अब तक कोई लम्बी यात्रा या कहें कि महत्त्वपूर्ण यात्रा गिनती के ही की है। किसी सरकारी संस्था की नजर मुझ पर वैसी मेहरबान नहीं हुई कि वे ऐसा अवसर देती रहे... सामान्यतया यात्रा संस्मरण तो लोग विदेश जाने पर ही लिखते हैं।...बिहार में जन्म हुआ, पला-बढ़ा, शिक्षा-दीक्षा ली। पर बिहार सरकार ने रोजगार नहीं दिया। रोजगार दिल्ली ने दिया। लिहाजा दिल्ली में रहता हूँ। बिहार-यात्रा करता रहा हूँ। नौकरी के कारण भी, साहित्यिक सभाओं-संगोष्ठियों के कारण भी, और गृहराज्य होने के कारण भी।
बिहार-भ्रमण को कोई मनुष्य जीवन की सुखद घटना
कहे या त्रासदी--यह तय करना कठिन है। यह ऐसा राज्य है, जहाँ अतिथि-सत्कार में आज भी लोग अपना थाली-लोटा बन्धक रख देते हैं। अगले जून की
रोटी की जुगाड़ जिसके घर न हो, वह
भी अपने मेहमानों की आवभगत में कोई कसर नहीं रखते, उन्हें अपनी विपन्नता का भान नहीं होने
देते,
वाकई ‘अतिथि देवो भव' का पालन करते, अनजान मुसाफिर को भी शंका की नजर से
नहीं देखते।
सड़क
किनारे,
पेड़ के नीचे, ईंट पर अपने ग्राहकों को बैठाकर हजामत
बनाने वाले नाई भी इस राज्य में दो-एक अखबार खरीदकर पढ़ते और अपने समवर्गीय से देश-दशा पर चर्चा करते रहते हैं। समोसे या
मूँगफली खा लेने के बाद यहाँ के लोग उस ठोंगे को करीने से खोलकर उस पर छपे वाक्यों
को पढ़ डालते हैं।
सारे
प्रकाशक,
सम्पादक, लेखक की मान्यता है कि अकेला बिहार
इण्डिविजुअल खरीद बन्द कर दे, तो
हम बन्दप्राय हो जाएँगे। चाणक्य, बुद्ध
और बिस्मिलाह खान की जन्मभूमि बिहार में प्राकृतिक न्याय, शान्तिपूर्ण व्यवस्था, बौद्धिक सम्पन्नता, सुरमय जीवन, मानवीय सौहार्द, साम्प्रदायिक सद्भाव, जातिगत अभेद का असंख्य उदाहरण है।
बिहार के सर्वप्रिय पर्व ‘छठ' में डूबते सूर्य को पहला अर्घ दिया
जाता है
(मुहावरे में भी), और उगते सूर्य को दूसरा। इस पर्व में
जाति-बन्धन से निर्लिप्त समाज एक घाट पर
पानी में खड़े होकर पारम्परिक रीति से पूजा करते हैं। इस पर्व के आयोजन में जब तक
सभी जातियों की भागीदारी नहीं हो जाती, पर्व सम्पन्न नहीं होता--डोम द्वारा तैयार किया गया सूप, कुम्हार का बर्तन, कुर्मी की उपजाई शाक-सब्जी, किसानों के अनाज, चमारों के ढोल-ढाक, नाइन के विधि-व्यवहार...जब तक सबका योगदान न हो जाए, यह महत्त्वपूर्ण पर्व सम्पन्न ही न हो।
और तो और,
बड़े-बड़े घरानों की स्त्रियाँ और पुरुष छठ-घाट पर भीख माँगते देखे जाते हैं।...इन पारम्परिक लोकाचारों को अन्धविश्वास
मानकर चलता कर देना उचित नहीं है। यह पर्व एक पुख्ता सामाजिक व्यवस्था का उदाहरण
है। समाज व्यवस्था में सभी जातियों के महत्त्व दिखाने का सबूत है। इस परम्परा का
पालन-पोषण-सम्वर्द्धन उचित ही नहीं, जरूरी है।
शादी-विवाह-उपनयन-मुण्डन-श्राद्ध आदि--सभी संस्कारों में जातियों के आपसी
सरोकारों को इसी तरह पिरोया गया है। धोबी, हजाम, डोम, चमार, पण्डित, कुम्हार... सभी जातियों की आवश्यकता और भागीदारी
इन संस्कारों के अनुष्ठान में होती है। रीति-रिवाजों को इस तरह जातीय और साम्प्रदायिक अन्तःसूत्रों से
बाँधे रहने की प्रथा बिहार में आज भी मौजूद है। इसी बिहार में मण्डन मिश्र के
गुरुकुल में शिष्योपशिष्य पद्धति से शिक्षादान की परम्परा थी, तक्षशिला और नालंदा की शिक्षा पद्धति
थी। अनावृष्टि के समय कृषिकर्म को आहत होते देख आज भी यहाँ की स्त्रियाँ, गहरी और अन्धेरी रात में जट-जटिन जैसी लोकनाटिका खेलती हैं और मेघ
को आमन्त्रण देती हैं-- और
इसी बिहार में,
आज शिक्षा, संस्कार, धर्म और संस्कृति के तस्करों का
साम्राज्य फैल रहा है।
दिल्ली
से उत्तर-पूर्व की ओर रवाना होने वाली हरेक
रेलगाड़ी बिहार होकर जाती है, आँकड़ेबाजी
में भी जाएँ तो बिहार की ओर जाने वाली रेलगाड़ियां की संख्या दर्जन से कम न होंगी, फिर भी बिहार-यात्रा के नाम पर रूह सिसक जाती है।
औद्योगिक विपन्नता और रोजगार के संसाधनों के घनघोर अभाव के कारण गत शताब्दी के
अन्तिम तीन दशकों में बिहार की श्रम-शक्ति और बौद्धिक-शक्ति का पलायन दिल्ली-पंजाब की ओर विपुल मात्रा में हुआ। ये पलायित लोग धनार्जन
हेतु परदेश भले आ गए हों, पर
इनकी जड़ें वहीं हैं, ये
अपनी जमीन से उखड़े नहीं हैं। तीज-त्योहारों
और पारिवारिक आयोजनों में निरन्तर गाँव जाते रहते हैं। इस कारण बिहार जाने वाली
गाड़ियों में भीड़ होना स्वाभाविक है। मगर बेचारे बिहारी! रेलवे स्टेशन पर, और पूरे रास्ते रेल में, पुलिस वाले बिहार के उन श्रमिकों को
जिस तरह भेंड़-बकरे का दर्जा देते हैं, उसे याद करना भी शर्मनाक लगता है! तथ्य है कि पसीना ही जिसकी पूँजी है! उसके पसीने से नफरत करने वाले
पूँजीपतियों को उस पर हुए इस अत्याचार की बात समझ में नहीं आएगी। धनहीन, दृष्टिहीन इन अनगढ़ नागरिकों को देखकर, इनके गन्दे कपड़े और आडम्बरविहीन चाल-चलन को देखकर कुछ सफेदपोश लोग इन्हें
और इनके साथ पूरे बिहार राज्य को गाली दे लेते हैं।...अपनी जिन्दगी की सारी ऊर्जा जिसने अपने
अस्तित्व की रक्षा में लगाई; शरीर, श्रम, स्वेद के अलावा जिनके पास और कोई
सम्पत्ति नहीं है-
जमाने के
पाखण्डियों के साथ समान स्तर पर बात करने की जिनके पास धूर्त्तता और चतुराई नहीं है...उन्हें देखकर लोग चर्चा करते हैं कि ये
बिना टिकट यात्रा करनेवाले हैं। और तो और, संचार माध्यम के प्रतिनिधिगण जब बिहार
की छवियाँ अपनी कलम से खोलते, या
कैमरे में कैद करते, या
फिर अपनी वाणी से झाड़ते हैं, तो
उन्हें ऐसा प्रतीत होता है कि वे किसी दूसरे ग्रह के किसी तीसरी प्रजाति के
जन्तुओं के बारे में बात कर रहे हैं। वे बात करेंगे इनकी भाषा के बारे में--जो लोग ‘उद्योग' को ‘उधोग', ‘स्वीकार' को ‘सविकार', ‘गृह' को ‘ग्रह', ‘चन्द्र' को ‘चन्दर' बोलते हैं, ‘मैंने बात करी है' बोलते हैं -- वे लोग बात करते हैं कि ‘बिहार के लोगों से बात करके मेरी
हिन्दी खराब हो जाती है।'...भगवान
बचाए इस हिन्दी को...इन्हें
इतना ज्ञान तो शायद इस जन्म में नहीं हो पाएगा कि ‘हिन्दी नवजागरण' में सर्वाधिक योगदान बिहार का है।
स्वातन्त्रयोत्तर काल के योगदान को भी आँका जाए, तो बिहार आज भी पूरे राष्ट्र के लिए
चुनौती बनकर खड़ा है।... वैसे
बिहार के इस योगदान को प्रान्तीय स्तर पर आँकने की मंशा मेरी नहीं है, किसी भी बिहारी की नहीं होती, सम्भवतः भाषा के उन पुजारियों की भी न
रही होगी। वहाँ के लोग तो राष्ट्रीय अस्मिता और मानव सभ्यता के उत्कर्ष को देखते
हैं!
वे
लोग बात करते हैं बिहार के नागरिकों के बिना टिकट रेल में सफर करने की। यदि वे
रेलवे की आमदनी का आँकड़ा देखें और राज्यवार तुलना करें तो उनका यह भ्रम आसानी से
दूर हो जाएगा। आजकल फिल्मों, धारावाहिकों
में एक फैशन चला है-- प्रोड्यूसर
और पटकथा लेखक किसी तरह एक बिहारवासी नायक/उपनायक की गुंजाइश बैठा लेते हैं, उसे मसखरे की तरह प्रस्तुत करते हैं, उसके मुँह से अशुद्ध हिन्दी बिहार की
ध्वनि के साथ कहलवाते हैं। शायद उन्हें यह भान नहीं है कि देश की भावी पीढ़ियों का
वे कितना नुकसान करते हैं।
केन्द्रीय
सत्ता पर काबिज लोगों ने बिहार में दुराचार की फसल को खाद-पानी दिया है और समाज-व्यवस्था को भ्रष्ट किया है। आज उसी
बिहार के अधिकांश बच्चे बिहार से बाहर पढ़ रहे हैं, एक समय जो बिहार शिक्षा का गढ़ हुआ करता
था। अपहरण,
हत्या राहजनी, निरर्थक बातों के लिए खून-खराबा, बेरोजगारी, बेरोजगारों का राजनीति में आपराधिक
उपयोग आदि को जिन लोगों ने बिहार में बढ़ावा दिया--उन्हें भारत के केन्द्रीय पुरुष और
केन्द्रीय शक्ति ने गत वर्षों तक खुली छूट दे रखी थी-- निश्चय ही इसका कोई गम्भीर अर्थ रहा
होगा। सीमावर्ती क्षेत्रों में अशान्ति फैलाकर, वहाँ के शासकों को तनावग्रस्त रखकर, अपनी गद्दी सलामत रखने और मजबूत करने
की नीति तो महाभारत के कृष्ण की भी थी! बहरहाल...
ऐसे
राज्य बिहार की यात्रा करने का अवसर मिलता रहा है। इस यात्रा के लिए पहली समस्या
आती है रेलवे टिकट की। बगुले की सावधानी, पूर्व प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाँधी
जैसी दूरदर्शिता और नौकरी पा लेने की संघर्ष शक्ति के बिना बिहार जाने का टिकट
पाना असम्भव है। टिकट पा भी गए और ट्रेन में आ भी गए, तो आप पाएँगे कि आपकी सीट पर बाॅगी की
क्षमता से अधिक संख्या में बिहार जाने वाले वे श्रमजीवी बैठे हैं, जो दिल्ली-पंजाब में मेहनत-मजदूरी कर जीवन बिताते हैं, अपने दैनिक खुराक तक से पैसे की बचत
करते हैं,
और घर वापस होते
वक्त बड़े उत्साह से अपने गिने हुए रुपयों को फिर-फिर गिनते हैं। घर-परिवार से मिलने की आतुरता में इतने
बेखबर रहते कि उन्हें किसी डाँट-डपट, उपहास-उपेक्षा, गाली-गलौज, सुविधा-असुविधा की परवाह न होती। बेचारे दब्बू
लोग!
डाँट दीजिए आप, कोई बात नहीं! अपने तेवर और शुभ्र-शाभ्र पोशाक की ठसक से उन्हें डाँटकर
सीट से उतार दें,
तो वे नीचे बैठे
मिलेंगे...। जाएँगे कहाँ... उन्हें तो कुलियों ने, और पुलिस वालों ने पैसे लेकर सामान की
तरह जबरन उसमें चढ़ाया है! अब
आप उसकी बदहाली पर क्षुब्ध होते रहिए...सम्वेदनशील हैं तो उनके बारे में सोचते
हुए,
और निर्दय हैं तो
उन्हें गाली देते हुए...आपका
टाइम-पास हो जाएगा। मूँगफली खरीदने की
आवश्यकता नहीं पड़ेगी।
रेलवे
पुलिस आकर,
उन मजदूरों की हरेक
गठरी के लिए नाजायज रुपए लेकर चले जाएँ, तब रेलवे के टी टी आएँगे। उन्हें बॉगी
का दर्जा समझाते हुए सैकड़ों रुपए के दण्ड और जेल की धमकी के सहारे रुपए ऐंठेंगे।
खून पसीने की कमाई की यह दुर्गति, जो
देख पाता है,
उसके दुःख का बयान
इस शासन व्यवस्था में कोई अतिरंजनावादी कवि भी नहीं कर सकता।...आगे चलिए, दिल्ली से पटना तक की त्रासदी फिर कभी...। इस वक्त सीधे पटना उतरते हैं...!
स्टेशन
के सामने खड़े दलाल, इन
मजदूरों का झुण्ड देखकर, प्रसन्न
हो उठते हैं। दिल्ली-पंजाब
में पसीना बहाकर चन्द ठीकरे जुटाते इन गरीबों की तकदीर देखिए! और जगह तो इन्हें मवेशी समझा ही जाता
है,
अपने राज्य में
पहुँचने पर भी इन्हें सम्मान नहीं मिलता! ये दलाल भी इन्हें उल्लू ही समझते हैं।
काश!
इन दलालों को उन
यातनाओं से कभी गुजरना पड़ता। पेट काटकर घर के लिए जुटाए पैसे किस तरह रास्ते में
लुटा रहे हैं ये!
सिर्फ इसलिए कि ये
धूर्त नहीं हैं!...दलाल के मुँह में लोमड़ी की तरह लार भर
आती है। वे इन्हें पकड़ते हैं--कहाँ
जाना है,
दरभंगा? कितने लोग हो, बीस? निकालो सोलह सौ रुपए, टू बाइ टू में बैठाऊँगा, आपस में तुमलोग हिसाब कर लेना... रुपए मिल गए। सामने बस भी आ गई। बस
में सबको ठूँस दिया गया। बस पटना शहर से बाहर आई। टिकट वसूली शुरू हुई। कण्डक्टर
आया। एक श्रमिक से बोला--किराया
दो!
--वह बोला--किराया तो हम बीस लोगों का वहीं ले
लिया गया है!...किसने लिया किराया, किसने लिया रे, साला झूठ बोलने की जगह नहीं मिली? कहाँ जाना है?...दरभंगा!...उतर साले उजबक! यह बस बेगूसराय जा रही है। जानवर कहीं
का!...
धोबी
का गधा,
न घर का न घाट का, दस गालियाँ बोनस में।...बेचारे श्रमिक नीचे उतरे...फिर क्या हुआ होगा उनका, कौन जाने!...हमारी बस आगे बढ़ती है।...अगली बस्ती से दस युवक सड़क पर बैरियर
लगाकर बैठे हैं।...गाँव में दुर्गा पूजा है, चन्दा दो।...कण्डक्टर बोला--चन्दा तो कल दे दिया था!...किसको दिया था! रसीद दिखाओ...वह दूसरी पार्टी थी...हमें पाँच सौ चाहिए।...मालिक पचास से अधिक देने को नहीं कहते...मालिक को बुलाओ...पब्लिक परेशान हो रही है बाबू! सारे पैसेन्जर रात भर के जगे हैं, जाने दीजिए।...जाओ, पांच सौ रुपए दे दो, जाओ, कौन रोकता है?... मैं क्षुब्ध हूँ। जिन मुसाफिरों की वजह
से इन बस वालों का कारोबार चलता है, उन पर इनकी अकड़, और इन लफंगों के सामने इनकी हकलाहट
देखते बन रही थी।
बिहार
की सड़कों पर बसों में यात्रा करते मुसाफिरों की ये परेशानियाँ हरेक रामनवमी, दुर्गा पूजा, दिवाली, सरस्वती पूजा, कृष्णाष्टमी, होली...सब में शाश्वत है।...कहीं चार पुलिस खड़ी रहेगी। ड्राइवर-कण्डक्टर से गाड़ी की परमिट माँगेगी।
परमिट होगी नहीं,
चलान भी नहीं कटेगी, चलान की धमकी होगी, और हजार रुपए की चलान की धमकी, पाँच सौ की नकदी पर निपट जाएगी।... इन सभी मुसीबतों को झेलते, सड़क की बदहाली में हिचकोले खाते, हाल-हाल तक की दशा तो यह थी कि दो घण्टे की
बस-यात्रा छह घण्टे में तय होती थी। भला
हो पिछली पंचवर्षीय बिहार सुशासन का कि अब सड़क थोड़ी बेहतर हो गई है। अगले पड़ाव पर
बस बदलनी है। मेरे गन्तव्य तक जाने वाली अगली बस चलने वाली है, मगर वह बस, बस नहीं, मनुष्य का ढेर लग रही है, खिड़की, दरवाजे, छत...सब पर लोग लदे हुए हैं। मक्खी बैठने तक
की जगह नहीं। फिर भी कण्डक्टर आवाज लगाए जा रहा है--आइए, आइए...मानसी, खगरिया, महेशखुट।...मैं क्षुब्ध होता हूँ, कैसे चढूँ इसमें, साहस जवाब दे गया। दूसरी बस में पैसेंजर
तब तक नहीं चढ़ सकता, जब
तक लदी हुई बस स्टैण्ड न छोड़ दे।...खैर, बस चली गई, अगली बस पर जाकर बैठा, पता किया--यह बस किस समय चलेगी? जवाब मिला, खाली बस ले जाऊँगा क्या? पैसेंजर भरेगा तब जाएगी।...अब पैसेंजर के आने की प्रतीक्षा उस
ड्राइवर-कण्डक्टर की तुलना में मैं, बेसब्री से करने लगा। पैसेन्जर आए, बस भर गई, मगर बस को मनुष्य का ढेर बनने में अभी
देर थी...।
ऐसा
बिहार मेरा जन्म स्थान है, जाना
पड़ता है,
मगर जाने के नाम पर, यात्रा की यातना को याद कर प्राण रो
उठते हैं। दो महीने पूर्व की बात है, दरभंगा स्टेशन पहुँचा था। बरौनी जाने
वाली गाड़ी चलने को तैयार खड़ी थी। टिकट काउण्टर पर गया। दस कम्प्यूटरीकृत काउण्टर
खुला था,
नौ की कुर्सियाँ
खाली। एक पर एक बाबू बैठे थे। सामने दो सौ मुसाफिरों की कतार खड़ी थी। कम्प्यूटर
खराब। टिकट कहाँ लूँ, कैसे
लूँ। स्टेशन मास्टर का चैम्बर ढूँढकर पहुँचा। एस.एम. नदारद...जाना जरूरी है, कैसे जाऊँ।...बिना टिकट लिए टेªन के पास पहुँचा। गाड़ी चलने वाली थी।
गार्ड के समक्ष जाकर अपना दुःख रोया। भले मानस ने सहयोग दिया, कहा--अगला स्टेशन है लहेरियासराय, वहाँ तक मैं आपको ले जाने की
जिम्मेदारी ले सकता हूँ। वहाँ चलकर टिकट ले लीजिए...ऐसा ही हुआ...
ऐसे
बिहार को गत पाँच वर्षों से नया बिहार बनाने में मुख्यमन्त्री जुटे हुए हैं, उधर पुराने मुख्यमन्त्री को भी पुराने
बिहार की बड़ी चिन्ता है। काश! अत्यधिक
पुराने बिहार की चिन्ता सभी बिहारवासियों को हो पाती। असल बात यह है कि बिहार की
चिन्ता का नाटक करने वाले और घड़ियाली आँसू बहाने वाले इन रहनुमाओं में से हर किसी
को सिर्फ अपनी चिन्ता है। अपनी कुर्सी सलामत रखने और निरन्तर उसे ऊँची रखने की होड़
में ये बिहार की जिन्दगी तबाह करने में लगे हैं। इनकी अपनी समझ यह बन रही है कि
तबाह जिन्दगी के जाल में फँसा मनुष्य हमेशा अपने अस्तित्व की ही रक्षा में लगा
रहेगा। मेरे सामने हाथ फैलाकर अपनी जिन्दगी की भीख माँगेगा। साँस भर जिन्दगी पा
लेने के लालच में अपना सब कुछ मुझे अर्पित कर देगा।...मगर ये भूल रहे हैं कि भारत का नागरिक
सैकड़ों वर्षों की तबाही झेलकर भी, विदेशी
आक्रमणकारियों और जबरन सिर पर आ बैठे फिरंगियों के समक्ष, अपनी सभ्यता और संस्कृति से विलग नहीं
हुए। हार जाने के बावजूद 1857 का गदर और प्राप्त स्वाधीनता का संग्राम--इसका उदाहरण है। यह सच है कि भारत का
नागरिक सहनशील होता है। मगर इतिहास गवाह है कि अकेला बिहार कितने सांस्कृतिक
आन्दोलनों का जन्म-स्थल
रहा है। सन्
1757 से 1857 तक और फिर आगे सन् 1947 तक के एक सौ नब्बे वर्षों में भारतीय
स्वाधीनता हेतु लड़ी गई लड़ाइयों में ज्ञान, तपस्या, साधना, मानवता के केन्द्र बिहार की जो भूमिका
रही है,
वह इतिहास के
पन्नों में दर्ज है। अतीत की गरिमा, पारम्परिक संस्कृति और मानवीय सभ्यता
को उत्कर्ष देने वाले आचार पर जिस दिन मनुष्य खतरा महसूस करने लगता है, उसका धैर्य जवाब दे देता है। इस तरह
धैर्य का टूट जाना, सभ्यता
की दृष्टि से सकारात्मक कदम है।...अपने
क्रान्तिमय विरासत की याद दिलाकर बिहारवासियों को ललकारने का समय अभी है। यह ललकार
बिहार की नई शासन व्यवस्था को भी सहयोग दे सकेगी। बिना इस सहयोग के वहाँ किसी भी
बेहतरी की सम्भावना नहीं है।
इतिहासकारों
ने जब प्राचीन यज्ञ में गाय की बलि की बात की थी, तो पुस्तक प्रतिबन्धित हो गई। कोई पाँच
बरस पहले तक बिहार के राजनेता अघोषित राजसूय यज्ञ में नरबलि दे रहे थे, और उस खून से अपनी पार्टी का झण्डा रंग
रहे थे,
प्रशासन में
सन्नाटा छाया रहता था, कहीं
कोई हलचल नहीं होती थी, ले-देकर संचार माध्यमों में चार दिन चूँ-चाँ होकर रह जाती है। चार बजे सुबह
पटना जंकशन पर रिक्शेवाले कहते थे कि जब तक दिन न निकल आए, मैं कहीं न निकलूँगा! यह दीगर बात थी कि उन दिनों बिहार में
मनुष्य की जिन्दगी और आबरू का मोल किसी बकरे से अधिक उजाले में भी न था। बहरहाल... स्थिति बदल रही है, कुछ और बदलने की प्रतीक्षा है। हमें उस
दिन की प्रतीक्षा है, जब
बिहार के बच्चे बिहार में ही बेहतर शिक्षा पाने लगेंगे। बिहार के लोग बिहार में ही
बेहतर रोजगार पाकर अपने प्रान्त की सेवा करने में लग जाएँगे। रेल, बस, अस्पताल, विद्यालय, थाना, कोर्ट, नगरपालिका, मन्दिर...में सभ्यता और शिष्टाचार का निर्वाह
होने लगेगा। शिक्षक, नेता, पुलिस, पत्रकार, मन्दिरों के पुजारी, वकील को लोग इज्जत देने लेगेंगे।
अर्थात्,
लोगों को बेहतर
नीन्द आने लगेगी--हमें उस दिन की प्रतीक्षा है।
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