2.अनुवाद और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य.
अमेरिका के समुद्र तट पर देवशंकर नवीन |
इग्नू की राष्ट्रीय सेगोष्ठी के उद्घाटन समारोह में अनुवाद अध्ययन एवं प्रशिक्षण विद्यापीठ के निदेशक देवशंकर नवीन |
अनुवाद कार्य तब से कर रहा हूँ जब से स्रोत-भाषा और लक्ष्य-भाषा
जैसे पदबन्धों की
जानकारी नहीं थी। पर यह जानता था
कि एक विषय सामने है,
जिसे मुझे फिर से कहना है, अर्थात उस
बिम्ब या पाठ का अनुकथन करना है। अनुकथन का सीधा सम्बन्ध लक्षित श्रोता/पाठक/प्रेक्षक/भावक से होता है।
गरज यह, कि लक्षित वर्ग के लिए भाषा/संकेत का जो प्रकार्य बोधगम्य हो, उसमें कहना है। अनुवादक का दायित्व यहीं आकर सामने खड़ा होता है कि वह कहो, जो वस्तुतः पहले से कहा जा चुका है। अर्थात् अनुवाद कार्य अनुकथन है, पहले से कही हुई बात को फिर से कहना है। इस अर्थ में देखें, तो प्रारम्भिक समय में गुरुकुल में गुरुजनों द्वारा जो मूल पाठ की व्याख्या होती थी, अन्वय होता था, या कण्ठस्थ कराने हेतु एक ही पाठ बार-बार रटाया जाता था, वह अनुकथन भी अनुवाद की कोटि में ही आएगा।
इधर आकर अनुवाद का अर्थ थोड़ा रूढ़-सा हुआ है। सामान्यतया एक
भाषा के पाठ को
दूसरी भाषा में कहने अथवा लिखने
के कार्य को अनुवाद कहा जा रहा है। पर थोड़ा पीछे जाएँ, तो अनुवाद का एक विराट रूप हमारे सामने होता है।
वास्तविक अर्थो में जब कभी हम कुछ कह या लिख रहे होते
हैं, जिसे हम अपना मौलिक वक्तव्य या लेखन कहते हैं, वह भी अनुवाद ही है। वह हमारे अनुभव, विचार अथवा प्रेक्षण
परिणति का अनुवाद होता है। किसी शिल्पी की मूर्तियाँ, चित्रकार के कैनवस, रचनाकार की कृतियाँ, फिल्मकार
की फिल्में, रंगकर्मी का रंगकर्म...सब के सब अपने पूर्व के पाठ, विचार,
या अनुभव की अनुकृतियाँ ही होती हैं, जिनमें
कथ्य की विधा बदल दी जाती है,
और अभिप्रेत को अधिक से अधिक प्रभावी बनाया जाता है। यहाँ तक कि जब कोई शिक्षक
अपने शिष्यों को, अभिभावक अपने अनुवर्तियों को, अथवा अधिकारी अपने अधीनस्थों को कोई जटिल प्रकरण समझा रहा होता है, तब भी वह अनुवाद ही होता है।
अनुवाद कार्य के व्याख्याकारों ने बीसवीं सदी को अनुवाद का
युग कहा है। तर्क
प्रायः यह रहा हो कि उक्त अवधि
में ज्ञान की विभिन्न शाखाओं की पुस्तकों का विपुल मात्रा में अनुवाद हुआ और व्यापक स्तर पर दुनिया
की विभिन्न भाषा-संस्कृति-ज्ञान सम्पदा से परिचय के कारण
दुनिया की कई भाषाओं में
नई-नई विधाओं का सृजन-पुनर्सृजन
हुआ। वैसे कुछ विद्वान ईसा पूर्व तीन हजार के प्राचीन
मिस्र के द्विभाषी शिलालेखों,
ईसा पूर्व तीन सौ में ग्रीक
लोगों के सम्पर्क में रोमन लोगों के आने पर ग्रीक से
लैटिन अनुवाद, बारहवीं शताब्दी में स्पेन में इस्लाम के सम्पर्क से अरबी से
योरोपीय भाषाओं में
अनुवाद का उदाहरण देते हुए
अनुवाद की परम्परा ढूंढते हैं।
तथ्य है कि ईसा पूर्व तीन हजार के आस पास असीरिया के राजा
सरगोन ने अपनी विजय
घोषणा का अनुवाद विभिन्न भाषाओं
में करवाया। ईसा पूर्व इक्कीस सौ के आसपास सम्राट
हम्मूरावी सरकारी आदेशों का अनुवाद कई भाषाओं में करवाते थे। ईसा पूर्व चार-पाँच सौ के आसपास यहूदी लोग हिब्रू भाषा के
प्रवचनों का अनुवाद
द्विभाषिए के सहयोग से आर्मेइक
भाषा में करवाते थे और फिर उस तथ्य को समझते थे।
तथ्य है कि यूनानी गौरव-ग्रन्थों का अनुवाद पुनर्जागरण काल
में विपुल मात्रा
में हुआ। फ्रांस में सोलहवीं सदी
में ही एतीने दोले ;म्जपमददम क्वसमजद्ध जैसे अनुवाद चिन्तक ने इस क्षेत्र में अभूतपूर्व काम
किया; नौवीं से सोलहवीं सदी के बीच इंग्लैण्ड में अनुवाद की व्यवस्थित
परम्परा बन गई।
विद्वानों की राय में अनुवाद चिन्तन की प्राचीन परम्परा भारत में
अनुपलब्ध बताई जाती
है और कारण बताया जाता है कि
ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में भारत प्राचीन काल में
संसार का सिरमौर था। ज्ञान की सभी शाखाओं में जो भी नई जानकारी दुनिया भर में थी, उसका अनुवाद
करने के बजाय भारत के चिन्तक उन ज्ञान सम्पदाओं को
आत्मसात कर उसे मौलिक पद्धति से भारतीय संस्कार के साथ प्रस्तुत करना बेहतर समझते थे।
तथ्य है कि भारत का ज्ञान-कोश और भारत की चिन्तन-परम्परा
पर्याप्त समृद्ध थी।
पर भ्रम फैला हुआ है कि भारत में
अनुवाद की परम्परा प्राचीन काल में लुप्त थी।
वास्तविक स्थिति यह है कि भारतीय चिन्तकों की जीवन पद्धति प्राचीन काल में आज की तरह नहीं थी, पाश्चात्य
विद्वानों की तरह अपने करतबों के सैद्धान्तीकरण
की व्यवस्थित परम्परा यहाँ नहीं थी।
जिस कोटि के उदाहरणों से पश्चिमी अनुवाद-चिन्तन की परम्परा
को सुव्यवस्थित
बनाया जा रहा है, वैसे अनुवाद हमारे यहाँ वेद की रचना के तत्काल बाद से
हो रहा है। ब्राह्मण, आरण्यक जैसे ग्रन्थ इसके उदाहरण हैं। थोड़ा आगे आएँ तो निघण्टु और निरुक्त तो अनुवाद के उपस्कर ग्रन्थ हैं।
सच है कि जिस तरह भारत
के ग्रन्थों का अनुवाद अरब अथवा
चीन अथवा अन्य जगह के लोगों ने किया, भारत के लोगों ने उस काल में दूसरे देशों के ग्रन्थों का
अनुवाद नहीं किया, लेकिन यहाँ अपनी भाषा पद्धति में ही इतनी
तब्दीली आती गई कि अपने ही
ग्रन्थों के अनुवाद और व्याख्या
की आवश्यकता होने लगी। निघण्टु और निरुक्त तो उसके
उदाहरण हैं ही, बाद के दिनों में जब लौकिक संस्कृत का चलन हुआ, तब ऋषि मुनि
अपने शिष्यों को शिक्षा देते समय प्राचीन ग्रन्थों की जिस तरह व्याख्या करते थे, उसे भी
अनुवाद की दृष्टि से देखा जाना चाहिए, जिसमें एक तरफ तो पद्य की गद्यात्मक व्याख्या थी, दूसरी तरफ उसके सरलार्थ थे। ऐसा समझा जाना चाहिए कि आधुनिक काल में भाषा-टीका ग्रन्थ
का सूत्र वहीं से मिला
होगा।
संस्कृत नाटकों के पाठ पर गौर करें तो साफ दिखता है कि नायक का
सम्वाद संस्कृत में
होता था, जबकि स्त्री और सेवक का प्राकृत में। वार्तालाप और
कथोपकथन के दौरान समझ की जमीन तो अनुवाद पर ही आधारित
रहती होगी। गुणाढ्य की प्रसिद्ध कृति
बड्डकहा के संस्कृत अनुवादों को भी इस कोटि में रखा जा सकता है। इन सबके बाद से तो फिर सारानुवाद, भावानुवाद, छायानुवाद, टीका,
व्याख्या आदि की शृंखला चल पड़ी।
लोग कहते आ रहे हैं कि धर्म, दर्शन, साहित्य की कृतियों की समझ बनाने के लिए अनुवाद की मूल आवश्यकता हुई। आंशिक रूप से यह सच भी हो
सकता है, लेकिन यह प्राथमिक आवश्यकता नहीं है। उत्तरवैदिक काल के आरम्भ
में जब विभिन्न जनपदों
का स्वरूप स्थिर होने लगा था, उन दिनों आर्यीकरण के माध्यम से राज्यों के सीमा विस्तार की प्रवृत्ति विकसित हुई। समाज कृषि-विकास
से वाणिज्य-विकास
की ओर बढ़ चला। जलमार्ग तथा
थलमार्ग से श्रेष्ठियों के सार्थ कैकेय से श्रावस्ती
होते हुए चम्पा और राजगृह तक वाणिज्य के लिए यात्रा करते थे। इस क्रम में हरेक पड़ाव पर उन्हें आदान-प्रदान के लिए
दुभाषिए की आवश्यकता होती
थी। उनके हर पड़ाव से कम से कम एक
सहयोगी अगले पड़ाव तक जाते थे,
जो उन्हें थोड़ी सी तब्दीली के साथ वहाँ के भाषा-व्यवहार का परिचय
देते थे और श्रेष्ठि
जन क्रमशः उनके भाषा-उपक्रम से
परिचित होते जाते थे।
इन साक्ष्यों के साथ मेरा निवेदन है कि यदि हिब्रू के
प्रवचनों के आर्मेइक
में पुनर्कथन अथवा असीरीया के
राजा सरगोन की विजय-घोषणा को अनुवाद की प्राचीन
परम्परा कहना उचित है,
तो भारत में हुए इन कार्यों को
भी अनुवाद की
प्राचीन परम्परा का सूत्र माना
जाना चाहिए।
भारत में वेद को श्रुति भी कहा जाता है। श्रुति परम्परा का
सीधा सम्बन्ध लोक
कथा, लोकगाथा, लोकगीत और
लोक-नृत्य से भी है। श्रुति परम्परा में अनुकथन पद्धति अपने सभी उपादानों के साथ शामिल है। जाहिर है
कि वेद की ऋचाएँ जब
कही या गाई जाती होंगीं, अथवा लोक-कथाएँ जब सुनाई जाती होंगी, तब श्रोताओं/भावकों
के लिए सम्प्रेषण बाधा दूर करने हेतु टीकाएँ भी होती होंगी। वैदिक आचार्य निश्चय ही अपने शिष्यों को ऋचाएँ
पढ़ाते समय उन्हें
समझाने के लिए उसकी टीका करते
होंगे। इस आधार पर यह मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी
चाहिए कि भारत में अनुवाद की परम्परा उतनी पुरानी तो अवश्य ही है,
जितनी वैदिक परम्परा, लोक परम्परा और सम्वाद परम्परा। सम्प्रेषण की स्पष्टता सुनिश्चित करने के लिए एक बात का कई बार, कई तरीके से, विभिन्न शब्दावलियों में कहा जाना भी अनुकथन ही है।
विदित है कि भारत में
टीका, व्याख्या, अनुवाद का
नैरन्तर्य सदा बना रहा। भारत को जानने के
लिए वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत आदि के अनुवाद दूसरे देशों के लोग तो कर ही रहे थे, यहाँ भारत
में ही उनके अनुकथन कई रूपों में हो रहे थे। अकेले
रामायण का अनुवाद भारत की कई भाषाओं में हुआ, और आज की
तारीख में वे सब अपनी-अपनी भाषा के महान ग्रन्थ माने
जाते हैं। पुराकथाओं को आधार बनाकर
विभिन्न भारतीय भाषाओं में बेहिसाब रचनाएँ की गई हैं। मुगल शासन-काल के लम्बे अन्तराल में इस दिशा में पर्याप्त काम हुए।
दाराशिकोह और उनके
गुरु राजशेखर का इस दिशा में
अप्रतिम योगदान है। निकट अतीत में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, महावीर
प्रसाद द्विवेदी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, प्रेमचन्द जैसे महान
अनुवादक हुए। इन सब के बावजूद कभी किसी विद्वान ने भारत में अनुवाद सिद्धान्त की कोई परम्परा विकसित नहीं की। इस
कार्य को मुक्त रहने
दिया। कभी अनुवाद सम्बन्धी अपनी
मान्यताओं को संस्थापित या आरोपित करने का काम नहीं
किया। ... अच्छा किया। भारत जैसे ज्ञानाकुल जनपद में ऐसा ही होना चाहिए था। बाद के दिनों में तो अनुवाद की आवश्यकता
बहुफलकीय हो गई। नई
दुनिया की नई जरूरतों के
मद्देनजर विराट भौगोलिक परिवेश और बहुभाषिक नागरिक जीवन के आपसी सम्वाद की अकूत आवश्यकता दिखने लगी। जीवन-यापन
के मूल और महत्त्वपूर्ण कारण विस्तृत और विविध हो गए। पर
अनुवाद की प्राथमिक आवश्यकता प्रारम्भिक
समय में व्यापार में सम्वाद और सम्प्रेषणीयता को लेकर ही दिख रही थी। भारत में धार्मिक सहिष्णुता प्रारम्भ से रही
है। दूसरे जनपद में
जाकर बर्वरतापूर्ण लूटपाट करना, उन पर शासन करना, उन्हें
अपमानित करना, हेय समझना... आदि
वृत्ति यहाँ के नागरिकों का कभी लक्ष्य नहीं रहा; सम्भवतः यह कारण भी हो कि भारतीय नागरिक के अनुवाद का विमर्श
प्रारम्भ में मुख्यतः
व्यापार और सामान्य सम्प्रेषण तक
ही सीमित रहा, पर शीघ्र ही यह, ज्ञान की शाखाओं में साहित्य एवं दर्शन की ओर आया, और तेजी से आगे बढ़ता गया।
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद तो अनुवाद कार्य के राजनीतिक
उद्देश्य भी अत्यन्त
प्रमुख और प्रखर हो गए। वैचारिक
आदान-प्रदान, राष्ट्रीय सीमा की सम्वेदनशीलता, वैश्विक
मैत्री की सम्विदाओं के मामले इतने महत्त्वपूर्ण हो गए कि व्यापारिक सम्वाद-सम्प्रेषण और सामाजिक सौहार्द
की सीमा पारकर अनुवाद
कार्य की भूमिका अन्तर्राष्ट्रीय
राजनीति को रेखांकित करने लगी। विश्वव्यापी
सांस्कृतिक, राजनीतिक, व्यापारिक, शैक्षिक सम्बन्ध; पत्रकारिता, साहित्य, कला, विचार-विमर्श, दर्शन, धर्म,
शिक्षा, विज्ञान एवं तकनीकी
उपलब्धि आदि के क्षेत्र में अद्यतन होने के लिए अनुवाद का उपयोग महत्त्वपूर्ण हो गया।
इधर विश्वग्राम की अवधारणा में गतिकता आई है। इसके
सर्वतोभावेन विकास पर बल
दिया जा रहा है। भारतीय संस्कृति
के मूल में यह अवधारणा तो नीति के स्तर पर प्रारम्भ से
ही है, और भारत के नागरिक ऐसा मानते भी आए हैं। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्‘ कहने वाले भारतीयों के लिए ‘उदार चरितानान्तु‘ की विशेषता
बताई जाती रही है। भारतीय नागरिकों का यह ‘उदार चरित‘ प्रारम्भ
से है। तभी तो
यहाँ के नागरिकों ने बाहर से आए
भिन्न-भिन्न संस्कृति के लोगों को न केवल स्वीकार
किया, बल्कि उनकी संस्कृतियों और उनके रहन-सहन से
अपने सम्मिलन का
रास्ता तक अख्तियार कर लिया।
इतिहास का अन्वेषण अथवा समाज-शास्त्रीय पद्धति की कसौटी पर भारतीय जीवन-मूल्य का अनुशीलन किया जाए तो
इस बात का प्रमाण
आसानी से मिल जाएगा।
विश्वग्राम की अवधारणा का मूल सूत्र अन्तर्राष्ट्रीय सांस्कृतिक
सम्बन्ध में ही दिखता
है; और विश्व फलक पर संस्कृति की यह समझ एक मात्रा अनुवाद
के जरिए सम्भव
है। इस बात को मानने में कतई कोई
हिचक नहीं होनी चाहिए कि किसी व्यक्ति के एक कथन का
किसी एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद करने का अर्थ केवल उस कथन का अनुवाद नहीं है। उसमें वस्तुतः यह जानने की लगातार
चेष्टा होती है कि
उस कथन का पाठ क्या है, उस पाठ की व्यंजना क्या है, व्यंजना का उद्देश्य क्या है, कथन की
शैली क्या है (शालीन,
आक्रामक, निवेदन,
सलाह, धमकी,
सम्मान्य, अभद्र...आदि), कथन की
शब्दावली कैसी है, वाचक किस देश-काल-पात्र की पर्यवस्थिति में है, वाचक की
वैयक्तिक-वैचाारिक -मानसिक-पदेन हैसियत क्या है, कथन से वाचक और सम्बोध्य का सम्बन्ध क्या है... इन तमाम
सवालों से जूझते हुए अनुवादक को अनुवाद करते समय सारी
गुत्थियाँ सुलझानी पड़ती हैं। जब कभी हम
अनुवाद करने बैठते हैं,
केवल उस पाठ की भाषा नहीं बदलते, उस प्रसंग को
दूसरी भाषा में देते हुए एक साथ कई बातों का ध्यान हमें रखना पड़ता है। शब्द-संस्कार, वाक्य
संरचना, कथ्य का वातावरण, प्रसंग की संस्कृति, वाचक की सर्वांगीण पहचान से संचालित उसकी अभिव्यक्ति
शैली... तमाम बातों के मद्देनजर लक्ष्य-भाषा से स्रोत-भाषा
में किसी पाठ का
भाषान्तर करते समय सचेत रहना
पड़ता है।
इसी क्रम में इस बात की चर्चा भी समीचीन होगी कि अनुवाद को
ज्ञान की किस शाखा
में रखा जाए। लम्बे समय से विश्व
भर के अनुवाद चिन्तकों के बीच इस बात पर बहस होती
रही है, मतैक्य का अभाव होना जायज है। डा. भोलानाथ
तिवारी, ई.ए.नाइडा, विल्स
बेल्फ्रेम आदि ने अनुवाद को विज्ञान माना; डा. एन. ई. विश्वनाथ अय्यर, डा. कैलाश
चन्द्र भाटिया, ड्राइडन, थ्योडोर
सेवरी आदि ने
इसे कला माना; डा. गोपाल शर्मा, शैटक रोजर, ऐरोस्मिथ आदि ने इसे शिल्प माना;
डा. जी. गोपीनाथन जैसे कुछ
चिन्तकों ने मध्यम मार्ग अपनाते हुए इसे ‘वैज्ञानिक कला‘ माना। वैसे
तो डा. गोपीनाथन के तर्क से सहमत होने के पर्याप्त प्रमाण
हैं, पर मेरी राय में यह चर्चा, बहस तक ही सीमित रहे तो बेहतर है, क्योंकि ‘अनुवाद कार्य‘ जैसे उद्यम
पर आज जितना दायित्व आ गया
है, उसे किसी सीमा में बाँधना दुस्कर है। ज्ञान की किसी भी
एक शाखा की परिधि अनुवाद के दायित्व को पूरी तरह समेट
पाने में विफल हो जाएगी। यदि अनुवाद को
सिर्फ विज्ञान मानते हैं,
तो जाहिर है कि वह उस अर्थ में
विज्ञान नहीं होगा, जिस अर्थ
में भौतिक विज्ञान का गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त, अथवा रसायन शास्त्र की रसायनिक प्रतिक्रिया अथवा जीवविज्ञान
की प्रजनन व्यवस्था
है। वह विज्ञान है, भाषा विज्ञान की पद्धति में, जहाँ यह निर्धारित है कि अनुवाद के दौरान भाषा विज्ञान के नियमानुसार कोई
अनुवादक सबसे पहले पाठ का
विश्लेषण करता है, फिर उसका विकोडीकरण करता है, पुनर्सृजन के दौरान फिर उसका कोडीकरण करता है, और फिर
लक्ष्य भाषा के पाठ को सजाता-सँवारता है। अनुवाद
कार्य की इस बौद्धिक प्रक्रिया में बौद्धिक एवं विज्ञान सम्मत प्रयुक्तियों का भरपूर इस्तेमाल होता है। पर मात्रा इस
कारण इसे सिर्फ
विज्ञान के खाते में सीमित रखना
उचित नहीं है। ऐसा करने से इसका कला पक्ष पीछे छूट
जाएगा, जिसके अभाव में अनुवाद विश्वसनीय तो हो जा
सकता है, पर उसके
निष्प्राण होने की पूरी सम्भावना बनी रहेगी। विज्ञान को मोटे तौर पर परिभाषित करते हुए इसे विषय विशेष का व्यवस्थित और
परिभाषित ज्ञान
(Systematic and
formulated knowledge)अथवा विषय
विशेष के ज्ञानार्जन की
सुगठित निकाय (organised body of the knowledge
on subjest) कहा गया है। इस अर्थ में तो विज्ञान की परिभाषा इतनी उदार और विराट है
कि ज्ञान की सभी
व्यवस्थित शाखाएँ इसमें आ
जाएँगी। इन अर्थों में हम चाहें तो अनुवाद को विज्ञान मान भी लें। पर ध्यान रखना होगा कि अनुवाद
सिर्फ विज्ञान नहीं है।
इस विवेचन में ई.ए.नाइडा से पूरी
तरह सहमत हुआ जा सकता है कि Translation
is far more than a science. It is also a skill, and the ultimate analysis fully
satisfactory translation is always an art. इस सन्दर्भ में डा. नगीन
चन्द्र सहगल का कहना समीचीन है कि ‘अनुवाद प्रक्रिया में विज्ञान, साधना में
शिल्प तथा सिद्धि में कला है।’
सही है कि अनूदित पाठ की संरचना एक बौद्धिक प्रक्रिया से
गुजरकर तैयार होती
है, पर उसके अन्तिम स्वरूम तक पहुँचने में अनुवादक का कौशल
कई स्तरों पर
क्रियाशील रहता है। मूल पाठ और
मूलवाचक की समग्र मौलिकता को ध्यान में रखते हुए लक्ष्य भाषा और लक्षित भावक की ग्राह्यता के
मद्देनजर अनुवादक अपने
विराट दायित्व के अधीन बहुत कुछ
करता है। पूर्व में चर्चा हो चुकी है कि किसी एक
व्यक्ति के किसी एक कथन का,
किसी एक भाषा से दूसरी भाषा में
अनुवाद का अर्थ केवल उस पाठ और पाठ के शब्दों का
अनुवाद नहीं होता, बल्कि उस वाचक के पूरे वजूद का अनुवाद होता है, जो अप्रत्यक्ष रूप से उस कथन के भीतर अन्तःसलिला शक्ति के रूप में उपस्थित होता है। अनुवाद
कर्म से जुड़े हर
व्यक्ति जानते हैं कि बेहतर
अनुवाद प्रस्तुत करने के क्रम में कई बार, मूल पाठ के अप्रत्यक्ष, और भौतिक
रूप से अलक्ष्य दायित्वों के अनुपालन हेतु सांस्कृतिक
अन्तरण में कुछ बातें लुप्त हो जाती हैं और कुछ नई बातें आ भी जाती हैं। लोप और आगम की इस क्रिया की गुणवत्ता और
मात्रा, अनुवादक के कौशल और प्रतिभा पर निर्भर करती है। सम्भवतः इसी धारणा के
तहत एतीने दोले
(Etienne Dolet) ने अनुवादक के लिए शर्त रखी कि उसे मूल रचना
के भाव और लेखक के प्रयोजन का पूर्ण ज्ञान तो होना ही
चाहिए, स्रोत-भाषा और लक्ष्य-भाषा का पर्याप्त ज्ञान भी उसे होना चाहिए, अर्थ एवं अभिव्यंजना की रक्षा के लिए शब्दानुवाद से बचना चाहिए तथा मूल रचना
के भाव एवं प्रभाव की
समग्रता की रक्षा करनी चाहिए।
ड्राइडन ने तो भावानुवाद को ही सर्वोत्तम अनुवाद माना
है।
लेकिन भाषा-विज्ञान की इस पद्धति और बौद्धिक प्रक्रिया से
तैयार हुई अनूदित
संरचना को अनुवाद का अन्तिम और
निर्णीत पाठ नहीं माना जा सकता। कई महान और कालजयी
कृतियों का अनुवाद करते हुए बड़े-बड़े अनुवाद-चिन्तकों ने इस कर्म को पुनर्सृजन कहा है। जाहिर है कि पुनर्सृजन में भाषान्तर
के दौरान अनुवादक को
थोड़ी छूट मिल जाती है, पर यह भी सच है कि वह आजाद नहीं हो जाता। थोड़ी-सी छूट के साथ-साथ मूल पाठ और रचनाकार के साथ बँधे रहने
की उसकी मजबूरी बढ़
जाती है। प्रो. जी गोपीनाथन इसी
पद्धति के दौरान इस कर्म को वैज्ञानिक कला कहते हैं।
उनका मानना है कि ‘सहज समतुल्यता‘ की खोज में
अनुवादक को अक्सर
पुनर्सृजन करना पड़ता है। उनका
मानना है, और सही ही मानना है कि हर भाषा की अपनी प्रकृति एवं विशेषताएँ होती हैं और हर लेखन की
अपनी अभिव्यक्ति शैली
होती है। चूँकि अनुवाद केवल
शाब्दिक भाषान्तर नहीं,
एक पुनराभिव्यक्ति है, जो अनुवादक की कल्पना, भाव-प्रवणता, मूल से प्रभावित होने के उनके स्तर, लक्ष्य भाषा की प्रकृति, सहज-ज्ञान
एवं कलाशीलता के अनुरूप होती है। जैसा कि पूर्व
में कहा गया, जिस तरह हरेक मूल कथन में उसके वाचक/प्रस्तोता
के व्यक्तित्व का कत्र्ता, करण,
सम्प्रदान आदि शामिल होता है, उसी प्रकार अनूदित पाठ
में भी, मूल पाठ के प्रति तमाम निष्ठा रखे रहने के
बावजूद अनुवादक का व्यक्तित्व भी शामिल होता है। प्रो.
गोपीनाथन का मानना तर्कसंगत है कि मूल
कृति की आत्मा को और मूल कृति में प्रतिबिम्बित मूल लेखक के व्यक्ति के प्रभाव को भी अनुवाद में उतारना अभीष्ट
होता है और इस शर्त की
पूर्ति की क्रिया स्वयं में ही
कला है। प्रो. गोपीनाथन कहते हैं कि कृतिकार के साथ पूर्ण रूप से तदाकार होकर उसकी आत्मा को
पहचानने का काम वही कर
सकता है जिसमें कलाकार जैसी
सम्वेदना हो, सहानुभूति हो। यह कम महत्त्वपूर्ण बात नहीं है कि दुनिया के श्रेष्ठ अनुवादक, श्रेष्ठ मौलिक कृतिकार भी थे...। प्रो. गोपीनाथन की उक्ति को एन. महापात्रा के
कथन से और बल मिलता है
कि कलाकर की छठी इन्द्रिय अथवा
सहज ज्ञान ही है जो कृति के सौन्दर्य बिन्दु को
पहचानकर उसका सम्प्रेषण कर देता है।
अर्थात्, अनुवाद कार्य अपनी पूरी प्रक्रिया में विज्ञान भी है, कला भी है, शिल्प भी है। इन सभी तर्को के बावजूद यह मानने में कोई संकोच
नहीं होना चाहिए कि
अनुवाद कार्य की वृहत्तर
आवश्यकता द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद महसूस की गई, जब दुनिया
भर के लोगों में सम्पर्क सूत्र का विस्तार हुआ। विभिन्न राष्ट्रों के बीच राजनीतिक, आर्थिक समीकरण बनने/बढ़ने लगे। व्यापारिक सम्बन्ध बढ़े, सांस्कृतिक
आदान-प्रदान होना आवश्यक हो गया। इन्हीं आवश्यकताओं
के बीच अनुवाद कार्य की दक्षता और गम्भीरता महत्त्वपूर्ण हो उठी। शिक्षण पद्धति में ज्ञान की शाखाएँ इतनी बढ़ गईं, जानकारी अर्जन के सूत्र इतने बहुभाषिक हो गए कि अपने समय का सचेत नागरिक
कहाने के लिए, और आत्म-स्थापत्य
के आयुध जुटाने के लिए अनुवाद की ओर लोगों का रुझान उनकी मजबूरी हो गई। इस सन्दर्भ में ज्ञान की शाखा के रूप
में अनुवाद अध्ययन एवं
प्रशिक्षण, और ज्ञान की विभिन्न शाखाओं में दक्षता प्राप्त करने
के लिए अनुवाद अध्ययन एवं प्रशिक्षण की आवश्यकता-- दोनों
महत्त्वपूर्ण हो उठीं।
हिन्दी तो राजभाषा है, इसलिए भारत
के हरेक सरकारी-गैरसरकारी दतरों में अंग्रेजी समेत अन्य भाषाओं के अभिलेखों का इसमें अनुवाद होना
आवश्यक है, लेकिन इससे अलग भी नजर डालें, तो कई बातें
सामने आती हैं। इस सत्य को स्वीकार करने में किसी को कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि जिस तरह प्रकाशन
व्यवसाय ने उच्च
कुलोद्भव पण्डितों के वर्चस्व से
शिक्षा को मुक्त कराकर आम नागरिक में ज्ञानालोक
फैलाया, उसी तरह, अनुवाद
वृत्ति ने भी उच्च शिक्षितों और बहुभाषाविदों
के वर्चस्व से ज्ञान की शाखाओं को मुक्त किया। इतने बड़े संसार की बात तो दूर, अभी तक यह
भी सम्भव नहीं हो पाया है कि लोग अपने देश की सभी भाषाओं में उपलब्ध सामग्री को पढ़ लिख सकें। भारत
जैसे बहुभाषिक देश में
तो यह दुस्कर ही लगता है।
स्वाधीनता आन्दोलन के दौर के कुछ बुद्धिजीवियों और उनके बाद की पीढ़ी के लोगों में तो थोड़ा बहुत
बहुभाषिक ज्ञान था भी,
पर बाद के लोगों ने तो त्रिभाषा फारमूला से ही काम चलाया।
अपवाद स्वरूप कुछ
लोग अवश्य होंगे। पर हैरत की बात
अभी भी है कि कन्नड़ से असमिया,
या मलयालम से ओड़िया आदि में सीधे अनुवाद करने वालों की
अनुपलब्धता बनी हुई है। भारतीय भाषाओं के
बीच परस्पर अनुवाद कार्य के लिए अभी भी अधिकांश स्थितियों में अंग्रेजी, या हिन्दी
को सेतुभाषा के रूप में उपयोग में लाया जाता है। इन परिस्थितियों में हिन्दीभाषी क्षेत्र की जनता आज
शिवराम कारन्त, या अक्का महादेवी, या सन्त
ज्ञानेश्वर, या तुकाराम, या यू. आर.
अनन्तमूर्ति, या फकीर मोहन सेनापति, या ऐसे
किसी भी महान रचनाकार की रचनाओं के जरिए उस जनपद की संस्कृति से परिचित हो पाता है; या फिर फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन, अमेरिका, अफ्रीका, जापान की
कला, साहित्य, संस्कृति
अथवा वैज्ञानिक-प्रौद्योगिक-राजनीतिक उपलब्धियों से
परिचित हो पाता है, तो इसका श्रेय अनुवाद को ही जाता है। यहाँ तक कि परराष्ट्र
अथवा प्रान्तेतर
भाषा-क्षेत्र के विभिन्न संकायों
में जो कुछ महत्त्वपूर्ण होता है,
और वहाँ के संचार माध्यमों में इसकी चर्चा होती है, तो उन खबरों की जानकारी भी विश्व फलक पर अनुवाद के माध्यम से ही पहुँचती है। इस
अर्थ में खबरों का
अनुवाद, खुद अनुवाद कार्य के लिए महत्त्वपूर्ण हो उठती है और
अन्य भाषा क्षेत्र के लोग उन कृतियों के अनुवाद की ओर
उन्मुख होते हैं। ज्ञान के
क्षेत्र में लोकतन्त्र की इस
बहाली का श्रेय आज अनुवाद को ही जाता है कि कोई ऐसा
नागरिक, जो रूसी या फ्रेंच या जर्मन नहीं जानता, यहाँ तक कि भली भाँति
अंग्रेजी भी नहीं जानता,
पर वह आज मैक्सिम गोर्की, दोस्तोयवस्की, सिमोन द’ बुआ,
हावरमास, कामू,
काका, ग्राम्सी, गुण्टर
ग्रास, इलियट, गेटे की बात कर सकता है।
अनुवाद के जरिए ही हम अन्तर्राष्ट्रीय सांस्कृतिक सम्बन्ध और
राजनय को सुनिश्चित
कर पाते हैं। हमारे राष्ट्र के
हितैषी हमारे पक्ष में कहीं कुछ बोलते हैं, अथवा हमारे
विपक्ष में कुछ योजना गढ़ते हैं,
तो अनुवाद ही ऐसा साधन है कि हम उससे वाकिफ हो पाते हैं। वैसे तो प्रशासन, पत्राचार, न्यायालय, शिक्षा,
धर्म, शोध,
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, फिल्म एवं जन संचार, साहित्य-कला-संस्कृति
एवं भाषा शिक्षण, राजनय, प्रतिरक्षा
आदि में अनुवाद
का महत्त्वपूर्ण योगदान है पर इस
योगदान के साथ-साथ इसकी सम्वेदनलशीलता भी बहुत
महत्त्वपूर्ण हो गई है। न केवल राष्ट्रीय-अन्तराष्ट्रीय सम्बन्धों एवं राजनय को लेकर, बल्कि
भारतीय परिपे्रक्ष्य में आन्तरिक मामलों के लिए भी सम्वेदनशीलता बहुत बढ़ गई है। वैचारिक संघर्ष इतने
सूक्ष्म हो गए हैं, और वक्तव्यों
में विम्ब-प्रतीक के प्रयोग इतने प्रभावी हो गए हैं कि छोटे-छोटे कथन की व्यंजना विराट होने लगी है। इस परिस्थिति में
इस दायित्वपूर्ण
उपक्रम का दायित्व बड़ा जोखिम भरा
हो गया है, इसलिए इसमें सावधानी की अपेक्षा भी अधिक की जाने लगी है।
अध्यापन कार्य में अनुवाद का वृहत् योगदान वेदकालीन संस्कृत से
लेकर आज तक की
विभिन्न भारतीय भाषाओं में, वस्तुतः दूसरे देशों की भाषाओं में भी रहा है। उसकी विधि अन्वय, व्युत्पत्तिपूलक
व्याख्या, सरलार्थ, भावानुवाद, सम्पूर्ण अनुवाद, जो भी हो; ज्ञानार्जन
में इसके विभिन्न रूपों का योगदान होता रहा है।
बाहुभाषिकता अथवा मूल पाठ की अर्थ-जटिलता की विडम्बनाओं से उबरने के लिए अनुवाद और उसकी विधियाँ काम आती रही हैं।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद और फिर भारतीय स्वाधीनता के बाद से
दुनिया भर के देशों
का जिस तरह आपसी सम्बन्ध बना, उसमें अनुवाद की महत्ता विराट हो गई। अनुवाद प्राचीन काल से अध्यापन कार्य में सहायक होता आ रहा
है। मराठी के प्रख्यात
उपन्यासकार गंगाधर गाडगिल ने भी
अपने ऐतिहासिक उपन्यास प्रारम्भ में सबल साक्ष्यों
के साथ इस बात ही जानकारी दी है। ब्रिटिश शासन के दौरान समाज के शैक्षिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक
विकास के लिए अनुवाद किस तरह अपरिहार्य
घटक बन गया था, इसका प्रामाणिक विवरण वहाँ दिया गया है। हमारे गौरव-ग्रन्थों का जो अनुवाद फिरंगियों ने अपनी भाषा
में किया, व्यापक अर्थो में उसका सम्बन्ध भी शिक्षा-शास्त्र से ही है। वस्तुतः
वे हमारी सांस्कृतिक, धार्मिक और
दार्शनिक पृष्ठभूमि की जानकारी हासिल करना चाहते थे। अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाकर भारतीय नागरिकों के
बारे में वे जितनी
जानकारी हासिल कर उसके आधार पर
उन्हें पूरी तरह विश्वास हो गया था कि ये भारतवासी
अपनी विपन्नता में भी सम्पन्न ही दिखते रहेंगे। भूखे रहकर भी इनका सर नहीं झुकेगा। तब जाकर उन्होंने तय किया कि इसके
सम्मान और मनोबल को
ध्वस्त करना जरूरी है, और ऐसा करने के लिए उनकी सांस्कृतिक विरासत की सूक्ष्मताओं को जानना जरूरी है, उनके मनोबल को तोड़ने का सूत्र उनकी संस्कृति और रहन-सहन को जाने बगैर नहीं मिल सकता। उस
हाल में उसने हमारे
धार्मिक-पौराणिक ग्रन्थों का
अनुवाद कर हमारी सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत पर आघात कर, अपने धर्म
और अपनी संस्कृतियों के वर्चस्व की दुहाई दी, और हमारे यहाँ की जनता का मनोबल तोड़ना शुरू किया। गंगाधर
गाडगिल के उपन्यास
प्रारम्भ में इन बातों का जिक्र
भी विस्तार से है। ध्यान रखने की बात है कि उपन्यास
यथार्थ नहीं होता, पर हर ऐतिहासिक उपन्यास समकालीन और वर्णित देश-काल की चित्तवृत्ति की कथा अवश्य कहता है। समाज
में शिक्षा के
प्रचार-प्रसार, वणिक् वृत्ति के विकास, सामाजिक
उत्थान, प्रगति के प्रति आम नागरिक में वैज्ञानिक दृष्टिकोण, परम्परा के सम्पोषण और रूढ़ि से मुक्ति, संचार माध्यमों के सीमित संसाधनों से जनजागरण का अलख, स्त्री शिक्षा के प्रति जागरूकता और छूआछूत से छुटकारा... इन तमाम बातों
की नींव उस दौर में
पड़ी थी और अनुवाद कार्य ने इसमें
बड़ी भूमिका निभाई थी।
पर शिक्षा-शास्त्र के क्षेत्र में अनुवाद के महत्त्व का
सर्वाधिक उछाल
औद्योगिक क्रान्ति के बाद ही
दिखता है। विश्व भर का मानचित्र वैज्ञानिक अवदान के
कारण सिमट गया। ज्ञान-विज्ञान की कई शाखाओं का विकास हुआ। विषय विशेषज्ञता ही आवश्यकता महसूस होने लगी। ज्ञान सम्पदा
का आदान-प्रदान वृहत्
पैमाने पर होने लगा। परराष्ट्र
की प्रतिभाओं का उपयोग शुरू हुआ। ज्ञानार्जन
और अर्जित ज्ञान के उपयोग से अर्थोपार्जन की स्वाधीनता बढ़ गई। इन तमाम क्रिया-कलापों के विकास से अनुवाद का फलक बढ़
गया। और, अनुवाद परम्परा की
हमारी प्राचीन पद्धति थोड़ी अक्षम दिखने लगी। ज्ञानलोक और चिन्तन-पद्धति के विकास के कारण विषय उपस्थान में
सम्वेदनशीलता इतनी बढ़ गई
कि अर्थ का अनर्थ होने की
सम्भावना दिखने लगी। प्राचीन समय में अनुवाद के नाम पर जो टीका, व्याख्या, सारांश प्रस्तुत किया जाता था, उसमें मूल पाठ का बहुत कुछ खर्च हो जाता था। नई भाषा में आए हुए पाठ में
कुछ आमदनी भी हो
जाती थी। वैसे, आज भी अनुवाद क्रिया में इन सम्भावनाओं से बचा रह पाना मुश्किल है।
इसका सबसे बड़ा कारण होता है दोनों भाषाओं की अपनी
सांस्कृतिक पहचान। हर क्षेत्र की भाषा और
संस्कृति वहाँ के इतिहास भूगोल और विरासत से सम्पोषित होती है। उस क्षेत्र की आवोहवा, वहाँ की
जलवायु, वहाँ का वातावरण...सब मिलकर ही वहाँ के मनुष्य का तन और मानस रचा होता है। आचरण, आदत में; आदत, रहन-सहन में; रहन-सहन, प्रथा में; प्रथा संस्कृति में...जिस लम्बी जीवन व्यवस्था में परिवर्तित होता है, वह एक
ऐतिहासिक प्रक्रिया होती है। दो भाषा क्षेत्रों
की जटिल जीवन व्यवस्थाओं का तालमेल कराने में बड़े-से-बड़े महारथी कई बार विवश हो जाते हैं। अनुवाद कार्य के दौरान कुछ
लोप और आगम (Loss
and Gain)की स्थिति ऐसी ही
विवशता में उत्पन्न होती है। वस्तुतः यह स्थिति किसी सिद्ध अनुवादक के लिए सबसे बड़ी चुनौती की स्थिति होती
है।
पर आज के समय में, जब अनुवाद-कला
का विराट महत्त्व प्रमाणित हो चुका है और विश्व फलक
पर इसकी आवश्यकता दिख रही है,
ज्ञान की शाखा के रूप में इसकी मान्यता बन चुकी है, इस पर कई
दिशाओं से सोचने की आवश्यकता हो गई है।
बहुभाषिकता और विभिन्न राष्ट्रों के बीच राजनीतिक, कूटनीतिक, सांस्कृतिक
सम्बन्ध तथा
सीमावर्ती स्वायत्तता से
सम्बन्धित राजनय के मद्देनजर अनुवाद की महत्ता अनिवार्य और दायित्त्वपूर्ण हो गई है। इस रास्ते
शिक्षण पद्धति में इसका
प्रवेश गम्भीरता से हुआ है। शासन-व्यवस्था, संचार-माध्यम, सांस्कृतिक आदान-प्रदान, राष्ट्रनिर्माण, मानवीय सौहार्द, वाणिज्य, उद्योग-धन्धा, प्रबन्धन-पद्धति, कला-साहित्य-सांस्कृति, विचार
विनिमय आदि के क्षेत्र में
आज अन्तर्राष्ट्रीय फलक पर
अनुवाद की उपयोगिता इतनी अधिक बढ़ गई है कि इसके बिना ये सारे तन्त्र अपंग साबित होने लगे हैं। इधर
शिक्षा के क्षेत्र में
विशेषज्ञता की माँग इतनी बढ़ गई
है कि इन सभी दिशाओं में विभिन्न संस्थानों में उच्चतर
शिक्षा दी जाने लगी है। जाहिर है कि अनुवाद के सूक्ष्मतर उपयोग के बिना ये सारे अपूर्ण होंगे। भारत जैसे बहुभाषी, बहुसांस्कृतिक देश में तो इसकी महत्ता और भी विशिष्ट हो गई है।
नायडा, न्यूमार्क, बाथगेट
जैसे अनुवाद चिन्तकों ने स्रोत-भाषा के पाठ से लक्ष्य-भाषा के पाठ तक की यात्रा में एक बेहतर अनुवाद
के लिए विश्लेषण, बोधन, समन्वयन, संक्रमण, पुनर्गठऩ....
जितने भी पड़ाव तय किए हैं;
उन सब में बहुत सावधानी बरतने की आवश्यकता है। हर समय और हर विषय-प्रसंग
का चिन्तक अपने अनभव प्रतिभा और जीवन-दृष्टि के आधार पर
कोई सिद्धान्त तय करता है।
जरूरी नहीं कि वह सिद्धान्त सब
के लिए सभी परिस्थितियों में सफल साबित हो। कई बार तो
सिद्धान्तकर्ता कुछ समय बाद अपने ही मत को खुद खण्डित कर नए मत प्रस्तावित कर देते हैं। हमारे यहाँ तत्सम शब्दों का
अन्वय विश्लेषण और
शब्दों की व्युत्पत्ति प्रक्रिया
ढूँढने के क्रम में पाठ की समझ विकसित करने की
मंशा ही शामिल रहती है। अध्यापन,
विवेचन, विश्लेषण, शास्त्रार्थ, कथावाचन आदि समस्त शैक्षिक, बौद्धिक, शास्त्रीय, लौकिक आदि उपक्रमों में अथवा सामाजिक रूप से पंचायत व्यवस्था में, वैचारिक आदान-प्रदान में, इन प्रक्रियाओं
का उपयोग भारतीय पद्धति में होता आया है।
संस्कृत समस्त आधुनिक भारतीय भाषाओं की जननी है, इसके बावजूद आज भारतवर्ष में शताधिक भाषाएँ/उपभाषाएँ वजूद में हैं। भारतीय संविधान
की आठवीं अनुसूची में
ही बाइस भाषाएँ स्वीकृत हैं। हर
भाषा का अपना खास वातावरण और अपनी विलक्षण व्यवहार
शैली एवं संस्कृति है। सभी भाषाओं के साहित्य उस जनपद के जनजीवन की चित्तवृत्तियों से सराबोर है। यह भी सच है कि
भारतीय नागरिकों की
जीवन-शैली सदा से ज्ञानाश्रित
रही, ज्ञानोन्मुख विषयों पर यहाँ सदा विचार-विमर्श होता रहा। व्यापार की दिशा में इस
राष्ट्र में कभी उग्रता
नहीं रही, उसे यहाँ कभी प्रतिस्पद्र्धा की दृष्टि से नहीं देखा
गया, यह उपक्रम जीवन
की एक सामान्य क्रिया मात्रा रहा। इस राष्ट्र के बुद्धिजीवियों के चिन्तन का केन्द्रीय विषय मानवीयता ही बना रहा।
धर्म, दर्शन, ज्योतिष, आयुर्वेद, ज्यामिति, और रमल-शास्त्र यहाँ की चिन्तन परम्परा का मुख्य लक्ष्य रहा। और, इस दिशा
में यहाँ पर्याप्त कार्य भी हुए। इस सम्पूर्ण विरासत में वैदिक संस्कृत से लेकर उत्तरवैदिक संस्कृत/
लौकिक संस्कृत, और फिर आधुनिक
भारतीय भाषाओं की विकास प्रक्रिया तक में लगातार परिवर्तन होता रहा। विश्लेषण, अन्वय, टीका,
व्याख्या की अनेक सरणियों से न
केवल सर्जनात्मक साहित्य, बल्कि जीवन व्यवस्था के अधीन ज्ञान के सभी संकायों में अनुकथन,
पुनर्कथन की दीर्घ परम्परा बनी
रही। अकेले ब्रिटिश शासन काल की भारतीय जीवन
पद्धतियों का सूक्ष्मता से अनुशीलन किया जाए तो इस प्रसंग में शोध और विश्लेषण की विराट सम्भावनाएँ उपस्थित हो
जाएँगीं। इस पूरी व्यवस्था
में, करते जाने के इतने बड़े-बड़े लक्ष्य, इस राष्ट्र के बुद्धिजीवियों के समक्ष आते गए कि उन्हें अपने किए हुए कार्यों का गीत
गाने की सुविधा नहीं
मिल सकी। इससे अलग यह भी कि यहाँ
के चिन्तकों के लिए
अनुकथन/पुनर्कथन/पुनप्र्रस्तुति
के क्रम में बोधन, विश्लेषण, अन्वय, व्यख्या के जितने कार्य करने पड़े, उन सबको हमारे पूर्वजों ने अपनी दिनचर्या का एक अंश मानाए इतिहास की कोई घटना नहीं। अनुवाद
अध्ययन के क्षेत्र में
भारतीय चिन्तन परम्परा को यदि इस
पद्धति से रेखांकित किया जाए,
तो इसकी लम्बी परम्परा का सूत्र हमारे सामने होगा। कीर्ति-स्तम्भ
स्थापित करने की
परम्परा तो भारत में भी रही है।
पर राजाओं के यहाँ; बुद्धिजीवियों/चिन्तकों की मण्डली में नहीं, इनके यहाँ
तो ज्ञान-चर्चा ही सर्वाधिक महत्त्व का विषय बना
रहा। देर तक तो शिक्षा व्यवस्था भी अभ्यास और मौखिक परम्परा से चलती रही। पर आज के समय में अनुवाद की स्थिति बदल गई
है। भाषा और
संस्कृतियों की विविधता के
मद्देनजर विश्व फलक पर कई प्रसंग सामने हैं। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के साथ मनुष्य की विचार-व्यवस्था
में बड़ा परिवत्र्तन हो गया है। विज्ञान के अवदान और
मनुष्य के ज्ञान की परिणतियाँ,
विध्वंसक उपलब्धियों के इर्द-गिर्द
घूमने में विश्वास करने लगी हैं। राजनय और कूटनीतिक
स्थितियाँ बदल गई हैं। अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को लेकर वैचारिक संघर्षों को लेकर, विचार-व्यवस्था पर्याप्त व्याख्येय और बहुअर्थी व्यंजना से परिपूर्ण हो गई है। जाहिर है कि अनुवाद
जैसे कार्य आज अत्यधिक
महत्त्वपूर्ण हो गए हैं।
अनुवादक अथवा अनुवाद चिन्तक के रूप में प्रशिक्षित होने के लिए
वैश्विक फलक पर
उक्त सारी बातों का ध्यान रखना
आवश्यक है। अनुवाद अध्यापन के क्रम में कक्षा-अध्यापन
और पाठ्यक्रम का विकास करते हुए आज यह सोचना बहुत आवश्यक हो गया है कि जिन दो भाषाओं के बीच यह सम्बन्ध हो रहा है, उनके अपने अन्तस्सम्बन्ध
भी अपनी-अपनी जगह रक्त-शिराओं की तरह फैले हुए हैं। मूल पाठ का बोधन, विश्लेषण
करते हुए वाचक/प्रस्तोता की बौद्धिकता और विषय वस्तु के बारे में उसकी समझ से लेकर लक्ष्य-भाषा के भावक की
ग्रहण-शक्ति तक की
चिन्ता करना; दोनों पाठों में अन्तःसलिल धारा की तरह अलक्ष्य, किन्तु विद्यमान
संस्कृति और परिवेश का आरोपण करना कितना मुश्किल, और कितना
जरूरी है--पाठ्यक्रम विकास के क्रम में इस बात का
ध्यान रखना बेहद जरूरी है। इन सावधानियों
से निरपेक्ष रहकर कोई भी व्यक्ति बेहतर तो क्या, सामान्य अनुवादक या अनुवाद चिन्तक भी नहीं हो सकता। अनुवाद का
लापरवाह अर्थ लगाने
वाले व्यक्ति के बारे में
निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि वे अनुवाद के विभिन्न रूपों में से हर एक को समग्र मानने की भूल
कर रहे हैं। आज की
तारीख में विश्वसनीय अनुवाद और
बात है, और बेहतर अनुवाद और। विश्वसनीय अनुवाद पर विश्वास रखने वाला व्यक्ति ही ‘गिव द आनर गेट द आनर‘ का अर्थ ‘इज्जत दो, इज्जत लो‘ लगाते हैं, या ‘प्योर काउ मिल्क इज एवलेवल हेयर‘ का अर्थ ‘यहाँ शुद्ध गाय का दूध उपलब्ध है‘ लगाते हैं। इन पंक्तियों का अनुवाद कोशीय अर्थो में गलत नहीं है। लेकिन पाठ्यक्रम विकास
के क्रम में यही
उदाहरण सहायक साबित होता है कि
अनुवाद कार्य अथवा अनुवाद चिन्तन के समय भाषा-विज्ञान, भाषा का सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य, वाचक/उद्घोषक का ध्वनि-प्रयोग, मुहावरा-लोकोक्ति, बिम्ब-प्रतीक किस तरह का चमत्कार उत्पन्न करता है। ये किसी पाठ के वैसे वैशिष्ट्य हैं, जिनकी जानकारी के अभाव में पाठ विरूपित हो जाता है।
इन दिनों मशीनी अनुवाद पर भी तल्लीनता से काम हुआ है। उस
काम की सराहना की
जानी चाहिए, लेकिन पाठ्यक्रम में इसका उल्लेख होना भी आवश्यक है कि
मशीनी अनुवाद की अपनी सीमा है। मशीनी अनुवाद उसी पाठ
का सम्भव है, जिसके प्रस्तोता
मूल पाठ ही इस धारणा से प्रस्तुत करें कि इसका मशीनी अनुवाद होना है। अमिधा शक्ति के अतिरिक्त किसी और भाषा-ध्वनि का
प्रयोग उसमें न हो।
वर्ना मशीनी अनुवाद का सम्पादन
एक जंजाल बन जाता है। वैसे भी किसी भ्रष्ट अनुवाद को
सुधारने से बेहतर कार्य फिर से अनुवाद करना होता है।
इसी तरह हर भाषा-क्षेत्र की संस्कृति और शब्द-संस्कार का
ध्यान रखना आवश्यक
है। मिथिलांचल के ब्राह्मण माँस-मछली
खाते हैं, जबकि शाकद्वीपीय ब्राह्मण माँसाहार वर्जित रखते हैं। छोटानागपुर में नानी-नाती
के बीच हास-परिहास का
रिश्ता होता है, बिहार में आदर और लिहाज का। बिहार में जीजा-साली में परिहास चलता है, केरल में
भाई-बहन की तरह लिहाज किया जाता है। दिसम्बर माह में दिल्ली में पुरजोर ठण्ड पड़ती है। कोचीन में एअर
कण्डीशन चलाना पड़ता है।
अब मैथिली के किसी पाठ का अनुवाद
यदि हिन्दी में हो, नागपुरी का अनुवाद मैथिली में हो, हिन्दी का
अनुवाद मलयालम में हो,
मलयालम का पंजाबी में हो...तो इस तरह की सांस्कृतिक भिन्नता; खान-पान, रहन-सहन, पहनावे-ओढ़ावे की विविधता को अनुवाद करते समय किस तरह लिया जाना चाहिए, इसके संकेत अनुवाद के शिक्षण क्रम में होना चाहिए।
भारतीय परिप्रेक्ष्य में तो खासकर शब्दावलियों की विराट अर्थ-ध्वनियाँ
हैं। सर्वनामों और क्रियापदों की विशिष्ट
प्रयुक्तियाँ हैं। अंग्रेजी का ‘एंगर‘, हिन्दुस्तानी
में गुस्सा, क्रोध, कोप बनकर
आता है। पर स्थिति यह है कि अंग्रेजी
में परशुराम भले एंग्री हो जाएँ,
हिन्दी मे वे गुस्सा नहीं होंगे, क्रोधित होंगें; अंग्रेजी
में भगवान विष्णु भले एंग्री हो जाएँ, हिन्दी में गुस्सा नहीं होगें, कुपित
होंगे। इस तरह के असंख्य उदाहरण विभिन्न भारतीय
भाषाओं से लिए जा सकते हैं।