मैनेजर पाण्डेय की आलोचना दृष्टि
Critical Vision of Manager Pandey
सन् 2009 में लिखा गया यह आलेख सन् 2010 में 'समीक्षा' पत्रिका में और सन् 2011 में 'द बुक रिव्यू' में छपा था। सन् 2020 में नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित 'साहित्य और समाज की बात शीर्षक पुस्तक में संकलित हुई। प्रो. मैनेजर पाण्डेय की स्मृति को नमन करते हुए यहाँ इसकी पुनर्प्रस्तुति की जा रही है।
बीते कुछ दशकों में हिन्दी आलोचना की दिशाएँ कुछ अधिक स्पष्ट और विराट हुई हैं, चिन्तन की धाराएँ लगातार विकसित हुई हैं। आलोचकों ने अपने कृति-कर्म के दायित्व का फलक बहुत बड़ा किया है। फलक-विस्तार की यह दायित्वपूर्ण दृष्टि भरने का काम जिन विशिष्ट हिन्दी आलोचकों ने किया, उनमें मैनेजर पाण्डेय का नाम आदर से लिया जाता है। वे हिन्दी के उन थोडे़-से आलोचकों में से हैं, जिन्होंने आलोचना-कर्म के फलक को लगातार विस्तार देकर न केवल अपना दायित्व बढ़ाया, बल्कि अपने समकालीन आलोचकों के लिए एक विराट लक्ष्य भी निर्धारित कर दिया। उनके समकालीनों के लिए यह लक्ष्य निर्धारण जितना भी जोखिम भरा हो, उनके परवर्तियों के लिए, खास तौर पर आलोचना-कर्म में अपनी परिचिति बना रहे नई पीढ़ी के लोगों की नजर साफ करने के लिए कारगर सूत्र साबित हुआ। उनकी स्पष्ट मान्यता रही है कि साहित्य का अस्तित्व समाज से अलग नहीं होता, इसलिए साहित्य का विकास, समाज के विकास से कटा हुआ नहीं हो सकता। और, इस तरह यदि समाज में नई संस्कृति का विकास होता है, तो वह साहित्य के विकास का ही घटक है। उन्होंने समाज में नई संस्कृति के लिए संघर्ष करने का दायित्व भी आलोचना का ही माना। अपनी इन मान्यताओं के साथ मैनेजर पाण्डेय की आलोचना पद्धति कृति के साथ-साथ उसकी सामाजिक अस्मिता की भी व्याख्या करती है, क्योंकि हर रचना अपने सामाजिक सन्दर्भ और सामाजिक अस्तित्व के साथ ही महत्त्वपूर्ण होती है।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की साहित्येतिहास-दृष्टि में प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है, जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है, और आदि से अन्त तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परम्परा को परखते हुए साहित्य-परम्परा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना साहित्य का इतिहास कहलाता है (हिन्दी साहित्य का इतिहास/पृ. 1)। आचार्य शुक्ल की इस धारणा का प्रतिफलन प्रो. मैनेजर पाण्डेय के चर्चित निबन्ध उपन्यास और लोकतन्त्र में देखा जा सकता है, जहाँ उन्होंने स्पष्ट किया है कि साहित्य के रूपों का विकास समाज के विकास से जुड़ा हुआ होता है, इसलिए साहित्य रूपों की संरचना का उस सामाजिक संरचना से गहरा सम्बन्ध होता है, जिसमें साहित्य के रूप पैदा होते हैं। प्रत्येक साहित्य-रूप का विचारधारात्मक आधार भी होता है जो सामाजिक विकास की विशेष अवस्था में व्याप्त विचारधारा से प्रेरित और प्रभावित होता है (उपन्यास और लोकतन्त्र, पृ. 11)। ‘साहित्य-रूप’ और सामाजिक विकास के ‘विचारधारात्मक आधार’ जैसे पदबन्धों से प्रो. मैनेजर पाण्डेय ने वस्तुतः अपने आगे के विन्यास में उस लक्ष्य की ओर इशारा किया है, जहाँ से उन्हें एक साथ सामन्ती समाज-व्यवस्था तथा महाकाव्य-युग का अन्त होता दिखा; और इसी तरह आधुनिक-काल में आकर उन्हें एक साथ सर्वाधिक गतिशील साहित्यिक विधा उपन्यास और सर्वाधिक मानवीय व्यवस्था लोकतन्त्र का उदय होते दिखा। साहित्यालोचन पर ऐसी घोषणा उन्होंने उस समय दी, जब हिन्दी में उपन्यास-लेखन तो अपनी तरह से विकसित हो गया, किन्तु उपन्यासालोचन का व्यवस्थित दृष्टि-विस्तार नहीं दिख रहा था। उक्त आलेख में उन्होंने इसकी कई दिशाएँ दिखाई हैं, जिन पर अभी काम होना शेष है।
भारतीय स्वाधीनता के दशक भर बाद से ही मैनेजर पाण्डेय की पैनी नजर समाज-व्यवस्था और नागरिक जीवन की विसंगतियों को देखने लगी थी। जीवन-संग्राम में जुटे आम नागरिकों, अस्तित्व के संकटों से जूझते दलितों, और ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ का सूक्ति वचन प्रचारित करने वाले समाज में अपना ही चेहरा ढूँढती स्त्रियों की दारुण परिस्थितियों के साथ-साथ, समस्त मानवीय आचरण के प्रतिपक्ष में सीना तानकर खडे़ दुराचारों और संकटों को उन्होंने गम्भीरता से देखा। वंचितों और पीडितों की पक्षधरता में मैनेजर पाण्डेय के आलोचना कर्म का उपस्कर शायद इसी रास्ते तैयार और ठोस हुआ है। नई दृष्टि और नवाचार के प्रति उनका आग्रह इस मान्यता के साथ रहा है कि कोई भी आन्दोलन व्यापक सामाजिक परिवर्तन का हिस्सा बनकर ही सार्थक हो सकता है।
आज का समय और मार्क्सवाद शीर्षक निबन्ध में वे प्रसिद्ध जर्मन कवि हंस माग्नूस आइजेनवर्गर की कविता कार्ल मार्क्स की पंक्तियाँ उद्धृत करते हुए कहते हैं कि ‘दुनिया भर के क्रान्तिकारी विचारों के साथ एक विडम्बना पूर्ण स्थिति यह दिखाई देती है कि वे क्रान्तिकारी विचार, विरोधियों की मार से नहीं, अनुयायियों के अवसरवाद से मरते हैं। भारत के प्रसंग में गौतम बुद्ध और कबीर के विचारों के साथ यही हुआ है। मार्क्स के विचार भी इसके अपवाद नहीं हैं।’ यह निबन्ध तो बाद का है, पर उन्होंने अपनी आलोचना दृष्टि का यह पैनापन अपने आलोचनात्मक संघर्ष के प्रारम्भिक दिनों में ही कायम कर लिया था। मुक्तिबोध का आलोचनात्मक संघर्ष शीर्षक उनका लम्बा आलेख, खुद मैनेजर पाण्डेय के आलोचनात्मक संघर्ष के कई सूत्रों का संकेत देता है। सचाई है कि मैनेजर पाण्डेय का आलोचनात्मक संघर्ष किसी भी सन्दर्भ में मुक्तिबोध के आलोचनात्मक संघर्ष से कमतर नहीं है। यह छोटी बात नहीं है कि जो मैनेजर पाण्डेय मुक्तिबोध के आलोचनात्मक संघर्ष पर विचार करते हुए कहते हैं कि 'मार्क्सवादी केवल वर्ग-शत्रुओं से ही संघर्ष नहीं करते, वे अपने व्यावहारिक अनुभवों के आलोक में आत्मालोचन करते हुए अपनी कमजोरियों पर भी अपने विजय प्राप्त करते हैं।' उसी मैनेजर पाण्डेय को बाद के दिनों में आइजेनवर्गर की कविता कार्ल मार्क्स की पंक्तियाँ उद्धृत करनी पड़ती हैं। मुक्तिबोध के आलोचना कर्म पर विचार करते हुए 'कामायनी : एक अध्ययन' और 'कामायनी : एक पुनर्विचार' के वैचारिक संघर्ष के साथ-साथ, नई कविता के दौर में प्रचलित, प्रचारित प्रगति विरोधी जीवन-दृष्टि और राजनीतिक दृष्टि के उनके संघर्ष और मार्क्सवादियों के आत्मालोचन पर चर्चा करते हुए मुक्तिबोध के जिन संघर्षों को उन्होंने उजागर किया है, मैनेजर पाण्डेय दरअसल उसी शृंखला की अगली कड़ी हैं। वे मुक्तिबोध की पंक्ति--साहित्य के क्षेत्र में सामान्य जनता तभी सक्रिय हो उठती है, जब उसमें कोई व्यापक सांस्कृतिक आन्दोलन चल रहा हो-- ऐसा आन्दोलन जो उसके आत्मगौरव, आत्म-गरिमा को स्थापित और पुनःस्थापित कर रहा हो--उद्धृत करते हुए आश्वस्त होते हैं कि ऐसी स्थिति में साहित्य और जनता की निकटता को खतरनाक समझना जनविरोधी है। --अपने इस कथन में प्रो. पाण्डेय पहले से ही अपने मन्तव्य को समर्थन दे चुके हैं कि साहित्य का विकास समाज से कटा हुआ नहीं रहता। कहा जा सकता है कि उन्होंने मुक्तिबोध के आलोचनात्मक संघर्ष पर विचार करते हुए न केवल एक रचनाकार आलोचक के द्वन्द्व को रेखांकित किया, बल्कि ब्रेश्ट, लुकाच के बीच चल रही बहस की तुलना मुक्तिबोध, रामविलास शर्मा की वैचारिक बहस से करते हुए अपने वैचारिक सन्दर्भ को एक विराट आयाम दिया और हिन्दी की सोच-पद्धति पर टिप्पणियाँ देते हुए उन्होंने हिन्दी आलोचना और हिन्दी पट्टी के नागरिक जीवन, राजनीतिक सन्दर्भ, और बौद्धिक परिवेश के गुणसूत्रों की गम्भीर व्यख्या दी। वस्तुतः वे स्वयं अपने उस पूरे दौर में उन्हीं विडम्बनाओं से जूझते रहे हैं।
बीसवीं सदी के सातवें दशक से ही मैनेजर पाण्डेय आलोचना-कर्म में सक्रिय हैं। अपने हर बार के उद्यम में उन्होंने हिन्दी आलोचना को एक नई जमीन दी। उनकी सम्पूर्ण चिन्तनशीलता का विशिष्ट बिन्दु उनकी आलोचना-दृष्टि ही है, जिसका चरम लक्ष्य उन्होंने प्रारम्भ में ही तय कर डाला। अकारण नहीं है कि उन्होंने आलोचना का प्राथमिक दायित्व संस्कृति के लिए संघर्ष करना माना; रचना के सामाजिक सन्दर्भ को सामाजिक अस्तित्व के साथ स्वीकारा; सूरदास को किसान-संस्कृति के कवि के रूप में प्रस्तुत किया; सामन्तशाही और स्त्री-पराधीनता के प्रबल विरोधी और प्रेम के नैसर्गिक मूल्य के उद्घोषक के रूप में मीराबाई की महत्त्वपूर्ण व्याख्या दी; रचनाओं की समालोचना करते समय नागरिक जीवन की सहज वृत्तियों को सामने रखा।
मुक्तिबोध का आलोचनात्मक संघर्ष की तरह का ही प्रसिद्ध निबन्ध उपन्यास और लोकतन्त्र एक ऐसा निबन्ध है जो पीढ़ियों तक गद्य लेखन की समझ विकसित करने के लिए कंुजी का काम करता रहेगा। इस निबन्ध की हर पंक्ति न केवल हिन्दी के आलोचना-कर्म को आलोकित करती है, बल्कि एक सूक्ति की तरह पाठकों के मन में बैठ जा रही है:
1. उपन्यास में लोकतन्त्र के पीछे यह मान्यता है कि मानव-स्वभाव और मानव-समाज परिवर्तनशील है। इस परिवर्तनशीलता की पहचान और अभिव्यक्ति उपन्यास का प्रयोजन है।
2. यथार्थवाद उपन्यास में और अन्यत्र भी सच की खोज की चिन्ता से संचालित होता है।
3. समाज के ज्ञान की आवश्यकता उन्हें होती है जो समाज को बदलकर उसे बेहतर बनाना चाहते हैं। यथार्थवादी उपन्यास ऐसे लोगों को सामाजिक वास्तविकता और सचाई का ज्ञान देकर उन्हें क्रियाशील बनाता है।...
दुनिया भर के विचारकों की समाज सापेक्ष चिन्तनशीलता को ध्यान में रखते हुए लेखक ने, इन पंक्तियों में उपन्यास और लोकतन्त्र पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया है; सजग पाठकों के लिए नागरिक जीवन की बारीकियों को समझने का सूत्र दिया है; और अपनी इस चिन्ता में सबको शामिल होने का एक तरह से निमन्त्रण दिया है। लोकजीवन की पद्धतियों को इन्हीं गुणसूत्रों के आधार पर बाद के दिनों में नागार्जुन के उपन्यास पर लिखते हुए उन्होंने निर्णय दिया कि अगर उपन्यास का एक लक्ष्य मानव जीवन के अन्तर्विरोधों की पहचान और उन अन्तविरोधों से उपजे सन्त्रास की अभिव्यक्ति है तो रतिनाथ की चाची एक सशक्त उपन्यास है। रतिनाथ की चाची और स्त्री की पराधीनता का प्रश्न शीर्षक आलेख में उन्होंने फिर से मानव-जीवन की कमनीयता और कामुकता के द्वन्द्व को सूक्ष्मता से रेखांकित किया। जैनेन्द्र कुमार के उपन्यास सुनीता पर लिखते हुए भी उन्होंने भारतीय समाज में स्त्री की परतन्त्रता और स्वाधीनता की आकांक्षा पर विचार किया, और उपन्यासकार द्वारा वैवाहिक जीवन की जड़ता, उसमें व्याप्त एकरसता, निरसता और उदासीनता की पहचान शक्ति को रेखांकित करते हुए उपन्यास-लेखन के दायित्व और मानवीय सरोकार की व्याख्या की।
मुक्तिबोध का आलोचनात्मक संघर्ष और उपन्यास और लोकतन्त्र शीर्षक निबन्ध सचमुच परवर्ती पीढ़ी के आलोचनाधर्मी लोगों के लिए कुंजी है; इन दोनों निबन्धों पर जितना भी लिखा जाए, कम होगा।
मैनेजर पाण्डेय के आलोचना-कर्म पर विचार करते हुए यह बात प्रमुखता से रेखांकित होनी चाहिए कि ढेर सारे सैद्धान्तिक और व्यावहारिक आलोचनात्मक निबन्ध लिखते हुए, उनकी पैनी दृष्टि अक्सर वैसे विषयों की खोज करती रहती है, जो आज के मौसम में हमारे समाज में खोने लगी हैं। अपने लक्ष्य-सन्धान में एकाग्रता से तल्लीन हो जाने के क्रम में आज के बुद्धिजीवी-समाज व्यस्ततावश उन चीजों को भूल-से जाते हैं, या अतीत का वजन उन मसलों को ढकने लगता है। बीते दशकों में अपने यहाँ स्त्री स्वाधीनता की बात जोर-शोर से शुरू हुई। भारत के विचारक बड़ी निष्ठा से इसका श्रेय फ्रांस की लेखिका सिमोन द बोउआ को, जिनकी पुस्तक 'द सेकेण्ड सेक्स', जिसका प्रकाशन फ्रांसीसी भाषा में सन् 1949 और अंग्रेजी में सन् 1953 में हुआ, बाद में हिन्दी में भी उसका अनुवाद हुआ। मैनेजर पाण्डेय ने उस समय लोगों को भारतीय चिन्तकों की चिन्ता की याद दिलाई। भारतीय समाज की सुदृढ़ चिन्तनशीलता का उल्लेख करते हुए उन्होंने महादेवी वर्मा की पुस्तक शृंखला की कड़ियाँ में व्यक्त ‘विचारों के सघन भावावेग’ और ‘आक्रोश’ की व्याख्या दी; और बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में चाँद पत्रिका के सम्पादकीय में प्रकाशित महादेवी वर्मा के विचारों का विश्लेषण किया। सन् 1942 में आकर इन निबन्धों का संकलन शृंखला की कड़ियाँ शीर्षक से पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ; जिसमें महादेवी के ही शब्दों में ‘जन्म से अभिशप्त और जीवन से सन्तप्त’ भारतीय नारियों की स्थिति का विश्लेषण है। 'शृंखला की कड़ियाँ : मुक्ति की राहें' शीर्षक अपने निबन्ध में मैनेजर पाण्डेय ने नारी स्वातन्त्र्य और भारतीय समाज में इसकी सोच-समझ की जानकारी देने के लिए थोड़ा और पीछे जाकर हिन्दी नवजागरण के दौर तक में स्त्री स्वाधीनता की प्रखर चेतना पर विचार किया है।
वर्ण-व्यवस्था और जाति-प्रथा के विरुद्ध इन दिनों कई चेतना-सम्पन्न लोग पर्याप्त चेतनशीलता से काम कर रहे हैं; वर्ण-भेद, जाति-भेद पर सार्थक प्रश्न उठाए जा रहे हैं। भारतीय चिन्तन परम्परा में इस गम्भीर मसले पर करीब दो हजार वर्ष पूर्व कितनी सार्थक बहस हो रही थी; समाज-व्यवस्था के दौर में वह बहस कहाँ-कहाँ कैसे-कैसे खो, भटक गई; इसके प्रभावी घटक क्या थे, इन प्रश्नों पर कुपित होते मैनेजर पाण्डेय ने आज के विचारकों से सवाल पूछा है -- क्या आपने वज्रसूची का नाम सुना है? 'वज्रसूची' दरअसल महान कवि, नाटककार, बौद्ध दर्शन के तेजस्वी प्रवर्तक, क्रान्तिकारी सामाजिक चिन्तक अश्वघोष की रचना है। उनका काल ईसापूर्व पचास से लेकर सन् पचास के बीच माना जाता है। अपने इस निबन्ध में मैनेजर पाण्डेय ने अपनी आलोचना-वृत्ति के अनुकूल ही, संस्कृत में लिखी इस रचना के प्रभाव, वर्ण-व्यवस्था के समर्थकों की बेचैनी, जाति-व्यवस्था के विरोध में संघर्षशील लोगों को मिलने वाली प्रेरणा, आम नागरिक से अश्वघोष की अभिलाषा, और जाति-व्यवस्था के विरोध में मजबूती से आवाज बुलन्द करनेवाली हिन्दी-पट्टी से देर तक इसकी अनुपस्थिति के रहस्य पर इत्मीनान से विचार किया है। निबन्ध में दो हजार वर्ष पुरानी इस रचना के सम्बन्ध में मैनेजर पाण्डेय की अनुसन्धान-वृत्ति का प्रतिफल इस रूप में सामने आता है कि वज्रसूची सम्भवतः पहली ऐसी रचना है, जिसमें वर्णभेद तथा जातिभेद पर टिकी व्यवस्था, उस व्यवस्था के नियामक संचालक ब्राह्मण वर्ण, उनकी विचारधारा और उस विचारधारा के पाखण्ड को उजागर किया गया है...वज्रसूची वर्णभेद और जातिभेद के विरुद्ध वैचारिक संघर्ष का घोषणा पत्र है।
लोग मानने को तैयार हों तो ऐसी सलाह भी दी जा सकती है कि मैनेजर पाण्डेय द्वारा लिखे निबन्धों को केवल आलोचना नहीं, रचना की तरह भी पढ़ा जाए; क्योंकि उनका कोई भी लेखन समकालीन नागरिक जीवन की बारीक समझ, सामाजिक विकास पद्धति के दौरान मानवीय आचरण की सहजता-जटिलता, आर्थिक-राजनीतिक-शासकीय तन्त्रों के साथ समकालीन मानस के तालमेल, नागरिक मन की सहजात निश्छलता और बौद्धिक कुटिलता आदि की चिन्ता एवं पहचान से कभी निरपेक्ष नहीं रहता। और, इन बातों से गम्भीरता से परिचित होकर ही कोई नागरिक मनुष्यता की पहचान कर पाएगा। उनके आलोच्य विषय का हर पहलू इसी आलोक में विवेचित होता है, और अधिकांश समय में वे पूर्ववर्ती से परवर्ती समय तक के पूरे दौर की तुलनात्मक विवेचना प्रस्तुत करते रहते हैं। 'गाँधी: महात्मा से चेथरिया पीर' निबन्ध में यह बात कुछ और स्पष्टता से समझी जा सकती है। सचाई है कि कोई भी 'समाज' और उस समाज की 'संस्कृति', उस समाज के 'व्यक्ति' और सामाजिक जीवन-यापन के 'समय' से निरपेक्ष नहीं होता। नागरिक आचरण से ही कोई 'समाज' अपनी पहचान बनाता है; और उसकी 'संस्कृति' रेखांकित होती है। इस निबन्ध में भारतीय समाज की युगान्त घटना स्वाधीनता आन्दोलन को केवल राजनीतिक रूप से ही नहीं, सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से भी महत्त्वपूर्ण बताते हुए, लेखक ने परवर्ती काल में भारतीय साहित्य और लोकजीवन पर उसके प्रभाव; और उस आन्दोलन के नायक महात्मा गाँधी के कृति-कर्म के प्रभाव की विस्तृत व्यख्या की है। इस पूरे दौर के साहित्य और लोकजीवन में गाँधी किस तरह 'महात्मा' से 'चेथरिया पीर' में तब्दील होते हैं; कैसे एक महानायक की सम्पूर्ण दार्शनिकता 'महात्मा' से 'आत्मा' बन जाती है; समय की आँधी और आयातित विचार शृंखला का चक्रवात लोकजीवन की जीवनी-शक्ति और प्रेरणा-स्रोत की प्रासंगिकता को गायब कर, पूजा-भाव की औपचारिकता में सीमित कर देता है; इसका विस्तृत ज्ञान यहाँ प्राप्त किया जा सकता है। मैनेजर पाण्डेय की आलोचना-दृष्टि यहाँ भी भारतीय समाज की विडम्बनाओं पर चिन्तित दिखती है। 'आज का समय और मार्क्सवाद', 'संकट तो है लेकिन...', 'संस्कृति का समाज शास्त्र' निबन्ध भी इन्हीं विचारों से ओत-प्रोत हैं। अलग से कहने की आवश्यकता नहीं कि उनका हर लेखन लोकजीवन की बुनियादी शर्तों के साथ ही अपनी यात्रा पूरी करता है। काव्यालोचन के समय भी उनकी आलोचना-दृष्टि कुछ एक-सी ही छवि प्रस्तुत करती है। यहाँ भी वे सामाजिक परिदृश्य के सहारे कविता के संकट को देखने का प्रयास करते हैं। 'आज का समय और कविता का संकट', 'नागार्जुन : काव्य की भूमि और भूमिका का विस्तार' और 'कविता खबर भी है' निबन्धों में लेखक की इस चिन्ता को देखा जा सकता है। मैनेजर पाण्डेय जब संस्कृति के विकास के लिए संघर्ष करने का दायित्व आलोचना-कर्म पर सौंपते हैं, तब उनके मन में संस्कृति के विकास की वैसी अपेक्षा भरी रहती है जो जन-चेतना को भरमाने और उसे जड़ बनाने के बजाय उसे उद्बुद्ध करे, जीवन्त करे, तमाम जकड़नों से उसे मुक्त करे, प्रवहमान बनाए। पर वे अपने चारो ओर संस्कृति के ऐसे उद्योग का विस्तार देखते हैं, जिसकी उपयोगिता सनसनी उत्पन्न करने वाली है। इन दिनों संस्कृति के उद्योग के नाम पर समाज में जो कुछ हो रहा है, वह निरन्तर कविता-विरोधी मानस तैयार करने में जुटा हुआ है। इस विषय पर ज्वलन्त साक्ष्यों के साथ कविता के संकट पर लेखक ने विचार किया है और मार्क्स के जिस कथन को (पूँजीवादी उत्पादन कला और कविता का दुश्मन है) झूठ साबित किया जा रहा था, उसे मैनेजर पाण्डेय सच साबित होता देख रहे हैं। यद्यपि वे नागार्जुन की कविता की भूमि और भूमिका का विस्तार देखते हुए, और रघुवीर सहाय की कविताओं का चेतनोन्मुख प्रभाव देखते हुए आश्वस्त होते हैं, पर आज के सांस्कृतिक उद्योगपतियों द्वारा लोकजीवन में घोले जा रहे जहर के प्रभाव के मद्देनजर उनकी सामाज चिन्ता कायम है। उन्होंने इसी चिन्ता में अपनी राय दी है कि आज की कविता के सामने एक बड़ा संकट संस्कृति के उद्योग का विस्तार है। इससे समाज में कविता की जरूरत खतरे में है और उसका अस्तित्व भी...। इन्हीं संकटों के बीच उनकी चिन्ता मनुष्य के आचरण, उसकी चेतना आदि से आगे उसकी इन्द्रियों की तरफ भी जाती है, जिनसे मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन संचालित होता है। वे कहते हैं, पूँजीवादी सभ्यता में मनुष्य को वस्तु बनाने की जो सर्वग्रासी प्रक्रिया चलती है, उसका शिकार मनुष्य की चेतना ही नहीं, उसकी इन्द्रियाँ भी होती हैं।
वस्तुतः विलक्षण आलोचना-दृष्टि से सम्पन्न मैनेजर पाण्डेय का लेखन; विज्ञान, प्रौद्योगिकी, उद्योग, और राजनीति के वाणिज्य में लिप्त आज के बौद्धिकों की निरपेक्षता के नाम सावधानी-सन्देश देता है; वह सुसुप्त समाज को जगाता है, जगे हुओं को चिन्तित, और अपनी चिन्ता में शामिल करता है।
अच्छी जानकारी !! आपकी अगली पोस्ट का इंतजार नहीं कर सकता!
ReplyDeletegreetings from malaysia
द्वारा टिप्पणी: muhammad solehuddin
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