Monday, April 18, 2016

अब गंगा नदी में चन्द्रमा नहीं तैरता



अब गंगा नदी में चन्द्रमा नहीं तैरता
स्थापित धार्मिक मान्यता, संचालित आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था और प्रचलित लोकसत्ता के प्रति आस्था अथवा अन्धभक्ति, बीते पाँच-छह दशकों से वे ही व्यक्ति रखते आ रहे हैं, जिसके पास तर्कशक्ति नहीं है। समय के देवताओं का कहना है कि धर्म और कानून का पालन किया जाता है, उस पर तर्क नहीं किया जाता। ऐसा वे इसलिए कहते हैं कि उनका निजी हित इसी में है। ज्ञान से तर्कशक्ति बढ़ती है। ज्ञान बढ़ता है शिक्षा से। समय के उक्त देवतागण जनता को शिक्षित होने से रोक नहीं पाए, पर उन्हें यह पता था कि शिक्षित लोग अर्थाभाव से टूट जाते हैं। इसलिए शिक्षितों के जीवन में अर्थाभाव बनाए रखना जरूरी था। अर्थात्, स्वातन्त्र्योत्तर काल के भारत के सत्ताधीशों ने एक लम्बी प्रक्रिया का व्यूह बनाकर शिक्षित जनता को तर्कविमुख करने की सफल कोशिश की। रोजगार की सम्भावनाओं को क्षीणप्राय कर शिक्षितों को बेरोजगार बनाया गया और सत्ता के ठेकेदारों ने उन्हें अपना पिछलग्गू बनाया। अभाव बढ़ता गया, नाना तरह की समस्याएँ भी बढ़ीं, शोषण बढ़ा, निर्धनों का अपमान बढ़ा, अधिसंख्य जनता का मनोबल टूटा, श्रम का अवमूल्यन हुआ, श्रमजीवी और अभावग्रस्त जनता पूँजीपतियों के लिए उत्पादक मशीन हो गई। गाँव के असन्तुष्ट श्रमजीवी शहर की ओर दौड़े। गाँव विरल होता गया, शहर की आबादी बढ़ती गई। परिवार, समाज, गाँव-शहर नई-नई परिस्थितियों से जूझने लगा। एक छोटी समस्या कई बड़ी समस्याओं की जननी होने लगी। वैज्ञानिकता के प्रवेश और संसाधन की उपलब्धता से राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय सूचनाएँ सहजता से मिलने लगीं। शिक्षा के प्रचार-प्रसार से नारी शिक्षा में वृद्धि हुई। विद्यालयीय-महाविद्यालयीय शिक्षार्जन के क्रम में किशोर-किशोरियों की उन्मुक्त मित्रता बढ़ चली। समय पाकर कामान्धता को भी जगह मिलने लगी। इच्छा और साधन दोनों मौजूद हो, समाज में अपने को दोषमुक्त साबित करने के लिए विज्ञान-प्रसूत उपस्कर भी उपलब्ध हो, तो स्कूल-काॅलेजों में अध्ययनरत किशोर-किशोरियाँ और कार्यालयों में कार्यरत स्त्री-पुरुष अपने उन्माद को क्यों दबाएँ! दोषमुक्ति की आश्वस्ति से इनकी इच्छा बलवती हुई, इनके मन-मिजाज से पाप-पुण्य की भावनाएँ लुप्त हुईं और शील-सभ्यता की सीमा से बाहर आकर शारीरिक विवशता के रूप में यौनोन्माद चल पड़ा। यौनाचार की इस स्वच्छन्दता से बहुगामी आचरण को बल मिला। विवाहेतर सम्बन्ध बढ़ चले। दाम्पत्य तनाव के साथ-साथ इस परिणति के और भी कई पहलू समाज में व्याप्त हुए। कई धर्मप्राण लोग फिर भी इस हरकत को नीति विरुद्ध मानते रहे, साधन उपलब्ध होने के बावजूद उन्हें इच्छा नहीं हुई, या इच्छा को होने से टालते रहे या फिर इच्छा को दबाते रहे। लेकिन जिजीविषा, नैतिकता से बलिष्ठ होती है। निष्कलुष दाम्पत्य जीवन और निद्र्वन्द्व मनःस्थिति के बावजूद जीवन-रक्षा की बुनियादी शर्तें उन नीतिबद्ध मनुष्यों में से कुछ को प्रतिबन्धित कर्मों की ओर उन्मुख करती रहीं। जो कुछ उन्मुख नहीं हो पाए, वे भी अभाव, और खण्डित अभिलाषाओं और आत्म-स्थापन के लिए विहित संघर्षों से जूझते हुए हªस्त, त्रस्त और परास्त होते रहे।
आजादी के बाद के वर्षों ने भारत के नागरिकों को ये सारे सौगात काफी उदारता से दिए। और, सुसुप्त नागरिकों को जीवन-संग्राम की इन त्रसदियों से भारतीय साहित्य परिचित कराता रहा। इस दौरान हिन्दी कविता ने अवसर पाकर अपने कई तेवर बदले। बीसवीं शताब्दी के कालजयी रचनाकार राजकमल चौधरी ने कहा, ‘‘मनुष्य तीन प्रकार के होते हैं। एक वे, जो समाज के, युग के पीछे-पीछे चलते हैं। दूसरे वे हैं, जो सामाज के, युग के साथ-साथ चलते हैं। तीसरे वे, जो समाज के, युग के आगे-आगे चलते हैं। तीसरे प्रकार के व्यक्ति ही सृजेता कहलाते हैं। समाज का निर्माण करते हैं। साहित्य(नए) का निर्माण करते हैं(लहर, दिसं-जन.1968)’’ राजकमल अपने को तीसरे कोटि में रखते थे। समाज एवं युग के आगे-आगे चलने और चलते रहने की ईमानदारी, योग्यता एवं उदारता भी उनमें थी। इस अगुआई का कारगर तरीका उन्हें नई दृष्टि का साहित्य सृजन ही लगा। जीवन की भीषण आपदाओं से जूझती जनता के भोलेपन और उस भोलेपन से मजाक करते मुट्ठी भर सत्ताधीशों और उनके मुँहलगुओं की दुर्वृत्ति को देखकर ही वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे।
हिन्दी और मैथिली--दोनों भाषाओं में लिखी-छपी इनकी रचनाओं की गुर्राती नजर छठे दशक की सामाजिक रूढ़ियों, पाखण्डों, धर्मान्धताओं, कुरीतियों, अत्याचारों और राजनीतिक षड्यन्त्रों तथा बहुसंख्य साधारण जन के साथ किए जा रहे फरेब, प्रवंचन, प्रपंच, धोखाधड़ी आदि पर दिख रही है। जनहित से विमुख परिणति की एक भी हरकत इन्हें सह्य नहीं थी,तमाम जनविरोधी उपक्रमों का विरोध इन्होंने ताउम्र, किसी एक्टिविस्ट की तरह किया। अनगिनत घटनाएँ और क्रिया-कलाप इस बात के प्रमाण हैं, कि केवल कहानी-कविता-निबन्ध-रिपोर्ट लिखकर अपना दायित्व पूर्ण समझ लेना इन्हें स्वीकार्य नहीं था।
हिन्दी में उनकी रचनाएँ गत शताब्दी के पाँचवें दशक के अधोभाग में तीक्ष्णता और तीव्रता से प्रकाश में आने लगी थीं। हिन्दी में इनकी पहली कविता (बरसात रात प्रभात) सितम्बर 1956 में नई धारामें, पहली कहानी (सती धनुकाइन) मार्च 1958 में कहानीमें और पहला निबन्ध (भारतीय कला में सौन्दर्य-भावना) जून 1959 में ज्ञानोदय में प्रकाशित हुआ। मैथिली में सन् 1954 से ही इनकी रचनाएँ छपने लगी थीं। सन् 1958 आते-आते तो ये ख्यात हो चुके थे और मैथिली की रुग्ण, जर्जर एवं रूढ़िग्रस्त रचनाशीलता के पोषकों-प्रतिस्थापकों के लिए आतंक बन चुके थे। लेकिन, अप्रकाशित पाण्डुलिपियों के अवलोकन से यह तथ्य सामने आता है कि सन् 1949-50 के आस-पास से ही ये सृजन में पर्याप्त सक्रिय थे। हिन्दी में उस दौर की लिखी इनकी पर्याप्त रचनाएँ प्राप्त हुई हैं, जो इस बात का प्रमाण है कि प्रकाश में आने से पूर्व इन्होंने अपनी रचनाशीलता को पूरी तरह सँवार लिया था। साहित्य में उनके सक्रिय होने से पूर्व ही हिन्दी में दूसरा सप्तकप्रकाशित हो चुका था। नए पत्ते’ (1953) और नई कविता’ (1954) का प्रकाशन भी हो चुका था। नए पत्तेमें और आलोचनाके कुछ अंकों में नई कविता की कुछेक मूल स्थापनाएँ दी जा चुकी थीं। कहा गया था कि कुण्ठा और वर्जना से विमुख नई कविता मुक्त यथार्थ का समर्थन करती है, विवेक के आधार पर इस मुक्त यथार्थ का साक्षात्कार वह न्यायोचित समझती है और क्षण तथा समसामयिकता के दायित्व को स्वीकार करती है। विवेचना और विवेक के बल पर जिस वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मानवता और यथार्थ दृष्टि अर्जित होती है, उसका आदर करती है (साहित्य कोश, भाग-1, पृ. 311)। यद्यपि तीसरा सप्तकका प्रकाशन सन् 1959 में हुआ, पर उसके सम्पादकीय वक्तव्य से जो स्पष्ट होता है, वह यह कि तार सप्तक में संगृहीत कवि अपनी-अपनी अलग राहका अन्वेषण करते हुए मंजिल निर्धारित कर चुके। बल्कि मुक्तिबोध का अभिप्राय तो साफ था कि असल में तार सप्तकही नई कविता की घोषणा थी। अर्थात्, ‘नई कविताको विधिवत मान्यता मिलने के दौरान ही राजकमल की कविताएँ प्रकाश में आने लगी थीं, यद्यपि सृजनरत चार-छह वर्ष पूर्व से ही रहे थे।
भारतीय समाज का वह ऐसा दौर था कि जनता अपने को ठगी हुई-सी, जुए के दाँव में हारी हुई-सी महसूस कर रही थी। डॉ.राममनोहर लोहिया जैसे चिन्तक की धारणा यह थी कि हर एक व्यक्ति को एक हद तक अपने जीवन को अपने मन के मुताबिक चलाने का अधिकार होना चाहिए।पर यहाँ सामाजिक, प्रशासनिक, राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था की नाक इतनी बढ़ गई थी कि जनता की जीवन प्रक्रिया को बेवजह सूँघते रहना और उसके मन तथा जीवन के स्वातन्त्र्य को खण्डित करना, अपना प्राथमिक कत्र्तव्य समझती थी। भारतीय गणतन्त्र में उदार और सुसंगत परम्परा स्थापित करने हेतु, कांग्रेस पार्टी और जवाहर लाल नेहरू की नीतियों का, डॉ.लोहिया द्वारा किए गए निरन्तर विरोध की प्रक्रिया से आज के समाजवादी कार्यकर्ता(?) भी परिचित होंगे। आचार्य नरेन्द्र देव और जयप्रकाश नारायण जैसे सामाजिक हित के चिन्तक और राष्ट्रवाद के सूक्ष्म व्याख्याकार के चिन्तन-मनन से देश के बुद्धिजीवी एवं रचनाधर्मी परिचित थे। वैज्ञानिक विकास और औद्योगिक क्रान्ति की दुहाई तो दी जा रही थी, सामाजिक जीवन प्रक्रिया को सुविधा सम्पन्न बनाने की बात तो की जा रही थी, पर निर्णीत और परिलक्षित सामाजिक सत्य वही था जो आचार्य नरेन्द्र देव का अभिप्राय था। सामन्ती व्यवस्था चरमरा तो गई थी पर औद्योगिक क्रान्ति से वैसी ही व्यवस्था का पर्याय व्याप्त हो गया था। उत्पादनधर्मी व्यवस्था की बागडोर पूँजीपतियों के हाथ में चली गई थी। कृषि कर्म की जीवनी शक्ति से अनुप्राणित अधिसंख्य जनता मजदूर बन गई। उत्पादन, विपणन, वितरण के औजार के रूप में जनता का उपयोग होने लगा। उसकी श्रमशक्ति बिकने लगी, बल्कि श्रमशक्ति बेचने को वह मजबूर हो गई और मुट्ठी भर पूँजीपति उसके नियामक और नियन्ता बन गए। आर्थिक वैषम्य की इस विशाल खाई से समाजवाद का रास्ता अवरुद्ध हुआ। वर्गहीन समाज की संकल्पना आहत हुई। अर्थात्, भारत की स्वाधीनता का अर्थ, जनता के सपनों के लिए कहीं से अर्थवान नहीं हुआ। जनता को नागार्जुन की पंक्तियाँ सच लगने लगीं:
अंग्रेजी-अमरीकी जोंकें, देशी जोंकें एक हुईं
नेताओं की नीयत बदली, भारत माता टेक हुईं
इस अवधि की इन सारी स्थितियों को राजकमल चौधरी की पैनी नजर गम्भीरता से जाँच परख रही थी। सन् 1960 के आते-आते इनके धैर्य की सीमा टूट गई। तब तक नई कविता स्थापित और सर्वस्वीकृत हो गई थी। पर उन्हें लगा कि फिर भी ऐसा बहुत बचा रह जा रहा है, जो प्रभाव के स्तर पर भला नहीं हो रहा है। आजादी के तेरह वर्षों बाद भी भारतीय जनता का जीवन सहज नहीं हो पाया है। कांग्रेसी राजनीतिज्ञों के तिकड़मों से संचालित शासन-तन्त्र में विकास और लोक-तन्त्र की मूल स्थापनाओं के सारे सूत्र थोथे साबित हो रहे हैं, और, ऐसे ही समय में वे कुछ और उग्र हुए। यद्यपि भारत के सत्तााधीशों द्वारा लोकतन्त्र और समाजवाद की पक्षधरता के दिए गए नारों और साम्राज्यवाद के प्रति रहस्यमूलक आकर्षण को देखकर सारे यथार्थ उद्घाटित हो चुके थे, और उन स्थितियों पर छठे दशक के प्रारम्भ में ही कई कविताएँ लिख चुके थे। पर सन् 1960-61 के आस-पास यथार्थभोग की तीक्ष्णता इतनी वेधक हो गई थी कि स्थापित काव्यधारा की सीमा को लाँघकर, उन्होंने अकविताआन्दोलन शुरू किया। कहा जाता है कि बाद के दिनों में कुछ लोगों ने समाचार पत्रों में इस कविताधारा की अकाल-मृत्यु की घोषणा कर दी, क्योंकि इसमें दृष्टिकोण की अस्थिरता थी, प्रदर्शन की भंगिमा थी, भूखी और आहत पीढ़ी के प्रभाव के प्रति स्वीकार-अस्वीकार का द्वन्द्व था। लेकिन सत्य तो यह है कि नई कविता के बाद आविर्भूत इस कविता आन्दोलन ने हिन्दी साहित्य में खूब धूम मचाई। प्रारम्भऔर अभिव्यक्तिमें इस धारा की कविताएँ एवं तद्विषयक अनेक लेखों का प्रकाशन हुआ। उससे पूर्व ही सन् 1960-61 में प्रकाशित नई कविताके संयुक्तांक में इसका आह्नान हो चुका था। इस काव्यधारा की गतिकता एवं इसका प्रभाव इतना ताकतवर था कि घोषणाकाल से ही उसे व्यापक स्वीकृति मिल गई। सन् 1963 में जगदीश चतुर्वेदी द्वारा सम्पादित पुस्तक प्रारम्भमें चौदह कवियों की कुछ-कुछ कविताएँ संकलित हुईं। इनमें सन् 1960-61 के बीच लिखी गई, राजकमल चौधरी की उन्नीस कविताएँ प्रकाशित हुईं। उन कविताओं में सामाजिक यथार्थ की वीभत्स स्थिति को काफी नंगे स्वरूप में प्रस्तुत किया गया था। पर यह बात हमें स्वीकार लेनी चाहिए कि बिम्बों-प्रतीकों की नग्नता के बावजूद वे कविताएँ उतनी नग्न नहीं थीं, जितना नग्न वह यथार्थ था। इस सामाजिक यथार्थ को कोई भी अस्वीकृत नहीं कर सकता था:
सड़कें खाली हैं
वे करती हैं इन्तजार
आवाज पहचानती हैं
दर्द, वहशत, बीमारियाँ और
हबिस उसकी--वे जानती हैं
सिर्फ नहीं उसका नाम...
(वेश्याएँ)

या फिर
तुम्हारे उतारे हुए कपड़े फर्श पर फेंक देता हूँ
तुम रोशनी बुझा देती हो अचानक...
और, मैं महसूस करने लगता हूँ--
तुम्हारा नंगापन मेरा भी नंगापन है,
तुम्हारी लज्जा केवल तुम्हारी है
(अपनी ही बीवी के लिए)
और जब जनपद के जीवन-क्रम का स्थापित सच यह हो, तो इसे कविता का सच भी होना चाहिए।
राजकमल चौधरी की सन् 1960 के बाद की रचनाओं में, वह कविता, कहानी, उपन्यास, निबन्ध-आलोचना-डायरी, रूपक आदि कुछ भी हो, समकालीन समाज की विकृति का वास्तविक चित्र अंकित हुआ है, भयावह यथार्थ का क्रूरतम चेहरा सामने आया है। जीवन-संग्राम की त्रसदियों और विसंगतियों से ऊबे हुए, आहत और भयमुक्त क्रोध से भरे हुए समाज और समय को नेतृत्व देने वाले सृजनकर्ता के रूप में इन रचनाओं में राजकमल चौधरी सामने आए हैं। स्वाधीनता के बाद एक-सवा दशक से संजोया धैर्य, यहाँ क्षत-विक्षत हुआ लगता है। जहाँ मशीन-तन्त्र, राजनीति-तन्त्र और अर्थ-तन्त्र देश के नागरिक को चूहों और मच्छरों की हैसियत में ले आए, जहाँ प्राण-रक्षा हेतु टुकड़ा भर रोटी के लिए चीखती नारी कहे कि
मुझे खरीद लें
फटे कोट की तरह टाँग दें दीवार पर
भले ही न पहनें
पर, मुझे खरीद लें
मैं भूखी हूँ, प्यासी हूँ, हूँ बीमार
यम के हाथों से मुझे छीन लें...
(मैथिली कविता)
और दूसरी ओर
शीला हर सातवें दिन, अपने कल-कारखानों से गायब रहती है
लीला तुम अपने बैग में क्या रखती हो?
अपने दोस्त के घर की चाबी रखती है
शीला! तुम
सेक्नल?
(अनिर्णय: सात कविताएँ)
ऐसा प्रश्न बेखटके पूछने की स्थिति जहाँ आ जाए, वहाँ, और वैसी लोकतान्त्रिक व्यवस्था में किस तरह धार्मिक-सामाजिक-सांस्कृतिक सत्ता के प्रति आस्था रखी जा सकती है? नारी के मान-सम्मान, मर्यादा-महत्व का गायन-भाषण हिन्दू धर्म में पुराकाल से किया जाता रहा है। लेकिन एक-डेढ़ दशक की स्वाधीनता में लोकतन्त्र से आविर्भूत संस्कृति ने भारत देश की नारी को इतना महत्वपूर्ण बना दिया कि श्रीमती और लुलू के जीवन के अभाव और भूख की भट्ठी में घर-परिवार, हँसी-खुशी, प्रेम-प्रतिष्ठा के सपने जलने लगे और वे इस निर्णय की ओर बढ़ चलीं कि स्त्री देहऔर स्त्री मनकी स्वामिनी होकर कोई स्त्री गरीब नहीं रह सकती है, लुलू इस निष्कर्ष पर पहुँचती है कि यदि समाज न चाहे तो वह अपना कौमार्य और अपनी नैतिकता लाख दृढ़ता के बावजूद सुरक्षित नहीं रख सकती है (अग्निस्नान)।
अन्नऔर स्त्री देहकी खरीद-फरोख्त या अपहरण की यह दशा हिन्दी और मैथिली की सभी विधाओं की रचना में राजकमल के यहाँ इसी तीक्ष्णता से वर्णित है। वैसे मैथिली और हिन्दी की रचनाओं में स्थितियों का थोड़ा-सा अन्तर इस प्रकार है कि जहाँ मैथिली कविता की नारियाँ रसोई घर की लक्ष्मण-रेखा के भीतर धुआँ और अन्धकार में घुटती रहती हैं, प्राणरक्षा हेतु शील, अथवा शील-रक्षा हेतु प्राण दाँव पर लगाए रखती हैं, मन का समर्थन नहीं रहने पर भी प्राण-रक्षा के लिए शील-बिक्री अथवा शीलदान करती हुई चीख उठती हैं; वहीं, इनकी हिन्दी कविता की नारियाँ आँगन-घर, हाट-बाजार, क्लब-सोसाइटी, बार-हाउस...हर जगह जाती हैं, ठसक और आत्मविश्वास के साथ जाती हैं। उन्हें आत्मशक्ति और जिम्मेवारियों की पूर्ति के लिए पैसे चाहिए, पैसे के लिए नौकरी, नौकरी की रक्षा के लिए बाॅस की कृपा, जवान स्त्री की देह, मन और ताजगी, समाज में निष्कलुष बने रहने के लिए कन्ट्रासेप्टिव्स गोलियाँ चाहिए। जिन्दगी और जिम्मेवारियों के चक्र को इतने कम समय में इतने तिकड़मों से खींचने के लिए तैयार होने में भारत की नारियों को जिस मानसिक यातना से गुजरना पड़ा होगा, उसकी कल्पना कौन कर सकता है! जिस लड़की को
नौकरी, फैशन और सिर
सलामत रखने के लिए शान्तिनिकेतनी
बैग में चन्द गोलियाँ, सारीडन की
कान्ट्रासेप्टिव की
--(कंकावती-4)
रखनी पड़ती हैं, ‘जहर की नहींरख पाती है, उसकी जीवन-कथा अथवा कर्म-व्यथा कौन गा सकेगा! जिस देश का बचपन पाँवों में चिथड़े लपेटकर/फैलाए हुए अपने दोनों नन्हें हाथमन्दिरों के सामने भीख माँगे, जिस देश की अनाथ कन्या अपनी जाँघों का कच्चा माँस बेचती हुई’ (मुक्ति के विषय में आसक्ति की एक परिकल्पना) रोती रहे, जिस देश के युवक बहिर्जगत की चिन्ताछोड़करगज-गामिनी कामिनी आगमन-प्रतीक्षा’(मैथिली कविता) करने लगे, जहाँ की भीड़ अब खाने के लिए गेहूँ/और सो जाने के लिए किसी भी गन्दे बिस्तरे के सिवा कोई बात/नहीं कहती हैं(मुक्ति प्रसंग, पृ.7), जहाँ लोकसभा में अन्न-मन्त्री कहते हैं बसते हैं कोई पाँच अरब चूहे/इस देश में’(अर्थात्, या तो भारत देश की जनता को चूहा समझा जा रहा है, अथवा चूहे के कारण गोदाम में अनाज का अभाव होता जा रहा है) उस देश में कविता तो क्या, साधारण बोलचाल में भी रुखाई, तीक्ष्णता और सच की नग्नता आ जानी चाहिए। अकविता आन्दोलन के दौरान हिन्दी में लिखी जाने वाली कविता की जैसी संरचना थी, वस्तुतः उसी की आवश्यकता भी थी और राजकमल चौधरी के साथ उस दौरान अन्य कई समर्थ कवियों ने इस दिशा में पूरी दमदार रचनाएँ कीं।
सन् 1964 में राजकमल की कविताओं का पहला संकलन कंकावतीप्रकाशित हुआ। सन् 1964 में ही लिखी गई इनकी लगभग पनचानवे कविताओं के इस संकलन की मात्र पचास प्रतियाँ ही प्रकाशित हुईं। इस संकलन की भूमिका का नाम कवि नेकंकावती-1964’ रखा और पुराण से लेकर शब्द-कोश तक में उल्लिखित कंकावती के विभिन्न सन्दर्भों की चर्चा करते हुए कहा कि कंकावतीमें ये सारे कोशगत शास्त्र रूप, सन्दर्भ, गुण, अर्थ समग्र रूप में उपस्थित हुए हैं। कंका से विवेकहीन घृणा, आसक्ति, हिंसा, सम्भोग, ईष्र्या, क्षमा, विरति...करते हुए मैंने प्रति क्षण अपने अहं और अस्तित्व को प्रमाणित किया है...इस कृति के अधिकांश अनुभव और प्रभाव आत्मस्वीकृतियाँ(केवल कनफेशन नहीं रिअलिजेशन भी) हैं।इस संकलन की कविताएँ कई मायने में व्याख्येय हैं। भाषा, शिल्प, कथन, शैली, कविताओं की प्रस्तुति, वाक्य संरचना, शब्द संयोजन, वर्णों और पदों के विखण्डन, यति-विराम की प्रयुक्ति, पंक्तियों की नाप-जोख, व्यक्तिपरक एवं पौराणिक-मिथकीय बिम्बों, प्रतीकों के नए प्रयोग आदि के कारण यह संकलन हिन्दी कविता में नए अध्याय का समावेशन है। शलभ श्री रामसिंह ने स्पष्ट कहा है कि कंकावती में उसने (राजकमल चौधरी ने) सम्भवतः पहली बार हिन्दी कविता के सामने एक नमूना पेश किया है। कंकावती की रचना नग्न गद्य है(लहर, दिसं-जन.1968, पृ. 55)वाकई कंकावतीकी कविताएँ पद्य और गद्य के चौखटे तोड़कर उद्दाम प्रवाह वाली नदी की तरह बहती हैं और कवि की आत्मस्वीकृतियाँ होने के बावजूद ये समकालीन समाज के कुछ खास हिस्से का सामूहिक सच लगती हैं।
सातवें दशक के प्रारम्भ से ही देश की जो दशा रही थी, सन् 1960 के बाद की कविता में चतुर्दिक व्याप्त उन्हीं स्थितियों का विवरण तो होना था। रिजर्व बैंक की दस मंजिला इमारत बनाने के लिए खड़ा किया गया इस्पात का फ्रेम...अकालग्रस्त क्षेत्रों में सरकारी नेताओं के हवाई दौरे, और हवाई भाषण और आकाशवाणी से प्रसारित इन दौरों के विवरण,...फुटपाथ पर कतारों में सोए हुए भिखारी, मजदूर और कुत्तों...दैनिक समाचार पत्र जिनमें अब लूटपाट, हत्याओं, राजनीतिक दलबन्दियों, रेल दुर्घटनाओं और दंगे फसादों के सिवा किसी और बात की सूचना नहीं...जैसी स्थिति देखकर कवि राजकमल चौधरी को अपनी मजबूरी बतानी पड़ी थी कि नई शब्दावली और नए शिल्प के काल्पनिक सत्यों और बीते हुए मूल्यों की कविता प्रस्तुत करूँ---मुझसे यह नहीं हुआ। अपने पूर्वकालीनों को दुहराते रहना भी सम्भव नहीं है।...क्योंकि मुझे मालूम है गंगा नदी में चन्द्रमा नहीं तैरता, केवल अवैध गाँजा, अवैध चावल, अवैध अफीम और अवैध गेहूँ ढोने वाली नावें तैरती हैं(साठोत्तारी पीढ़ी का घोषणा-पत्र, लहर: फरवरी-1968)
वस्तुतः रचनाकारों की अभिव्यक्ति को समाज और सामाजिक हरकतें बहुत प्रभावित करती हैं। यह सही-सही निर्धारित करना जटिल काम है कि रचनाकार स्वभाव से उग्र होते हैं या शान्त। पर इतना बताना सहज है कि वह जनहित में जितना मुग्ध और शान्त रहता है, जनाहित की स्थिति आने पर उतना ही उग्र होता है। घटनाविहीन क्षेत्र में आज तक कोई गतिशील साहित्य पनपा हो, ऐसा दिखता नहीं। निष्क्रिय क्षेत्र के साहित्य में शान्ति और एकरसता छाई रहती है। आजादी के बाद के डेढ़ दशक में भारत में न केवल घटनाओं की बहुलता देखी गई, बल्कि सामान्य नागरिक के जीवन-क्रम पर उसका असर भी हृदय विदारक हो उठा। राजकमल चौधरी ने उस दारुण दशा वाले समाज के जीवन के सहयात्री के रूप में घोषणा की कि मैं तटस्थ नहीं हूँ, और न कोई तमाशबीन हूँ। मैं संजय नहीं हूँ, और न धृतराष्ट्र। मैं अपने बाहर और अपने अन्दर महाभारत युद्ध में शामिल हूँ। युद्धरत हूँ, तटस्थ होना मेरे लिए नपुंसक होना है। और मैं जानता हूँ, नपुंसक होकर मनुष्य और उसका कवि, उसका सृष्टा दोनों मर जाते हैं। मुझे मृत्यु नहीं चाहिए(मेरी कविता/लहर, फरवरी-1968, पृ.48)कविता को अपना जीवन समझना और युद्धरत रहना जिस कवि ने अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया हो, जो कवि, नागरिक के सामूहिक जीवन क्रम को निजी जीवन की तरह भोगे, उसकी कविता में, उसके सम्पूर्ण सृजन में विकृतियों, विसंगतियों से परिपूर्ण डेढ़ दशक की आजादी का चेहरा वैसा ही उतरना था, जैसा राजकमल चौधरी के यहाँ उतरा है।
दरअसल जब से कविता छन्दों के बन्धन से बाहर आई, वहाँ शब्दों का महत्त्व अत्यधिक बढ़ गया। शब्दों की सघनता, औचित्य, व्यंजना, अर्थवत्ता में ही कविता की काया और आत्मा निदर्शित होने लगी। कंकावतीकी कविताओं को कवि ने जिस तरह प्रस्तुत किया है---दोनों तरफ पर्याप्त हाशिया छोड़ा जाना, शब्दों के अक्षर का टूटकर अगली पंक्ति में चला जाना, पंक्ति के बीच में गद्य की तरह विराम चिह्न होना, एक के बाद एक कविता का बड़े अक्षर और छोटे अक्षर में होना...ये सब मात्र एक शैली नहीं है, इस शैली के सहारे कवि, समाज और सामाजिक व्यवस्था और नागरिक जीवन के बारे में बिना कुछ कहे बहुत कुछ कह रहे हैं। शब्दों से अक्षरों का इस तरह टूटना कि उसे जोड़कर पढ़ने और अर्थ लगाने के लिए पाठकों को मशक्कत करनी पड़े, मानव जीवन के टूटन को द्योतित करता है, कि मनुष्य भले ही टूट जाए, उसका अस्त्तिव भले ही खण्डित हो जाए, पर मनुष्य के लिए निर्मित व्यवस्था(?) का पाखण्ड अक्षुण्ण रहे, उसकी अस्मिता बनी रहे; व्यवस्था के आस-पास, हाशिये में शान्ति छाई रहे, वहाँ किसी तरह की भीड़-भाड़ न हो; अक्षरों के आकार और रंग के भेद-भाव के बावजूद पंक्ति की लम्बाई अनुशासित रहे। अर्थात् साठ के बाद की कविता में राजकमल चौधरी ने यह भी एक नया अध्याय जोड़ा कि शैली के माध्यम से भी कवि बहुत कुछ कह सकता है।
सन् 1965 में राजकमल चौधरी ने दास कवितालिखनी शुरू की थी। कई पृष्ठों की इस लम्बी कविता का काफी हिस्सा लिखा जा चुका था, किसी कारण से वह न तो पूरा हो सका और न ही वह कहीं छप सका। सन् 1988 में यह महत्त्वपूर्ण धरोहर इस अकालवेला मेंसंकलन में प्रकाशित हुई, संकलक श्री सुरेश शर्मा को यह कविता राजकमल के करीबी मित्र एवं हिन्दी के प्रसिद्ध कवि श्री राजेन्द्र प्रसाद सिंह से प्राप्त हुई थी। इनकी सर्वप्रसिद्ध कविता मुक्ति प्रसंग’ 15 अगस्त 1966 को प्रकाशित हुई। इसके प्रकाशन के बाद एक वर्ष भी ये जिन्दा नहीं रह सके। काश! दास कवितापूरी हुई होती। यूँ तो अकाल-मृत्यु के कारण राजकमल चौधरी की कई रचनाएँ पूरी नहीं हो पाईं, पर दास कविताकी अपूर्णता खटकने लायक है। मेरी समझ से यह कहना ज्यादा समीचीन होगा कि दास कवितामुक्ति प्रसंग का ही पूर्वांश है। इन दोनों कविताओं को एक साथ मिलाकर देखने पर पता चलता है कि जहाँ दास कवितामें दारुण अतीत के प्रति, भयानक और वीभत्स वर्तमान के प्रति स्वीकार भाव है, और तन-मन-प्राण पर उसके बोझिल जंजाल का दबाव है, वहीं मुक्ति-प्रसंगमें तमाम विसंगतियों और विकृतियों से मुक्ति की कामना मौजूद है। दास कवितामें जहाँ पानी को मथ कर घी निकालती इस व्यवस्था में हम/धर्मादर्श और कानून-नियम बनाने वालों के/दासों के--दासों के--दासानुदास हैं’, कवि घोषणा करते हैं कि
इन्कलाबी साथियो! तुम्हारे साथ मैं दास हूँ--
सत्ता और समाज के बीच घोषित-अघोषित शर्तनामों का दास
मैं अगर हूँ उस शर्तनामे का दास
अपनी रोटी, शराब, सिगरेट, पतलनू, हँसी और कोठरी और कलम के लिए
तो तुम भी मेरी तरह, महज देशवासी की तरह, जीने और राजनीति करने के लिए
उसी शर्तनामे की सत्ता, व्यवस्था, गुंजाइश, छोटी-बड़ी सुविधा के दास हो!
अगली दुनिया के अन्वेषको!
हमारी दुनिया तो यही है--
प्रभुता से नियन्त्रित, दासता से अभिशप्त, बर्वर अमानवीय ताकतों से अनुशासित
अनियामक जनता की दुनिया, इसे तोड़ो--
वहीं मुक्ति प्रसंगमें घोषणा करते हैं कि
अपनी देह-सीमाओं के विषय में ईश्वर के प्रति
एक ही प्रार्थना हो सकती है आधुनिक मनुष्य की व्यक्तिगत प्रार्थना
अपनी मुक्ति के लिए--
संगठन और संस्थाओं के विरुद्ध हो जाना अर्थात् शासन-तन्त्र और सेनाओं के
विरुद्ध हो जाना अपनी इकाई बचाने के लिए एक ही प्रार्थना
वास्तविक जीवन और कविता में...
शामिल होने, स्वीकार करने और मुक्ति पाने की इन्हीं तीन क्रियाओं से राजकमल चौधरी की काव्य यात्रा भरी पड़ी है; तमाशबीन होने, संजय-धृतराष्ट्र होने की स्थिति इन्हें स्वीकार्य नहीं रही; जीना, जीने की मजबूरियों को समझना और मजबूरियों की त्रासदी से मुक्ति पाना ही इनका मूल लक्ष्य रहा। यह दुखद है कि साहित्य और सामाजिक सरोकारों से निष्ठापूर्वक जुड़े इस महान रचनाकार का लाभ साहित्य और साहित्यानुरागियों को ज्यादा दिन नहीं मिल पाया। विपुल संख्या में लिखी गई इनकी कविताएँ, जिनमें से आज भी ढेर सारी अप्रकाशित ही हैं; कालदर्शी दिख रही हैं।
राजनीतिक दृष्टिकोण और भूमण्डल की समस्याओं का बोध इनका इतना दुरुस्त और स्पष्ट था कि उसके चित्रण में इन्हें कहीं कोई असुविधा नहीं हुई। सब कुछ बुझ गए अचानक पन्द्रह अगस्त की/पहली रात के बाद/अब राख ही राख बच गया है पीला मवादऔर क्यों एक ही युद्ध मेरी कमर की हड्डियों में और कभी/वियतनाम मेंजैसी पंक्तियों में शारीरिक व्याधि और राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय संकट को कवि समतुल्य वेदना की तरह यदि झेल रहा है, तो यह कवि के सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण की सूक्ष्मता और परिवेश के प्रति जागृति का ही परिचायक है। लम्बी बीमारी के दौरान रोग शय्या पर बैठकर निर्बन्ध और निद्र्वन्द्व साहस के साथ लिखी गई लम्बी कविता मुक्ति प्रसंगमें कवि ने लगभग दो दशक की आजादी के दौरान भारत देश में आई व्याधियों को व्यक्त करने हेतु इतिहास, पुराण, मिथक, यथार्थ, विश्व घटना-चक्र आदि के सहारे गढ़े हुए बिम्बों का और निजी बीमारी का उपयोग किया है। कवि को स्वाधीनता पानी और अनाज के देवताओं से भीख माँगतीदिखती है, ‘नंगीऔर खून से लथपथदिखती है, अपने खुले हुए पेट की बीमारियाँ, मवाद, दुर्गन्धियाँ, देश की व्यवस्था में व्याप्त व्याधियों और विकृतियों जैसी लगती हैं, और कवि इन तमाम व्याधियों से मुक्ति चाहता है, मुक्ति शारीरिक व्याधि से और राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय व्याधि से। विज्ञान-तन्त्र, अर्थ-तन्त्र और राजनीति-तन्त्र जैसी प्रभु सत्ता के कारण देश और देश की आजादी जिन आपदाओं के बीच अटक गई, उस सत्ता से संघर्षरत और युद्धरत होना तथा निरर्थक वर्जनाओं और थोपी गई व्याधियों से मुक्ति पाना मात्र ही राजकमल चौधरी का काम्य रहा, शरीर के लिए भी और देश के लिए भी।
कुल मिलाकर ऐसा परिलक्षित होता है कि इनकी पूरी सृजन-यात्रा इस एक ही विषय बोध के आस-पास नाना तरह से पूरी हुई है। हाँ, यह बात जरूर है कि उस विषय का आयाम इतना विस्तृत है, कि उनमें सारे के सारे परिदृश्य समा जाते हैं। शब्द-प्रयोग में तो इन्हें महारत हासिल थी, शब्द-ब्रह्मा की तरह अपनी कथन-शैली और वाक्य-प्रयोग में नए-नए अर्थ भरकर कविता को जीवन्त, प्रभावी और विराट व्यंजना से परिपूर्ण किया है। देश की व्याधियों और आँकड़ों के ऑडिट रिपोर्ट’ (कंकावती) में सात हजार वर्षों के इतिहास को खींचकर एक व्यक्ति और व्यक्ति के परिवार तक, और फिर उसे खींचकर तीन सौ करोड़ दीवारों और परिवारों तक ले जाने की चमत्कारिक कला और फिर उसमें देश, समाज, परिवार, व्यक्ति के बल-वैभव-बुद्धि- मन-मूल्य के खण्डन के दृश्य उद्धरणीय हैं। केवल एक कविता ही नहीं, राजकमल चौधरी के पूरे रचना-संसार पर नजर डालने से यह बात सामने आती है कि ऑडिट रिपोर्टकेवल रुपयों अथवा अंकों के आँकड़े ही नहीं होते। यदि कायदे से गिना जाए तो इस देश दुनिया में ऐसी हजारों-लाखों हरकतें होती हैं, जो नहीं होनी चाहिए और अगर हो गई, तो उन्हें कहीं दर्ज होनी चाहिए। सरकारी-गैरसरकारी खातों की आॅडिट-रिपोर्ट के आँकड़े गढ़े जाते हैं। व्यवस्था और सत्ता के कर्णधारों के हाथों में पावर है, जो करें, और जिसे दर्ज करें, वही वैध आँकड़े होंगे। पर साहित्य में आॅडिट-रिपोर्ट वैसी नहीं होती। सरकारी खाते के ऑडिटरों की तरह यहाँ आँकड़े गढ़े नहीं जाते, दर्ज किए जाते हैं। राजकमल चौधरी का साहित्य चूँकि समाज और सत्ता की हरकतों और मनोवृत्तियों का ऐसा ही ऑडिट करता है। और ठीक इसके पलट मुक्ति प्रसंगमें वैयक्तिक व्याधि को खींचकर राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय घटना-कुघटना तक पहुँचाया है। सृजनात्मकता का इतना विशाल फैलाव किसी विराट दृष्टि और विराट हृदय वाले रचनाकार के यहाँ ही सम्भव है। भाषिक विशेषता, शब्द-प्रयोग, शिल्प की मौलिकता एवं नवता, प्रतीक नियोजन, अनुकरणात्मक ध्वनि-प्रयोग, अलंकारों की छटा--आदि से कंकावतीकी कविताएँ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बन पड़ी हैं और अपने समय की लगभग कविताओं पर भारी पड़ती हैं। वाकई ऐसा लगता है कि टेलीग्राम की भाषा में देश-समाज की स्थिति-परिस्थिति पर दी गई गम्भीर टिप्पणियों का यह संकलन हो। शब्दों की कलाबाजी का जादुई असर, और शब्दों के सहारे चमत्कारिक बिम्ब-प्रतीकों का सृजन, इनकी कविताओं में पाठकों को जादू-नगर में बाँधे रहता है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे कोई बाजीगर, शब्दों का जीवन-प्रसूत खेल दिखा रहा हो, पुराने और परिचित शब्दों से नए अर्थों का नया परिचय करा रहा हो, शब्दों का पुराना और स्थापित अर्थ अक्षम-सा किनारे बैठा पश्चाताप कर रहा हो। बन्ध्या ऋतु, नपुंसक सूचनाएँ, आदमकद घड़ी, राजनीतिक वेश्याओं, सामुद्रिक स्वाद, प्रज्वलित श्मशान, हिमखण्ड आपरेशन टेबल, नकाबपोश नकली ईश्वर, अपाहिज बेशर्म आवाज, घायल खरगोश, प्रदग्ध क्षण, बीमार जलन, भूख से अधमरा साँप, काली बदसूरत गर्भहीन धरती, हतवीर्य पुरुष, टूटे हुए पुल...आदि पदबन्धों में शब्दों को जो नया अर्थ मिला है, उससे बने हुए बिम्बों से दृश्यों को ज्यादा प्रभावी बनाने का कौशल, राजकमल की कविता की खास विशेेषता है।
प्रथम पुरुष एक वचन का सर्वनाम मैंज्यादातर समय में इनकी कविताओं में प्रतीक अर्थों में आता है और वह, लोकतन्त्र की तानाशाही का विकराल बोझ वहन करता हुआ, दायित्व का निर्वाह करता हुआ भारत का नागरिक होता है, जो कई बार अपनी विकल स्थिति देखकर घबरा भी जाता है, और असमंजस की स्थिति में भी आ जाता है। कई बार उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक आदि में यह असमंजस इस तरह व्यक्त होता है:
जहरीले मवाद और रक्तमिश्रित पेशाब
की गन्ध से अर्थात् लोकतन्त्र से
और राशन कार्डों से
मैं अपने बच्चों और विधवाओं को कैसे मुक्ति दे आऊँ
--(एक अभिशप्त निराकार)
कुल मिलाकर राजकमल चौधरी की पूरी कविता-धारा देश की लोकतान्त्रिाक पद्धतियों की विकृतियों का अलबम है। शासन और सत्ता द्वारा गणराज्य और समाजवाद की जितनी भी दुहाई दी गई हो, पर राजकमल ने इस व्यवस्था को जहरीले मवाद, रक्त-मिश्रित पेशाब और दुर्गन्धियों से सना ही देखा है।
राजकमल के करीबी मित्रों और रिश्तेदारों से सुने हुए संस्मरणों के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि वे परम स्वाभिमानी, ईमानदार, उदार और साहित्य सृजन में अनुभूति की मौलिकता के पक्षधर थे, इसीलिए कठोर सच बोलते-लिखते थे और अश्लील तथा उद्दण्ड कह दिए जाते थे। कभी कोई खेमेबाजी अथवा आत्म-विज्ञापन के धन्धे में संलग्न नहीं हुए, इसलिए पक्षधर नहीं बना पाए। जिन बेईमानों की बखिया उधेरी, उनकी गालियों के हकदार हो गए। पर, एक बात साफ है कि सन् 1960 के बाद राजकमल चौधरी जिस रूप में हमारे समक्ष थे, वह इस तीक्ष्ण रचनाधर्मिता के बावजूद एक बनते हुए राजकमल का रूप था। सन् 1966-67 में ही उन्होंने कई घोषणाओं के साथ एक घोषणा यह की कि मैं, राजकमल चौधरी, अपनी तरफ से जनता के पास वापस चले आने का वादा करता हूँ--मेरी सही यात्रा वहीं से शुरू होगी।दूसरी घोषणा थी कि अब तक (25 जनवरी, 1967) उन्होंने अपनी भाषा और अपना वक्तव्य तय करने के सिवा और कुछ तय नहीं किया है। यह निर्णय लेने में उन्नीस सौ पचपन से उन्नीस सौ पैंसठ तक के दस साल बीत गए हैं। पैंसठ और छियासठ--ये दो साल बीमार होने और बीमार होकर अच्छा होने में।और तीसरी घोषणा मैथिली में थी कि मुझे दुख है कि कविता मेरी कच्ची ही रह गई/इस ईंधन से उठ कहाँ पाई ज्वाला!’--ये तीनों वक्तव्य करीब-करीब एक ही अन्तराल के हैं, जो यह संकेत देते हैं कि अब उनकी सही यात्रा शुरू होने वाली थी और अपने जीवन का श्रेष्ठतर अभी तक वे लिख नहीं पाए थे। गत शताब्दी का अन्तिम चरण तो और भी दुसह बीता, राजकमल चौधरी तो मात्र सन् 1967 तक की स्थितियाँ देखकर इतने खिन्न थे, आगे का समय देखा होता, तब तो और कुछ होता। पर खैर......
इससे अलग बात मेरी राय में यह भी है कि राजकमल के यहाँ विचार और रचनाशीलता के विकास-क्रम और कविता के तेवर को देखने पर, सन् 1950 से लेकर 1967 तक की यात्रा में कोई पलड़ा बदलने जैसी बातें नहीं दिखतीं। ऐसा लगता है कि इन्होंने एकबारगी अपने को पूरी तरह रगड़-माँजकर ही सृजन के मैदान में उतारा था। सन् 1950-55 तक की कुछ कविताओं में थोड़ा वयसोचित उन्माद और रसिकता कहीं-कहीं है। पर वह है भी, तो क्या बुरा है? सारी दुख-दुविधाओं के बीच मनुष्य आहार-निद्रा-मैथुन से कभी मुक्त कहाँ हो पाता है? और जब नहीं हो पाता है, खुश होता ही है, हँस लेता ही है, यौवनोन्माद में किसी कामिनी को देखकर थोड़ी नजरें नचा ही लेता है, तो कविता में उसका चित्रण क्यों न हो! कम से कम राजकमल इतने बेईमान नहीं थे कि वे अपने पाखण्डी समकालीनों की तरह सोचते कुछ और, लिखते कुछ और।
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रचनाओं और रचनाकारों के मूल्यांकन में अराजक स्थिति भारत की सभी भाषाओं में है, पर हिन्दी और मैथिली साहित्य में कुछ ज्यादा ही है। स्वातन्त्र्योत्तर काल में तो हिन्दी साहित्य का परिदृश्य भारतीय राजनीति से भी अधिक विकृत हो गया। राजनीतिक पार्टियों की तर्ज पर, या कहीं उससे भी अधिक घिनौनी हरकतों के साथ आत्मस्थापन और परनिन्दा, हिन्दी साहित्य में धड़ल्ले से होने लगी। राजनीतिज्ञों को यदि देश की अस्मिता से कोई मतलब नहीं रह गया, तो साहित्यकारों को सृजन के मूल लक्ष्य से। भाषा और साहित्य के बजाय स्वयं को ही शीर्ष पर पहुँचाने के पीछे लोग जुट गए और राजनीतिज्ञों की तरह गुटबाजी करने में तल्लीन हो गए। इस गुटबाजी के रास्ते सफल होने के लिए भी प्रतिभावान और निष्ठावान रचनाकारों की उपेक्षा, निन्दा और दुष्प्रचार के माध्यम से उन्हें बदनाम करना आवश्यक था। हिन्दी में नई कविता और नई कहानी का जो दौर चला, उसमें कई लोग इस धन्धे में जुट गए, उनके नामों की सूची यहाँ प्रासंगिक नहीं है, राजकमल चौधरी ने अपने कई लेखों में ऐसे कई समकालीनों को सरेआम नंगा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यूँ तो आज स्थिति ऐसी हो ही गई है कि ऐसे लोगों को नंगा करके भी इनका कुछ नहीं बिगाड़ा नहीं जा सकता, क्योंकि एकः लज्जः परित्यज्येत सर्वत्र विजयी भवेत।सृजन की मौलिक निष्ठा से छिन्नमूल ज्यादातर लेखक आज पुरस्कार, मान्यता, पद, सरकारी- गैरसरकारी संगठनों के अध्यक्ष/सचिव, किसी शासी निकाय के निदेशक, राज्य सभा/ विधान सभा के सदस्य आदि की कुर्सी हथियाने में मशगूल हैं। जिन लेखकों की आँखों का पानी इतना मर जाए कि वे सारी जनविरोधी हरकतों का सरगना बनने की अफरा-तफरी में अपना मूल कर्तव्य भूल जाएँ, उनसे यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि वे कभी सामान्य जन के करीब आएँगे और उनके हित में, उनके लिए, उनका साहित्य लिखेंगे! पर वस्तुस्थिति यह है कि आज साहित्य में वे ही लोग लगातार अपनी हैसियत बनाए हुए हैं। राजकमल चौधरी जैसे कुछ जेनुइन लेखक हर समय में होते हैं। इसलिए कुछ आज भी हैं, कुछ पहले भी थे और कुछ बाद में भी रहेंगे।
बहुत प्रयास करने के बावजूद उक्त धन्धेबाजी की हरकतें राजकमल चौधरी को विस्थापित और अप्रासंगिक नहीं कर पाई, तो उसका एकमात्र कारण यही है कि उन्होंने कभी अपने लक्ष्य के साथ चालाकी नहीं की। लिखने का उद्देश्य आत्मस्थापन या आत्मविज्ञापन नहीं बनाया। लेखन का वास्तविक लक्ष्य जनता के दुःख-दर्दों का सहभागी होना और उसके बुनियादी स्वरूप से आम जनमानस को परिचित कराना समझा। देहावसान के बयालीस बरस बाद भी राजकमल चौधरी आज सामान्य पाठकों के चहेते लेखक बने हुए हैं, धन्धेबाज लेखकों के झाँसे में कोई पाठक अथवा प्रकाशक नहीं आए, तो उसका मूल कारण लेखकीय निष्ठा ही है। आँकड़े से देखें, तो उनके देहावसान के बाद हिन्दी ही क्या, भारतीय भाषाओं के किसी भी साहित्य में प्रेमचन्द के अलावा कोई ऐसा लेखक नहीं है, जिन पर राजकमल चौधरी से ज्यादा पत्रिकाओं में विशेषांक छपे हों। पर उनमें थोड़े से ही लेख हैं, जो इनके साहित्य पर केंद्रित हैं। ये लेख भी उन ईमानदार रचनाधर्मियों द्वारा लिखे गए हैं, जो उस दौर के महत्वपूर्ण रचनाकार रहे हैं और समकालीन पत्र-पत्रिकाओं में छपे राजकमल की तीक्ष्ण और तीव्रतम रचनाधर्मिता से परिचित रहे हैं। जो अधिकांश लेख उनके व्यक्तित्‍व को लेकर लिखे गए, उनमें से ज्यादातर उन प्रतिभाहीन लोगों द्वारा लिखे गए हैं, जो कहीं राजकमल के आसपास खड़े हो पाने की स्थिति में नहीं थे, उनसे आतंकित थे, गुटबाजी के बल पर साहित्यिक धन्धा करते थे और अपना प्रभुत्व बनाए रखना चाहते थे, साहित्य के पवित्र सरोवर को गन्दा कर अपने अनुकूल बनाना चाहते हैं, जैसे इन दिनों कुछ शिक्षित(?) बेरोजगार अपना प्रभुत्व बनाए रखने के लिए गाँव की आत्मा को खोखला कर रहे हैं। ऐसे लेखकों ने राजकमल के व्यक्तित्‍व पर ऐसी-ऐसी वाहियात बातें लिखीं, जिनका साहित्यकार अथवा साहित्य के मूल्यांकन से कोई सरोकार नहीं था। इन पाखण्डियों की तत्कालीन हरकतों के लिए तो इन्हें माफी दी भी जा सकती थी, क्योंकि इनके पास उस समय एक जायज बहाना था। वह यह कि एक-दो उपन्यास और मुक्ति प्रसंग, कंकावती जैसी कठिनता से उपलब्ध पुस्तकों के बल पर ये उनकी साहित्यिक समालोचना कैसे करते, साहित्य लिखने के लिए जिस उद्यम की आवश्यकता होती है, वह इनकी फितरत में शामिल नहीं था। पर मजे की बात ये है कि आज, जब राजकमल चौधरी की हिन्दी-मैथिली की बारह आने से अधिक रचनाएँ संकलित होकर बाजार में आ चुकी हैं और सहजता से उपलब्ध हैं, तब भी इन धन्धेबाजों को साहित्यिक समालोचना की स्पृहा नहीं जगती। यहाँ तक कि अब ये निन्दा भी नहीं करते, क्योंकि निन्दा करेंगे तो पकड़े जाएँगे, बेहतर है कि चुप रहो।ऐसे डरपोक रहनुमाओं के बूते पर भारतीय साहित्य की क्या दशा होगी, अकल्पनीय है। बीते दशकों में भिन्न-भिन्न प्रकाशकों के लिए और विभिन्न पाठ्यक्रमों के लिए जब इन पाखण्डियों ने कथा संकलन, कविता संकलन, समीक्षा संकलन आदि तैयार किया, तो उनमें भी राजकमल चौधरी को शरीक करने से सायास बचते रहे, क्योंकि उनकी रचना ले ली जाती, तो ये बौने हो जाते। किसी-किसी इक्के-दुक्के संकलन में यदि कहीं राजकमल की रचनाएँ शामिल की भी गई हैं, तो या तो उसके संकलक कनिष्ठ पीढ़ी के बहुत सचर व्यक्ति हैं, या उनके समकालीनों ने अपमान भाव से उन्हें जगह दी है। पर जिन कुछ लेखों में राजकमल के व्यक्तित्‍व को ईमानदारी से रेखांकित किया गया है, उनमें ज्यादातर लोगों ने साहित्यिक धन्धे में नहीं रहने के बावजूद उन पर ज्यादा साहित्यिक टिप्पणी की है। इन ईमानदार समीक्षकों में कुछ बड़े रचनाकार भी हैं, यह बात गौरव से कही जानी चाहिए।
ऐसे षड्यन्त्राकारियों के बीच जीवन जीते हुए साहित्य सृजन करते हुए, जब 19 जून, 1967 को राजकमल चौधरी परलोक चले गए, तब जाहिर है कि अत्याचार का शिकार होने के लिए मात्र राजकमल की रचनाएँ ही रह गईं। जब साहित्य में धन्धा ही प्रमुख हो गया, तो पत्रिकाओं में बिखरी रचनाओं को सहेजकर, एकत्र कर, कौन प्रकाशित करवाता? वैसे मछली मरी हुईऔर नदी बहती थीउपन्यास कभी भी बाजार से गायब नहीं हुआ। ताश के पत्तों का शहरउपन्यास सन् 1986 में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुआ और सुरेश शर्मा द्वारा सम्पादित कविता संग्रह इस अकालबेला मेंसन् 1988 में प्रकाशित हुआ। हाँ, ज्यादातर कहानियाँ और निबन्ध असंकलित अवश्य थे। पर आज तो इनके साहित्य पर विचार करने हेतु पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है।
13 दिसम्बर 1929 को अपने ननिहाल, रामपुर हवेली, जिला सहर्षा (जो अब मधेपुरा जिला में है), बिहार में राजकमल चौधरी का जन्म हुआ। पितृग्राम महिषी(सहरसा, बिहार) है। प्रकाशित कविताआंे के आँकड़े से तथ्य सामने आता है कि सन् 1956 से लेकर 1967 (मृत्युपर्यन्त) तक का काल इनकी रचनाशीलता का काल है, पर अप्रकाशित कविताओं की दो डायरियों (जो अब विचित्राकविता संग्रह के नाम से प्रकाशित है) से यह सूचना मिलती है कि सन् 1950-51 से ही इन्होंने अबाध गति से हिन्दी में कविताएँ लिखीं। और, उन कविताओं के तेवर से यह भी निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि काव्य लेखन का इनका अभ्यास काल 1950 से पूर्व का ही था। कुल मिलाकर साढे़ सैंतीस वर्ष की जिन्दगी इन्हें नसीब हुई, जिसका प्रारम्भिक बीस वर्ष तो होश सम्हालने, मैथिल जाति की पारम्परिक रूढ़ियों से टक्कर लेने और उससे मुक्त होने में बीते, और अन्तिम दो बरस नाना तरह की व्याधियों से संघर्ष करते हुए जीवन से मुक्त होने में। इसी बीमारी के दिनों में, शारीरिक व्याधियों, कामनाओं से खुद को मुक्त करने और देश-विदेश एवं आम जनपद पर छाई समस्याओं, व्याधियों, विकृतियों के महाधुन्ध से उन्हें मुक्त करने की चिन्ता और चिन्तन के क्रम में फरवरी-जुलाई 1966 के बीच राजेन्द्र सर्जिकल वार्ड, पटना अस्पताल में मुक्ति प्रसंगशीर्षक लम्बी कविता लिखी गई।
मुक्ति प्रसंगऔर कंकावतीके प्रति उन्हें कुछ ज्यादा ही आस्था थी। कवि सौमित्र मोहन को लिखे एक पत्र में इसका प्रमाण मिलता है, ‘कंकावती, एक अनार एक बीमार, मुक्ति प्रसंग--मैंने अब तक यही तीन किताबें लिखी हैं। और जो चार-छह किताबें मैंने छपवाई हैं, उनमें कोई बात नहीं है, जिसका दावा किया जा सके।
इस उद्धरण से एक बार फिर साबित होता है कि राजकमल चौधरी केवल बेगानों के लिए ही निर्मम, तटस्थ, ईमानदार नहीं थे, अपने लिए भी वे उतने ही निर्मम थे।मछली मरी हुईजैसे शानदार और कालजयी उपन्यास तक को जो रचनाकार अपनी श्रेष्ठ कृति न माने, उनका रचनात्मक लक्ष्य क्या था--यह अनुसन्धान का विषय है।
राजकमल चौधरी की रचनाओं में दर्ज समाज के नागरिक का जीवन-संग्राम विचित्र रहा है। मशीन और मशीनीकरण की परिणतियों से आक्रान्त; पश्चिमी देशों, व्यवसायों और संस्कृतियों से प्रभावित-संचालित नव-स्वाधीन भारत के आधुनिक समाज और सभ्यता में साँस भर जिन्दगी, पेट भर अन्न, लिप्सा भर प्यार, लाज भर वस्त्रा, प्राण भर सुरक्षा--अर्थात् तिनका भर अभिलाषा की पूर्ति के लिए मनुष्य धरती के इस छोर से उस छोर तक बेतहाशा भागता और निरन्तर संघर्ष करता रहता है। जीवन और जीवन की इन आदिम आवश्यकताओं--रोटी-सेक्स-सुरक्षा, प्रेम-प्रतिष्ठा-ऐश्वर्य, बल-बुद्धि-पराक्रम के इन्तजाम में जुटा रहता है। इस इन्तजाम में कोई शेर और भेड़िया हो जाता है, जो अपनी उपलब्धि के लिए दूसरों को खा जाता है; और कोई भेड़-बकरा- हिरण-खरगोश हो जाता है, जो शक्तिवानों के लिए आहार और उपकरण भर रह जाता है।...लिहाजा तमाम रचनाओं से--सुखानुभूति, जुगुप्सा और क्रोध--ये तीन परिणतियाँ बार-बार पाठकों के सामने आती हैं। कहा जा सकता है कि राजकमल चौधरी की रचना संसार आधुनिक सभ्यता की विकासमान दानवता के जबरे में निरीह बैठे जनमानस को ललकारने और उसे अपनी उस ताकत की याद दिलाने का गीत है, जिसे व्यवस्था की चकाचैंध रोशनी में या बेतहाशा शोरगुल में जनता भूल गई थी। बेहिसाब तल्ख भाषा के बावजूद जनहित के सारे पहलुओं पर अत्यन्त सावधान आयास है राजकमल की कविताएँ।
घटना और विषय के मुकाबले शब्दइनके यहाँ अधिक महत्वपूर्ण हैं और रचनाओं की, खासकर कविताओं की लयात्मकता में जलतरंग की ध्वनियाँ भरकर सुखानुभूति देते हैं, कहीं सभ्य इनसान की गलीज हरकतों के कारण जुगुप्सा उत्पन्न करते हैं और कहीं देवताओं की दानवी प्रवृति पर ज्वालामुखी फटने-सा क्रोध। अपनी मौलिकता, ताजगी और निजी गुणवत्ता के कारण ये कविताएँ भावकों/पाठकों से बहस करती हैं और उनके अन्दर सत-असत को लड़ाकर, सत् को विजय दिलाती हैं। यही विजय इन कविताओं में शब्दकी विजय होती है। अपने पूरे काव्य सृजन में राजकमल ने जीवनऔर शब्दकी अहम् भूमिका मानी है। व्यावहारिक तौर पर ये दोनों तत्त्व यहाँ पूरी क्षमता के साथ मौजूद हैं। इनकी कविताओं के श्रवण-ग्रहण के समय शब्दों में ध्वनियों की गूँजें जिस तरह आन्दोलित करती हैं और जीवन के बिम्ब जिस तरह मूर्तमान हो उठते हैं---वह भावकों के लिए पुनर्जन्म के समान होता है। अकेले मुक्ति प्रसंगके पाठ से यह बात साबित हो जाती है। किसी भावक अथवा पाठक के लिए इनकी कविताएँ एक अलग अनुभूति लाती हैं, उतनी देर के लिए उस व्यक्ति का अपने से पूरी तरह अलगाव हो जाता है और इसी प्रक्रिया में इनकी रचनाएँ, चाहे उन्हें कविता कहें, नारा कहें, मन्त्रा कहें, उपदेश कहें, आदेश कहें, अनुरोध कहें, जो भी कहें---वे अपने पूरे प्रभाव के साथ पाठक के दिल-दिमाग पर कब्जा करती हैं। उदाहरण और विषद् व्याख्या या समालोचकों के सिद्धान्त-वाक्यों में फिटकर काव्यांशों की योग्यता साबित करने की कोई खास आवश्यकता दिखाई नहीं देती। ये कविताएँ केवल समाज के बारे में ही नहीं, अपने और अपने कवि की प्रतिबद्धता के बारे में भी मौके-बेमौके कहती रहती हैं।

अभी हम जिस बाजार में जी रहे हैं(क्षमा करें, भारत देश के आम नागरिक की जीवन व्यवस्था को मैं एक बाजार कहता हूँ), उसमें मानवीय अस्त्तिवकी सबसे बड़ी सचाई यह है कि मनुष्य जीवन-रक्षा हेतु टुकड़ा भर रोटी, बीता भर कपड़ा और पलक भर प्यार किसी तरह जुटा लेता है। किसी ठाँव-ठौर में इसका उपभोग कर लेता है और अगले पड़ाव के आहार, अर्थात् अन्न-वस्त्रा-प्यार के इन्तजाम में जुट जाता है; शिकारियों द्वारा खोदे गए गड्ढे में गिरे उस हाथी और हाथी के सहयोगियों की तरह, जो जीवन-रक्षा और अपनी आजादी के लिए जी-जान से जुटा रहता है। इस बाजार का दूसरा पक्ष भी है, जहाँ थोड़े से मनुष्य(?) अपनी अस्मिताबनाने-बढ़ाने तथा अपने अहं को निरन्तर सहलाते रहने के क्रम में एक से एक नीच और जघन्य हरकतें करता रहता है; उस साँपिन की तरह, जो अपनी सन्तानों को खा जाती है; उस शेेर की तरह, जो अपनी पुलिंग सन्तान तक को अपने क्षेत्र से खदेड़ देता है या अपनी पुलिंग सन्तान द्वारा खदेड़ दिया जाता है; उस बाज की तरह, जो अपनी जाति (पक्षी) के अन्य प्राणियों का वध दूसरों के लिए करता है। आज के बाजार का अविचल यथार्थ, अस्त्त्वि और अहं के इसी संघर्ष को रेखांकित करता है। हिन्दी और मैथिली के महान रचनाकार राजकमल चौधरी का सम्पूर्ण लेखन अस्त्तिव-रक्षा और अस्मिता निर्मिति में व्यस्त मानव जाति के इसी नानाविध संघर्ष का विवरण है। स्वातन्त्र्योत्तर कालीन भारत की जनता, सत्ता और जनतन्त्र की सारी गुत्थियाँ इनके यहाँ खोली गई हैं।
भारतीय स्वाधीनता के समय में राजकमल चौधरी (13 दिसम्बर 1929) अपनी उम्र के अठारहवें वर्ष में चल रहे थे। स्वाधीनता से पूर्व भारतीय नागरिक ने सुख-सुविधा और सम्बन्ध-बन्ध का जो सपना देखा था, वह अचानक ध्वस्त हो गया था। प्रजातन्त्र का धोखा धीरे-धीरे स्पष्ट होने लगा था। एक-दो वर्ष तो आजादी की खुशी की तल्लीनता और जश्न में निकल गए, पर शीघ्र ही समकालीन बुद्धिजीवियों की समझ में यह बात आने लगी कि आम नागरिक के साथ बहुत बड़ा धोखा हुआ है। अंग्रेजों का शासन तो समाप्त हो गया पर पदस्थापित जन-प्रतिनिधि उनसे भी अधिक क्रूर, कठोर, निर्मम और अत्याचारी हो गए, भूखे शेेर हो गए। जनतन्त्र और साम्यवाद की दुहाई देते रहे और अपने भाग्य विधाता(जनता) को निरन्तर दिग्भ्रमित करते रहे हैं। खुद तो रंक से राजा बन गए और जनता को निरीह, विपन्न, आश्रित बनाए रखने की नीति कायम करते गए हैं।
महत् शक्ति से आस्था टूटने और जनशक्ति के प्रति आश्वस्त होने का बेहतरीन मौका यही था। पर यहाँ सबसे ज्यादा जरूरत थी, अन्न-वस्त्र और कानून-कायदा के उन देवताओं के भाग्यविधाता (जनता) को जगाने की, क्योंकि जनता सो गई थी। देश की आजादी और नई व्यवस्था के नए-नए चेहरों ने उन्हें इतना आश्वस्त कर दिया था कि दुरवस्था की कोई आशंका उनके मन में नहीं थी। आश्वस्त होकर सो रही जनता को जगाने के लिए साधारण आहट की नहीं, कोलाहल की आवश्यकता थी, आवरणविहीन यथार्थ से उन्हें परिचित कराने की आवश्यकता थी। गत शताब्दी के छठे दशक में जो भी साहित्य देश में रचा गया, उसका मूल लक्ष्य यही था।
वस्तुतः किसी महत् शक्ति से आस्था टूटने के बाद उपजे हुए मोहभंग, असन्तोष और क्रोध को साहसिकता का सम्बल मिलने से मनुष्य विद्रोह करता है, पर कायरता की बिस्तर मिलने से वह आक्रोशी भर बनकर रह जाता है। आक्रोश का अगला कदम कुण्ठा है। राजकमल ने भी लिखा है, ‘‘सम्भवतः खण्डित अहं के अलग-अलग टुकड़ों पर जम आई हुई कीचड़-काई ही कुण्ठा बनती है, जो अन्दर की साबुत पत्थर, यानी आदमी के अस्त्तिव को चमकने-निखरने नहीं देती है। जो आदमी को किसी लालसा, किसी देह-अंग, किसी भंगिमा, किसी नंगेपन, किसी भोग किसी मृत और अतीत शारीरिक सम्भावना में हमेशा के लिए, जब आदमी अपनी कुण्ठा से अधिक मजबूत हुआ, तो कुछ अर्से के लिए रोक देती है (नवलेखन के सन्दर्भ में/ लहर, मई-जून 1967)’’ रुक जाना, किसी भी जनविरोधी हरकत को देख लेने के बाद चुप रह जाना, रुका रह जाना ही कुण्ठित होना है, और वह राजकमल चौधरी का काम्य कभी नहीं रहा। विद्रोह इनके स्वभाव में शामिल था।
स्वातन्त्र्योत्तर काल के भारत की दशा तो कुल मिलाकर यह थी कि सत्ता की चमक-दमक में बड़े-बड़े सूरमाओं की आँखे चुँधिआने लगी थीं। तात्कालिक लाभ और चमत्कारिक उन्नति, वैभव-साधन, सुख-सम्पदा की प्राप्ति की लालसा में क्या निरक्षर, क्या साक्षर, क्या उच्च शिक्षा प्राप्त...सब के सब उधर सम्मोहित होने लगे और अन्ध-स्वान की तरह सत्ता की गलियों में भटकने लगे। समाज का व्यवस्था-विखण्डन कुछ इस तरह हुआ कि रूढ़िग्रस्त परम्पराओं का निर्वाह करने वाला एक वर्ग अपने जातीय और मौलिक संस्कार में उलझा रहा, श्रम और श्रमजीवी को हेय समझना उसके अहं का हिस्सा बन चुका था और संचित एवं स्थायी सम्पदाओं को बेचकर खाना-भोगना जीवन-यापन की मजबूरी। रूढ़िग्रस्त जन्मजात संस्कार की वजह से यह वर्ग श्रम एवं श्रमजीवियों के करीब अपने को लाने में हीन समझता था और अक्षमता के कारण ऊपर वाले वर्ग में अपने को समाहित कर नहीं पा रहा था।
इधर राजनेताओं और अफसरों के गिरोह ने बेकारी-बेरोजगारी, भूख-अभाव के सृजन की फैक्ट्री चला दी थी। नागरिक की दशा तो यह थी कि सिर्फ अपनी बीवी/और सिर्फ अपनी दो सौ चालीस की नौकरी/बान्धती थी उसे/अपने नागरिक व्यूह में (कई नागरिक चित्राःपटना)।भारत देश का नागरिक व्यूह इतना नृशंस हो गया था कि वहाँ नागरिक इच्छा-आकांक्षा का कोई मतलब नहीं था। ऐसे में यदि राजकमल चौधरी का पात्र अन्धेरे से ऊबते हुए कहता है कि उजाला मैं भी नहीं माँगता हूँ, माँगने से मिल सकेगा, मुझे विश्वास नहीं...उजाला तो एक स्थिति है, जिसे लाने के लिए अन्धेरे की स्थितियों के खिलाफ जेहाद करना पड़ता है। मुझसे सम्भव नहीं है, यह जेहाद, क्रूसेड, मेरी तलवार की मूँठ टूटी हुई है, मेरे जिरह बख्तर को जंग के कीड़े खा गए हैं(देहगाथा/भूमिका)तो पूरे देश की यह अराजक स्थिति और अभाव-अनाचार के अन्धेरे में भटक रहे दिशाहारा भारतीय नागरिक का जीवन-वृत्त स्पष्ट हो उठता है।
सत्तासीन क्रूर विदेशी को विस्थापित कर गद्दी पर काबिज हुए भारतीयोें की संदिग्ध गतिविधियों और स्वार्थी नीतियों के कारण राजनीतिक पार्टियों की बिगड़ी हुई आन्तरिक दशा, स्वाधीनता-प्राप्ति के थोड़े ही दिनों बाद लोगों की समझ में आने लगी थी। राजनीतिक दलों के अन्तर्संघर्ष, स्वार्थों के टकराव और एक ही संसाधन पर लालायित होकर आक्रमण करने की हरकतों से बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के नेत-नियम संदिग्ध दिखने लगे। जनता समझने लगी कि जनसाधारण के हित की कोई चिन्ता न तो सत्ताधारियों को है, न सत्ता विरोधियों को। यूनियनबाजी से लेकर जुलूस-नारा-आन्दोलन, यहाँ तक कि लाठीचार्ज की हरकत तक में राजनीतिक पार्टियाँ स्वके आस-पास घूम रही हैं। राजकमल चौधरी के उपन्यास के पात्र, अर्थात् देश की जनता की यह राय बन चुकी थी कि ‘‘हर देश की हर राजनीतिक पार्टी...जनसामान्य का फायदा नहीं चाहती है, चाहती है पार्टी का फायदा। पहले पार्टी, पहले पार्टी का हित, पहले पार्टी के उसूल, बाकी सारा कुछ बाद में। जनता का फायदा कोई नहीं चाहता है।...भोजन का सवाल विधान परिषद के सामने जुलूस निकालने और नारे लगाने से हल नहीं होता है। भोजन का सवाल हल होता है अधिक अनाज पैदा करने और अनाज खरीदने की ताकत पैदा करने से। राजनीतिक पार्टियाँ अनाज पैदा करने का आन्दोलन नहीं करती हंै। इस आन्दोलन का उन्हें पता तक नहीं होता है। उनके लिए आन्दोलन का मानी होता हैै खिलाफत और बगावत। सिर्फ खिलाफत, और नारे, और जुलूस, और निहत्थी जनता को पुलिस के हथियारों के सामने खड़ा कर देना (नदी बहती थी/पृ. 127)’’
लेकिन इस सच से परिचित जनता की समझ में यह बात शीघ्र आ गई कि राजनीतिक पार्टी और उसके उसूल भी एक तरह से जनता की भाँति उपभोक्ता सामग्री ही है। इन उपभोक्ताओं के लिए पार्टी के सिद्धान्त और उद्देश्य महत्वपूर्ण नहीं होते, महत्वपूर्ण होते हैं इनका निजी स्वार्थ: अन्त में राजनीति को मैंने अपने जीने का कारण/बनाया था/लेकिन उससे पहले बीमा कम्पनी का/एजेण्ट हुआ करता था/इतना लम्बा है राजनीति का राजमार्ग कि रंगशाला के/अन्तरंग में पहुँच जाने पर/अपने सुख, अपने व्यक्तित्‍व अपने राग-विराग/अपने संगीत के सिवा और कोई बात याद नहीं रह जाती है(कई नागरिक चित्र: पटना)।
और भोली भाली जनता को इन तमाम, स्थितियों की जानकारी साहित्य ने दी थी। गत शताब्दी का छठा दशक इस अर्थ में कम से कम प्रीतिकर था कि देश में शिक्षक, पत्रकार और साहित्यसेवी की आँखों में पानी बचा हुआ था और वे आम नागरिक के दुख दर्दों का सहभोक्ता अपने को मानते थे। अपने हित में कानून को मोड़ लेने वाले भेड़िये, अर्थात् राजनेतागण, कानून को अर्थ देने और लागू करने का तिकड़म रचने वाले खास सलाहकार अफसरगण, और हर अनीति-अत्याचार में लठैत की तरह काम आनेवाला पुलिस वर्ग---पूरी तरह जनविरोधी था, स्वार्थपरक हरकतों में लिप्त था। इस स्थिति में रचनाधर्मियों के ममत्व के कारण ही जनता अपने को थोड़ा-सा रक्षित महसूस करती थी। ऐतिहासिक सच है कि किसी भी आन्दोलन की अगुआई समकालीन बुद्धिजीवी और मध्यमवर्ग ही करता है और छठे दशक के अधिकांश भाग में देश की बुद्धि जनता के पक्ष में थी। परन्तु सातवें दशक के प्रारम्भिक चरण में ही यह स्थिति चरमरा गई। शिक्षक और पत्रकार अपने पथ से च्युत हो गए। यहाँ तक कि साहित्यसेवियों की एक बड़ी संख्या भी कुर्सी के आस-पास मँडराकर मान्यता और पुरस्कार और समृद्धि के तिकड़म में जुट गई। कई साहित्यकारों ने साहित्य-सृजन को सामाजिक कर्म के पथ से डिगा दिया और इसे आत्म स्थापन, आत्मप्रचार, निजहित के लिए काम आने वाला धन्धा बना लिया और राजनेताओं की तरह खेमेबाजी, गुटबाजी शुरू कर दी। इन स्थितियों ने राजकमल चौधरी के विद्राही स्वभाव को थोड़ा और झकझोड़ा। इन्होंने एक-एक कर ऐसे साहित्यकारों की खबर ली।
छठे दशक में राजकमल के कम ही निबन्ध प्रकाश में आए। केवल अन्तिम एक-दो बरस में ही चार-छह निबन्ध प्रकाशित हुए। उक्त दशक में इनका ज्यादा योगदान कविता और कहानी में ही है। पर सातवें दशक में जब रचनाधर्मियों की कुटिल नीति परवान चढ़ती देखी और इन्होंने महसूस किया कि कथा-कविता में की जा रही साहित्यजीवियों की मरम्मत, उन्हें सुधार नहीं पा रही है, तब इन्होंने निबन्धों मंे इनकी हरकतों का उल्लेख करना शुरू किया।
एक सुलझी हुई जीवन-दृष्टि और ठोस विचारधारा वाले ईमानदार लेखक राजकमल चौधरी के समक्ष सन् 1947 से 1967 तक के स्वाधीन भारत का यही स्वरूप रहा। बीस वर्षों के इस अन्तराल की स्थिति भारत देश में यही बनती है कि ‘‘शहर के बीच बड़े मकानों के पीछे सड़ी हुई आँत की तरह फैली हुई बस्ती में टाट और तिनके के बने झांेपड़े होते हैं...गंदगी और बदबू के सिवा, शायद इन बस्तियों में कुछ नहीं होता।...अन्न और नीन्द और लाज ढँकने के लिए फटे पुराने कपड़े और झोंपड़ी के साये के सिवा इन्हें किसी चीज की फिकर नहीं होती। नीन्द इनके लिए सबसे बड़ा मनोरंजन है।...ये लोग अन्न और नीन्द के सिवा किसी चीज से प्यार नहीं करते (जटायु: एक औरत)।’’ या फिर ‘‘सामन्ती युग में औरतें खरीदी जाती थीं। पूँजी और मशीनों के युग में औरतें अपने आपको बेचती हैं। कभी औरत को असूर्यम्पश्या कहा जाता था। अब सर्वपश्या, सर्वत्रदृश्या, उनकी प्रगति सीमा बन गई है(पत्थर के नीचे दबे हुए हाथ)।’’ या ‘‘एक बीमार औरत अपने मजबूत और ईमानदार शौहर के लिए एक मेहनती औरत ले आती है(देवमाला अहिल्या से अहिल्या तक)।’’ या ‘‘सामने के कमरे की दोनों बहिनें अभी तक नहीं लौटी। जिस रात नहीं लौटती उस सुबह बहुत खुश नजर आती हैं(बेबी: अपरार्क सूत्र का भाष्य)।’’ पराधीनता से मुक्ति मिलने के बाद अपने देश के आम नागरिक की, स्त्री जाति की ऐसी शर्मनाक स्थिति जब बन गई, देश में लोकतन्त्र बहाल हो गया और लोकतन्त्र के नए-नए लज्जास्पद परिणाम फलने फूलने लगे; पद, पैसा और परस्त्री को नोच- नोचकर खाते रहने और जश्न मनाने की हरकतों की फसल लहलहाने लगी तो राजकमल चौधरी को कहना पड़ा कि वाकई ‘‘आदमी को तोड़ती नहीं है लोकतान्त्रिाक पद्धतियाँ केवल पेट/के बल उसे झुका देती है/धीरे-धीरे अपाहिज, धीरे-धीरे नपुंसक बना लेने के लिए उसे/शिष्ट राजभक्त, देश-प्रेमी नागरिक बना लेती है’’ और आगे फिर कहा कि ‘‘रण्डियों की काली और अन्धी दुनिया में मसानों में अधजली/लाशों को नोचकर खाते रहना श्रेयस्कर है, जीवित पड़ोसियों/को खा जाने से/हमलोगों को अब शामिल नहीं रहना है/इस धरती से आदमी को हमेशा के लिए/खतम कर देने की साजिश में (मुक्ति प्रसंग)।’’...लोकतान्त्रिाक पद्धति की जिस व्यवस्था में जनपद की यह दुर्दशा हो, जहाँ आदमी को हमेशा के लिए खतम कर देने की साजिश चल रही हो, वहाँ यदि साहित्यकार भी अपनी दुकानदारी में लग जाएँ तो फिर साहित्य की जरूरत क्या रह जाएगी? राजकमल का लेखन साहित्यकारों के जनसरोकार से सम्बद्ध इन्हीं प्रश्नों का जवाब देता है।
इनके कथेतर गद्य लेखन में मुख्य रूप से पत्र, डायरी, पुस्तक-समीक्षा, साहित्यालोचन, संगीत-सिनेमा, नृत्य, चित्रकला आदि से सम्बन्धित शोधपूर्ण, युक्तिसंगत, दृष्टिसम्पन्न विवेचनात्मक लेख, सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों पर चिन्तनपारक निबन्ध, साहित्य की विविध विधाओं को और समय-समय पर उसमें चलाए गए विविध आन्दोलनों को केन्द्र में रखकर लिखे गए आलेख, रचनाकार विशेष और ...ति विशेेष पर केन्द्रित लेख, साहित्य के विविध वादों की मौलिकता और औचित्य की पड़ताल, विदेशी लेखकों और विदेशी रचनाओं के अनुवाद एवं उनकी साहित्यिक भूमिका की चर्चा, पाठकीय प्रतिक्रिया, और कुछ रेडियो रूपक एवं नाटकों को गिना जा सकता है।
साहित्यिक मित्रों, कुछ गैरसाहित्यिक लेकिन आत्मीय मित्रों, कुछ प्रेमिकाओं, कुछ पत्रिका के सम्पादकों को लिखे इनके पत्र और जीवन के एकान्त-अन्तरंग क्षणों में लिखी गई इनकी डायरी ने तो साहित्य में इस उपक्रम के महत्व को उत्कर्ष दे दिया है। अपने पत्रों और डायरियों में ये विषय से नितान्त आत्मिक रहने के बावजूद उसके विवेचन में इतने उदार और ब्राॅड हो गए हैं कि वह एक शानदार साहित्यिक लेखन का संकलन लगता है। सारा कुछ निजी जीवन का आत्मिक भोग होने के बावजूद वहाँ कुछ भी, लेखक का अपना नहीं लगता, सब कुछ सामाजिक और सार्वजनिक लगता है। सौमित्र मोहन के नाम लिखे गए अपने 25 जनवरी 1967 के पत्र में राजकमल लिखते हैं, ‘अब मुक्ति प्रसंग से कुछ आगे बढ़ना चाहता हूँ, अकविता (अथवा कविता) का प्रयत्न मूर्ति (चित्र) और ध्वनि से मुक्ति का प्रयत्न है। जैसे, ‘शुद्धकविता की बात मैं नहीं करता, रामधारी सिंहदिनकरजैसे लोग करते हैं।इसी तरह दिसम्बर 1965 को अपने अन्तरंग मित्र शम्भूनाथ मिश्र को यह पत्र एकदम व्यक्तिगत है। इसे अपने मित्रों को नहीं पढ़ाओगे, तो बेहतर होगा’---इस टिप्पणी के साथ लिखा कि...अपने शरीर से तटस्थ हो चुका हूँ,...यह तटस्थता जीवन में काम देगी...मैं अच्छा आदमी नहीं हूँ, छोटी-छोटी चीजों के लिए मेरे मन में भयानक कमजोरियाँ हैं। मैंने स्वयं वक्त आने पर किसी दूसरे की कोई सहायता नहीं की है। सिर्फ अपना ही स्वार्थ हमेशा मैंने देखा है।...मैं अपने आपको और अपने आन्तरिक समाज को ठगता रहा हूँ, सच कभी नहीं, मैंने सिर्फ झूठ की जिन्दगी बसर की है। इसलिए यह सारी बीमारियाँ मुझे ही होनी चाहिए थी, मुझे ही र्हुइं। यह किसी पापका फल नहीं है मेरे अनुभवों का फल है...।ऐसे पत्रों को मित्रों के साथ राजकमल चौधरी के क्षेम-कुशलों का आदान-प्रदान मात्र या मुख विलास या लेखनी विलास नहीं कहा जाएगा। इन पत्रों मंे विराट अभिव्यक्ति की महान अर्थवत्ता है, एक गम्भीर साहित्य के त्तव हैं और साहित्य तथा जीवन से सम्बन्धित विशिष्ट दार्शनिक पहलू हैं। राजकमल चौधरी ने अपने शारीरिक व्याधि तक को राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय घटना की तरह भोगा है, जिसका विवरण-उद्धरण इनके पत्रों और रचनाओं में जहाँ-तहाँ स्पष्ट होता गया है। सन् 1966 में बीमार होकर अस्पताल के बिस्तर पर पड़े-पड़े लिखते हैं, Shashi came in the day time with lunch and stayed for the evening. It was a bit enconvenient to me for the fact that I feel better when I am alone. But, how to deny your own wife if her presence before the ailing husband? ...They don't understand me. why should they really? यह उक्ति लेखक का निजी होने के बावजूद प्रभाव के स्तर पर निजी नहीं रह जाती। एक बीमार पति और उसकी परिचर्या हेतु आई उसकी सशंकित धर्मप्राण पत्नी के मनोवेगों की विकराल एवं दारुण कथा कहती हुई डायरी के उक्त अंश से राजकमल चौधरी के पत्र और डायरी के महत्व का एक छोटा-सा संकेत मिलता है।
प्रसंग भैरवी तन्त्र,’ ‘शवयात्रा के बाद देहशुद्धि,’ ‘भारतीय बद्धिजीवियों का नया व्यक्तित्‍व,’ ‘अप्रत्याशित कुछ भी नहीं,’ ‘चित्रकला: अरूपवादी सिद्धान्त,’ ‘एक कवि का निजी वक्तव्य,’ ‘साठ के बाद की कविता,’ ‘कहानी: नई कहानी: पुरानी कहानीआदि दर्जनों निबन्धों में राजकमल चौधरी ने परिवार, समाज, मानवीय सम्बन्ध, परम्परा की वास्तविक पहचान, राजनीति, आत्मबोध, विविध कला-रूप (साहित्य, संगीत, नृत्य, अभिनय, चित्र) से सम्बद्ध जिस तेजस्विता, ईमानदारी, तटस्थता, साहस और आदर्श का परिचय दिया है, वह हिन्दी साहित्य में कहीं अन्यत्र मिलना दुर्लभ है। राजकमल चौधरी के समकालीनों से लेकर बाद तक की पीढ़ी के रचनाकारों की रचनाओं में विषय का इतना विस्तार और तथ्य का इतना गहन ज्ञान, ढूँढे नहीं मिलता।
उम्र में इनसे ठीक बारह वर्ष एक महीना बड़े, कवि गजानन माधव मुक्तिबोध के यहाँ विषय का विस्तार, चिन्तन की गहनता तथा जनसरोकार की आतुरता एक सीमा तक है। यद्यपि मुक्तिबोध के हिस्से में भी जिन्दगी कम ही आई, कुल सैंतालीस वसन्त भी नहीं देख पाए, फिर भी उन्हें राजकमल की अपेक्षा दस बरस की अधिक जिन्दगी मिली। गौर से देखने पर यह तय होता है कि राजकमल चौधरी (1929-1967)तथा मुक्तिबोध(1917-1964)--दोनों के जीवन का आन्दोलित और उद्वेलित अन्तराल, थोड़ी-सी सामान्य भिन्नता के साथ एक ही है। साहित्य और जनपद--दोनों के प्रति तटस्थता और प्रतिबद्धता; चिन्तन, मनन, लेखन, जीवन की प्रदूषणहीनता--इन दोनों के अलावा और कहीं दुर्लभ है। अपने लेखन में, अपने लेखन के लिए, अथवा अपने लेखन के जरिए आत्मस्थापन के लिए, अपने को समय का देवता साबित करने के लिए, राजनीति करनेवालों, कोई न कोई हथकण्डा अपनाने वालों, किसी न किसी प्रतिभाशाली लेखक की लेखकीय हत्या करनेवालों की सूची में इन दोनों के अतिरिक्त, हर नाम मिल सकता है। जनसरोकार की मौलिकता, अपने लेखन और जीवन के तादात्म्य, साहित्यिक प्रतिबद्धता और ईमानदारी के सिलसिले में, राजकमल चौधरी के समानान्तर हिन्दी के छायावादोत्तर काल की किसी भी विधा में मुक्तिबोध के अतिरिक्त किसी और का नाम गिनाने में असुविधा हो सकती है।
स्वातन्त्र्योत्तर काल के भारत के राजनीतिक पहलुओं की चर्चा निश्चय ही मुक्तिबोध के यहाँ विस्तार से हुई है, और साहित्य के सिद्धान्तों की व्याख्या भी अधिक हुई है, निश्चय ही राजकमल चौधरी के यहाँ ये दोनों बातें तुलनात्मक रूप से कम हैं। इसका कारण शायद उम्र मंे एक-सवा दशक परवर्ती होना रहा होगा, क्योंकि उम्र के एक दशक का अन्तराल, सोच-समझ की कई पद्धतियाँ बदल देता है, अथवा शायद यह सोच रहा होगा कि जिस दिशा में मुक्तिबोध निष्ठा से लगे हुए है, उसमंे पुनरावृति न कर, दूसरी दिशा की जरूरतों को पूरी की जाए। और इसीलिए राजकमल चौधरी ने राजनीतिपरक चिन्तन के बदले राजनीतिक परिस्थितियों की परिणति को अपने लेखन का विषय बनाया और कथेतर गद्य मंे सैद्वान्तिक से ज्यादा व्यावहारिक पहलुओं पर ध्यान दिया। मुक्तिबोध और राजकमल के लेखन में एक सूक्ष्म अन्तर इस तरह से भी देखा जा सकता है कि जहाँ मुक्तिबोध समय की त्रासदी से व्यथित भर होते हैं, आर्तनाद कर उठते हैं, बड़ी-बड़ी शक्तियों, सम्बन्धों से आस्था टूटने पर, सपनों के उजर जाने पर चीख उठते हैं, बड़ी शक्ति की नग्नता देखकर स्वयं दण्डित होने की आशंका से भर उठते हैं, अर्थात् तमाम विकृतियों के बावजूद, खण्डित सभ्यता के समक्ष भी, अपनी शालीनता बचाए रखते हैं, और चीख, आर्तनाद, अन्धेरे में पड़े रह जाते हैं; लेकिन राजकमल चौधरी थोड़ा आगे आकर, इस तरह की तमाम शालीनता को तोड़कर क्रूरतापूर्वक घोषित करते हैं कि ‘‘दो साल पहले, चीनी आक्रमण के वक्त, जी एन्काउन्टर’(लन्दन) के सम्वाददाता ने घोषित किया था कि आज के भारतीय बुद्धिजीवी अपने देश की समस्याओं के प्रति तटस्थ, अपनी सामाजिक जिम्मेवारियों की ओर एकदम निश्चेष्ट, और मात्र अपने संकटों के लिए हाहाकार मचाने वाले, आलसी और निष्क्रिय हैं तो बुद्धिजीवियों में थोड़ी सुगबुगाहट जरूर हुई थी। फिर भी, आइने के सामने खड़े होकर, अपना देवमूर्तियों वाला चेहरा देखने की फुरसत किसी को नहीं हुई।...एक बुद्धिजीवी ने अपने माचिसनुमा घर के दरवाजे पर विभिन्न प्रकार के इतने कैक्टस लगा रखे हैं कि उसकी पत्नी जब भी घर से बाहर निकलती है, साड़ी या ब्लाउज एक लम्बी खरोंच से फट जाती है। मगर कैक्टस तो बुद्धिजीवी होने का प्रधान सिम्बल है!...एक दूसरा बुद्धिजीवी...एक आधुनिक कला-संस्था चलाता है, जिसे समाज से भरपूर चन्दा और सरकार से हर साल भरपूर अनुदान मिलता रहता है(भारतीय बुद्धिजीवियों का नया व्यक्तित्‍व)।’’ यह क्रूरता मोटी चमड़ीवालों के लिए आवश्यक भी थी, यद्यपि इस क्रूरता का भी असर हो नहीं पाया।
इतना तो अपने समकालीन साहित्यजीवियों की हरकतें देखकर राजकमल जान चुके थे कि इन्हें भी राजनेताओं की तरह जनता और साहित्य से कुछ लेना देना नहीं है। साहित्य इनके लिए एक धन्धा है, प्लास्टिक का खिलौना बनाने वाली फैक्ट्री के मालिक के धन्धे की तरह का धन्धा, कुम्हार के घड़ा बनाने के धन्धे की तरह का धन्धा नहीं। क्योंकि कुम्हार अपने बनाए हुए बरतनों का निर्माता-विक्रेता दोनों होता है और उसका क्रेता उसके पास पड़ोस में रहता है। पर प्लास्टिक के खिलौने का निर्माता न तो खुद विक्रेता होता है और न ही क्रेता समाज से उसका कोई सरोकार होता है। इसलिए सातवें दशक में लिखे गए अपने निबन्धों, पत्रों, पाठकीय प्रतिक्रियाओं में इन्होंने दूषित और अवान्तर मनोभाव की गतिविधियों में लीन लेखकों, बुद्धिजीवियों की अच्छी खबर ली।
राजकमल चौधरी मृत्यु के बयालीस वर्ष बाद, आज भी इनको नहीं जानने- समझने वालों की संख्या अभी भी बड़ी ही है, जबकि पर्याप्त रचनाएँ भारत के श्रेष्ठतर प्रकाशकों ने उत्कृश्ट ढंग से छापकर पाठकों को उपलब्ध करवाई है। पर इससे केवल पाठक परिचित हुए हैं, आलोचकों और हिन्दी के वक्तव्यवीरों के कानों पर अभी जूँ नहीं रेंग पाई है। असल में सोए हुओं को जगाया जा सकता है, जगे हुओं को जगाना असम्भव है। दस वर्ष पहले तक की स्थिति थोड़ी असुविधाजनक अवश्य थी। पुरानी पत्रिकाओं की फाइलों में बिखरी हुई इनकी रचनाओं को एकत्र कर हिन्दी के आलोचक टिप्पणी करें, यह तो अकल्पनीय था, किन्तु संकलित रचनाओं को (राजकमल चौधरी की) पढ़कर पूर्वाग्रह के कारा से बाहर आने की ईमानदारी की अपेक्षा अवश्य है। पर खैर...
जो कुछ भी थोड़े बहुत लोग अब तक राजकमल चौधरी को जानते रहे हैं अथवा जान पाए हैं, वे भी इन्हें या तो कवि के रूप में जानते हैं, या कथाकार, उपन्यासकार के रूप में। इस बात से अभी भी बहुत कम लोग वाकिफ हैं कि सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक-साहित्यिक विषयों पर लिखे गए राजकमल के निबन्ध, आलोचनात्मक लेख पुस्तक समीक्षा, पत्र, डायरी, टिप्पणी, रेडियो रूपक आदि भी उतने ही उत्तेजक हैं, जितना अन्य कुछ। हिन्दी में विभिन्न विषयों पर लिखे इनके निबन्धों की संख्या और स्तम्भ लेखन आदि को मिलाकर छह दर्जन से अधिक है, इनमें कई तो अभी भी अप्रकाशित है। मैथिली में भी इनके कई निबन्ध प्रकाशित हैं। पत्र और डायरी की तो कोई गिनती नहीं है। हिन्दी-मैथिली मिलाकर अब तक उपलब्ध, पाँच नाटक भी हंै।
सन् 2000 में शवयात्रा के बाद देहशुद्धि संकलन में इनके लगभग अड़तीस निबन्धों (विभिन्न विषयों पर केंद्रित) और लगभग दो दर्जन पत्रों, पाठकीय प्रतिक्रियाओं को संकलित किया गया। बर्फ और सफेद कब्र पर एक फूलमें इनके इकतालीस निबन्ध, पाँच नाटक, तीन बातचीत (पूरे जीवन के कुल तीन ही साक्षात्कार उपलब्ध हैं) कुछ डायरी के अंश और कई सारे पत्र संकलित हैं। इन दोनों संकलनों की सहायता से पाठकों के सामने कवि-कथाकार-उपन्यासकार राजकमल चौधरी की एक नई तस्वीर सामने आती है।
दशक भर पूर्व साहित्य अकादमी के सभागार में एक विचार गोष्ठी हुई थी। विषय था---‘आलोचना का समाजशास्त्रा।हिन्दी में आलोचना के समाज को विकसित करना क्यों जरूरी है, और इसे कैसे विकसित किया जाए, इसके सारे उदाहरण राजकमल चौधरी के आलोचनात्मक एवं अन्य निबन्धों में मौजूद है। निबन्ध और आलोचना-समीक्षा तक में इनके यहाँ पकड़ और प्रभाव का जादुई सम्मोहन निरन्तर बना रहता है। इस सम्मोहन का मूल कारण, विषय और विषय के साथ किए गए भाषाई ट्रीटमेण्ट की सामाजिकता है। कथ्य, शिल्प और शैली---हर स्तर पर राजकमल अपनी हर रचना में जितने अन्वेषी, जितने नूतन और अधुनातन रहते हैं, उतने ही बल्कि कई बार उससे ज्यादा सामाजिक और जनसम्वेदी रहते हैं।
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कहानी के बारे में कुछ बातें और: कहानी का यह दुर्भाग्य है कि वह मनोरंजन के रूप में पढ़ी जाती है और शिल्प के रूप में आलोचित होती है(कहानी: नई कहानी/ नामवर सिंह/ पृ.18)’।हिन्दी में नई कहानीआन्दोलन के बाद इस क्षेत्र में इतनी टिप्पणियाँ आईं कि कई बार पाठकों को दिग्भ्रम भी होने लगा। नई कहानी का समय मोटे तौर पर 1950-1965 माना गया, फिर सन् 1956 में भैरव प्रसाद गुप्त के सम्पादन में प्रकाशित कहानीके नववर्षांक से इसका प्रारम्भ कहा गया, फिर से यह भी कहा गया कि सन् 1950 से ही नई कहानीका प्रयाण शुरू हो गया था, विचार और रचनाशीलता के स्तर पर यह नयापन पलता-बढ़ता रहा और 1955-56 तक आते-आते वैसे सोच और वैसी रचनाशीलता के साथ सृजनरत लेखकों ने अपना परिचय कायम कर लिया और कहानी’ (पत्रिका) के नववर्षांक (1956) में नई कहानी को पूर्ण प्रतिष्ठा दे दी गई। देवीशंकर अवस्थी के शब्दों में ‘1962 में हुआ यह विवाद नई कहानी को स्टेब्लिश ही नहीं करता स्टेब्लिशमेण्ट का हिस्सा बना देता है(नई कहानी: सन्दर्भ और प्रकृति/पृ.16)इसके बावजूद सन् 1962-65 के समय को नई कहानी की ढलान का समय कहा गया, यद्यपि कमलेश्वर जैसे कुछ लोगों ने सन् 1965 के बाद कहानियों में आए बदलाव को नई कहानी का ही विस्तार कहा। वैसे भारत में 1962-65 के अन्तराल में राजनीतिक-सामाजिक हलचल, पराजय के नैराश्य और विजय के उत्साह से एक नया जोश अवश्य आया और रचनाकर्मी, नई ऊर्जा के साथ आगे बढ़े, नई कहानी के विरोध में अकहानीआन्दोलन सबसे पहले आगे आया, पर आलोचकों ने जल्दी ही इसे फ्रांस की एण्टी स्टोरीका अनुकरण घोषित कर दिया। फिर सचेतन कहानी,’ ‘सहज कहानी,’ ‘समान्तर कहानी,’ ‘सक्रिय कहानी,’ ‘समकालीन कहानीजैसे कई आन्दोलनों की घोषणा हुई, अर्थात् नई कहानीसे अपने को अलग साबित करने का प्रयास समय-समय पर हिन्दी के कथाकारों ने तत्परता और तन्मयता से किया। पर काफी लोगों को यह बात समझ में नहीं आई कि इन रचनाधर्मियों में यह वणिक् वृत्ति क्यों आ गई, सृजनकार्य को प्रमुखता देने के बजाए ये लोग विज्ञापन में क्यों लिप्त हो गए।
नई कहानियाँ (वर्षगाँठ विशेषांक, मई 1961) में राजेन्द्र यादव का लेख छपा थाआज की कहानी: परिभाषा के नए सूत्रलहर’ (नई कहानी विशेषांक) अगस्त-सितम्बर-1961 में इस लेख पर खीझकर राजकमल चौधरी ने एक लम्बा लेख लिखा। उन्होंने स्पष्ट कहा कि ‘‘मैं जीवन और समाज को साहित्य, विशेषतः कथा-साहित्य के विषय ;ैनइरमबज डंजजमतद्ध से अधिक कुछ नहीं मानता। यह नहीं मानता कि किसी मतवाद का प्रचार, किसी सिद्धान्त का प्रचार, किसी नैतिकता या किसी जीवनशैली का प्रचार कथा-साहित्य का उद्देश्य है।...आज के कथाकार अपनी महत्ता सिद्ध करने के लिए, यह शिकायत करते हैं कि पिछली पीढ़ी के कथाकारों से उन्हें विरासत में कोई चीज़ नहीं मिली है। राजेन्द्र यादव (का)...यह कथन बड़ी ही कृतघ्नता है, बड़ी ही निर्लज्जता है।...फतवेबाजी से धन्धा (सोे भी थोड़े दिनों तक) चल सकता है, साहित्य-सृजन और साहित्यालोचन नहीं चलता है।...अच्छी कहानियाँ लिखना ही कहानीकार के लिए पर्याप्त उपलब्धि है, ‘परिभाषा के नए सूत्रोंके ताने-बाने में लिपटकर वह ज्यादा दूर तक आगे नहीं जा सकती है।’’
उक्त आलेख लम्बा है और पूरे आलेख में राजकमल चौधरी ने न केवल राजेन्द्र यादव द्वारा दी गई स्थापनाओं को खण्डित किया है, बल्कि अपने समय के कथा लेखन की पृष्ठभूमि को आदरपूर्वक स्मरण किया है और कहानी के क्षेत्र में पूर्ववर्ती पीढ़ियों के योगदान के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की है। उक्त आलेख से निचोड़ के रूप में यही बात सामने आई, कि स्वातन्त्र्योत्तर काल के कथा-लेखन में जितने मुँह, उतनी बातें (अर्थात् उतने कथा-आन्दोलन)आने का मूल कारण मात्र इतना रहा कि लघु उद्योगपतियों की तरह कहानीकारों में अपना उत्पाद ऊँची कीमत पर, शीघ्रता से, और बहुसंख्यक के हाथों बेचने की होड़ लग गई; वे सर्वसाधारण के मन-मिजाज पर अपने उत्पादों को स्थायी रूप से चस्पाँ करने; अपने को दिग्गज, कालदर्शी और युगपुरुष साबित करने पर आमादा थे। आम पाठकों से उनका विश्वास उठ गया, वे प्रबुद्ध नागरिक के समक्ष चुनावी मेनीफेस्टो की तरह कहानी की पहचान के सूत्र बाँटने लगे; गो कि कहानी कोई रसायनिक पदार्थ हो, जाँचें, और ये गुण उनमें नहीं पाए गए, तो उन्हें निरस्त करें। आज सारे लोग जानते हैं कि विज्ञापन की आवश्यकता घटिया उत्पाद बनाने वाले उद्योगपतियों को ज्यादा होती है। राजकमल चौधरी का ध्यान कभी इस तरह के विज्ञापनों की ओर नहीं गया। अवान्तर अभिप्राय से लुभावने और भ्रामक विज्ञापन के साथ बाजार में कूद आए आत्मगुग्ध कथा-चिन्तकों की भली-भाँति फजीहत की। उन्होंने कहा कियुद्ध, अकाल, राजतन्त्र, बेकारी, मँहगी, दूसरे देशों से सम्बन्ध, गृह-कलह, आम चुनाव... इन सभी बातों का असर कथा-साहित्य पर पड़ता है, सामान्यतः कथा के विषय और स्वरूप पर पड़ता है। मगर इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि कथा-साहित्य को जीवन और संस्कृति की कलात्मक अभिव्यक्तियों के क्षेत्र से हटाकर, समाजशास्त्र और मनोविज्ञान के क्षेत्र में डाल दिया जाए(शवयात्रा के बाद देहशुद्धि/पृ.150)
अपने पूरे लेखन कर्म में इसी नैतिकता, निष्ठा और ईमानदारी से वे सृजनरत रहे। इनकी रचनाओं को पाठकों का प्यार और स्वीकार मिला, उन्हें अपनी कृतियों की वकालत नहीं करनी पड़ी, आलोचकों और अपने समकालीन रचनाकारों की उपेक्षा और ईष्र्या भी भरपूर मिली। असल में आजादी के बाद से खासकर नई कविताकी स्वीकृति और नई कहानीके घोषणा-काल से हिन्दी-साहित्य की राजनीतिक गन्दगी और गलीज हरकतें इतनी बेशर्म हो गईं कि ज्यादातर रचनाधर्मी आत्मप्रचार में तल्लीन और बुनियादी जिम्मेदारियों से विमुख हो गए। ऐसे में उनके लिए राजकमल चौधरी जैसे प्रतिबद्ध लेखक को गाली देना आवश्यक था, वर्ना राजकमल की बात भी लोग सुनने लगते। उन अप्रिय स्थितियों का संज्ञान लेना राजकमल चौधरी के लिए निरर्थक था। पर आज, उनके देहावसान के साढ़े तीन दशक बीत जाने के बाद भी इस ईष्र्या और आंतक का असर मौजूद है। राजकमल चौधरी के कथा संग्रह पत्थर के नीचे दबे हुए हाथकी समीक्षा लिखते हुए प्रो. मुरली मनोहर प्रसाद सिंह ने जनसत्ता(9 जून,2002) घोषणा की कि राजकमल चौधरी की अधिकांश कहानियाँ सन् 1958 के बाद की हैं। तब तक नई कहानी-आन्दोलन उतार पर आ चुका था। उनकी गणना में राजकमल चौधरी उस युवा पीढ़ी के कथाकार हैं जो राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, अमरकान्त, मार्कण्डेय, मन्नू भण्डारी, मोहन राकेश, निर्मल वर्मा, शिवप्रसाद सिंह की पीढ़ी के बाद आईं। प्रो. सिंह का यह भी मानना है कि उक्त संकलन के सम्पादकीय वक्तव्य का अंश राजकमल चौधरी के कहानी-लेखन का जो दौर है, वह हिन्दी में नई कहानी का दौर है।अजीब तरह का भ्रम और विरोधाभास पैदा करता है।...बहरहाल, वे इतना अवश्य कबूलते हैं कि नई कहानी आन्दोलन के अन्तिम दिनों के नए अनुभव और नई दृष्टि भंगिमा की साक्षी राजकमल की कहानियाँ हैं। ...विचित्र बात यह है कि देवीशंकर अवस्थी सन् 1962 में नई कहानी को स्टेब्लिश्ड हुई मानते हैं, कुछ लोग 1950-1965 को नई कहानी का समय मानते हैं, कुछ लोग सन् 1956 में नई कहानी को मान्यता दिलाते हैं, और 1962-1965 के दौरान नई कहानी के विरोध में अकहानी आन्दोलन को दाखिल हुआ मानते हैं। राजकमल चौधरी ने, अपने को, न तो कभी कहानी लिखनेवालों के जुलूस का हिस्सा माना, न अन्य किसी का; उन्होंने कहानी को सिर्फ कहानी माना और लिखते रहे। अगस्त 1962 तक इनकी लगभग तीस कहानियाँ हिन्दी में तथा चौबीस कहानियाँ मैथिली में, और दिसम्बर 1965 तक लगभग साठ कहानियाँ हिन्दी में तथा तीस कहानियाँ मैथिली में प्रकाशित हो चुकी थीं। उन्नीस जून 1967 को तो इनका देहान्त ही हुआ, उससे दो वर्ष पूर्व लगातार बीमार ही रहे। अर्थात् क्रियाशीलता के साथ जो कुछ लिखा, 1965 तक ही लिखा, वे रचनाएँ ही बाद के दिनों में प्रकाशित होती गईं। अब तक अड़तीस कहानियाँ मैथिली में तथा सौ कहानियाँ हिन्दी में उपलब्ध हैं। नई कहानी आन्दोलन के समय के जो भी क्रियाशील रचनाकार हैं, उनमें राजकमल चौधरी की कहानियों की तीक्ष्णता और जनसरोकार का अंश कितना प्रतिशत है, यह बात साहित्य के मान्यता दाताओं और विज्ञापनकर्ताओं से बेहतर आम पाठक अथवा आम नागरिक बता पाएँगे, जिनके जीवन-क्रम से उसकी मिट्टी उठाई गई है। क्योंकि एक ईमानदार रचनाकार के लिए, साहित्य सृजन का मूल उद्देश्य, आम नागरिक को उनकी स्थितियों की जानकारी देना होता है, आत्मप्रचार अथवा संगठनों-संस्थाओं से मान्यता प्राप्त करना नहीं। नई कहानी आन्दोलनका कर्ता-धर्ता होने में राजकमल चौधरी की न तो रुचि थी और न उन्हें उस पार्टीका सदस्य होना चाहिए था। रचनाकार जो कहना चाहता है, यदि वह अपनी रचना में यह कह पाए, उसे अपनी ही रचना के लिए वक्तव्य देना पड़े, तो उस रचना और रचनाकार के लिए इससे बड़ी असफलता और कुछ नहीं हो सकती...इन तथ्यों के साथ यह मानने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि राजकमल चौधरी के कहानी लेखन का सक्रिय समय वही है, जब नई कहानीकी सक्रियता परवान चढ़ी थी, यह बात तो और भी मार्के की है कि इनकी कहानियाँ, अपने समय, और अपने समय की रचनाधारा से आगे की बात कह गईं। पत्थर के नीचे दबे हुए हाथपुस्तक की समीक्षा(इण्डिया टुडे, 21 अगस्त 2002) करते हुए श्री अरुण प्रकाश ने और कमाल दिखा दिया। अपने लेख में उन्होंने कुछ तर्कपूर्ण व्याख्या अवश्य की, पर कथा लेखन के हवाले से उनको विभाजित साहित्यिक व्यक्तित्‍व का लेखक माना, ग्लैमर और प्रदर्शन में लिप्त माना, अपने सूचनात्मक ज्ञान से पाठकों को आतंकित करने वाला माना, राजनीति और आर्थिक परिदृश्य से लापरवाह माना, स्त्री और स्त्रीवादी लेखन से निरपेक्ष और एक सीमा तक स्त्रियों के विरुद्ध माना, नारीवाद के सम्बन्ध में भ्रान्त धारणाओं और विचलनों से युक्त माना। सबसे दिलचस्प बात तो यह है कि पात्रों के नामकरण और उसके पदस्थापन के सिलसिले से उसके भौगोलिक सर्वेक्षण की सत्यता पर उतर आए।...यह बात विस्मयकर है कि जिस राजकमल चौधरी की रचनाओं का समाज, और पात्रों का परिवेश; समकालीन राजनीतिक-आर्थिक परिस्थितियों की परिणतियों से भरा हुआ है, उस राजकमल चौधरी के यहाँ इस तरह की शंकाओं की गुंजाईश आएगी कैसे! जिस लेखक का कृति-संसार मानवीय नैतिकता के साथ राजनीति और अर्थनीति द्वारा किए गए मजाक को तार-तार करता नजर आता है, पुरुष पात्र या तो स्त्री अंगों को चबा जाने वाला राक्षस नजर आता है, या मोल-भाव कर खरीद लेनेवाला व्यापारी; स्त्रियाँ, या तो अपने को बेच-लुटा देने वाली निरीहा नजर आती हैं या उदारतापूर्वक अपने को वितरित करनेवाली आत्मुग्ध गर्वोन्नता...उस लेखक की रचनाओं में उपस्थित चित्रणों के व्यंग्य को न लेकर पात्रों के द्वारा किए गए आचरण को लेखक का विचलन और विचार का भटकाव मान लेना कहाँ तक उचित है? राजकमल चौधरी को अपने पाठकों से कहाँ कभी शिकायत रही, मूल प्रश्न तो यही है कि नई दृष्टि और पवित्र धारणा से चित्रित की गई सामाजिक विकृतियों की टीका राजकमल के समीक्षकों ने अवान्तर पूर्वाग्रहों के कारण इस तरह से की कि अच्छे-भले पाठक उन समीक्षाओं और टीकाओं से भ्रान्त हो जाएँ। यूँ, हिन्दी साहित्य के समालोचकों ने ऐसा केवल राजकमल चौधरी के साथ ही नहीं, कइयों के साथ किया है। साहित्य के धन्धे में उतर आए बुद्धिजीवियों का लोकतन्त्र(?) जब बढ़ेगा, फैलेगा, तो ऐसा ही होगा। किसी की जुबान में ताला तो नहीं लगाया जा सकता न!
मनुष्य के जीने का और उसके जीवन की तमाम हरकतों का मूल कारण होता है मन और शरीर। इन्हीं दोनों की जरूरतों की पूर्ति हेतु मनुष्य पाप करता है, पुण्य करता है, सही-गलत करता है, वांछित-अवांछित सब कुछ करता है। यहाँ तक, कि किसी लेखक के सृजन का कारण भी प्रकारान्तर से ये दो ही होते हैं। शेष सारे कारण इन्हीं दोनों से पैदा होते हैं।
बीसवीं शताब्दी के छठे दशक का मध्यान्तर आते-आते हिन्दी कहानी आम नागरिक के मन में गम्भीरता से झाँकने लगी थी। भिखारी से दाता तक, रंक से राजा तक, क्रेता से विक्रेता तक, वेश्या से गृहस्थिन तक, संन्यासी से किसान तक उसके पात्र होते थे और उस समय की कहानी उन सबके मन के उद्वेलन को उनकी हरकतों से जोड़ने लगी थी। उनकी शारीरिक क्रियाओं को नोट करने लगी थी। राजकमल चौधरी की कहानी जलते हुए मकान में कुछ लोगमें एक वेश्यालय में छापा मारा जाता है, अपने ग्राहकों के साथ सारी वेश्याएँ नंग-धडंग तहखाने में चली जाती हैं। एक वेश्या अपने एक व्यापारी ग्राहक के बारे में बताती है, ‘यह बाबू हमारी जात का है। हम चमड़ा बेचते हैं, यह भी चमड़े से बने खेल-कूद का समान बेचता है...।फिर किसी ग्राहक से वेश्या कहती है, ‘तुम जरा भी शर्म मत करो। समझ लो, अन्धेरे में हर औरत हर मर्द की बीवी होती है। अन्धेरे में शर्म मिट जाती है। रंग, धर्म, जात, बिरादरी, मुहब्बत, ईमान, अन्धेरे में सब कुछ मिट जाता। सिर्फ कमर के नीचे बैठी हुई औरत याद रहती हैमैथिली की कहानी सहò मेनकामें निर्मला जैसी असहाय विधवा को पूरे गाँव के लोगों ने जाति बाहर कर दुश्चरित्र, वेश्या घोषित कर दिया है, पर कथावाचक की पत्नी की राय है कि यदि निर्मला दीदी अनाचारिणी रहतीं, वेश्या रहतीं, तो उनकी आज यह दशा नहीं रहती। पापिष्ठा रहतीं तो आज शरीर पर फटी साड़ी नहीं, रेशमी साड़ी रहती।कहानी को मानव जीवन की इन बुनियादी हरकतों से जोड़ने में सक्षम, अस्तित्व के अविचल यथार्थ को इस तरह आँकने में समर्थ, राजकमल चौधरी के लिए यह कहीं से आवश्यक नहीं था कि वे अपने को किसी झण्डा या पार्टी या कथित साहित्यिक आन्दोलन में अपना नाम दर्ज कराएँ। उनके लिए लिए कहानी का मतलब सिर्फ कहानी होता था।
मैथिली में राजकमल चौधरी की कुल अड़तीस कहानियों में, ‘अपराजिताऔर हाथीक दाँतके अतिरिक्त शेष छत्तीस कहानियों के केन्द्र में नारी है। अपराजिता,’ बाढ़ में डूबे मिथिला क्षेत्र के नागरिक-जीवन के चित्र, सरकारी उद्यमों के नाटक, पुलिस की बदमाशी, टुटपुँजिए नेताओं की कबायद आदि को रेखांकित करती है, तथा हाथीक दाँतमें एक समाजवादी नेता के खाने केऔर दिखाने केअलग-अलग दाँतों का पर्दाफाश किया गया है। इनकी कहानियों का प्रधान तत्त्व कथानक नहीं होता, हरेक पंक्ति, हरेक शब्द, यहाँ तक कि यति-विराम और पॉज तक में कहानी रहती है। यही कारण है कि कहानियों के अवान्तर पात्र और अवान्तर प्रसंग द्वारा भी बड़ी-बड़ी बातें सूत्र, संकेत और मुहावरों में कह दी गई हैं। ननद-भौजाईकहानी में ननद, पदुमा और भौजाई रामगंजवाली---दोनों विधवा हैं, जीवन-यापन के लिए इनके पास देह के सिवा आमदनी का कोई स्रोत नहीं है, ‘पदुमा का गाँव, बनगाँव बहुत विशाल गाँव है। गाँव में ही हाई स्कूल, थाना, पोस्ट आॅफिस, अस्पताल और हाट-बाजार है। इसलिए, इस दो विधवा ब्राह्मणी का जीवन-निर्वाह कोई कठिन नहीं। दो हजार घर की इस बस्ती में दो सौ बंगट(बंगट वैसे रसिक युवक हैं, जो घरेलू महिलाओं का बाजारू उपयोग करते हैं) अवश्य हैं।इस छोटे से अंश में कथाकार ने सिर्फ कथा नहीं कही है, कथा के बीच कई कथाओं का सृजन किया है। हाई स्कूल, थाना, पोस्ट आॅफिस, अस्पताल और हाट-बाजारवाले इस गाँव की विशालता भर दिखाना कथाकार का उद्देश्य नहीं, इस तरह की संस्थाओं की विकृतियों की ओर संकेत करना है। बातों-बातों में अपने लक्ष्य की इस तरह की पूर्ति के लिए भाषा-शिल्प-शैली ही कारगर हथियार हो सकती है।
पूर्व में हिन्दी कहानी के जितने आन्दोलनों की चर्चा की गई, मैथिली में इस तरह का कोई सुनियोजित कथा-क्रम बन नहीं पाया था। स्वातन्त्र्योत्तर काल के प्रारम्भिक कुछ वर्षों तक, जमीन्दारी खत्म हो जाने के बावजूद, मनःस्थित बरकरार थी। स्त्री, जमीन और सम्पत्ति...तीनों को वस्तु समझा जाता था। पुरुष इसके स्वामी होते थे। साठ वर्ष के विधुर या निःसन्तान या निपुत्र व्यक्ति अपनी सम्पत्ति का उत्तराधिकारी पाने हेतु, अथवा आँगन का राजकाज सँभालने हेतु, अथवा बिस्तर पर मन बहलाने हेतु किसी निर्धन की कुँआरी कली को उठा लाते थे। उस कुँआरी के पिता पंजीबद्ध और सम्पत्तिशाली सद्पुरुष का कुटुम्ब होकर अपने को उद्धार हुआमानते थे। अपनी सांस्कृतिक और बौद्धिक विरासत की गरिमा को लेकर मैथिली गण लिप्त-तृप्त रहते थे, पर धार्मिक पाखण्ड, सामाजिक रूढ़ि, कौटुम्बिक नाटक, मान- मर्यादा की पद्धति की ओट में कितनी-कितनी विकृतियाँ, पल-बढ़ रही थीं---इसकी गिनती नहीं थी। और, मैथिली साहित्य में इसका संकेत दिख नहीं रहा था। काँचीनाथ झा किरण,’ तन्त्रनाथ झा और हरिमोहन झा के अलावा कहीं नई दृष्टि दिख नहीं रही थी। वैसे ही समय में महाकवि यात्री की कविता और उपन्यास से; ललित की कहानी से; राजकमल चौधरी, सोमदेव और मायानन्द मिश्र की कविता, कहानी, उपन्यास से; तथा राम कृष्ण झा किसुनकी कविता एवं संगठनात्मक एप्रोच से अचानक मैथिली साहित्य अद्यतन हुआ।
राजकमल चौधरी के शक्तिशाली रचना-कौशल से मैथिली कहानी को जो मुकाम मिला, प्रभास, गुंजन, राजमोहन, जीवकान्त, और सुभाष, सुकान्त, महाप्रकाश, उपेन्द्र दोषी की पीढ़ी से होते हुए विभूति आनन्द, अशोक, शिवशंकर श्रीनिवास, तारानन्द वियोगी तक में उसी का प्रस्फुटन हो रहा है। दरअसल मैथिली के साथ एक विशाल संकट यह भी है कि यहाँ पुस्तक प्रकाशन उद्योग की कोई सुदृढ़ और सुव्यवस्थित परम्परा नहीं है। फलस्वरूप पाठक का अभाव है। कुल मिलाकर मैथिली के लेखक ही, पाठक हैं। कुछ विश्वविद्यालयों के छात्र हैं भी तो वहाँ के अध्यापकों का कपाट इस तरह बन्द है कि नए ज्ञान और नई जानकारियों का प्रवेश वर्जित है। कुछ अध्यापक, जो लेखक होना अपना नैतिक कर्तव्य समझते हैं, आलोचना कर्म में जुटे हैं, कुछ लेखक भी आलोचक हो गए हैं। अपनी समझ पर मुग्ध इन आलोचनाकर्मियों को अभी तक कथा की समझ बन नहीं पाई है। वे कथानक समझते हैं। उन्हें यह नहीं मालूम कि आज कथाकार की बातें कथानक की अपेक्षा कहानी के ट्रीटमेण्ट में बेहतर ढंग से आ रही हैं। क्योंकि कथानक के माध्यम से कोई एक बात कही जा सकती है और आज के बहुभंगिमा वाले घटनाबहुल समाज में जितनी तेजी से, जितनी बातें हो रही हैं, उसमें कम समय में ज्यादा कह पाने का अवसर ढूँढा जाने लगा है। आज देश-देशान्तर की विभिन्न भाषाओं में कहानी की स्थिति कितनी आगे आ गई है, पाठक कितने आगे आ गए हैं, पर मैथिली के बन्दमति-मन्दमति लेखक सह आलोचक, वक्ता सह प्रवक्ता ने प्रण कर लिया है कि नई दृष्टि और नए तेवर की कहानी वे समझने नहीं देंगे। बहरहाल...
मिथिलांचल में हाल-हाल तक स्त्रियों की स्थिति पालित-पोषित की ही रही है। चाहे वह वृद्धा माँ, दादी, नानी, मामी, मौसी, काकी हो, जवान-प्रौढ़ा पत्नी, भौजाई, बहन, अनुज वधू हो, परिवार की अकाल-दुष्काल विधवा हो, दाई, नौकरानी हो, या रखैल, प्रेमिका हो...सबों के प्रतिपालक पुरुष रहे हैं, जो इन्हें अन्न-वस्त्र, सुरक्षा देकर इनके तन-मन, स्वाभिमान पर राज करते रहे हैं। निष्ठा, सुरक्षा, प्रतिपाल और सामाजिकता के इस घोषित आवरण के तले कितने अघोषित अनाचार को मान्यता मिली हुई थी---इसका सर्वेक्षण करना लेखकों का ही दायित्व था, राजकमल चौधरी ने इस दायित्व का निर्वाह बड़ी निष्ठा से किया।
फुलपरासवालीका कथानायक, संस्कृतनिष्ठ दरिद्र ब्राह्मण-पुत्र बिलट झा रिक्शा चलाकर जीवन-यापन करता है, देशी शराब पीकर नशे में धुत्ता रहता है। उस नशेेरी के साथ सिनेमा जाने से जब उसकी पत्नी मुकरती है, तो वह चीखता है---‘मेरी बात टालोगी!यह क्रोध, मात्र तीन शब्दों में ब्राह्मणवादी अहंकार की दीर्घ परम्परा का परिचय देता है। पुरुषवादी मनोवृत्ति के मिथ्या दम्भ का परिचय देता है। आज के नारीवादी समीक्षकों, और राजकमल चौधरी पर स्त्री-विरोध का आरोप लगानेवालों के लिए यह ध्यान देने योग्य बात होगी कि इनके पूरे मैथिली कथा-लेखन में नारी पात्र के प्रति लेखकीय दृष्टि बहुत विश्लेषणात्मक है। अपने नारी पात्र के अनाचार तक में लेखक ने समाज की भूमिका खोज निकाली है। यह दीगर बात है कि आवागमनमें सरस्वती की माँ, और एकटा चम्पाकली : एकटा विषधरमें चम्पा की माँ, विषधर के रूप में सामने आती है।
नारी जीवन के जितने रूप राजकमल चौधरी की मैथिली कहानियों में दर्ज हैं, उतना मैथिली तो क्या, किसी भी आधुनिक भारतीय भाषा में दिखना दुर्लभ है। वस्तुतः हमारा समाज जिस तरह की व्यवस्था में जीता आ रहा है, वह किसी हिसाब से मानवोचित नहीं है। नेता, अफसर, पुलिस, पत्रकार तो शहर के वासी हैं, निरन्तर गाँव में बसनेवाले लोग, जो सामाजिक नियम कायदा के रखवाले होते हैं, कई बार वह कायदा स्वयं उन पर ही भारी पड़ जाता है। सबसे पहले विधवाओं के जीवन से बात शुरू करें। मिथिलांचल की वर्ण-व्यवस्था की तरह विधवा की भी एक विचित्र किस्म की जाति है, जो न जीने के लिए स्वतन्त्र है, न मरने के लिए। स्त्री का भी क्या जीवन है, जब तक सधवा रहेगी, पति उसका शासक रहेगा; और ज्यों ही वह विधवा होगी, पूरा परिवार, पूरा समाज उसका शासक हो जाता है। पूरे गाँव की नजर उसकी जवानी पर और जवान देह पर रहती है। यदि वह चरित्र से यौनांग का प्रसाद बाँटने वाली नहीं है, तो परिवार से लेकर समाज तक उसे वेश्या घोषित कर देगा और जवानी ढलान पर आ जाए तो वह डाइन हो जाएगी, जैसेसहò मेनकाकी निर्मला वेश्या हुईं, जैसे कादम्बरी उपकथाकी कादम डाइन हुईं। इस तरह के लांछन से स्त्री को कोई भी योग्यता नहीं बचा सकती। निर्मला निर्धन हैं, इसलिए समाज कलंकिनी कहता है; कादम सम्पत्तिशालिनी हैं, तो उन्हें देवरानी ही बाँझ कहती हैं और समाज डाइन कहता है। पातकी पतिया, विधवा होने के बाद वृक्ष से टूटकर गिरे सूखे पत्तों की तरह लुढ़कती रहती है, कभी कूड़े में, कभी नाली में, कभी सड़क पर, जो पाता है वही उसके यौनांग का दुरुपयोग कर लेता है, प्रलोभन देकर घर ले जाता है और वहाँ उसका अन्यथा उपयोग करता है, पतिया यह सब सहने को विवश है। बहिनदाइ, अस्पताल, बनगामकी बहिनदाई (अर्थात दीदी) अपनी भौजाइयों द्वारा तिरस्कृत होती हैं और समाज उन्हें भूखे शेर का सुलभ आहार समझ लेता है। दमयन्ती हरणकी दमयन्ती और उसकी विधवा माँ की स्थिति ठीक वैसी नहीं है, पर शरीर को ही जीवन-रक्षा की पूँजी मान लेने वाली इस असहाय माँ-बेटी का जीवन समाज भली-भाँति नहीं चलने देता। वयोवृद्ध कांग्रेसी नेता रामबाबू, दमयन्ती के घर रात का भोजन-शयन क्यों करते हैं, मन्दिर के पीछे पकड़ी गई दमयन्ती के साथ पुरुष कौन था---यह जबाव ढूँढना समाज को निरर्थक लगता है, केवल सार्थक लगता है, इन दोनों असहाय स्त्रियों को लांछित नजर से देखना।
आकाश गंगाकी विधवा अन्नपूर्णा, बहुत बड़े जमीन्दार विवेकानन्द चौधरी की बेटी है, पर यहाँ कथाकार ने, शिक्षा के प्रवेश से स्त्री और विधवा स्त्री के जीवन में उत्साह, स्वाभिमान और आत्मबल का अदम्य रूप दिखाया है। अन्नपूर्णा ऐसी ही साहसी स्त्री हैं, जिस पर पिता इसलिए कुपित हैं, कि उन्होंने पिता के सामन्ती अहं के रक्षार्थ अपने प्रेम की बलि नहीं दी। हरिद्वारवासकी विधवा, ‘ननदि भाउजिकी विधवा, ‘सुरमा सगुन बिचारै नाकी विधवा, ‘अन्धकारकी विधवा, ‘वैष्णवकी विधवा, ‘मलाहक टोल: एक चित्रकी विधवा के नाना रूप इन कहानियों में व्यक्त हुए हैं। ये सारी विधवाएँ यौवन की उत्तप्त दोपहरी में जीवन के आयाम को जिन मजबूरियों में नाप रही हैं, उसका विश्लेषण सूक्ष्मता से किया गया है। किसी को देह और मन की माँगें मजबूर कर रही हैं, तो किसी को जीवन रक्षा के साधन या इच्छा-अभिलाषा की पूर्ति हेतु तन को पूँजी बनाना पड़ता है। जीवन के अपरिहार्य शर्तों की पूर्ति हेतु अन्धेरी सड़क पर किसी मनचले पुरुष की तलाश में कोई खड़ी हो जाती है, तो किसी को विधुर श्वसुर की सारी उचित-अनुचित कामनाओं की पूर्ति करनी पड़ती है। यौवनोन्माद की उत्तप्त ज्वाला, उम्र की वसन्त और मन के झूले में झुलसती, बिहुँसती और झूलती ये विधवाएँ, मिथिला के नारी-परिदृश्य का ऐसा आँकड़ा इन कहानियों के माध्यम से उपस्थित कर रही हैं, जिनमें समाज और सामाजिक आचार संहिता के तार-तार अलग हो गए हैं।
राजकमल चौधरी के यहाँ केवल विधवा ही नहीं, पूरे स्त्री चरित्र का एक विस्मयकर पाठ प्रस्तुत है। सती धनुकाइनकी सत्ती, ‘समुद्रकी दयामयी, ‘कोपड़की चमेला, ‘घड़ीकी जहूरनी अथवा चन्द्रमुखी, ‘खरीद बिक्रीकी शरणार्थिनी, ‘माहुरकी शकुन, ‘ललका पागकी तिरू, ‘कमलमुखी कनियाँकी कमलमुखी, ‘पनडुब्बीकी कादम...विधवा नहीं है, परन्तु इनके जीवन का तीक्ष्ण दंश कितना क्लेशकर है--- यह अनुमान करना असम्भव है। किसी स्त्री के लिए जीवन जीना एक दुष्कर सबक हो जाता है। सतीत्व बचाने, सुरक्षित सतीत्व का प्रमाण देने, अपने को पुष्पवती-फलवती साबित करने, अपने जीवन साथी का चुनाव अपनी सुविधा और पसन्द से करने, एक जून रोटी और एक प्याली चाय की प्राप्ति हेतु किसी भी पराए मर्द के साथ हमबिस्तर होने, बेराजगार पति की पत्नी होने के कारण जीवन के गान-मुस्कान से च्युत रहने, अनाहूत अपराध के दण्ड को चुपचाप शिरोधार्य करने और कौलिक मर्यादा की रक्षा में खुद को मिटा देने, परम्परा के निर्वाह में अपना अस्तित्त्व भूल जाने का कौशल जिस मिथिला, या जिस भारत की स्त्रियाँ अपने पूरे जीवन मंे सीखती रही हैं और यह सीख लेने में अपने को धन्य मानती रही हैं; राजकमल चौधरी की कहानियों का कथ्य-शिल्प उसी ज्वालामुखी के गर्भ से बाहर आया है। कायदे से देखेें, तो आज इक्कीसवीं शताब्दी की गौरवमय घोषणाओं के बावजूद, देश की स्त्रियों की दशा, इससे बहुत आगे नहीं आई है। कई बार तो शर्म महसूस होती है और हैरत होती है कि वाकई हम उसी देश के वासी हैं, जिसकी गौरवमय परम्परा में स्त्रियाँ वेद की ऋचाएँ गढ़ती थीं, गार्गी, मैत्रोयी, भारती शास्त्रार्थ करती थीं, लक्ष्मीबाई देश की अस्मिता के लिए युद्ध क्षेत्र में रणचण्डी बनी हुई थीं!
इन कहानियों में स्त्रियों के इन नाना रूपों को प्रस्तुत करते हुए राजकमल ने समाज की पुरुष मनोवृत्ति का भली-भाँति विश्लेषण किया है। कथानक, घटनाक्रम जैसे प्राचीन कथा-तत्त्वों से अलग हटकर इनकी कहानियों का स्वरूप पाठकों के लिए एक भिन्न उपक्रम प्रस्तुत करता है, जहाँ एक ही कहानी में कई-कई बातें कही गई हैं। चन्नरदासऔर किरतनियाँभिखमंगों के जीवन पर केन्द्रित कहानियाँ हैं। इनमें पेशेवर भिखारियों के जीवन के राग-द्वेष, अनुराग-विराग, प्रेम-संघर्ष, भीख माँगने, भीख पाने के तकनीकों और उचित अवसरों की समझ, यौन-प्रसंग, भिखमंगों के संगठनात्मक अनुशासन आदि-आदि तत्त्वों की तथ्यपरक प्रस्तुति विस्मयकर है।
साँझक गाछराजकमल चौधरी की वैसी कहानी है, जिसके साथ नाना तरह की समस्याएँ बेवजह चिपक गईं। ननदि-भाउजि,’ ‘सुरमा सगुन बिचारै नाऔर माहुरकहानियों को तो मैथिली के समझदार(?) व्याख्याकारों ने इतना विवादास्पद बना दिया कि बाद के पाठकों के मस्तिष्क पर कहानी के मूल-पाठ का प्रभाव कम और लोगों की चर्चाओं का पूर्वाग्रह ज्यादा छाया रहा। और तो और, ‘सुरमा सगुन बिचारै नाके समर्थन और व्याख्या में जब राजकमल ने एक लेख लिख दिया, तब से उस कहानी के साथ और भी अत्याचार हो गया। वस्तुतः उस लेख में अपनी इस कहानी की चर्चा कर राजकमल चौधरी ने वही भूल की है, जिस भूल के लिए इन्होंने नई कहानी आन्दोलन के वणिक्बुद्धि कथाकारों की खिंचाई की है। इन विवादास्पद कहानियों पर क्रमशः यह आरोप लगा कि किसी मृत पुरुष के साथ, स्त्री के समागम का चित्रण, जैववैज्ञानिक भूल(बायोलाॅजिकल मिस्टेक) है, विधवा बहन और विधुर भाई की परस्पर अनुरक्ति अवैधानिक है, और अनुजवधू के प्रति जेठ की अनुरक्ति अनैतिक है---जबकि बात यह नहीं है। दरअसल, इन कहानियों को ग्रहण करने में सबसे बड़ी समस्या यहाँ से शुरू हुई कि पाठकों या समीक्षकों ने इसे सदाचार के सिद्धान्तों के साथ पढ़ना शुरू किया। यदि इसे मानव-जीवन की अनुभूतियों और अपेक्षाओं के साथ पढ़ा गया होता, तो कुछ सही परिणाम सामने आता। लेकिन इससे भी बड़ी विडम्बना यह है कि जब कभी पाठ्यक्रम में राजकमल चौधरी को सम्मिलित करना जरूरी होता है, तो अध्यापन पेशेे से जुड़े लोग इनकी कहानी ललका पागचुन लेते हैं, जो राजकमल का मुख्य स्वर ध्वनित नहीं करती, उनके रचना-कौशल की कोई एक छवि प्रस्तुत करती है; और जब लेखक वर्ग उनकी प्रतिनिधि कहानी ढूँढने चलते हैं, तो वे साँझक गाछ चुनते हैं, जो अस्तित्त्वरक्षा हेतु दिशाहारा, अन्धे कुत्तों की तरह भटकते तथा अस्मिता की इमारत खड़ी करने में रत मनुष्य के जीवन-दर्शन का उदाहरण है। इधर मैथिली के समर्थ आलोचक ललितेश मिश्र ने कह दिया कि साँझक गाछऔर मुक्ति प्रसंगराजकमल चौधरी के पश्चाताप से भरा पड़ा है। हालाँकि इतनी हास्यास्पद बात की चर्चा करना, उचित नहीं है, फिर भी...। जिस चिन्तनशील व्यक्ति के जीवन और कर्म और लेखन में कभी कोई फर्क नहीं होगा, उसे न कभी प्रपंच करना पड़ता है, न कभी भय होता है, न ही वह पश्चाताप करता है। दूसरों के प्रपंच, धोखा, बेईमानी, अनाचार, लूट-पाट से उद्भूत परिस्थितियों पर हैरत होना, धिक्कारना, ललकारना...किसी भी अर्थ में पश्चाताप नहीं हो सकता। मुक्ति प्रसंगस्वाधीनता के दो दशक पूरे कर रहे भारतीय नागरिक के साथ हुए प्रपंच, रुग्णता का शानदार चित्र है, जिसे राजकमल चौधरी ने दुर्गन्धि, पीले मवाद और रक्त मिश्रित पेशाब के रूप में देखा है। साँझक गाछके कथानायक, और उसकी भौजी के जीवन कास्वांगहैरत उत्पन्न करता है। किसी भी रचना में रचनाकार का अपने नायक के साथ सहानुभूति होती अवश्य है, नायक के विचार और हरकतों के माध्यम से रचनाकार अपनी ही बात कह और कर रहा होता है, पर वह नायक, स्वयं लेखक नहीं होता। समाज की जिन परिस्थितियों में रचनाकार स्वयं झुककर समझौता कर लेता है और जिन परिस्थितियों में दृढ़ रहता है, सारी आपदाओं को झेलकर अपना भविष्य कंटकमय कर लेता है, यह जरूरी नहीं कि उसका नायक भी वैसा ही हो। उसका नायक समाज के नागरिकों का प्रतिनिधि भी होता है, इसलिए मैंशैली की हर रचना का नायक लेखक नहीं होता, इसलिए मुक्ति प्रसंगऔर साँझक गाछऔर कवि परिचयजैसी रचनाओं का नायक पूरा-पूरा स्वयं लेखक ही नहीं, समकालीन समाज का नागरिक भी है। और साँझक गाछका नायक उसमें पश्चाताप नहीं कर रहा है, वह विस्मित है, वह अपनी मजबूरियों, अपनी भौजी की मजबूरियों और अपने भतीजों की मजबूरियों की तुलना कर रहा है। वह उस लालसा को तौल रहा है, कि इस विधवा स्त्री ने अपनी सन्तानों के भावी जीवन सुधारने हेतु उचित शिक्षा-दीक्षा की सुविधा पाने के लिए किसी सम्पन्न जमीन्दार की बाँह पकड़ी है या अपनी इच्छा-आकांक्षा-वासना की पूर्ति हेतु अपनी सन्तानों के भावी जीवन का आत्म-सम्मान छीना है। बिडम्बनाओं से व्यथित होना पश्चाताप नहीं है। देश, समाज और व्यवस्था की विकृतियों पर चीखना पश्चाताप नहीं है, मानवता है, शौर्य और पराक्रम का उद्घोष है। राजकमल चौधरी ने पूरे जीवन और पूरे लेखन में अपनी मानवता और पराक्रम का ही संकेत दिया है, उन्होंने ऐसा कोई भी साहित्यिक या गैरसाहित्यिक काम नहीं किया, जिसके कारण उन्हें पश्चाताप करना पड़े। ईमानदार लेखक, संवेदनशील नागरिक, नैष्ठिक गृहस्थ और बेहतरीन पिता-पति-दोस्त के रूप में राजकमल चौधरी से बेहतर उदाहरण शायद ही कोई बन सकें। दोष केवल उन पर इस दृष्टि से मढ़ा जा सकता है कि उन्होंने अपने स्वास्थ्य के प्रति सदा अत्याचार ही किया। पर खैर...
आज भी हमारे समाज की स्त्रियों को किसी पुरुष के आश्रय के बिना अपना जीवन पहाड़ लगता है। नीयत केवल सन्तानोत्पत्ति नहीं रहती। वासनात्मक मनोवेग, जीवन-यापन के साधन की प्राप्ति और सामाजिक-भौतिक प्रकोप से अपनी सुरक्षा---ये तीन स्थितियाँ अधिकांश स्त्रियों को किसी पुरुष के प्रति आकर्षित करती हैं। अपवाद हरेक सिद्धान्त के होते हैं। और इनमें से किसी भी स्थिति के वशीभूत स्त्री, अपने को एक पुरुष को सौंपकर सुरक्षित महसूस करने लगती हैं। जिस स्त्री के साथ यह सुरक्षा नहीं है, वह या तो लुटती रहती है, या बिकती रहती है। पर इससे अलग किस्म की स्त्रियाँ भी हैं, जिनके पास ये सारी सुरक्षाएँ हैं, फिर भी उनके जीवन में थिरता नहीं हैं।हरिद्वारवासकी मालती, ‘अन्धकारके अधिनायक की पत्नी जैसी स्त्रियों के लिए देहसे बड़ी नैतिकता कुछ भी नहीं है और मानव-जीवन के यथार्थ का यह अकाट्य पहलू है।
बेटी, बहन, बीवी के अलावा दुनिया की हर जवान स्त्री को कामान्ध और क्षुधाकुल शेेर की नजर से देखनेवाले पुरुष, आज भी समाज के नीति के रक्षक हैं। कोपड़की चमेला वर्षों से जवान तन और जवान मन का बोझ ढोती रह गई, उसकी विधवा माँ उसकी शादी नहीं करवा पाई, समाज कुछ नहीं करवा पाया, पर जब उसने स्वयं किसी कमाऊ सद्पुरुष को अपना देवता बना लिया, तो नीति के रक्षक उस पर पंचायत करने बैठ गए। सती धनुकाइनकी सत्ती गाँव की बेटी है, फिर भी रात भर उसका दरवाजा गाँव के युवक पीटते रहते हैं और सत्ती अपने शील की रक्षा हेतु काँपती रहती है।
राजकमल चौधरी की कहानियों में पुरुष का चारित्रिक वैविध्य भी विवेच्य हैं। एक तरफवैष्णवमें विधवा पुत्रवधू के बिस्तर पर खेलते हुए विधुर श्रीमन्त हैं, जो वैष्णव हैं, अर्थात् माँस-मछली नहीं खाते, पर कसाई के हाथों वृद्ध गाय बेच लेते हैं, दूसरी तरफ मलाहक टोल: एक चित्रके तिरपति मिसर हैं, जो साग-सब्जी की तरह नाना जाति, नाना उम्र की स्त्रियों का भोग करना अपने जीवन का परम कर्तव्य मानते हैं। और, इस चरित्र के पुरुष पात्र से भी इनकी कहानियाँ भरी पड़ी हैं।
परम प्रिय निरमोही बालम...और किछु अलिखित पत्र--ये दो कहानियाँ मिथिलांचल की स्त्रियों के जीवन के अन्यतम रहस्य को, उनके भीतर की निश्छलता, पवित्रता और समर्पण को इस कारीगरी से प्रस्तुत करती हैं कि पाठकों की समस्त संवेदना जाग्रत हो उठती है। सहानुभूति का अम्बार लग जाता है। दरअसल कथा लेखन का औचित्य और उसकी सार्थकता मोटे तौर पर यही है कि उसके माध्यम से एक महत्त्वपूर्ण बात महत्त्वपूर्ण ढंग से कही जाए, और उससे एक अधिमान्य उद्देश्य की पूर्ति हो। कहानी की यही विशेषता उसे शाश्वतता प्रदान करती है। जिस रचना में रचनाकार अपने द्वारा समर्थित पात्र को पाठकों की सहानुभूति नहीं दिला पाता है, वह उसकी असफलतम रचना होती है। राजकमल चौधरी की हर रचना को पाठकों से समर्थन, सहानुभूति और स्वीकृति मिली है। और, इसका एक मात्र कारण है कि इनकी तमाम रचनाओं के पात्र वस्तु, शिल्प, भाषा...नागरिक जीवन क्षेत्र से उद्भूत हैं।
इन्हीं स्थितियों के साथ राजकमल चौधरी की मैथिली कहानियाँ गागर में सागर भरती हुई अपनी शाश्वतता प्रमाणित करती हैं और विमर्श की नई व्याख्या को आमन्त्राण देती हैं। आज विश्व-साहित्य में नारी लेखन और नारी जीवन पर जितनी भी बहसें हो रही हैं, उसका सारा संकेत राजकमल के कथा लेखन में चार दशक पूर्व ही दे दिया गया था। पर, हम भारतीयों को तो अपनी उपलब्धियों पर गौरवान्वित होने भी नहीं आता। पुरुष मनोवृत्ति के बरक्स स्त्री जीवन के इतने सूक्ष्म विश्लेषण की आवश्यकता हमें पर्याप्त समय पूर्व ही महसूस करनी चाहिए थी। पाठकों की सहानुभूति तो इनकी रचनाओं को तब भी मिली थी, विचार और विश्लेषण के ठेकेदारों को, तब शायद गुटबाजी और राजनीति से फुर्सत नहीं मिलती थी, कदाचित अब मिले।

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