अनुवाद के माध्यम से आज लोग सहजतापूर्वक बहुभाषी
साहित्य से परिचित हो जाते हैं। बहुभाषिक ज्ञान के बगैर भी सजग अध्यवसायी विभिन्न
भारतीय भाषाओं की गम्भीर समझ हासिल कर लेते हैं, और ऐसे पाठक सहर्ष स्वीकार
करते हैं कि लगभग 1652 बोलियों के सहयोग से संविधान स्वीकृत बाइस भाषाओं में लिखा
गया भारतीय साहित्य आज का एक ही बात बोलता है--समाज को मानवीय और मनुष्य को
सामाजिक होना चाहिए। किन्तु विडम्बना है कि बीते दो-ढाई दशकों में भारत
का बहुभाषी समाज अपनी बोलियों की गरिमा से बहुत दूर चला गया है। आधुनिकता की आँधी
ने उन्हें जड़ से उखाड़ दिया है। उनका उर्ध्वमुखी चरित्र भाषिक रूप से दुर्बल
होता जा रहा है। बोलियों की चमत्कारिक प्रयुक्तियों में संचित जीवनानन्द के
वास्तविक रस से वह वंचित होता जा रहा है। वैश्विक बाजार के घातक प्रकोप से बोलियों
का महत्त्व आहत हो रहा है। नागरिक जीवन की किसी भी व्यवस्था में अब बोलियों के
लिए सम्मान-भाव शेष नहीं है। बोलियों की प्रयुक्ति का रिवाज समाप्त होता जा
रहा है। बोलियों में बतियानेवाले बच्चों को लोग भदेसी मानने लगे हैं, ऐसे बच्चों
के अभिभावक हीनताबोध से भरने लगे हैं। शहरुओं पर अंग्रेजी का चसक छाया हुआ है तो
ग्राम्यों पर हिन्दी का। हिन्दी के प्रति इस आसक्ति का कारण राष्ट्र-भाषा
के लिए सुचिन्तित प्रेम नहीं; बोलियों के लिए तिरस्कार-भाव है। उन्हें कोई
नहीं समझाता कि बोलियों की समृद्धि के बिना भाषा की समृद्धि असम्भव है। सन् 1968
के आसपास घोषित भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की उक्ति 'निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल' में 'निज भाषा' का अभिप्राय पूरे देश की अपनी-अपनी
भाषा से ही था।
विदित है कि जनपदीय बोलियों में उपजी
कथन-भंगिमाओं से हर राष्ट्र की भाषा चमत्कृत होती है और नई-नई शैलियों का आविष्कार
करती है। तमाम भाषाओं के मुहावरों एवं लोकोक्तियों का उद्भव-स्रोत तथ्यत:
लोक-जीवन ही है। क्रियाशील जीवन के प्रसंग-विशेष में अनुभवी लोग एक-से-एक भाषिक
प्रयोग करते हैं। 'मुफलिसी में आटा गीला' जैसा पदबन्ध किसी अनुभवी व्यक्ति
ने अभाव की घनघोर पीड़ा में ही कहा होगा। मात्र चार शब्दों के इस प्रभावी पदबन्ध
में अर्थ-ध्वनियों की विराट छवियाँ दर्ज हो गई हैं। जीवन के हकीकत से उपजे ऐसे
उच्छ्वास जनसामान्य को अनुरक्त करते हैं और उन्हें अपने अनुभवों का हिस्सा
बनाने के लिए प्रेरित करते हैं। बहुसंख्य नागरिक द्वारा बार-बार प्रयुक्त होकर
ऐसे ही पदबन्ध बाद में बौद्धिक-समाज की स्वीकृति पा लेते हैं, फिर नागरिक
जीवन का सहचर हो जाते हैं।
बोलियों में इन प्रयुक्तियों की अखण्ड
शृंखला जारी रहती है। अनुभव के आधार पर सहजता से उत्पन्न ऐसी प्रयुक्तियों का
कोई सुविचारित उद्देश्य नहीं होता। इनके आविष्कार की कोई तय पद्धति अथवा निर्धारित
संख्या नहीं होती; इनके आविष्कर्ताओं की योग्यता या पद-प्रतिष्ठा परिभाषित
नहीं होती; ऐसा आविष्कार कोई भी व्यक्ति कर सकता है और उसे नागरिक स्वीकृति
मिल जाती है; प्रयुक्ति के बाद इन पर किसी का स्वामित्व नहीं होता; किन्तु
जन-जीवन को सावधान और शिष्ट करने में ये प्रयुक्तियाँ लगातार क्रियाशील रहती हैं।
हर समुदाय की भाषा-संस्कृति इन सहज रचनात्मकता से सम्पुष्ट होती रहती है। यही
भाषा-संस्कृति मनुष्य की राष्ट्रीय पहचान होती है। किन्तु भाषा-संस्कृति के संवर्द्धन
में बोलियों के इस अमूल्य योगदान की समझ आज के नागरिक परिदृश्य से गायब है।
बोलियों के इस उज्ज्वल पक्ष की उपेक्षा आज हर समुदाय बेरहमी से कर रहा है। हिन्दी
की स्थिति कुछ ज्यादा ही दुखद है। सन् 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में हिन्दी
बोलनेवालों की संख्या 42.2 करोड़ है। सामान्य नागरिक की भाषिक उदासीनता और
जनगणनाकर्मियों के सहज आलस्य के आधार पर कुछ अनुमान लगाएँ तो सम्भव है कि यह
संख्या एकाध करोड़ बढ़ भी जाए। पर क्या फर्क पड़ता है! विश्वविद्यालयों में
उच्च शिक्षार्जन में लगे शिक्षार्थियों की अराजक भाषा से सदमा-सा लगता है। आज
की युवा पीढ़ी ने हिन्दी के क्रियापद को अंग्रेजी की तरह समतल कर लिया है। गुरुजनों से भी कहते हैं 'आप जैसा कहोगे', 'आप
कब आओगे'। बड़ों के लिए भी 'कहोगे', छोटों के लिए भी 'कहोगे'। निश्चय ही उनकी इस
अराजक भाषा का कारण भाषिक प्रयुक्तियों के बोध का अभाव है। बचपन से उन्हें
बोलियों का महत्त्व और प्रयुक्तियों का सन्दर्भ बताया गया होता, तो स्थिति
सम्भवत: बेहतर होती। इसी बोध के अभाव में वे अनुबन्धित पाठ पढ़कर भी उसकी भाषिक
छटा से तादात्म्य नहीं बना पाते। वे भाषा का काम सिर्फ सम्प्रेषण समझते हैं।
हिन्दी भाषा-साहित्य के शिक्षार्थियों में ऐसी अराजकता तो और भी त्रासद है।
खैर...
अनुभव साक्षी है कि परिस्थितियों के अनुसार
मनुष्य के हृदय में उठे भावों का संचार बोलियों में होता है। वही उद्गार कालक्रम
में भाषा और जनजीवन की धरोहर बन जाता है। पर चिन्तनीय है कि इस धरोहर की समृद्धि
स्खलित हो रही है। देखते-देखते ग्राम्य-कौशल से निर्मित जीवन-यापन की सामग्री—छींका, पगहा, पनही, बियनी, खड़ाऊँ आज
लोक-जीवन से गायब हो गया; कोदो, साँवाँ, मड़ुआ, कौनी, माड़ा, कुरथी जैसे अनाज के
दाने गायब हो गए; उसी तरह बोलियों में निर्मित होनेवाली कई चिन्तन-प्रक्रियाएँ
भी गायब हो गईं। भाषा केवल भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं, वह मनुष्य
के सोच-विचार एवं चिन्तन-प्रक्रिया का आधार भी है। जिस प्रकार खुरपी, हल,
खड़ाऊँ गढ़ते समय कारीगर मनुष्योपयोगी सामान गढ़ने के साथ-साथ अपने रचनाशील मस्तिष्क
को सक्रिय बनाए रखते थे और अपनी रचनात्मकता में जीवन के लिए नित-नूतन दर्शन
ढूँढा करते थे; उसी प्रकार बोलियों की यह रचनात्मकता भी जीवन में भव्यता भरती
थी। 'चलनी दूसे सूप को' या 'चलनी हँसे सूप पर' जैसी उक्ति बोलियों में गढ़ी गई;
पर यह महज एक उक्ति नहीं है; इसमें जीवन के कई आचार-विचार छिपे हैं। इसके उच्चारण
के साथ ही लोग आत्मालोचन करने लगते हैं। वे सोचते हैं कि पेन्दे में सहस्रो
छेदवाली चलनी, सूप के उथले आकार पर उँगली नहीं उठा सकती, उस पर हँस नहीं सकती, फिर
हम मनुष्य का क्या कर्तव्य बनता है? दूसरों पर उँगली उठाने से पहले जरा अपने
आचरण पर तो सोचें!...आज वैश्विक बाजार की व्यवस्था ने समकालीन नागरिक-समाज से
यह चिन्ता, आत्मालोचन की इस प्रेरणा का अवसर छीन लिया है। बोलियाँ नष्ट हो
रही हैं, नई पीढ़ी की जीवन-व्यवस्था में बोलियों के लिए कोई जगह नहीं रह गई
है। बोलियों में उत्पन्न और समाज में सम्पन्न हुए ये वक्तव्य समाज को
मानवीय और मनुष्य को सामाजिक बने रहने की प्रेरणा देते थे। कहना असंगत न होगा कि
जब से नागरिक परिदृश्य में बोलियों के प्रति उदासीनता बढ़ी है; जनजीवन में
मानवीयता का ह्रास तेजी से हुआ है। प्रयोजनमूलकता से आक्रान्त समाज को अब उन भाषिक
सूक्ष्मता की ओर झाँकने की फुरसत नहीं है। प्रयोजन की सिद्धि मात्र अब उनकी
प्राथमिकता हो गई है। ज्ञान-विज्ञान की सभी शाखाओं में रोमांचक प्रगति अवश्य
हुई, किन्तु नव-चिन्तन की दिशा में नई पीढ़ी को इस तरह अग्रसर किया गया कि
वे भाषिक राजनीति, या कहें कि भाषिक आखेट के शिकार हो गए। उन्नत शिक्षा की
ओर अग्रसर आज के अधिकांश बच्चे अब 'आम-रस' के लिए लालायित हैं, किन्तु आम की
चार प्रजातियों का नाम नहीं जानते; आम ही क्यों, मछली, धान, दलहन, पेड़, पौधे,
घास, भूसे आदि की प्रजातियों की उन्हें पहचान नहीं है। उन्हें बताया जाता है,
और वे मुतमइन भी हैं कि सचमुच उन्हें इनके बारे में जानने की कोई जरूरत नहीं है।
जबकि इस रास्ते उनकी चिन्तनशीलता पर काबिज होने का व्यूह रचा जा रहा है। भाषा
के साथ दुर्व्यवहार की इस राजनीति को श्रेष्ठ कवि धूमिल ने बहुत पहले पहचान लिया
था, समकालीन राजीतिक परिदृश्य में उन्हें भाषा और गूंगेपन में, जंगल और जनतन्त्र
में,
कविता और कसाई के ठीहे-गराँस के बीच पड़ी बोटी में कोई फर्क नहीं दिखा था। धूमिल के समय में कम से
कम यह चिन्ता का भी विषय था, आज वह भी नहीं है। पूरी की पूरी शृंखला इस कड़ाह
में सिर डालने को बेताब है। शायद प्रारब्ध को यही मंजूर है...।
अधिकतम धन-उगाही वाली नौकरी पाना आज नई पीढ़ी
का चरम जीवन-लक्ष्य हो गया है। माँ-पिता भी उनसे यही अपेक्षा करते हैं। समाज में
उनका रुतबा भी इसी से बनता है। इस लक्ष्य-सन्धान में प्रबन्धन-विद्या के आखेटक
उन्हें बताते हैं, और वे सहजता से मान भी लेते हैं कि बोलियों के बारे में चिन्तित
होना उनके लिए सेहतमन्द नहीं है। अब उन्हें कौन बताए कि मनुष्य को भाषाविहीन
करने की साजिश उन्हें गुलाम बनाने की साजिश है। बोलियों की बदौलत ही भाषा में
जनपदीय संस्कृति सुरक्षित होती है, और संस्कृति ही मनुष्य को राष्ट्रीय पहचान देती
है। 'साझे की सूई ठेले से चलती है' या 'जिस पाँव तले गरदन दबी हो, उसे
सहलाने में ही भलाई है' जैसे जुमले आज की चौपाल में नहीं रचे जा सकते। तीन दशक
पहले तक की स्थिति को याद करके हर व्यक्ति स्वीकार करेगा कि आकाशवाणी के
प्रसारण से लोग अपने उच्चारण दुरुस्त करते थे, किन्तु अब वह भी प्रयोजनमूलकता
पर उतरकर सम्प्रेषण मात्र अपना उद्देश्य समझ बैठी है। प्रयोजनपरकता की ऐसी भूख
जब स्पष्ट नहीं थी, तब के बच्चे गुठली से लेकर जामुन तक की यात्रा समझते थे; अब
तो जामुन-रस भी जान लें तो काफी है।...
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