जनहित उमिर गँवाबै, ऐसो को उदार जग माही
(महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह गाथा)
इस आलेख में तथ्यात्मक पुष्टि के लिए 'कल्याणी फाउण्डेशन' समेत 'दरभंगा राज परिवार' से सम्पर्कित लोगों से पूछताछ और सम्बन्धित वेबसाइटों के अध्ययन के अलावा एडवोकेट ईश्वरी नन्दन प्रसाद की पुस्तिका 'द यंगेस्ट लेजिस्लेटर ऑफ इण्डिया, द बायोग्राफी ऑफ द ऑनरेबल महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह बहादुर, के.सी.आई.ई. ऑफ दरभंगा',[1] प्रो. अनिरुद्ध झा के आलेख 'महाराजाधिराज डॉ. सर कामेश्वर सिंह' और डॉ. सचिन सेन के आलेख'रोल ऑफ डॉ. सर कामेश्वर सिंह इन द फिल्ड ऑफ इण्डियन जर्नलिज्म' [2] का उपयोग किया गया है। विहित सामग्री उपलब्ध करवाने के लिए मित्रवर डॉ. तारानन्द वियोगी का आभारी हूँ।
मिथिला की प्राचीन संस्कृति के संवर्द्धन में 'दरभंगा राज' घराने का महत्त्वपूर्ण स्थान है। लगभग 8380 किलोमीटर में विस्तारित इस राज घराने का मुख्यालय आज का दरभंगा ही था। इसका भौगोलिक क्षेत्र के आज के बिहार प्रान्त का क्षेत्र मिथिला क्षेत्र था। मिथिला में ओइनवार वंश की राजशाही के अन्त और तुगलक साम्राज्य के पतन के बाद बिहार के इस उत्तरी भाग में, अर्थात्, मिथिला में पनपी अराजकता मुगल साम्राज्य की स्थापना तक छाई रही। केन्द्रीय सत्ता के अन्त हो जाने की वजह से मिथिला में छाई इस अराजक परिस्थिति का लाभ लेकर कुछेक राजपूतों ने अनेक क्षेत्रों में अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित करने की चेष्टा की, जिसमें उन्हें सफलता भी मिली। मिथिला क्षेत्र में उस दौरान केशव मजुमदार और मजलिश खाँ के शासन का भी उल्लेख मिलता है। शहंशाह अकबर के शासनकाल में महामहोपाध्याय महेश ठाकुर द्वारा खण्डवला राजवंश की स्थापना से उस अराजकता का अन्त हुआ। महेश ठाकुर के पितामह श्रीपति ठाकुर खण्डवा से मिथिला आए थे। यद्यपि उनके पूर्वज मूलत: मिथिला के ही थे। उनके वंश के एक विद्वान शंकर्षण उपाध्याय को मध्य प्रान्त के खण्डवा में दानस्वरूप कुछ जागीर मिली, और वे वहीं जाकर बस गए। सोलहवीं शताब्दी के आसपास उनकी आठवीं पीढ़ी के वंशज श्रीपति ठाकुर इधर वापस आए, उन्हें भौर में बसाया गया। महेश ठाकुर उन्हीं के पौत्र और शंकर्षण उपाध्याय की दसवीं पीढ़ी के वंशज थे। सम्पत्तिशाली होने के कारण उनकी सामन्ती उपाधि 'ठाकुर' ख्यात हो गई, और कौलिक उपाधि 'उपाध्याय' गौण पड़ गई। महेश ठाकुर के अग्रज भगीरथ की विद्वता भौर में अतिविख्यात थी।
महेश ठाकुर, रानी दुर्गावती (सन् 1524-1564) के समकालीन थे। खण्डवा क्षेत्र में उनकी यथेष्ट प्रतिष्ठा थी। जनश्रुति है कि वे दुर्गावती को पुराण-पाठ सुनाया करते थे। किसी कारण एक दिन उन्होंने अपने प्रिय शिष्य रघुनन्दन को भेज दिया, जब उन्हें कुछ अनबन हो गई। इस अप्रिय प्रसंग से दुखी होकर गुरु-शिष्य वहाँ से दिल्ली आ गए। उनकी विद्वता से मुगल शासक अत्यन्त प्रभावित हुए। वहाँ महेश शिष्य रघुनन्दन को दक्षिणा स्वरूप जो भी प्राप्त हुआ, उन्होंने अपने गुरु महेश ठाकुर को अर्पित कर दिया। वह दक्षिणा मिथिला राज्य का शासन सँभालने का फरमान था। फरमान लेकर महेश ठाकुर मिथिला पहुँचे तो, किन्तु वहाँ उन्हें पहले से राजसुखलिप्त सामन्तों के उग्र विरोध का सामना करना पड़ा। अपने बुद्धिबल-कौशल से उन्होंने सारे विरोधों को शान्त कर लिया।
किन्तु महेश ठाकुर को मिथिला का शासनाधिकार मिलने की प्रक्रिया पर विद्वानों के बीच मतैक्य का अभाव आज भी है। एक मत यह भी है कि महेश ठाकुर ने मानसिंह को प्रभावित कर यह राज्य प्राप्त किया। चारो ओर छाई अशान्ति के मद्देनजर अकबर की भी ऐसी ही इच्छा थी। महेश ठाकुर को मिथिला का शासनाधिकार सौंपकर अकबर राज्य-विस्तार के पक्ष में सुनिश्चित होना चाहते थे।...पर तिथि-भेद के कारण इस कथा पर आसानी से विश्वास करना कठिन है। राजा मानसिंह का जन्म दिसम्बर 21, 1550 को हुआ था। सन् 1576 में हल्दीघाटी युद्ध में महाराणाप्रताप से उनके युद्ध करने का उल्लेख अवश्य मिलता है। सन् 1589 में राजा भगवानदास की मृत्यु के बाद उनके दत्तक पुत्र राजा मानसिंह ने जयपुर का शासन सँभला था। पर शाही निर्णय में भागीदारी की उनकी आयु न्यूनतम 20 वर्ष की भी आँकी जाए, तो सन् 1571 में वे इस योग्य हुए होंगे। तब तक तो खण्डवला राजवंश के संस्थापक राजा महेश ठाकुर (सन् 1556-1569) का शासन समाप्त भी हो गया था। सन् 1569 में उनके उत्तराधिकारी गोपाल ठाकुर मिथिला के राजा हो गए थे, जिनके काशी-वास में चले जाने के कारण उनके अनुज परमानन्द ठाकुर गद्दी पर बैठे और सन् 1581 तक राज किया। इसलिए मानसिंह को प्रभावित कर महेश ठाकुर द्वारा मिथिला का शासनाधिकार प्राप्त करने की कथा कोरी कल्पना प्रतीत होती है। हाँ ऐसे उल्लेख अवश्य मिलते हैं कि महेश ठाकुर ओइनवार वंश के परम विद्वान पुरोहित थे।
दूसरी कथा कुछ अधिक प्रमाणिक प्रतीत होती है कि जलाल उद्दीन मोहम्मद अकबर (1542-1605) ने फ़रवरी 14, 1556 को शासन सँभाला और महसूस किया कि इस मिथिला क्षेत्र में किसी राजा की नियुक्ति हुए बिना अराजकता नहीं मिटेगी और इस क्षेत्र से कर-वसूली असम्भव होगी। इसलिए उन्होंने खण्डवला वंश के राजपण्डित चन्द्रपति ठाकुर को दिल्ली बुलाकर पूछा कि उनका कौन-सा पुत्र मिथिला का कर-संग्रहकर्ता घोषित करने योग्य है! चन्द्रपति ठाकुर ने अपने मझले पुत्र महेश ठाकुर का नाम लिया और रामनवमी के दिन महेश ठाकुर मिथिला के कार्यवाहक कर-संग्रहकर्ता घोषित हुए। यही महेश ठाकुर खण्डवला राजवंश के संस्थापक हुए। मिथिला में इस राजवंश की पहचान 'दरभंगा राज' की संज्ञा से भी होती है। इस वंश के परवर्ती राजाओं ने मिथिला की सामाजिक स्थिति, कृषि-व्यवस्था और राजनीतिक मामलों को क्रमश: सशक्त किया। महेश ठाकुर मिथिला के कार्यवाहक कर-संग्रहकर्ता घोषित करने का वर्ष कहीं-कहीं सन् 1577 उल्लिखित है, जो तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता; क्योंकि सन् 1577 के आते-आते तो इस राजवंश के तीसरे राजा परमानन्द ठाकुर का शासन आ गया था; निश्चय ही यह वर्ष सन् 1556 ही रहा होगा। उन दिनों महेश ठाकुर एवं उनके शिष्य रघुनन्दन की विद्वता पूरे भारत में चर्चित थी। 'सर्वदेश वृतान्त संग्रह' शीर्षक से महेश ठाकुर ने 'अकबरनामा' के संक्षिप्त संस्करण का संस्कृत अनुवाद सन् 1590 में (अकबर-शासन के चौंतीसवें वर्ष में) बीरबल की आज्ञा से किया था।
मधुबनी जिले के भउर (भौर) गाँव में राजधानी बनाकर महामहोपाध्याय महेश ठाकुर ने सन् 1556-1569 तक राज किया। वे पूर्वी भारत में संस्कृत के उस दौर के सर्वश्रेष्ठ महान विद्वानों में से एक थे। उन दिनों मिथिला नरेश को 'तिरहुत सरकार' कहा जाता था। बार-बार युद्ध के अवसर उपस्थित हो जाने की वजह से तिरहुत सरकार महेश ठाकुर ने अपना सैन्य-बल भी गठित किया, जिसे उनके वंशज राजाओं ने बखूबी निभाया। मिथिला के काव्यों में उनकी वीरता का निदर्शन आज भी जब-तब दिख जाता है। तिरहुत के लोककण्ठ में बसे उनके रोचक और अनुकरणीय-सराहणीय आचरण के अनेक किस्से चाव से सुने जाते हैं।
इस वंश के नौवें राजा, राजा रघु सिंह (सन् 1700-1736) ने पहली बार 'सिंह' की उपाधि धारण की। इनसे पहले के सभी राजाओं की कुल-उपाधि 'ठाकुर' ही थी। उन्होंने एक लाख रुपये के वार्षिक पट्टे पर दरभंगा और मुजफ्फरपुर सहित पूरे तिरहुत सरकार का शासनाधिकार प्राप्त किया। यह राशि उस दौर की बहुत बड़ी रकम थी। सन् 1685 में तिरहुत सरकार का वार्षिक राजस्व मात्र 7,69,287 रुपये था। उनके शासनकाल में नवाब सूबेदार महावत जंग, उनकी सम्पत्ति से अत्यधिक ईर्ष्या करते थे। उन्होंने रघु सिंह के पारिवारिक सदस्य को पटना में कैद कर लिया। रघु सिंह कैद से बच निकले और मुगल गवर्नर से बड़े अनुदान के साथ-साथ इस शर्त पर सम्पत्ति वापस पाने में सफल हुए कि वे 'न्याय करें, संकट दूर करें और देश में समृद्धि लाएँ।' इस शर्त को दरभंगा के राजा रघु सिंह और उसके बाद के महाराजाओं ने पूरा किया। उन्होंने मधुबनी के पास भौर में एक मिट्टी की दीवार का किला बनवाया। उन्होंने अपने प्रिय खवास (निजी चाकर) वीरू कुर्मी को कोशी अंचल की व्यवस्था सौंप दी थी। शासन-मद में वह सेवक अपने महाराज से ही द्रोह कर बैठा। महाराज ने वीरतापूर्वक विद्रोह का शमन किया और नेपाल की तराई के पँचमहाल परगने के उपद्रवी राजा भूपसिंह को भी युद्ध में मार डाला।
राजा रघु सिंह के द्वितीय पुत्र और दसवें शासक राजा बिसुन सिंह के अनुज राजा नरेन्द्र सिंह मिथिला के ग्यारहवें शासक हुए। इनका शासनकाल सन् 1743-1770 तक का है। निश्चित समय पर बंगाल के नवाब को राजस्व नहीं चुकाने के कारण नवाब अलीवर्दी खान ने उन पर पटना के सूबेदार रामनारायण से आक्रमण करवाया। अलीवर्दी खान (सन् 1671-1756) बंगाल के नवाब थे। उन्होंने मुग़ल बादशाह को 2 करोड़ रुपए देकर सन् 1740 में नवाब पद की वैधानिकता प्राप्त की थी। अपने 16 वर्षों के कार्यकाल में उन्होंने मुग़ल राजकोष में कभी कोई राजस्व का हिस्सा जमा नहीं किया। वे अंग्रेजों के विरोधी तो थे, पर कूटनीतिपूर्वक। उनके कारण होनेवाले लाभ से उन्हें कोई एतराज नहीं था। वे उनकी तुलना 'मधुमक्खियों' से करते थे; 'जिन्हें छेड़ा न जाए तो शहद मिल सकता था, छेड़ दें तो काट खाए।'...बहरहाल, अलीवर्दी खान के उकसावे से राजा नरेन्द्र सिंह पर पटना के सूबेदार रामनारायण के आक्रमणवाला युद्ध रामपट्टी से चलकर गंगदुआर घाट होते हुए झंझारपुर के पास कन्दर्पी घाट के पास हुआ था। बाद में नवाब की सेना ने भी आक्रमण किया। फिर नरहण राज्य के द्रोणवार ब्राह्मण-वंशज राजा अजित नारायण ने नरेन्द्र सिंह का साथ दिया था। उस दारुण युद्ध में नरेन्द्र सिंह के विजय-पराजय के विपरीतमुखी किस्से हैं। एक वर्ग की राय में नरेन्द्र सिंह विजयी हुए, दूसरे की राय में वे पराजित होने के बाद गिरगिराकर जीवनदान पाकर वापस हुए। पर इतना तय है कि यावज्जीवन नवाब अलीवर्दी खान मिथिला को परेशान करते रहे।
नरेन्द्र सिंह के दत्तक पुत्र राजा प्रताप सिंह (सन् 1778-1785) मिथिला के तेरहवें शासक हुए। उन्होंने सात वर्षों तक शासन सँभला। इसी बीच उन्होंने अपनी राजधानी भौर से झंझारपुर में स्थानान्तरित कर ली। राजा माधव सिंह के सौतेले भाई प्रताप सिंह (सन् 1785-1807) इस राजवंश के चौदहवें राजा हुए। उन्होंने अपनी राजधानी झंझारपुर से हटाकर दरभंगा में स्थापित की। सन् 1762 से इस राज परिवार की सत्ता का केन्द्र दरभंगा बन गया। लार्ड कार्नवालिस ने इनके शासनकाल में जमीन की दमामी बन्दोबस्ती करवाई थी।
राजा माधव सिंह के दूसरे पुत्र महाराजा छत्र सिंह (सन् 1807-1839) खण्डवला वंश के पन्द्रहवें शासक हुए। उन्होंने सन् 1814-15 में शासकीय विस्तार के लिए नेपाल के साथ हुए युद्ध में अंग्रेजों की प्रचुर सहायता की थी। उन दिनों भारत में गवर्नर-जनरल के पद पर आसीन ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासक, 'मार्क्वेज ऑफ हेस्टिंग्स'[3] ने छत्र सिंह के इस सहयोग का विधिवत संज्ञान लिया। छत्र सिंह को दरभंगा राज-परिवार की पुरानी प्रथा के अनुसार अपनाई जानेवाली 'महाराजा' की उपाधि उन्होंने ही दी। तब से लेकर सन् 1920 तक 'महाराजा' की उपाधि बरकरार रही।
सन् 1839 में महाराजा छत्र सिंह ने अपनी वृद्धावस्था के तर्क से अपना उत्तराधिकार अपने ज्येष्ट पुत्र रुद्र सिंह को दे दिया। सन् 1839 में ही रुद्र सिंह (सन् 1839-1850) के राज्याभिषेक के कुछ ही दिनों बाद छत्र सिंह की मृत्यु हो गई। इसके बाद, रुद्र सिंह के अनुज ने उत्तराधिकार के लिए लम्बा मुकदमा लड़ा। अन्ततः कलकत्ता उच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि उत्तराधिकार के इस मामले में 'सामान्य हिन्दू कानून' लागू नहीं होगा; दरभंगा राज परिवार को पारिवारिक प्रथा या कुलाचर का पालन करना होगा। ज्येष्ठ पुत्र की हैसियत से रुद्र सिंह दरभंगा के महाराजा घोषित हुए। उत्तराधिकार का मामला स्थायी रूप से ज्येष्ठाधिकार की स्थिति पर सुलझ गया।
सन् 1850 में रुद्र सिंह की मृत्यु के बाद इस राजवंश के सतरहवें शासक महाराजा महेश्वर सिंह (सन् 1850-1860) ने शासन सँभाला। महेश्वर सिंह, महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह के पितामह थे। उनकी मृत्यु के पश्चात् कुमार लक्ष्मीश्वर सिंह के अवयस्क होने के कारण दरभंगा राज 'कोर्ट ऑफ वार्ड्स' के अधीन हो गया। कुमार लक्ष्मीश्वर सिंह का जन्म 25 सितम्बर 1858 को हुआ था। पिता की मृत्यु के समय वे मात्र दो वर्ष के थे। जब कुमार लक्ष्मीश्वर सिंह बालिग हुए तब अपने पैतृक सिंहासन पर आसीन हुए। इसलिए, दरभंगा राज के पुनरारम्भ का इतिहास महाराजा सर लक्ष्मीश्वर सिंह, जी.सी.आई.ई. के राज्याभिषेक की तारीख से शुरू होता है। बीस वर्षों (1860-1880) तक दरभंगा राज, ब्रिटिश राज के 'कोर्ट ऑफ वार्ड्स' के अधीन रहा। इस दौरान, दरभंगा राज के उत्तराधिकार के लिए फिर से मुकदमेबाजी हुई; पर चूँकि पिछली पीढ़ी में ही इस राजवंश की सम्पत्ति का उत्तराधिकार ज्येष्ठाधिकार द्वारा शासित होना तय हो गया था; 'कोर्ट ऑफ वार्ड्स' के अधीन ब्रिटिश अधिकारियों के प्रबन्धन का हस्तक्षेप हुआ। सन् 1880 में 'कोर्ट ऑफ वार्ड्स' के गिरफ्त से मुक्त होने के बाद दरभंगा राजवंश के अठारहवें उत्तराधिकारी महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह (सन् 1880-1898) ने शासन सँभाला।
पश्चिमी शिक्षा ग्रहण करनेवाले वे दरभंगा के पहले महाराजा थे, जिन्होंने एक अंग्रेज अनुशिक्षक चेस्टर मैक्नाग्टेन (जो बाद में राजकुमार कॉलेज, राजकोट के संस्थापक प्राचार्य भी हुए) से शिक्षा प्राप्त की। सितम्बर 25, 1879 को अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने दरभंगा राज की बागडोर सँभाली। शासन सँभालते ही उन्होंने स्वयं को सार्वजनिक कार्यों के लिए समर्पित कर दिया। उन जैसे भव्य व्यक्तित्ववाले स्वाधीनताप्रेमी देशभक्त, परोपकारी, उदार, लोक-हितैषी, शिक्षा एवं कला-प्रेमी महाराजा की स्मृति आज भी देशवासियों के हृदय में संजोई हुई है। भारतवर्ष में उनकी गिनती उस दौर के सबसे बड़े रईसों और परोपकारी लोगों में होती थी। उनके शौर्य, पराक्रम एवं शासकीय कौशल के मद्देनजर ब्रिटिश शासन ने उनके शासन-काल के अन्तिम दिनों में जून 22, 1897 को उन्हें भारतीय साम्राज्य के सबसे प्रतिष्ठित पदनाम 'नाइट ग्रैण्ड कमाण्डर' से सुशोभित किया था। यह पद क्वीन विक्टोरिया द्वारा जनवरी 01, 1878 को जारी शौर्य प्रमाणन के लिए 'द मोस्ट एमिनेण्ट ऑर्डर ऑफ द इण्डियन एम्पायर' आदेश जारी हुआ था; जिसमें तीन वर्गों के सदस्य शामिल थे -- नाइट ग्रैण्ड कमाण्डर (जीसीआईई), नाइट कमाण्डर (केसीआईई) और सहयोगी (सीआईई)। दिसम्बर 17, 1898 को उनकी मृत्यु हुई। महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह की आज्ञा से इंग्लैण्ड के महान मूर्तिकार एडवर्ड ऑन्स्लो फोर्ड (सन् 1852-1901) ने उनके दरबार के नृत्य और संगीत को द्योतित करनेवाली दो पूर्णाकार मूर्तियाँ बनाई थीं। वे महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह से इतने अधिक प्रभावित थे कि उनकी मृत्यु के बाद सन् 1899 में उन्होंने उनकी एक बैठी हुई मूर्ति बनाई। उनकी महत्ता को स्मरण करते हुए वह मूर्ति सन् 1904 में कलकत्ता के डलहौजी स्क्वायर में श्रद्धांजलि-स्वरूप स्थापित की गई।
महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह की राजीतिक सूझ-बूझ एवं राष्ट्रप्रेम इतना उन्नत था कि अंग्रेजों से मैत्री के होने के बावजूद वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को प्रभूत आर्थिक सहयोग देते थे। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वे संस्थापक सदस्य थे। महात्मा गाँधी, राजेन्द्र प्रसाद, अबुल कलाम आजाद, सुभाष चन्द्र बोस से उनके घनिष्ठ सम्बन्ध थे। उनके उदार दृष्टिकोण और देशभक्ति की भावना के असंख्य उदाहरणों में से एक यह है कि जब राष्ट्रीय प्रतिष्ठा दाँव पर लगी थी, ब्रिटिश शासकों की दुर्नीति के कारण भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को इलाहाबाद में अपना अधिवेशन आयोजित करने के लिए उपयुक्त स्थान नहीं मिल रहा था, दिसम्बर 28, 1892 को जब अंग्रेज शासकों ने इलाहाबाद में कांग्रेस-अधिवेशन के सार्वजनिक स्थल पर आयोजन की पाबन्दी लगा दी, तो दरभंगा नरेश ने वहाँ लोथर कैसल के मैदान में रातों-रात एक महल खरीदकर इस अधिवेशन के लिए सुविधा उपलब्ध करवाई, जिसमें कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। इस महल की खरीद ने देश के सम्मान की रक्षा की। फिर वह महल कांग्रेस को दे दिया गया। वह महल अब दरभंगा कैसल के नाम से जाना जाता है। शाही विधान परिषद के दस्तावेजों में दर्ज उनके सद्कर्मों की सूची सार्वजनिक मामलों में उनकी अन्तर्दृष्टि और निर्भीकता के प्रमाण हैं।
लोक-निर्माण की दिशा में महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह ने बेशुमार कार्य किए। जनहित के लिए उन्होंने अपने धन से अनेक विद्यालय, चिकित्सा-केन्द्र एवं अन्य सुविधाओं के केन्द्र निर्मित कराया। दरभंगा में बने औषधालय का लागत-मूल्य उस दौर का 3400 पाउण्ड था, जिसका भारतीय मूल्य 3,41,570 रुपए की बड़ी राशि था। उन्होंने दरभंगा में सभी नदियों पर लोहे के पुलों का निर्माण शुरू कराया। मुजफ्फरपुर जजशिप के निर्माण और उपयोग के लिए उन्होंने अपनी 52 बीघा भूमि दान मे दे दी। दरभंगा राज में किसानों के लिए सिंचाई की सुविधा मुहय्या कराने के लिए उन्होंने इस क्षेत्र में खोदी गई अनेक झीलें और तालाब खुदवाए, जिससे अकाल से मुठभेड़ में मदद मिली। दरभंगा और बाजितपुर के बीच, उत्तर बिहार की पहली रेलवे लाइन सन् 1874 में गंगातट पर बाढ़ (बिहार का एक सुपरिचित शहर) के सामने महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह के कहने पर बनाई गई थी। उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में दरभंगा राज द्वारा 1,500 किलोमीटर से अधिक सड़कों का निर्माण करवाया गया, जिससे व्यापार-विस्तार के साथ-साथ इस क्षेत्र में कृषि पैदावार के लिए प्रचुर बाजार बने। वाराणसी में राम मन्दिर और रानी कोठी जैसे कई धर्मशालाओं का निर्माण; बेसहारा लोगों के लिए घरों का निर्माण करवाया गया। मुंगेर जिले में मान नदी पर कहारपुर झील नाम से एक बड़ा जलाशय बनवाया गया। दुग्ध उत्पादन में सुधार के लिए दरभंगा राज ने मवेशियों के क्रॉस-ब्रीडिंग का अग्रणी कार्य करवाया। उन्होंने अधिक दूध देने वाली हाँसी नस्ल की गाय खोज निकाली। यह स्थानीय गायों और जर्सी नस्ल के बीच की क्रॉस ब्रीड थी। वे हर प्रकार से बड़प्पन के हिमायती थे, सार्वजनिक और धर्मार्थ संस्थानों में उनके योगदान ने उन्हें समुदाय के महान हितैषी के रूप में अमर कर दिया।
महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह की निःसन्तान मृत्यु के बाद उनके अनुज महाराजाधिराज सर रमेश्वर सिंह बहादुर, G.C.I.E., K.B.E., D.Lit. ने सन् 1898 में शासन सँभाला और जून 1929 तक राज किया। वे खण्डवला वंश के उन्नीसवें राजा थे। ब्रिटिश सरकार ने उन्हें 'महाराजाधिराज' के विरुद सहित अनेक उपाधियाँ दीं। अपने अग्रज की तरह वे भी विद्वानों के संरक्षक, कलाओं के सम्पोषक एवं निर्माण-प्रिय राजा थे। अपनी शिक्षा, राजनीतिक दूरदर्शिता, व्यावहारिक ज्ञान, आदर्शवादिता और विवेक के लिए अत्यन्त लोकप्रिय हुए। आधुनिक समय की आहट का उन्हें भरपूर अनुभव था। उन्होंने अभूतपूर्व ढंग से राज के संसाधनों का विस्तार किया। एक तरफ उन्होंने सम्पत्ति-विकास पर ध्यान दिया, संसाधनों का संरक्षण किया तो दूसरी तरफ उन्होंने अपने जीवनकाल में सार्वजनिक दान पर भी प्रभूत धन खर्च नहीं किए।
महाराजाधिराज रमेश्वर सिंह, पं. मदनमोहन मालवीय के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय को कोष के लिए उन दिनों पचास लाख रुपए दिए और धन उगाहने के अभियान में उन्हें प्रभूत सहायता की। पटना अवस्थित दरभंगा हाउस (नवलखा पैलेस) जैसा विशाल भवन उन्होंने सन् 1917 में स्थापित पटना विश्वविद्यालय (भारतीय उपमहाद्वीप का सातवाँ सबसे पुराना स्वतन्त्र विश्वविद्यालय) को दे दिया। सन् 1920 में पटना मेडिकल कॉलेज एण्ड हॉस्पिटल के लिए पाँच लाख रुपए देने वाले वे सबसे बड़े दाता थे।
उन्होंने भारत के अनेक नगरों में अपने भवन बनवाए; अनेक मन्दिरों का निर्माण करवाया। वे भगवती के उपासक एवं तन्त्र-विद्या के ज्ञाता थे। वर्तमान मधुबनी जिले के राजनगर में उन्होंने विशाल राजप्रासाद तथा अनेक मन्दिरों का निर्माण करवाया था। सन् 1926 में तैयार हुआ वहाँ के सबसे भव्य नौलखा भवन के वास्तुविद् डॉ. एम.ए.कोर्नी थे। वे अपनी राजधानी दरभंगा से राजनगर लाना चाहते थे, जो कुछ कारणों से सम्भव न हो सका। कमला नदी की भीषण बाढ़ से होनेवाले भू-क्षरण भी एक मुख्य कारण थे। जून 1929 में उनकी मृत्यु हो गई। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना एक सीमा तक उन्हीं की उदारता से हुई। नए प्रान्त के अस्तित्व में आने के बाद वे बिहार और उड़ीसा की कार्यकारी परिषद के पहले भारतीय सदस्य थे। बाद में वे सर्वाधिक मत हासिल कर काउंसिल ऑफ स्टेट के लिए विजयी हुए। महाराजा सर रमेश्वर सिंह का मानना था कि पूर्वजों के धर्म में आस्था न प्रदान करनेवाली शिक्षा कभी पूर्ण नहीं हो सकती। वे आश्वस्त थे कि अपने ईश्वर में और अपने पूर्वजों के धर्म में विश्वास रखनेवाला हिन्दू, मुसलमान, ईसाई ही बेहतर हिन्दू, बेहतर मुसलमान और बेहतर ईसाई हो सकता है। उनकी इस आश्वस्ति अर्थान्वेष तनिक ज्ञानचक्षु खोलकर करना होगा, वर्ना अतितेजस्वी विचारक के आगे अनायास ही कोई गहरी खई आ जाएगी, जिसमें वे कूद मरेंगे। ईश्वर और पूर्वजों के धर्म का आशय यहाँ रूढ़ि और धर्मान्धता नहीं है। ऐसा कहते हुए पूर्वज के रूप में अपने और समकालीन सामुदयिक दिग्दर्शकों के विवेक नजर आ रहे थे; क्षुद्र सोच के लोग नहीं; धर्म के नाम पर निरीह लोगों को राह भटकानेवाले कथित नेता नहीं।
पटना रेडियम संस्थान, दरभंगा मेडिकल स्कूल, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, पटना विश्वविद्यालय, बिहार और उड़ीसा संस्कृत संघ और कलकत्ता के दरभंगा भवन जिसमें विश्वविद्यालय स्थित है -- महाराजा सर रमेश्वर सिंह के सार्वजनिक उपकार के कुछ स्मारक हैं। उनकी मृत्यु (जुलाई 03, 1929) के उपरान्त उनके ज्येष्ठ पुत्र, महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह, के.सी.आई.ई. ने शासन सँभाला।
खण्डवला वंश के बीसवें और अन्तिम राजा महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह (सन् 1907-1962) रमेश्वर सिंह के ज्येष्ठ पुत्र थे। पिता के निधन के बाद जून 1929 में उन्होंने शासन सँभाला। उनको 'महाराजाधिराज' की उपाधि ब्रिटिश शासन ने दी थी। ब्रिटिश हुकूमत के दीर्घकालीन सम्बन्धों के बावजूद, उनकी निजता को, उनके स्वाधीन चरित्र, शौर्य, अनुशासनप्रियता, उन्नत कार्य करते रहने की अद्भुत क्षमता और सम्पूर्ण व्यवहार में कट्टर भारतीयता को पश्चिमी प्रभाव हिला न सका। वे भारत के सबसे कम आयु के विधायक तो थे ही, ब्रिटिश हुकूमत ने जनवरी 01, 1933 को उन्हें अपनी श्रेष्ठ उपाधि के.सी.आई.ई. (Knight Commander of the Indian Empire) से भी सम्मानित किया था।
कामेश्वर सिंह का जन्म नवम्बर 28, 1907 को हुआ। अपने कुलीन परिवार की परम्पराओं को ध्यान में रखते हुए उनके पिता महाराजाधिराज रमेश्वर सिंह, कुमार कामेश्वर की शिक्षा में गहन रुचिशील थे। उन्होंने प्रारम्भ से ही उन्हें सुविख्यात तत्त्वज्ञानी मिस एडगर की देख-रेख में रख दिया। उन दिनों विभिन्न शाखाओं के प्रख्यात संस्कृत विद्वान और विशेषज्ञ मिस एडगर के अध्यवसाय के सहायक होते थे। प्रारम्भिक जीवन में प्राप्त प्राचीन धार्मिक परम्पराओं के प्रशिक्षण ने अत्यन्त प्रतिभाशाली कुमार कामेश्वर के चिन्तन-मनन पर गहन छाप छोड़ी। उन्होंने आधुनिक परिवेश की शैक्षिक व्यवस्था को भी भली-भाँति समझा; आधुनिक सभ्यता के उत्कृष्ट को आत्मसात किया। किन्तु पश्चिमी सभ्यता का कोई भी प्रभाव, धर्म और संस्कृति के प्रति उनके जन्मजात सम्मान भाव को कभी हिला नहीं सका। अपने कठिन कर्तव्यों और जिम्मेदारियों के निर्वहन में, पूर्व और पश्चिम में जो कुछ भी अच्छा था, उन्होंने सामंजस्य स्थापित करने की कोशिश की।
महाराजाधिराज सर रामेश्वर सिंह की मृत्यु के 12 दिन बाद जुलाई 15, 1929 को कुमार कामेश्वर सिंह ने बाइस वर्ष की आयु में दरभंगा राज का शासन सँभला। इतनी बड़ी जटिल समस्या-सम्पन्न सम्पत्ति का दायित्व अचानक से सँभलना आसान नहीं था। पग-पग पर समस्याओं की नागिन फन काढ़े फुफकार छोड़ रही थी। पर युवा महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह सहमे तक नहीं, डटे रहे। इस नए दायित्व के निर्वहण में अनुकरणीय साहस के साथ डटे रहे। उपस्थित कठिनाइयों का सामना किया। पिता के जीवनकाल में प्राप्त प्रशिक्षण की प्रेरणा उनका सम्बल रहा। कठिनतर परिस्थितियों में भी विचलित न होनेवाले उनके दृढ़ स्वभाव, प्रशासनिक कौशल और प्रभावशाली व्यक्तित्व का परिचय प्रारम्भ से ही मिलने लगा। उन्होंने अपने ऊँचे उद्देश्य का प्रचुर प्रमाण दिया। एक चंचल राजकुमार को अचानक से एक जिम्मेदार महाराजाधिराज की भूमिका में देखना; प्रशासनिक दृढ़ता के साथ लोकोपकारी मृदुलता के सन्तुलित स्वरूप में देखना लोगों को रोचक लग रहा था।
महाराजाधिराज रामेश्वर सिंह अपनी मृत्यु से पूर्व चूँकि कनिष्ठ पुत्र और पुत्री के लिए कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं कर पाए थे; इसलिए कुछ अत्युत्साही लोगों ने शाही सम्पत्ति के आवण्टन के भावी विवादों पर अनुमान लगाना शुरू कर दिया। किन्तु अतिरिक्त सूझ-बूझ-सम्पन्न महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह ने यहाँ भी अपने तीक्ष्ण कौशल का परिचय दिया। कोई समय गँवाए बिना अपनी योजना से सब कुछ निपटाकर सबकी अटकलों पर पानी फेर दिया। महाराजाधिराज के ऐसे उदार निर्णय का किसी को अनुमान तक नहीं था। इस विवाद के बीच अपनी पूँजी बनाने के आकांक्षियों को उनके इस निर्णय से बड़ी निराशा हुई। उन्होंने अपने पिता द्वारा निर्मित 'राज नगर सर्किल' में सात लाख रुपये की वार्षिक आय अर्जित करनेवाली सम्पत्ति अपेक्षित कानूनी औपचारिकताओं की पूर्ति के साथ अपने अनुज के नाम करते हुए अपनी महान उदारता और अगाध भ्रातृ-प्रेम का परिचय दिया। उस अंचल का राज्य-भार भी उन्हीं को सौंप दिया। राजनगर का वह दर्शनीय और वैभवशाली राजप्रासाद सन् 1934 के भीषण भूकम्प में क्षतिग्रस्त हो गया। उसके भग्नावशेष आज भी दर्शनीय हैं। इससे पूर्व 'दरभंगा राज' में महाराजा के कनिष्ठ पुत्रों को ऐसी सम्पत्तियों पर बसाने की प्रथा थी, जिससे 2-3 लाख रुपये वार्षिक आय आ जाए। पर, कामेश्वर सिंह ने इसे अपर्याप्त मानकर अपने छोटे भाई के लिए उससे अलग व्यवस्था की, और इसे उन्होंने कतई कोई बड़ा त्याग नहीं माना। उनकी यह उदारता और प्रेम भरा संस्कार पीढ़ियों के लिए अविस्मरणीय प्रसंग है। उल्लेखनीय है कि ब्रिटिश राज के दौरान तत्कालीन बंगाल के अठारह सर्किल के लगभग साढ़े हजार गाँव दरभंगा नरेश के शासन में थे। राज के शासन-प्रशासन को देखने के लिए लगभग साढ़े सात हजार अधिकारी बहाल थे।
आशावाद की उज्ज्वल आलोकसम्पन्न महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह अपनी जीवन-यात्रा को महान बनाने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ थे। सार्वजनिक गतिविधियों में उन्हें अवसरों की युक्तियुक्त पहचान हो जाती थी। राष्ट्रभक्ति के उनके उत्साह, स्वधीनता के दृष्टिकोण और अद्वितीय दानवीरता...के कारण पूरा जनमन उनके प्रति सम्मान भाव से भर उठता था। उनकी ज्ञान-सरिता में सदैव एक नई दुनिया तैरती प्रतीत होती थी। जिस आयु में लोग अपने वैचारिक क्षितिज को विस्तार देने में तत्पर रहते हैं, उन पर नए युग की सुबह ले आने का दायित्व आ गया। भावी समय एक ओर उज्ज्वल सम्भावनाओं से भरा था, तो दूसरी ओर दुर्वह जटिलता सीना ताने खड़ी थी। समय कठिन था। अपने-अपने वर्चस्व के लिए फासीवादी, साम्यवादी और लोकतान्त्रिक शक्तियाँ संघर्षोन्मुख थीं। गतिशील विचार और प्रतिवादी विचार की धाराएँ विक्षुब्ध लहरों की तरह देश के आरपार उफान मारने को थीं। ऐसी विकट में परिस्थितियों समदर्शी भाव से, कर्मनिष्ठ राजनेता की तरह, सबके लिए समान लाभ का अवसर बनाना, समय पर अपनी पकड़ बनाना अत्यन्त कठिन था। पर उन्होंने इसे अपना परम-चरम कर्तव्य माना और डटकर सबका सामना किया। उन्हें ये सामुदायिक शुभकामनाएँ सहज प्राप्त थीं कि उनके ज्ञान-क्षितिज का उत्तरोत्तर विस्तार हो, वे देश के महान लोगों के बीच प्रतिष्ठा पाएँ, सामुदायिक हित में तल्लीन रहें, राजसी परोपकार से दीन-दुखियों का कष्ट-निवारण करें... ।
समाज की जड़ता मिटाने, रूढ़ियों से समाज को मुक्त करने की उनकी प्रबल इच्छा सदैव कुलबुलाती रहती थी। वे सामाजिक सुधार चाहते थे, मगर सामुदायिक भावनाओं को हठात् आहत करने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। अल्पायु में इतनी बड़ी प्रतिष्ठा के साथ शासन संचालित करते हुए भी उनके आचरण में अहमन्यता का कोई संकेत नहीं था। जनभावना से निरपेक्ष होकर वे कोई निर्णय नहीं लेना चाहते थे। लॉर्ड इरविन की सरकार ने उन्हें सन् 1930 के प्रथम गोलमेज सम्मेलन में भारत के एक प्रतिनिधि के रूप में निमन्त्रित किया। मात्र 23 वर्ष की आयु के एक नौजवान को, जीवन के आरम्भिक दौर में ही इतनी बड़ी राष्ट्र-सेवा का अवसर आया था। इस निमन्त्रण का उत्तर देना वे आचारगत सभ्यता समझते थे। मगर उत्तर देने की उनकी इच्छा के समक्ष एक प्रबल समस्या खड़ी थी -- मिथिला, खासकर श्रोत्रिय ब्राह्मणों के विशेष समुदाय, जिस उपजाति के वे स्वयं थे, रूढ़िवाद का गढ़ था। वे जिस क्षेत्र और उपजाति के प्रमुख थे, प्रचण्ड रूढ़िवाद के पोषक थे, कर्म से भी, विचार से भी। उन रूढ़िवादी श्रोत्रिय ब्राह्मणों को इस प्रस्ताव पर सहमत करना असम्भव था। उनकी हठधर्मिता के आगे इस संवाद का कोई अर्थ नहीं था। अपनी सामाजिक रूढ़ियों पर मरने-मिटनेवाले उस समुदाय की अटल मान्यता थी कि समुद्र पार करते ही महाराजाधिराज का धर्म-भ्रष्ट होना तय है। प्राचीन सनातन धर्म की पवित्रता के प्रति उनके दृढ़ पूर्वाग्रह से उन्हें हिलाना किसी भी तरह मुमकिन नहीं था।
महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह वस्तुतः घोर दुविधा में थे। एक ओर देश के भाग्य का फैसला करनेवाले गोलमेज सम्मेलन के विचार-विमर्श में भागीदारी का अवसर, दूसरी ओर, मिथिला के पूर्वाग्रही रूढ़िवादियों की कथित धार्मिक मान्यता का उल्लंघन ...। उनकी सामाजिक स्थिति और एक हद तक पारिवारिक शान्ति भी खतरे में थी। अन्तत: उनके नीति-विवेक और राष्ट्रभक्ति ने ही उनका मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने साहसपूर्वक अपनी माँ और छोटे भाई से मन्त्रणा की, सहमति ली और राष्ट्रहित में समुद्र पार करने का निर्णय लिया।
उनके इंग्लैण्ड जाने की सूचना से धर्मभीरु मैथिल समाज के मन-मस्तिष्क में दावानल उबलने लगा। विरोध की आँधी उनके लौट आने की प्रतीक्षा करने लगी। परन्तु महाराजाधिराज ने गहन सूझ-बूझ से काम लिया। अपने कल्पनाशील कौशल से, विदेश-गमन और समुद्रलंघन के सम्बन्ध में भ्रान्तिपूर्ण धारणा रखनेवाले अनभिज्ञ समाज को सहमत किया। अन्तत: वह घटना चिरस्मरणीय साबित हुई। उनके उस साहसिक प्रारम्भ से मैथिल समुदाय का बड़ा उपकार हुआ। अध्ययन, अनुसन्धान की बेहतर सुविधाएँ पाने के लिए समुद्रलंघन करनेवाले मैथिलों को जिस सामाजिक प्रतिबन्ध का सामना बाद में करना पड़ता, उसे महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह ने पहले ही निपटा दिया। इस स्वागतेय घटना ने ही आगामी दिनों में प्रतिभावान मैथिलों को आईसीएस प्रतिस्पर्धा में सहजता से भाग लेने का अवसर दिया। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति म.म. सर गंगानाथ झा के पुत्र आदित्यनाथ झा (सन् 1911-1972) का इंग्लैण्ड में सफल उम्मीदवारों की सूची में शीर्ष स्थान प्राप्त करना इस बात का बड़ा उदाहरण है। वे सन् 1936 बैच के आईसीएस थे। भारत में सिविल सेवा के लिए सन् 1972 में उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया था।
लन्दन के गोलमेज सम्मेलन की सभा, महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह के राजनीतिक अनुभव के लिए प्रशंसनीय प्रशिक्षण-स्थल साबित हो रहा था। पूरे भारत के प्रतिनिधियों से भरी उस सभा में व्यक्त विचारों का उन्होंने भरपूर लाभ उठाया। वहाँ उन्हें भारत और इंग्लैण्ड के प्रमुख राजनेताओं के सम्पर्क में आने और उनके व्यक्तित्व एवं विचारों का सही-सही मूल्यांकन करने का अनूठा अवसर मिला। उन्होंने भारत सम्बन्धी राजनीतिक समस्याओं के अध्ययन में गहन रुचि ली। सभी प्रतिष्ठित राजनेताओं के साथ उन्होंने उन प्रसंगों में चर्चा भी की। वे केवल दो ही गोलमेज सम्मेलनों में शामिल हुए। स्वास्थ्य सम्बन्धी विवशताओं के कारण उन्हें तीसरे सम्मेलन का निमन्त्रण अस्वीकार करना पड़ा। पहले दो सम्मेलनों में उनकी महत्त्वपूर्ण भागीदारी और व्यक्त विचार से सारे प्रतिनिधि अत्यन्त प्रभावित हुए थे। उनमें उदीयमान राजनेता के व्यक्तित्व और उल्लेखनीय क्षमता देख रहे थे। प्रतिनिधिमण्डल के सम्मान में उनकी ओर से आयोजित प्रीतिभोज के दौरान उन्हें ब्रिटिश भारतीय प्रतिनिधिमण्डल का मुखिया भी चुना गया। द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में सुधार के अपर्याप्त उपाय एवं भू-स्वामियों के अधिकारों की सुरक्षा पर उनके भाषण तथा धार्मिक मामलों में विधायी हस्तक्षेप के प्रतिरोध के सिद्धान्त की उनकी स्पष्ट घोषणा इतनी सटीक और सारगर्भित थी कि भारतीय बुद्धिजीवी प्रसन्नता से भर उठे। भारत के तत्कालीन राज्य सचिव वेजवुड बेन ने भी युवा महाराजाधिराज की क्षमता और वाक्पटुता की सराहना की।
समाज के सर्वतोन्मुखी सुधार की उनकी इच्छा तो थी, पर कानूनी डण्डे की चोट से नहीं। उनकी दृढ़ मान्यता थी कि लोग अपने चरित्र की रक्षा करें, अपनी धार्मिक पुस्तकों से प्राप्त शिक्षाओं में विश्वास बनाए रखें; पर रूढ़ियों से अवश्य मुक्ति पाएँ। जीवन के सहज संचालन में जो भी मान्यता बाधक बने, उस पर ठहरकर विवेकपूर्ण दृष्टि से निर्णय लें। समुद्रलंघन मात्र से किसी की जाति या धर्म का कुछ नहीं बिगड़ता। वे सदैव इस बात पर बल देते थे कि हर मनुष्य को अपनी आन्तरिक भव्यता और सुधार के प्रति दृढ़ता से प्रयत्न करना चाहिए। ऐसा करने में वे किसी बाहरी प्राधिकरण के दखल या निर्देश को उचित नहीं मानते थे। इसलिए, वे धार्मिक प्रश्नों में विधायिका के हस्तक्षेप के विरोधी थे। विधायिका उनकी राय में विभिन्न जाति-धर्मों के व्यक्तियों से बनी एक मिश्रित संस्था थी। सामाजिक सुधार को प्रभावी और स्थायी बनाने के लिए वे प्रबुद्ध जनमत से इसकी स्वीकृति अनिवार्य मानते थे, क्योंकि कानून थोपकर जनजीवन में जबरन सुधार लाना असम्भव था। सामुदायिक जीवन में भय दिखाकर कोई व्यवस्था कायम करना उचित मार्ग नहीं होता। उसके लिए जनता का नैतिक समर्थन अनिवार्य होता है।
उन दिनों दरभंगा राज की सभा भारतीय सभ्यता के मूल से परिचित प्रबुद्ध पण्डितों, विद्वानों से भरी रहती थी। धार्मिक और सांस्कृतिक मामलों के सही दिग्दर्शन के लिए यह सभा न केवल मिथिला, बल्कि हिन्दुस्तान के अन्य भागों के लिए भी अनुकरणीय थी। महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह अपने पिता की तरह स्वयं भी बड़े धार्मिक व्यक्ति थे। पर वे सनातन धर्म को उसके वास्तविक परिप्रेक्ष्य में देखते थे। सामाजिक दुर्व्यवहारों में सुधार लाने के वे आग्रही तो थे, पर धार्मिक सिद्धान्तों पर डटे रहनेवाले भी थे। इसी कारण वे उन पथभ्रष्ट लोगों की नीति के प्रबल विरोधी थे जिन्हें अपने दृष्टिकोण की संकीर्णता का ज्ञान तक नहीं था, अज्ञानतावश सनातन धर्म के अनिवार्य सिद्धान्तों में सुधार की अपेक्षा पर ऊलजलूल प्रश्न करते थे, और अपने अनुयायियों को गलत नेतृत्व देते थे।
स्वराज्य तो उनका मूल लक्ष्य था ही, स्वाभिमान भी उनके लिए बड़े मूल्य की चीज थी। राँची में बिहार यूनाइटेड पार्टी का उद्घाटन करते हुए सितम्बर 04, 1932 को दिया गया उनका भाषण उनकी घनघोर साहसिकता का प्रमाण है, जिसमें उन्होंने अपने या जमीन्दारों के राजनीतिक आदर्शों को कमतर दिखाने की अनुमति किसी को नहीं दी। उन्होंने स्पष्ट कहा कि 'तात्कालिक राजनीतिक लक्ष्य 'ब्रिटिश साम्राज्य में पूर्ण प्रभुत्व की प्राप्ति' हो भी, तो भी सारा कुछ 'वैध एवं संवैधानिक तरीकों' से प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए।' इस विषय में उन्होंने आगे कहा कि 'कुछ हलकों में ऐसी धारणा बन गई है कि हमारा यह संगठन, इस देश की प्रगति में बाधा डालने के लिए ब्रिटिश नौकरशाही का अभिकरण होगा। हमें इस जड़ीभूत धारणा को मिटाने का प्रयास करना चाहिए। मैं अधिकारपूर्वक घोषणा कर सकता हूँ कि इससे बड़ी भ्रान्ति कुछ भी नहीं हो सकती। भारत का सर्वांगीण विकास ही हमारा नारा है, नारा रहना चाहिए। इसके बिना हम दावा कैसे करेंगे कि 'स्वराज्य' या अपने मामलों के प्रबन्धन की पूर्ण स्वतन्त्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है; ब्रिटिश संसद को ये हमें देनी चाहिए। हमें उस हर शक्ति के विरोध करने के लिए तैयार रहना चाहिए, जो हमारी प्रगति के मार्ग में अवरोध पैदा करती है; जैसा अवरोध, समाज के सम्पूर्ण ताने-बाने को तहस-नहस करने के लिए शासकीय अधिकारी समूह पूरी तत्परता से पैदा कर रहा है।'
साम्प्रदायिक दुर्भावनाओं एवं समुदायिक वैमनस्य के कारण भारत का जैसा घोर अपमान होता रहता था, महाराजाधिराज हमेशा उस दर्द के प्रति सचेत रहते थे। वे सदैव साम्प्रदायिक सद्भाव,पारस्परिक विरोध, साम्प्रदायिक एवं वर्गीय हितों के मधुर समायोजन के पक्षधर थे। राँची की उसी सभा में उन्होंने एकता की जोरदार अपील की। उन्होंने कहा कि 'विभिन्न वर्गों, समुदायों में व्याप्त स्वार्थों और मतभेदों को मिटाकर, सामंजस्य स्थापित करते हुए हमें सच्चे राष्ट्रवादी मार्ग पर आगे बढ़ना है और राष्ट्रीय विकास के आदर्शों की पूर्ति में अपने सारे प्रयास एवं सारी ऊर्जा लगानी है। हमें पूरी तरह से भूल जाना चाहिए कि हम क्या थे; हमें हमेशा याद रखना है कि हमें क्या होना है। राष्ट्रहित में हम अपने सामाजिक हित को गौण रखें। उस अपमान के लिए प्रायश्चित करें कि हमारे देश के साम्प्रदायिक मतभेदों के समाधान के लिए बाहरी अधिकारी नियुक्त किए गए हैं। हम ऐसा करें कि कोई न कहे कि भारत में राष्ट्रीय एकता नहीं हो सकती। कोई न कहे कि ब्रिटिश हस्तक्षेप के बिना भारत दलगत कलह में डूब जाएगा। आइए, हम सभी अपने ओछे मतभेदों को दूर कर एक मंच पर खड़े होकर घोषणा करें कि हम एक हैं और हम सभी भारतीय हैं।' अपनी वैचारिकता के लिए प्रतिबद्ध महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह ने सचमुच राष्ट्रीय जीवन के उच्च हित को आगे रखने की दिशा में साम्प्रदायिक पूर्वाग्रहों को ईमानदारी से दूर किया।
कर्म में उनका दृढ़ विश्वास था। सितम्बर 04, 1932 को ही उन्होंने बिहार के जमीन्दारों एवं अन्य प्रमुख लोगों की राँची में आयोजित प्रतिनिधि सभा की अध्यक्षता करते हुए जमीन्दारों को काश्तकारों के साथ अपनी सक्रिय सहानुभूति प्रदर्शित करने का आह्वान किया। उन्होंने कहा कि हमें किसानों को सहजता से विश्वास दिलाना होगा कि हम अभी भी उन्हीं के साथ, उन्हीं के लिए जीते-मरते हैं। खोखले शब्दों से वे निश्चय ही आश्वस्त नहीं होंगे। हमें उन्हें अपने कर्मों से विश्वास दिलाना होगा। अपने कर्मों से ही हम उन्हें अपने प्रति अनुरक्त कर सकते हैं। मैं नहीं चाहता, सम्भवत: हममें से कोई नहीं चाहता कि हमारे संगठन का निर्देशन-नियन्त्रण कुछ गिने-चुने जमीन्दार मात्र के हाथों में हो। मैं तो इसे पूँजी-श्रम संयुक्त, सुखद और जीवन्त शक्ति के रूप में देखना चाहता हूँ, जो मातृभूमि की शान्ति और समृद्धि के लिए क्रियाशील रहे। स्मरणीय रहे कि काश्तकारों और श्रमिकों के हित में ही हमारा हित और देश की शान्ति सन्निहित है। कम से कम विरोधियों के पैरों तले से जमीन खिसकाने के लिए, हमें उनका दिल जीतना होगा। जमीन्दारों और काश्तकारों के बीच मुझे सदैव विभेद से अधिक सामंजस्य के कारण दिखते हैं।'
वे निरंकुश लोकतन्त्र के हिमायती थे। राज्य परिषद में ही मार्च 27, 1933 को श्वेत-पत्र के बारे में उन्होंने खीजते हुए कहा था कि '... हम जो प्राप्त करने जा रहे हैं वह न तो महात्मा गाँधी की आकांक्षा के अनुकूल वास्तविक स्वाधीनता है, न ही भारत की कामना के अनुकूल प्रभुत्वसम्पन्न हैसियत। कहना चाहें तो हम इसे निरंकुशता से नियन्त्रित लोकतन्त्र कह सकते हैं; एक नया संवैधानिक प्रयोग, जिसके परिणाम का मूल्यांकन कठिन है। हमारे देश जैसी जटिल समस्याएँ सम्भवत: किसी अन्य देश में नहीं हुईं। हम न केवल भारत में ब्रिटिश-स्वार्थ से, बल्कि भारत की प्रान्तीय भागीदारी, हिन्दू-मुस्लिम विभेद जैसी अनेक आन्तरिक समस्याओं से भी जूझते रहे हैं। जब इन मामलों के इतने विविधमुखी घटक अपने तरीके से हमारे यहाँ काम कर रहे हैं, तो किसी सन्तोषजनक परिणति की आशा करना व्यर्थ है।
विभेदों और मनमुटावों के कारण हमने अपना आधार खो दिया है। हम अपनी न्यूनतम माँग की प्राप्ति में भी विफल रहे, क्योंकि हम अपने सामने के सर्वाधिक ज्वलन्त मसलों पर भी आपसी सहमति नहीं बना सके। जब तक हमारे बीच ऐसी स्थिति बनी रहेगी, हम श्वेत पत्र या अपने ऊपर थोपे जानेवाले संविधान की लाख निन्दा कर लें, हमारा कुछ भी भला नहीं होगा। किन्तु जिस क्षण हम एकता बना लेंगे, अपनी एकजुट माँग रखने में सक्षम हो जाएँगे, हमारा विरोध कोई भी ताकत नहीं कर सकेगा।'
द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में बोलते हुए उन्होंने कहा था कि 'हिन्दू समुदाय के धार्मिक विचारों और परम्पराओं पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाली जिन समसामयिक समस्याओं से निपटने की प्रवृत्ति भारतीय विधायिकाओं की है, वह केवल और केवल सामाजिक सुधार से सम्भव है। विधायिकाओं के समक्ष धार्मिक मामलों को या सामाजिक सुधार सम्बन्धी प्रसंगों को लाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। समाज की उन्नति के लिए समुचित सुधार के मार्ग की तलाश का कार्य समुदाय के नेतृत्व पर छोड़ दिया जाना चाहिए। इस दिशा में अनधिकृत हस्तक्षेप, उन लोगों की भावनाओं को आहत करेगा, जो अपनी धार्मिक परम्पराओं को पवित्र मानते हैं। ऐसे किसी भी प्रसंग में हस्तक्षेप-वर्जना की नीति होनी चाहिए, हिन्दू समाज के मौलिक विशेषाधिकारों के सख्ती से पालन करानेवाले अभिकरण का गठन होना चाहिए।'
द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में ही उन्होंने जमीन्दारों की स्थिति की व्याख्या करते हुए कहा कि 'हम न तो दूसरों के अवसरों को रौंदकर खुद को समृद्ध करना चाहते, न पूर्ण राष्ट्रीयता की ओर अग्रसर अपने देश की प्रगति में कोई बाधा डालना चाहते; हम तो बस अपने समुदाय के अधिकारों-विशेषाधिकारों में किसी को अतिक्रमण की अनुमति नहीं दे सकते। हमारी 'स्थायी बन्दोबस्ती' के निहितार्थ इसी में अन्तर्निहित हैं। 'स्थायी बन्दोबस्ती' के तहत हमें दिए गए अधिकार-पत्र को अकाट्य वैधानिक माना जाना चाहिए और उसकी बाध्यकारी नीति का अवमूल्यन नहीं किया जाना चाहिए। इनकी अवहेलना या नए कर लगाकर कृषि आय के अवमूल्यन का हर प्रयास, विश्वास तोड़ने के बराबर माना जाना चाहिए। इन अधिकार-पत्रों को हमारे मौलिक अधिकारों का घोषण-पत्र और सम्मान-रक्षा का प्रतीक माना जाना चाहिए।'
महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह बड़े ही निर्भीक स्वभाव के उचितवक्ता थे। स्पष्टता से अपने न्यायोचित विचार व्यक्त कर देने में कोई हिचक नहीं होती थी। कलकत्ता में जमीन्दार-सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए जुलाई 13, 1930 को उन्होंने कृषि आय के कराधान के बारे में सर डब्ल्यू लेटन के सुझाव के विरुद्ध अपना कड़ा विरोध दर्ज किया। उन्होंने कहा कि 'कृषि आय पर कर लगाने की सर डब्ल्यू लेटन की सिफारिश से स्पष्ट है कि इस कृषि-प्रधान देश के सबसे बड़े हिस्सेदारों के रूप में हमारे अधिकारों की अनदेखी की जा रही है। हमें लगता है कि हमारी हिस्सेदारी के अनुरूप प्रतिनिधित्व देकर हमारी स्थिति की रक्षा करने की दिशा में सरकार को पहल करनी चाहिए। हमें विश्वास है कि ब्रिटिश संसद, सर डब्ल्यू लेटन के सुझाव की पक्षधरता में हमें पर्याप्त प्रतिनिधित्व देने की दिशा में अमल नहीं करेगी; हमारी आजीविका पर किए गए हमलों से हमें बचाने के लिए का कोई प्रयास नहीं करेगी। हम ऐसे समय में आ गए हैं जब पूरा देश ऐसी अराजक स्थिति में है। सौभाग्य से, सर डब्ल्यू लेटन का यह अत्यन्त अनुचित सुझाव, रॉयल वैधानिक आयोग द्वारा निर्धारित संविधान का हिस्सा भी नहीं है...इसे यथेष्ट प्रतिनिधित्ववाले ज़मीन्दारों के विधानमण्डल से स्वीकृत होने की परम आवश्यकता है। मेरी राय में सर डब्ल्यू लेटन का यह अत्यन्त अनुचित सुझाव अकल्पनीय है। जमीन्दारों पर और अधिक कर लगाने के उनके ऐसे सुझाव पर कोई कैसे सहमत होगा, जबकि हम पहले से ही वैसे उपकर का भुगतान कर रहे हैं, जिसके लिए कोई अन्य वर्ग एक पैसा नहीं दे रहा।'
बड़े जमीन्दार होने के बावजूद वे कभी छोटे जमीन्दारों के हितों से अनभिज्ञ नहीं रहे, सदैव उनका समर्थन किया। वे सदैव कहते रहे कि छोटे जमीन्दारों की जरूरतों का संज्ञान लेना और उनकी रुचि की पहचान करना बड़े जमीन्दारों का कर्तव्य है। जमीन्दारों के सम्मेलन में उन्होंने जमीन्दारों को बलपूर्वक सलाह दी कि छोटे जमीन्दारों के खोए हुए विश्वास की पुनर्प्राप्ति हमारा अगला महत्त्वपूर्ण कर्तव्य है। हम इस समस्या की उपेक्षा नहीं कर सकते। इन स्थितियों को यूँ ही जाने दिया गया, तो जमीन्दारों की संख्या घटकर लुप्तप्राय हो जाएगी। उन्हें एक साथ लाया जाना चाहिए; उनके सम्पदा-प्रबन्धन और विकास की व्यवस्था की जानी चाहिए और उनकी ऋणग्रस्तता को कानूनी ढाँचे में उनका अधिकार बनाया जाना चाहिए।'
जमीन्दारी के पक्ष में महाराजाधिराज की वकालत पर तो जमीन्दारों ने भरोसा किया ही, भारतीय व्यापारिक समुदाय एवं अन्य करदाता भी उनके सूक्ष्म अवलोकन से बाहर नहीं थे। लगान की एक बड़ी राशि का भुगतान महाराजाधिराज स्वयं करते थे। देश भर के व्यापार और वाणिज्य में उनकी पर्याप्त हिस्सेदारी थी। वे सदैव करों एवं अधिभारों को कम करने तथा उच्च आय पर अतिकराधान से छूट देने की वकालत करते थे। काउंसिल ऑफ स्टेट के एक सदस्य के रूप में, उन्होंने आयकर निर्धारितियों की दृढ़ भावनाओं को प्रमुखता से स्वर दिया।
महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह के कानों में जब भारत के जमीन्दारों में राष्ट्रभक्ति की कमी के दुर्भावनापूर्ण आरोप की अनुगूँज पड़ी, तो अपने स्वाभिमानी आचरण के वशीभूत वे विफर पड़े। कलकत्ता में आयोजित अखिल बंगाल जमीन्दार सम्मेलन में दिसम्बर 23, 1934 को अपने भाषण में उन्होंने इस आरोप का पुरजोर खण्डन किया। उन्होंने बलपूर्वक कहा कि 'हम जो कुछ भी करते हैं, उसके लिए जब-तब हमें राष्ट्रद्रोही, राष्ट्र-शत्रु और दासता के प्रेमी की संज्ञा दी जाती है। यह हमारे विरुद्ध निराधार और दुर्भावनापूर्ण आरोप है। ऐसे आरोपकों को मैं सलाह देता हूँ कि वे इतिहास के पृष्ठ पलटें या जमीन्दारों एवं अन्य सम्पत्तिशालियों के दस्तावेज देखें। सरकारी खजाने में मोटे कर-भुगतान के अलावा अपने उपार्जन के उन हिस्सों का भी जायजा लें, जो वे सरकारी खजानों में उदारतापूर्वक अर्पित करते हैं। इन सबका हिसाब लगाकर बताएँ कि देश का अधिकांश विकास किनकी सार्वजनिक भावनाओं एवं परोपकारी प्रवृत्तियों से सम्भव हुआ है? जो मूक कार्यकर्ता हैं, वे अपनी चुप्पी के लिए पीड़ित हो रहे हैं। हम अपने संरक्षण के लिए इसलिए चिन्तित हैं कि हम उन अवसरों को छोड़ना नहीं चाहते, जो हमें अपने देश की सेवा के लिए उपलब्ध है। यदि मौन, संयम और दृढ़ता जैसे वैशिष्ट्य देशभक्ति से परांग्मुखता और दासता के आचरण हैं, तो हमें उन उतावले लोगों के पक्ष में, जिन्होंने सीखा ही है 'करना कम', 'बोलना अधिक'; इन आरोपों को स्वीकार लेना चाहिए। हमें आत्म-विज्ञापन से परहेज है, पर लोगों को लापरवाह राजनीतिक दुस्साहसियों की सलाह सुनने के खतरों से सावधान करना भी हमारा दायित्व है। सामने प्रस्तुत इस कर्तव्य की हम उपेक्षा नहीं कर सकते।
इसी विषय पर राज्य सभा में संयुक्त संसदीय समिति के प्रतिवेदन के सम्बन्ध में उन्होंने फरवरी 12, 1935 को कहा कि 'विभिन्न धर्मों और सामाजिक प्रथाओं के अनुयायियों की किसी बहुजातीय बैठक में किसी एक के जीवन-परिवेश में परिवर्तन लाने का भ्रम पालना अनुचित है। सामाजिक सुधार, समाज के भीतर से ही प्रभावकारी होगा। कानून के डण्डे से सामाजिक सुधार के बारे में सोचना ही निरर्थक है, क्योंकि, कानून लोकप्रिय न हो तो लोगों के मन में अनुपालन से अधिक उल्लंघन की धारण रहती है। ऐसे सुधारों को समाज में प्रभावी बनाने का एक मात्र रास्ता स्वैच्छिक संकल्प ही है। संस्कारों और प्रथाओं के उद्भव एवं विकास का इतिहास सुदीर्घ होता है; जो जिस समुदाय या सम्प्रदाय के नहीं हैं, उन धार्मिक संस्कारों का महत्त्व-निरूपण उनके लिए कठिन है। आश्चर्यजनक है कि पश्चिम के भौतिकवादी धर्मावलम्बियों ने भी अपने धर्म के अलौकिक सन्दर्भों के संरक्षण में अपने गवर्नर-जनरल और गवर्नरों को मुश्तैद कर रखा है, परन्तु प्राच्य अध्यात्मवादी धर्मों के पास जो सुरक्षा के उपाय थे, उसकी भी अवहेलना हो रही है, क्यों?... मेरी राय में धार्मिक तटस्थता की नीति के इस परित्याग का मूल कारण है भारतीयों का आत्मबल तोड़कर उन्हें ब्रिटिश अनुदेशों का आज्ञापालक बनाने की की मंशा। इसी कारण वे राजनीतिक कलह फैलाते हैं, ताकि भारतीयों में मतभेद पैदा हो। मैं ब्रिटिश संसद से हार्दिक निवेदन करता हूँ कि वे इस मामले की सहानुभूतिपूर्वक समीक्षा करें और वर्तमान नीति और विधायी सुरक्षा को जारी रखने की अनुमति दें।'
भारत के भद्रजनों के बीच उनकी विशिष्ट पहचान थी। अल्पायु के बावजूद सम्मेलनों में व्यक्त उनके विचार इतने शौर्यशाली थे कि ज्यों ही वे विधायक होने की न्यूनतम आयु में आए, भारत सरकार ने उन्हें तत्काल राज्य परिषद का सदस्य नामित किया। सन् 1933-1946 तक और सन् 1947-1952 तक वे भारत की संविधान सभा के सदस्य रहे। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद, उन्हें झारखण्ड पार्टी के उम्मीदवार के रूप में सन् 1952-58 तक उन्हें राज्य सभा का सदस्य चुना गया; सन् 1960 में वे पुन: निर्वाचित हुए, सन् 1962 में अपने देहावसान तक राज्य सभा के सदस्य रहे। राज्य परिषद में भी अपने भाषणों के कारण उनकी विशिष्ट पहचान थी। देश की राजनीतिक और आर्थिक समस्या सम्बन्धी उनकी धारणाएँ प्रशंसनीय थीं। अत्यन्त सम्प्रेषणीयता के साथ प्रभावशाली शैली में व्यक्त उनके विचार दूरगामी होते थे। अपने भाषणों में वे मौलिकता, स्पष्टवादिता, उदारता, वैचारिक दूरदर्शिता और संयम के लिए उल्लेखनीय माने जाते थे।
उनके उक्त सारे वैशिष्ट्य वस्तुत: वर्तमान प्रगतिशील विचारों की प्रवृत्ति के अनुरूप थे। भारतीय सुधार सम्बन्धी श्वेतपत्र पर राज्य परिषद में उनके भाषण हमें देश के वृहत्तर हित के लिए सचेत करते हैं। सचमुच वे अपने स्वर और दृष्टिकोण से भारत के राष्ट्रवादी राय की ध्वनि थे।
जनवरी 15, 1934 के भूकम्प की तबाही के त्रासद किस्से हाल-हाल तक बिहार प्रान्त के नागरिकों को दहशत में लाते रहे हैं। उस भूकम्प में दरभंगा अत्यधिक प्रभावित हुआ था। पूरे जिले में जान-माल की अपूरणीय क्षति हुई थी। दरभंगा राज की क्षति करोड़ों में आँकी गई। पर महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह ने उस आपदा का सामना धैर्यपूर्वक किया। वैसी आकस्मिक परिस्थितियों में निजी क्षति को परोक्षकर, उन्होंने जनहित को प्रमुखता दी। बड़े पैमाने पर आवश्यक राहत उपाय शुरू करवाए। राज के सभी उपलब्ध संसाधनों का उपयोग किया गया। दरभंगा राज की अन्य परोपकारी गतिविधियों की तरह यह राहत कार्य भी अनायास ही होती गई। उस अप्रत्याशित आपदा में अचानक बेघर और हताश हुए हजारों लोगों के संकट को दूर करने के लिए वह राहत कार्य किया गया। बिहार में विभिन्न एजेंसियों द्वारा किए गए राहत कार्यों की रिपोर्टों से उन दिनों समाचार-पत्र भरे होते थे; पर महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह को अपने कृत्यों के प्रचार में कोई रुचि नहीं थी। मौन वृत्ति से रचनात्मक कार्य चल रहा था। सहयोग पाए लोगों के हृदय कृतज्ञता से भरे थे। संकट की उस घड़ी में दरभंगा राज के परोपकारों पर कुमार गंगानन्द सिंह की 'भूकम्प और दरभंगा राज' शीर्षक पुस्तक में गम्भीरता से विचार हुआ है। गरीबों का सहयोग करते हुए, वे उस उच्च और मध्य वर्ग के प्रति भी उदासीन नहीं थे, जो सरकार या अन्य किसी से मुफ्त राहत स्वीकार करने में संकोचग्रस्त थे। ऐसे लोगों को उन्होंने दो प्रतिशत वार्षिक मामूली ब्याज पर दीर्घावधि ऋण देने की पेशकश की। उनके लिए यह बड़ी रियायत थी, क्योंकि प्राकृतिक आपदा ऋण अधिनियम के तहत सरकार ने छह प्रतिशत की दर से ऋण दिया था। महाराजाधिराज के इस प्रस्ताव का लाभ लोगों ने बड़ी संख्या में उठाया।
भूकम्प के दुर्दिन झेलकर दरभंगा तहस-नहस हो चुका था। पर एक आदर्श शहर के रूप में उसके पुनर्निर्माण की संरचना विकसित करने में महाराजाधिराज सक्रिय हो गए। उन्हें भली-भाँति मालूम था कि भूकम्प में असंख्य बदनसीबों की मृत्यु का अहम कारण सँकड़ी गलियों एवं घरों की सघन बसावट भी थी। पन्द्रह जनवरी के उस विनाशकारी भूकम्प के ताबड़तोड़ झटके, ज्योतिषियों की संवेदनात्मक भविष्यवाणियाँ और उत्तर बिहार में भूकम्प प्रभावित हिस्सों के लिए भयकारी पूर्वानुमान...लोगों को दहशत से भर देते थे। राज्य की असुरक्षा सम्बन्धी प्रसंग में ये सब आगामी समय के लिए अनिष्टकारी संकेत थे। ऐसे समय में वैज्ञानिक पद्धति से भूकम्प-रोधी घरों का निर्माण मात्र ही शहर के पुनर्निर्माण का विकल्प था; जिससे रहवासियों को, खासकर महिलाओं और बच्चों को सुरक्षित किया जा सकता था। इस क्रम में अपने महलों, अधिकारियों के आवासों और राज से जुड़े विभिन्न संस्थानों के परिसरों के पुनर्निर्माण की योजनाओं की जाँच करते हुए उन्होंने जनहित में पूरे शहर में प्रभावी सुधार लाने की कल्पना की। उन्होंने दरभंगा को आदर्श शहर के रूप में पुनर्निर्मित करने के लिए तत्काल पाँच लाख रुपये के अनुदान की घोषणा की, जिसमें ढ़ाई लाख रुपये और दिए गए। इस घोषणा के लिए उन्होंने सरकार से परामर्श करने में कोई समय नहीं गँवाया। इस कार्य के सुचारु संचालन के लिए दरभंगा इम्प्रूवमेण्ट ट्रस्ट गठित गया। प्रारम्भ में निन्दकों ने इस प्रस्ताव की पर्याप्त आलोचना की। इसकी उपादेयता पर सरकार को भी सन्देह था। पर, विवेकपूर्ण परामर्श से यह सबको मान्य हुआ और अन्ततः विधान परिषद द्वारा 'दरभंगा सुधार ट्रस्ट अधिनियम' निर्विरोध पारित हुआ। दरभंगा-दर्शन में आज भी किसी को भूकम्प के खण्डहरों पर तेजी से उभर रहे इस नए शहर का दर्शन हो सकता है। आधुनिक शैली में नया अस्पताल, अधिकारियों के आवास, पुस्तकालय, विद्यालय, पार्क और दिवंगत महाराजाधिराज के नाम से जुड़े स्तम्भ... सब के सब आधुनिक दरभंगा के निर्माता महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह की रचनात्मक प्रतिभा के स्मृति-शेष हैं।
संयुक्त संसदीय समिति की रिपोर्ट में दर्ज असंगत प्रस्तावों पर उन्हें घोर अनास्था थी। उस रिपोर्ट के बारे में उन्होंने राज्य परिषद में फरवरी 12, 1935 को स्पष्ट कहा कि 'भारतीय नागरिकों की असन्तुष्टि के कारणों की अनदेखी नहीं की जा सकती! भारत के लिए प्रस्तावित संविधान में मैं बड़े पैमाने पर 'अनास्था' का प्रभाव देखता हूँ -- शासकों और शासितों के बीच अनास्था, विभिन्न समुदायों के बीच अनास्था, विभिन्न वर्गों के बीच अनास्था, देश के सामाजिक और आर्थिक जीवन को प्रभावित करने वाली वर्चस्वशाली स्वार्थी नीति से उत्पन्न विसंगतियाँ...हमारे सामने विचारणीय हैं। अपने वर्ग के अधिकारों और हितों की रक्षा के लिए हम एक दूसरे से लड़ते रहते हैं। पर अपनी क्षमता के मद्देनजर स्पष्ट दिखता है कि वैधानिक विसंगति दूर करने के प्रस्तावित उपाय उन विसंगतियों से भी बदतर हैं। इनमें सार्वभौमिक भावना कतई नहीं है।'
स्वयं जमीन्दार थे, इसलिए जमीन्दारों के हित का बेहतर संज्ञान लेना उनका कर्तव्य था; संज्ञान लेते भी थे। पर इस कारण वे कभी जमीन्दार-काश्तकार के पारस्परिक सम्बन्ध से बेखबर नहीं हुए। विभिन्न अवसरों पर अपने जमीन्दार मित्रों को उन्होंने काश्तकारी को सर्वोपरि महत्त्व देने में कोई कोताही न करने की सलाह दी। उनके अनुसार काश्तकारों की समृद्धि में ही जमीन्दारों की भलाई सन्निहित थी।
जमीन्दारों की एक बैठक में उनका भाषण किसी श्रमजीवी समूह के तत्त्वदर्शी पक्षधर के भाषण जैसा प्रतीत होने लगा। उन्होंने कहा कि 'ज़मीन्दार' और 'रैयत' सापेक्ष शब्द हैं। रैयतों का हित हमारे हित का विरोधी नहीं है। जमीन्दार तभी तक जीवित रहेंगे जब तक काश्तकार जीवित रहेंगे। काश्तकारों के प्रति अपना दायित्व निर्वाह हम सबका परम कर्तव्य है। हम उनकी ओर मदद के लिए अपने हाथ भर बढ़ा दें तो वे उन्नति पथ पर चल निकलेंगे। भगवान जाने हम कब उनके साथ खड़े होंगे। हम युग-चेतना और सामने खड़े जोखिमों की अनदेखी नहीं कर सकते। इस समय, जब शासी निकाय की शक्तिशाली ताकतें हमारे अधिकारों और विशेषाधिकारों पर न केवल अवांछित अतिक्रमण कर रही है, बल्कि मान-सम्मान से दूर कर, हमें राजनीतिक रूप से ध्वस्त करने में भी लगी हुई है। ऐसे में हमें चुपचाप बैठे नहीं रहना चाहिए। उन्नति के मार्ग पर आगे बढ़ना हमारा सर्वोपरि कर्तव्य है। हमारी वास्तविक सुरक्षा काश्तकारों को उन्नत करने और काश्तकारों एवं हमारे बीच सद्भावना को बढ़ावा देने में निहित है। उन्हें प्रसन्न और समृद्ध बनाने के लिए हमने अतीत में त्याग किए हैं। अब उनकी वर्तमान स्थिति को सुधारने के लिए हमें बड़े त्याग के लिए तैयार रहना चाहिए।'
उन्होंने आगे कहा कि 'हम सहज रूप से उनके मित्र, इष्ट, पथदर्शक (फ्रैण्ड, फिलॉस्फर, गाइड) हैं। हमें यह पद विरासत में अपने पूर्वजों से मिला है। उन्हें सही मार्ग पर ले जाना; वह मार्ग दिखाना, जो उन्हें अधिक समृद्धि और खुशी की ओर ले जाए; वे हम पर निर्भर हैं। ऐसा किए बिना हम अपने अस्तित्व को सही नहीं ठहरा सकते। मैं चाहता हूँ कि आप सब उन लोगों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर खड़े हों, जिनके बीच, और जिसके लिए, आप जीवनयापन करते हैं। इमर्सन ने सही कहा है कि 'दोस्त होने का एकमात्र तरीका एकीकृत होना है' और मैं आपसे इस सिद्धान्त के अनुपालन का आग्रह करता हूँ। जब तक हम अपने काश्तकारों के साथ अपने सम्बन्धों में सामंजस्य स्थापित करने में सक्षम नहीं होंगे, कोई भी सरकार हमारी मदद नहीं कर सकती, कोई भी सुरक्षा हमें नहीं बचा सकती और कोई भी संविधान हमारे अधिकारों और विशेषाधिकारों की गारण्टी नहीं दे सकता। अपने हितों की रक्षा हम दोनों का साझा सरोकार है।'
कृषि सुधार की आवश्यकता की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए उन्होंने स्पष्ट किया कि 'देश की राजकोषीय नीति निश्चय ही कृषकों की समृद्धि-सम्मत होनी चाहिए। कृषि-कार्य के फलने-फूलने से व्यापार, वाणिज्य और उद्योग का विस्तार होगा और आर्थिक कारणों से उत्पन्न की गई भारतीय अशान्ति कम होगी। इस दिशा में निश्चय ही हमें बहुत हद तक सरकार पर निर्भर रहना होगा। किन्तु सरकार जो कुछ भी करे, उसके अलावा अपने काश्तकारों की चिन्तनीय स्थिति में सुधार के लिए हम जो कुछ भी कर सकें, वह करना, हमारे समुदाय के सभी विचारशील सदस्यों का संयुक्त रूप से भी और अलग-अलग भी, सर्वोपरि कर्तव्य है। गरीब काश्तकारों की इच्छा ही जमीन्दार समुदाय के अस्तित्व का पहला और अन्तिम संरक्षक है। इसलिए, उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार हमारे हित में है। बेहतर उत्पाद प्राप्त करने में हमें उनकी मदद करनी चाहिए। इन दिशाओं में सरकारी सहयोग और सत्कृपा के बिना भी हमने अपनी क्षमता भर कार्य किया है। तटबन्ध, जल निकासी, सिंचाई, सड़कें, स्कूल, चिकित्सा राहत, स्वच्छता, जल-आपूर्ति...जैसे कई मद हैं, जिनमें हम उनकी मदद और मार्गदर्शन कर सकते हैं। हम वस्तुत: काश्तकारों की क्रियाशीलताओं के बूते ही जमीन पर जीवित हैं। इसलिए उनका भली-भाँति भरण-पोषण हमारी सामान्य चिन्ता होनी चाहिए। स्थानीय परिस्थितियाँ बेशक अलग-अलग होती हैं; हमें विभिन्न इलाकों की उन गतिविधियों का अध्ययन करना होगा, योजनाएँ बनानी होंगी। अपनी दुर्बलता या उदासीनता के वशीभूत हम यदि इन सबको अपने तरीके से चलने देंगे और गैर-जिम्मेदार आन्दोलनकारियों को हमारे व्यवसाय में अपनी नाक घुसाने के लिए प्रोत्साहित करते रहेंगे, तो निश्चय ही हम धरती से मिटा दिए जाएँगे। आलस्य पर विजय पानेवाला मनुष्य वंशानुगत पापों पर भी विजय पाता है।'
महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह एक व्यावहारिक राजनीतिज्ञ थे। काश्तकारों के साथ अपने व्यावहारिक सम्बन्ध में उन्होंने उक्त सारी वैचारिकताओं की प्रतिच्छवि प्रदर्शित कर दी थी। समय-संकेत के व्यावहारिक आचरण एवं अचूक दूरदर्शिता के साथ उन्हें ज्यों ही कुछ मूल्यवान अधिकारों का अनुभव हुआ, उन्होंने तत्काल उसे स्वीकार किया। राजस्व में स्थायी तौर पर बड़े नुकसान की अवश्यम्भाविता के बावजूद उन्होंने काश्तकारों को परिवर्तनों की दिशा में जागरूक किया। वैचारिकता और निष्पक्षता के प्रति उनकी आश्वस्ति के कारण उन्हें जमीन्दारी कर्तव्य से कोई रोक नहीं पाता था। उस दिशा में बरती गई अधिकांश रियायतें कालान्तर में बिहार के काश्तकारों की मुख्य माँगों में शामिल हुईं, जो परिषद में पेश किए गए बिहार काश्तकारी विधेयक के आधार बने। बिहार के अन्य जमीन्दार उन्हीं के हस्तक्षेप के कारण काश्तकारी विधेयक में किए गए संशोधनों से सहमत हुए, जो बाद में बिहार के काश्तकारी अधिनियम के मुख्य प्रावधान बने, और जिनके अधीन प्रान्तों में काश्तकारी के महत्त्वपूर्ण अधिकार स्वीकार किए गए।
अपने शासनकाल के प्रारम्भिक दौर में भी उन्होंने अनेक परोपकारी कार्य किए, पर बाद में वे उन्हीं की दृष्टि में अपर्याप्त साबित हुए। उन्होंने शीघ्र ही काश्तकारों के हित में ग्रामीण उत्थान की व्यापक योजना शुरू की। इसके अन्तर्गत उन्होंने काश्तकारों की राहत और कृषि-सुधार के लिए पाँच लाख रुपये का प्रारम्भिक अनुदान दिया। यह अनुदान रैयतों की आकस्मिक कठिनाई दूर करने के लिए अंचलीय प्रबन्धकों के पास छोड़े गए लघु अनुदानों से अलग था। वे जमीन्दार और काश्तकार के पारस्परिक सम्बन्धों में नई शुरुआत करनेवाले और अन्य जमीन्दारों को वास्तविकता की ओर जाग्रत करनेवाले नीतिकुशल अग्रदूत थे।
ग्रामीण कल्याण की विभिन्न योजनाओं में अब उनके समक्ष सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पूरे राज में मवेशियों के लिए पर्याप्त चारागाह उपलब्ध कराना हो गया था। इसके लिए उन्होंने विस्तृत संरचना तैयार करवाई। आशा की जाने लगी कि इस योजना के लागू होने से काश्तकारों की वस्तुत: भलाई होगी; पशुपालन में बेहतर मदद होगी। ग्रामीण उत्थान को बढ़ावा देने की दिशा में यह योजना निश्चय ही पूरे प्रान्त में अग्रणी कार्य था।
समय-संकेत के अनुरूप काश्तकारों के साथ सम्बन्ध-समायोजन की उत्कृष्ट सलाह वे अपने जमीन्दार भाइयों को निरन्तर देते रहते थे। उनके पास एक इतिहासज्ञ की दृष्टि थी, वे दुनिया भर के नवीनतम विचारों और विकास की किरणों से अवगत रहते थे। समकालीन वैश्विक आन्दोलनों का अध्ययन करते रहते थे। उस दौर के मानव-जाति की नियति को आकार देनेवाले परिवर्तनों के अनुसार सम्बन्धों का पुनर्समायोजन करते रहते थे। दृष्टिकोण के नए अभिविन्यास पर बोलते हुए जमीन्दारों की बैठक में उन्होंने कहा कि 'हम अपने पीछे ऐसा युग छोड़ आए हैं जिसमें अपने देश की गद्दी पर बैठे रहनेवाले जमीन्दार, वैश्विक शक्तियों से अप्रभावित रहते थे। लोगों के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक जीवन में पूर्वप्रतिष्ठित महत्त्व हथियाए रहते थे। मदद के लिए, एक ओर रैयत, दूसरी ओर सरकार, उनकी ओर देखती रहती थी। उनकी प्रतिष्ठा थी, उनके पास विशेषाधिकार थे, उनके पास शक्ति थी। किन्तु लोकतन्त्र का उमंग अब उन्हें चपेट में लेने की धमकी दे रही है। इसने दुनिया के विभिन्न हिस्सों में अपना काम किया है। जिस पुराने अभिजात वर्ग ने समय-संकेत की आहट नहीं सुनी, उन्हें नष्ट कर नवोदित, दुस्साहसी और सट्टेबाजों की स्थिति में ला दिया है। जिनके पास पुराने रईसों की शिष्टता, संस्कृति और रुचि नहीं रही, उनके पास केवल बदनाम करनेवाले दोष बचे रहे। जहाँ अभिजात वर्ग ने अपने अस्तित्व के लिए खुद को परिस्थिति के अनुकूल ढाल लिया, वे नेतृत्व करने लगे। हमें अपने अस्तित्व और नेतृत्व के लिए उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए। हमें अपने विचार और कर्म से यह दिखाना होगा कि हम प्रगति के विरोधी नहीं हैं, राष्ट्र की उन्नति के विरोधी नहीं हैं, देशद्रोही नहीं हैं, गुलाम नहीं हैं; हम व्यावहारिक और जिम्मेदार हैं। हमारे तरीके उन दूरदर्शियों और क्रान्तिकारियों से बेशक अलग हैं, मद्धम हैं; पर यह हमें निश्चय ही भारतीय स्वराज के समान लक्ष्य तक ले जाएगा। हमें हर मोर्चे पर लड़ना है और सफल होना है।'
जमीन्दारों की सभा में अपने वक्तव्य के अन्तिम अंश में उन्होंने कहा कि 'आप भूल जाएँ कि आप क्या थे। वर्तमान और भविष्य को देखें और तय करें कि हमें क्या करना है। स्थिति की जरूरत के अनुसार खुद को ढालें और आगे बढ़ें। हम एक खड़े चट्टान के कोर पर हैं, एक भी गलत कदम हमें रसातल में डुबो देगा। पर सही तरीके से कार्य करें, शान्तिपूर्वक सुनियोजन और नियन्त्रण से काम लें तो दृढ़ता से शिखर तक पहुँच सकते हैं।' उनका वह भाषण देश के रईसों को जाग्रत करने और समय-सन्दर्भ के अनुकूल खुद को ढालने का आह्वान था। काश्तकारों के साथ गतिशील सम्बन्ध बनाए रखने से; जमीन्दारों द्वारा श्रम और पूँजी के सामंजस्यपूर्ण उपयोग करने से सुखद भविष्य की कामना की जा रही थी। यकीनन आज भी की जा सकती है।
महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह शक्ति-सम्बल के निर्विवाद स्तम्भ थे। जमीन्दारी-व्यवस्था की भव्य परम्परा को चुनौती देनेवाली प्रतिक्रियावादी ताकतों का दृढ़ता से मुकाबला करनेवाला उनसे अधिक प्रतिबद्ध, देश में कोई नहीं था। एक ओर वे जमीन्दारों के अधिकारों-विशेषाधिकारों की रक्षा के लिए दृढ़ता से खड़े रहते थे, तो दूसरी ओर उनके निष्पक्ष व्यवहार की इच्छा भी रखते थे। 'स्थायी बन्दोबस्ती' जारी रखने की उन्होंने ऐसी वकालत की, जिसका प्रतिरोध असम्भव था। 'स्थायी बन्दोबस्ती' की दृढ़ता पर सवाल करनेवालों या जमीन्दारों के हित को चुनौती देनेवालों को उन्होंने सदैव तत्परता से चेतावनी दी। उन्होंने किसानों से निर्दय लगान वसूलकर सुखभोग करनेवाले अंग्रेजों और उनके भारतीय पक्षधरों के विरुद्ध भी अपना ध्यान केन्द्रित किया था। भूमि-ग्रहण के पट्टे की अवधि को ध्वस्त करनेवाले आन्दोलनों के विरुद्ध भी उन्होंने अपनी रणनीति तैयार कर ली थी।
जब कभी करदाताओं के अतिशय दोहन का विधेयक सरकार की ओर से पारित होता, उसके मुखर विरोध का कोई अवसर वे चूकने नहीं देते थे। वित्त विधेयक के अधिभार सम्बन्धी प्रस्ताव पर राज्य सभा में बोलते हुए उन्होंने स्पष्टता से अपना तीक्ष्ण असन्तोष व्यक्त किया। अप्रैल 11,1935 को उन्होंने साफ-साफ कहा कि 'अधिभार में कमी सन्तोषजनक नहीं है। यह एक आपातकालीन उपाय है। ऐसे सभी उपायों पर यदि सरकार समान धारणा बनाती तो उचित होता। वेतन में कटौती और श्रम से अर्जित आय पर अतिरिक्त कर चुकाने को अलग मानने का कोई कारण मुझे नहीं दिखता। इसमें एक को दूसरे से वरीयता देने का कारण क्या है? आपातकालीन करों को कम करने और समान अनुपात में कटौती करने के लिए यदि अपेक्षित बचत का उपयोग किया जाता, तो शिकायत का अवसर कम होता। आज की स्थिति में सरकारी कर्मचारियों को तो उनकी पूर्व की आय मिलने लगी; पर व्यापार, निर्माण, वाणिज्य, उद्योग...में लगे लोगों की आय अभी भी आर्थिक मन्दी के कारण काफी कम है, इस विषय पर अभी तक निर्णय नहीं लिया गया है। इसलिए पूर्व की तुलना में पश्चात का कराधान अधिक नुकसानदेह है, देश की भौतिक प्रगति का अवरोधक है। आशा की जाती है कि अगले वित्तीय वर्ष में अधिभार समाप्त कर देने की दिशा में वित्त विभाग विचार करेगा। सामान्यतया, सरकार किसी न किसी बहाने, अपने किसी न किसी प्रस्ताव के लिए अपना खर्च बढ़ाती जाती है और आपातकालीन करों को स्थायी कर देती है। युद्ध-उपाय के रूप में लागू किया गया अधिकर इसका सटीक उदाहरण है। हम आश्वस्त होना चाहते हैं कि केवल गम्भीर आर्थिक संकट के तनाव के कारण आरोपित आपातकालीन करों का वैसा उपयोग न हो। नए संविधान लागू होने के कारण बढ़े हुए व्यय की सम्भावना से स्पष्ट परिलक्षित है कि सरकार इन आपातकालीन करों को कम करने के आश्वासन को कयामत के दिन तक टाल सकती है।
पूँजी और श्रम के संघर्ष सम्बन्धी उनके विचार शाश्वत और मानवीय मूल्य के पोषक थे। उनकी स्पष्ट राय थी कि जमीन्दार और पूँजीपति यदि राष्ट्रहित में अपनी सम्पत्ति पर आस्था रखें, तो पूँजी और श्रम के पारस्परिक संघर्ष शीघ्र समाप्त हो सकते हैं। आज जितने समाजवादी या साम्यवादी समूह का अस्तित्व दिख रहा है, उसका मूल कारण चतुर्दिक व्याप्त गरीबी और भूखमरी के बीच अपने वैभव-सुख में लीन-तल्लीन पूँजीपतियों का आत्मकेन्द्रित रवैया है। भूख और अज्ञानता में करोड़ों जनता दिनानुदिन दयनीय होते जा रहे हैं, किन्तु अमीरों की निरपेक्षता बनी हुई है। अमीर होते हुए भी वे जरूरतमन्दों की भलाई में फूटी कौड़ी खर्च करना नहीं चाहते। वे सोचना नहीं चाहते कि काश्तकारों को जमीन्दारों की उतनी ही आवश्यकता है, जितनी काश्तकारों पर जमीन्दारों का भरण-पोषण निर्भर करता है। भारतीय जनता की अन्तरात्मा यदि जीवन के इस कठोर सत्य के प्रति जाग्रत हो जाए, तो सार्वजनिक जीवन की तस्वीर बदल जाएगी। तब हम उन करोड़ों जनसाधारण का अधिक ध्यान रख सकेंगे। मजदूर और पूँजीपति भी इसी तरह अपने-अपने हित के लिए एक-दूसरे पर निर्भर हैं। एक दूसरे को पारस्परिक हित से अलग करने पर जनता में ओछे भेद-भाव, कटुता, कलह और घृणा बढ़ेगा। आज के विनाशक आन्दोलनों में ये सभी भाव सशक्त अभिव्यक्ति पा रहे हैं। राष्ट्रहित में यदि पूँजीपति अपनी सम्पत्ति पर आस्था रखे और स्वार्थ त्याग दे, तो स्वाभाविक रूप से ये सारे आन्दोलन समाप्त हो जाएँगे। भारत के राजकुमार, राजा, महाराजा यदि अपने वैभव के साथ अपने राष्ट्रीय उत्थान के लिए खड़े हो जाएँ, तो इस देश को सचमुच कोई पीड़ित कर सकता है?... कदापि नहीं। धन और विशेषाधिकार के संरक्षक यदि जनता के हितों का भी ध्यान रखें, तो भारत कदापि पीड़ित नहीं होग। शाश्वत और स्वर्णिम सत्य है कि जो हाथ हल थामे रहता है, वह राजकुमारों का ताज भी सँभालता है। एकता के रेशमी डोर से अविच्छिन्न बँधे इन हलधरों और जनसामान्य को कोई अलग नहीं कर सकता। हम सब एक हैं और जो बात हममें से एक को प्रभावित करती है, वही बात दूसरे को भी प्रभावित करती है। पुराने ऋषियों ने इसे ही जीवन का नियम बताया है।'
खण्डवला राजवंशीय राजाओं के आदि-पुरुष ही विद्वता के संकेत थे, इसलिए दरभंगा राज में विद्वानों और कलाकारों का बड़ा सम्मान था। शैक्षिक उन्नति में कमोबेश इस राजवंश के सभी राजाओं ने अपनी महती भूमिका निभाई। शैक्षिक-जगत में इस राजवंश का अतुलनीय योगदान चिरस्मरणीय रहेगा। अपने पूर्वजों की तरह शिक्षण-व्यवस्था का उत्तरोत्तर उन्नयन महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह की भी सर्वोच्च आकांक्षा और पवित्र मिशन थी। शिक्षा-संवर्द्धन में उन सभी के योगदान स्पष्ट गोचर हैं। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, कलकत्ता विश्वविद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, पटना विश्वविद्यालय, कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय, दरभंगा मेडिकल कॉलेज एण्ड हॉस्पिटल, ललितनारायण मिथिला विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय जैसे कई शैक्षिक संस्थान उनके दान एवं अवदान से सम्पोषित हैं। इसके अलावा उनके अनुदान से अन्य अनेक शैक्षिक संस्थानों की भी स्थापनाएँ हुईं। कलकत्ता विश्वविद्यालय का कार्यालय तो आज भी दरभंगा राज के भव्य स्मारक 'दरभंगा भवन' में स्थित है। कामेश्वर सिंह स्वाभावत: अपने महान पूर्वजों का अनुगमन करते हुए शैक्षिक विकास में रुचि रखते थे।
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह प्रो-चांसलर भी थे। भारतीय शिक्षण पद्धति में पण्डित मदन मोहन मालवीय के विशिष्ट अवदान को स्मरण करते हुए बीएचयू की कोर्ट मीटिंग में उन्होंने प्रो-चांसलर के रूप में 17 सितम्बर, 1939 को अपने भाषण में कहा कि -- इस विश्वविद्यालय के इतिहास में यह बैठक मील का पत्थर साबित होने जा रही है। आज इस प्रसिद्ध विद्यापीठ से इसके प्रमुख निर्माताओं में से एक का आधिकारिक सम्बन्ध समाप्त होने वाला है। उन्होंने बरसों पहले एक सपना देखा। आनेवाले समय को आलोकित करने की इच्छा ने उन्हें ऐसे सम्मोहित किया कि उन्होंने स्वप्न को यथार्थ बनाने की चेष्टा की। उनके आयास-चक्र में इस महान देश के असंख्य राजकुमारों एवं अन्य लोगों ने अपना कन्धा लगाया, और इस पवित्र नगरी काशी में गंगा-तट पर उन्होंने इस महान संस्था की नींव रखी, जो प्राचीन गुरुकुल परम्परा और आज के विश्वविद्यालय के बीच एक सम्बन्ध-सूत्र स्थापित करती है। बीसवीं सदी में नलग्राम की उत्सव-भूमि में तक्षशिला, नालन्दा और विक्रमशिला के पुनर्जन्म का सपना सच हो गया। इस स्वप्नमहल के शिल्पकार आज यहाँ से निवृत्त हो रहे हैं। पर उनका यह उद्यम समकालीन और परवर्ती पीढ़ियों के लिए अनुकरणीय उद्देश्य बन चुका है। हर महान कार्य में ईश्वरीय प्रेरणा होने के उनके पुनीत उद्देश्य वहीं नहीं रुके। मातृभूमि-प्रेम ने उन्हें चैन नहीं लेने दिया। उन्होंने भारत को अपनी आवाज़ से जगाया। लोक-शासन के दावेदारों को भारत की उस शाश्वत सभ्यता की गतिविधियों के अधिनियमन के लिए सभी धर्मों के महत्त्वपूर्ण मूल्यों के संरक्षण की प्रेरणा दी, जो राष्ट्रव्यापी भविष्योन्मुख विकास के लिए अपनी असीम महिमा व्यक्त करती रही है। पर मानव शरीर की तो अपनी सीमाएँ होती हैं। उन्हें लगा कि शारीरिक दुर्बलताएँ उन्हें और आगे मशाल ले जाने की अनुमति नहीं दे रही है; इसलिए उन्होंने आगे की यात्रा जारी रखने के लिए यह मशाल अगली पीढ़ी को सौंप दिया है। ऐसे पावन अवसर पर, मैं उन्हें हार्दिक सम्मान के साथ नमन करता हूँ।
...मेरी स्मृतियाँ मुझे उस दिन की ओर ले जाती हैं, जब मेरे दिवंगत पिता (स्व. रमेश्वर सिंह) ने पूज्य पण्डितजी के साथ विश्वविद्यालय की स्थापना की योजना में पूरे मन से सहयोग किया और उसकी सुस्थापना के लिए धन एकत्र करनेवाले शिष्टमण्डल का नेतृत्व किया। इसलिए, मालवीयजी के बारे में मेरी सबसे पुरानी छाप इस विश्वविद्यालय के साथ अटूट रूप से जुड़ी हुई है। मैंने हमेशा उन्हें 'बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय' के प्रतीक के रूप में ही देखा है। इससे अलग कुछ भी सोचना मेरे लिए मुमकिन नहीं। पर यह कोई छोटी बात नहीं कि उनके कुलपति पद से मुक्त होने पर महामहिम लॉर्ड रेक्टर ने उन्हें हमारे विश्वविद्यालय के पहले उप-संरक्षक के रूप में नामित किया है; मुझे यकीन है कि यह प्रसंग आपको भी उतना ही सुखद लगेगा, जितना मुझे लगा है। महामहिम लॉर्ड रेक्टर से प्राप्त अनुग्रह सन्देश आपको मैं पढ़कर सुनाता हूँ -- बनारस विश्वविद्यालय से अपनी दीर्घ सुसम्बद्धता के दौरान पण्डित मदन मोहन मालवीय द्वारा दिए गए विशिष्ट अवदान से मैं परिचित हूँ। कुलपति के पद से उनकी निवृत्ति के अवसर पर, उनके अवदानों को स्मरण करते हुए, उन्हें विश्वविद्यालय के प्रथम विधान की धारा 3(2) के अधीन विश्वविद्यालय के उप-संरक्षक नियुक्त कर मुझे लॉर्ड रेक्टर के रूप में अत्यन्त प्रसन्नता हो रही है।
सज्जनो, यद्यपि अब वे विश्वविद्यालय के मामलों में सक्रिय रूप से भाग नहीं लेंगे, पर मुझे इसमें कोई सन्देह नहीं कि उनकी समर्पित सेवा और बलिदान की प्रबल भावना हममें से उन लोगों का मार्गदर्शन करने और प्रेरित करने में कभी विफल नहीं होगी जो उनके इस कठिन कार्य को पूरा करने के कठिन कार्य में लगे रहेंगे। उनकी जीवन भर की तपश्चर्या का लाभ लेने में हम कभी निराश नहीं होंगे; अपनी निष्ठा का जैसा महान उदाहरण उन्होंने हमारे सामने रखा है; वह कभी हमारी दृष्टि से ओझल नहीं होगा। जैसा कि आप जानते हैं, पण्डित मदन मोहन मालवीय, एक ऐसा नाम है, जो पूरे भारत की आत्मा को दर्शाता है। हमारे लिए तो उनके प्रति पर्याप्त रूप से कृतज्ञता प्रकट करना भी सम्भव नहीं है। हमें उनके देशवासी होने पर गर्व है; हमें उस वंश से सम्बन्धित होने पर गर्व है, जिसने इतनी बड़ी प्रतिभा पैदा की है, और यह हमारा सबसे बड़ा सौभाग्य है कि उनका विशाल ज्ञान और अनुभव अभी भी हमारे लिए उपलब्ध है। वे स्वस्थ होकर दीर्घायु हों।
हमें अपने आप को बधाई देनी चाहिए कि हमारे इस महान देशवासी की निवृत्ति के बाद, हमारे ही एक और महान देशवासी यह पद धारण करने जा रहे हैं, जो पहले से ही महान विद्वान, मौलिक चिन्तक और भारतीय धर्म एवं दर्शन के आधिकारिक व्याख्याकार के रूप में अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर चुके हैं। उपयुक्त यह है कि विश्वविद्यालय के जिन मामलों का उद्देश्य पूर्व और पश्चिम का समन्वय करना हो, उसका नियन्त्रण मुख्य रूप से वैसे व्यक्ति के हाथ हो, जिसने इस विषय का विशेष अध्ययन किया हो; जिनके पास नियमों को व्यवहार में लाने की क्षमता, उत्साह और योग्यता हो। फिर यह भी उल्लेखनीय है कि इस विश्वविद्यालय के प्रति अपने कर्तव्यों और दायित्वों का निर्वहन करते हुए वे कलकत्ता और ऑक्सफोर्ड के साथ अपने सम्बन्ध जारी रखें। मुझे पूरी उम्मीद है कि इस तरह वे पूर्वी एवं पश्चिमी सभ्यता-संस्कृति के बीच एक प्रभावी सम्पर्क स्थापित करने में सक्षम होंगे और अतीत एवं वर्तमान के साथ इस प्राचीन स्थान की गौरवशाली साहित्यिक परम्पराओं के योग्य भविष्य का निर्माण करेंगे। मैं ईश्वर से उनके यशस्वी होने की कामना करता हूँ और प्रार्थना करता हूँ कि उनके (डॉ. एस. राधाकृष्णन) कुलपति-कार्यकाल में विश्वविद्यालय फले-फूले और जिस उद्देश्य से इसकी स्थापना की गई थी, वह पूरा हो।
सज्जनो, मैं आपका और अधिक समय नहीं लेना चाहता, लेकिन कार्यसूची में अन्य प्रस्तावों पर विचार करने से पूर्व मैं कोर्ट से निम्नलिखित प्रस्ताव पारित करने का अनुरोध करता हूँ जो हमारे इस पल के विचार को इंगित करता है – 'बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के कोर्ट की यह विशेष बैठक पण्डित मदन मोहन मालवीय के प्रति आभार व्यक्त करती है, जिन्हें विश्वविद्यालय अपने अस्तित्व और उल्लेखनीय विकास का श्रेय देता है। बीस वर्षों की अवधि के लिए कुलपति के रूप में उनके द्वारा प्रदान की गई अमूल्य सेवाओं को यह कभी नहीं भूलेगा। कोर्ट संस्तुत करता है कि उन्हें कई वर्षों तक इस महान संस्था की गतिविधियों को प्रेरित करने और मार्गदर्शन करने और इस महान राष्ट्र के निर्माण में मदद करने के लिए कार्यमुक्त किया जाए।' ...
अपने पिता की उदारता, दूरदर्शिता एवं शैक्षिक रूप से समाज को समृद्ध करने की धारणा को और आगे बढ़ाने के क्रम में महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह ने आनन्द बाग पैलेस समेत आसपास के कई अन्य महल कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय, दरभंगा को दे दिए। दरभंगा में जनवरी 26, 1961 को इस विश्वविद्यालय की स्थापना उन्हीं की अविस्मरणीय दानशीलता के कारण सम्भव हुई। इस विश्वविद्यालय के नामकरण में उनके नाम का उल्लेख उनके सम्मान के लिए ही हुआ है। संस्कृत विश्वविद्यालय के रूप में यह बिहार का पहला और भारत का दूसरा विश्वविद्यालय है। देश का पहला संस्कृत विश्वविद्यालय सन् 1791 में संस्थापित 'सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी' है। राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ, तिरुपति (सन् 1962), श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली (सन् 1962) और राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान, नई दिल्ली (सन् 1970) की स्थापना भी कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय, दरभंगा (सन् 1961) की स्थापना के बाद ही हुई। अब तो भारतवर्ष में डेढ़ दर्जन के आसपास संस्कृत विश्वविद्यालय हैं, पर विचारणीय है कि जिस भाषा में विश्वविख्यात भारतीय ज्ञान-परम्परा की धरोहर सुरक्षित थी, उसकी समृद्धि की ओर उन दिनों कम लोगों का ध्यान गया था। महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह ने अपनी गहन सूझ-बूझ और भारतीय परम्परा के आदि-स्रोत के प्रति अपने अनुराग का परिचय देते हुए ऐसा अद्वितीय काम किया। पाठशालाओं में संस्कृत के शिक्षण को प्रोत्साहित करना और प्राच्य शिक्षा को बढ़ावा देना दरभंगा राज की परम्परा रही थी। अपनी भव्य परम्परा के सम्मानार्थ कामेश्श्वर सिंह ने अपने राज में अनेक पाठशालाएँ खोलीं, जहाँ मिथिला के महान पण्डितगण शास्त्रीय पद्धति से संस्कृत पढ़ाते थे। इन विद्यालयों से दीक्षित विद्वानों ने भारत के अन्य प्रान्तों में भी अपनी शिक्षा की ज्योति फैलाई। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए इन सभी संस्थानों का वित्तपोषण राज निधि से होता था। वेद एवं वैदिक संस्कारों के अध्ययन-अध्यापन के लिए उन्होंने दक्षिण भारत के कुछ प्रसिद्ध सामवेदियों को आमन्त्रित कर फिर से सामवेदिक अध्ययन शुरू करवाया।
कलकत्ता विश्वविद्यालय के ग्रन्थालय के लिए भी उन्होंने यथेष्ट दान दिए। इस विश्वविद्यालय के केन्द्रीय पुस्तकालय भवन को 'दरभंगा भवन' कहा जाता है। ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय को राज दरभंगा से 70,935 किताबें मिलीं। सन् 1951 में उन्होंने कबराघाट (दरभंगा) स्थित मिथिला स्नातकोत्तर शोध संस्थान के लिए आम-लीची के पेड़ों सहित एक भवन के साथ साठ एकड़ भूमि, दरभंगा में बागमती नदी के किनारे दान में दी; इस संस्थान की स्थापना सन् 1951 में भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की पहल पर की गई थी। स्त्री शिक्षा को बढ़ावा देने की दिशा में दरभंगा राजवंश के राजा सदैव तत्पर रहते थे। वे एमएसटी गंगाबाई द्वारा सन् 1839 में स्थापित विद्यालय, महाकाली पाठशाला के मुख्य संरक्षक, ट्रस्टी और वित्तदाता थे। बरेली महाविद्यालय, बरेली जैसे कई महाविद्यालयों को भी उनसे पर्याप्त दान मिला। राजकीय महारानी रमेश्वरी भारतीय चिकित्सा विज्ञान संस्थान, मोहनपुर, दरभंगा का नाम महाराजाधिराज रमेश्वर सिंह की पत्नी के नाम पर रखा गया है। योग्य छात्रों के उच्च तकनीकी अध्ययन के लिए महाराजाधिराज ने अपनी ओर से अनेक छात्रवृत्तियाँ स्वीकृत कर रखी थीं। स्पष्टत: शिक्षा में उनकी रुचि एक स्थायी प्रकृति थी।
उनके मार्गदर्शन में दरभंगा राज के माध्यमिक विद्यालयों में शिक्षण के साथ व्यावसायिक प्रशिक्षण की धारणा से औद्योगिक प्रशिक्षण का एक पूरा पाठ्यक्रम लागू किया गया। यह नई योजना, सरकारी संस्थानों द्वारा अनुकरणीय साबित हुई। व्यावसायिक प्रशिक्षण-कक्षाएँ समय की माँग थीं और अत्यन्त उपादेय थीं। बड़ी लागत के अपेक्षित संसाधनों से सुसज्जित राज स्कूल में नई कक्षाएँ होने लगीं। संस्थान में इसके सफल संचालन में महाराजाधिराज ने पर्याप्त रुचि ली।
स्कूली शिक्षा एवं सांगठनिक उद्यम में भी 'दरभंगा राज' का विशिष्ट योगदान है। मिथिला में आधुनिक शिक्षण विधि लागू करने और अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा प्रदान करने के लिए महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह ने दरभंगा में राज स्कूल की स्थापना की। इसके अलावा और भी कई विद्यालय दरभंगा में खोले। शिक्षा के इस महान संरक्षक ने शासन सँभालने के तत्काल बाद, मैथिली भाषा और साहित्य में शोध के लिए पटना विश्वविद्यालय में मिथिलेश रमेश्वर सिंह मैथिली चेयर की स्थापना के लिए 1,20,000/- रुपये की राशि दान की। विभिन्न शैक्षिक और सांस्कृतिक संस्थानों के साथ उनका जीवन भर का जुड़ाव रहा। वे कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय और बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रो-चांसलर और पटना, बिहार तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालयों के आजीवन सदस्य, रॉयल एशियाटिक सोसाइटी के सदस्य और बिहार रिसर्च सोसाइटी के उपाध्यक्ष थे।
शिक्षण-व्यवस्था पर अटूट आस्था रखनेवाले महाराजाधिराज की स्पष्ट धारणा थी कि मध्यम वर्गीय समुदाय में प्रचलित बेरोजगारी को दूर करने का बेहतर मार्ग शिक्षा से ही प्रशस्त हो सकता है। अखिल बंगाल जमीन्दार सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए दिसम्बर 23, 1934 को उन्होंने अकस्मात् उल्लेख किया कि 'शिक्षित बेरोजगारों की समस्या का समाधान तो हमारे लिए आवश्यक है, मेरी राय में इस प्रक्रिया से हम कृषि का उद्योगीकरण और एक ठोस योजना की तरह उसका अनुपालन भी कर सकते हैं। निस्सन्देह यह महान कार्य होगा; समस्या निराकरण के लिए सरकारी या ज़मीन्दारी सेवा में उन्हें रोजगार देने को और अधिक टाला नहीं जा सकता। बंगाल के जमीन्दारों को सैद्धान्तिक रूप से यह सलाह देने के साथ-साथ उन्होंने व्यावहारिक रूप से औद्योगिक प्रशिक्षण की व्यापक योजना भी शुरू की, जो देश के शिक्षाविदों के लिए दिग्दर्शी साबित हुई।
अठारहवीं सदी से ही 'दरभंगा राज' हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत का बड़ा केन्द्र बन गया था। इस राजवंश के राजागण संगीत, कला एवं संस्कृति के महान संरक्षक थे। भारतीय शास्त्रीय संगीत की मुखर शैली ध्रुपद गायकी के लिए तो यह राजवंश मुख्य संरक्षक था। ध्रुपद का एक प्रमुख विद्यालय आज भी 'दरभंगा घराना' के नाम से जाना जाता है। आज भारत में ध्रुपद के तीन प्रमुख घराने हैं : डागर घराना, बेतिया घराना और दरभंगा घराना। ध्रुपद गायन में दरभंगा राज में कई नए प्रयोग हुए। गायकी की दुनिया में दरभंगा ध्रुपद घराना का आज भी विशिष्ट स्थान है। एस एम घोष (1896 में उद्धृत) के अनुसार महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह स्वयं एक अच्छे सितार वादक थे। वंश परम्परा के अनुसार महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह भी संगीत एवं अन्य ललित कलाओं के बहुत बड़े संरक्षक थे। गौहर जान (सन् 1873-1930), पण्डित रामचतुर मल्लिक (सन् 1902-1990), उस्ताद बिस्मिल्ला खान (सन् 1916-1006), पण्डित सियाराम तिवारी (सन् 1919-1998) जैसे विशिष्ट संगीतज्ञ इस राज घराने से जुड़े विख्यात संगीतज्ञ थे। उस्ताद बिस्मिल्ला खान तो कई वर्षों तक इस दरबार में संगीतज्ञ रहे। गौहर जान ने सन् 1887 में महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह के समक्ष पहली बार प्रस्तुति दी थी। फिर उन्हें दरबारी संगीतज्ञ के रूप में नियुक्त कर लिया गया। अपने समय के मशहूर सरोदवादक ग्वालियर के नन्हे खान के भाई मुराद अली खान का दरभंगा राज ने बहुत सहयोग किया। मुराद अली खान को अपने सरोद पर धातु के तार और धातु की तख्ती का उपयोग करने वाले पहले व्यक्ति होने का श्रेय दिया जाता है, जो आज मानक बन गया है। बीसवीं सदी के शुरुआती दौर के प्रमुख सितार वादकों में से एक पण्डित रामेश्वर पाठक दरभंगा राज में दरबारी संगीतकार थे। प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता और गायक कुन्दन लाल सहगल, महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह के अनुज राजा विश्वेश्वर सिंह के घनिष्ठ मित्र थे। वे दोनों दरभंगा के बेला पैलेस में मिला करते थे, ग़ज़ल-ठुमरी का दौर चलता था। कुन्दन लाल सहगल ने तो राजा बहादुर के विवाह में अपने हारमोनियम के साथ 'बाबुल मोरा नैहर छूटा जाए...' गीत भी गाया।
दरभंगा राज का अपना सिम्फनी ऑर्केस्ट्रा और पुलिस बैण्ड भी था। दरभंगा के मनोकामना मन्दिर के सामने बनी गोलाकार संरचना को उन दिनों बैण्ड स्टैण्ड के नाम से जाना जाता था। सन्ध्या काल वहाँ बैण्ड के साथ संगीत बजता था। उस बैण्ड स्टैण्ड का अवशिष्ट आज भी मौजूद है।
पत्रकारिता के क्षेत्र में भी महाराजाधिराज डॉ. कामेश्वर सिंह गहन विचारक और दार्शनिक की तरह सक्रिय थे। 'न्यूजपेपर एण्ड पब्लिकेशन प्राइवेट लिमिटेड' की स्थापना कर उन्होंने कई अखबार एवं पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरू किया। सन् 1930 में उन्होंने पटना से एक अंग्रेजी दैनिक 'इण्डियन नेशन' और सन् 1940 में एक हिन्दी दैनिक 'आर्यावर्त' का प्रकाशन शुरू कराया। सन् 1960 में मैथिली साप्ताहिक 'मिथिला मिहिर' को भी पुनर्जीवित किया। लोक-चेतना के विकास की दिशा में यह उनका विलक्षण योगदान था। 'आर्यावर्त' उस दौर का ऐसा लोकप्रिय अखबार था कि यह शीर्षक 'अखबार' का पर्याय हो गया था। भारतीय जनमत के दैनिक मुखपत्र 'इण्डियन नेशन' की स्थापना कर महाराजाधिराज ने सचमुच अपने प्रान्त एवं भारतीय राष्ट्रवाद के हित में महान सेवा और त्याग का परिचय दिया। बिहार में पहले से कोई 'दैनिक पत्र' नहीं होने के कारण, 'इण्डियन नेशन' ने दीर्घ अन्तराल से महसूस की जा रही कमी की पूर्ति कर दी। स्वतन्त्र राष्ट्रवादी धारणा के संवाहक के रूप में इस मुख-पत्र का स्वागत सभी राजनीतिक विचार के लोगों ने किया। बिहार में 'इण्डियन नेशन' सचमुच संयुक्त प्रान्त के सभी वर्ग के नेताओं के बीच समादृत था। उस पत्र का तो अनुशीर्ष ही था कि 'इण्डियन नेशन' राष्ट्रीय, स्वतन्त्र और पूर्ण होने का दावा करता है। यह किसी भी राजनीतिक दल के लिए प्रतिबद्ध नहीं है, लेकिन राष्ट्रीय हित में कार्य करने वाले हर दल का समर्थन करता है। यह इस अर्थ में पूर्ण है कि यह समाचारों या विचारों को विकृत या दमित नहीं करता। यह सभी दलों से, सभी प्रकार के प्रभावों से मुक्त है। 'इण्डियन नेशन' ने वस्तुत: प्रान्त के बुद्धिजीवियों के बीच बड़ी उम्मीदें जगाईं। सार्वजनिक हितों की निर्भीक वकालत के लिए अपेक्षित स्वर और स्वभाव बनाए रखना इसकी प्रतिज्ञा रही। पर कामेश्वर सिंह ने अपने राजनीतिक नेतृत्व के उत्थान के लिए इन पत्रों का उपयोग कदापि नहीं किया। भारतीय पुनर्जागरण की अवधारणा से उनके द्वारा शुरू किए गए समाचार-पत्र ने वस्तुत: समाचार-पत्रों की उन मूल नीतियों का निर्माण किया, जिनके लिए उन्होंने इन्हें शुरू किया था। उनका सकारात्मक निर्देश था कि कीचड़ उछालने की राजनीति में 'इण्डियन नेशन' को शामिल नहीं होना है। इसका धर्म लोगों के आग्रह और आकांक्षाओं को रूपाकार देना होना चाहिए। इसे निडर होकर काम करना चाहिए। किसी भी धमकी से इसे अपनी सेवा में विचलित नहीं होना चाहिए। यह निर्भीक और निष्पक्ष उद्देश्य की पूर्ति के लिए काम करे। इसकी टिप्पणियाँ तीखी, मगर शान्त हो। असन्तुलित निर्णय इसका काम्य नहीं हो। यह समाचार पत्र को मित्र या शत्रु, किसी के पक्ष में कोई संकेत न दे। उनकी राय में समाचार पत्रों की स्वतन्त्रता का अर्थ – उसकी वैचारिक निष्पक्षता, दलगत और अश्लील राजनीति से दूरी, राष्ट्रसेवी कर्तव्य के प्रति दृढ़ता थी। अपने समाचार-पत्रों को उन्होंने कभी साम्प्रदायिक दुर्भावना फैलाने की अनुमति नहीं दी। उन्हें बिहार से प्यार था। उनकी स्पष्ट राय थी कि आधुनिक बिहार के प्रवक्ता के रूप में कार्य करनेवाले अच्छे दैनिक पत्र का प्रकाशन, राज्य की बेहतर सेवा होगी।
भारत देश को आजादी उन्हीं के समय में मिली, जमीन्दारी प्रथा का अन्त हुआ। देशी रियासत खत्म हुई। पर वे तनिक भी विचलित नहीं हुए। सत्ता की राजनीति से वे अलग-थलग रहना चाहते थे; बल्कि सत्ता की राजनीति के सम्पोषक तकनीकों से घृणा करते थे। सत्ता संग्रहण और जनसेवा जैसे आधुनिक राजनीति के दो पहलू सर्वविदित हैं। पर कामेश्वर सिंह सदैव जनसेवा की ओर आकर्षित रहे। सत्ता-संग्रहण के रणनीतिक प्रयासों में तल्लीन लोग और अपने आलोचकों से घृणा करनेवाले लोग उन्हें कभी पसन्द नहीं आए। दूसरों का अहित कर अपना जीवन सफल करनेवाले कलाबाजों एवं अन्य चालाक लोगों के प्रति उनके मन में कभी कोई सम्मान भाव नहीं आया। वे विचारकों, सेनानियों और धर्मयोद्धाओं के प्रशंसक थे। वे चाहते थे कि 'इण्डियन नेशन' उनकी राजनीतिक अवधारणाओं के विकास को निर्देशित करनेवाले सिद्धान्तों के साथ न्याय करे।
सकारात्मक और रचनात्मक सिद्धान्तों के अनुपालन में उनकी अटूट आस्था थी। समाज के व्यवस्थित विकास और शान्तिपूर्ण परिवर्तन के वे आग्रही थे। नवाचारों के प्रति आँखें मूँदना उन्हें कतई पसन्द नहीं था, किन्तु हिंसक उथल-पुथल के वे विरोधी थे। सार्वजनिक जीवन में अराजकता के घोर विरोधी थे। उनकी राय में देश की उदग्र उन्नति सार्वजनिक जीवन में श्रेष्ठ आचार संहिता के अनुपालन से ही सम्भव हुआ है, सम्भव होगा। सार्वजनिक जीवन के मानकों में सामान्य गिरावट ने भी उन्हें अत्यधिक आहत किया। ओछे सोच और अधार्मिक पद्धति से सत्ता में समानेवाले राजनेताओं से वे घृणा करते थे। क्षुद्र और पूर्वाग्रही व्यक्ति से दूरी बनाए रखते थे। राजनीतिक दलों के घिनौने आचरणों से समझौता करना उनका चरित्र नहीं था; लिहाजा वे किसी दल के राजनेता नहीं हो सकते थे, पर अपने देश की अस्मिता से उन्हें बेहद प्रेम था। यही कारण था कि वे जमीन्दार-काश्तकार व्यवस्था-उन्मूलन सम्बन्धी विचारहीन कांग्रेसी रणनीति के घोर आलोचक थे; पर स्वतन्त्र भारत में स्थिर सरकार की आवश्यकता के मद्देनजर वे कांग्रेस शासन बनाए रखने के लिए तैयार थे। उन्हें गाँधीवादी दृष्टिकोण पसन्द था। महात्मा गाँधी का भी उन्हें पुत्रवत् स्नेह मिलता था। कांग्रेसी सरकार को पूर्ण समर्थन देकर भी वे प्रभावी विपक्ष की चिन्ता रखते थे। उनकी राय में विपक्षी दृष्टिकोण से संघर्ष किए बिना, कोई सत्तारूढ़ दल, लोकतन्त्र की गरिमा अक्षुण्ण नहीं रख सकता। उनकी संगति सदैव सकारात्मक, सद्कर्मी और भव्य चिन्तन के लोगों से रहती थी। उनका संवेदनशील दृष्टिकोण सदैव उन्हें सुन्दर, परिष्कृत और शिष्ट की ओर सम्मोहित करता था। वे दूसरों को चोट पहुँचानेवाला कोई फैसला नहीं लेते थे।
जनता के समक्ष अपनी बात रखना उन्हें अच्छा लगता था। जमीन्दार होने के बावजूद उनके राजनीतिक दृष्टिकोण सामन्तवादी नहीं थे। सामाजिक सुधार सम्बन्धी अपनी योजना के क्रियान्वयन में वे कभी तानाशाही नहीं बरतते थे। विकास को वे निर्विराम प्रक्रिया मानते थे। उन्हें राजनीति में हठधर्मिता और राजनीतिक आन्दोलन में नारों से नफरत थी। आन्दोलन की राजनीति को उन्होंने कभी प्रभावी नहीं माना। वे पुनर्निर्माण की राजनीति से प्रभावित थे।
भारत की भव्य विरासतीय संस्कृति से उन्हें बेहद लगाव था। उनकी राय में कोई परम्परा अपने समय-सन्दर्भ को रेखांकित करके ही सम्माननीय होती थी। इस अर्थ में कई बार कुछ अतिक्रान्तिकारी उन्हें रूढ़िवादी भी मान लेते थे, क्योंकि उनका आग्रह भंजन के प्रति नहीं, पुनर्निर्माण के प्रति था। वे भारत के सच्चे सांस्कृतिक पुनर्जागरण और सुधार के प्रवर्तकों में से एक थे। वे अपने दृष्टिकोण में क्रान्तिकारी थे, औद्योगिक क्रान्ति, वैज्ञानिक प्रगति और नए सामाजिक परिवर्तनों के सन्दर्भ में उन्होंने निरन्तर नए मूल्यों के लिए काम किया। अपने पिता एवं पितृव्य की राष्ट्र-भक्ति का अनुसरण करते हुए महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह ने भी राष्ट्रीय आन्दोलन में प्रभूत योगदान दिया। ब्रिटिश हुकूमत के अधीन रहते हुए भी उन्होंने ऊर्ध्व-चेतनोन्मुख, गतिशील और जाग्रत समाज-व्यवस्था की संरचना स्थापित करने में विलक्षण कार्य किए। राजशाही करते हुए भी उन्हें नए जमाने के नए रंग-ढंग का संकेत मिल गया था। जमीन्दारी प्रथा की समाप्ति के संकेत सम्भवत: वे पहले ही भाँप गए थे। तभी तो उन्होंने चीनी मिल, कागज मिल जैसे अनेक रोजगारोन्मुख कम्पनियों की शुरुआत की। ये सब उनकी ऊर्ध्व चेतना और आधुनिक सोच-समझ के परिचायक हैं।
महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह अपने समकालीनों को प्रेरक नेतृत्व देनेवाले विलक्षण व्यक्ति थे। उनके सम्पर्क में जो कोई आए, उनके स्फूर्तिदायक विचारों को प्रभावित हुए बिना नहीं रहे। वे दृढ़ संकल्प एवं सकारात्मक सोच के कोमल और सहनशील व्यक्ति थे। अपनी शान-शौकत के लिए पूरी दुनिया में विख्यात थे। उनके शान-शौकत के किस्से आज भी लोक-कण्ठ में जीवित हैं। पर कुलीन और शाही परिवार के वंशज होने के साथ-साथ वे व्यवहारकुशल, मिलनसार और अत्यन्त विनम्र भी थे। जनहित में वे सदैव उत्साही, स्पष्टवादी और अपने उद्देश्य के प्रति ईमानदार रहते थे। उनके राजनीतिक विचारों से असहमत लोग भी उनकी प्रशंसा से मुकड़ते नहीं थे। उनके विनोदी स्वभाव और चातुर्य के कारण उनके शत्रु भी मित्र बन जाते थे। अधिकांश लोगों से कम आयु के होने के बावजूद वे अपनी बात बड़ी दृढ़ता से रखते थे। निकटवर्ती मित्रों, कुछेक महान ब्रिटिश राजनेताओं, भारतीय प्रचारकों, राजनेताओं और राजकुमारों के बीच अपनी दो टूक बात रखने में वे कभी हिचके नहीं। उनके बारे में महान पत्रकार और भारतीय नेता श्री सी.वाई. चिन्तामणि ने लिखा कि 'कैसर-ए-हिन्द मण्डल यात्रा में वर्तमान महाराजाधिराज से मैं पहली बार अक्टूबर, 1930 में मिला था। एक-दूसरे को जानने और विचारों की सराहना करने के कई अवसर हमें पहले गोलमेज सम्मेलन में भागीदारी के लिए समुद्री जहाज से इंग्लैण्ड की यात्रा करते हुए मिले। मैं जान पाया कि वे युवाओं के लिए भरोसेमन्द मित्र हैं, उम्रदराज लोगों के लिए सदैव बेहतरीन सलाहकार हैं, और अपने परिचितों के लिए सदैव मित्र-इष्ट-पथदर्शक (फ्रैण्ड फिलॉस्फर गाइड) हैं। वे ऐसे महाराजाधिराज हैं जो जन्मना अभिजात होकर भी स्वभाव से पूरी तरह लोकतान्त्रिक हैं।' उल्लेखनीय है कि लॉर्ड और लेडी विलिंग्डन से महाराजाधिराज की ऐसी घनिष्ठता थी कि वे उनके विशिष्ट अतिथि बनकर एक महत्त्वपूर्ण अवसर पर दरभंगा आए थे।
दरभंगा राज की पारम्परिक उदारता विदित थी। उस दौर की प्रचलित आर्थिक मन्दी के मद्देनजर तो और भी अधिक चिन्तनीय थी। पर महाराजाधिराज की उदारता ने अनेक जमीन्दारों और भूदानियों के बटुओं को नियन्त्रित कर दिया। आर्थिक मन्दी और भूकम्प की तबाही के बावजूद उन्होंने जनहित में प्रभूत धनराशि खर्च किए। विद्यालयों एवं औषधालयों पर लाखों खर्च करने के अलावा दान में भी 23 लाख रुपये खर्च किए। उपकार और सार्वजनिक परोपकार के इतिहास में वे अद्वितीय उदाहरण थे। उनकी दानशीलता विविध दिशाओं में सक्रिय थी। किसी सार्वजनिक हित की बात से ज्यों ही कोई सहमत कर देते, उन्हें तत्काल संरक्षण मिल जाता था। सामुदायिक हित में वे सभी संकुचित सीमाओं से परे एक व्यापक मानवीय दृष्टिकोण रखते थे। केवल बिहार ही नहीं, पूरा भारत उन्हें सार्वजनिक हितों एवं संस्थानों के लिए शक्ति-स्तम्भ मानता था। भूकम्प के दिनों में, स्वयं भारी आर्थिक क्षति का शिकार होते हुए भी, चूँकि उनसे अपील की गई थी, इसलिए उन्होंने वायसराय की निधि में भी एक लाख रुपये का अनुदान दिया। यह अनुदान राहत कार्य के लिए अपने प्रान्त में अपने द्वारा गठित संगठनों के लिए दिए गए अनुदानों से अलग था।
अत्याधुनिक चिकित्सकीय संसाधनों से युक्त 'लेडी विलिंगडन अस्पताल' के वे अनुरक्षक-पोषक भी थे, जिसकी आधारशिला महामहिम लेडी विलिंगडन ने रखी थी। इसके अलावा दरभंगा के विभिन्न केन्द्रों पर बारह धर्मार्थ औषधालय और एक इनडोर अस्पताल भी उनके द्वारा संचालित थे।
खेलों के क्षेत्र में भी दरभंगा राज का महत्त्वपूर्ण योगदान था। इस राजवंश के राजाओं ने कई खेलों को प्रोत्साहित किया। स्वाधीनतापूर्व बिहार के लहेरियासराय में दरभंगा महाराज ने पहला पोलो मैदान सहित चार इनडोर और आउटडोर क्रीड़ांगण (स्टेडियम) भी बनवाए। रखरखाव की कमी के कारण अब इनमें से किसी का अस्तित्व नहीं है। यह स्वतन्त्रता-पूर्व के समय में यह मैदान बिहार में पोलो का एक प्रमुख केन्द्र था। महाराजाधिराज सन् 1935 में दरभंगा में स्थापित 'अखिल भारतीय फुटबॉल महासंघ' के संरक्षक थे। उनके अनुज राजा विश्वेश्वर सिंह, भारत में फुटबॉल प्रमुख शासी निकाय के रूप में संचालित इस महासंघ के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। वे हरिहरपुर एस्टेट के राय बहादुर ज्योति सिंह के साथ, इस महासंघ के मानद सचिव भी हुए। कलकत्ता में महाराजाधिराज ने दरभंगा कप टूर्नामेण्ट शुरू करवाई, जिसमें लाहौर, पेशावर, मद्रास, दिल्ली, जयपुर, बॉम्बे, अफगानिस्तान और इंग्लैण्ड की टीमें शामिल थीं। कलकत्ता में पोलो टूर्नामेण्ट के एक विजेता को दरभंगा कप से सम्मानित भी किया जाता था। सन् 1933 में सैन्य अधिकारियों द्वारा आयोजित माउण्ट एवरेस्ट पर जाने की पहली उड़ान के अभियान की मेजबानी राजबनैली के राजा कृत्यानन्द सिंह के साथ सार्वजनिक कम्पनियों के समर्थन से दरभंगा महाराज ने किया गया था।
मिथिला एवं मैथिली भाषा के उत्थान के लिए 'दरभंगा राज' परिवार को अवतार के रूप में देखा जाता था। जुलाई 1929 से जुलाई 1936 के सात ही वर्षों में महाराजाधिराज ने विविध संस्थानों, संगठनों, अभिकरणों को कुल 29.26819 लाख (पटना विश्वविद्यालय को 1.2 लाख, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय को 1.06 लाख, अन्य शैक्षणिक संस्थानों को 57.165 हजार, वायसराय भूकम्प राहत कोष (बिहार और क्वेटा) में 1.01 लाख, बिहार में तपेदिक से लड़ने के लिए किंग जॉर्ज मेमोरियल फण्ड में 1 लाख, दरभंगा जिला परिषद नलकूपों की खुदाई के लिए 1 लाख, अन्य विविध राहत में 18.915 हजार, अस्पताल और राज के बाहर के औषधालयों में 2.107 हजार, दरभंगा राज कल्याण योजना में 5 लाख, दरभंगा इम्प्रूवमेण्ट ट्रस्ट में 7.5 लाख, धार्मिक समाज आदि में 1.16892 लाख, धर्मार्थ संस्थानों में 1.44260 लाख, विविध धर्मार्थ 44.606 हजार, और राज से असम्बद्ध शैक्षिक संस्थानों, औषधालयों, धार्मिक उत्सवों और विभिन्न संघों के लिए निश्चित वार्षिक योगदान 60.678 हजार, दरभंगा जल-कार्य के लिए अलग से निर्धारित 1 लाख) रुपये दान दिए। इसमें राज द्वारा सामान्य निधि से बनाए गए संस्थानों के उपकरण एवं रखरखाव पर किए गए खर्च या भूकम्प पीड़ितों की सहायता के लिए दरभंगा राज में स्वीकृत राशि शामिल नहीं हैं।
भाषा-साहित्य के पुनरुत्थान के लिए इस राजवंश द्वारा 'मैथिल महासभा' नाम से एक लेखक संगठन संचालित था, राजा उसके वंशानुगत प्रमुख होते थे। आज के परिप्रेक्ष्य में जातिव्यवस्था के मद्देनजर उस महासभा की कई विसंगतियाँ गिनाई जाती हैं; कुछेक विसंगतियाँ तर्कपूर्ण भी हैं; पर इस कारण इस दिशा में उन सबके द्वारा निभाई गई विशिष्ट भूमिका कमतर नहीं होती। सन् 1929-62 तक वे मैथिल महासभा और श्री भारत धर्म महामण्डल के अध्यक्ष तो थे ही; बिहार जमीन्दार संघ के आजीवन अध्यक्ष और अखिल भारतीय जमीन्दार संघ तथा बंगाल जमीन्दार संघ के अध्यक्ष भी थे। वे स्वतन्त्रता-पूर्व युग के बिहार यूनाइटेड पार्टी के अध्यक्ष के अध्यक्ष चुने गए थे। बिहार कृषि संकट के समर्थन में भी उन्होंने महत्त्वपूर्ण नीति निर्देशन किया।
संस्कृत एवं संस्कृति के अनुरक्षण में उनकी गहन अभिरुचि थी। घोर धार्मिक होते हुए भी उनका दृष्टिकोण धर्मनिरपेक्ष था। दरभंगा किला के निर्माण के समय मुस्लिम सन्तों की तीन कब्रों और एक छोटी मस्जिद को अक्षत रखने के लिए उन्होंने किले की दीवार की ऐसी डिजाइन तैयार करवाई कि मस्जिद को कोई नुकसान न हो।
दरभंगा राज का यह किला, कभी उत्तर बिहार का दुर्लभ स्मारक और महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह राजसी गौरव का प्रतीक था। अब तो वह जगह विस्मृत इतिहास बन गई है। रामबाग का वह ऐतिहासिक स्मारक और दरभंगा राज की आवासीय ड्योढ़ी के इस तरह पहचान खोने के अनेक वैध कारण थे। महाराजाधिराज के रहते हुए रामबाग को समस्त शक्तियों का स्रोत माना जाता था, जिसके प्रताप से वे महत्त्वपूर्ण बने हुए थे। पर अब वह अतीत हो गया। किले के हिस्से गिर-गिरा गए। जमीनें बेच दी गईं। उत्तराधिकारियों ने क्षतिग्रस्त दीवारों की ईंटें तक बेच दीं। बनने के सात-आठ दशक बाद भी वे ईंटें टिकाऊ दिखती थीं। उस किले का निर्माण सन् 1934 के नेपाल-बिहार भूकम्प के बाद शुरू किया गया था। इस किले के निर्माण का अनुबन्ध कलकत्ता की एक कम्पनी को दिया गया था। सन् 1939-40 में यह निर्माण कार्य तेजी से चल रहा था। फिर मुकदमेबाजी के कारण कार्य की गति अवरुद्ध भी हुई। पचासी एकड़ में बने उस किले के रामबाग परिसर का सिंहद्वार पूरे राज्य के लिए वास्तुकला का एक दुर्लभ नमूना था। किले के चारो ओर, बाहरी हमलों, आन्दोलनों या विद्रोहों से शाही परिवार की सुरक्षा के लिए परिखा बनवाया गया था, जिसमें सदैव पानी भरा रहता था, ताकि बाहरी लोग आसानी से परिसर में प्रवेश न कर सके। किले की दीवार बहुत मोटी और ऊँची थी। किले की दीवारों के ऊपर प्रहरीदुर्ग भी निर्मित था। किसी भी आपात स्थिति से निपटने के लिए युद्धक्षेत्र में उतरनेवाले सैन्य दल चौबीस घण्टे तैनात रहते थे। परिसर में एक सैन्य बैरक भी बना हुआ था। इन दिनों उस बैरक में एक पब्लिक स्कूल चलता है। अब तो उस परिसर की अधिकांश जमीनें बिक गईं। वहाँ क्लब, सिनेमाघर...सब बन गए।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने सन् 1987-88 में किले के ऐतिहासिक महत्त्व को स्वीकार करते हुए इसका सर्वेक्षण किया था और इसकी तुलना दिल्ली के लाल किले से की थी। उस ऐतिहासिक स्मारक की रक्षा होती, तो निश्चय ही बिहार की एक गौरवशाली परम्परा बची रहती।
किन्तु दरभंगा, या कि मिथिला के नसीब में इस वैभव-गाथा के नायक का साथ अधिक दिन के लिए नहीं लिखा था। मात्र पचपन वर्ष की आयु में, अक्टूबर 01, 1962 को महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह की मृत्यु हो गई। प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इण्डिया ने ज्यों ही खबर चलाई -- दरभंगा के महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह नहीं रहे। पूरा विश्व शोकाकुल हो उठा। जगह-जगह से शोक-संवेदनाएँ आने लगीं। पूरे विश्व का संचार तन्त्र इस शोकाकुल समाचार से स्तब्ध हो गया। महाराजाधिराज के परम मित्र और भारत के महामहिम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद हतप्रत हो गए। कुछेक माह बाद वे भी चल बसे। मिथिला, बिहार, भारत और दुनिया भर में फैले उनके मित्र, शुभेच्छु मर्माहत हा उठे। किसी को हठात् विश्वास नहीं हो रहा था। कल तक तो भले-चंगे थे, अचानक ऐसा क्या हुआ? पचपन वर्ष की आयु कोई मृत्यु की आयु है? चिन्ता जायज थी, गम्भीर थी। उनकी मृत्यु का कारण हर किसी के लिए रहस्य बना हुआ है। उनके निकटवर्ती भी और दूरवर्ती भी, सब जानते हैं कि उनकी मृत्यु 'सामान्य' नहीं थी; पर प्रश्न आज भी अनुत्तरित है। मिथिलांचल की पवित्र भूमि आज भी शोधार्थियों से इस विषय पर शोध की माँग करती है।
दरभंगा राज का पतन शुरू तो हुआ महाराजाधिराज की मृत्यु के चार-पाँच वर्ष बाद ही, पर सन् 1975-76 आते-आते यह अधोगति में चला गया। सन् 1989-90 आते-आते 'इण्डियन नेशन' और 'आर्यावर्त' समाचार पत्रों का प्रकाशन बन्द हो गया। दरभंगा राज की ताबूत में अन्तिम कील लग गई। सन् 1995 में इनके पुनरारम्भ से कुछ भी बन नहीं सका। 'आर्यावर्त', 'इण्डियन नेशन', 'मिथिला मिहिर' का भव्य भवन मिट्टी में मिल गया। सैकड़ो कर्मचारी सड़क पर आ गए।
दरभंगा राज के वैभव-पतन के अनेकानेक कारणों में से कुछ प्रमुख कारण गिनाए जाते रहे हैं -- महाराजा का असामयिक निधन, उनके सभी विश्वस्त कार्यकर्ताओं -- महाप्रबन्धक डैन्बी, निवेश प्रबन्धक बैद्यनाथ झा, शिक्षा सलाहकार अमरनाथ झा, अनुज विश्वेश्वर सिंह का निधन; राजकाज में दोनों महारानियों की अनभिज्ञता, भतीजों का समझदार न होना या अल्पायु होना, राज के सरकार का नकारात्मक रवैया। इनके अलावा सर्वाधिक प्रभवी कारण थे -- वसीयत लागू करने का प्रबन्ध हाथ में अधिवक्ता लक्ष्मीकान्त झा का अति महत्त्वकांक्षी हो उठना और उत्तराधिकारी के अभाव में बचे हुए प्रबन्धकों एवं सगे-सम्बन्धियों का लूट खसोट में लग जाना।
आर्यावर्तइण्डियननेशनडॉटकॉम (aryavartaindiannation.com) पर अक्टूबर 09, 2020 को शिवनाथ झा ने राज परिवार के निकटवर्ती रमन दत्त झा के ब्लॉग के हवाले से उल्लेख किया है कि दुर्गा पूजा के अवसर पर महाराजाधिराज कुछ दिन पूर्व कलकत्ता से दरभंगा आए थे। नरगोना स्थित अपने रेलवे टर्मिनल पर 'रेलवे सैलून' से उतरे थे। अक्टूबर 01, 1962 को नरगोना पैलेस के अपने सूट के बाथरूम के नहाने के टब में मृत पाए गए । आनन-फानन दोनों महारानियों की उपस्थिति में माधवेश्वर में उनका दाह संस्कार कर दिया गया। उनके देहान्त की सूचना मिलने पर बड़ी महारानी अन्तिम दर्शन के लिए सीधे शमशान पहुँची थीं। महाराजाधिराज की नि:सन्तानता के कारण उनके उतराधिकार की आशा कुछ प्रिय पात्रों को थी। उनके भांजे श्री कन्हैया जी झा (इण्डियन नेशन प्रेस के प्रबन्ध निदेशक) उनमें प्रमुख थे। छोटी महारानी महाराजा के साथ रहती थीं। महाराजाधिराज को सम्भवत: अपनी मृत्यु का अन्देशा था। हो न हो, इसी कारण जुलाई 05, 1961 को उन्होंने अपने ममेरे भाई पं. द्वारिकानाथ झा (दरभंगा एविएशन, कलकत्ता के प्रबन्धक) की गवाही में कलकत्ता में अन्तिम वसीयत बनवाई। वसीयत लिखे जाने के समय कुमार शुभेश्वर सिंह और कुमार यज्ञेश्वर सिंह नावालिग थे, ज्येष्ठ कुमार जीवेश्वर सिंह की तब तक दूसरी शादी नहीं हुई थी।
महाराजाधिराज के निधन की सूचना पाकर द्वारिकानाथ झा कलकत्ता से दरभंगा पहुँचे और वसीयत लागू कराने की प्रक्रिया शरू करवाई। कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा सितम्बर 1963 में वसीयत लागू हुई। अधिवक्ता लक्ष्मीकान्त झा, उस वसीयत के एकमात्र नियन्त्रक और द्वारिकानाथ झा सचिव बनाए गए। वसीयत के अनुसार दोनों महारानियों की जीवितावस्था तक सम्पत्ति की देखभाल ट्रस्ट के अधीन होना था। महारानियों के निधन के बाद सम्पत्ति की एक तिहाई दरभंगा की जनता के कल्याणार्थ दिया जाना था। शेष हिस्सा महाराजाधिराज के अनुज राजा विशेश्वर सिंह के पुत्र कुमार जीवेश्वर सिंह, कुमार यज्ञेश्वर सिंह और कुमार शुभेश्वर सिंह की ब्राह्मण पत्नी से उत्पन्न सन्तानों के बीच वितरित होना था।
दोनों महारानियों के आवास एवं उपभोग के लिए एक-एक महल, जेवर, कार और प्रति माह कुछ हजार रुपये माहवारी खर्च का प्रावधान था। अधिवक्ता लक्ष्मीकान्त झा, महाराजाधिराज के बहिनोई मुकुन्द झा और सलाहकार गिरीन्द्र मोहन मिश्र ट्रस्टी हुए। तीनों ट्रस्टी महाराजा से उम्र में बड़े थे। दरभंगा राज का पूरा तन्त्र तीनों ट्रस्टियों के आसपास मँडराने लगा। सन् 1968 में तीनों राजकुमार बेला पैलेस सहित 80 एकड़ भूमि बेचकर बेघर हो गए। कनिष्ठ कुमार, शुभेश्वर सिंह को बड़ी महारानी राजलक्ष्मी जी ने अपने आवास रामबाग में रखा। महारानी की मृत्यु के बाद वसीयत के अनुसार उस महल पर कुमार शुभेश्वर सिंह का स्वामित्व होना था। बड़े कुमार जीवेश्वर सिंह राजनगर में रहने लगे, मँझले कुमार यज्ञेश्वर सिंह यूरोपियन गेस्ट हाउस में आ गए। बड़ी महारानी राजलक्ष्मी जी ने महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह की चिता पर माधवेश्वर में मन्दिर बनवाई। सन् 1976 में बड़ी महारानी का निधन हो गया। छोटी महारानी कामसुन्दरी जी अधिकांश समय दिल्ली में रहने लगीं। उनका मूल नाम कल्याणी है। उन्होंने महाराज कामेश्वर सिंह कल्याणी ट्रस्ट बनवाई, जिसके तहत किताबों का प्रकाशन और महाराजा कामेश्वर सिंह जयन्ती जैसे कार्य होते हैं। भारत देश की गरिमा के इतने बड़े संवर्द्धक और बिहार के जननायक की सूझ-बूझ से अर्जित वैभव अकर्मण्य और स्वार्थी लोगों की कुटिलता के कारण मटियामेट हो गया। सचमुच वैभव भी सद्पात्रों के पास ही टिकता है।[1] 'द यंगेस्ट लेजिस्लेटर ऑफ इण्डिया, द बायोग्राफी ऑफ द ऑनरेबल महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह बहादुर, के.सी.आई.ई. ऑफ दरभंगा' शीर्षक पुस्तिका के लेखक पटना उच्च न्यायालय के तत्कालीन एडवोकेट ईश्वरी नन्दन प्रसाद, एम.ए., बी.एल. हैं। इसके प्रथम संस्करण का मूल्य 8/- रुपये है। महाराधिराज सर कामेश्वर सिंह के बारे में इस पुस्तिका में दर्ज लेखकीय अभिव्यक्ति है कि 'अभी भी वे युवा ही हैं। व्यापक और आलोचनात्मक चरित-वर्णन के लिए वे अभी भी अल्पायु हैं। विगत सात वर्षों के उनके राज-संचालन पर हुई सामुदायिक चर्चा के आधार पर यह चरित-वर्णन किया गया है, जो एक व्यक्ति के समग्र अनुशीलन के लिए बहुत कम है।' इस टिप्पणी से प्रतीत होता है कि इसका लेखन-प्रकाशन सम्भवत: सन् 1936-37 के आसपास हुआ होगा।
[2] प्रो. अनिरुद्ध झा के आलेख 'महाराजाधिराज डॉ. सर कामेश्वर सिंह' और डॉ. सचिन सेन के आलेख'रोल ऑफ डॉ. सर कामेश्वर सिंह इन द फिल्ड ऑफ इण्डियन जर्नलिज्म' का प्रकाशन द' जर्नल ऑफ बिहार रिसर्च सोसायटी, वॉल्यूम 48, जनवरी-दिसम्बर, 1962, भाग 1-4, खण्ड 1, पृ. 1-13 में हुआ है।
[3] 'मार्क्वेज ऑफ हेस्टिंग्स' इंग्लैण्ड के कुलीनों की एक पदवी थी, जिसकी शुरुआत सन् 1816 में हुई थी। फ्रांसिस एडवर्ड रॉडन-हेस्टिंग्स (सन् 1754-1826), के.जी., पी.सी. युनाइटेड किंग्डम के प्रथम 'मार्क्वेज ऑफ हेस्टिंग्स' थे। वे सन् 1813-1823 तक भारत में गवर्नर-जनरल के पद पर आसीन थे। यहाँ 'हेस्टिंग्स' शब्द का अभिप्राय ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासक वारेन हेस्टिंग्स (सन् 1732-1818) नहीं लगाना चाहिए, क्योंकि वारेन हेस्टिंग्स बंगाल की सर्वोच्च परिषद के प्रमुख, फोर्ट विलियम (बंगाल) के प्रथम प्रेसीडेंसी गवर्नर और सन् 1773-1785 तक बंगाल के प्रथम गवर्नर-जनरल थे। भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव रखने का श्रेय रॉबर्ट क्लाइव के साथ-साथ उन्हें भी दिया जाता है; जबकि फ्रांसिस एडवर्ड रॉडन-हेस्टिंग्स प्रथम 'मार्क्वेज ऑफ हेस्टिंग्स', फोर्ट विलियम (बंगाल) के दसवें गवर्नर-जनरल थे।
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