कुछ विगत वर्षों से काले धन के विरुद्ध गम्भीर
बातें की जा रही हैं, काले धन के विरुद्ध निश्चय ही गम्भीरता से बातें होनी
चाहिए। पर, कभी-कभी काले मन की भी बातें होनी चाहिए। काले धन तो गिने-चुने
लोगों के पास होते हैं, जबकि काला मन अब साधारण नागरिक तक फैल गया है। आजादी से
पहले के भारतीय नागरिक काले मन से यथासाध्य परहेज करते थे। वे धर्मभीरु अवश्य
होते थे, किन्तु उनके मन में धर्म के प्रति आस्था होती थी। आस्था जैसे शब्द यद्यपि
कई अत्याधुनिक चिन्तकों को परेशान करने लगते हैं, उन्हें आनन-फानन इसमें
रूढ़ियों का वेबलिंक मिल जाता है, किन्तु तथ्यत: आस्था हर समय पाखण्ड की ओर
ही नहीं ले जाती। सम्बन्ध-मूल्य, नीति-मूल्य, समाज-मूल्य, राष्ट्र-मूल्य
के प्रति आस्था सदैव ही अच्छी बात होती है। इन मूल्यों में गहरी आस्था
रखनेवाले नागरिकों से ही एक बेहतर राष्ट्र की कल्पना की जा सकती है। उस दौर के
नागरिकों को दैवीय विधान के प्रति आस्था होती थी और अधर्म से भय होता था। ईश-भय
की वह व्यवस्था और कुछ भले न करे, उन्हें नैतिक और विवेकशील बने रहने की
प्रेरणा अवश्य देता था। किन्तु आज का मनुष्य भयमुक्त हो गया है, साहसी हो गया
है, उन्हें किसी मूल्य का भय नहीं होता। देव-पितर को दोयम दरजे के सामानों का
चढ़ावा चढ़ाते हुए उन्हें कोई कचोट नहीं होता। पाप के आतंक और पुण्य के सम्मोहन
से वह मुक्त हो चुका है। वैयक्तिक विलास में वह इस तरह लिप्त रहता है कि
नैतिकता जैसी बातें उन्हें बकवास लगती हैं। उन्हें दैवीय प्रकोप से कोई डर नहीं
होता, डर होता है शासकीय दण्ड से। वे मुतमइन हैं कि वैभव और पराक्रम से शासकीय
दण्ड-विधान का चरित्र बदला जा सकता है, दण्ड को पुरस्कार में परिणत किया जा
सकता है। इसलिए वे वैभवशाली और पराक्रमी होने की जुगत बैठाने में लिप्त हैं। वे
आश्वस्त हैं कि अनैतिक हुए बिना शीघ्रता से वैभवशाली और पराक्रमी नहीं हुआ जा
सकता। लिहाजा वे सब कुछ बेचकर वैभव जुटाने में लिप्त-तृप्त हैं; क्योंकि वैभव
के बूते सब कुछ हासिल किया सकता है। उन्हें यह नहीं दिखता कि वैभव जुटाने का
यह रास्ता पाशविकता की ओर जाता है। अपनी भारतीयता की पहचान के लिए उन्हें इस
पाशविकता से मुँह मोड़ना होगा। अब इस बात का निर्णय कठिन है कि इसकी शुरुआत
कौन करे—राजनेता? अध्यापक? धर्माधिकारी? या
हरेक नागरिक?...
प्रसंग थोड़ा जटिल है। वैश्विक
प्रतिस्पर्द्धा में दुनिया भर के बौद्धिक समुदाय लम्बे समय से अपने-अपने देश
को प्रभुत्व-सम्पन्न करने में जुटे हुए हैं। विगत दो-तीन दशकों में एक से एक
सैद्धान्तिक बातें प्रस्तावित हुई हैं। अपने राष्ट्र की पारम्परिक
ज्ञान-सम्पदा के अनुरक्षण, शोधानुसन्धान एवं शैक्षिक/प्रौद्योगिक उन्नयन, व्यापार
एवं विपणन के विकास जैसे राष्ट्रोत्थान के मसले पर बढ़-चढ़कर बातें होती आ रही
हैं। पर हकीकत कुछ और ही है। समीक्षात्मक दृष्टि डालने पर उक्त हर दिशा में
दिखावे की स्थिति सामने आती है; बिल्कुल हाथी के दाँत, खाने के और, दिखाने
के और जैसी। नागरिक परिदृश्य में इन सबका निहितार्थ व्यक्ति-हित में
फलीभूत होने लगा है।
असल में सारे मामलों का
जुड़ाव हमारे समय के प्रशिक्षण से है। नागरिक मनोवृत्ति का गठन रातो-रात तो
होता नहीं। देश की शैक्षिक-प्रणाली की मूल संरचना से इसका गहरा रिश्ता होता है।
निरन्तर उत्थान की बात करते हुए भी गत चार दशकों से हमारी शैक्षणिक व्यवस्था
उत्साहपूर्वक अधोमुखी हुई है। यद्यपि इस गिरावट की बुनियाद हमारे पूर्वजों ने बहुत
पहले ही रख दी थी। शिक्षा-जगत में इन वर्षों में निश्चय ही ज्ञान की अनेक नई-नई
शाखाएँ विकसित हुईं, विशेषज्ञता आधारित ज्ञान दिया जाने लगा, प्रबन्धन-कौशल
की दीक्षा दी जाने लगी। जीवन-संचालन की हर शाखा में प्रबन्धन की डिग्री-डिप्लोमा
मिलने लगी। प्रशिक्षुओं को अपने ज्ञान, कौशल एवं उत्पाद को श्रेष्ठतम साबित
करने की पद्धति और अधिकतम उपार्जन के कौशल की दीक्षा दी जाने लगी। किन्तु विशेषज्ञता
की ओर केन्द्रित होने के इस चक्कर में नैतिक, मानवीय और राष्ट्रीय जिम्मेदारी
का पाठ नजरों से ओझल रह गया। प्रशिक्षुओं को बताया जाने लगा कि जनता को सम्मोहित
करो, सम्मोहित जनता मन्त्रमुग्ध होकर तुम्हारे पीछे आएगी। सम्मोहन की क्षमता
तुममें नहीं है, चिन्ता मत करो; जिनमें है, उन्हें खरीद लो, उनसे विज्ञापन
कराओ। सम्मोहित नागरिक सोचता नहीं है, अनुसरण करता है। इस क्रम में उन्हें कभी
आगाह नहीं किया गया कि अपनी इस उन्नति-उपलब्धि के दौरान उन्हें अपनी नैतिकता,
मानवीयता और राष्ट्रीयता को कलंकित होने से बचाए रखना है। इन प्रशिक्षकों ने
सम्मोहन को, उपभोक्ताओं के चित पर विजय को प्राथमिक साबित कर दिया। वस्तुनिष्ठता
उनके लिए दोयम दर्जे की हो गई। व्यापार, शिक्षा, शोध, राजनीति, धर्मोपदेश...हर
क्षेत्र में इस समय यही सम्मोहन जारी है। प्रवंचन, प्रबन्धन और विज्ञापन द्वारा
जनता को सम्मोहित किया जाता है। कवि, लेखक, चिन्तक, पत्रकार, शिक्षक, नेता,
अफ्सर, धर्माधिकारी...सबके सब उपदेशक हो गए हैं। अपने निर्धारित कर्तव्यों से
निरन्तर विमुख रहने वाले इन उपदेशकों के उपदेशों से उनके आचरण की कोई संगति
नहीं बैठती। ये उपदेशक समुदाय भी अपनी तरह के सम्मोहन में तल्लीन रहते हैं। पाँच-छह
दशक पूर्व तक के किशोर-युवा स्वाधीनता सेनानियों की कहानियों, शिक्षकों-राजनेताओं-समाजसेवकों
की जीवनधारा से प्रेरणा लेते थे। विद्यालयों में नैतिक-शिक्षा का पाठ पढ़ाया
जाता था। ऋषियों-मुनियों-महात्माओं की कहानियाँ बताकर बच्चों में नैतिकता
एवं विवेकशीलता का बीजारोपण किया जाता था। आज के किशोरों को स्वाधीनता-संग्राम
की उन कहानियों से कोई अनुराग रह नहीं गया है; शिक्षक-नेता-अफ्सर-पुलिस-पत्रकार
के आचरण उन्हें सम्मोहित नहीं करते; ले-देकर वे अपने पिता की ओर मुखातिब होते
हैं। पिता स्वयं किसी अनन्त प्यास से दग्ध हैं। उनकी रुचि अपनी सन्तानों
को विवेकशील इनसान बनाने के बजाए पैसा पैदा करने वाली मशीन बनाने में अधिक रहती
है। पाँच दशक पूर्व प्रशिक्षण में पाँव रखते ही बच्चों को पूछा जाता था—बेटे! पढ़-लिख कर, बड़े होकर आप क्या बनेंगे? बच्चे कहते थे—बड़े होकर हम डॉक्टर, इंजिनियर, मंत्री, प्रोफेसर, व्यापारी
बनेंगे; लोगों की खूब सेवा करेंगे। आज के बच्चे इस सवाल के जवाब में कहते हैं-- बड़े
होकर हम डॉक्टर, इंजिनियर, मंत्री, प्रोफेसर, व्यापारी बनेंगे; और खूब पैसे
कमाएँगे। खूब पैसे कमाने की यह भोग-वृत्ति जिस पीढ़ी को बचपन से सिखाई गई; वह
पीढ़ी युवावस्था और प्रौढ़ावस्था में आकर कर्तव्य-निष्ठा की ओर कहाँ से उन्मुख
होगी?
बेशुमार धन कमाने की लिप्सा
में आज का नागरिक जिस तरह मोहासक्त है, वह भयकारी है। इस लिप्सा के तमाम
प्रयास अमानवीयता और विवेकहीनता से निर्देशित हैं। हजारो वर्षों की विकास-प्रक्रिया
में जो समाज सभ्य, व्यवस्थित और विवेकशील हुआ है; उसमें नीति-मूल्य की मानवीय
व्यवस्था गहनता से बसी हुई है। उक्त मोहासक्ति से उस व्यवस्था का मूल्य निरन्तर
लांछित होता है। कला, साहित्य, सिनेमा, शिक्षा, व्यापार, लोकतन्त्री व्यवस्था,
संचार-नीति... हर दिशा में मानवीय प्रयासों के विधान बदल गए हैं। हर क्षेत्र के
कर्ताओं का उद्देश्य नितान्त निजी उत्थान में लिप्त हो गया है। समाज-व्यवस्था,
आचार-संहिता, मानवीय सरोकार, नैतिक मूल्य की रक्षा उनके लिए निरर्थक है। तमाम
दिशाओं में मानवीय मूल्य का ऐसा क्षरण निश्चय ही राष्ट्रघाती, और अन्तत: आत्मघाती
है। बेशुमार धन कमाने की अनन्त प्यास को तृप्त करने में तमाम नैतिक मूल्यों की
उपेक्षा व्यक्ति की मनुष्यता और उसकी राष्ट्रीयता पर प्रश्नचिह्न लगाती है।
काले मन की बात हो, तो सम्भवत: आज के नागरिकों को अपने मूल्यविहीन आचरण पर
लगाम लगाने की इच्छा हो। मन की कालिमा दूर हो जाए, मन कलुषविहीन हो, उदार हो,
मानवीय हो, अपने हर उपार्जन की पद्धति में मनुष्य देखना शुरू करे कि उनके आचरण
से मानव-मूल्य या कि राष्ट्र-मूल्य पर आँच न आए; तो निश्चय ही वह बेहतर समाज
के हित में होगा; और अन्तत: स्वयं उस मनुष्य के हित में होगा। कलुषविहीन मन
का अर्थ है स्वस्थ मन। स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन का वास होता है; स्वस्थ
मन में ही स्वस्थ विचार आता है; और स्वस्थ विचार ही राष्ट्र को उन्नति की
ओर ले जाता है। जिस देश के नागरिकों का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पल-पल
वंचना और कलुष का शिकार होगा, वहाँ बौद्धिक और नैष्ठिक दायित्व की उम्मीद नहीं
की जा सकती।
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