Monday, April 18, 2016

बुद्ध और चाणक्य की धरती


अब तक कोई लम्बी यात्रा या कहें कि महत्त्वपूर्ण यात्रा गिनती के ही की है। किसी सरकारी संस्था की नजर मुझ पर वैसी मेहरबान नहीं हुई कि वे ऐसा अवसर देती रहे... सामान्यतया यात्रा संस्मरण तो लोग विदेश जाने पर ही लिखते हैं।...बिहार में जन्म हुआ, पला-बढ़ा, शिक्षा-दीक्षा ली। पर बिहार सरकार ने रोजगार नहीं दिया। रोजगार दिल्ली ने दिया। लिहाजा दिल्ली में रहता हूँ। बिहार-यात्रा करता रहा हूँ। नौकरी के कारण भी, साहित्यिक सभाओं-संगोष्ठियों के कारण भी, और गृहराज्य होने के कारण भी।
बिहार-भ्रमण को कोई मनुष्य जीवन की सुखद घटना कहे या त्रासदी--यह तय करना कठिन है। यह ऐसा राज्य है, जहाँ अतिथि-सत्कार में आज भी लोग अपना थाली-लोटा बन्धक रख देते हैं। अगले जून की रोटी की जुगाड़ जिसके घर न हो, वह भी अपने मेहमानों की आवभगत में कोई कसर नहीं रखते, उन्हें अपनी विपन्नता का भान नहीं होने देते, वाकई अतिथि देवो भव' का पालन करते, अनजान मुसाफिर को भी शंका की नजर से नहीं देखते।
सड़क किनारे, पेड़ के नीचे, ईंट पर अपने ग्राहकों को बैठाकर हजामत बनाने वाले नाई भी इस राज्य में दो-एक अखबार खरीदकर पढ़ते और अपने समवर्गीय से देश-दशा पर चर्चा करते रहते हैं। समोसे या मूँगफली खा लेने के बाद यहाँ के लोग उस ठोंगे को करीने से खोलकर उस पर छपे वाक्यों को पढ़ डालते हैं।
सारे प्रकाशक, सम्पादक, लेखक की मान्यता है कि अकेला बिहार इण्डिविजुअल खरीद बन्द कर दे, तो हम बन्दप्राय हो जाएँगे। चाणक्य, बुद्ध और बिस्मिलाह खान की जन्मभूमि बिहार में प्राकृतिक न्याय, शान्तिपूर्ण व्यवस्था, बौद्धिक सम्पन्नता, सुरमय जीवन, मानवीय सौहार्द, साम्प्रदायिक सद्भाव, जातिगत अभेद का असंख्य उदाहरण है। बिहार के सर्वप्रिय पर्व छठ' में डूबते सूर्य को पहला अर्घ दिया जाता है (मुहावरे में भी), और उगते सूर्य को दूसरा। इस पर्व में जाति-बन्धन से निर्लिप्त समाज एक घाट पर पानी में खड़े होकर पारम्परिक रीति से पूजा करते हैं। इस पर्व के आयोजन में जब तक सभी जातियों की भागीदारी नहीं हो जाती, पर्व सम्पन्न नहीं होता--डोम द्वारा तैयार किया गया सूप, कुम्हार का बर्तन, कुर्मी की उपजाई शाक-सब्जी, किसानों के अनाज, चमारों के ढोल-ढाक, नाइन के विधि-व्यवहार...जब तक सबका योगदान न हो जाए, यह महत्त्वपूर्ण पर्व सम्पन्न ही न हो। और तो और, बड़े-बड़े घरानों की स्त्रियाँ और पुरुष छठ-घाट पर भीख माँगते देखे जाते हैं।...इन पारम्परिक लोकाचारों को अन्धविश्वास मानकर चलता कर देना उचित नहीं है। यह पर्व एक पुख्ता सामाजिक व्यवस्था का उदाहरण है। समाज व्यवस्था में सभी जातियों के महत्त्व दिखाने का सबूत है। इस परम्परा का पालन-पोषण-सम्वर्द्धन उचित ही नहीं, जरूरी है।
शादी-विवाह-उपनयन-मुण्डन-श्राद्ध आदि--सभी संस्कारों में जातियों के आपसी सरोकारों को इसी तरह पिरोया गया है। धोबी, हजाम, डोम, चमार, पण्डित, कुम्हार... सभी जातियों की आवश्यकता और भागीदारी इन संस्कारों के अनुष्ठान में होती है। रीति-रिवाजों को इस तरह जातीय और साम्प्रदायिक अन्तःसूत्रों से बाँधे रहने की प्रथा बिहार में आज भी मौजूद है। इसी बिहार में मण्डन मिश्र के गुरुकुल में शिष्योपशिष्य पद्धति से शिक्षादान की परम्परा थी, तक्षशिला और नालंदा की शिक्षा पद्धति थी। अनावृष्टि के समय कृषिकर्म को आहत होते देख आज भी यहाँ की स्त्रियाँ, गहरी और अन्धेरी रात में जट-जटिन जैसी लोकनाटिका खेलती हैं और मेघ को आमन्त्रण देती हैं-- और इसी बिहार में, आज शिक्षा, संस्कार, धर्म और संस्कृति के तस्करों का साम्राज्य फैल रहा है।
दिल्ली से उत्तर-पूर्व की ओर रवाना होने वाली हरेक रेलगाड़ी बिहार होकर जाती है, आँकड़ेबाजी में भी जाएँ तो बिहार की ओर जाने वाली रेलगाड़ियां की संख्या दर्जन से कम न होंगी, फिर भी बिहार-यात्रा के नाम पर रूह सिसक जाती है। औद्योगिक विपन्नता और रोजगार के संसाधनों के घनघोर अभाव के कारण गत शताब्दी के अन्तिम तीन दशकों में बिहार की श्रम-शक्ति और बौद्धिक-शक्ति का पलायन दिल्ली-पंजाब की ओर विपुल मात्रा में हुआ। ये पलायित लोग धनार्जन हेतु परदेश भले आ गए हों, पर इनकी जड़ें वहीं हैं, ये अपनी जमीन से उखड़े नहीं हैं। तीज-त्योहारों और पारिवारिक आयोजनों में निरन्तर गाँव जाते रहते हैं। इस कारण बिहार जाने वाली गाड़ियों में भीड़ होना स्वाभाविक है। मगर बेचारे बिहारी! रेलवे स्टेशन पर, और पूरे रास्ते रेल में, पुलिस वाले बिहार के उन श्रमिकों को जिस तरह भेंड़-बकरे का दर्जा देते हैं, उसे याद करना भी शर्मनाक लगता है! तथ्य है कि पसीना ही जिसकी पूँजी है! उसके पसीने से नफरत करने वाले पूँजीपतियों को उस पर हुए इस अत्याचार की बात समझ में नहीं आएगी। धनहीन, दृष्टिहीन इन अनगढ़ नागरिकों को देखकर, इनके गन्दे कपड़े और आडम्बरविहीन चाल-चलन को देखकर कुछ सफेदपोश लोग इन्हें और इनके साथ पूरे बिहार राज्य को गाली दे लेते हैं।...अपनी जिन्दगी की सारी ऊर्जा जिसने अपने अस्तित्व की रक्षा में लगाई; शरीर, श्रम, स्वेद के अलावा जिनके पास और कोई सम्पत्ति नहीं है- जमाने के पाखण्डियों के साथ समान स्तर पर बात करने की जिनके पास धूर्त्तता और चतुराई नहीं है...उन्हें देखकर लोग चर्चा करते हैं कि ये बिना टिकट यात्रा करनेवाले हैं। और तो और, संचार माध्यम के प्रतिनिधिगण जब बिहार की छवियाँ अपनी कलम से खोलते, या कैमरे में कैद करते, या फिर अपनी वाणी से झाड़ते हैं, तो उन्हें ऐसा प्रतीत होता है कि वे किसी दूसरे ग्रह के किसी तीसरी प्रजाति के जन्तुओं के बारे में बात कर रहे हैं। वे बात करेंगे इनकी भाषा के बारे में--जो लोग उद्योग' को उधोग', ‘स्वीकार' को सविकार', ‘गृह' को ग्रह', ‘चन्द्र' को चन्दर' बोलते हैं, ‘मैंने बात करी है' बोलते हैं -- वे लोग बात करते हैं कि बिहार के लोगों से बात करके मेरी हिन्दी खराब हो जाती है।'...भगवान बचाए इस हिन्दी को...इन्हें इतना ज्ञान तो शायद इस जन्म में नहीं हो पाएगा कि हिन्दी नवजागरण' में सर्वाधिक योगदान बिहार का है। स्वातन्त्रयोत्तर काल के योगदान को भी आँका जाए, तो बिहार आज भी पूरे राष्ट्र के लिए चुनौती बनकर खड़ा है।... वैसे बिहार के इस योगदान को प्रान्तीय स्तर पर आँकने की मंशा मेरी नहीं है, किसी भी बिहारी की नहीं होती, सम्भवतः भाषा के उन पुजारियों की भी न रही होगी। वहाँ के लोग तो राष्ट्रीय अस्मिता और मानव सभ्यता के उत्कर्ष को देखते हैं!
वे लोग बात करते हैं बिहार के नागरिकों के बिना टिकट रेल में सफर करने की। यदि वे रेलवे की आमदनी का आँकड़ा देखें और राज्यवार तुलना करें तो उनका यह भ्रम आसानी से दूर हो जाएगा। आजकल फिल्मों, धारावाहिकों में एक फैशन चला है-- प्रोड्यूसर और पटकथा लेखक किसी तरह एक बिहारवासी नायक/उपनायक की गुंजाइश बैठा लेते हैं, उसे मसखरे की तरह प्रस्तुत करते हैं, उसके मुँह से अशुद्ध हिन्दी बिहार की ध्वनि के साथ कहलवाते हैं। शायद उन्हें यह भान नहीं है कि देश की भावी पीढ़ियों का वे कितना नुकसान करते हैं।
केन्द्रीय सत्ता पर काबिज लोगों ने बिहार में दुराचार की फसल को खाद-पानी दिया है और समाज-व्यवस्था को भ्रष्ट किया है। आज उसी बिहार के अधिकांश बच्चे बिहार से बाहर पढ़ रहे हैं, एक समय जो बिहार शिक्षा का गढ़ हुआ करता था। अपहरण, हत्या राहजनी, निरर्थक बातों के लिए खून-खराबा, बेरोजगारी, बेरोजगारों का राजनीति में आपराधिक उपयोग आदि को जिन लोगों ने बिहार में बढ़ावा दिया--उन्हें भारत के केन्द्रीय पुरुष और केन्द्रीय शक्ति ने गत वर्षों तक खुली छूट दे रखी थी-- निश्चय ही इसका कोई गम्भीर अर्थ रहा होगा। सीमावर्ती क्षेत्रों में अशान्ति फैलाकर, वहाँ के शासकों को तनावग्रस्त रखकर, अपनी गद्दी सलामत रखने और मजबूत करने की नीति तो महाभारत के कृष्ण की भी थी! बहरहाल...
ऐसे राज्य बिहार की यात्रा करने का अवसर मिलता रहा है। इस यात्रा के लिए पहली समस्या आती है रेलवे टिकट की। बगुले की सावधानी, पूर्व प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाँधी जैसी दूरदर्शिता और नौकरी पा लेने की संघर्ष शक्ति के बिना बिहार जाने का टिकट पाना असम्भव है। टिकट पा भी गए और ट्रेन में आ भी गए, तो आप पाएँगे कि आपकी सीट पर बाॅगी की क्षमता से अधिक संख्या में बिहार जाने वाले वे श्रमजीवी बैठे हैं, जो दिल्ली-पंजाब में मेहनत-मजदूरी कर जीवन बिताते हैं, अपने दैनिक खुराक तक से पैसे की बचत करते हैं, और घर वापस होते वक्त बड़े उत्साह से अपने गिने हुए रुपयों को फिर-फिर गिनते हैं। घर-परिवार से मिलने की आतुरता में इतने बेखबर रहते कि उन्हें किसी डाँट-डपट, उपहास-उपेक्षा, गाली-गलौज, सुविधा-असुविधा की परवाह न होती। बेचारे दब्बू लोग! डाँट दीजिए आप, कोई बात नहीं! अपने तेवर और शुभ्र-शाभ्र पोशाक की ठसक से उन्हें डाँटकर सीट से उतार दें, तो वे नीचे बैठे मिलेंगे...। जाएँगे कहाँ... उन्हें तो कुलियों ने, और पुलिस वालों ने पैसे लेकर सामान की तरह जबरन उसमें चढ़ाया है! अब आप उसकी बदहाली पर क्षुब्ध होते रहिए...सम्वेदनशील हैं तो उनके बारे में सोचते हुए, और निर्दय हैं तो उन्हें गाली देते हुए...आपका टाइम-पास हो जाएगा। मूँगफली खरीदने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।
रेलवे पुलिस आकर, उन मजदूरों की हरेक गठरी के लिए नाजायज रुपए लेकर चले जाएँ, तब रेलवे के टी टी आएँगे। उन्हें बॉगी का दर्जा समझाते हुए सैकड़ों रुपए के दण्ड और जेल की धमकी के सहारे रुपए ऐंठेंगे। खून पसीने की कमाई की यह दुर्गति, जो देख पाता है, उसके दुःख का बयान इस शासन व्यवस्था में कोई अतिरंजनावादी कवि भी नहीं कर सकता।...आगे चलिए, दिल्ली से पटना तक की त्रासदी फिर कभी...। इस वक्त सीधे पटना उतरते हैं...!
स्टेशन के सामने खड़े दलाल, इन मजदूरों का झुण्ड देखकर, प्रसन्न हो उठते हैं। दिल्ली-पंजाब में पसीना बहाकर चन्द ठीकरे जुटाते इन गरीबों की तकदीर देखिए! और जगह तो इन्हें मवेशी समझा ही जाता है, अपने राज्य में पहुँचने पर भी इन्हें सम्मान नहीं मिलता! ये दलाल भी इन्हें उल्लू ही समझते हैं। काश! इन दलालों को उन यातनाओं से कभी गुजरना पड़ता। पेट काटकर घर के लिए जुटाए पैसे किस तरह रास्ते में लुटा रहे हैं ये! सिर्फ इसलिए कि ये धूर्त नहीं हैं!...दलाल के मुँह में लोमड़ी की तरह लार भर आती है। वे इन्हें पकड़ते हैं--कहाँ जाना है, दरभंगा? कितने लोग हो, बीस? निकालो सोलह सौ रुपए, टू बाइ टू में बैठाऊँगा, आपस में तुमलोग हिसाब कर लेना... रुपए मिल गए। सामने बस भी आ गई। बस में सबको ठूँस दिया गया। बस पटना शहर से बाहर आई। टिकट वसूली शुरू हुई। कण्डक्टर आया। एक श्रमिक से बोला--किराया दो! --वह बोला--किराया तो हम बीस लोगों का वहीं ले लिया गया है!...किसने लिया किराया, किसने लिया रे, साला झूठ बोलने की जगह नहीं मिली? कहाँ जाना है?...दरभंगा!...उतर साले उजबक! यह बस बेगूसराय जा रही है। जानवर कहीं का!...
धोबी का गधा, न घर का न घाट का, दस गालियाँ बोनस में।...बेचारे श्रमिक नीचे उतरे...फिर क्या हुआ होगा उनका, कौन जाने!...हमारी बस आगे बढ़ती है।...अगली बस्ती से दस युवक सड़क पर बैरियर लगाकर बैठे हैं।...गाँव में दुर्गा पूजा है, चन्दा दो।...कण्डक्टर बोला--चन्दा तो कल दे दिया था!...किसको दिया था! रसीद दिखाओ...वह दूसरी पार्टी थी...हमें पाँच सौ चाहिए।...मालिक पचास से अधिक देने को नहीं कहते...मालिक को बुलाओ...पब्लिक परेशान हो रही है बाबू! सारे पैसेन्जर रात भर के जगे हैं, जाने दीजिए।...जाओ, पांच सौ रुपए दे दो, जाओ, कौन रोकता है?... मैं क्षुब्ध हूँ। जिन मुसाफिरों की वजह से इन बस वालों का कारोबार चलता है, उन पर इनकी अकड़, और इन लफंगों के सामने इनकी हकलाहट देखते बन रही थी।
बिहार की सड़कों पर बसों में यात्रा करते मुसाफिरों की ये परेशानियाँ हरेक रामनवमी, दुर्गा पूजा, दिवाली, सरस्वती पूजा, कृष्णाष्टमी, होली...सब में शाश्वत है।...कहीं चार पुलिस खड़ी रहेगी। ड्राइवर-कण्डक्टर से गाड़ी की परमिट माँगेगी। परमिट होगी नहीं, चलान भी नहीं कटेगी, चलान की धमकी होगी, और हजार रुपए की चलान की धमकी, पाँच सौ की नकदी पर निपट जाएगी।... इन सभी मुसीबतों को झेलते, सड़क की बदहाली में हिचकोले खाते, हाल-हाल तक की दशा तो यह थी कि दो घण्टे की बस-यात्रा छह घण्टे में तय होती थी। भला हो पिछली पंचवर्षीय बिहार सुशासन का कि अब सड़क थोड़ी बेहतर हो गई है। अगले पड़ाव पर बस बदलनी है। मेरे गन्तव्य तक जाने वाली अगली बस चलने वाली है, मगर वह बस, बस नहीं, मनुष्य का ढेर लग रही है, खिड़की, दरवाजे, छत...सब पर लोग लदे हुए हैं। मक्खी बैठने तक की जगह नहीं। फिर भी कण्डक्टर आवाज लगाए जा रहा है--आइए, आइए...मानसी, खगरिया, महेशखुट।...मैं क्षुब्ध होता हूँ, कैसे चढूँ इसमें, साहस जवाब दे गया। दूसरी बस में पैसेंजर तब तक नहीं चढ़ सकता, जब तक लदी हुई बस स्टैण्ड न छोड़ दे।...खैर, बस चली गई, अगली बस पर जाकर बैठा, पता किया--यह बस किस समय चलेगी? जवाब मिला, खाली बस ले जाऊँगा क्या? पैसेंजर भरेगा तब जाएगी।...अब पैसेंजर के आने की प्रतीक्षा उस ड्राइवर-कण्डक्टर की तुलना में मैं, बेसब्री से करने लगा। पैसेन्जर आए, बस भर गई, मगर बस को मनुष्य का ढेर बनने में अभी देर थी...
ऐसा बिहार मेरा जन्म स्थान है, जाना पड़ता है, मगर जाने के नाम पर, यात्रा की यातना को याद कर प्राण रो उठते हैं। दो महीने पूर्व की बात है, दरभंगा स्टेशन पहुँचा था। बरौनी जाने वाली गाड़ी चलने को तैयार खड़ी थी। टिकट काउण्टर पर गया। दस कम्प्यूटरीकृत काउण्टर खुला था, नौ की कुर्सियाँ खाली। एक पर एक बाबू बैठे थे। सामने दो सौ मुसाफिरों की कतार खड़ी थी। कम्प्यूटर खराब। टिकट कहाँ लूँ, कैसे लूँ। स्टेशन मास्टर का चैम्बर ढूँढकर पहुँचा। एस.एम. नदारद...जाना जरूरी है, कैसे जाऊँ।...बिना टिकट लिए टेªन के पास पहुँचा। गाड़ी चलने वाली थी। गार्ड के समक्ष जाकर अपना दुःख रोया। भले मानस ने सहयोग दिया, कहा--अगला स्टेशन है लहेरियासराय, वहाँ तक मैं आपको ले जाने की जिम्मेदारी ले सकता हूँ। वहाँ चलकर टिकट ले लीजिए...ऐसा ही हुआ...
ऐसे बिहार को गत पाँच वर्षों से नया बिहार बनाने में मुख्यमन्त्री जुटे हुए हैं, उधर पुराने मुख्यमन्त्री को भी पुराने बिहार की बड़ी चिन्ता है। काश! अत्यधिक पुराने बिहार की चिन्ता सभी बिहारवासियों को हो पाती। असल बात यह है कि बिहार की चिन्ता का नाटक करने वाले और घड़ियाली आँसू बहाने वाले इन रहनुमाओं में से हर किसी को सिर्फ अपनी चिन्ता है। अपनी कुर्सी सलामत रखने और निरन्तर उसे ऊँची रखने की होड़ में ये बिहार की जिन्दगी तबाह करने में लगे हैं। इनकी अपनी समझ यह बन रही है कि तबाह जिन्दगी के जाल में फँसा मनुष्य हमेशा अपने अस्तित्व की ही रक्षा में लगा रहेगा। मेरे सामने हाथ फैलाकर अपनी जिन्दगी की भीख माँगेगा। साँस भर जिन्दगी पा लेने के लालच में अपना सब कुछ मुझे अर्पित कर देगा।...मगर ये भूल रहे हैं कि भारत का नागरिक सैकड़ों वर्षों की तबाही झेलकर भी, विदेशी आक्रमणकारियों और जबरन सिर पर आ बैठे फिरंगियों के समक्ष, अपनी सभ्यता और संस्कृति से विलग नहीं हुए। हार जाने के बावजूद 1857 का गदर और प्राप्त स्वाधीनता का संग्राम--इसका उदाहरण है। यह सच है कि भारत का नागरिक सहनशील होता है। मगर इतिहास गवाह है कि अकेला बिहार कितने सांस्कृतिक आन्दोलनों का जन्म-स्थल रहा है। सन् 1757 से 1857 तक और फिर आगे सन् 1947 तक के एक सौ नब्बे वर्षों में भारतीय स्वाधीनता हेतु लड़ी गई लड़ाइयों में ज्ञान, तपस्या, साधना, मानवता के केन्द्र बिहार की जो भूमिका रही है, वह इतिहास के पन्नों में दर्ज है। अतीत की गरिमा, पारम्परिक संस्कृति और मानवीय सभ्यता को उत्कर्ष देने वाले आचार पर जिस दिन मनुष्य खतरा महसूस करने लगता है, उसका धैर्य जवाब दे देता है। इस तरह धैर्य का टूट जाना, सभ्यता की दृष्टि से सकारात्मक कदम है।...अपने क्रान्तिमय विरासत की याद दिलाकर बिहारवासियों को ललकारने का समय अभी है। यह ललकार बिहार की नई शासन व्यवस्था को भी सहयोग दे सकेगी। बिना इस सहयोग के वहाँ किसी भी बेहतरी की सम्भावना नहीं है।
इतिहासकारों ने जब प्राचीन यज्ञ में गाय की बलि की बात की थी, तो पुस्तक प्रतिबन्धित हो गई। कोई पाँच बरस पहले तक बिहार के राजनेता अघोषित राजसूय यज्ञ में नरबलि दे रहे थे, और उस खून से अपनी पार्टी का झण्डा रंग रहे थे, प्रशासन में सन्नाटा छाया रहता था, कहीं कोई हलचल नहीं होती थी, ले-देकर संचार माध्यमों में चार दिन चूँ-चाँ होकर रह जाती है। चार बजे सुबह पटना जंकशन पर रिक्शेवाले कहते थे कि जब तक दिन न निकल आए, मैं कहीं न निकलूँगा! यह दीगर बात थी कि उन दिनों बिहार में मनुष्य की जिन्दगी और आबरू का मोल किसी बकरे से अधिक उजाले में भी न था। बहरहाल... स्थिति बदल रही है, कुछ और बदलने की प्रतीक्षा है। हमें उस दिन की प्रतीक्षा है, जब बिहार के बच्चे बिहार में ही बेहतर शिक्षा पाने लगेंगे। बिहार के लोग बिहार में ही बेहतर रोजगार पाकर अपने प्रान्त की सेवा करने में लग जाएँगे। रेल, बस, अस्पताल, विद्यालय, थाना, कोर्ट, नगरपालिका, मन्दिर...में सभ्यता और शिष्टाचार का निर्वाह होने लगेगा। शिक्षक, नेता, पुलिस, पत्रकार, मन्दिरों के पुजारी, वकील को लोग इज्जत देने लेगेंगे। अर्थात्, लोगों को बेहतर नीन्द आने लगेगी--हमें उस दिन की प्रतीक्षा है।



Thursday, April 14, 2016

शुक्राचार्यों से सावधान




साहित्य के उद्देश्य पर पुराने आचार्यों ने बहुत कुछ लिखा। पर साहित्य का कालजयी उद्देश्य है कि वह समकालीन समाज की चितवृत्ति का वाहक होता है। लि‍हाजा वह एक कि‍स्‍म का इति‍हास होता है। कई बार तो समकालीन साहित्य, इतिहास लेखन का साधन भी बनता है। हर समय के साहित्य के लिए यही सच है। गोस्वामी तुलसीदास की हम चाकर रघुवीर को पट्टो लिखो लिलार, तुलसी अब का होइहौं नर के मनसबदारजैसी पंक्ति से हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचने में कोई हिचक नहीं होती कि अकबर, तुलसीदास को अपने दरबार का मनसबदार बनाना चाहते थे, जिसे तुलसीदास ने स्वीकार नहीं किया। अर्थात उस जमाने के सात्यिकारों में इतना आत्मबल था कि वे शहंशाह का प्रस्ताव बड़े आराम से ठुकरा सकते थे।
साहित्य को पवित्र कर्म माननेवाले लोग आज भी सृजन के जरि‍ए समाज और सामाजिक जीवन-यापन को परिष्कृत करने में तत्पर हैं। पर सचाई है कि‍ इस वृत्ति को आत्म-प्रचार और आत्म-स्थापन का औजार बनानेवाले घुसपैठि‍यों की आज भरमार है। लेखन का धन्धा करनेवाले ऐसे लोगों का प्रवेश गत शताब्दी के छठे दशक से शुरू हो गया था, जो खुद को समय का देवता साबित करने हेतु लेखन कर्म के नुस्खे गढ़ने लगे थे। पर साहि‍त्‍य धन्‍धा नहीं है। सच्चे साहित्य का ध्‍येय सदा से समाज को मानवीय और मानव को सामाजिक बनाना रहा है। कलम उठाने से पूर्व हर रचनाकार को अपनी नैति‍क जिम्मेदारी और सामाजि‍क सरोकार का बोध होना चाहि‍ए। साहित्य और समाज का समुचि‍त बोध और दायि‍त्‍व नि‍र्वहन की नि‍ष्‍ठा जि‍न्‍हें न हो, उन्‍हें अपने ही वि‍वेक से इसे वर्जि‍त क्षेत्र मान लेना चाहि‍ए, यहाँ आकर इस क्षेत्र को दूषि‍त करने का दुष्‍कर्म नहीं करना चाहि‍ए । क्‍योंकि‍ आम पाठक मुद्रित पाठ के जरि‍ए बेशक किसी लेखक को जानना शुरू करे, अन्‍तत: वह लेखक के वैयक्‍ति‍क जीवन तक अवश्‍य पहुँच जाता है। कहना आसान है कि लेखक के लेखन और जीवन-प्रक्रिया को अलग-अलग देखा जाना चाहिए। पर, आम पाठक आमही होता है, महात्मा नहीं होता। वह कानून के दलालों से न्यायि‍क उपदेश, और कच्ची लकड़ी के तस्करों से पर्यावरण सुरक्षा का गीत नहीं सुन सकता। आम नागरिक अपने उपदेशक के केवल वक्तव्य में ही नहीं, उनके चरित्र में भी प्रेरणा और आदर्श का तत्त्व ढूँढता है। आज हमारे यहाँ जीवनियाँ पढ़ी जाती हैं, लोग विद्यापति, सूर, कबीर, तुलसी, मीरा की जीवनी पढ़ते हैं। आज जो लोग लेखन का धन्धा कर रहे हैं, सौ-पचास वर्ष बाद, या आज ही, उनकी जीवनियाँ लिखी जाएँ, तो वे अगली पीढ़ी को चरित्र और जीवन-यापन की कैसी प्रेरणा दे पाएँगी?
आदिकाल से लेकर स्वाधीनता प्राप्ति के समय तक हमारे जो भी आचार्य, लेखक, चिन्तक हुए हैं; वे आज के रचनाकारों के नायक हुए हैं। मगर आज के आत्मसुखलीन और शासन व्यवस्था में अपने लिए ऐशो-आराम की गुंजाइश ढूँढनेवाले रचनाकारों की सन्तति भविष्य में इनके किन सद्गुणों और सद्विचारों के लिए इन्हें याद करेंगे?
भाषा से तो मनुष्य के सोच का सम्बन्ध है, जब तक मनुष्य सोचता रहेगा, किसी न किसी रूप में भाषा रहेगी। सोचनेवाले की मानसिक बनावट या उसकी शब्द-क्षमता के आधार पर भाषा का संकोच और विस्तार होता रहेगा। मगर साहि‍त्य का विकास और विस्तार लेखन-प्रकाशन, पाठ और प्रचार से होता है; मूल्यांकन से होता है। अब तो लोकसाहित्य भी लोगों को लिखित मिलने लगा; पुस्तकों और संग्रहालयों में कैद होने लगा, फेलोशिप और संस्कृति रक्षा(?) के दौर में बचे-खुचे भी कैद हो जाएँगे। लोककला मन्त्रालयों के फेलोशिप की अर्हता हो गई। दादी-नानी के मुँह से अब किस्से नहीं होते, लोरियाँ नहीं गाईं जातीं, बधावा नहीं गाया जाता--सबके सब हैरी पॉटर, और सी.डी, कैसेट जैसे उपादानों में कैद हैं।
बड़ी मुश्किल है भाई, आधुनिकता ने हमें कितना कुछ दिया! भादो महीने के शुक्ल पक्ष के चौथे दिन, हाथ में फल लेकर चन्द्रमा को प्रणाम करनेवालों की सन्ततियाँ चन्द्रमा पर से सैर कर आईं। किताबों की पूजा करनेवाले लोगों के पाँव धोखा से किताबों में लग जाने पर उसे सिर चढ़ाने वाले लोगों की सन्ततियाँ किताब छापने लगे, बेचने लगे, बाल-बच्चों का पैखाना किताबें फाड़कर पोछने लगे। गरज कि लोग आधुनिक और अत्याधुनिक हो गए। पहले के विचारकों, चिन्तकों को आम नागरिक तक अपनी बात पहुँचाने की सुविधा आज की तरह नहीं थी, फिर भी वे जन-जन के प्यारे थे। आज सारी सुविधाएँ हैं, फिर भी वे पाठकों के प्यारे नहीं हो पा रहे हैं।
असल बात है कि आज के लेखक अपने निजत्व, अपनी लिप्सा, अपनी आकांक्षा, अपनी वासना से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं। और, यही कारण है कि जनता उन्हें जनसरोकार के करीब नहीं देख रही है। मान्यता, पुरस्कार और आत्मसुख के अन्य उपादानों को लूट लेने में लिप्त रचनाकार कभी कालजयी रचना रच पाएँगे--इसमें किसी की सहमति नहीं हो सकती।
आज हमारी भाषाओं में पत्रिकाओं और प्रकाशन संस्थानों की इतनी सुविधा है, किसी को अभिव्यक्ति का कोई संकट नहीं है--फिर भी आज के रचनाकार आज की जनता से दूर हैं। भारतीय नागरिक का जीवन-संघर्ष और अस्तित्व का संकट आज के लेखकों को उतना ही दिख रहा है, जितना स्कैन करने के बाद वे अपने लिए हितकर समझते हैं। कुछ तो नॉस्टेल्जिया के आधार पर ही जीवन खेप लेते हैं। कुछ लेखक दूसरों से सुनकर जनजीवन का अनुभव अरजते हैं। किसी जनपद के एक व्यक्ति से कहीं भेंट मुलाकात हो जाए--उनसे चार बातें हो जाए--तो वे खुद को उस जनपद का विशेषज्ञ मान बैठते हैं। किसी स्त्री अथवा दलित अथवा भोक्ता की वास्तविक स्थिति आज की वणिक्-बुद्धि तक आकर कितनी तीक्ष्ण और त्रासद हो जाती है--इसका उदाहरण एक खोजें, हजार मिलेंगें।
वस्तुतः आज हम एक बाजार में जी रहे हैं। यहाँ वस्तु-स्थिति को खबर और खबर को बिकाऊ बनाया जाता है। साहित्य और खबर को बिकाऊ बनाने के लिए, उनसे ऊँची कीमत दूहने के लिए किए जाने वाले उपक्रमों में लीन व्यापारियों को कभी यह चिन्ता नहीं होती कि इस लाभ की कीमत पर हम जनता के बीच अपनी विश्वसनीयता खो रहे हैं। सौंवीं, सवा सौंवीं जयन्ती, पुण्यतिथि मनाने का ढोंग भी वाणिज्य का हिस्सा है, टेबुल ठोक-ठोक कर चीखेंगें। हमारी पीढियों ने अपने रचनाकारों का मूल्यांकन नहीं किया, उन्हीं में से कोई अपना महत्त्व बढ़ाने हेतु कोई विवादास्पद पंक्ति घोषित कर खुद को चर्चित करने की गुंजाइश ढूँढ लेंगे--गजब है यारो! मसखरों की इस दुनिया में हँसी भी अपने से मुकर जाती है।
आखिर क्या कारण है कि आज भी हमें तुलसी, सूर, कबीर प्रासंगिक दिखते हैं और आज के कई रचनाकार...राजनीतिज्ञ दिखने लगे हैं? असल बात है कि आज के ऐसे रचनाकारों का मूल सरोकार साहित्य अथवा समाज से नहीं है। वे पुरस्कार की राजनीति से, विदेश यात्रा से, विदेशी भाषाओं में अपनी रचनाओं के अनुवाद से, राज्य सभा के सदस्य की कुर्सी पाने के करिश्मे से, संस्थाओं के अध्यक्ष, सचिव, सलाहकार, न्यासी बनने से ज्यादा ताल्लुक रख रहे हैं। वे लेखन, को जितना जरूरी समझते हैं, उसके प्रकाशन, अनुवाद, समीक्षा, चर्चा को और उससे अधिकतम उगाही को, उससे अधि‍क जरूरी समझते हैं। उत्पादन, प्रचार और व्यापार--सभी की जिम्मेदारी उन्होंने स्वयं ले रखी हैं।...लिखी हुई रचना को अधिक से अधिक पढ़ा जाए--यह आज के लेखन/प्रकाशन का प्राथमिक उद्देश्य नहीं है। प्राथमिक उद्देश्य है कि उसकी बिक्री, अनुवाद, प्रचार, चर्चा। फिर अनुवाद और चर्चा की चर्चा... इस तिकड़म में लगे लोग एक से एक तरीका निकालते जा रहे हैं। मन्त्री के हाथों लोकार्पण, पत्रकारों/समीक्षकों के साथ सुरापानोन्मुखी पुस्तक-चर्चा उनका उद्देश्‍य हो गया है। पुस्तकालयों की आलमारी में जाकर कैद होना पुस्तकों की नियति हो गई है। देशी-विदेशी संस्थाओं से मान्यता और पुरस्कार प्राप्त करनेवाले लेखकों, या लेखन को बड़े करीने से साइड बिजनेस माननेवाले रचनाकर्मियों, भाषाजीवियों के लिए समाज की समझ और संवेदना से कोई सरोकार नहीं है। सच्‍चे साहित्यसेवि‍यों की मान-मर्यादा को रौंदकर अपना वर्चस्व कायम कर लि‍ए लोग अब पथ-प्रदर्शक हो गए, शुक्राचार्य हो गए, शुक्राचार्य जैसे विद्वान भी, एकाक्ष भी, और स्वार्थी भी...। बीते छह दशकों में इन्‍होंने अपने चारित्रिक वैशिष्ट्य का काफी विस्तार किया है। मगर अब ऐसा भी नहीं है कि साहित्य की गरिमा समझने वाले लोगों की संख्या और क्षमता कम है। सचाई और सच्चरित्रता की ताकत संख्या में नहीं गिनी जाती। उन्हें इन शुक्राचार्य और उनके शिष्यों से सावधान रहना होगा।

दूरदर्शन में विज्ञापन



शब्द के अन्त में नाहो, और उससे किसी क्रि‍या-व्यापार का होना जाना जाए, तो उसे क्रिया कहते हैं। अर्थात् प्रेम करनासे लेकर सोना, खाना, पढ़ना, चलनासब व्यापार है। सच पूछें तो जीवन-यापन का पूरा ढाँचा ही एक व्यापार पर हैछोटों को प्रेम बेचकर बड़े आदर खरीदते हैं; बड़ों को आदर बेचकर छोटे प्रेम खरीदते हैं। वि‍क्रेता सामान बेचकर रुपया; ग्राहक, रुपया बेचकर सामान खरीदता है। सभ्यता के आदि‍काल से सामाजि‍क व्‍यवहार का ढांचा इसी विज्ञापनवि‍हीन व्‍यापार पर आधरि‍त रहा है। वि‍ख्‍यात अभि‍नेत्री रेखा एवं अभि‍नेता ओमपुरी अभि‍नीत फि‍ल्‍म 'आस्‍था' में इस फि‍लॉस्‍फी को बेहतरीन ढंग से समझाया गया है।
पर आज का 'व्यापार' बगैर 'विज्ञापन' के असम्‍भव हो गया है। विज्ञापनशब्द का रूढ़ उपयोग स्वातन्त्र्योत्तर काल के वैज्ञानि‍क उपलब्धियों में पनपी उपभोक्ता संस्कृति की देन है। सूचनाऔर जानकारीजैसे शब्द विज्ञापनके पूर्वकालिक शब्द हैं। थोड़ा और पीछे जाने पर इसके स्वरूप गुरुओं, साधु-सन्तों, विद्वानों के उपदेशों और राजाओं, सामन्तों के फरमानों में निहित प्रतीत होते हैं। जानकारी से विज्ञापन तक की इस यात्रा की व्‍याख्‍या तो सभ्यता का विकास-क्रम करेगा; पर तथ्‍य है कि‍ विज्ञापन, उपभोक्ता को उत्पाद की सूचना देता है, उपदेश देता है, सलाह देता है, फरमान जारी करता है--और ये सारे काम वे ही कर सकते हैं, जिनके पास विशेषज्ञता अथवा क्षमता हो। इन दि‍नों क्षमता का अर्थ है संसाधन। जिसके पास धन है, वह ज्ञानी भी है, अधिकारी भी और विशेषज्ञ भी। वह खुद विशेषज्ञ नहीं है, तो विशेषज्ञता खरीद लेगा। समय के देवताओं, अर्थात् कि‍सी हीरो को खरीदेगा; उसके मुँह में अपनी बात डालकर उपभोक्ता के कानों में उड़ेलेगा, और विशेषज्ञ घोषि‍त हो जाएगा।
प्राचीन समय में ज्ञान के तीन स्रोत होते थे--गुरुकुल, ऋषि-आश्रम और राजदरबार के पण्डित। स्थितियाँ बदलीं, तो ये अड्डे--स्कूलों, मन्दिरों-मठों और सामन्तों-जमीन्दारों-प्रशासकों के दरबार में बदल गए। फिर छापाखना के आ जाने से पुस्तकों का प्रादुर्भाव हुआ, अखबार और रेडियो आया। दूरदर्शन आया। इण्टरनेट जैसे सर्वाधि‍क लोकप्रि‍य सूचना-तकनीक को पीछे छोड़कर जनमानस के मन-मि‍जाज पर कब्‍जा दूरदर्शन ने ही कि‍या। वि‍ज्ञापन जैसे सन्‍दर्भों में यह साफ-साफ दि‍खता है। प्रतीत होता है जैसे दूरदर्शन का मूल लक्ष्य विज्ञापन ही हो।
इक्कीसवीं सदी के नए पड़ाव पर आकर हमारा देश बहुत तरक्की कर गया है। भोग-वि‍लास के साधनों की भरमार हो गई है। विलासिता से मितव्ययिता तक, चोरी-बटमारी से पूजा-पाठ-तपस्या तक, रसोईघर से फैक्ट्री की कार्यशाला तक, बिछावन से कार्यालय की कुर्सी तक, तन और प्रतिष्ठा ढक पाने लायक वस्त्र से अधिकतम अंगप्रदर्शन करने लायक फैशन तक, दवा से दारू तक, ज्ञान से अज्ञान तक की तमाम सुविधा और व्यवस्था जुटाने के अवसर हमारे यहाँ या दुनिया के अन्य देशों में उपलब्ध है और सुविधा हासिल करने की आर्थिक स्थिति में भिन्न-भिन्न तरीके से भिन्न-भिन्न आय वित्त के लोग हैं। फिर तो यह बहुत जरूरी है कि उन सारे उपादानों की सूचना लोगों को रहे।
आज के उपभोक्ताओं को नए उत्पादों की जानकारी चाहिए। पहले ये जानकारियाँ विशेषज्ञ देते थे, अर्थात् शिक्षक, वैद्य, पण्डे-पुजारी, राज-पाट के मुनीम और अधि‍कारी देते थे, परन्तु आज हर कुछ की जानकारी दूरदर्शन देता है। अर्थात् दूरदर्शन के माध्यम से देश के उद्योगपति और पूँजीपति देते हैं, लि‍हाजा दूरदर्शन ने उद्योगपतियों को हर बात का विशेषज्ञ बना दिया है। इस समय आम जनता तक सूचना सम्प्रेषित करने का सबसे जनवादी साधन रेडियो और दूरदर्शन ही है। दूरदर्शन के माध्यम से निरक्षरों तक भी सन्देश पहुँचाया जा सकता है। सम्‍भवत: इसी कारण दुनिया के सारे उद्योगपतियों ने दूरदर्शन को ही विज्ञापन का अड्डा बनाया है।
स्वातन्त्रयोत्तर काल के उपभोक्तावाद और भौतिकतावाद की चकाचौंध से सम्‍मोहि‍त स्वदेशी प्रतिभा और स्वदेशी-विदेशी पूँजी की जुगलबन्‍दी से भोग-वि‍लास के साधन तैयार हुए। अर्थोपार्जन की नैतिकता बदली। गुणवत्ता उपेक्षि‍त हुई। घटिया को बढ़िया साबित करने के नारे बदले। सत्ता-पक्ष, प्रतिभा-मण्डल, खरीदार, जमाखोर--सबके सब अंकुशविहीन होकर मानवेतर हरकतों पर उतर आए। पूँजीपतियों के उत्पाद को गुणवत्ता का प्रमाण-पत्र देने वाली संस्थाएँ और जनसमूह का विश्वास जीत लेने वाले नायक समुदाय, पूँजीपतियों और जमाखोरों के हाथ बिक गए। जनता ने समझा कि जि‍न चीजों की तारीफ इतने बड़े-बड़े नायक कर रहे हैं, वे नि‍श्‍चय ही उम्‍दा होंगे। जनता को आँकड़ों का यह जाल कहाँ से समझ में आएगा कि अपने उत्पाद की तारीफ के लिए कम्पनी के मालिक जितने धन इन नायकों पर लुटा रहे हैं, उसका मुआबजा भी उन्‍हीं से वसूला जा रहा है! सुना है कि एक समय के हीरो सुनील गावस्कर ने प्रण किया था कि किसी विदेशी कम्पनी के उत्पादों का मॉडल नहीं बनूँगा। नेत्रदान और पोलि‍यो ड्रॉप जैसे मानवीय आचरण का विज्ञापन करने वाले नायक को तेल-साबुन का प्रचार करते हुए अपने सस्‍तेपन का बोध कैसे नहीं होता है, यह अचरज की बात है। जिन कम्पनियों के पास सुवि‍ख्यात हीरो खरीद पाने की क्षमता नहीं है, वे छोटे-छोटे भाँड-मिरासी खरीदते हैं। आखिरकार भौतिकतावाद और उपभोक्तावाद को साथ-साथ ले चलना है न!
दूरदर्शन पर कीटनाशक, चूहानाशक, भोजन-वस्त्र-आवास के घटक, प्रसाधन सामग्री, स्वाथ्यवर्द्धक, आदि-आदि चीजों से लेकर निरोध, गर्भनिरोधक, उत्तेजनावर्द्धक रसायन तक के विज्ञापन आखिरकार जनता को क्या देते हैं? परिवार नियोजन, साक्षरता अभियान, आयकर, गर्भपात, घूस, अनाचार, यातायात नियम, पर्यावरण सुरक्षा, नेत्रदान आदि की उपयोगी सूचनाएँ विज्ञापन के माध्यम से दी जाती हैं, जनता क्रमश: इन सबसे सुशि‍क्षि‍त हो रही है। पर, जब से प्रायोजित कार्यक्रमों का सिलसिला चला है, विज्ञापनों के कारण जनता आजिज हो गई है। यौन प्रसंगों को लेकर तो कई बार ऐसी स्थिति आ जाती है कि परिवार के साथ बैठे हों तो उठकर भागना पड़ जाता है। यह शुचि‍तावादी धारणा नहीं है, भारतीय जीवन-पद्धति‍ का सांस्‍कृति‍क अंग है। निरोध, गर्भनिरोधक गोलियाँ, सैनीटरी पैड, ब्रा, पैण्टी आदि के प्रचार आते ही शर्म से सिर झुक जाता है। दाद-खाज-खुजली की दवा से लेकर अश्वगन्धारिष्ट तक का विज्ञापन देकर दूरदर्शन, लोगों को इतना बेखबर या बाखबर कर देना चाहता है कि गाँव में आग भी लग जाए तो अश्वगन्धारिष्टकी टिकिया खाया व्यक्ति कहता है नो टेन्शन। प्रेक्षकों के लिए ये वि‍ज्ञापन बड़े ही त्रासद हो गए हैं।  
तकनीकी और व्यावहारिक दृष्टियों से विज्ञापन आज के समय में उपयोगी तो है, पर हर वि‍ज्ञापन में स्‍त्री-अंगों के उभार का क्‍या प्रयोजन है? फेस क्रीम, ब्रा-बनियान, किचन मसाला, साबुन-शैम्पू, मोटर साइकिल, रेजर, कण्‍डोम...हर पदार्थ के विज्ञापन में एक स्त्री का, शरीर प्रदर्शन में अग्रगण्य किसी उदार स्त्री का, उत्तेजना पैदा करती भंगि‍मा और नग्नता का प्रदर्शन क्‍यों जरूरी है? इन वि‍ज्ञापनों द्वारा हमारे देश के उपभोक्‍ताओं की कि‍स मानसि‍कता का दोहन हो रहा है, या उनके कि‍स जीवन-स्‍तर को प्रचारि‍त कि‍या जा रहा है? अन्‍तरानुशासनि‍क शोध ने अब शोधार्थी को इस दि‍शा में भी अग्रसर कि‍या है कि‍ वह खास कालखण्‍ड में राष्‍ट्र वि‍शेष में लोकप्रि‍य हुए वि‍ज्ञापनों के सर्वेक्षण से उपभोक्‍ता और व्‍यवसायी के मनोवि‍श्‍लेषण का सहारा ले और उस देश का सांस्‍कृति‍क मूल्‍यांकन करे। ऐसा होने लगे तो ये वि‍ज्ञापन भारत की कैसी तस्‍वीर पेश करेगा?   
धनलाभ के लालच में जब कोई सुन्‍दर अभि‍नेत्री साबुन, क्रीम लगाकर कि‍सी युवती को सुन्दर होने, और अच्‍छी नौकरी पा लेने का नुसखा देती हैं; या तेल लगाकर कोई अभि‍नेता तनाव दूर करने, और घुटने का दर्द मि‍टाने की सलाह देते हैं, तो उन्‍हें अनुमान नहीं होता कि‍ वे कि‍तना बड़ा अपराध कर लेते हैं? जि‍न भोली जनता ने उन्‍हें प्रति‍ष्‍ठा दी, उनकी संवेदना का दुरुपयोग कर वे कि‍सी पूँजीपति‍ का खजाना भरने लगते हैं, और जनता का शोषण करते हैं, सही मायने में यह जनद्रोह है।
विज्ञापन के कारोबारि‍यों को भली-भाँति‍ मालूम हो गया है कि‍ इन दि‍नों झूठ को बार-बार दुहराकर सच बनाने की पद्धति कामयाब है। उपभोक्‍ताओं की सन्‍तुष्‍टि में‍ व्‍यवसाय की चरम सफलता मानने का जमाना अब लद चुका। उपभोक्‍ताओं से कारोबरि‍यों के रि‍श्‍तों का आधार आज पूरी तरह बदल चुका है। अब वे जनता को सम्‍मोहि‍त करने में वि‍श्‍वास रखने लगे हैं। संवेदनात्‍मक प्रसंगों से जनभावना का दोहन करने में उन्‍हें कोई गुरेज नहीं होता। ऊलजलूल और बेतुकी लुभावनी बातों को जोड़कर ऐसे संवादों का वि‍ज्ञापन बनाते हैं कि‍ कथन का कोई सूत्र नहीं बैठता। नारियल तेल की बोतल से अपने घरौंदे की मेड़ तोड़ती बच्ची अपनी माँ का कथन दुहराती है'क्योंकि नारियल शुद्ध होता है।' अब इस तेल और इस नारियल की शुद्धता तो देखी जाएगी, पर उस दि‍ए गए संवाद का तो कोई अर्थ हो!
दरअसल विज्ञापनदाता और विज्ञापन-नि‍र्माता के पूरे ति‍जारत‍ में सोच-संरचना की बड़ी पेचीदगी है। तथ्‍यत:‍ लालच और नैतिकता का रि‍श्‍ता व्‍युत्‍क्रमानुपाती होता है। विज्ञापन के संवाद लेखक कम्पनी के मालिक से अधिकतम धन ऐंठने के चमत्‍कार की गुंजइश बनाते रहते हैं। मॉडल स्त्री/पुरुष पैसे पाएँ तो आम को इमली और जहर को अमृत कहने में क्‍यों परहेज करें? प्रायोजि‍त कार्यक्रमों के प्रोड्यूसर और दूरदर्शन के अधि‍कारी तो अनुबन्‍ध और आमदनी के आगे मजबूर हैं, वचनबद्ध भीष्म की तरह; आमदनी से बड़ी नैति‍कता इस समय और क्‍या हो सकती है? अधुनातन मॉडलों के नंगे टखने और उन्‍मादक भंगि‍माएँ दि‍खाकर उत्‍पाद बेचनेवाले विज्ञापनदाता का इस सफलता पर मुदि‍त होना लाजि‍मी है। नैतिकता और सामाजिक सभ्यता जाए भाड़ में! मारी गई बेचारी जनता; कुछ तो इसलिए कि‍ वे अपनी ही टी.वी. का उपयोग अपने अनुकूल नहीं कर सकते, और कुछ इसलिए कि विज्ञापनों की अश्लीलता, अभद्रता और अव्यावहारिकता से वे सि‍र धुनते रहते हैं।  
बेशक कुछ बेहतरीन और जरूरी विज्ञापन बड़े काम के आ रहे हैं, जि‍से दि‍खाए जाने की बड़ी आवश्‍यकता है। एक बेहतरीन नागरि‍क परि‍दृश्‍य के गठन में उन वि‍ज्ञापनों की बड़ी भूमि‍का होगी; पर बरसाती मेंढक की तरह टर्राते विज्ञापनों ने उन्‍हें इस तरह दबोच लि‍या है कि‍ तंगमि‍जाजी में लोगों से अक्‍सर इसकी आभा छूट जाती है। तेल, साबुन, डि‍टर्जेण्‍ट, कण्‍डोम, यौनशक्‍ति‍वर्द्धक टि‍कि‍या के बीच नेत्रदान, रक्‍तदान, साफ-सफाई के उपदेश दबकर खो जाते हैं। इन वि‍डम्‍बनाओं का कुछ निराकरण होता, तो जनता की साँसत खत्म होती। परन्तु यह है असम्‍भव। विज्ञापनदाता, विज्ञापनकर्ता, विज्ञापन प्रस्तोता-- सबके सब लालच के सागर में गोता लगा रहे हैं। दूरदर्शन में ऐसी कोई व्यवस्था है नहीं कि विज्ञापन के सन्देश और उत्पाद की गुणवत्ता जाँच कर उन्हें सामने लाया जाए, प्रस्तोता चूँकि शुल्क जमा कर देते हैं, इसलिए उन्हें कुछ कहा नहीं जा सकता, तब तो यह बहुत सहज है कि जनता इन अनैतिक कर्मियों के लालच की आँच पर भुने जाएँ और दूरदर्शन मजबूर होकर दूर से कहे--आहा-हा...बेचारों के साथ बहुत अन्याय हो रहा है।

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