में बस गए और वहीं से कोंकण आदि
में फैल गए। इनमें से कुछ लोग और दक्षिण चले गए। इसका अनुमान इस बात से भी सहज हो
जाता है कि सात्त्वत जाति के लोग भी पशुपालक क्षत्रिय ही थे और दक्षिण के अण्डार,
इडैयर जाति के लोग भी पशुपालक अहीर थे,
या फिर आभीरों के समकक्ष थे। ‘एतरेय ब्राह्मण’ में उल्लेख है कि दक्षिण के सात्त्वतों ने इन्द्र का
अभिषेक किया। स्पष्ट है कि सात्त्वतों का दक्षिण में आगमन उससे पूर्व ही हो चुका
था और वे अपनी धार्मिक परम्पराओं के साथ ही वहाँ पहुँचे होंगे; इस तथ्य को सहजता से स्वीकार करने में तो कतई
कोई दुविधा नहीं होनी चाहिए।
भागवत धर्म को ही वैष्णव धर्म अथवा वैष्णव सम्प्रदाय कहते हैं। जिसके
उपास्य-देव वासुदेव हैं। ज्ञान, शक्ति,
बल, वीर्य, ऐश्वर्य
और तेज--इन छह गुणों से सम्पन्न होने के कारण उन्हें भगवान, या भगवत् कहा गया और भगवत के उपासक भागवत हुए। इस
भागवत धर्म का प्रारम्भ भी क्षत्रियों द्वारा ही हुआ। एक अब्राह्मण उपासना मार्ग
के रूप में शुरू हुआ यह सम्प्रदाय, अवैदिक
मतों की नई धूम को देखकर ब्राह्मणों द्वारा अपना लिया गया, फलस्वरूप वैष्णव और नारायणीय धर्म के रूप में उसका
विधिवत संघटन हुआ। महाभारत के शान्तिपर्व के नारायणीय उपाख्यान में इस नवीन धर्म
का उल्लेख वैष्णव यज्ञ के रूप में हुआ और इसे यज्ञ प्रधान वैदिक कर्मकाण्ड के
प्रवृत्ति मार्ग के विपरीत निवृत्ति मार्ग का बताया गया। इस वैष्णव यज्ञ में
स्पष्टतः पशुवध का निषेध तथा तप, सत्य,
अहिंसा और इन्द्रियनिग्रह का विधान किया
गया। महाभारत में वासुदेव को वैदिक देवता विष्णु से अभिन्न और कृष्ण को द्वितीय
वासुदेव के रूप में उनका अवतार माना गया। हरिवंश तथा अनेक पुराणों में भी कृष्ण को
द्वितीय वासुदेव के रूप में स्वीकारा गया है। इस तरह स्पष्ट संकेत है कि
सात्त्वतों के कुलधर्म को महाभारत और पुराणों में व्यापक लोकधर्म की स्वीकृति मिल
गई थी। चौथी पाँचवीं शताब्दी में गुप्तवंश के राज्यकाल में वैष्णव धर्म को
पर्याप्त प्रोत्साहन मिला। पर गुप्तवंश की उदार धार्मिक नीति के कारण शैव और
बौद्धधर्म को भी उन्नत होने का पर्याप्त अवसर मिला। इस तरह ईसा पूर्व 600 से लेकर सन 500 तक के अन्तराल में भागवत धर्म का पर्याप्त साहित्य
तैयार हुआ।
छठी से चौदहवीं शताब्दी की लगभग समाप्ति तक उत्तर भारत में भागवत धर्म का
उस तरह विकास नहीं हो सका। लोक रुचि के मद्देनजर कहा जा सकता है कि वैदिक धर्म और
बौद्ध धर्म में एक प्रतिस्पद्र्धा-सी थी। इसी प्रतिस्पर्धा में इधर बौद्ध धर्म ने
वैष्णव धर्म की अनेक बातें अपना लीं, उधर लोक विश्वासों और लोक प्रथाओं को अपनाते हुए उसकी मौलिकता शेष होने
लगीं। पौराणिक धर्म और शंकराचार्य के उद्यमों से भी बौद्ध धर्म आहत होता गया। इसी
दौरान दक्षिण भारत में भागवत धर्म का उत्कर्ष होता रहा। नौवीं शताब्दी तक दक्षिण
में जिस आलवार भक्तों की धारा अविच्छिन्न रही, उसमें अण्डाल नाम की एक प्रसिद्ध भक्तिन हुईं। इन्हीं
भक्तों ने विष्णु के अवतार राम और कृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम का भाव दिखाया और
दास्य, वात्सल्य और माधुर्य
भक्ति का स्वरूप स्पष्ट किया।
इस वैष्णव सम्प्रदाय में रामानुजाचार्य(सन् 1016-1137) को सर्वाधिक प्रसिद्ध माना जाता है। बल्कि
उनके द्वारा प्रवर्तित भक्ति धर्म को श्रीवैष्णव कहा जाता है। उनके उपास्य
लक्ष्मी-नारायण हैं और ऐसा विश्वास किया जाता है कि वस्तुतः इसका प्रवर्तन स्वयं
लक्ष्मी जी ने किया। रामानुजाचार्य ने ब्रह्मसूत्र का श्रीभाष्य भी लिखा। रामानुज
की मृत्यु के सौ वर्षों के भीतर ही दक्षिण में एक आचार्य हुए मध्व। माध्व मत
उन्हीं के नाम से प्रसिद्ध हुआ। मध्वाचार्य ने भक्ति के प्रचारार्थ ब्रह्म
सम्प्रदाय की स्थापना की। मायावाद, अद्वैतवाद
का खण्डन करते हुए उन्होंने भक्ति का जो मार्ग प्रशस्त किया, उससे दक्षिण में, खासकर कर्नाटक और दक्षिण महाराष्ट्र में कृष्ण भक्ति
का व्यापक प्रचार हुआ। बंगाल का गौड़ीय सम्प्रदाय भी माध्व मत की एक शाखा माना जाता
है। उसी काल के आसपास दक्षिण के एक और आचार्य निम्बार्क हैं। रामगोपाल भण्डारकर
इनका काल बारहवीं शताब्दी मानते हुए उनकी मृत्यु सन् 1162 में बताते हैं। कहा जाता है कि वे तैलंग ब्राह्मण थे।
पर दक्षिण में इनकी कोई परम्परा नहीं मिलती, उनके सम्प्रदाय का प्रधान केन्द्र वृन्दावन दिखता है।
इन तीन आचार्यों के अलावा आचार्य विष्णुस्वामी की चर्चा होती है। भक्तमाल के हवाले
से भण्डारकर ने उन्हें तेरहवीं शताब्दी का अनुमानित किया है, पर यह निर्णय करना कठिन है कि उस काल में
प्रसिद्ध इस नाम के तीन भक्तों में से कौन क्या थे। बहरहाल ...दसवीं से तेरहवीं
शताब्दी तक की भक्ति धारा का यह स्वरूप धीरे धीरे इतना वेगवान अवश्य हो गया कि एक
शास्त्रीय रूप धारण कर उत्तर की ओर आया और महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब, मध्य प्रदेश,
मगध, उत्कल, असम
और बंगाल के विस्तृत भूभाग में फैलकर लोकधर्म की व्यापकता हासिल कर ली।
उत्तर भारत में इसके नवल रूप के प्रथम और सर्वाधिक प्रभावशाली भक्त स्वामी
रामानन्द माने जाते हैं। उनकी मान्यता दाक्षिणात्य वैष्णवों की तरह उतनी कठोर नहीं
थी। उन्होंने लक्ष्मी-नारायण की जगह सीता-राम को अपना उपास्य माना। उनकी दो शिष्य
परम्पराएँ थीं--एक में निम्न जाति के लोग थे तो दूसरी में सवर्ण लोग (साहित्य कोश
भाग-2/पृष्ठ 451-52)।
भारत के सांस्कृतिक सन्दर्भों में इस बात के पर्याप्त प्रमाण दिखते हैं कि
यहाँ किसी खास विचारधारा को सुसंस्थापित करने के लिए देश के विभिन्न भूभागों की
यात्र करते हुए शास्त्रार्थ किया जाता था। दक्षिण उत्तर के सम्बन्धों की निकटता का
यह एक साक्ष्य भी माना जा सकता है। प्रो. सतीश चन्द्रा अपनी प्रसिद्ध
पुस्तक(मध्यकालीन भारत में इतिहास लेखन, धर्म और राज्य का स्वरूप) के एक अध्याय उत्तर भारत में भक्ति आन्दोलन के
उदय की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में इस परिस्थिति पर संशय उत्पन्न करते हुए उन सामाजिक,
राजनीतिक, आर्थिक परिदृश्यों की पड़ताल शुरू करते हैं, जिसमें कई-कई द्वैध एक साथ खड़े दिखते हैं।
उनका प्रश्न है कि ‘यदि लोकप्रिय
भक्ति दक्षिण के लोकप्रिय भक्ति आन्दोलन की एक शाखा है, तो यह स्पष्ट कहना कठिन है कि दोनों के बीच लगभग पाँच
सौ वर्षों का अन्तराल क्यों था। जैसा कि सभी जानते हैं, दक्षिण में भक्ति आन्दोलन दसवीं सदी में अपनी
पराकाष्ठा को पहुँच गया था। उसके बाद धीरे-धीरे वह पारम्परिक हिन्दू धर्म के
खाँचों में प्रवेश कर गया, अर्थात
उसने वर्ण-व्यवस्था, ब्राह्मणों
की श्रेष्ठता और उनकी धर्म विधियों को स्वीकार कर लिया। उत्तर भारत में वर्करी
आन्दोलन चौदहवीं सदी के उत्तरार्ध में नामदेव के साथ आरम्भ हुआ, कबीर का लोकप्रिय एकेश्वरवाद पन्द्रहवीं सदी
में और लोकप्रिय वैष्णव धर्म सोलहवीं सदी के पूर्वार्ध में आरम्भ हुआ, जिसने कृष्ण और राम की पूजा का समर्थन
किया।...क्या यह अन्तराल आकस्मिक था (पृ. 85)?’
प्रो. सतीश चन्द्रा की यह राय शत प्रतिशत तर्कसम्मत है कि छठी शताब्दी से
लेकर दसवीं शताब्दी तक के अन्तराल में उत्तर भारत में भक्ति आन्दोलन की लोकप्रियता
की असफलता का सूत्र उस क्षेत्र की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक
परिस्थितियों में ढूँढा जाना चाहिए न कि इसमें कि यह आन्दोलन किसी अन्य क्षेत्र
में किस कारण शुरू हुआ और इधर त्वरित वेग से क्यों नहीं आया। प्रो. आर.एस. शर्मा
(इंडियन फ्यूडलिज्म, 300-1200, कलकत्ता,
1965 पृ. 263-273) के हवाले से प्रो. सतीश चन्द्रा उल्लेख करते
हैं कि उत्तर भारत में, राज्य की
बढ़ती हुई कमजोरी, स्थानीय
जमीन्दार विशिष्ट वर्गों की ताकत में वृद्धि और ज्यादा प्रशासनिक, आर्थिक और राजनीतिक भूमिका हासिल करके उनको
विकेन्द्रित करने की ताकत, नगरों
के पतन, व्यापार, विशेषकर लम्बी दूरी के व्यापार में गतिरोध और
पहले से ज्यादा अनुपात में ब्राह्मणों के भूमि के हस्तान्तरण को सातवीं और बारहवीं
सदियों के बीच के युग की प्रमुख विशेषताओं के रूप में पहचाना गया है (पृष्ठ 86)। तथ्य है कि यह समय राजपूतों के उदय का भी
समय है। ऐतिहासिक तथ्य है कि ये वर्ग धीरे धीरे सबल होते गए, भूमि पर नियन्त्रण पाते गए और क्षेत्रीय स्तर
पर राजनीतिक सत्ता पा गए। साथ ही साथ भूमि पर नियन्त्रण पाने और सत्ता के भागीदार
होने में विफल हुए लोग, इस
वर्ग-श्रेणी में बिल्कुल नीचे आ गए। डॉ. ताराचन्द ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक में
जानकारी दी है कि ‘...भारत के
सामाजिक जीवन में ब्राह्मणों का उत्थान गुप्तकाल में आरम्भ हुआ और उस समय पूर्ण
हुआ जब विदेशी आप्रावासियों को हिन्दू सामाजिक व्यवस्था में शामिल कर लिया गया
...राजपूतों को बर्बरता से सभ्यता में अपने उत्थान की कीमत, ब्राह्मणों की श्रेष्ठता के दावों को स्वीकार करके और
उसकी पुष्टि करके चुकानी पड़ी...(इन्फ्लूएन्स ऑफ इस्लाम ऑन इण्डियन कल्चर, इलाहाबाद, 1946, पृ.131)।’
इस तथ्य के सहारे यह निष्पत्ति आसानी से
निकाली जा सकती है कि वह ऐसा समय था जब भूमि और राजनीतिक सत्ता पर अधिकार प्राप्त
कर लेने के बावजूद सामाजिक दृष्टि से उच्चतर हैसियत, बगैर ब्राह्मणों के समर्थन के सम्भव नहीं था। इस तरह
उत्तर भारत में राजपूतों का उदय उन लोगों के मौन गठजोर का प्रतिफल था, जिनके पास राजनीतिक शक्ति थी और ब्राह्मण वर्ग
उन शक्तिशालियों के हर आचरण को न्यायसंगत ठहराते हुए मान्यता देते थे। ब्राह्मण उस
कालखण्ड के शासकों को क्षत्रिय की मान्यता देते थे और वे ब्राह्मणों को भरण पोषण,
मन्दिरों के निर्माण और रखरखाव के लिए
उदारतापूर्वक भूमि और धनराशि का अनुदान देते थे। इस अर्थ में देखें तो इस अन्तराल
के वैभवशाली मन्दिरों के निर्माण के पीछे इस गठजोर की कई कई बारीकियाँं छिपी हुई
हैं। ब्राह्मण लोग राजपुरोहित के प्रतिष्ठित पद पर सुशोभित होते थे, वे धर्म संचालन एवं राजकाज के बड़े बड़े मसलों
के मुख्य और सर्वमान्य सलाहकार माने जाते थे। यहाँ तक कि भूमि के लगान अदा करने
में भी उन्हें विशेष रियायत रहती थी। उल्लेखनीय है कि वर्णवादी वर्चस्व की यह
परम्परा मुगल काल तक जारी रही। वैसे यह कोई बहुत नई स्थिति नहीं थी, इस कालखण्ड के पूर्व के समय में भी
ब्राह्मणांे की सुरक्षा, धर्मशास्त्रों
का अनुपालन, और वर्ण व्यवस्था का
समर्थन, हिन्दू शासकों का
कर्तव्य माना जाता था। बावजूद इसके अशोक के समय से उत्तर भारत के शासक या तो बौद्ध
धर्म, जैन धर्म के अनुयायी थे;
या इनके साथ-साथ अन्य सभी धर्मों का
समान रूप से आदर करते थे। अर्थात ब्राह्मणों द्वारा प्रवर्तित, प्रतिपादित धार्मिक धारणाओं का न तो विरोध
करते थे, न ही खुले तौर पर उसके रक्षक,
पोषक बनने को राजी थे। सूचना है कि हर्ष
जैसे महान शासक शिव भक्त थे, और
हर वर्ष बौद्ध परिषद की सभा आयोजित करते थे; बुद्ध, सूर्य
और शिव की पूजा करते थे, बौद्धों
और ब्राह्मणों को उपहार भी देते थे। ब्राह्मण क्षत्रिय उक्त गठबन्धन से यह अस्पष्टता घटने लगी। हिन्दुत्व की
पुनरुत्थानवादी धारणा उदित हुई। कुमारिल भट्ट की रचनओं में वेदों की पूजा को
पुनर्जीवन दिया गया, वर्णाश्रम-धर्म
का पोषण किया गया। ब्राह्मणों की सलाह और शासकों के समर्थन से बौद्ध और जैन
मन्दिरों को हिन्दू मन्दिरों में तब्दील कर बौद्धों और जैनों का दमन किया जाने
लगा। मूर्ति पूजा और कर्मकाण्ड जैसे धार्मिक आचरण भी इसी दौर की परिणतियाँं हैं।
धर्म, धार्मिक मान्यताओं
का संघर्ष, और शक्ति तथा
मान्यतादात्री अभिकरणों के इस चक्रव्यूह का तिलिस्म रोमांचक था। इस तिलिस्म के साथ
गठित सामाजिक व्यवस्था में वर्ण-श्रेणी से फिसले हुए लोगों का, इस पद्धति से आहत वर्ग के लोगों का इस वर्ण
व्यवस्था, कर्मकाण्ड, और ब्राह्मण समुदाय से असन्तुष्ट हो जाना कोई
अतार्किक बात नहीं थी। पर इस असन्तोष के साथ ब्राह्मण वर्ग के विरोध का परिणाम उन
पर राजनीतिक शक्तियों के दमनकारी आचरण के रूप में आता था, जिसे उन्हें झेलना ही पड़ता था।
भारतीय इतिहास के मध्यकाल में किसानों की स्थितियों पर इरफान हबीब ने बहुत
बारीकी से अपने विचार प्रस्तुत किए हैं। भारतीय इतिहास में मध्यकाल शीर्षक की अपनी
पुस्तक में उन्होंने लिखा है, ‘ईसा
के जन्म से पहले पाँच सौ वर्षों का काल निश्चय ही भारतीय सामाजिक इतिहास के
सर्वाधिक निर्माणशील कालों में से एक रहा होगा। इन पाँच सौ वर्षों में जाति
व्यवस्था की बुनियादी रूप-रेखाओं का निर्धारण हुआ होगा। किसान वर्ग अनन्त सगोत्रीय
समुदायों में विभक्त होता गया तथा वह कारीगरों और टहलुआ श्रमिकों से पूरी कठोरता
के साथ अलग होता गया। यह सामाजिक संरचना अपने आप नहीं बनी होगी। इसके निर्माण के
लिए नए ढंग के विचारों और आस्थाओं के समग्र तन्त्र की दिशा और पुश्तपनाही की
आवश्यकता थी (भारतीय इतिहास में किसान/सम्पादन एवं अनुवाद--रमेश रावत/ग्रन्थ
शिल्पी प्रकाशन, 1999/पृष्ठ-81)।’ जाहिर है कि इस सामाजिक प्रक्रिया का सीधा सम्बन्ध ब्राह्मणों द्वारा किए
जाने वाले यज्ञादि में पशुबलि के प्रबल विरोध में खड़े बौद्ध धर्म की मान्यताओं से
था। समकालीन जनजीवन की धार्मिक मान्यताएँ इस नई सामाजिक स्थितियों से पूरी तरह
प्रभावित हुईं। स्थानीय रीति रिवाजों और प्रचलित अन्धविश्वासों के साथ समकालीन
समाज की संरचना में जनजीवन की सहजता के मद्देनजर अनेक रद्दोबदल हुई। जनजातीय आधार
ध्वस्त हो गया और किसान वर्ग नए नए समाज के रूप में मान्यता पा गया। अब इस वर्ग को
अपने लिए जिस तरह की धार्मिक व्यवस्था की आवश्यकता हुई, वैसी व्यवस्था के लिए ब्राह्मणों के पवित्र कर्मकाण्ड
और बौद्धों के अभिजात संघ में कोई जगह नहीं दिखती थी। कालान्तर में बौद्ध
मतावलम्बियों के बीच ही बोधिसत्त्व की धारणा विकसित हुई, उसमें इतनी उदारता अवश्य थी कि कोई भी व्यक्ति,
जाति-वर्ण-कर्म-हैसियत की संरचना से परे
कोई भी व्यक्ति सहज पूजा-वन्दना की प्रक्रिया के साथ इसमें शामिल हो सकता था।
गौरतलब है कि महायान और पीछे से चली आ रही वैष्णव-परम्परा के मुखर होने का अन्तराल
भी यही था।
ऐतिहासिक तथ्य है कि इसवी सन् के प्राथमिक एक हजार वर्षों के भीतर कृषि
कर्म में तरह-तरह के प्रयोग और मानवीय उद्यम का जोर लगाया गया। मनुष्य-बल की जगह
पशु-बल के प्रयोग से कृषि-कार्य में परिवर्तन आता गया। इस प्रक्रिया में सामाजिक
रूप से कुछ खास वर्गवादी स्थितियाँ स्पष्ट हुईं। किसान वर्ग और खेतिहर मजदूर वर्ग
का स्पष्ट विभाजन दिखने लगा। इस क्रम में किसान तथा उनसे उच्च वर्ग-स्तर के लोगों
की नजर में, भोजन संग्रह में
तल्लीन और जंगलीय संसाधनों पर जीवन-बसर करने वाले लोग उपस्कर की तरह दिखने लगे।
इससे ग्रामीण-समाज में दलित सर्वहारा वर्ग कायम हुआ। इस वर्ग के लोगों को कृषि जीवन
की प्रचलित पद्धति में खुद को शामिल करने में आसानी दिखी होगी। कदाचित उनलोगों ने
सोचा हो कि सहज विकास की प्रक्रिया में हम कभी न कभी खुद को खेतिहर मजदूर से किसान
वर्ग में तब्दील कर पाएँ। पर इतिहास सूचित करता है कि सन् 200 से 600 तक और फिर सन् 600 से सन् 1200 तक के दो चरणों में उस काल के अछूतों के वर्ग में नई-नई जातियाँ शामिल
होने लगीं और उनकी संख्या लगातार बढ़ती गई। अछूत वर्ण के लोगों की बसावट चूँकि गाँव
के बाहरी छोर पर होती थी। उनके पास भूमि होती नहीं थी, इसलिए वे किसान हो नहीं सकते थे, वे किसानों के खेतिहर मजदूर होते थे। जीविका
चलाने के लिए समृद्ध किसानों की मजदूरी करना, सेवा-टहल करना उसकी मजबूरी होती थी। इस क्रम में उसका
भरपूर दमन होता था। भारतीय समाज की यह विकट त्रसदी दयनीय थी। किसानों के बीच आपस
में भी कई स्तर थे। औरों की भूमि में कृषि कार्य करते हुए गुजर-बसर करने वाले
बटाईदारों की भी बड़ी तादाद थी।
उत्तर भारत की सामाजिक व्यवस्था में इस तरह के मानवीय सम्बन्धों के बीच यह
अनुमान करना सहज है कि ऐसे दलित, अछूत
और सर्वहारा के लिए स्पष्टतः कुलीन ब्राह्मणों की धर्म व्यवस्था में कोई स्पष्ट
जगह नहीं थी। गौरतलब है कि भारत के पूर्वी भागों में प्रचलित तन्त्र-पूजा और
शक्ति-उपासना को अत्यधिक लोकप्रियता हासिल थी। इस क्षेत्र में लम्बे समय तक बौद्ध
धर्म का वर्चस्व भी बना रहा। जाहिर है कि इस क्षेत्र में ब्राह्मणवाद और जाति
व्यवस्था की मजबूत पकड़ नहीं थी। नेपाल और बिहार के तटवर्ती पूर्वी उत्तर-प्रदेश
में नाथपन्थ की उत्पत्ति हुई, जिसे
किसी तरह तन्त्रवाद की एक शाखा के रूप में भी गिना जाता रहा। धीरे-धीरे यह धारा
भारत के उत्तरी और पश्चिमी भागों में फैल गई। उल्लेखनीय है कि तन्त्रवाद और
नाथपन्थ के विचारों का प्रचार-प्रसार जिन उपदेशकों द्वारा किया जाता था, वे सामान्यतया इतर-ब्राह्मण समुदाय के लोग
होते थे, उनका सीधा सम्बध निम्न
वर्ग से होता था। इस पन्थ में प्रवेश पाने के लिए जाति, मत, लिंग
की कोई वर्जना नहीं थी। तथ्य है कि इस व्यवस्था में दीक्षित होने के लिए किसी भी
व्यक्ति को लिंग अथवा जाति के आधार पर रोका नहीं गया। बल्कि अछूतों की श्रेणी से
ऐसी स्त्री का भी उल्लेख मिलता है, जिन्हें गुरु के रूप में स्वीकार किया गया। तन्त्रवाद की अत्यन्त गोपनीय
पद्धति के कारण इसका प्रभाव तो सीमित रहा और सामाजिक राजनीतिक दमन से बचा रहा,
पर शीघ्र ही उनके आचरणों के कारण
ब्राह्मणों ने तन्त्रवाद की पूरी व्यवस्था को अनैतिक घोषित कर दिया, राजकीय व्यवस्था द्वारा भी इसे शक की निगाह से
देखा जाने लगा। डी.पी. चट्टोपाध्याय की पुस्तक ‘लोकायत: स्टडी इन एनशिएण्ट इण्डियन मैटीरियलिज्म’
में उस समय के शासक वर्गों के विरुद्ध
लोकायतों, अर्थात् तान्त्रिकों
और सहजियाओं के विरोधी रवैए की व्याख्या के हवाले से प्रो. सतीश चन्द्रा उल्लेख
करते हैं कि दण्डिन के दशकुमारचरित्र में अघोरी और तान्त्रिकों के कुछ ऐसे उदाहरण
हैं जिन्हें धर्म के विरुद्ध कार्य करने और राज्य के लिए संकट उत्पन्न करने की वजह
से शासक द्वारा मार दिया गया था। जायसी(38/448) भी तान्त्रिकों के जादू से परिपूर्ण धार्मिक क्रियाओं
के विरुद्ध रतनसेन को चेतावनी देते हुए कहते हैं कि प्रसिद्ध राजा भोज को भी धोखा
दिया गया था, अर्थात् इन
तान्त्रिक क्रियाओं के कारण ही उसे अपनी गद्दी खोनी पड़ी थी (पृ.-89 एवं 98)।
पर सचाई है कि तमाम विरोध बाधाओं के बावजूद गोरखनाथ के नेतृत्त्व में
नाथपन्थ का विस्तार हुआ और भारत के उत्तर तथा पश्चिमी क्षेत्रों में विभिन्न
स्थानों पर एवं दक्षिण भारत के कुछ भागों में उन्होंने अपने केन्द्र स्थापित किए।
इतिहास में इस बात के भी प्रमाण मिलते हैं कि नाथपन्थ के इस विस्तार ने एकेश्वरवाद
की प्रथा और भक्ति आन्दोलन के विकास में एक आधार का काम किया। उल्लेखनीय है कि
दक्षिण भारत में सामन्ती धारणा उत्तर भारत की तरह विकसित नहीं हुई। ब्राह्मणों और
क्षत्रियों के गठजोड़ जैसी बात वहाँ उत्तर भारत की भाँति नहीं थी। दरअसल सामाजिक
संरचनाओं में भी अन्तर था। क्षत्रियों का वहाँ कोई सुस्पष्ट अस्तित्त्व नहीं था।
ब्राह्मणों की संख्या थी। अपेक्षाकृत कम ही थी, उनके धार्मिक रीति-रिवाज भी उतने कठोर नहीं थे। स्पष्ट
है कि यहाँ सामाजिक स्तर पर रहन-सहन और आचार-विचार की वैसी जटिलता नहीं थी;
जातियों और वर्गों में बँटे समाज में
उतनी श्रेणियाँ नहीं थीं; अस्तु
बौद्धों और जैनों की धार्मिक नीतियों के कठोर रीति-रिवाज को त्यागकर अपने लिए नई
धार्मिक नीति तय करने में कोई कठिनाई नहीं आई। नयनार और आलवार सन्तों की
लोकप्रियता समाज में फैल चुकी थी। इनके नेतृत्त्व में बौद्धों और जैनों का सफल
मुकाबला सम्भव हो सका।
उत्तर भारत की स्थिति ऐसी नहीं थी। ब्राह्मणों और क्षत्रियों के गठजोड़ से
जाति-प्रथा और वर्ण-व्यवस्था का विकास अपनी राह पर था। एक तरफ कट्टरता थी, दूसरी तरफ दयनीयता। पर बारहवीं शताब्दी के
अन्त में जब भारत में तुर्कों का आगमन हुआ, तब एक नई परिस्थिति उन्पन्न हुई।
तुर्को द्वारा राजपूतों के पछाड़ खाने के बाद आचानक से वर्णाश्रम धर्म पर
आधारित, और कर्मकाण्डी
ब्राह्मणों द्वारा समर्थित सामाजिक-संास्कृतिक व्यवस्था निर्बल हो गई। सैकड़ों
वर्षों से वर्चस्व में रहा ब्राह्मण-क्षत्रिय गठजोड़ की ताकत पिघल गई। पराजित
क्षत्रिय और अपमानित ब्राह्मण के पास वह शक्ति रह नहीं गई जिसके सहारे वे समाज
व्यवस्था पर अपने तिलिस्स चला रहे थे। तत्कालीन भोले जन समूह पर इस गठजोड़ के बूते
क्षत्रिय अपने प्रभुत्व के कारण छाए रहते थे और ब्राह्मण वर्ग धर्माचरण का मायाजाल
फैलाकर। मन्दिरों की पुरोहिताई उनके हाथ थी। नागरिक परिदृश्य में वे मन्दिरों में
स्थापित और अपने पास संरक्षित मूत्तियों को ईश्वर के प्रतीक की तरह नहीं, बल्कि साक्षात ईश्वर की तरह प्रस्तुत करते थे।
उनकी घोषणा होती थी कि ये मूर्तियाँ हमारा कहना मानती हैं, हमारे कथनानुसार ये निष्ठावानों को फलीभूत करती हैं,
और उनके सामथ्र्य पर शंका करने वालों को
दण्डित करती हैं। तुर्को ने अपने आक्रमण के दौरान, न केवल उन मूर्तियों को तोड़ा, पैरों तले रौंद डाला, बल्कि ब्राह्मणों के, और मन्दिरों के अन्य भौतिक संसाधनों का भी बड़ा नुकसान
हुआ। नागरिक परिदृश्य में फैलाई अपनी जिन भ्रान्तियों के आधर पर वे सामाजिक
वर्चस्व बनाए हुए थे, उसे भी
लोगों ने देखा कि मूर्तियों के तोड़-फोड़ और ब्राह्मणों को यातना देने के
परिणामस्वरूप उन तुर्को का कुछ नहीं बिगड़ा। इस तरह गठजोड़ का वर्चस्व धूल-धूसरित
होते देखकर वर्ण-व्यवस्था और कर्मकाण्ड की कठोरता के प्रति सदियों से असन्तोष पालती आ रही जनता की
सन्ततियों की आँखें खुलीं और इससे भक्ति आन्दोलन की लोकप्रियता का मार्ग प्रशस्त
हुआ।
हिन्दी साहित्य में भक्ति भाव की लोकप्रियता की बात तो कबीर से मानी जाती
है, जिनका काल पन्द्रहवीं
शताब्दी से पहले नहीं माना जा सकता। पर बारहवीं शताब्दी के अन्त से लेकर कबीर के
समय के दो सौ से अधिक वर्षों में भक्ति आन्दोलन की लोकप्रियता की जो पृष्ठभूमि
निर्मित और पल्लवित हुई उसकी भूमिका महत्त्वपूर्ण है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने
भी महाराष्ट्र के सन्त नामदेव की हिन्दी रचनाओं के सहारे इस बात की पुष्टि की है।
तुर्की शासन की जड़ें मजबूत होने से लेकर खिलजी सल्तनत होते हुए आगे के समय तक में
कई सारी स्थितियाँ आईं। अमीर खुसरो के भारत पे्रम, अलाउद्दीन खिलजी के पुत्र खिज्र खान के साथ देवगीर की
देवल देवी का विवाह, महान सूफी सन्त निजामुद्दीन ओलिया की ख्याति
आदि के अलावा, भक्ति और
सामजिक-र्धािर्मक शिष्टाचारों में कई सारी ऐसी बातें दिखती हैं, जिनसे यह अनुमान किया जा सकता है कि
गैर-मुस्लिम जनता का भी उस समय पर्याप्त मान सम्मान था। उन दिनों निस्सन्देह
गैर-मुस्लिमों को भी बहुत हद तक धर्मिक स्वाधीनता थी। पूजा पाठ, धर्म-कर्म, धार्मिक अनुष्ठानों की प्रक्रिया, तीज-त्योहार का उल्लास आदि मनाने की पद्धति
में भिन्न-भिन्न शासकों के समय में जो कुछ भी तब्दीली आई हो, पर इसकी अजादी हिन्दुओं को थी। उस अन्तराल के
दोनों प्रमुख समुदाय हिन्दू और मुसलमानों के आपसी सम्वाद से स्थितियाँ किस तरह सहज
हुई होगीं, इसका ऐतिहासिक
सर्वेक्षण किया जा सकता है। सूफियों और योगियों की सम्पर्क-पद्धति पर विस्तार से
विचार करने की आवश्यकता तो है ही, ताकि
यह पता लग सके कि किस रास्ते ऐसा महान कार्य सम्भव हुआ? पर, इतना
स्पष्ट है कि ब्राह्मण-क्षत्रिय गठबन्धन के पराभूत होते ही ब्राह्मणों का दर्प
चूर-चूर हुआ, क्षत्रिय सामन्त
हतोत्साह हुए, और इसका सीधा लाभ
नाथपन्थ के योगियों को अपने मत के प्रचार में मिलने लगा, सामान्य जनों के बीच उसकी प्रतिष्ठा बढ़ने लगी। कहना
मुनासिब होगा कि उनकी उसी लोकप्रियता का परिणाम था कि सोलहवीं शताब्दी में आकर भी
वह तुलसीदास की प्रशस्ति से मुकाबाला कर रहा था।
अब्दुल वाहिद बिलग्रामी की पुस्तक ‘हकाइक-ए-हिन्दी’(हिन्दी अनुवाद एस.ए.ए.रिजवी); ‘रुश्दनामा’(‘अलखबानी’ के रूप में
हिन्दी अनुवाद एस.ए.ए.रिजवी तथा एस. जैदी); हसन शिज्जी द्वारा लिखी गई निजामुद्दीन औलिया की जीवनी;
और कई सूफी सन्तों के ‘मलफजात’ के हवाले से प्रो. सतीश चन्द्रा सूचना देते हैं कि
सूफी सन्तों और नाथपन्थी योगियों, जैनी
साधुओं, यतियों के बीच निरन्तर
सम्पर्क बना रहा। चिश्ती सन्तों के बीच संगीत सभाओं में हिन्दी की भक्ति कविता को
अत्यधिक प्रतिष्ठा प्राप्त थी। सूफी सन्तों की जमात में ‘ऊधो’, ‘मुरली’,
‘गोपी’, ‘रासलीला’ जैसे शब्दों के लाक्षणिक प्रयोग खूब होते थे (मध्यकालीन भारत में इतिहास
लेखन, धर्म और राज्य का
स्वरूप/पृष्ठ 92)। उन्हीं दिनों
संस्कृत की रचनाओं का फारसी में अनुवाद होने लगा था। यह स्थिति भी उस दौर की ढेर
सारी मानवीय भावनाओं, सांस्कृतिक
सम्मिलन, और आपसी समझ विकसित
करने की वस्तु-स्थितियों की पड़ताल का अवसर देती थी। कुछ संस्कृत रचनाओं के फारसी
अनुवाद का श्रेय जिया नक्शबन्दी को जाता है। उनके जन्म-काल की सूचना तो उपलब्ध
नहीं है, पर सन् 1350 में उनकी मृत्यु का उल्लेख है। फारसी में यह
अनुवाद कार्य इतनी तार्किकता के साथ शुरू हुआ कि फिरोज तुगलक और सिकन्दर लोधी जैसे
कट्टर और तंग-दिल शासकों के शासन काल में भी यह कार्य न केवल जारी रहा, बल्कि प्रशस्त भी हुआ। वैसे तो ज्यादातर
अनुवाद कहानी, संगीत, और शृंगारपरक पाठ के अनुवाद खूब हुए। पर तथ्य
है कि धर्म से सम्बन्धित रचनाओं का अनुवाद भी हुआ। सन् 1961 में लाहौर में छपी एस.एम. इकराम की पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑफ मुसलिम सिविलाइजेशन इन इण्डिया
एण्ड पाकिस्तान (पृ.173-84) का
उल्लेख करते हुए प्रो. सतीश चन्द्रा सूचना देते हैं कि इन दिनों एक संस्कृत रचना
के फारसी अनुवाद पर आधारित जिया नक्शबन्दी की पुस्तक ‘तूतीनाम’ खूब प्रसिद्ध थी। अभिप्राय यह ध्वनित होता है कि उन्होंने हिन्दू और
संस्कृत स्रोतों से हुए अनुवादों में पर्याप्त रुचि ली थी। उनकी रचनाओं में
कोकशास्त्रा का अनुवाद भी शामिल है। सूचना है कि भारतीय संगीत पर लिखी गई पहली
पुस्तक है ‘गुनयात-उल मुनया’
(सन् 1374-75)। यह पुस्तक फिरोज तुगलक के एक प्रमुख कुलीन और गुजरात
के गर्वनर (नायब) मलिक शमसुद्दीन अबु राजा के लिए लिखी गई थी। लेखक को सहायक
ग्रन्थ के रूप में उपलब्ध कराई गई कृतियों में ‘भारत संगीत रत्नावली’ आदि शामिल थी। फिरोज तुगलक के आग्रह पर अब्दुल शम्स
बहा-ए-नूरी ने वराहमिहिर की खगोल विज्ञान पर आधारि रचना वृहत संहिता का अनुवाद ‘तरजुमा-ए-बाराही’ के रूप में किया (मध्यकालीन भारत में इतिहास लेखन,
धर्म और राज्य का स्वरूप/पृष्ठ-88)।
इस तथ्य के आधार पर हमें यह मान लेने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि इस
समय तक आते-आते विद्वानों की एक ऐसी मण्डली कायम हो चुकी थी जो संस्कृत और
फारसी--दोनों भाषाओं के मर्म और इन दोनों भाषाओं की रचनाओं की अर्थवत्ता से
भली-भाँति परिचित भी थे, हिन्दू-मुसलिम
के आचार-विचार, धार्मिक आचरण के
गुणसूत्रों के जानकार भी थे, और
इनके बीच आदान-प्रदान के लिए उद्यमशील भी थे। जाहिर है कि चौदहवीं, पन्द्रहवीं शताब्दियों और उनके बाद के समय में
हिन्दी में होने वाली रचनाओं की मजबूत पृष्ठभूमि के रूप में हम हन परिस्थितियों का
संज्ञान लें। इन उद्यमों में प्रचलित दन्त-कथाओं और नीति-कथाओं का जितना भी उपयोग
हुआ, उनमें भक्ति आन्दोलन के
सन्दर्भ में सर्वाधिक उल्लेखनीय है कि वहाँ सूफी रहस्यवाद और हिन्दू मिथक एवं
दर्शन को विशेष रूप से उल्लिखित किया गया। मुल्ला दाउद की रचना ‘चन्दायन’ को उस दौर की प्रारम्भिक रचना के रूप में (सन् 1379)
गिना जाता है। यद्यपि सूफी सन्तों के
काव्यों से हिन्दू दर्शन के गहन दृष्टिकोण मेल नहीं खाते थेे, पर रहस्यवाद और प्रेम को आधार बनाकर दो प्रमुख
धर्मावलम्बियों के अनुयायियों को एक साथ प्रस्तुत करने की विधि एक प्रशंसनीय उद्यम
के रूप में सामाने आती है। ‘पीर’
और, ‘प्रिय मिलन’ की रहस्यवादी सूफी चिन्तन धारा और एकेश्वरवादी हिन्दू सन्तों की चिन्तनधारा
में रूढ़िवाद के विरोध की अटूट धारणा एक-सी थी। इस कारण यह स्पष्ट है कि असनातनी
धार्मिक धारा की लोकप्रियता बढ़ाने में उस सूफी चिन्तन ने बहुत बड़ा बल दिया।
इस स्थापना में कोई शक की गुंजाईश नहीं कि सत्ता-चक्र के समर्थन से
विच्छिन्न, मर्दित मान और चूर-चूर
हुए दर्प के लुटे-पिटे संसाधान वाले ब्राह्मणों के वर्चस्व से समाज भयमुक्त हो
चुका था, फलस्वरूप वर्ण-व्यवस्था
विरोधी असनातनी समूह ने सिर उठाकर जीना शुरू किया और एकेश्वरवाद की लोकप्रियता
मुखरित हुई। इस बात का उल्लेख मुनासिब होगा कि धर्म का यह आन्दोलनात्मक स्वरूप उस
दीर्घकालीन असन्तोष और पराभव की प्रतिक्रिया के रूप में उभरकर आया, जिसे सामान्य लोगों ने सदियों से झेला
था।
जिस जनसमूह को यह स्थिति आने से पहले तक दबाकर रखा गया था, तत्कालीन सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के वर्चस्व
में धार्मिक अभिकरणों और ब्राह्मणों द्वारा दी गई व्यवस्था में जिन्हें
सामाजिक-आर्थिक-कौलिक हैसियत के कारण निम्न श्रेणी में रखा गया था, वे उस व्यवस्था में निश्चय ही कोई जगह नहीं पा
सकते थे। इसलिए ब्राह्मणों के नियन्त्रण से मुक्ति का मार्ग देखते ही उस असन्तुष्ट
समूह की इच्छाएँ बलवती हो उठीं। इस उल्लेखनीय कार्य में सिद्धों एवं नाथपन्थ के
सन्तों की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। मैक्स वेबर अपनी पुस्तक ‘द सोशियोलाॅजी ऑफ रिलीजन’(अंग्रेजी अनुवाद एफ्रायम फिश्कोक) में लिखते हैं कि ‘जब किसी राष्ट्र में विसैन्यीकरण आरम्भ होता
है तब वहाँ राजनीतिक गतिविधि उस राष्ट्र के अन्दर सामाजिक रूप से विशेष सुविधा
प्राप्त वर्गों द्वारा विकसित एक मुक्ति-धर्म (जैसे भक्ति) के स्थायी होने का सबसे
अच्छा अवसर होता है। इसके फलस्वरूप, मुक्ति-धर्माें का उदय प्रायः उस समय होता है जब शासक वर्ग...सैन्य
सम्बन्धी साम्राज्यी राज्य के हाथों में अपनी राजनीतिक ताकत खो चुके होते हैं।
इसके विपरीत, गतिशील राजनीतिक
सामाजिक परिवर्तन के युग में गैर-पक्षपात पूर्ण चिन्तन के फलस्वरूप बौद्धिक
अवधारणाएँ कभी इस प्रकार की परवर्ती परिस्थितियों के दबाव के बिना भी उत्पन्न हो
जाती है(पृ. 122-23)।’
मैक्स वेबर का यह उद्धरण भक्ति आन्दोलन की लोकप्रियता और स्थायित्व पाने
की स्थिति को पूर्ण समर्थन देता है। यहाँ ‘विशेष सुविधा प्राप्त वर्गों द्वारा विकसित एक मुक्ति-धर्म’ को इस रूप में देखने की आवश्यकता है कि
तत्कालीन विशेष सुविधा प्राप्त वर्ग, अर्थात् क्षत्रिय-ब्राह्मण गठबन्ध की अवधारणाओं और क्रिया-कलापों के
फलस्वरूप ही वह असन्तुष्ट वर्ग तैयार हुआ, जिसे उस व्यवस्था में कभी उसकी सही जगह नहीं दी गई। उनके मन और कामना के
अनुकूल कुछ भी करने की इजाजत उसे नहीं मिली। इस अर्थ में हम कह सकते हैं कि जिस
दमन और उपेक्षा की परिणति के रूप में ‘भक्ति’ की लोकप्रियता का
वैसा स्वरूप समाने आया, वह भले
ही उनके द्वारा विकसित नहीं हुई हो, पर उस गठबन्धन ने चाहे-अनचाहे ऐसी स्थितियाँ अवश्य विकसित कीं, जिसका परिणाम इस रूप में सामाने आया। बल्कि
मेरी राय तो यह बनती है कि किसी मजबूत इरादे से जब कभी किसी नई मानवीय विचारधारा
का प्रतिस्थापन होता है, तो उसके
लिए उन प्रतिरोधी शक्तियों को भी कम श्रेय नहीं दिया जाना चाहिए, जिनके द्वारा उत्पन्न रोध के कारण वह दृढ़ होता
है। भक्ति आन्दोलन की लोकप्रियता में इस अर्थ में वे रोधी शक्तियाँ भी कम महत्त्व
की नहीं हैं।
अब कहने के लिए तो यह अवश्य कहा गया कि हिन्दू परिवेश को इसलामी आक्रमण से
बचाने हेतु इस आन्दोलन का विकास हुआ; आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने तो ‘पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की शक्ति’ का वरण करने के अलावा कोई दूसरा उपाय ही नहीं देखा;
पर भक्ति आन्दोलन की लोकप्रियता के लिए
भारत के एक बड़े परिदृश्य में सदियों की सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक पृष्ठभूमि को
टटोलना बहुत जरूरी है।
यहाँ एक सावधानी की आवश्यकता है। उक्त विवरण
का अर्थ यह भी नहीं लगाया जाना चाहिए कि भक्ति आन्दोलन सामाजिक रूप से निम्नतर
जीवन स्तर के लोगों के धार्मिक उच्छ्वास से भरा आन्दोलन था। वस्तुतः क्षत्रियों
द्वारा समर्थित, पोषित
ब्राह्मणों के वर्चस्व का गढ़ जब हिल गया, उनकी मान-प्रतिष्ठा जब फीकी पर गई, तब उस व्यवस्था की यातना से ऊबे हुए लोगों को जहाँ
अपनी अभिलाषाओं के लिए जगह मिली, वहाँ
वे शरीक हो गए। उस समय उन्हें सिद्धों, योगियों की अवधारणा में अपने लिए जगह दिखी। बगैर किसी जाति, धर्म और सामाजिक हैसियत का प्रमाण पाए उस पन्थ
में दीक्षित होने और उनके अनुयायी होने की वहाँ छूट थी। एक और स्थिति यह थी कि
तुर्की शासन व्यवस्था में कृषि कर्म की दिशा में जितने भी काम आगे बढ़े, उनमें व्यापार की स्थिति भी बेहतर हुई। स्पष्ट
रूप से उदीयमान दस्तकारों का एक वर्ग तैयार हुआ। दुकानदारों, व्यापारियों के इस वर्ग के लोगों के जीवन यापन
के लिए यह स्थिति बेहतर अवश्य थी। पर यह वर्ग भी उस वर्णवादी व्यवस्था और
ब्राह्मणों की कठोर अनुशासनबद्धता एवं धर्माचरण के पाखण्ड से उतने ही त्रस्त थे।
इसलिए उनका झुकाव भी इस एकेश्वरवाद की तरफ हुआ और इसकी लोकप्रियता बढ़ती गई।
अर्थात् यह भक्ति आन्दोलन एक ऐसा आन्दोलन साबित हुआ, जिसमें एक साथ कई वर्णों, कई सम्प्रदायों, मान्यताओं के लोग शामिल थे। इस आन्दोलन की सबसे बड़ी
बात यह थी कि यहाँ कई सारी सामाजिक कुरीतियों और रूढ़ियों का विरोध किया गया था।
अनुमान करना असहज न होगा कि इस भक्ति आन्दोलन ने जिस वर्णवादी व्यवस्था को
विस्थापित किया, उसकी मुख्य
शक्ति, ब्राह्मणों की शक्ति थी,
यदि उसका पराभव इस तरह न हुआ होता तो
बहुत सम्भव था कि जिन अन्धविश्वासों और पाखण्डों का जाल फैलाकर वे इत्मीनान से जी
रहे थे, वह अन्धविश्वास बाद के
दिनों में और बढ़ता जाता। शायद यही कारण हो कि कबीर के पूरे रचना-संसार में
ब्रह्मणवादी सोच पर सर्वाधिक प्रहार किया गया है।
भक्ति आन्दोलन का जैसा स्वरूप उत्तर भारत में और खासकर हिन्दी पट्टी में
देर से आया, उसके
सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक परिदृश्य का यह वातावरण निश्चय ही रोमांचक है, पर इसकी बृहत् समीक्षा और व्याख्या की
आवश्यकता है। दक्षिण भारत में सदियों पूर्व इसके लोकप्रिय हो जाने की अलग
समाज-व्यवस्था थी। पर, इतना तय
है कि यह आन्दोलन किसी भी समय के पराजित मन का आर्तनाद नहीं है; अपने समकालीन परिवेश और समाज-व्यवस्था की
विसंगतियों से उपजी एक नई अवधारणा है, जिसे समान भाव-क्षितिज की अन्य समकालीन हवाओं ने भी अपनी-अपनी तरह का
समर्थन दिया।
शानदार जानकारी सर, आपका बहुत बहुत आभार |
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