Friday, July 28, 2017

दुखवा का से कहे अनुवाद Who Would Listen the Pang of Translation




वस्‍तु एवं वि‍चार के वि‍नि‍मय हेतु अनुवाद का आवि‍ष्‍कार मानव सभ्‍यता के साथ ही शुरू हुआ और भारत में ईस्‍ट इण्‍डि‍या कम्‍पनी के डैने फैलने से पहले तक इसकी नैष्‍ठि‍क पवि‍त्रता बरकरार रही। इस दीर्घ यात्रा में यह धर्म-प्रचार, ज्ञान-विस्‍तार और शासन-संचालन का भी अभि‍न्‍न अंग बना रहा। आगे चलकर भारतीय ग्रन्‍थों के अनुवाद में अपनाई गई फि‍रंगी कुटि‍लता के कारण अनुवाद-कर्म की धारणा पहली बार शक के दायरे में आई। साम्राज्‍य-वि‍स्‍तार की धारणा से अनुवाद करवाने की उनकी कलुषि‍त नीति‍ को भारत के राष्‍ट्रवादी बौद्धि‍कों ने उन्‍हीं दि‍नों उजागर कर दि‍या। अनुवाद की वि‍श्‍वसनीयता जैसे वि‍चार सर्वप्रथम उन्‍हीं दि‍नों अस्‍ति‍त्‍व में आए। मगर यह बहुत पुरानी बात है।...
नई बात यह है कि भूमण्‍डलीकरण के इस उदार वातावरण में ‍अनुवाद का बाजार गर्म है। इससे भी अधि‍क नई बात यह है कि‍ अनुवाद के बाजार के इस वर्द्धि‍ष्‍णु ग्राफ को देखकर हमारे स्‍वदेशी बन्‍धु बड़े उल्‍लसि‍त हैं। इस बाजार में वे अपने लि‍ए बड़ी सम्‍भावनाओं की जगह ढूँढने में लि‍प्‍त हैं। क्‍योंकि‍ हमारे देश का शि‍क्षि‍त समाज अनुवाद को लेकर बहुत बड़े भ्रम में है। उन्‍हें लगता है कि दो भाषाओं का समान्‍य ज्ञान रखनेवाला हर व्‍यक्‍ति‍ अनुवाद कर सकता है। भ्रम यह भी है कि‍ स्रोत-भाषा एवं लक्ष्‍य-भाषा का ज्ञान कम भी हो, तो क्‍या फर्क पड़ता है? डि‍क्‍शनरी तो है न! और उससे भी बड़ा सहायक, गूगल ट्रान्‍सलेट वेबसाइट तो है ही!...भाषा और अनुवाद के बारे में ऐसी अवहेलनापूर्ण धारणा शायद ही दुनि‍या के कि‍सी कोने में हो! देश भर के कई सेक्‍टरों में अबूझ अनूदि‍त पाठ की अराजकता अकारण ही नहीं है। अनुवाद के आँगन में कूद पड़े ऐसे वि‍द्वानों को कैसे समझाया जाए कि‍ दो भाषाओं में वार्तालाप की शक्‍ति‍ भर जुटा लेने से अनुवाद की क्षमता नहीं आ जाती? उन्‍हें यह समझना चाहि‍ए कि‍ अनुवाद हेतु न केवल दोनों भाषाओं की संस्‍कृति‍, प्रकृति‍, प्रयुक्‍ति‍, पद्धति‍...का ज्ञान आवश्‍यक है; बल्‍कि‍ पाठ के वि‍षय, लक्षि‍त पाठक समूह के भाषा-बोध और उनके जीवन में अनूदि‍त पाठ की प्रयोजनीयता भी उतने ही महत्त्‍वपूर्ण हैं। धनार्जन की लि‍प्‍सा से अलग हटकर तनि‍क अपने पूर्वजों की नि‍ष्‍ठा को याद करते तो उन्‍हें सब स्‍पष्‍ट हो जाता। अवुवाद के आवि‍ष्‍कार-काल से लेकर बीसवीं शताब्‍दी के अन्‍ति‍म चरण तक के भारतीय अनुवाद चि‍न्‍तकों एवं उद्यमि‍यों के सारे प्रयास मानवीय, राष्‍ट्रीय, एवं ज्ञान के प्रचार-प्रसार की धारणा से प्रेरि‍त होते थे। अनुवाद तब तक कमाई का साधन नहीं बना था। ज्ञानाकुल समाज के हि‍त में लोग राष्‍ट्रवादी भावना से अनुवाद करते थे; मान्‍यता, पुरस्‍कार मि‍ल गया तो वाह-वाह, वर्ना सामाजि‍क प्रति‍ष्‍ठा को कौन रोक लेगा! कि‍न्‍तु व्‍यापारि‍कता के प्रवेश ने इनकी लुटि‍या डुबो दी।
कुछ बरस पीछे चलकर सरकारी प्रयासों का जायजा लें तो दि‍खेगा कि भारतीय भाषाओं में अनूदित सामग्री जुटाने हेतु ‍भूतपूर्व प्रधानमन्‍त्री पी.वी. नरसिंह राव के कार्य-काल में 'विशेष कोष' की स्थापना हुई थी। परवर्ती काल में इस दि‍शा में और भी महत्त्‍वपूर्ण काम हुआ। जून 13, 2005 को एक उच्च-स्तरीय सलाहकार संस्था 'राष्ट्रीय ज्ञान आयोग' का गठन हुआ। भारत के प्रधानमन्त्री को ज्ञान-व्यवस्था-संरक्षण के क्षेत्र में सलाह देने हेतु इसकी सि‍फारि‍शों की मुख्य चिन्ता क विषय था कि‍ इक्‍कीसवीं सदी की आधुनिकता के वैश्‍वि‍क दौड़ का मुकाबला ज्ञान-सम्‍पन्‍नता से ही सम्‍भव है; क्‍योंकि‍ अब आर्थिक गतिविधियों क प्रमुख संसाधन ज्ञान है। स्‍पष्‍टत: भारत को अपने समृद्ध वि‍रासत, राष्‍ट्रीय नि‍जता और वि‍लक्षण ज्ञान-परम्‍परा की ओर अनुरागपूर्वक सावधान होना था। संघ लोक सेवा आयोग के सन् 2007–08 की वार्षिक रिपोर्ट का नतीजा नि‍कला कि‍ मानविकी एवं सामाजि‍क वि‍ज्ञान विषयों की विश्वविद्यालय स्तर की पढ़ाई में 80-85 प्रतिशत शि‍क्षार्थी भारतीय भाषाओं में ही सहज रहते हैं, उसमें भी प्रमुखता हिन्दी की रहती है स्‍पष्‍टत: भारतीय ज्ञान एवं शोध को प्रोन्‍नत करना अनि‍वार्य था और इस हेतु आनेवाले समय में अनुवाद की भूमि‍का सुनि‍श्‍चि‍त थी। मातृभाषा के माध्‍यम से प्रारम्‍भि‍क शि‍क्षा को बढ़ावा देने हेतु पाठ्यक्रम की पुस्‍तकों का सभी मातृभाषाओं में अनुवाद करवाने की दि‍शा में पहल हुई; वि‍भि‍न्‍न वि‍षयों की कई दर्जन पुस्‍तकों का अनुवाद हेतु चयन हुआ; राष्ट्रीय अनुवाद मिशन का गठन हुआ; और भारतीय भाषा संस्‍थान, मैसूर को इसकी जि‍म्‍मेदारी दी गई। ऐसी बात की सूचना फैलते ही अनुवादकों की सूची में शामि‍ल होने के लि‍ए आखेटक लोग छान-पगहा तोड़ने लगे। वि‍चार हो कि वहाँ के प्रभारी‍ अनुवाद हेतु आवण्‍टि‍त बजट पर आक्रामक नजर गड़ाए इन उद्यमि‍यों से अनुवाद की इज्‍जत कैसे बचाएँ? जोर-जबर्दश्‍ती से कतार में आ गए अनुवादकों से पाठ्यक्रम की बोधगम्‍यता, अनुवाद एवं भाषा की सहजता की रक्षा कैसे करें?
तनि‍क भारतीय पुस्तक बाजार की ओर रुख करें तो साफ दि‍खेगा कि‍ इस समय भारत में लगभग उन्‍नीस हजार पुस्‍तक प्रकाशक हैं; जि‍नमें आई.एस.बी.एन. का इस्तेमाल करीब साढ़े बारह हजार प्रकाशक करते हैं। संशोधित संस्करणों के अलावा यहाँ प्रति‍ वर्ष अनुमानत: नब्‍बे हजार के करीब पुस्‍तकें छपती हैं, इनमें आधे से अधि‍क हि‍न्‍दी और अंग्रेजी की होती हैं; शेष अन्य भारतीय भाषाओं की। इस संख्‍या का एक बड़ा हि‍स्‍सा अनूदि‍त पुस्‍तकों का होता है। ये पुस्‍तकें भारतीय भाषाओं के पारस्‍परि‍क अनुवाद से लेकर वि‍देशी भाषाओं से भारतीय भाषाओं में अनुवाद तक की होती हैं। ज्ञानाकुल पाठक समुदाय के कारण इन अनूदि‍त पुस्‍तकों का व्‍यापार भी अच्‍छा-खासा होता है। अंग्रेजी भाषा की किताबों के प्रकाशन के क्षेत्र में भारत की गि‍नती दुनि‍या में तीसरे स्‍थान पर होती है। पहले दो देश हैं--अमेरि‍का और इंग्‍लैण्‍डकि‍न्‍तु वि‍डम्‍बना है कि‍ भारत में पनपी 'अनुवाद एजेन्‍सी' और 'हम भी अनुवाद कर कमा सकते हैं' की संस्‍कृति‍ ने इस कर्म की धज्‍जि‍याँ उड़ा दी है। न जाने ऐसा करते हुए भारतीय शि‍क्षि‍तों का वि‍वेक कहाँ गायब हो जाता है!
असल में भारत में अनुवाद-कर्म से जुड़े लोगों के साथ एक बड़ी वि‍डम्‍बना है; इनके लि‍ए समुचि‍त मानदेय की कोई मानक व्‍यवस्‍था नहीं है। मोल-भाव से सारी बातें तय होती है। यह सौदा पूरी तरह मुवक्‍कि‍ल की मजबूरी और अनुवादक के कौशल पर नि‍र्भर करता है। अनुवादक जि‍तना अधि‍क ऐंठ ले, या मुवक्‍कि‍ल जि‍‍तने कम में पटा ले। अधि‍कांश सरकारी संस्‍थाएँ आज भी पचास पैसे प्रति‍ शब्‍द से अधि‍क अनुवाद-शुल्‍क नहीं देतीं; प्राइवेट संस्‍थाएँ उन्‍हीं का अनुकरण करती हैं। इस दर पर एक श्रेष्‍ठ अनुवादक का दैनि‍क भत्ता चार सौ से अधि‍क नहीं बनता। और यह काम भी नि‍रन्‍तरता में नहीं मि‍लता; लि‍हाजा काम पाने के लि‍ए अनुवादक को कि‍सी न कि‍सी बिचौलिये की तलाश रहती है। ये बिचौलिये अनुवादकों का भरपूर शोषण करते हैं, पर बि‍चौलि‍ये से अनुवादक कटे तो उन्‍हें काम लाकर कौन दे? इस वि‍चि‍त्र परि‍स्‍थि‍ति‍ में भारतीय सांगठनि‍क क्षेत्र के नि‍यन्‍ता तनि‍क सोचें कि जि‍स अनुवादक को वे एक हमाल की मजदूरी भी नहीं मुहय्या कराते, उनसे कैसे अनुवाद की अपेक्षा करेंगे; भारतीय अनुवाद को कौन-सी दि‍शा दि‍खाएँगे और ऐसे अनुवादकर्मि‍यों के सहारे राष्‍ट्रीय ज्ञान-गौरव की वि‍रासत की रक्षा कैसे कर पाएँगे।‍
भूमण्‍डलीकृत बाजार के वि‍स्‍तार से अब मानवीय उद्यम का हर आयास 'इवेण्‍ट' हो गया है। जीवन-यापन में बदस्‍तूर 'इवेण्‍ट मैनेजमेण्‍ट' का नया दौर आ गया है। शादी करवानी है, श्राद्ध करवाना है, पार्टी करवानी है, बच्‍चे को ट्यूशन पढ़वाना है, अनुवाद करवाना है...हर काम के लि‍ए एजेन्‍सी है। कि‍न्‍तु अनुवाद के क्षेत्र में एजेन्‍सी चला रहे व्‍यक्‍ति‍यों को तनि‍क बुद्धि‍-वि‍वेक और नि‍ष्‍ठा से काम लेना चाहि‍ए। ध्‍यान रखना चाहि‍ए कि‍ अनुवाद-कर्म व्‍यापार नहीं, एक मि‍शन है। अनुवाद हेतु दी जानेवाली राशि‍ मेहनताना या मूल्‍य नहीं, मानदेय कहलाती है; ज्ञान के वि‍कास में नि‍ष्‍ठा से लगे कि‍सी उद्यमी के सम्‍मान में दी जानेवाली मानद राशि‍। संस्‍थाओं-संगठनों का भी दायि‍त्‍व बनता है कि‍ वे एजेन्‍सि‍यों को न्‍यूनतम भुगतान पर अनुवादक तलाशने के लि‍ए मजबूर न करे। फि‍र अनुवाद के अखाड़े में कूदने से पहले अनुवादकों को भी आत्‍म-मूल्‍यांकन करना चाहि‍ए; इस क्षेत्र में आने की इच्‍छा ही है, तो कौशल जुटाएँ। गूगल ट्रान्‍सलेट अथवा मशीनी अनुवाद का बेशक सहयोग लें, कि‍न्‍तु अनुवाद को 'मशीनी' न बनाएँ। श्रेष्‍ठ अनुवादक को वांछि‍त पारि‍तोषि‍क देने हेतु भूमण्‍डलीकृत बाजार तथा उनकी भाषा की सराहना करने हेतु वि‍शाल उपभोक्‍ता समाज तैयार बैठा है। सरकारी नौकरी के अलावा जनसंचार, पर्यटन, व्‍यापार, फि‍ल्‍म, प्रकाशन...हर क्षेत्र में अनुवाद की तूती बजती है। सभी देशी-वि‍देशी फि‍ल्‍मकार भारतीय भाषाओं में अपनी फि‍ल्‍म की डबिंग करवाना चाहते हैं; वि‍भि‍न्‍न ज्ञान-शाखाओं में बड़े-बड़े वि‍चारकों की पुस्‍तकें प्रकाशक छापना चाह रहे हैं; सभी उद्योगपति‍ अपने उत्‍पाद्य का वि‍ज्ञापन सभी भाषाओं में करवाना चाह रहे हैं...इन सभी कार्यों की अपेक्षि‍त योग्‍यता के बि‍ना जो इस क्षेत्र में हाथ डालते हैं; वे सचमुच अपने देश के उपभोक्‍ता समाज के साथ गद्दारी करते हैं।
संसदीय कार्यवाही के र्नि‍वचन हेतु चयनि‍त इण्‍टरप्रेटर का तो चयन ही इतना ठोक-ठठाकर होता है कि‍ वहाँ के अनुवाद में कि‍सी दुवि‍धा की गुंजाईश सामान्‍यतया नहीं होती; कि‍न्‍तु प्रशासनि‍क महकमों के प्रपत्रों, वार्षि‍क रपटों के हि‍न्‍दी अनुवाद; या सामाजि‍क जागरूकता फैलानेवाले नारों के सर्वभाषि‍क अनुवाद का जैसा उदाहरण सामने आता है; मालूम ही नहीं चलता कि‍ अनुवाद हुआ कि‍स भाषा में है? इस समय सभी संस्‍थानों के वेबसाइट के हि‍न्‍दी अनुवाद पर जोर दि‍या जा रहा है। सारी संस्‍थाएँ मुस्‍तैदी से सरकारी फरमान के अनुपालन में यह काम एजेन्‍सी को सौंपकर नि‍श्‍चि‍न्‍त हो रहे हैं। धनलोलुप वि‍वेकहीन एजेन्‍सी को तो कमाना है, वे न्‍यूनतम कोटेशन के अनुवादक के आखेट में जुट जाते हैं। अब बेचारे अनुवादक क्‍या करें! उपलब्‍ध अवसर का लाभ वे क्‍यों न उठाएँ! गूगल देवता के चरण में पाठ को रखकर वे भी प्रसाद उठा लेते हैं और एजेन्‍सी को सौंप देते हैं। एजेन्‍सी उस पाठ का  मूल्‍यांकन जि‍स वि‍द्वान से करवाती है; उन्‍हें क्‍या पड़ी है कि‍ उसमें खोट नि‍कालें; एक बार खोट नि‍काल दें तो अगली बार उन्‍हें काम नहीं मि‍लेगा। वे उसे बेहतरीन अनुवाद का तमगा दे देते हैं। चारो घर इन्‍जोर (उजाला) हो गया। धज्‍जि‍याँ तो भाषा की उड़ी, जि‍सका कोई खेवनहार नहीं! ऐसी रामभरोसे धारणा से संचालि‍त अनुवाद-उद्योग के गर्म बाजार पर संवेदना प्रकट करने के अलावा अन्‍य कुछ कि‍या नहीं जा सकता।
व्‍यापारि‍क क्षेत्र में अनुवाद के पाँव जि‍स तरह पसरे हैं, उसमें मामला एक सीमा तक ठीक कहा जा सकता है, क्‍योंकि‍ वहाँ अनूदि‍त पाठ का सीधा सम्‍बन्‍ध भुगतान करने वालों के नि‍जी हि‍त से है। भाषा की बोधगम्‍यता का परीक्षण करके ही वे भुगतान करते हैं। कि‍न्‍तु जहाँ कहीं पाठ की सम्‍प्रेषणीयता का तत्‍काल परीक्षण नहीं होता, वहाँ अनुवाद की बड़ी दुर्गति‍ है।

Friday, July 7, 2017

भाषावि‍हीन समाज का सच Truth of the Society, Who has Lost it's Language




उपभोक्‍ता-वृत्ति‍ और वि‍ज्ञापन के वर्चस्‍व के कारण भारत की सदि‍यों पुरानी भाषि‍क वि‍रासत आज कहीं नेपथ्‍य में बैठी है; क्‍योंकि‍ उसके प्रयोक्‍ता खुद को वि‍ज्ञापनों की भाषा में सुर्खरू समझते हैं। अब सचाई तो है ही कि‍ यह समय वि‍ज्ञापन के वर्चस्‍व का समय है; अर्थात् ऊँचा बोलने का समय, झूठ बोलने का समय। अपने शून्‍य को सौ-हजार और दूसरों के सौ-हजार की उपेक्षा करने का समय। राजनेता तो खासकर आत्‍मश्‍लाघा के कुएँ से नहाकर आए हुए प्रतीत होते हैं। उन्‍हें अपने सि‍वा दुनि‍या का हर प्राणी नि‍रर्थक, नि‍कम्‍मा और बेईमान लगता है। व्‍यापारी लोग तो अपने उत्‍पादों का वि‍ज्ञापन करते समय भूल ही जाते हैं कि‍ उनकी डींगें लोगों में पकड़ी जाएँगीं। दूरदर्शन पर टूथ पेस्‍ट के वि‍ज्ञापन में मॉडल को हवा में उछाल मारते हुए; परफ्यूम लगाने, माउथ-फ्रेशनर खाने या दाढ़ी बनाने से मॉडलों पर सुन्‍दरि‍यों को लहालोट होते हुए; माहवारी स्राव का पैड पहनने से युवति‍यों में उड़ान भरने की काबि‍लि‍यत आते हुए देखकर कि‍तना फूहड़ लगता है? पता नहीं संवाद लि‍खते हुए लेखक को या कि‍ फि‍ल्‍माते समय मॉडल को अपनी इस फूहड़ता का भान होता है या नहीं! भोण्‍डे वि‍ज्ञापनों की इस ललक से अब तो शि‍क्षा के व्‍यापारी भी बचे नहीं हैं। कि‍न्‍तु सवाल है कि‍ वि‍ज्ञापन कि‍सलि‍ए होता हैउपभोक्‍ताओं को ठगने के लि‍ए; या उत्‍पादकों को सम्‍पन्‍न करने के लि‍ए? यह बात विज्ञापनों की भाषा की सूक्ष्‍म पड़ताल करने पर ही स्‍पष्‍ट होगी। क्‍योंकि‍ 'भाषा' वस्‍तुत: मनुष्‍य के सभ्‍य और स्‍वायत्त होने की पहचान के साथ-साथ अपने उत्‍पादकों और प्रयोक्‍ताओं की नीयत भी बताती है। बशर्ते कि‍ आप उस नीयत को पहचान सकें!  
भाषा अपने आवि‍ष्‍कार-काल से ही मानव-जीवन की अलौकि‍क उपलब्‍धि‍ है। सभ्‍य, व्‍यवस्‍थि‍त और उत्तरोत्तर उन्‍नत होने की दि‍शा में यह मनुष्‍य की सबसे बड़ी सहायि‍का रही है। भावाभिव्यक्ति क साधन के अलावा यह सामुदायि‍क संस्‍कृति‍ की सरणि‍ और सोच-वि‍चार का आधार भी है। भाषा के बि‍ना कुछ भी सोचा जाना असम्‍भव है। अपने वैयक्‍ति‍क, पारम्‍परि‍क एवं राष्‍ट्रीय अस्‍मि‍ता की पहचान कोई मनुष्‍य इसी के जरि‍ए करता है; और जि‍न मूल्‍यों एवं नैति‍कताओं के कारण वह मनुष्‍य होता है, उनके सन्‍तुलन की चि‍न्‍ता करना भी सीखता है। कि‍न्‍तु वि‍ज्ञापनी वर्चस्‍व के आधुनि‍क दौर में हम भाषा को ऐसे नहीं देख सकते। उस दि‍शा में भारतीय समाज का भाषि‍क परि‍दृश्‍य आज वि‍चि‍त्र दशा में है। आज के प्रयोक्‍ताओं के पास शब्‍दों, सम्‍बोधनों, क्रि‍यापदों, प्रयुक्‍ति‍ की भंगि‍माओं की बेहद गरीबी छाई हुई है। स्‍वायत्त एवं प्रभुत्‍वसम्‍पन्‍न भारतीय समाज का भाषि‍क-बोध इतना सि‍मट गया है कि‍ वे मुहावरों में भी अभि‍धेयार्थ ढूँढते हैं। अपने उतावलेपन से आधुनि‍क हुए ऐसे भारतीय न्‍यूनतम क्रि‍यापदों से सारा काम चलाना चाहते हैं। जबकि‍ क्रि‍यापद और सर्वनाम के जरि‍ए भारतीय भाषाओं के संस्‍कार परि‍लक्षि‍त होते हैं। 'कामचलाऊ सम्‍प्रेषण' और 'बेशुमार धनार्जन' के नशे में लि‍प्‍त-तृप्‍त, आधुनि‍कता के इन सि‍पाहि‍यों को नहीं मालूम कि‍ भाषा अन्‍तत: मनुष्‍य की नि‍जता और राष्‍ट्रीयता की पहचान होती है। इन्‍हें चूँकि‍ अपनी भाषि‍क गरि‍मा का बोध नहीं है; इसलि‍ए कि‍श्‍तों में अपनी भाषि‍क-क्षमता खो-खोकर आज पूरी तरह भाषावि‍हीन हो गए हैं। इस दि‍शा में भारत के भाषावि‍दों, अध्‍यापकों, समाजसेवि‍यों, शोधार्थि‍यों और सत्ता के नि‍यन्‍ताओं को गम्‍भीरता से सोचने की जरूरत है कि‍ दीर्घकाल तक औपनि‍वेशि‍क मनोदशा के अधीन रहकर भी जि‍न भारतीयों ने अपनी भाषा-संस्‍कृति‍ की गरि‍मा कायम रखी; आजादी के कुछेक बरस तक भी वह अनुराग कायम न रह सका। परराष्ट्रीय भाषा के प्रति‍ लोलुप लोग अपने ही भाषि‍क सौष्‍ठव से नि‍रपेक्ष दि‍खने लगे। अपने अनेक भाषा-व्‍यवहार में आज का भारतीय अपनी सांस्‍कृति‍क पहचान और राष्‍ट्रीयता अस्‍मि‍ता का सम्‍पूर्ण संकेत नहीं दे पाता। वे न केवल अपनी भाषि‍क प्रयुक्‍ति‍यों की मर्यादाओं, वि‍शि‍ष्‍टताओं से नावाकि‍फ हैं; बल्‍कि‍ भाषि‍क छवि‍याँ भी उनके लि‍ए अजनबी हैं। चि‍न्‍तनीय, कि‍न्‍तु सत्‍य है कि‍ ऐसी स्‍थि‍ति‍यों में आकर भी वे खुद को अयोग्‍य नहीं समझते; 'एडवान्‍स हो चुके' समझते हैं।   
भारत के भाषि‍क परि‍दृश्‍य में ऐसी नागरि‍क नि‍रपेक्षता का कारण सामुदायि‍क परि‍वेश में भोगवृत्ति‍ का गहन प्रवेश है। चारो ओर उपभोक्‍ता संस्‍कृति छाई हुई है।‍ लोगों की पूरी जीवन-व्‍यवस्‍था वि‍ज्ञापन और वि‍ज्ञापन की भाषा से संचालि‍त हो रही है। वि‍ज्ञापनी वक्‍तव्य पर वे धर्म की तरह आस्‍था रखते हैं; उस पर संशय/तर्क करना उन्‍हें अधर्म-सा लगता है। छह-छह दार्शनि‍क परम्‍पराओं वाले देश के नागरि‍कों के लि‍ए तर्क करना आज इतना नि‍रर्थक लगता है कि‍ मुर्गी के अण्‍डे पर चि‍पके स्‍टीकर के कारण वे उसे उस कम्‍पनी का अण्‍डा मानते हैं। जबकि‍ अण्‍डे तो मुर्गी ने दि‍ए! वस्‍तुनि‍ष्‍ठता की दि‍शा में तर्क-वि‍चार करना अब नागरि‍कों के लि‍ए नि‍रर्थक हो गया है। मोबाइल पर ज्‍यों ही एस.एम.एस. आता है'बाय वन, गेट वन फ्री'; लोग हरकत में आ जाते हैं; स्‍लोगन के व्‍यापारिक लक्ष्‍य पर तनि‍क वि‍चार नहीं करते। सम्‍मोहि‍त अनुयायी की भाँति‍ चल पड़ते हैं। क्‍योंकि‍ वे अपनी भाषा और भाषि‍क समझ खो चुके हैं।
आम नागरि‍क ही नहीं, वि‍ज्ञापन की भाषा और पद्धति‍ पर सोचने की जरूरत व्‍यवस्‍था-संचालन के नि‍यन्‍ताओं को भी महसूस नहीं होती। सामाज में जागरूकता फैलानेवाले प्रसंगों के अलावा व्‍यक्‍तियों/संस्‍थाओं के व्‍यावसायि‍क उन्‍नति‍ को बढ़ावा देनेवाले वि‍ज्ञापनों को भी इन दि‍नों भारत में जनसंचार माध्‍यमों, सोशल मीडि‍या एवं मुनादी द्वारा प्रचारि‍त करने की आजादी मि‍ली हुई है। इन संचार माध्‍यमों पर अब तो दवाइयों का भी वि‍ज्ञापन होता है(वि‍धानवि‍रुद्ध है, कि‍न्‍तु वैधानि‍क बचाव के कौशल वे जानते हैं)। अधि‍कांश वि‍ज्ञापनों से सामाज में ठगी, असावधानी, अन्‍धवि‍श्‍वास, राष्‍ट्रीयता एवं नैति‍कता के प्रति‍ लापरवाही...तरह-तरह की वि‍संगति‍याँ फैल रही हैं। त्‍यौहारोत्‍सव के अवसर आते ही मेल/मोबाईल/टीवी पर ऑफर आने लगते हैं। अभी-अभी मॉल से जीएसटी ऑफर आया था, मानसून ऑफर आ चुका है, तीज ऑफर/झूला ऑफर आनेवाला है। इन उत्‍पादकों ने शायद तय कर रखा है कि‍ आम नागरि‍क इत-उत में न पड़े, जो भी कमाकर घर लौटे, आकर हमारे खाते में डाल जाए। वि‍ज्ञापन लि‍खनेवालों, मॉडलिंग करनेवालों को तो उत्‍पादकों से मोटी रकम उगाहनी होती है, उन्‍हें कोसने से भी कुछ हो नहीं सकता; कि‍न्‍तु इन ऑफरों/वि‍ज्ञापनों के सम्‍मोहन में बेतहाशा दौड़ते आम नागरि‍क का आचरण हैरत में डालता है। 
गजब खेल है; उपभोक्‍ता समझता/कहता है कि‍ वह फायदे में है; जबकि‍ वह शि‍कार हुआ है। उत्‍पादक समझता है कि‍ उसका नि‍शाना सही लगा है, पर वह कहता है कि‍ हम तो उपभोक्‍ता के सेवक हैं, जबकि‍ उसने उपभोक्‍ता का शि‍कार कि‍‍या है। नि‍स्‍सहाय उपभोक्‍ता चूँकि‍ लम्‍बे समय से कथन का 'आरोपि‍त अर्थ' समझता आया है; अपनी भाषि‍क भव्‍यता का नि‍रन्‍तर ति‍रस्‍कार करता आया है, इसलि‍ए उसे यह ति‍लि‍स्‍म समझ नहीं आता, वास्‍तवि‍क स्‍थि‍ति‍ का उसे बोध नहीं होता। इनकी तर्कशक्‍ति‍ अवरुद्ध है; वि‍ज्ञापनकर्ताओं के लि‍ए ये मुग्‍ध, सम्‍मोहि‍त और उनके पीछे बेसुध दौड़ती हुई भीड़ हैं। इस सम्‍मोहि‍त पीढ़ी के अनुयायि‍यों को समझाया भी नहीं जा सकता। क्‍योंकि‍ उत्‍पादकों के वि‍ज्ञापन पर इन्‍हें खुद से अधि‍क भरोसा है। वि‍ज्ञापनों पर तर्क करना उनके लि‍ए अधर्म है। तर्क करने का अर्थ वे विरोध मानते हैं--विज्ञापन का विरोध, विज्ञापन के माॅडल का विरोध। विज्ञापन का माॅडल चूँकि उनके आइकन हैं, इसलिए तर्क का अभिप्राय हुआ उनके आइकन का विरोध; और उनके आइकन का विरोध हुआ तो उनका ही विरोध हुआ! विरोध की इस लम्बी शृंखला में कोई उलझना नहीं चाहता।
उत्‍पादकों का व्‍यावसायि‍क गणि‍त पूरी तरह सधा होता है। उन्‍हें सुवि‍चारि‍त रणनीति‍यों के तहत  सम्मोहन चि‍त्तवि‍जय का खेल खेलना पड़ता है! नहीं खेलेंगे तो उनका घटि‍या सौदा उम्‍दा कीमत, और आनन-फानन में नहीं बि‍केगा। इसके लि‍ए उन्‍हें कुछ मदारी खरीदना पड़ता है; भाषा और करतब का मदारी। ये क्रीत मदारी आम नागरि‍कों के भावनात्‍मक दोहन (इमोशनल ब्‍लैकमेलिंग) का सि‍लसि‍लेबार इन्‍तजाम करते हैं। संवाद में भाव, भाषा और दृश्‍य का ऐसा ति‍लि‍स्‍म गढ़ते हैं; संवेदनशील घटना-प्रसंगों और कोमल सम्‍बन्‍धों के अनुराग की दुहाई देकर उत्‍पाद की ऐसी गुणवत्ता बताते हैं कि‍ भाव-प्रवण वि‍ह्वल क्रेता उत्‍पाद की वस्‍तुनि‍ष्‍ठता के बारे सोचना छोड़कर उस भावुकता के सरोवर में सराबोर हो जाते हैं। आह्लाद और मोहकता उसे दुनि‍याँदारी से काट देती है। नि‍श्‍छल उपभोक्‍ताओं की कोमल भावनाओं का दोहन करनेवाले ये चालाक मदारी नि‍मेष मात्र के लि‍ए नहीं सोचते कि‍ जि‍स सामान्‍य नागरि‍क ने हमें राष्‍ट्र का आइकन बनाया; इन वि‍ज्ञापनों में हम उन्‍हें ही चूना लगा रहे हैं और पूँजीपति‍यों का खजाना भर रहे हैं! वे कभी देश के नि‍यन्‍ताओं को नैति‍क और राष्‍ट्रहि‍तैषी पाठ पढ़ानेवाले वि‍ज्ञापनों की बात नहीं सोचते! वैश्‍वि‍क प्रति‍स्‍पर्द्धा में आगे रहनेवाले भारत के शोध, अनुसन्‍धान, शि‍क्षण, अध्‍यवसाय के उन्‍नयन की दि‍शा में वि‍ज्ञापन करने की बात नहीं सोचते! ऐसा सोचेंगे तो मोटी रकम उगाहने के लि‍ए तेल-मसाला-साबुन-मलहम-ताकतवर्द्धक दवाई कैसे बेचेंगे? सचमुच, वि‍ज्ञापनों की वैधानि‍कता और भाषा पर गम्‍भीर बहस की बड़ी जरूरत आन पड़ी है।   
मनुष्‍य से उसकी 'भाषा' छीनने की यह तरकीब भारत में कोई नई नहीं है; आजादी के कुछेक बरस बाद से ही शुरू हो गई थी। भारतीय लोकतन्‍त्र के नि‍र्वाचि‍त जनप्रति‍नि‍धि‍ और चयनि‍त अधि‍कारि‍यों में 'शासक' बनने की भूख बलवती हो उठी थी; वे जानते थे कि‍ जि‍स मनुष्‍य के पास भाषा होगी, उस पर शासन नहीं कि‍या जा सकता। (आज के सन्‍दर्भ में देखें तो जि‍स मनुष्‍य के पास भाषि‍क समझ और तर्कशक्‍ति‍ होगी, उसे ऊल-जलूल उत्‍पाद नहीं बेचा जा सकता।) क्‍योंकि‍ भाषा होगी, तो वह बोलेगा; तर्क करेगा; बोलता रहा, तर्क करता रहा तो वि‍रुद्ध बोलेगा। पहले एक बोलेगा, फि‍र दो, फि‍र दस, सौ, हजार, करोड़...आन्‍दोलन खड़ा हो जाएगा। एक की माँग बेशक भीख कहलाए, हजारो की माँग शासकों को बेदम कर देती है। इसलि‍ए शासि‍तों के मुँह में ज़बान रहने देना, दि‍माग में तर्क-शक्‍ति‍ रहने देना शासकों को अपने लि‍ए हि‍तकर नहीं लगा; वे जनता की भाषा छीनने की जुगत बैठाने लगे। उनकी यह शाति‍री उस दौर के वि‍शि‍ष्‍ट कवि‍ धूमि‍ल को स्‍पष्‍ट दि‍ख गई थी। उन्‍हें 'भाषा के चौथे पहर में जुआ तोड़कर भागते हुए शब्द' दि‍खने लगे थे; 'परिचित चेहरा भी तत्सम शब्द-सा अपरिचित' लगने लगा था; 'शब्दों के जंगल में शब्द और स्वाद के बीच भूख को जिन्दा रखना' भारी लगने लगा था। अपने पूरे दौर में वे कवि‍ता और भाषा में प्रायोजि‍त अर्थ भरे जाने के कौशल को गम्‍भीरता से नोट कर रहे थे। आम नागरि‍क को कथन के 'प्रायोजि‍त अर्थ' समझाने और मनवाने की परम्‍परा चल पड़ी थी। क्‍योंकि‍ 'प्रायोजि‍त अर्थ' समझने का अभ्यासी नागरि‍क धीरे-धीरे अर्थान्‍वेष की अपनी प्रक्रि‍या भूल जाता है; अन्‍तत: गूँगा हो जाता है। धूमिल इस तथ्‍य से अवगत थे, इसलि‍ए ‘भाषा ठीक करने से पहले आदमी को ठीक’ करना चाहते थे वे भाषा में, आदमी होने की तमीज ढूँढते थे। 'भूख और भाषा में सही दूरी' दे‍ख पाने वालों के मनुष्‍य होने पर वे आपत्ति‍ उठाते थे। भूख सबसे पहले ‘भाषा को खा’ जाती है। अभि‍प्राय यह कि‍ जीवन जीने की पहली जरूरत 'भूख' कि‍सी मनुष्‍य को कई तरह से मजबूर करती है। मजबूरी में भाषा को बदलने में देर नहीं लगती। भूख से मजबूर होकर ही कोई जमूरा मदारी की भाषा बोलने लगता है।
धूमि‍ल के समय के शासकों को 'भाषा' की वास्‍तवि‍क शक्‍ति‍ का डर था। उन्‍हें इस बात की गहरी समझ थी कि‍ भूखवि‍हीन मनुष्‍य तर्क करता है; उचि‍तानुचि‍त की बात करता है; जनप्रति‍नि‍धि‍यों के कर्तव्‍यों की समीक्षा करता है; मनुष्‍य के होने की नैति‍कता और तार्कि‍कता की बात करता है। कि‍न्‍तु भूख, भाषा को खा जाती है। इसलि‍ए मनुष्‍य के 'होने' की बुनि‍यादी स्‍थि‍ति‍ को घेरे में रखा जा‍ए; उसे भूख से लड़ने दि‍या जाए; लगातार अस्‍ति‍त्‍व के अवि‍चल यथार्थ से जूझने को मजबूर कि‍या जाए; वर्ना वह बोलेगा; उसका बोलना सत्ता के लि‍ए शुभद नहीं है।
उल्‍लेखनीय है कि‍ 'मनुष्‍य होना' केवल जैवि‍क क्रि‍या भर नहीं है; देह-धारण करते ही मनुष्‍य कई वि‍वशताओ में उलझ जाता है। भोजन, वस्‍त्र, आवास भर से वह तुष्‍ट नहीं होता। उसके आगे उन्‍हें सम्‍मान और सुरक्षा भी चाहि‍ए, फि‍र वर्चस्‍व भी चाहि‍ए। इसी वर्चस्‍व-स्‍थापन की प्रक्रि‍या में मनुष्‍य पति‍त होने लगता है। क्रमश: संवेदनहीन, फि‍र क्रूर, और फि‍र खूँखार हो जाता है। अति‍सभ्‍य एवं अति‍सम्‍पन्‍न होने के क्रम में वह सारी मनुष्यता त्‍यागकर पशु-प्रतीक का बेहतरीन उदाहरण बन जाता है। ये मुट्ठी भर वर्चस्‍वकामी, देश भर के सहृदय मानव के हि‍स्‍से का अनाज-पानी, पवन-प्रकाश सोखने लगता है। औरों के हि‍स्‍से में उसके इस अति‍क्रमण का विरोध आम नागरि‍क न करे, वह अपनी मुसीबतों को सुलझाने में व्‍यस्‍त रहे, इसके लि‍ए उस दौर के शासकों ने 'भूख' की नि‍रन्‍तरता बरकारार रखी। भूख से बि‍लबि‍लाता नागरि‍क वि‍‍रोध की भाषा नहीं बोल सकता। इसलि‍ए उन्‍हें भूख के अधीन रखकर भाषा का 'आरोपि‍त अर्थ' समझाया जाता था। जबकि‍ धूमि‍ल ने सावधान कर दि‍या नहीं, अब वहाँ कोई अर्थ खोजना व्यर्थ है/पेशेवर भाषा के तस्कर-संकेतों/और बैलमुत्ती इबारतों में/अर्थ खोजना व्यर्थ है।' 
कि‍न्तु आज धूमि‍ल का समय नहीं है। धूमि‍ल की इन प्रयुक्‍ति‍यों में 'भाषा' तो मानवीय आचरण के प्रतीक भर थी, आज तो भाषा का मौलि‍क स्‍वभाव ही कहीं कि‍नारे हो गया है। शासकों की दीर्घकालीन संगति‍ से उपभोक्‍ता-सामग्री के उत्‍पादकों और वणि‍कों ने ऐसी व्‍यवस्था नि‍र्मि‍त कर ली है कि‍ नागरि‍क परि‍दृश्‍य से भाषि‍क नि‍जता का पूरा स्‍वरूप गायब है। वि‍ज्ञापन से इतर कोई भाषा आज का नागरि‍क जानता ही नहीं। धूमि‍ल आज  होते, तो देखते कि‍ जि‍स जनता की ओर से वे भाषा की राजनीति‍ पर सत्ता को फटकार रहे थे; वह जनता आज खुद-ब-खुद अपनी भाषा त्‍यागकर वि‍ज्ञापन की भाषा की गुलाम हो चुकी है। स्‍थि‍ति‍ भयावह अवश्‍य है, कि‍न्तु हम अपनी नि‍जता की ओर लौटना चाहें, तो असम्‍भव भी नहीं है।



Wednesday, June 14, 2017

छीना-झपटी से भाषा समृद्ध नहीं होती No Snatching Can Enrich the Language



नवभारत टाइम्स, दिल्ली, जून 7, 2017, पृष्ठ 16 के मध्य में कोलकाता विश्वविद्यालय के हिन्दी के अध्यापक प्रो. अमरनाथ का एक लेख छपा है--मैथिली को हिन्दी में सेंध लगाने का अधिकार क्यों? उस आलेख में उन्होंने एक तरफ तो महाकवि विद्यापति की महत्ता स्वीकार की है, दूसरी तरफ मैथिली भाषा एवं साहत्यि को लेकर निहायत ऊल-जलूल बातें की हैं! प्रो. अमरनाथ हिंदी बचाओ मंच के संयोजक हैं। लेख के अन्त में अखबार लखिता है कि व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं। फिर भी अखबार ने इस वाहियात वमन पर पाठकों की राय आमन्त्रित की है।
मिथिला-मैथिली के प्रबल अनुरागी नौजवान श्री अमित आनन्द एवं डॉ. सविता ने यह समाचार मुझे भेजकर राय माँगी। उन्होंने दो सवाल किए--

  1. हिन्दी बचाओ मंच के संयोजक प्रो. अमरनाथ पूछ रहे हैं कि जब मैथिली ने अपना अलग घर बाँट लिया है, तो उसके कवि विद्यापति को हिन्दी वाले क्यों पढ़ें?’ इस पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है?
  2. वे कहते हैं कि मैथिली फकत चार करोड़ लोगों की भाषा है। सिविल सर्विस की परीक्षा में बीटेक, बीईए, एमबीए, एमबीबीएस की डिग्री लेकर अनेक अभ्यर्थी अपना विषय मैथिली इस आश्वस्ति से लेते हैं कि मैथिली का पाठ्यक्रम सीमित है, उत्तर-पुस्तिका का मूल्यांकन कोई मैथिली के प्रोफेसर ही करेंगे, जो उन्हें अच्छे अंक देंगे। उन्हें इस बात का भी कष्ट है कि साहित्य अकादेमी पुरस्कार की राशि मैथिली और हिन्दी के साहित्यकारों के लिए समान होती है। इस पर आपकी क्या राय है?   

अव्वल तो इस हास्यास्पद धारणा पर विचार ही नहीं होना चाहिए, क्योंकि छीना-झपटी से कोई भाषा महान नहीं होती! वह महान होती है साहित्य की समृद्धि से, भाषा एवं साहित्य के प्रति नागरिक सम्मान से; लोकजीवन में भाषा की उपादेयता, प्रवाह एवं संवर्द्धन से; नीर-क्षीरविवेकी समालोचना और गम्भीर शोध से; वस्तुनिष्ठ अध्यापन से...। पूरी की पूरी हिन्दी पट्टी हस्बेमामूल अंग्रेजी की ओर विदा हो गई है; मान्यता-पुरस्कार-समालोचना में बकायदा गिरोहबाजी और तिजारत का बोलबाला है; वंशवाद और संबंधवाद के सम्पोषण से पूरे देश का हिन्दी अध्यापन त्रस्त है; अराजक अध्यापकीय शैली के मारे पूरा अनुसन्धान-कार्य कचरापेटी बनता जा रहा है...ऐसे कोलाहल में मशगूल विद्वानों की प्राथमिक चिन्ता में ये बातें शामिल नहीं हैं। तुलना जायज हो तो मैं घोषणा करूँ कि मेरी तरह के असंख्य हिन्दी-भक्त इस दुनिया में हैं, जिन्हें इसकी चिन्ता हो रही है; क्योंकि वे इन तथ्यों पर गम्भीरता से सोच रहे हैं; राष्ट्र और राष्ट्रभाषा से उन्हें मोह है; वे निरर्थक प्रलाप नहीं करते; कुतर्क के पीछे लट्ठ लेकर नहीं दौड़ते।...फिर भी इनको जवाब देना मुनासिब लग रहा है; क्योंकि मनुष्य की स्मरण शक्ति बहुत कमजोर होती है; बल्कि अधिकांश समय में वे अपनी स्मरण शक्ति को जबरन कमजोर बना लेते हैं, अपनी सुविधानुसार प्रसंगों को भूलते-बिसराते रहते हैं। सुधी पाठकों को याद होगा कि दशकों पहले डॉ. रामविलास शर्मा ने मैथिली को बोली साबित करने के लिए, और इसे भाषा का दर्जा नहीं देने की नीयत से एक लेख लिखा था; उसका करारा जवाब बाबा नागार्जुन ने आर्यावर्त अखबार में दिया था। उसके बाद बाबा का वह लेख तो दुबारा कहीं पुनर्मुद्रित नहीं हुआ, लेकिन रामविलासजी वाले लेख को बार-बार छपाकर कुछ षड्यन्त्रकारियों ने सूखे घाव को बार-बार खोदना शुरू कर दिया। उस लेख के हर पुनर्मुद्रण का जवाब यदि बाबा के उसी लेख के पुनर्मुद्रण से दिया गया होता, सम्भवतः ऐसी बचकानी हरकत दुहराने से लोग बाज आते। रामविलासजी के उस लेख में तो फिर भी एक जिद थी; बेतुका ही सही एक मुहिम थी; यह लेख तो बकवास है। ऐसी बचकानी बात तो कोई पाँचवी जमात का बच्चा भी नहीं कर सकता। फिर एक बात और है; यह हिन्दी बचाओ मंच आखिर है क्या? हिन्दी को ये लोग किससे बचाना चाहते हैं? हँसी आती है कि जिस हिन्दी की अस्मिता को रौंदकर अपना प्रतिपाल कर रहे हैं, वे हिन्दी को बचाने की बात कर रहे हैं! आश्चर्य!
उनका सवाल है कि वे हिन्दी में विद्यापति को क्यों पढ़ें? अब किसी अध्येता को इतनी समझ नहीं है कि हिन्दी साहित्य के इतिहास को मजबूत बनाने और राष्ट्रीय अस्मिता की समझ बनाने के लिए विद्यापति की अहमियत क्या है? तो मत पढ़ें! विद्यापति उनके सामने हाथ जोड़कर खड़े तो होंगे नहीं कि आप मेरी रचना पढ़ ही लें। शोधार्थियों, अध्येताओं, अध्यापकों एवं सामान्य पाठकों को इस भ्रम से बाहर आ जाना चाहिए और सदैव इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि किसी रचनाकार की रचनाओं को पढ़कर वे रचना अथवा रचनाकार का नहीं; स्वयं अपना भला करते हैं। अध्यवसायी की अपनी आत्मिक भव्यता बढ़ती है। सम्बद्ध रचनाकार को वे कुछ भी नहीं देते।
अमरनाथ की इस हास्यास्पद उक्ति से बचने हेतु लोग चाहें लगभग सात आठ दशक पूर्व मिथिला मिहिर के मिथिलांक में प्रकाशित सुनीतिकुमार चटर्जी का आलेख मैथिली भाषा और संस्कृति अवश्य पढें। उन दिनों मिथिला मिहिर में कुछ पृष्ठ हिन्दी में भी रहते थे। सुनीतिकुमार चटर्जी ने स्पष्ट कहा है कि--मैथिली...भूल से हिन्दी की बोली मान ली जाती है। साहित्यिक हिन्दी कल की भाषा है, इसकी प्रधानता केवल गत शताब्दी में हुई है।कृकिन्तु मैथिली कम से कम छह सौ वर्षों से सम्भवतः इससे भी अधिक से संचित होती आई है।प्रो. अमरनाथ को शायद अनुमान नहीं है कि विद्यापति को भूलेंगे तो उनके पाँव के नीचे से जमीन खिसक जाएगी! उन्हें सबसे पहले रामचन्द्र शुक्ल को खारिज करना होगा। क्योंकि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने प्रवृत्तिगत विशेषता के आधार पर  जिन बारह ग्रन्थों को आधार बनाकर हिन्दी साहित्य के आदिकाल का नामकरण वीरगाथाकाल किया; उनमें सर्वाधिक प्रामाणिक दो कृतियाँ कीर्तिलता और कीर्तिपताका विद्यापति की ही थीं; जिन्हें आचार्यश्री ने इतिहास में एक अवतरण की जगह देना भी मुनासिब नहीं समझा। अब वे रामचन्द्र शुक्ल गलती सुधारें पहले! नाखून कटाकर शहीदी जत्था में नाम लिखवाने के लिए तो आमादा हैं, पर तथ्यों की पड़ताल की कोई लालसा नहीं! मैथिली और विद्यापति पर अपनी राय देते हुए सुनीतिकुमार चटर्जी ने कहा था कि ‘‘मैथिली कविताओं का प्रभाव अपने पड़ोस की पूर्वी बहिनों पर अर्थात् बंगला, आसामी और कुछ दूर तक उड़िया भाषाओं पर बहुत पड़ा। आधुनिक भारतीय साहित्य में विद्यापति सबसे बड़े कवियों में गिने जाते हैं। ये उस श्रेणी के प्रतिभाशाली कवि थे, जिनको बंगाली अपना कवि मानते हैं। और वे अपने प्रान्तीय कवियों में तो महान हैं ही।कृदो साहित्यों में ऐसा प्रमुख स्थान पाना अपूर्व प्रतिष्ठा की बात है।’’ ज्ञान और शोध के लिए दरअसल अध्यवसाय की जरूरत होती है, जिससे ऐसे वक्तव्यवीरों का सरोकार रह नहीं गया है। शगूफेबाजी के ऐसे पहलवानों का मूल उद्देश्य वस्तुतः हिन्दी-अनुराग नहीं होता; वे तो ऐसे तौर-तरीकों की तलाश चर्चित होने, प्रशस्ति पाने के आखेट में करते हैं। उन्हें मालूम नहीं कि ऐसी लपक-झपक एवं साम्राज्य-विस्तार की दुर्नीति अपनाने, अन्य भाषा-साहित्य का अपमान करने, या भावुक भाषा-प्रेमियों की संवेदना गुदगुदाकर पक्षधरता जुटाने  से आज तक दुनिया की कोई भी भाषा समृद्ध नहीं हुई है। 
संस्कृत, अवहट्ट एवं मैथिली--महाकवि विद्यापति की रचनाएँ बेशक तीन ही भाषाओं तक सीमित हैं, किन्तु साहित्य के हर ईमानदार अध्यवसायी इस बात से परिचित हैं कि उनका रचनात्मक सरोकार वैश्विक है; नितान्त मानवीय। जिन महान रचनाकारों के कृतिकर्मों के सहारे भारतवासी दुनिया भर में अपनी गरदन ऊँची किए रहते हैं; उनमें विद्यापति का नाम प्राथमिक पंक्ति में आता है। साहित्य के अध्येताओं को इतना सेक्टेरिअन (सांप्रदायिक) होना शोभा नहीं देता। देश भर में मेरे जैसे असंख्य अध्येता होंगे, जिन्हें किशोरावस्था में शरत बाबू की पॉकेट बुक्स में छपी किताबें पढ़ते हुए कभी यह बोध हुआ हो कि वे हिन्दी के लेखक नहीं हैं। उपलब्ध स्रोतों से संकलित महाकवि विद्यापति की कृतियों की सूची इस प्रकार है-- 

  1. कीर्तिलता : (कीर्तिसिह के शासन-काल में उनके राज्यप्राप्ति के प्रयत्नों पर आधारित अवहट्ट में रचित यशोगाथा)
  2. कीर्तिपताका : (कीर्तिसिह के प्रेम प्रसंगों पर आधारित अवहट्ट में रचित)
  3.  भूपरिक्रमा : (देवसिंह की आज्ञा से, मिथिला से नैमिषारण्य तक के तीर्थस्थलों का भूगोल-ज्ञानसम्पन्न संस्कृत में रचित ग्रन्थ)
  4. पुरुष परीक्षा : (महाराज शिवसिंह की आज्ञा से रचित नीतिपूर्ण कथाओं का संस्कृत ग्रन्थ)
  5. लिखनावली : (राजबनौली के राजा पुरादित्य की आज्ञा से रचित अल्पपठित लोगों को पत्रलेखन सिखाने हेतु संस्कृत ग्रन्थ)
  6. शैवसर्वस्वसार : (महाराज पद्मसिह की धर्मपत्नी विश्वासदेवी की आज्ञा से संस्कृत में रचित शैवसिद्धान्तविषयक ग्रन्थ)
  7. शैवसर्वस्वसार-प्रमाणभूत संग्रह : (शैवसर्वस्वसार की रचना में उल्लिखित शिवार्चनात्मक प्रमाणों का संग्रह) 
  8. गंगावाक्यावली : (महाराज पद्मसिह की पत्नी विश्वासदेवी की आज्ञा से रचित गंगापूजनादि, एवं हरिद्वार से गंगासागर तक के तीर्थकृत्यों से सम्बद्ध संस्कृत ग्रन्थ)
  9. विभागसार : (महाराज नरसिंहदेव दर्पनारायण की आज्ञा से रचित सम्पत्तिविभाजन पद्धति विषयक संस्कृत ग्रन्थ)
  10.  दानवाक्यावली  : (महाराज नरसिंहदेव दर्पनारायण की पत्नी धीरमति की आज्ञा से दानविधि वर्णन पर रचित संस्कृत ग्रन्थ) 
  11. दुर्गाभक्तितरंगिणी : (धीरसिंह की आज्ञा से रचित दुर्गापूजन पद्धति विषयक संस्कृत ग्रन्थ, और विद्यापति की अन्तिम कृति; धीरसिंह का शासन सन् 1459-1480 तक रहा। यद्यपि इस रचना के उपक्रम में दर्ज राजस्तुतिकृविश्वेषां हितकाम्यया नृपवरोऽनुज्ञाप्य विद्यापतिं श्री दुर्गोत्सव पद्धतिं वितनुते दृष्ट्वा निबन्धस्थितिम्’ (अर्थात् विश्वहित कामनासम्भूत राजज्ञा पर विद्यापति ने दुर्गोत्सवपद्धति निबन्ध लिखा)कृके सहारे सुकुमार सेन का कहना है कि पूर्वकृत रचनाओं की गुणवत्ता के कारण नरसिंहदेव-धीरमति देवी ने इस ग्रन्थ की रचना का आदेश दिया और पुस्तक लिखी गई।) 
  12. गोरक्ष विजय : (महाराज शिवसिंह की आज्ञा से रचित मैथिली एकांकी, गद्यभाग संस्कृत एवं प्राकृत में और पद्यभाग मैथिली में) 
  13. मणिमंजरि नाटिका : (संस्कृत में लिखी नाटिका, सम्भवतः इस कृति की रचना कवि ने स्वेच्छा से की) 
  14. वर्षकृत्य : (पूरे वर्ष के पर्व-त्यौहारों के विधानविषयक मात्र 96 पृष्ठों की कृति, सम्भवतः) 
  15. गयापत्तलक : (जनसाधारण हेतु गया में श्राद्ध करने की पद्धतिविषयक संस्कृत कृति) 
  16. पदावली : (शृंगार एवं भक्तिरस से ओतप्रोत अत्यन्त लोकप्रिय लगभग नौ सौ पदों का संग्रह)
अब अध्येतागण स्वयं सोचें कि वे इस आधार पर विद्यापति को किस भाषा अथवा किस विचारधारा के रचनाकार मानेंगे। या फिर यह भी सोचें कि उनकी कितनी रचनाओं को पढ़कर उन पर फतवा जारी करते हैं। इतिहास गवाह है कि विद्यापति की बिखरी हुई रचनाओं का संकलन समायोजन प्रारम्भिक तौर पर किसी मैथिल ने नहीं, बंगला के शोधवेत्ताओं ने शुरू किया था। यह भी विदित है कि बंगला भाषा के विद्वान विद्यापति के लिए देर तक संघर्ष करते रहे थे। 
हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है। उसकी सम्पन्नता, भव्यता के बारे में हमें अवश्य सोचना चाहिए। किन्तु इस कारण भाषा-विज्ञान की ज्ञान-पद्धति की कब्र नहीं खोदनी चाहिए। फतवेबाजी और भाषिक साम्प्रदायिकता के जहर से दग्ध होना सदैव ही हानिकारक होता है। इस मामले में हर वास्तविक शिक्षाविद्, साहित्यसेवी, शोधवेत्ता, यथेष्ट उदारता रखतें हैं। उनकी दृढ़ राय होती है कि भाषा-विज्ञान की संगति-अवगति हर किसी के लिए गुणकारी होता है, फिर हिन्दी के प्रोफेसर के लिए क्यों नहीं होगा?  ज्ञान दुनिया की किसी भी में उपजे, उसे मनस्थ करने की ललक हर बुद्धिजीवी को होती है। मामूली भाषावैज्ञानिक समझ रखनेवालों को भी यह मालूम है कि जोर-जबर्दस्ती करने पर भी मैथिली, हिन्दी की बोली साबित नहीं हो सकती; क्योंकि दोनों एक परिवार की भाषा ही नहीं है। मैथिली मागधी-प्राकृत-अपभ्रंश भाषा-परिवार की भाषा है, जबकि खड़ीबोली हिन्दी शौरसेनी-प्राकृत भाषा-परिवार की। जिस प्रकाण्ड भाषावैज्ञानिक सुनीतिकुमार चटर्जी के हवाले से प्रो. अमरनाथ ने इतनी मशक्कत कर मैथिली को पूर्वी (हिंदी) या बिहारी (हिंदी) के अंतर्गत एक बोली के रूप में शामिल करने की चेष्टा की है, और सन् 2003 में माननीय अटल बिहारी वाजपेयी जी प्रधान मन्त्रीत्व में मैथिली के संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल होने से वे घनघोर दुःख के शिकार हुए हैं; उसी सुनीति कुमार चटर्जी ने यह बात काफी पहले जोर देकर कह दी है। इसके अलावा मैथिली की अपनी लिपि भी है--मिथिलाक्षर, इसे तिरहुता भी कहते हैं। यह नामकरण गुप्तकाल में ही हो गया था। उससे पूर्व बौद्ध-ग्रन्थ ललित विस्तरमें इसे वैदेही लिपि कही गई है। म.म. हरप्रसाद शास्त्री के अनुसन्धान (सन् 1916) के अनुसार मिथिलाक्षर अथवा तिरहुता-लिपि का प्रमाण आठवीं-नौवीं शताब्दी के सिद्ध-साहित्य के बौद्धगान ओ दोहा के तालपत्र पाण्डुलिपि में मिलता है। तिब्बत में मिले एक तालपत्र के साक्ष्य से राहुल सांकृत्यायन ने भी प्राचीन तिरहुता का अस्तित्व स्वीकारा है। प्रमाण लेना हो तो मिथिला मिहिर में छपे अपने लेखमैथिली भाषा और संस्कृतिमें प्रकाण्ड भाषाविद् सुनीतिकुमार चटर्जी की राय देखें! वे कहते हैं कि ‘‘मैथिली कविता का बीज बंगभूमि में एक नए वृक्ष के ही रूप में परिणत हो गया, जो ब्रजबोली साहित्य के नाम से अभिहित हुआ। यह मैथिली और बंगभाषा के सम्मिश्रण से उत्पन्न हुआ और इसी भाषा में बंगाल के सबसे उत्तम शृंगारिक भक्त कवि तीन सौ वर्षों से भी पहले से अपनी कविता करते आ रहे हैं। यह शैली कवीन्द्र रवीन्द्र के समय तक जारी रही है और इसका प्रवाह हमलोगों के समय तक भी अक्षुण्ण और निर्दोष है।...मैथिली को अन्यान्य भाषाओं की भाँति अपनी खास लिपि भी है, जो हिन्दी से एकदम स्वतन्त्र और कई प्रकार से भिन्न भी है। यद्यपि मैथिली को जानबूझकर मिटा डाला जाए और केवल हिन्दी की ही शिक्षा दी जाए तो भी मैं नहीं सोचता, कितने वर्षों में मैथिलीभाषी जनता को हिन्दीभाषी बनाया जा सकता है। मैं सोचता हूँ कि कई शताब्दियाँ इस काम में लगेंगी...।’’ साहित्येतिहास की कुंजी पढ़कर मुखविलास में लिप्त रहना हो, तो और बात है।
असल में समस्या मैथिलीभाषियों की ही उदारता से शुरू हुई। उन्नीसवीं शताब्दी में जब हिन्दी-उर्दू विवाद जोरों पर था; काशी, प्रयाग और मिथिलांचल के बुद्धिजीवी एवं संस्कृत पण्डित हिन्दी के पुरजोर समर्थन में उतर आए थे। मैथिल विद्वानों ने अपनी लिपि मिथिलाक्षर त्यागकर देवनागरी अपना लिया। हिन्दी-समर्थन में उतर आने तक की बात तो जो हो, किन्तु अपनी लिपि का त्याग सम्भवतः मैथिल विद्वानों की बड़ी भूल थी। मैथिली को उस उदारता का दण्ड सन् 1917 में पटना विश्वविद्यालय में हुए मैथिली-विरोध से लेकर आज तक झेलना पड़ रहा है। मैथिली को हिन्दी की बोली कहनेवाले विद्वानों के मन में आज वही अतीतविहीन कृतघ्न धारणा कौंध रही है। उल्लेखनीय है कि वह दौड़ स्वाधीनता आन्दोलन का भी था। पूरे देश को भाषिक एकता के सूत्र में बाँधे जाने की जरूरत दिख रही थी। मैथिली के प्रसिद्ध कवि चन्दा झा ने ऐसे ही क्षण में विद्यापति की कृति पुरुष परीक्षाके अपने मैथिली अनुवाद की भूमिका हिन्दी में लिखी। और भी कई मैथिल रचनाकारों ने राष्ट्रीय अस्मिता के समर्थन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। किन्तु आजादी मिलने के बाद वे सब धोखे के शिकार हुए, उसकी चर्चा यहाँ अप्रासंगिक होगी।
राय बनाने की आजादी तो भारत में हर प्राणी को है। किन्तु मैथिली के बारे में राय बनाते हुए जब कोई इसे फकत चार करोड़ लोगों की भाषा कहते हैं, तब हँसी आती है। कोई पढ़-लिखा व्यक्ति इतनी आधारहीन बात कैसे करता है! उन्हें यह बात क्यों नहीं मालूम होती कि संख्या किसी भाषा के भाषा बनने का आधार नहीं होती। भाषा का आधार उसके साहित्य-सृजन एवं लिपि की प्राचीनता, साहित्य में व्यक्त राष्ट्रीय अस्मिता की चिन्ता, साहित्यिक उत्कर्ष, साहित्य के जनसरोकार, सृजनात्मक सातत्य, समाज एवं सभ्यता के संवर्द्धन में उसके योगदान, भाषा और साहित्य के प्रति नागरिक-अनुराग, जीवन-यापन और संस्कृति-संरक्षण में भाषा-साहित्य के दखल आदि में ढूँढा जाता है। ढूँढें तो दुनिया में कुछेक ऐसे राष्ट्र भी मिलेंगे, जिनकी पूरी आबादी मैथिलीभाषियों से कम या कि आसपास है। सुनीतिकुमार चटर्जी ने अपने लेखमैथिली भाषा और संस्कृतिमें इस ओर भी इशारा किया है! इसलिए भाषा के सन्दर्भ में जनसंख्या पर बात करना समीचीन नहीं है।
बौद्धिक दारिद्र्य का आलम यह है कि मैथिली के सन्दर्भ में ऐसी बात करनेवाले हिन्दी-प्रेमियों को विद्यापति (सन् 1350-1439) के अलावा कोई और नाम नहीं मालूम। अब उन्हें यह ज्ञान कौन दे कि विद्यापति कोई वंशहीन रचनाकार नहीं हैं। विगत छह सौ बरसों से और उनके पूर्ववर्ती काल में भी मैथिली साहित्य-धारा सदानीरा और ऊध्र्वगामी रही है। उनके पूर्ववर्ती ज्योतिरीश्वर ठाकुर से लेकर आज तक के सैकड़ो रचनाकारों का नाम गिनाना यहाँ नामुमकिन है, गैरमुनासिब भी। फिर भी विद्यापति के प्रमुख समकालीन अमृतकर, दशावधान, भीषम कवि; उनके प्रमुख परवर्ती कंसनारायण, गोविंददास, महिनाथ ठाकुर, लोचन, हर्षनाथ, जगज्योतिर्मल्ल, जगत्प्रकाश मल्ल, रामदास, उमापति, रमापति, रत्नपाणि; जीवन झा, और आधुनिक काल में मनबोध, चंदा झा, लालदास, जनार्दन झा जनसीदन, भुवनेश्वर सिंह भुवन, सीताराम झा, कुमार गंगानन्द सिंह, महावैयाकरण दीनबन्धु झा, डॉ. सुभद्र झा, नरेन्द्रनाथ दास, क्षेमधारी सिंह, म.म. डॉ. सर गंगानाथ झा, तन्त्रनाथ झा, काशीकान्त मिश्र मधुप,  कांचीनाथ झा किरण, हरिमोहन झा, बैद्यनाथ मिश्र यात्री, आरसी प्रसाद सिंह, सुरेन्द्र झा सुमन, ब्रजकिशोर वर्मा मणिपद्म, राधाकृष्ण बहेड़, रामकृष्ण झा किसुन, चन्द्रनाथ मिश्र अमर, गोविन्द झा, प्रबोध नारायण सिंह, अणिमा सिंह, सुधांशु शेखर चैधरी, ललित, राजकमल चैधरी, मायानन्द मिश्र, फजलुर रहमान हासमी, विलट पासवान विहंगम, गंगेश गुंजन, प्रभास कुमार चैधरी, रामदेव झा, धूमकेतु, जीवकान्त (एक साँस में याद आए कुछेक नाम, जयप्रकाश आन्दोलन के दौर में तैयार पीढ़ी में तो आ भी नहीं सके) के बारे में कितने हिन्दी के अध्येता जानकारी रखते हैं।
असल में इस समय हिन्दी-भक्तों को आत्ममन्थन की बड़ी जरूरत है। हंगामा छोड़कर वस्तुनिष्ठता की ओर बढ़ें, तो हिन्दी के हित में कुछ बात बनेगी। प्रो. अमरनाथ कोशिश करें तो यह जानकारी सहजता से जुटा सकते हैं कि बी.टेक, बी.ई.ए., एम.बी.ए., एम.बी.बी.एस. किए हुए यू.पी.एस.सी. के अभ्यर्थी केवल मैथिली ही नहीं; हिन्दी, इतिहास, एल.एस.डब्ल्यू., पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन, बंगला, मराठी आदि विषय भी लेते हैं। तथ्य है कि स्वर्णपदकप्राप्त भौतिक विज्ञान के स्नातक ने भी इतिहास और हिन्दी विषय लेकर यू.पी.एस.सी. की परीक्षा दी है; और सफल भी हुए हैं। जहाँ तक उत्तर-पुस्तिका-मूल्यांकन की पद्धति का सवाल है, मराठी की उत्तर-पुस्तिका तो मराठी के अध्यापक ही जाँचेंगे! इस मामले में वे यू.पी.एस.सी. के विधान पर आस्था रखें, वह हर विषय पर समान रूप से लागू होता है। विश्वविद्यालयों में हिन्दी की उत्तर-पुस्तिका का मूल्यांकन जैसे होता है, पूरा देश जानता है। फिर सारा गुस्सा मैथिली के लिए ही क्यों?
अब आइए उनके साहित्य अकादेमी पुरस्कार की राशि के क्रोध पर। वे चाहें तो अकादेमी से निवेदन कर अपनी इच्छानुसार कोई संशोधन करवा लें। उन्हें समझ बनानी चाहिए कि कोई रचनाकार लिखता है, इसलिए उसे पुरस्कार मिलता है; उसे पुरस्कार मिलना है, इसलिए नहीं लिखता। वैसे विचारणीय अवश्य है कि सभी भाषाओं के लिए यदि एक-एक पुरस्कार है; तो हिन्दी के लिए प्रति वर्ष दो या तीन पुरस्कार अवश्य हो, क्योंकि पूरे देश के सभी राज्यों में हिन्दी के लेखक बसते हैं, उन्हें एक ही पुरस्कार तक सीमित रखना कदाचित नाइन्ससफी हो। कहीं-कहीं ऐसा प्रस्ताव मैंने रखा भी है। पर मेरी बात कोई क्यों सुने। अमरनाथ जी चाहें तो इस दिशा में पहल कर सकते हैं। उन्हें इस प्रयास में सफलता मिलेगी तो उसे मैं अपनी सफलता भी मानूँगा।
कुल मिलाकर मैथिली-हिन्दी के प्रसंग में भाषा-विभाषा का विवाद निरर्थक है। इसमें बहस का कोई मसला ही नहीं दिखता। क्योंकि दोनो ही भाषाएँ अलग-अलग परिवार की हैं। अमरनाथ की यह धारणा अनुचित है कि मैथिली ने अपना अलग घर बाँट लिया है’; कोई भाषा अपना घर अलग नहीं करती; उसकी प्रकृति और प्रवृत्ति को देखकर अध्येता अपनी सुविधा के लिए भाषाओं का परिवारीकरण करते हैं। मैथिली और हिन्दी का यह परिवारीकरण बीसवीं शताब्दी के प्राथमिक चरण में ही हो गया था। यह कोई आज की घटना नहीं है। जिनके पास नष्ट करने के लिए ऊर्जा और समय है, वे करें, कौन रोकेगा, भारत में तो लोकतन्त्र है ही...। माना कि अमरनाथ जी खुद को बहुत बड़े विद्वान मानते हैं, समझदार और बहुपठित भी। वे कहें तो मैं भी उन्हें विद्वान मान लूँगा, किन्तु भारतीय संविधान में शामिल होने के चैदह वर्षों का वनवास झेलकर वे आज क्यों अयोध्या की गद्दी सँभालने को तत्पर हुए, समझ नहीं आता। मुझे लगता है कि किसी आवेश में वे ऐसा लिख गए। वर्ना कोई पढ़ा-लिखा व्यक्ति ऐसी हास्यास्पद बातें तो नहीं कर सकता। उसमें भी अमरनाथ जी जैसे समझदार लोग तो कदापि नहीं करते।
इस समय हम सभी हिन्दी अनुरागियों को इस छीना-झपटी से अलग आकर यह सोचने की जरूरत है, कि ज्ञान एवं अनुसन्धान की विभिन्न शाखाएँ, व्यापार-पर्यटन-संचार-प्रशासन का पूरा तन्त्र हिन्दी की मुट्ठी से फिसलता जा रहा है। भारत की शासकीय एवं न्यायिक व्यवस्था में जिस हिन्दी को प्रथम भाषा का दर्जा मिलना चाहिए, वहाँ हिन्दी अनुवाद की भाषा है। न आने के बावजूद अधिकारी अंग्रेजी में मसौदा तैयार करते हैं, और राजभाषा-नीति के भय में उस सड़ी हुई अंग्रेजी का हिन्दी अनुवाद होता है। मातृभाषा के नाम पर आन्दोलन करते हुए 21 फरवरी 1952 को शहीद हुए ढाका विश्वविद्यालय के छात्रों एवं अन्य राजनीतिक कार्यकर्ताओं का जज्बा आज कितने हिन्दी अनुरागियों को याद है। इस समय भारतीय भाषाओं के साहित्यानुवाद में लगभग साठ प्रतिशत मामलों में हिन्दी सेतु-भाषा का काम कर रही है; हमें प्रयास करना चाहिए कि यह प्रतिशतता उत्तरोत्तर बढ़े और हिन्दी अन्तर्राष्ट्रीय सम्पर्क की भाषा बने। हिन्दी के कद्रदानों के ऐसे साम्प्रदायिक वक्तव्यों से हिन्दी का बड़ा नुकसान हो रहा है। मुझे नहीं मालूम कि हिन्दी के कितने सिपाही (?) वक्तव्य देने से पहले इन मसलों पर सोचते हैं। नहीं सोचते हैं तो सोचना चाहिए। वैसे उनके नहीं सोचे से भी हिन्दी रहेगी, बाकायदा रहेगी; केवल वे साम्प्रदायिक वक्तव्य न दें तो हिन्दी नुकसान से बच जाएगी।

Friday, May 12, 2017

भाषा के आखेट से मनुष्‍य को गुलाम बनाने की साजि‍श Conspiracy to Make Man Slave Hunting the Language



अनुवाद के माध्‍यम से आज लोग सहजतापूर्वक बहुभाषी साहि‍त्‍य से परि‍चि‍त हो जाते हैं। बहुभाषि‍क ज्ञान के बगैर भी सजग अध्‍यवसायी वि‍भि‍न्‍न भारतीय भाषाओं की गम्‍भीर समझ हासि‍ल कर लेते हैं, और ऐसे पाठक सहर्ष स्‍वीकार करते हैं कि‍ लगभग 1652 बोलि‍यों के सहयोग से संवि‍धान स्‍वीकृत बाइस भाषाओं में लि‍खा गया भारतीय साहि‍त्‍य आज का एक ही बात बोलता है--समाज को मानवीय और मनुष्‍य को सामाजि‍क होना चाहि‍ए। कि‍न्‍तु वि‍डम्‍बना है कि‍ बीते दो-ढाई दशकों में भारत का बहुभाषी समाज अपनी बोलि‍यों की गरि‍मा से बहुत दूर चला गया है। आधुनि‍कता की आँधी ने उन्‍हें जड़ से उखाड़ दि‍या है। उनका उर्ध्‍वमुखी चरि‍त्र भाषि‍क रूप से दुर्बल होता जा रहा है। बोलि‍यों की चमत्‍कारि‍क प्रयुक्‍ति‍यों में संचि‍त जीवनानन्‍द के वास्तवि‍‍क रस से वह वंचि‍त होता जा रहा है। वैश्‍वि‍क बाजार के घातक प्रकोप से बोलि‍यों का महत्त्‍व आहत हो रहा है। नागरि‍क जीवन की कि‍सी भी व्‍यवस्‍था में अब बोलि‍यों के लि‍ए सम्‍मान-भाव शेष नहीं है। बोलि‍यों की प्रयुक्‍ति‍ का रि‍वाज समाप्‍त होता जा रहा है। बोलि‍यों में बति‍यानेवाले बच्‍चों को लोग भदेसी मानने लगे हैं, ऐसे बच्‍चों के अभि‍भावक हीनताबोध से भरने लगे हैं। शहरुओं पर अंग्रेजी का चसक छाया हुआ है तो ग्राम्‍यों पर हि‍न्‍दी का। हि‍न्‍दी के प्रति‍ इस आसक्‍ति‍ का कारण राष्‍ट्र-भाषा के लि‍ए सुचि‍न्‍ति‍त प्रेम नहीं; बोलि‍यों के लि‍ए ति‍रस्‍कार-भाव है। उन्‍हें कोई नहीं समझाता कि‍ बोलि‍यों की समृद्धि‍ के बि‍ना भाषा की समृद्धि‍ असम्‍भव है। सन् 1968 के आसपास घोषि‍त भारतेन्‍दु हरि‍श्‍चन्‍द्र की उक्‍ति‍ 'निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल' में 'नि‍ज भाषा' का अभि‍प्राय पूरे देश की अपनी-अपनी भाषा से ही था।
वि‍दि‍त है कि‍ जनपदीय बोलि‍यों में उपजी कथन-भंगि‍माओं से हर राष्‍ट्र की भाषा चमत्‍कृत होती है और नई-नई शैलि‍यों का आवि‍ष्‍कार करती है। तमाम भाषाओं के मुहावरों एवं लोकोक्‍ति‍यों का उद्भव-स्रोत तथ्‍यत: लोक-जीवन ही है। क्रि‍‍याशील जीवन के प्रसंग-वि‍शेष में अनुभवी लोग एक-से-एक भाषि‍क प्रयोग करते हैं। 'मुफलि‍सी में आटा गीला' जैसा पदबन्‍ध कि‍सी अनुभवी व्‍यक्‍ति‍ ने अभाव की घनघोर पीड़ा में ही कहा होगा। मात्र चार शब्‍दों के इस प्रभावी पदबन्‍ध में अर्थ-ध्‍वनि‍यों की वि‍राट छवि‍याँ दर्ज हो गई हैं। जीवन के हकीकत से उपजे ऐसे उच्‍छ्वास जनसामान्‍य को अनुरक्‍त करते हैं और उन्‍हें अपने अनुभवों का हि‍स्‍सा बनाने के लि‍ए प्रेरि‍त करते हैं। बहुसंख्‍य नागरि‍क द्वारा बार-बार प्रयुक्‍त होकर ऐसे ही पदबन्‍ध बाद में बौद्धि‍क-समाज की स्‍वीकृति‍ पा लेते हैं, फि‍र नागरि‍क जीवन का सहचर हो जाते हैं।
बोलि‍यों में इन प्रयुक्‍ति‍यों की अखण्‍ड शृंखला जारी रहती है। अनुभव के आधार पर सहजता से उत्‍पन्‍न ऐसी प्रयुक्‍ति‍यों का कोई सुवि‍चारि‍त उद्देश्‍य नहीं होता। इनके आवि‍ष्‍कार की कोई तय पद्धति अथवा नि‍र्धारि‍त संख्‍या नहीं होती; इनके आवि‍ष्‍कर्ताओं की योग्यता या पद-प्रति‍ष्‍ठा परि‍भाषि‍त नहीं होती; ऐसा आवि‍ष्‍कार कोई भी व्‍यक्‍ति‍ कर सकता है और उसे नागरि‍क स्‍वीकृति‍ मि‍ल जाती है; प्रयुक्‍ति‍ के बाद इन पर कि‍सी का स्‍वामि‍त्‍व नहीं होता; कि‍न्‍तु जन-जीवन को सावधान और शि‍ष्‍ट करने में ये प्रयुक्‍ति‍याँ लगातार क्रि‍याशील रहती हैं। हर समुदाय की भाषा-संस्‍कृति‍ इन सहज रचनात्‍मकता से सम्‍पुष्‍ट होती रहती है। यही भाषा-संस्कृति मनुष्‍य की राष्ट्रीय पहचान होती है। कि‍न्‍तु भाषा-संस्‍कृति के संवर्द्धन में बोलि‍यों के इस अमूल्‍य योगदान की समझ आज के नागरि‍क परि‍दृश्‍य से गायब है। बोलि‍यों के इस उज्‍ज्‍वल पक्ष की उपेक्षा आज हर समुदाय बेरहमी से कर रहा है। हि‍न्‍दी की स्‍थि‍ति‍ कुछ ज्‍यादा ही दुखद है। सन् 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में हि‍न्‍दी बोलनेवालों की संख्‍या 42.2 करोड़ है। सामान्‍य नागरि‍क की भाषि‍क उदासीनता और जनगणनाकर्मि‍यों के सहज आलस्‍य के आधार पर कुछ अनुमान लगाएँ तो सम्‍भव है कि‍ यह संख्‍या एकाध करोड़ बढ़ भी जाए। पर क्‍या फर्क पड़ता है! वि‍श्‍ववि‍द्यालयों में उच्‍च शि‍क्षार्जन में लगे शि‍क्षार्थि‍यों की अराजक भाषा से सदमा-सा लगता है। आज की युवा पीढ़ी ने हि‍न्‍दी के क्रि‍यापद को अंग्रेजी की तरह समतल कर लि‍या है।  गुरुजनों से भी कहते हैं 'आप जैसा कहोगे', 'आप कब आओगे'। बड़ों के लि‍ए भी 'कहोगे', छोटों के लि‍ए भी 'कहोगे'। नि‍श्‍चय ही उनकी इस अराजक भाषा का कारण भाषि‍क प्रयुक्‍ति‍यों के बोध का अभाव है। बचपन से उन्‍हें बोलि‍यों का महत्त्‍व और प्रयुक्‍ति‍यों का सन्‍दर्भ बताया गया होता, तो स्‍थि‍ति सम्‍भवत: बेहतर होती। इसी बोध के अभाव में वे अनुबन्‍धि‍त पाठ पढ़कर भी उसकी भाषि‍क छटा से तादात्‍म्‍य नहीं बना पाते। वे‍ भाषा का काम सि‍र्फ सम्‍प्रेषण समझते हैं। हि‍न्‍दी भाषा-साहि‍त्‍य के शि‍क्षार्थि‍यों में ऐसी अराजकता तो और भी त्रासद है। खैर...
अनुभव साक्षी है कि‍ परिस्थितियों के अनुसार मनुष्‍य के हृदय में उठे भावों का संचार बोलि‍यों में होता है। वही उद्गार कालक्रम में भाषा और जनजीवन की धरोहर बन जाता है। पर चि‍न्‍तनीय है कि‍ इस धरोहर की समृद्धि‍ स्‍खलि‍त हो रही है। देखते-देखते ग्राम्‍य-कौशल से नि‍र्मि‍त जीवन-यापन की सामग्रीछींका, पगहा, पनही, बि‍यनी, खड़ाऊँ आज लोक-जीवन से गायब हो गया; कोदो, साँवाँ, मड़ुआ, कौनी, माड़ा, कुरथी जैसे अनाज के दाने गायब हो गए; उसी तरह बोलि‍यों में नि‍र्मि‍त होनेवाली कई चि‍न्‍तन-प्रक्रि‍याएँ भी गायब हो गईं। भाषा केवल भावों की अभि‍व्‍यक्‍ति‍ का माध्‍यम नहीं, वह मनुष्‍य के सोच-वि‍चार एवं चि‍न्‍तन-प्रक्रि‍या का आधार भी है। जि‍स प्रकार खुरपी, हल, खड़ाऊँ गढ़ते समय कारीगर मनुष्‍योपयोगी सामान गढ़ने के साथ-साथ अपने रचनाशील मस्‍ति‍ष्‍क को सक्रि‍य बनाए रखते थे और अपनी रचनात्‍मकता में जीवन के लि‍ए नि‍त-नूतन दर्शन ढूँढा करते थे; उसी प्रकार बोलि‍यों की यह रचनात्‍मकता भी जीवन में भव्‍यता भरती थी। 'चलनी दूसे सूप को' या 'चलनी हँसे सूप पर' जैसी उक्‍ति‍ बोलि‍यों में गढ़ी गई; पर यह महज एक उक्‍ति‍ नहीं है; इसमें जीवन के कई आचार-वि‍चार छि‍पे हैं। इसके उच्‍चारण के साथ ही लोग आत्‍मालोचन करने लगते हैं। वे सोचते हैं कि‍ पेन्‍दे में सहस्रो छेदवाली चलनी, सूप के उथले आकार पर उँगली नहीं उठा सकती, उस पर हँस नहीं सकती, फि‍र हम मनुष्‍य का क्‍या कर्तव्‍य बनता है? दूसरों पर उँगली उठाने से पहले जरा अपने आचरण पर तो सोचें!...आज वैश्‍वि‍क बाजार की व्‍यवस्‍था ने समकालीन नागरि‍क-समाज से यह चि‍न्‍ता, आत्‍मालोचन की इस प्रेरणा का अवसर छीन लि‍या है। बोलि‍याँ नष्‍ट हो रही हैं, नई पीढ़ी की जीवन-व्‍यवस्‍था में बोलि‍यों के लि‍ए कोई जगह नहीं रह गई है। बोलि‍यों में उत्‍पन्‍न और समाज में सम्‍पन्‍न हुए ये वक्‍तव्‍य समाज को मानवीय और मनुष्‍य को सामाजि‍क बने रहने की प्रेरणा देते थे। कहना असंगत न होगा कि‍ जब से नागरि‍क परि‍दृश्‍य में बोलि‍यों के प्रति‍ उदासीनता बढ़ी है; जनजीवन में मानवीयता का ह्रास तेजी से हुआ है। प्रयोजनमूलकता से आक्रान्‍त समाज को अब उन भाषि‍क सूक्ष्‍मता की ओर झाँकने की फुरसत नहीं है। प्रयोजन की सि‍द्धि‍ मात्र अब उनकी प्राथमि‍कता हो गई है। ज्ञान-वि‍ज्ञान की सभी शाखाओं में रोमांचक प्रगति‍ अवश्‍य हुई, कि‍न्‍तु नव-चि‍न्‍तन की दि‍शा में नई पीढ़ी को इस तरह अग्रसर कि‍या गया कि‍ वे भाषि‍क राजनीति‍, या कहें कि‍ भाषि‍क आखेट के शि‍कार हो गए। उन्‍नत शि‍क्षा की ओर अग्रसर आज के अधि‍कांश बच्‍चे अब 'आम-रस' के लि‍ए लालायि‍त हैं, कि‍न्‍तु आम की चार प्रजाति‍यों का नाम नहीं जानते; आम ही क्‍यों, मछली, धान, दलहन, पेड़, पौधे, घास, भूसे आदि‍ की प्रजाति‍यों की उन्‍हें पहचान नहीं है। उन्‍हें बताया जाता है, और वे मुतमइन भी हैं कि‍ सचमुच उन्‍हें इनके बारे में जानने की कोई जरूरत नहीं है। जबकि‍ इस रास्‍ते उनकी चि‍न्‍तनशीलता पर काबि‍ज होने का व्‍यूह रचा जा रहा है। भाषा के साथ दुर्व्‍यवहार की इस राजनीति को श्रेष्‍ठ कवि‍ धूमि‍ल ने बहुत पहले पहचान लि‍या था, समकालीन राजीति‍क परि‍दृश्‍य में उन्‍हें भाषा और गूंगेपन में, जंगल और जनतन्‍त्र में, कवि‍ता और कसाई के ठीहे-गराँस के बीच पड़ी बोटी में कोई फर्क नहीं दि‍खा था। धूमि‍ल के समय में कम से कम यह चि‍न्‍ता का भी वि‍षय था, आज वह भी नहीं है। पूरी की पूरी शृंखला इस कड़ाह में सि‍र डालने को बेताब है। शायद प्रारब्‍ध को यही मंजूर है...।
अधि‍कतम धन-उगाही वाली नौकरी पाना आज नई पीढ़ी का चरम जीवन-लक्ष्‍य हो गया है। माँ-पि‍ता भी उनसे यही अपेक्षा करते हैं। समाज में उनका रुतबा भी इसी से बनता है। इस लक्ष्‍य-सन्‍धान में प्रबन्‍धन-वि‍द्या के आखेटक उन्‍हें बताते हैं, और वे सहजता से मान भी लेते हैं कि‍ बोलि‍यों के बारे में चि‍न्‍ति‍त होना उनके लि‍ए सेहतमन्‍द नहीं है। अब उन्‍हें कौन बताए कि मनुष्‍य को भाषावि‍हीन करने की साजि‍श उन्‍हें गुलाम बनाने की साजि‍श है। बोलि‍यों की बदौलत ही भाषा में जनपदीय संस्कृति सुरक्षि‍त होती है, और संस्‍कृति‍ ही मनुष्‍य को राष्ट्रीय पहचान देती है। 'साझे की सूई ठेले से चलती है' या 'जि‍स पाँव तले गरदन दबी हो, उसे सहलाने में ही भलाई है' जैसे जुमले आज की चौपाल में नहीं रचे जा सकते। तीन दशक पहले तक की स्‍थि‍ति‍ को याद करके हर व्‍यक्‍ति‍ स्‍वीकार करेगा कि‍ आकाशवाणी के प्रसारण से लोग अपने उच्‍चारण दुरुस्‍त करते थे, कि‍न्‍तु अब वह भी प्रयोजनमूलकता पर उतरकर सम्‍प्रेषण मात्र अपना उद्देश्‍य समझ बैठी है। प्रयोजनपरकता की ऐसी भूख जब स्‍पष्‍ट नहीं थी, तब के बच्‍चे गुठली से लेकर जामुन तक की यात्रा समझते थे; अब तो जामुन-रस भी जान लें तो काफी है।...

Sunday, February 26, 2017

कभी काले मन की भी बात हो!




कुछ वि‍गत वर्षों से काले धन के वि‍रुद्ध गम्‍भीर बातें की जा रही हैं, काले धन के वि‍रुद्ध नि‍श्‍चय ही गम्‍भीरता से बातें होनी चाहि‍ए। पर, कभी-कभी काले मन की भी बातें होनी चाहि‍ए। काले धन तो गि‍ने-चुने लोगों के पास होते हैं, जबकि‍ काला मन अब साधारण नागरि‍क तक फैल गया है। आजादी से पहले के भारतीय नागरि‍क काले मन से यथासाध्‍य परहेज करते थे। वे धर्मभीरु अवश्‍य होते थे, कि‍न्‍तु उनके मन में धर्म के प्रति‍ आस्‍था होती थी। आस्‍था जैसे शब्‍द यद्यपि‍ कई अत्‍याधुनि‍क चि‍न्‍तकों को परेशान करने लगते हैं, उन्‍हें आनन-फानन इसमें रूढ़ि‍यों का वेबलिंक मि‍ल जाता है, कि‍न्‍तु तथ्‍यत: आस्‍था हर समय पाखण्‍ड की ओर ही नहीं ले जाती। सम्‍बन्‍ध-मूल्‍य, नीति‍-मूल्‍य, समाज-मूल्‍य, राष्‍ट्र-मूल्‍य के प्रति‍ आस्‍था सदैव ही अच्‍छी बात होती है। इन मूल्‍यों में गहरी आस्‍था रखनेवाले नागरि‍कों से ही एक बेहतर राष्‍ट्र की कल्‍पना की जा सकती है। उस दौर के नागरि‍कों को दैवीय वि‍धान के प्रति‍ आस्‍था होती थी और अधर्म से भय होता था। ईश-भय की वह व्‍यवस्‍था और कुछ भले न करे, उन्‍हें नैति‍क और वि‍वेकशील बने रहने की प्रेरणा अवश्‍य देता था। कि‍न्‍तु आज का मनुष्‍य भयमुक्‍त हो गया है, साहसी हो गया है, उन्‍हें कि‍सी मूल्‍य का भय नहीं होता। देव-पि‍तर को दोयम दरजे के सामानों का चढ़ावा चढ़ाते हुए उन्‍हें कोई कचोट नहीं होता। पाप के आतंक और पुण्‍य के सम्‍मोहन से वह मुक्‍त हो चुका है। वैयक्‍ति‍क वि‍लास में वह इस तरह लि‍प्‍त रहता है कि‍ नैति‍कता जैसी बातें उन्‍हें बकवास लगती हैं। उन्‍हें दैवीय प्रकोप से कोई डर नहीं होता, डर होता है शासकीय दण्‍ड से। वे मुतमइन हैं कि‍ वैभव और पराक्रम से शासकीय दण्‍ड-वि‍धान का चरि‍त्र बदला जा सकता है, दण्‍ड को पुरस्‍कार में परि‍णत कि‍या जा सकता है। इसलि‍ए वे वैभवशाली और पराक्रमी होने की जुगत बैठाने में लि‍प्‍त हैं। वे आश्‍वस्‍त हैं कि‍ अनैति‍क हुए बि‍ना शीघ्रता से वैभवशाली और पराक्रमी नहीं हुआ जा सकता। लि‍हाजा वे सब कुछ बेचकर वैभव जुटाने में लि‍प्‍त-तृप्‍त हैं; क्‍योंकि‍ वैभव के बूते सब कुछ हासि‍ल कि‍या सकता है। उन्‍हें यह नहीं दि‍खता कि‍ वैभव जुटाने का यह रास्‍ता पाशवि‍कता की ओर जाता है। अपनी भारतीयता की पहचान के लि‍ए उन्‍हें इस पाशवि‍कता से मुँह मोड़ना होगा। अब इस बात का नि‍र्णय कठि‍न है कि‍ इसकी शुरुआत कौन करेराजनेता? अध्‍यापक? धर्माधि‍कारी? या हरेक नागरि‍क?...
प्रसंग थोड़ा जटि‍ल है। वैश्‍वि‍क प्रति‍स्‍पर्द्धा में दुनि‍या भर के बौद्धि‍क समुदाय लम्‍बे समय से अपने-अपने देश को प्रभुत्‍व-सम्‍पन्‍न करने में जुटे हुए हैं। वि‍गत दो-तीन दशकों में एक से एक सैद्धान्‍ति‍क बातें प्रस्‍तावि‍त हुई हैं। अपने राष्‍ट्र की पारम्‍परि‍क ज्ञान-सम्‍पदा के अनुरक्षण, शोधानुसन्‍धान एवं शैक्षि‍क/प्रौद्योगि‍क उन्‍नयन‍, व्‍यापार एवं वि‍पणन के वि‍कास जैसे राष्‍ट्रोत्‍थान के मसले पर बढ़-चढ़कर बातें होती आ रही हैं। पर हकीकत कुछ और ही है। समीक्षात्‍मक दृष्‍टि‍ डालने पर उक्‍त हर दि‍शा में दि‍खावे की स्‍थि‍ति‍ सामने आती है; बि‍ल्‍कुल हाथी के दाँत, खाने के और, दि‍खाने के और जैसी‍। नागरि‍क परि‍दृश्‍य में इन सबका नि‍हि‍तार्थ व्‍यक्‍ति‍-हि‍त में फलीभूत होने लगा है।
असल में सारे मामलों का जुड़ाव हमारे समय के प्रशि‍क्षण से है। नागरि‍क मनोवृत्ति‍ का गठन रातो-रात तो होता नहीं। देश की शैक्षि‍क-प्रणाली की मूल संरचना से इसका गहरा रि‍श्‍ता होता है। नि‍रन्‍तर उत्‍थान की बात करते हुए भी ‍गत चार दशकों से हमारी शैक्षणि‍क व्‍यवस्‍था उत्‍साहपूर्वक अधोमुखी हुई है। यद्यपि‍ इस गि‍रावट की बुनियाद हमारे पूर्वजों ने बहुत पहले ही रख दी थी। शि‍क्षा-जगत में इन वर्षों में नि‍श्‍चय ही ज्ञान की अनेक नई-नई शाखाएँ वि‍कसि‍त हुईं, वि‍शेषज्ञता आधारि‍त ज्ञान दि‍या जाने लगा, प्रबन्‍धन-कौशल की दीक्षा दी जाने लगी। जीवन-संचालन की हर शाखा में प्रबन्‍धन की डि‍ग्री-डि‍प्‍लोमा मि‍लने लगी। प्रशि‍क्षुओं को अपने ज्ञान, कौशल एवं उत्‍पाद को श्रेष्‍ठतम साबि‍त करने की पद्धति‍ और अधि‍कतम उपार्जन के कौशल की दीक्षा दी जाने लगी। कि‍न्‍तु वि‍शेषज्ञता की ओर केन्‍द्रि‍त होने के इस चक्‍कर में नैति‍क, मानवीय और राष्‍ट्रीय जि‍म्‍मेदारी का पाठ नजरों से ओझल रह गया। प्रशि‍क्षुओं को बताया जाने लगा कि‍ जनता को सम्‍मोहि‍त करो, सम्‍मोहि‍त जनता मन्‍त्रमुग्‍ध होकर तुम्‍हारे पीछे आएगी। सम्‍मोहन की क्षमता तुममें नहीं है, चि‍न्‍ता मत करो; जि‍नमें है, उन्‍हें खरीद लो, उनसे वि‍ज्ञापन कराओ। सम्‍मोहि‍त नागरि‍क सोचता नहीं है, अनुसरण करता है। इस क्रम में उन्‍हें कभी आगाह नहीं कि‍या गया कि‍ अपनी इस उन्‍नति‍-उपलब्‍धि‍ के दौरान उन्‍हें अपनी नैति‍कता, मानवीयता और राष्‍ट्रीयता को कलंकि‍त होने से बचाए रखना है। इन प्रशि‍क्षकों ने सम्‍मोहन को, उपभोक्‍ताओं के चि‍त पर वि‍जय को प्राथमि‍क साबि‍त कर दि‍या। वस्‍तुनि‍ष्‍ठता उनके लि‍ए दोयम दर्जे की हो गई। व्‍यापार, शि‍क्षा, शोध, राजनीति‍, धर्मोपदेश...हर क्षेत्र में इस समय यही सम्‍मोहन जारी है। प्रवंचन, प्रबन्‍धन और वि‍ज्ञापन द्वारा जनता को सम्‍मोहि‍त कि‍या जाता है। कवि‍, लेखक, चि‍न्‍तक, पत्रकार, शि‍क्षक, नेता, अफ्सर, धर्माधि‍कारी...सबके सब उपदेशक हो गए हैं। अपने नि‍र्धारि‍त कर्तव्‍यों से नि‍रन्‍तर वि‍मुख रहने वाले इन उपदेशकों के उपदेशों से उनके आचरण की कोई संगति‍ नहीं बैठती। ये उपदेशक समुदाय भी अपनी तरह के सम्‍मोहन में तल्‍लीन रहते हैं। पाँच-छह दशक पूर्व तक के कि‍शोर-युवा स्‍वाधीनता सेनानि‍यों की कहानि‍यों, शि‍क्षकों-राजनेताओं-समाजसेवकों की जीवनधारा से प्रेरणा लेते थे। वि‍द्यालयों में नैति‍क-शि‍क्षा का पाठ पढ़ाया जाता था। ऋषि‍यों-मुनि‍यों-महात्‍माओं की कहानि‍याँ बताकर बच्‍चों में नैति‍कता एवं वि‍वेकशीलता का बीजारोपण कि‍या जाता था। आज के कि‍शोरों को स्‍वाधीनता-संग्राम की उन कहानि‍यों से कोई अनुराग रह नहीं गया है; शि‍क्षक-नेता-अफ्सर-पुलि‍स-पत्रकार के आचरण उन्‍हें सम्‍मोहि‍त नहीं करते; ले-देकर वे अपने पि‍ता की ओर मुखाति‍ब होते हैं। पि‍ता स्‍वयं कि‍सी अनन्‍त प्‍यास से दग्‍ध हैं। उनकी रुचि‍ अपनी सन्‍तानों को वि‍वेकशील इनसान बनाने के बजाए पैसा पैदा करने वाली मशीन बनाने में अधि‍क रहती है। पाँच दशक पूर्व प्रशि‍क्षण में पाँव रखते ही बच्‍चों को पूछा जाता थाबेटे! पढ़-लि‍ख कर, बड़े होकर आप क्‍या बनेंगे? बच्‍चे कहते थेबड़े होकर हम डॉक्‍टर, इंजि‍नि‍यर, मंत्री, प्रोफेसर, व्‍यापारी बनेंगे; लोगों की खूब सेवा करेंगे। आज के बच्‍चे इस सवाल के जवाब में कहते हैं-- बड़े होकर हम डॉक्‍टर, इंजि‍नि‍यर, मंत्री, प्रोफेसर, व्‍यापारी बनेंगे; और खूब पैसे कमाएँगे। खूब पैसे कमाने की यह भोग-वृत्ति‍ जि‍स पीढ़ी को बचपन से सि‍खाई गई; वह पीढ़ी युवावस्‍था और प्रौढ़ावस्‍था में आकर कर्तव्‍य-नि‍ष्‍ठा की ओर कहाँ से उन्‍मुख होगी?
बेशुमार धन कमाने की लि‍प्‍सा में आज का नागरि‍क जि‍स तरह मोहासक्‍त है, वह भयकारी है। इस लि‍प्‍सा के तमाम प्रयास अमानवीयता और वि‍वेकहीनता से नि‍र्देशि‍त हैं। हजारो वर्षों की वि‍कास-प्रक्रि‍या में जो समाज सभ्‍य, व्‍यवस्‍थि‍त और वि‍वेकशील हुआ है; उसमें नीति‍-मूल्‍य की मानवीय व्‍यवस्‍था गहनता से बसी हुई है। उक्‍त मोहासक्‍ति‍ से उस व्‍यवस्‍था का मूल्‍य नि‍रन्‍तर लांछि‍त होता है। कला, साहि‍त्‍य, सि‍नेमा, शि‍क्षा, व्‍यापार, लोकतन्‍त्री व्‍यवस्‍था, संचार-नीति... हर दि‍शा में मानवीय प्रयासों के वि‍धान बदल गए हैं। हर क्षेत्र के कर्ताओं का उद्देश्‍य नि‍तान्‍त नि‍जी उत्‍थान में लि‍प्‍त हो गया है। समाज-व्‍यवस्‍था, आचार-संहि‍ता, मानवीय सरोकार, नैति‍क मूल्‍य की रक्षा उनके लि‍ए नि‍रर्थक है। तमाम दि‍शाओं में मानवीय मूल्‍य का ऐसा क्षरण नि‍श्‍चय ही राष्‍ट्रघाती, और अन्‍तत: आत्‍मघाती है। बेशुमार धन कमाने की अनन्‍त प्‍यास को तृप्‍त करने में तमाम नैति‍क मूल्यों की उपेक्षा व्‍यक्‍ति‍ की मनुष्‍यता और उसकी राष्‍ट्रीयता पर प्रश्‍नचि‍ह्न लगाती है। काले मन की बात हो, तो सम्‍भवत: आज के नागरि‍कों को अपने मूल्‍यवि‍हीन आचरण पर लगाम लगाने की इच्‍छा हो। मन की कालि‍मा दूर हो जाए, मन कलुषवि‍हीन हो, उदार हो, मानवीय हो, अपने हर उपार्जन की पद्धति‍ में मनुष्‍य देखना शुरू करे कि उनके आचरण से मानव-मूल्‍य या कि‍ राष्‍ट्र-मूल्‍य पर आँच न आए; तो नि‍श्‍चय ही वह बेहतर समाज के हि‍त में होगा; और अन्‍तत: स्‍वयं उस मनुष्‍य के हि‍त में होगा। कलुषवि‍हीन मन का अर्थ है स्‍वस्‍थ मन। स्‍वस्‍थ शरीर में स्‍वस्‍थ मन का वास होता है; स्‍वस्‍थ मन में ही स्‍वस्‍थ वि‍चार आता है; और स्‍वस्‍थ वि‍चार ही राष्‍ट्र को उन्‍नति‍ की ओर ले जाता है। जि‍स देश के नागरि‍कों का शारीरि‍क और मानसि‍क स्‍वास्‍थ्‍य पल-पल वंचना और कलुष का शि‍कार होगा, वहाँ बौद्धि‍क और नैष्‍ठि‍क दायि‍त्‍व की उम्‍मीद नहीं की जा सकती।

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