अधिनायकत्व का प्रतिपक्ष और राकेशरेणु का काव्यलोक
Countering the Dictatorship And Poems of Rakeshrenu
हिन्दीक में इस समय जो कविताएँ लिखी जा रही हैं, लम्बे समय से चल रही काव्य धारा ‘समकालीन कविता’ के अन्तर्गत ही उसका विवेचन होता आ रहा है। सन् 1960 के बाद की हिन्दीक कविता को साठोत्तरी कविता, अकविता, सहज कविता...जैसी कई संज्ञाओं से विभूषित किया गया। कुछ को कालकवलित करते हुए विचारकों ने माना कि आधी-अधूरी आजादी के स्थिति-चित्र से अकुलाए बौद्धिकों के क्रोध और नकार-भाव अकविता में प्रकट हुए। समय पाकर उस क्रोध की ज्वाला शान्त हुई। तारसप्तक के रास्ते नई कविता के दायरे में प्रविष्ट कविताधारा से भी कविगण मुक्त हुए और ‘समकालीन कविता’ के मार्ग प्रशस्त हुए। इस ‘समकालीन’ शब्द को भी विद्वानों ने कोश और कोशान्तर के सहारे तरह-तरह से परिभाषित किया।
मेरी राय में समकालीनता का सम्बन्ध समयबद्धता के बजाय वैचारिकता से है। इस प्रसंग में स्वातन्त्रयोत्तर काल के सुविख्यात कवि धूमिल की राय से सहमत होना मुनासिब होगा कि स्वतन्त्रता की तीव्र इच्छा, उस इच्छा की पूर्ति की पहल और उस पहल के समर्थन में लिखा गया साहित्य ही समकालीन साहित्य है। रूप-रंग-अर्थ के स्तर पर जो रचना आजाद रहने की प्रेरणा दे; सामने बैठे आदमी की गिरफ्त में न जाने की आवश्यक और समझदार चेतना दे; जो आदमी को आदमी से जोड़े, मगर आदमी को आदमी की जेब या जूते में न डाले, वही समकालीन साहित्य है। इस अर्थ में बीसवीं शताब्दी के नौवें दशक में सृजन क्षेत्र में आकर अपनी अलग पहचान बनानेवाले कवि राकेशरेणु की गणना एक समझदार और प्रतिबद्ध कवि के रूप में की जानी चाहिए, की जाती है।
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भारतीय भाषाओं में रचनारत इस पीढ़ी के मनोजगत का विश्लेषण किए बिना इनकी सृजनशीलता पर बात नहीं हो सकती। विदित है कि हर राष्ट्र के हर पीढ़ी की सर्वाधिक संवेदनशील विशिष्ट प्रतिभाएँ ही सृजनात्मक क्षेत्र में कदम रखती हैं। बीती शताब्दीं के नवें दशक में रचनाकारों की जिस पीढ़ी ने अपनी पहचान बनाई, उसका किशोर वय इक्कीस महीनों के आपातकाल (25.06.1975 से 21.03.1977) के साँसत भरे वातावरण में बीता था; जिनके सामने समझ-बूझ का एक धुँधला-सा वातावरण तो था ही, उनकी दृष्टि भी हतप्रभ अग्रज पीढ़ी के भौंचक चेहरे देखते हुए निर्मित हुई थी। अग्रिम पंक्ति का एक धरा सुरक्षा के प्रशासनिक अलाव तापने की ओर अग्रसर था, तो दूसरा धरा उनकी क्रूरताओं से होड़ लेने को आमादा था। राजनीतिक दुर्नीतियों से निर्देशित प्रशासनिक क्रूरता अपने सोलहो कलाओं से नागरिक-जीवन की हर साँस पर पहरा दे रही थी। चारो ओर आतंक का वातावरण था। इस पीढ़ी की मनोभाषिकी इसी धुँधले वातावरण को टटोलते हुए तय हुई।
गणनीय है कि इस पीढ़ी के लगभग रचनाकार आज तक रचनाशील हैं और वे फिर से नवीनतम भारत के एक ऐसे अघोषित आपातकाल भोगने को विवश हैं, जो अतीत के घोषित आपातकाल की तुलना में कहीं तीक्ष्णतम दंश के साथ सामने है, जिसमें द्रोह-दंगों के सहारे घृणा और धार्मिक उन्माद फैलाने की उग्र कामना भरी हुई पाई गई है। इस दौर के सुकर्ताओं में करुणा, विवेक, मानवीय संवेदना सिरे से गायब है। राष्ट्रीय गरिमा के प्रति सच्चा अनुराग, सामाजिक परिष्करण के प्रति नैष्ठिक अनुरक्ति और युवाओं की विवेक-शुद्धि की ओर झाँकने का कोई उत्साह इनमें नहीं देखा गया है।
युवा से युवतर, क्रमशः प्रौढ़तर होती नौवें दशक की इस युवा पीढ़ी ने अपनी रचना-यात्र के गत पाँच दशकों में राजनीतिक-प्रशासनिक-आर्थिक विद्रूपताओं का जघन्य से जघन्य कृत्य देखा। सत्ता के आखेटकों की नृशंसताएँ शीर्ष चढ़ बैठीं। स्वयं को जनसेवक बतानेवाले लोग जनसामान्य के लिए अनाज-पानी-पवन-प्रकाश के देवता और भूख-प्यास-इच्छा-अभिलाषा के दाता बन बैठे। द्रोह-दंगों, घपलों-घोटालों और फिरौती के लिए अपहरणों की अन्तहीन शृंखला चल पड़ी। लोक सेवा आयोग द्वारा परीक्षित देश-दुनिया के सूक्ष्मतर ज्ञानी लोग प्रशासनिक महकमा सँभालते ही रानीतिक मदारियों के हाथ की कठपुतरी बन गए। उल्लेखनीय है स्वयं को पब्लिक सर्वेण्ट (जनसेवक) कहनेवाले इनलोगों की टोली चाहती, तो न ये कठपुतरी होते, न वे मदारी; पर ऐसा कभी नहीं हुआ।
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विगत पाँच दशकों की लोकतान्त्रिक व्यवस्था को तटस्थ भाव से विश्लेषण करने पर हर किसी को स्पष्ट होगा कि भारत की जिस आजादी को छठे-सातवें-आठवें दशक के भारतीय रचनाकार वास्तविक आजादी मानने को तैयार न थे; वह स्थिति बाद के दशकों में भी, बल्कि आज तक न केवल बनी रही, बल्कि जन-मन पर अतिचार और अत्याचार का सिलसिला बना रहा। जीवन-संग्राम के निरुपाय-निस्सहाय योद्धा, अर्थात् सामान्य नागरिक की एक-एक साँस, अस्तित्व पर मँडराते संकटों से जूझने में खर्च होती रही। जीवन-संग्राम में जुटे जनसामान्य का जीवन, वस्तुतः किसी संग्राम से कम न रहा। इन भोले-भाले नागरिकों की जीवन-क्रिया को भूननेवाले बहेलियों से बचाव के कोई भी रास्ते सुगम नहीं रहने दिए गए। नेता-अफ्सर-पुलिस-पत्रकार, शिक्षक-उपदेशक-पण्डित-पुरोहित...किसी भी निकाय को इनके दैन्य पर दया नहीं आई। पद-प्रतिष्ठा-स्वार्थ की साधना में तल्लीन इस दौर के बौद्धिक सामन्तों तक के भी कोई जनोपयोगी आचार नहीं दिखे; वे या तो कन्नी काटते या इन नृशंसताओं के पक्ष में तर्क ढूँढते दिखे।
स्पष्टतः इस दौर के रचनाकारों ने अपनी अग्रज पीढ़ी के जुझारूपन के सम्बल के साथ इन परिस्थितियों को अपने प्राण-मन पर झेला और गहन सूझ-बूझ के साथ अपनी रचना-दृष्टि विकसित की, सत्ता के जीवनविरोधी आचरणों का विरोध ज्ञान और संवेदना के संयुक्त उद्यम से किया। सुसुप्त चेतना के नागरिकों को तो उद्बुद्ध किया ही, व्यंग्यात्मक प्रहार से जगे हुओं को भी जगाया। राकेशरेणु ऐसे ही उद्यमों के प्रतिबद्ध उद्यमी हैं।
इन साढ़े चार दशकों की राजनीतिक-प्रशासनिक-आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियों की इन विसंगतियों के परिप्रेक्ष्य में ही नवें दशक में तैयार और प्रतिबद्धता से आज तक जुड़े रचनाकारों की कविताओं पर, खासकर राकेशरेणु जैसे कवि की कविताओं विचार होना सम्भव है। उक्त विवरण से स्पष्ट है कि इस पीढ़ी का निर्माण ही हुआ है विडम्बनाओं की चट्टान तले दबी दूब की फुनगी की तरह; जिसने ज्यों ही किसी भाँति खुली हवा में साँस लेने की जुगत बनाई कि राजनीतिक आपदाओं का पहाड़ श्वसन-तन्त्रिका पर टूट पड़ा।
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पण्डित जवाहरलाल नेहरू के राजनीतिक मोह-भंग और लालबहादुर शास्त्री के रहस्यमय निधन के तत्काल बाद से ही भारतीय लोकतन्त्र की वर्द्धिष्णु क्रूरता और खूँखारपन सक्रिय था। पार्टी टूटने के कारण अल्पमत में आ गई चौथी लोकसभा (सन् 1967) का समयपूर्व भंग होना, मध्यावधि चुनाव में असंगत आचरण से गद्दी हथियाना, भेद खुलने की खिसियाहट में देश की जनता पर आपातकाल थोपना, ढाई बरस में ही कालकवलित छठी लोकसभा (सन् 1977) की वैकल्पिक सत्ता का उत्तरोत्तर क्रूर होना, सातवीं लोकसभा (सन् 1980) की कमान फिर से कांग्रेस पार्टी के हाथ जाना...सब के सब नौवें दशक के कवियों की मनोभाषिकी की पृष्ठभूमि थी।
इन्दिरा गाँधी की हत्या (31.10.1984) के बाद राजीव गाँधी के नेतृत्व में गठित आठवीं लोकसभा (सन् 1984) ने अपना कार्यकाल तो पूरा कर लिया; पर सवा वर्ष में ही दो-दो प्रधानमन्त्री बनानेवाली (पहले विश्वनाथ प्रताप सिंह, फिर चन्द्रशेखर) नौवीं लोकसभा (सन् 1989) ने एक बार फिर सन् 1991 में देश पर आम चुनाव थोप दिया। जाहिर है कि इस देश का ऊबा हुआ नागरिक लोकतन्त्र के मन्दिर ‘संसद’ में कभी अपना सुचिन्तित प्रतिनिधि नहीं भेज पाया, हर चुनाव में विकल्प ही टटोलता रह गया। संसद में जुटे जनप्रतिनिधि कभी जनहित की बात नहीं कर पाए; जनसंसाधनों के लूट-पाट में सदैव ही व्यस्त रहे।
राजीव गाँधी की हत्या (21.05.1991) के बाद, दसवीं लोकसभा (सन् 1991-96) का चुनाव जीतकर सत्तासीन हुई पी.वी. नरसिंहराव के नेतृत्ववाली सरकार भ्रष्टाचार के संस्थानीकरण में संलिप्तत रही। इनके घिनौने कार्यों, घपलों-घोटालों की लम्बी सूची ने भारतीय परिवेश को अनास्था और मूल्यहीनता का शिकार बना दिया। सन् 1996-1998 तक के बाइस महीनों में देश को तीन-तीन प्रधानमन्त्री देनेवाली ग्यारहवीं लोकसभा और तेरह महीने (सन् 1998-1999) की आयुवाली बारहवीं लोकसभा की करतूतों से किंकर्तव्यविमूढ़ जनता हतप्रभ थी। मात्र चालीस महीनों में तीन-तीन आम चुनाव का बोझ ढोनेवाले देश की तेरहवीं लोकसभा (सन् 1999-2004) ने राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन के नेतृत्व में अपना कार्यकाल अवश्य पूरा किया, पर वर्षों से सत्ता की प्यास में जीभ लपलपाती इस दल की अनन्त लालसाएँ थीं। समय कम था, गठबन्धन बचाने के लिए सदस्यों के प्रतिशोधात्मक उद्वेगों को सहलाना हर सरकार का धर्म होता है!
घपलों-घोटालों की क्रिया में मनमोहन सिंह के नेतृत्व में संचालित संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धनवाली चौदहवीं और पन्द्रहवीं लोकसभा (सन् 2004-2014) भी पीछे नहीं दिखी। राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक गठबन्धन के नेतृत्व में आहूत सतरहवीं, अठारहवीं, उन्नीसवीं लोकसभा (सन् 2014-2024) के प्रशासनिक वातावरण में संचालित भारतीय समाज की जीवन-व्यवस्था हमारे समक्ष है; जिसमें सामुदायिक परिवेश से मानवीय प्रेम और सौहार्द-संवेदना कुछ इस तरह लुप्त है, घृणा और प्रतिशोध का भाव इस तरह अड्डा जमाए है, ध्वंसवादी लिप्सा इस तरह सवार है कि आम नागरिक अपनी ही विरासत को ध्वंस कर अपनी अयोग्य संस्तुति देने में संलिप्त हो गया। भारतीय दर्शन के मूल सूत्र ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ से परांग्मुख, समूह विशेष के लोग ध्वंस और नामालूम अपराधों का प्रतिशोध प्रतिपक्ष से लेने के उन्माद में बिलबिलाए हुए हैं। नवें दशक के कवियों ने सिलसिलेवार विसंगतियों भरी ऐसी ही प्रशासनिक व्यवस्था में जी रहे समाज की वास्तविक छवियों को रेखांकित करना अपना दायित्वव माना; जिनके समानान्तर उनका रचनात्मक उद्यम युवा से प्रौढ़तर हुआ।
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राकेशरेणु इसी पीढ़ी के सुपरिचित कवि हैं। इन्होंने गहनतम समझ-बूझ के साथ, अपने समय की संवेदना को, अपनी कविताओं में उतारने की चेष्टा की और सफल हुए। अब तक प्रकाशित उनके तीन संग्रह हैं --‘रोजनामचा’ (1994, जगतराम एण्ड संस), ‘इसी से बचा जीवन’ (1919, लोकमित्र प्रकाशन, उसी वर्ष इस संग्रह का दूसरा संस्करण भी प्रकाशित हुआ) और ‘नये मगध में’ (2022, अनुज्ञा बुक्स )। कुछेक पुनरावृत्त शीर्षक छोड़कर तीनो संग्रहों में कुल 183 कविताएँ हैं, जिनमें से 39 के करीब प्रेम कविताएँ हैं। जनक-जननी-भ्रातृ और सुत-मित-रमणि-समाजपरक प्रेम भी जोड़ने पर यह संख्या 60-65 के आसपास जा सकती है। जाहिर है कि यह प्रेम किसी तरुणाई के तरंग का उच्छ्वास नहीं, जीवन और जीने की बुनियादी शर्तों से जुड़ी अनुरक्तियों वाला प्रेम है। वैसे प्रेम इनकी अधिकांश कविताओं का आधार-तत्त्व है; किसी न किसी स्वरूप में प्रेम उपस्थित हो ही जाता है--राष्ट्र-प्रेम, समाज-प्रेम, परिवेश-परिष्करण-प्रेम, जन-जन की आकांक्षाओं -लालसाओं की पूर्ति के लिए प्रेम...कहें कि इनकी अधिकांश कविताओं की आधारभूमि प्रेम ही है। सम्भवतः इसी कारण इनकी कविताओं में अत्यन्त कोमलता से कहे गए प्रसंगों में व्यंग्य की धार और फटकार की टंकार आवेगमय हो उठी है। कविता के अलावा इन्होंने समय-समय पर वैचारिक गद्य भी लिखा है। कुछ वैचारिक लेखन का एक संकलन सन् 2025 में प्रकाशन संस्थान से प्रकाशित हुआ है, जिसमें उनकी वैचारिकता के नमूने परिलक्षित हैं।
समकालीन सन्दर्भ और सामाजिक मनोदशा को भली-भाँति रेखांकित करती कुल उनचास कविताओं के उनके पहले संग्रह आवरक पट्टिका लिखते हुए संजीव आनन्द ने सही उचारा है कि छल, प्रपंच, चालाकी, दुष्टता, विश्वासघात से भरी इस दुनिया में राकेशरेणु की कविताएँ दुर्लभ मानवीय सरलता और विश्वास को पुनस्र्थापित करती हैं। उनके लिए समझ के साथ मानवीय सरोकारों को अभिव्यक्ति देना ही कविता लिखना है। सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन की अद्यतन चिन्ताएँ उनकी कविताओं में मुखर दिखती हैं। शब्द और संवेदना की आँचलिकता उनकी कविताओं में परम्परा-बोध के संकेत देती हैं।
सांस्कृतिक विरासत, राजनीतिक-व्यवस्था और शासन-पद्धति हर राष्ट्र के नागरिकों को पहचान देती है; जीवन-संचालन की पद्धति सिखाती है; उस पद्धति में जनाकांक्षाओं की रक्षा का आश्वासन देती है; जो दुर्योगवश स्वाततन्त्रयोत्तरकाल से ही भारत में अनुपस्थित दिखे। आपातकाल आते-आते यह परिस्थिति और दुर्वह हो गई। सत्ता सुरक्षा में संलिप्त शासकों के लिए जनजीवन की लालसाएँ निरर्थक और उपेक्षणीय हो गईं। उस दुर्वह परिवेश में प्राणपन से जीवन-संग्राम करते समुदाय का दैन्य और पूर्ववर्ती रचनाकारों की करुणा से तादात्म्य स्थापित करते हुए जिन किशोरों की भावुक और सृजनशील पीढ़ी आँखें खोल रही थी; अपने चिन्तन की दिशा तलाशते हुए राष्ट्र को समझने की चेष्टा कर रही थी; गत शताब्दी के नौवें दशक में प्रविष्ट उसी पीढ़ी के प्रतिबद्ध कवि राकेशरेणु चारेक दशक से रचनाशील हैं; उनका पहला कविता-संग्रह ‘रोजनामचा’ उन्हीं विकृत परिस्थितियों का चित्र-संकलन है।
शासकीय प्रभुत्व सुरक्षित करने के उद्योग तले, उस दौर के सामुदायिक परिवेश में जितनी भी विकृतियाँ पनपीं, उनमें सबसे विकराल विकृति बेरोजगारी की थी, जो स्वियं अनेक आपराधों की जननी बन गई थी। ‘रोजनामचा’ में संकलित इस शीर्षक की शृंखलाबद्ध पाँच कविताओं में उन्होंने रोजगार पाने की चिन्ता, प्रयास, विफलता, विफल होकर घर लौटने के बाद की दिनचर्या, व्यतीत करते समय की कुण्ठा, किसी तरह कोई रोजगार अपना लेने के बाद की विकृतियों को उन्होंने बड़े ममत्व से रेखांकित किया है। इस शृंखला की पाँचवीं कविता ताड़ी बेचकर जीवन बसर करनेवाले पति-पत्नी बुधुआ-सुखिया के अपनाए हुए रोजगार का वृत्तान्त है; जहाँ थकान मिटाने या श्रम से जुटाई ताड़ी का सुख लेने के लिए अन्य पीनेवालों के साथ वह स्वयं एक पौआ लेकर कोने में बैठ जाता है, अड्डे का आचार निभाने के लिए हर आने-जानेवालों को सलाम भी करता है, पर ताड़ी पीनेवालों की बहकी नजरों के बीच चखना-ताड़ी परोसती अपनी पत्नी --
सुखिया की देह पर
परधान के
बहके हाथों का स्पर्श
बबूल के काँटों की तरह
महसूसता है
भुलाने के लिए
सामने का सच
पूरा पौआ उतार लेता है
हलक के नीचे...
परधान को जाने से पहले बुधुआ एक बार फिर कहता है सलाम; पर श्रमपूर्वक पेड़ से ताड़ी उतारकर बेचने का रोजगार अपनानेवाला यह श्रमिक अपनी इज्जत, अपनी पत्नी के आबरू की चिन्ता में कुण्ठित हो रहा है, रोजनामचा की यह विडम्बना इस कविता में एक साथ बुधुआ के लिए करुणा और परधान की कुत्सित मनोदशा के लिए जुगुप्सा उत्पन्न करती है।
ताड़ी पीने आए परधान के लिए सुखिया की देह पर हाथ रखना तो उसकी विकृत यौनिकता भर है, पर सुखिया और बुधुआ को यह मामूली-सी घटना कितनी गैरमामूली पीड़ा देती है, यह कोई धनपति नहीं समझ सकता। यह उस दौर का आचरण है, जब ‘इज्जत की रोटी’ जैसे पद मुहावरों में अर्थवान दिखते थे। बीती शताब्दी के अन्तिम चरण में देश-विदेश और अन्तरिक्ष की बात करनेवाली सामाजिक-राजनीतिक-प्रशासनिक व्यवस्था भी कस्बाई गरीबों की इज्जत में बात-बेबात दाग लगा देते थे ।
संग्रह की पहली ही कविता ‘नजीर अकबराबादी के लिए’ में व्यक्त कवि-चिन्ता, दुष्काल में पूर्वजों को स्मरण कर सामथ्र्य जुटाने की पारम्परिक प्रथा को बल देती है। पश्चिम से आकर अड्डा जमा बैठी विस्मृति के आख्यान ने यहाँ नई संस्कृति शुरू कर दी है। बच्चों के जन्मदिन मनाते समय बीत गए वर्षों के हिस्से की मोमबत्तियाँ बुझाकर वर्तमान वर्ष की मोमबत्ती को सुरक्षित रखने की वृत्ति दुर्योगवश भारत में बढ़ गई है, पर यह भारतीय सभ्यता का आचरण नहीं है; यहाँ अतीत को अन्धकारमय करने की परम्परा नहीं है। भारतीय सभ्यता में वर्तमान को प्रेरित करने के लिए अतीत को सँभालकर रखा जाता है, ताकि वर्तमान के भटकाव को रोका जा सके। दुविधा में पूर्वजों को स्मरण करना भारतीय सभ्यता का मूल आचरण है। पूर्वजों की पुण्य-तिथि या जयन्ती मनाने की पद्धति इसी के संकेत हैं। पूर्वजों की जीवन-क्रिया से यहाँ लोगों के प्रयाण-मार्ग प्रशस्त होते रहे हैं। भारत देश में ऐसा सदैव से होता आया है। अतीत-विस्मृति यहाँ की चेष्टा का अंश नहीं है। पर बीसवीं शताब्दी के अन्तिम चरण के भारतीय बौद्धिकों की मनोभाषिकी से जिस तरह शाश्वतता और तार्किकता गायब होने लगी, तटस्थता और आत्मकेन्द्रिकता घर करने लगी, राकेशरेणु ने नजीर जैसे एकनिष्ठ कवि से सपने में फटकार सुनी --
कवि क्या कर रहे हो तुम लोग
मेरे शहर में दंगा हुआ पहली बार
पहली बार बेकसूर मारे गए वहाँ
पहली बार रिश्ता टूटा यकीन का
... कवि, जब घर जल रहा हो तुम्हारा...
तुमसे बहुत उम्मीदें हैं तुम्हारे समय और समाज को
तुम कब तक वसन्ती-गीत गाओगे
कब तक खुद को झुठलाओगे
कब तक सोओगे...
सपने में पूर्वज कवि की यह फटकार, वस्तुतः कवि की अन्तेश्चेतना है, जिसमें यह बोध समाहित है कि सृजनशील जीवन की सार्थकता उपलब्धि के आखेट में नहीं, जनजागृति के उद्योग में है।
जहाँ बच्चे हैं आँखों में चमक लिए उम्मीद की
जहाँ कन्धे पर दोस्त का है हाथ
और आँखों में प्रियतम की आँखें
जहाँ विश्वास और प्रेम जीवित है अभी
वहाँ प्रकाश है, चिरन्तन प्रकाश
अन्धेरा कैसे व्यापेगा वहाँ?
‘अन्धेरा’ शीर्षक कविता के उक्त अंश में बच्चों के आँखों की चमक और प्रेम की शक्ति पर अगाध कवि-आस्था विलक्षण है। इस आस्था के बूते अन्धकार के दुर्ग पर विजय पाने की चेष्टा कवि के सकारात्मक पक्ष को उजागर करता है।
तब से अब तक
यानी बरस पाँच से
चौबीस तक
प्रश्नों का सन्धान ही
लक्ष्य रहा मेरा
लेकिन माँ
गत पाँच वर्षों से
चूक रहा हूँ मैं --
नित नए सवाल
देते हैं चुनौती...
चुकती उम्र के साथ-साथ
बदलता रहा जा रहा हूँ स्वयं
एक प्रश्नवाचक में...
बचपन में माँ ने सिखाया कि ‘हल करोगे जितने सवाल/सफल रहोगे जिन्दगी में उतने ही’, पर तरुणाई आते-आते यह सीख कवि-चेतना में ‘एक सवाल’ बनकर खड़ी हो गई --
संरचना के आधार पर सहजता से अनुमेय इस कविता का रचना-समय आठवीं (सन 1984) लोकसभा का दौर हो सकता है; जब नीति-विवेक से संचालित जीवन के कोई सूत्र समाधान नहीं दे रहे थे; नैष्ठिक आचरण मनुष्य को शासकीय विधान में प्रश्नवाचक बनाने लगा था। उल्लेख सुसंगत होगा कि भावुक और सृजनशील मानस में प्रतिरोध की धारणा यूँ ही नहीं घर कर जाती; जन, जीवन और जनतन्त्र की सहजता खण्डित करनेवाली व्यवस्था के प्रति कोई यूँ ही प्रतिपक्ष का मार्ग नहीं अपनाता। अपराध को राजनीतिक संरक्षण और राजनीति को आपराधिक दिग्दर्शन देने की रवायत, लोकतान्त्रिक पराभव का चरम-काल होता है। नैतिक और विवेकशील जीवन के अनुगामी, ऐसे समय में स्वयं को ही प्रश्नवाचक दृष्टि से देखेंगे।
तुम आरम्भ से अन्त तक
आक्रामकता प्रदर्शित करते कायर
लहूलुहान अभिमन्यु के वक्ष में बर्छी घुसेड़ विजयोन्माद में चिल्लाते
मैं ऊपर से नीचे तक
कायरता ओढ़े आक्रामक
कल्पना में तोड़ता तुम्हारा जबड़ा...
पर्यायवाची नहीं हो पाएँगे हम तुम्हारा
‘पर्यायवाची नहीं’ शीर्षक कविता के उक्त अंश में कवि का लक्ष्य संज्ञाओं और क्रियाओं का अर्थ समझाना नहीं है, बल्कि विपरीत आचार में संलिप्त दो पक्षों (शासक-शासित, शोषक-शोषित) के नग्न आचरण को प्रकाश में लाना है। ‘हत’ और ‘हत्यारे’ एक दूसरे के पर्याय कभी नहीं हो सकते, दोनों की मूल-वृत्ति भिन्न होती है, एक का संघर्ष जिजीविषा के लिए होता है, जबकि दूसरे का वृत्ति-वर्चस्व के लिए। नौवें दशक की इस शासकीय क्रूरता का सातत्य आगे भी बना रहा, पर यहाँ कवि की सकारात्मकता श्लाघनीय है कि हत्यारे लाख जतन करें, हम नहीं बदलेंगे, हम उसके पर्यायवाची नहीं होंगे। दोनो पक्षों के विशेषण या कि संज्ञा का पार्थक्य प्रकट करती यह कविता महत्त्वपूर्ण है।
पिता की स्मृति में लिखी अपनी अनेक कविताओं में राकेशरेणु बार-बार चिन्तित हुए हैं। ‘पिता के लिए’ कविता में वही चिन्ता, आस्था और कृतज्ञता प्रकट हुई है। जिस पिता का जीवन-संघर्ष देखते हुए कवि ने अपनी जीवन-दृष्टि विकसित की, दैन्य की आग में जलते, संघर्ष करते उस पिता के जीवट की प्रशंसा करते हुए, वस्तुतः वे पितृगाथा नहीं गा रहे हैं, अपनी वैचारिकता के उद्गम का संकेत भी दे रहे हैं, और उसे अपने अग्रिम संचरण में सम्बल बनाने की घोषणा भी कर रहे हैं। पूर्वजों की निष्ठा पर कवि की यह आस्था सराहणीय है। उन्हें चिता पर तुलसी की पौध लगाने से कोई परहेज नहीं है; पर उनके बलिदान को वे उन रस्मों में नहीं, अपने भीतर जिन्दा रखना चाहते हैं...
निकाल लाऊँगा
अपनी हथेलियों पर
दबे अंगारे और समेट लूँगा सब
अपने सीने में
मरने/बुझने नहीं दूँगा उसे
मेरे साथ-साथ जिएगा वह
इसी तरह कवि को ‘लालटेन’ की उपादेयता पर पिता का स्मरण विलक्षण है। अन्धकार पर विजय पाने के मानव निर्मित यन्त्र-लौ की कई उपादेयता है, पर जब वे पिता के रोबदार फरमान दुहराते हैं कि --
जलने दे इसे
जब तक कि अन्धेरा है
जलने दे/जब तक कि जगे हुए हैं लोग
इस यन्त्र की उपादेयता अचानक से एक विचार में तब्दील हो जाती है। रोशनी के सहारे सामुदायिक जीवन का यह जागरण राष्ट्रहित का सन्देश देने लगता है।
‘अब जबकि तुम चली गई हो माँ’ शीर्षक कविता में माँ के गुजर जाने के बाद, साथ बिताए गए दिनों की स्मृतियों को मार्मिकता से स्मरण किया है। ‘निर्माण का सुख’ कविता में चिड़िया द्वारा मनुष्य को दी गई फटकार एक बड़ी विडम्बना की ओर इशारा है। विदित है कि मनुष्य की निर्माण-वृत्ति अपनी कीर्ति ऊँची करनेे, औरों के निर्माण को ध्वस्त करने की लिप्सा से भरी रहती है। इस छोटी-सी कविता में बात-बेबात ध्वंसोन्मुख मनुष्य को तिनका-तिनका कर घोसला बनानेवाली चूँ-चूँ करती चिड़िया ने सही धिक्कारा कि ‘तुम क्या जानो निर्माण का सुख?’
बाल-वृत्ति के चित्रों के साथ ‘बच्चे’ कविता सम्मोहन से भरी हुई है, जिसमें प्रेम और प्रकृति पर वर्चस्व-व्यसनियों को अँगूठा दिखाते, प्रतिबन्धों को निरस्तर करते बच्चों की स्वच्छन्द वृत्ति दर्ज हुई है। ‘ऋषिकेश’ शीर्षक कविता का रूपक गहन सूझ-बूझ से आया है। भौतिकता में यह बेशक कवि के सहोदर हैं, पर प्राकृतिकता में पर्वत-शृंखला का एक क्षेत्र है। दोनों के प्रति कवि की आस्था और सम्मोहन स्पष्ट दिखता है, जिसमें दोनो (सहोदर भी और शैलखण्ड भी) अपने सीने पर उगे पेड़ों के पोषण के लिए अपना सब कुछ निचोड़ देता है। प्रकृति और सहोदर के प्रति ऐसा श्लेषमय रचनात्मक कौशल प्रशंसनीय है।
चक्की में गेहूँ के साथ ‘घुन’ का पिसना एक सहज मुहावरा है, पर वही ‘घुन’ जब अपने और आनेवाली नस्लों के हित में दादी के जाँते के विरुद्ध लड़ने के प्रण के साथ पिसे, तो इस मुहावरे का प्रचलित अर्थ परोक्ष हो जाता है, और निस्सहाय ‘घुन’ दुर्दम्य साहस का सिपाही बन जाता है। यह कविता उस दौर की आक्रामक परिस्थितियों और शासकीय नीतियों के विरुद्ध एक चुनौती के साथ खड़ी होती है। यहाँ दादी के जाँते में ममता नहीं, दैन्य-दलन की क्रूरता है।
हकदार को अपने हिस्से के बचाव का सन्देथश देती कविता ‘लुटेरों के खिलाफ’ कवि- संवेदना के उज्ज्वल स्वरूप को रेखांकित करती है, जहाँ चिड़ियों के रूपक से एक बड़े विमर्श का संकेत दिया गया है। यहाँ अपने खेतों में फसल चुगती चिड़ियों को कवि भगाते नहीं, उसका अधिकार सुनिश्चित करते हुए, सावधानी बरतने का संकेत देते हैं --
बहुत जरूरी है
सावधान रहना तुम्हारा
परजीवी चिड़ियों/छुपे सियारों/लुटेरों से
सतर्क रहना
विचारणीय है कि यह परजीवी चिड़िया, यह छुपा सियार, यह लुटेरा कौन है? बहादुरी के साथ नृशंसता के शिखर की ओर बढ़ती व्यवस्था में दूसरों के हिस्से का अनाज पानी लूटने वालों से सावधान करने की यह कवि-चिन्ता, यकीनन उनकी ऊर्जस्वित चेतना का संकेत है। यहाँ मनुष्य ही नहीं, कवि का संवेदनात्मक सरोकार पक्षियों और प्राकृतिक अवदानों तक से जीवन्त हो उठा है।
लगभग तीन दशक पहले लिखी गई इनकी कविता ‘आजादी का जलसा’ आज भी उतनी ही समीचीन और प्रासंगिक है, जितनी तब रही होगी। लोकतन्त्र के देवताओं के फर्जी आँकड़ों की यह शैल्पिक सूची बेशक तब भी और आज भी हास्यास्पसद हों, पर जनसामान्य के लिए तो यह सूची जुगुप्सा ही पैदा करती है --
इससे पहले कि खत्म हो जलसा
राजा खड़ा होता है बुलेटप्रूफ शीशे के भीतर
बताता है नचाते हुए हाथ
कि उसने क्या-क्या किया बीते साल
और क्या कुछ करेगा आने वाले बरस में
कि वह कराएगा सड़कें और चौड़ी राजधानी की
कि वह नए हथियार मँगवाएगा सुपर कम्प्यूटर के साथ
कि कुछ अन्य देशों में उतारेगा सैनिक
कि वह नई अर्थव्यवस्था फैलाएगा। देश-विदेश
कि देश तेजी से करेगा कवायद
अगले जलसे की ओर...
राजा, राजसभा और राजकीय करतबों की यह बड़ी विडम्बना है कि घोषणाओं के बाद राजा चला जाता है, भीड़ लौट जाती है, साँझ से पहले लोग घर पहुँच जाना चाहते हैं, वहाँ आई कुछ लड़कियाँ खो जाती हैं, पर आजादी के जलसे में मशरूफ भारतीय चेतना? उस चेतना का क्या? चेतना अब भीड़ में तब्दील हो गई है। भीड़ केवल सुनती है। उतना ही समझती है, जितने की उसे अनुमति है। भीड़ केवल इन्तजार कर सकती है, सुबह का, राजा का, मोर के रथ पर सवार आते राजा का। ऊँचे मंच या मचान पर चढ़ जानेवाले राजा का। भीड़ केवल तालियाँ बजाती है। कदाचित इस कविता में व्यक्त ऐसे व्यंग्य से भीड़ को मुक्ति मिले और फिर से वह सचेत मनुष्य हो जाए।
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चौहत्तर कविताओं के इनके दूसरे संग्रह (इसी से बचा जीवन) का अग्रेषण लिखते हुए, बीसवीं शताब्दीं के विशिष्ट ब्रिटिश-अमेरिकी कवि विस्टन ह्यूग ऑडेन के हवाले से भारत यायावर ने इनकी कविताई को ज्ञान का खेल बताया है, और सही बताया है। क्योंकि सन् 1967 के बाद से भारतीय लोकतान्त्रिक-प्रणाली में जनाकांक्षाओं के साथ जैसा आखेटक खेल खेला जाने लगा, उसमें ज्ञानात्मक संवेदना और संवेदनात्मक ज्ञान के बिना रचना का लक्षित प्रभाव सन्दिग्ध होता। हिन्दी कविता में ऐसी युक्तियों के उपयोग की संस्तुति श्रेष्ठ कवि गजानन माधव मुक्तिबोध कर चुके थे।
राकेशरेणु के इस संग्रह की कविताओं में स्त्री और प्रकृति के सारे ही रूपों में आस्था, प्रेम और जीवन के रचाव के संकेत दिखाए गए हैं। चेतना-सम्भूत उदात्त जीवन-दृष्टि से पगी उनकी ये कविताएँ वस्तुतः स्त्री और प्रकृति के पुनरानुशीलन की अनुशंसा करती हैं।
इस संग्रह की आरम्भिक छह कविताएँ ‘स्त्री शृंखला’ की हैं, जिनमें उन्होंने धरती और प्रकृति की सारी उदारता स्त्रिायों में देखी है; वे उधेड़बुन में हैं कि सिरजने और स्नेह करने की क्रिया या आदत स्त्री ने भू-नभ-जल-वात से सीखी या स्त्री से इन सब ने! इस शृंखला में जीवन में स्नेह और सन्तुलन बनाए रखने के स्त्री-कौशल के प्रति सम्मान और स्त्री होकर स्त्री का दुःख समझने की कवि-इच्छा प्रशंसनीय है।
दशरथ माँझी की प्रेम-कथा केवल पति-पत्नी की प्रेम-कथा नहीं है, पहाड़ के अवरोध के कारण पत्नी के असामयिक निधन का प्रतिशोध ही नहीं, आनेवाली पूरी सन्ततियों को उस अवरोधक से मुक्ति दिलाने का संकल्प है, जिसने छेनी से 270 हजार घनफुट पत्थर काटकर पहाड़ की छाती चीर दी और बिहार के अतरी-वजीरगंज के बीच की दूरी को 55 किलोमीटर से घटाकर 15 किलोमीटर कर दिया। बाइस वर्षों (सन् 1960-1982) के उनके इस अथक संकल्प का परिणाम जब सामने आया, तो उनके इस श्रम पर अनेक भाषाओं के रचनाकारों ने कुछ न कुछ रचा, पर भारतीय लोकतन्त्र के कितने बौद्धिकों और राजनीतिज्ञों ने उस शैल-पुरुष से प्रेरणा ली, इसकी गणना अभी भी शेष है। राकेशरेणु की ‘दशरथ माँझी’ शीर्षक कविता जब-जब पढ़ी जाएगी, अपनी दिवंगत प्रिया ‘फाल्गुनी देवी’ के प्रेम में और भावी पीढ़ियों के लिए सुविधा जुटाने के लिए किए गए संकल्पा में, उस संकल्प-पुरुष नीलकण्ठ को स्मरण किया जाएगा। इस घटना के नायक को कवि ने हमारे समय का नीलकण्ठ यूँ ही नहीं कह दिया है। यह एक शब्द भर नहीं है, भारतीय परम्परा में शिव को नीलकण्ठ कहा जाता है, क्योंकि उन्होंने अपने समय का विष पीकर सभी देवताओं को सुविधा दे दी। सृष्टि का कल्याण चाहना ही शिव की सार्थकता को रेखांकित करता है। भारतीय सभ्यता में शिव को सांसारिक व्यवस्था का प्रेमी माना जाता है। वे सृष्टि से प्यार करते हैं, इसलिए जहर पीकर नीलकण्ठ हो गए। दशरथ माँझी भी प्यार करते थे। इसलिए नीलकण्ठ न सही, नीलकण्ठ जैसा बनने की चेष्टा की और सफल हुए।
इस कविता का एक अगोचर पक्ष अलग से उल्लेखनीय है कि संकल्प और शक्ति, दोनों के सही तालमेल से प्रेम की तरलता तक आसानी से पहुँचा जा सकता है, उद्यम की सफलता सुनिश्चित की जा सकती है। जनतन्त्र के देवताओं का ध्यान उधर जाए या न जाए, दुनिया उसे बेशक बौड़म कहे, पहाड़ जैसा अडिग संकल्प करनेवाले उस अडिग सिपाही को सबसे पहले उस पहाड़ ने ही पहचाना, जिसकी उन्होंने छाती चीर दी। राजनीतिक पत्ते फेंटनेवाले जुआरी उन्हें बाइस वर्षों तक ताश के तिरपनवें पत्ते का बन्दर समझते रहे, पर उसी बन्दर ने उन जुआरियों को अपने सम्मान के लिए विवश कर दिया।
वैज्ञानिकता के अवदान से आधुनिक हुआ जनमानस जब अपनी चेतना का उपयोग छोड़कर औरों का आचरण अपनाने में अपनी उन्नति का भ्रम पालने लगे, सो जाए, या जागने पर भी पूरे विश्व को सो रहा देखकर फिर से सो जाने का अभिनय करने लगे, उपग्रह द्वारा अन्तरिक्ष से भेजे गए सचित्र समाचार की नवीन संस्कृति को बड़ी उपलब्धि माननेवाले विश्व की देखादेखी करे, मानने लगे कि जगा हुआ पाए जाने पर कहीं फिसड्डी न मान लिया जाऊँ; तो ऐसे नकलची समुदाय का नजरिया ‘बदलते विश्व के बारे में’ यही होगा कि क्या फर्क पड़ेगा कि हमारे सपनों की तितलियों के पंख काटे जाएँ, किसी की प्रेयसी गुम हो जाए, किसी की पत्नी गायब हो जाए, किसी का पति, किसी का पिता गायब हो जाए? हम तो सो रहे थे! कवि राकेशरेणु को इस कछुआधर्मिता पर व्यंग्य करना ही एक मात्र उपाय दिखा।
भारतीय तरुणों को सातवीं-आठवीं कक्षा से ही भौतिक विज्ञान में आभासी गहराई और वास्तविक गहराई का मर्म समझाया जाता है; सुभद्र तो यह होता कि वे इस ज्ञान के उपयोग से अनभिज्ञ समकालीनों को विज्ञ बनाते, पर होता इसके विपरीत है। वे स्वयं सामने खड़े प्रकाश-स्तम्भ या लहराते ध्वज-विजय से सम्मोहित होकर समूह बना लेते हैं। उन्हें लूट-बलात्कार -शोषण-हत्या की लहलहाती खेती से इतर सब कुछ दिखता है। क्योंकि उन्हें किसी अभद्र पर चिन्ता करने की अनुमति नहीं है; उन्हें गीता का पाठ पढ़ाया गया है कि सकल सृष्टि में जो भी भद्राभद्र हो रहा है प्रभु-कृपा से जनहित में हो रहा है। पर कवि-चिन्ता इस क्रिया का अनुमोदन नहीं करती। उनकी राय में ऐसे ‘बदलते विश्व के बारे में’ चिन्ता करना नागरिक स्वभाव होना चाहिए; ‘प्रभु’ व्यभिचार करें तो भक्त को प्रतिकार करना चाहिए!
पर इस दुनिया की शासकीय व्यवस्था को इस कवि-चिन्ता की कोई चिन्ता नहीं है। सत्ता का वर्चस्व कायम रखने के तिकड़मों में संसार के कापालिक हुक्मरानों की संलिप्ति जगत-विदित है। धर्म और जाति उनका पसन्दीदा हथियार है, जिससे वे सारे अपराध का क्रियान्वयन करते हैं। अपराधी बनाने के ये उद्यमी पूरे जनमानस को धर्मान्ध और बर्बर बनाने की नृशंसता करते आए हैं। दुखद है कि हमारे ‘प्रभुओं’ को धोखा से भी ऐसा प्रतीत नहीं होता कि छोटे से छोटे सुभद्र सृजन की रश्मियाँ बड़े से बड़े अभद्र को ढक देती है। इतिहास मिटाकर अपनी पहचान बनाने, शास्त्रा को विरूपित करने के इन आखेटकों से कवि का ‘भय’ और जन-जन के लिए भविष्य-वाणी तार्किक है कि जनमानस सचेत न हुआ तो एक दिन संगीत थम जाएँगे, धर्मशास्त्रा धरे रह जाएँगे, शवों के ढेर में प्रियतम का चेहरा पहचानना असम्भव हो जाएगा, सुभद्र सभ्यता की सहजता और तरलता मिटाकर मनुष्य-विरोधी नई सभ्यता शुरू हो जाएगी।
भारतीय सभ्यता और सामाजिक परिदृश्य में मिथकों की अनेक कहानियाँ प्रचलित हैं। ऐसे में देवताओं के राजा इन्द्र के चालू स्वभाव से सुपरिचित जनमानस के समक्ष ‘हमारे समय में इन्द्र’ शीर्षक कविता, भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था में अन्न-पानी-पवन-प्रकाश के देवराज बने लोगों के चरित्र पर विलक्षण सन्देश देती है। प्रसंगानुकूल समसामयिक आचार्यों, पुरोहितों, पण्डों- पुजारियों, शिक्षकों-उपदेशकों-निदेशकों के छद्म अनुदेशों के रहस्योद्घाटन में भी नहीं चूकती। विडम्बाना ही है कि इन दिनों चापलूसों को कल का इन्द्र माना जाता है। ‘डाली’ पहुँचानेवालों का भविष्य सुरक्षित हो जाता है। दलालों और धनकुबेरों के लिए गोपनीय सुरंगें बनाई जाती हैं। कामनाएँ की जा सकती हैं कि भारतीय लोकतन्त्र से इन्द्र की यह परम्परा दूर हो, क्योंकि मिथकों में तपस्वी के तप-भंग की इन्द्र-प्रथा ने सदैव ही किसी न किसी अनिष्ट को न्यौता दिया है। आज के इन्द्र तो यकीनन पौराणिक इन्द्र से अधिक ईष्र्यालु और क्रूर हो चुके हैं।
बीते दिनों उत्तर-सत्य जैसे पदबन्ध दुनिया भर के साहित्य में भी मुखर हुए हैं। इस संग्रह की दो कविताओं में राकेशरेणु ने भी इस शीर्षक से अपने विचार व्यक्त किए हैं।
हजारों साल पहले
हमने दिए दुरूह शल्य-कौशल
आणविक शक्ति रही हमारे पास
हमने ही बनाए विमान, राकेट, मिसाइलें
पहले-पहल
हमने कहा केवल ध्रुव सत्य, किया सदैव सर्वश्रेष्ठ
सत्य से परे कुछ न था
श्रेष्ठता हमारी रही प्रश्नातीत
यह कौन-सी श्रेष्ठता है, जिसमें आज के वक्तवव्यवीरों को आभासी वरदानों-अनुदानों की उद्घोषणाओं के सिवा अन्य कुछ भी नहीं दिखता? हमारी पारम्परिक भव्यता निश्चय ही श्रेष्ठ है, पर श्रेष्ठ है तो उसका अनुगमन कीजिए; उसे विरूपित या ध्वस्त या परोक्ष करने की ललक तो न दिखाइए! जो नहीं है उसका आरोपण तो न कीजिए! इस कविता में कवि ने इसी शासकीय छद्म की आत्मोद्घोषणा व्यंग्यात्मक शिल्प में की है।
कुछ बरस पहले प्रख्यात इतिहासकार रोमिला थापर ने ऐसे ही प्रसंगों के लिए अपने एक निबन्ध में कहा ‘दे क्रिएट मिथ एण्डर कॉल इट हिस्ट्री’। सत्य को परोक्ष कर, मनगढ़न्त वक्तव्य मात्र को सत्य बनाने का कौशल ही उत्तर-सत्य या सत्योत्तर (पोस्ट ट्रुथ अर्थात् ‘सत्य से परे’) कहलाता है। उल्लेखनीय है कि राजनीतिक हितसाधन के लिए ऐसे भव्यार्थ सम्भूत पद और इसके अनुगमन में भ्रष्ट आचरण का उपयोग सर्वप्रथम संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति रिचर्ड मिल्हौस निक्सन (1913-1994) ने अपने ‘वाटरगेट स्कैम’ (सन् 1969-1974) को ढकने के लिए किया था। ‘सत्योत्तर राजनीति’ (पोस्ट-ट्रुथ पॉलिटिक्स) की घटिया परम्परा बनाने और उसके उपयोग से जनमत संग्रह करने की नींव उन्होंने ही रखी थी।
वस्तुनिष्ठ तथ्यों को तिरस्कृत कर जनास्था और जन-भावनाओं के आखेट की इस विचित्र प्रणाली में लोगों को प्रभावित करने के लिए भ्रामक सूचनाओं, तथ्यहीन वक्तव्यों, गढ़े गए प्रसंगों को आधिकारिक रूप से प्रसारित किया जाता है; सामुदायिक परिवेश में तथ्यहीन एवं भ्रामक प्रसंग को तथ्य की तरह स्थापित कर ‘सत्योत्तर समाज’ बनाने का उद्योग किया जाता है। ‘तथ्योत्तर’ (पोस्ट फैक्चुअल) या ‘यथार्थोत्तर’ (पोस्ट रिएलिटी) की बुनियाद पर रखी गई ऐसी विपथगामी राजनीतिक क्रिया अमेरिका से भारत भी आई, आकर बस गई। भारतीय जनमत में अब इसकी जड़ इतने गहरे समा गई है कि इससे मुक्ति के मार्ग निकट भविष्य में नहीं दिखते। वर्चस्व-स्थापन में तल्लीन, सार्वजनिक चिन्ता से परांग्मुख राजनीतिज्ञों के मनोजगत में राष्ट्रहित की चेतना का वरदान कौन देंगे?
निर्माण से पहले ध्वंस की प्रथा भारत की नहीं है। इतिहास साक्षी है कि यहाँ नया रचने के लिए किसी लेखक-विचारक-कलाकार-शिल्पी ने पुराने का ध्वंस नहीं किया, पुनर्निर्माण किया, पुरातन की बुनियाद पर ही मरम्मत की प्रथा अपनाई। आधुनिक भारतीय भाषाओं में प्राचीन ग्रन्थों के भाष्य-टीका-वार्तिक, अनुवाद-अनुकरण-अनुकूलन-आत्मासातीकरण...के सारे उद्यम भारतीय चरित्र की इसी श्रेष्ठता के द्योतक हैं। इतिहास के अन्त की घोषणा करनेवाले पश्चिमी इतिहास-हन्ताओं की प्रेरणा से अब भारत में भी ऐसे श्रेष्ठ चिन्तकों-विचारकों-सृजेताओं की बहुतायत है, जिन्हें अपने इतिहास-पुराण-प्रथा-पूर्वज भद्दे लगते हैं। सभ्यता के सप्तसहस्र वर्षों के इतिहास में ऐसी विलक्षण प्रतिभा यहाँ पहली बार प्रकट हुई है। भारतीय परम्परा तो अपने भदेस को भी भव्य बनाने की है! इधर कौशलविहीन कलाकारों की ऐसी फौज खड़ी हो गई, जो अपनी भव्यता को नकारकर, इतिहास-परम्परा-मिथक-पुराण तक को विरूपित कर, नृत्य-गायन की शैली को विकृत कर, नया रचने में लगे हुए हैं। उस विकृति के प्रशंसक जुटाने के लिए वे भी ‘सत्योत्तर समीक्षा’ और ‘सत्योत्तर विज्ञापन’ कर रहे हैं। ऐसे में राकेशरेणु की ‘विध्वंस’ शीर्षक कविता अधिक मूल्यवान दिखती है --
वे लाएँगे -- लाकर मानेंगे
एक नया युग -- धर्मयुग, पृथ्वी पर
निर्णायक है समय साल
यहीं से आरम्भ होना है नवयुग
तैयारी शुरू कर दी गई है समय रहते --
बस अभी, यहीं, इसी रात से ...
वे जो रंग न पाएँगे
उस एक पवित्र रंग में
वे काफिर कहलाएँगे
नए समय के नए सत्य और नई पद्धतियों के उद्घोष का ज्ञापन इसी तरह बना रहा तो निश्चय ही एक समय आएगा, जब सामुदायिक जीवन का विलाप तक सुनने के लिए धरती पर कोई नहीं बचेगा। ‘राजनेता’ शीर्षक से लिखी अपनी दूसरी कविता में (यह कविता इनके पहले संग्रह में भी है) कवि ने एक बड़े सत्य की ओर संकेत किया है --
जब तक हमारे बीच रहा
भरा पूरा आदमी था वह
पहले उसकी आँखें और कान गायब हुए
फिर उसका सिर और बाहें और पाँव
जब से हमारे बीच से गया वह
महज एक आढ़तिये की सेफ ...
...सन्दूक बन गया है
मनुष्य से सन्दूक बन जाने (राजनीतिकर्मियों के) की प्रक्रिया के घिनौने स्वरूप पर रची गई यह कविता जुगुप्सा उत्पन्न करती है। पिछले जमाने में ऐसे विषय को आत्मपरक शैली में रेखांकित करते हुए राजकमल चौधरी ने पहले स्वयं को बीमा कम्पनी का एजेण्ट और बाद में सांसद बनाकर व्यंग्य किया था। सत्योत्तर समाज के भावकों को वैसी अभिव्यक्ति आत्मपरक न लगे, इसलिए राकेशरेणु ने उद्घोषणात्मक परिचय देने की चेष्टा की है। क्रमशः उसके अंग-भंग होने, मनुष्य होने के मूलभूत वैशिष्ट्य खो देने, दृष्टि-संज्ञान-चेतना-क्रिया-संचरण की सारी ही क्रियाओं के सहायक अंग खो देने की पद्धति भी व्याख्येय है।
आँखें होती हैं सत्य-शिव-सुन्दर देखने के लिए; कान होते हैं मधुर ध्वनि सुनने के लिए; सिर होते हैं बेहतर सोचने के लिए; हाथ होते हैं अच्छे कर्म करने के लिए; पाँव होते हैं सही दिशा में चलने के लिए, विकास करने के लिए; पर वे राजनीति में क्या गए कि एक-एक कर उनका सब कुछ गायब हो गया, अब वे माँस के लोंदे भर हैं। व्यापारियों के इशारे पर चलने वाले ठीकरे या बन्दूक!
गिरगिट के रंग बदलने की पारम्परिक मान्यता, धूर्तों के लिए इसकी उपमा दिए जाने की प्रथा, घरेलू वातावरण में इसके भयकारी होने के चलन से विज्ञान-मत की असहमति के बावजूद ‘गिरगिट’ कविता में विलक्षण अभिव्यक्ति हुई है। चकित हुआ जा सकता है कि जो प्राणी हमारे अनाज में घुन की तरह नहीं लगता, चूहे की तरह अन्न-वस्त्रा-दस्तावेज नहीं कुतरता, प्लेग का भय नहीं देता, कीट-पतंगों की सफाई करता...ऐसे लघु-उदर जीव से समाज की इतनी स्थापित वितृष्णा क्यों? इस कविता के बहाने व्यावस्थापतियों को एक बार रूपक में सोचना होगा कि हमें दूसरों के हिस्से की सुविधा हड़पनेवाले लम्बोदरों से घृणा करनी चाहिए या इस लघु-उदर सन्त से? इस कविता के बहाने समाज में बेवजह परम्परा बन गई रूढ़ियों पर भी सोचने की जरूरत है। ‘फैसला’ शीर्षक कविता में कवि ने कुत्तों की सभा बुलाकर, कुत्तों के संवाद द्वारा रूपकार्थ में समकालीनता को विलक्षण ढंग से रेखांकित किया है।
जिस भारत में मेसोपोटामिया तक से आए व्यापारी यहीं के हो गए, उस भव्य विरासत वाले देश के किसी शहर या प्रान्त में स्वदेशियों को भी प्रवासी या घुसपैठिया कहा जाने लगा, उसका प्रवेश वर्जित हो गया, वे स्थानीय संसाधनों पर बोझ बन गए। पड़ोसी बस्तियों से उनकी बस्तियों में आए कीट-पतंग हो गए। वजीरे दाखिला ने इसे विरोधियों की साजिश का हिस्सा माना। ऐसे लोकतन्त्र के सुवक्ताओं पर कवि ने कुत्तों के सभासद का रूपक देकर बेहतरीन व्यंग्य किया है।
बेहतरीन प्रयुक्तियों से बनी विलक्षण कविताएँ ‘चुपचाप’, ‘प्रतीक्षा’, ‘शुभकामनाएँ’, ‘माँ का अकेलापन’, ‘अँधेरा’, ‘लहरें’, ‘अप्सरा’, ‘अनुनय’ आदि में साहस, उत्साह, दुराशा में भी आशा की खोज, जीवन के अलक्षित सुख-दुख एवं राग-विराग के रूपक, सृजन-सम्भावनाओं की ओर गतिकता के लिए सम्मोहनादि भरा हुआ है। इसी तरह ‘जड़ें’ में प्रकट प्रेम का उत्कर्ष कि ‘प्रेम करने वाले किसी का तिरस्कार नहीं करते’ हमारे समय की जरूरत है। यकीनन समय के शासकों-उपदेशकों को जानने की जरूरत है कि सचमुच जड़ें ही बताती हैं --
... पृथ्वी
बाँधे रखना चाहती हैं जीवन
वे थामे रखती हैं
चट्टान, माटी, रेत
अपने स्नेहिल पाश में
तिरस्कार नहीं करतीं उनका
मिल न पाया जिनसे
प्रेमरस, नमी, जीवन।
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‘नये मगध में’ राकेशरेणु का तीसरा कविता-संग्रह है। इसमें बहत्तर कविताएँ हैं। इसकी आवरक पट्टिका में श्रेष्ठ कवि मदन कश्यप ने इनकी गणना, कविता में प्रतिरोध के स्वर को मुखर करनेवाले गिने-चुने अग्रधावक कवियों में की है, जबकि उनकी दृष्टि से सामाजिक सरोकारों के मद्देनजर, सन् 1990 के दशक में सामने आई नई पीढ़ी की रचनाधारा में प्रतिरोध के पक्ष बहुत दुर्बल थे।
महाजनपदीय समय के ‘मगध’ की शासकीय भव्यता से दुनिया भर के बौद्धिक अवगत हैं। घटोत्कच (गुप्तवंश के संस्थापक श्रीगुप्त के पुत्र; शासनकाल, सन् 280-319) की उद्दण्डता, मूढ़ता और अहंकार के कारण उसकी उज्ज्वलता पर काजल पुत गई। ‘फूलहिं फलहिं न बेंत जदपि सुधा बरसहिं जलद’ की धारणा का अर्थ समझनेवाले जानते होंगे कि मूढ़ मनुष्य को पारम्परिक भव्यता का अनुगमन नहीं भाता। उन्हें अपनी मूढ़ता की परम्परा ही भव्य लगती है। पर इस संग्रह का उद्देश्य मगध-महिमा का गीत गाना नहीं है, उसके सहारे एक रूपक रचना है। क्योंकि रूपक के सहारे जन-जन तक कविता की ध्वनि आसानी से पहुँचती है। श्रेष्ठ कवि केदारनाथ सिंह ने भी कहा है कि बिम्ब और प्रतीक कविता में विषय को मूर्त, दीप्त और संक्षिप्त करता है। इस समय दुनिया के अनेक देशों का रूपक ‘मगध’ हो सकता है, क्योंकि नागरिक-क्षेत्र के अक्षम्य भूल या भ्रम के परिणामस्वरूप बीते कुछ वर्षों में दुनिया के अनेक देशों के शीर्ष पर घटोत्कच की ताजपोशी हो गई है, जिनके मूढ़-क्रूर-उद्दण्ड निर्णयों से सामुदायिक जीवन की तबाही, शिक्षा-साहित्य- कला-संस्कृति का विरूपण ताण्डव कर रहा है। इस समय दुनिया के अनेक देशों के नागरिक स्वयं को ‘नये मगध में’ देख रहे हैं। क्योंकि उन सब के घटोत्कच उनके लिए नए-नए विधान रचकर ‘नए मगध’ में ‘नई संस्कृति’ और ‘नया इतिहास’ बना रहे हैं। इन कविताओं में ये सारे बिम्ब रूपक की तरह उपस्थित हुए हैं।
इस संग्रह की आरम्भिक पन्द्रह कविताएँ ‘नये मगध में’ शृंखला में हैं। विदित है कि क्रूर शासकों को आतंकित नागरिकों की स्तुति मिलती रहती है, पर शाश्वत लोकप्रियता उनके हिस्से कभी नहीं आती, उनका जनसरोकार कभी नहीं बनता। कंस के धराशायी होते ही मथुरावासियों के चेहरे प्रफुल्ल हो उठे थे। आधुनिक दुनिया के अहंकारी घटोत्कचों के इशारे पर पालतू या फालतू वैद्य-गुरु-पुरोहित-बौद्धिक-मन्त्री की मण्डली की संयुक्त क्षुद्रता में जितनी भी निर्लज्जताएँ एवं क्षुद्रताएँ अपनाई गई हैं, इन पन्द्रहो कविताओं में उन सबके स्पष्ट चित्र उकेरे गए हैं। वैयक्तिक ओछेपन में राष्ट्र का इतना बड़ा नुकसान, वैश्विक इतिहास के किसी पृष्ठ पर शायद ही कभी दर्ज हुआ हो। दुनिया भर के राष्ट्रों की नई शासकीय व्यवस्था और जनजीवन के लिए ‘नए मगध’ का यह रूपक-विधान विलक्षण है। इन शृंखलाबद्ध कविताओं के अलावा संकलन की अन्य सन्तावन कविताओं में भी समकालीन विषयों पर कवि का जनसरोकार स्पष्ट हुआ है।
इस संग्रह के शीर्षक में ही किसी शासकीय प्रेतलीला की प्रतिच्छवि का संकेत लक्षित हो जाता है। क्रूर-मदान्धी-अहंकारी शासक के हाथ शासकीय क्षमता के आते ही जिस तरह मगध साम्राज्य दुर्दिन के दलदल में जा फँसा, उदार सामाजिक-प्रशासनिक वातावरण की भव्य विरासत निर्मित करनेवाले मगध का पूरा जनजीवन त्रस्त हुआ, विरासत ध्वस्त कर नई प्रथा रचने का उत्सव शुरू हुआ, कवि ने इस संग्रह की कविताओं में उसी नए मगध का अनुसन्धान कर नए भारत का विलक्षण रूपक रचा है।
‘नये मगध में’ कविता की पूरी शृंखला जीवन-संग्राम में जुटी जनता के दैन्य का प्रतिपक्ष रचती है, उसकी ऊब को स्वर देती है। घटोत्कच जैसे मूढ़ शासक के दीर्घकालीन शासन की शून्य उपलब्धि यूँ ही नहीं है। जीवन-मूल्य के प्रति निर्लिप्ति उसका मूल और एकमात्र कारण है। घटोत्कच के रूपक से भारत के वर्तमान की छवि यहाँ निखर उठी है।
देश-दशा के प्रति सम्मोहन और उसकी सुखद व्यवस्था के प्रति अनुराग रहने के कारण हम सभी साहित्य-प्रेमियों को आपातकाल के दुर्दिन का स्मसरण आता रहता है, जब जनाकांक्षाओं के पक्ष में बात करनेवालों के सोच पर ताला लग गया था। फिर भी कुछेक लोग थे, जो अपनी बातें कहकर भी सही-सलामत रहे। प्राण की बाजी लगाकर भी भारत के बुद्धिजीवियों ने उस दुर्वह स्थिति का सामना किया। पर अघोषित आपातकाल के दिनों में बुद्धिवादियों का हाल तो घटोत्कच के राज्याश्रित पुरोहितों से भी बदतर हो गया --
जनता साँस रोके खड़ी थी
अध्यापक-विद्यार्थी-अभिभावक सब सावधान थे
सबको घटोत्कच का इन्तजार था
नई घोषणाओं का इन्तजार था।
... ...
नियत समय पर आवाज सुनाई पड़ी घटोत्कच की
शान्त, मजबूत, खड़खड़ाती --
नये मगध में पुराने नियमों से काम नहीं चलेगा
हम नए नियम बनाएँगे
गणित के, विज्ञान और इतिहास के
जीवन के हर क्षेत्र के
अध्यापकों को बता दिए गए हैं नियम
विद्यार्थी ध्यान से सुनें
वही करें, मानें वही जो गुनी अध्यापक कहें
... ...
सीधी भुजा को त्रिकोण का नाम दिया गया
तिरछी भुजा को बहुकोण कहा गया
वो जो लेट गई थी दण्डवत
उस भुजा को वृत्त का नाम दिया गया
-- सबसे पूर्ण, सबसे मुकम्मल!
इस तरह रेखागणित के नए नियम बने।
... ...
दो जोड़ दो को कहा गया पाँच
एक जोड़ एक को ग्यारह
शून्य-शून्य-एक बनते थे सौ
इस तरह और भी बहुत सारे नियम
अंकगणित के बने।
ज्ञान-विमुख घटोत्कच द्वारा निर्मित गणित, विज्ञान, दर्शन, इतिहास, राजनीति जैसी सभी ज्ञान-शाखाओं के नियम की पुष्टि पालतू पुरोहितों ने की। राजप्रसाद के लोभ में बौद्धिकों का विवेक डगमग हो उठे, तो सभ्यता और संस्कृति का विनाश सन्निकट मानना चाहिए। सामुदायिक हित में जोखिम लेकर भी राजा से प्रतिवाद करना और जनहितैषी विधान बहाल करवाना बौद्धिक समुदाय का एक मात्र कर्तव्य होता है; ऐसा करते हुए वे अन्ततः राष्ट्रीय गरिमा को शिखरोन्मुख करते हैं। उनकी राष्ट्रीयता इसी से सिद्ध होगी, जो दुर्योगवश हमारे यहाँ नेपथ्य में बैठे किसी अवसर की ताक में हैं।
पर वे भी क्या करें, जब रचनाकारों के सिर आतंक के बादल मँडरा रहे हों, जनहित में सार्थक और तर्कशील बात करनेवालों को परिणाम की सुनिश्चित जानकारी हो कि हम या तो मारे जाएँगे या हमारा जीवन असहज कर दिया जाएगा; वे क्या करें, क्या न करें? दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र भारत, जहाँ का हिन्दुत्व ‘सर्वे भवन्तु, सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग्भवेत्’ (सभी सुखी रहें, सभी निरोग रहें, सबका मंगल हो, किसी के हिस्सेः दुःख न आए) के सिद्धान्त पर चलता आया, वहाँ साम्प्रदायिक उन्माद फैले; शास्त्रार्थ के रूप में हुए वाद-संवाद से जहाँ वैदुष्य परीक्षण होता था, वहाँ बात-बात में उन्मादी विवाद हो; तो इस वडिम्बना को क्या कहा जाए! दुनिया भर में ज्ञान-ध्वज लहरानेवाले राष्ट्र में अनुयायी बनाने के लिए जन-जन को मूढ़ बनाने का धन्धा चले; शैक्षिक संस्थानों पर आक्रमण हो; उस राष्ट्र के भविष्यि का गर्त-गमन तो तय ही है। राकेशरेणु का यह संग्रह देश की इन्हीं स्थितियों को रेखांकित करता है।
अब मूढ़-क्रूर शासक की ऐसी ऐसी वाहियात घोषणा के समक्ष जब ज्ञानी-विज्ञानी घुटने टेक दे, निरीह-विवश शासित जनता क्या करे! जिजीविषा और युयुत्सा के मारे इस नए मगध के नए पथ की तलाश करते हुए, नया सबेरा ढूँढते हुए, उन्हें उषःकाल में भी मध्य-रात्रि का अन्धकार दिखता है। इस विचित्र गणतन्त्र में, उन इंगित गुनी अध्यापकों के ज्ञानलोक का अनुमापन करते हुए उन्हें दिन-दहारे गहन अन्धकार दिखता है, जो अपनी ज्ञानशून्यता से निर्लिप्त स्वयं को विश्वगुरु-राष्ट्र के गुरु-पद से विभूषित होना चाहता है। राजा का संकेत ही तो सारे ज्ञानों का स्रोत होता है!
कवि ने इन कविताओं में एक बार फिर से उसी सत्योत्तर की ओर इशारा किया है, जिसमें जनता को मूढ़ और अनुगामी बनाने की सारी व्यवस्था कायम है। वे पुरानी व्यवस्था को विस्थापित कर, बनाई हुई व्यवस्था को शाश्वत और समकालीन बनाने को डटे हैं। इस नई शासन-व्यवस्था की जनता करे भी तो क्या करे, जब जनजीवन पर अज्ञान का ऐसा आरोपण हो; सीधी भुजा को त्रिकोण, तिरछी को बहुकोण, लेटकर दण्डवत हुई को वृत्त कहकर मुकम्मल रेखागणितीय नियम बनाया जाए?
गौरतलब है कि ‘वृत’ शब्द? जीवन-क्रिया के अन्तर्गत बहुत बड़े दार्शनिक अर्थ-छाया को रेखांकित करता है। लेटकर दण्डवत् हो गई रेखा को वृत्त कहने का अर्थ हुआ कि क्रूर अधिशासी व्यवस्था में सबसे सुरक्षित वही रहेगा, उसी का जीवन और परिवार सुरक्षित रह पाएगा, जो लेट जाए, दण्डवत् रहे। घटोत्कच की शासन-व्यवस्था किसी भी प्रतिकार पर न मालूम कारणों से प्रताड़ित करेगी। इस कविता-शृंखला में आज की प्रशासनिक व्यवस्था को रेखांकित करने की यही चेष्टा सत्योत्तर की स्थिति बताती है; अर्थात, सत्य को परोक्ष कर के नए सत्य को नए विमर्श की जद में लाती है।
मूल्यगत जीवन जीनेवाले, जनहितैषी विचार देनेवाले, सामाजिक परिष्कार करनेवाले बौद्धिक जब निजाम के संकट का कारण बन जाएँ; तब निजाम की मनमानी के लिए नए विधान, नए राजमुकुट या कि सिर-सुरक्षा-कवच का प्रयोजन होता है। इन्हीं विधानों की ओट में निजाम अपने अज्ञान से निर्देशित ज्ञान-शाखाओं के विधान रचते हैं। मूढ़ घटोत्कच के साम्राज्य में मगध की ऐसी ही दुर्गति हुई थी। इसी अनुप्रेरित-निर्देशित क्रिया के क्रियान्वयन पर इन कविताओं की कवि-चिन्ता जाग्रत है, जहाँ पुराने को ध्वस्त कर सब कुछ नया रचने की जिद -- नया राज-भवन, नया राजमुकुट, नई व्यवस्था, नई पद्धति दिखती है। काली कमाई करनेवालों को विदेश जाकर सुरक्षित रहने की सुविधा, लूटपाट करनेवालों को सैन्य बल की कमान, ऊलजलूल बकनेवालों को आचार्य-पद, धर्माधिकारियों को कुलपति-पद सौंपा जाता है। शैक्षणिक व्यवस्था तहस-नहस करने के उद्यम दिखते हैं, श्रमिकों की वेदना उपेक्षित रहती है। जिन किसानों के कन्धों पर पूरे समाज के परिपोषण का दायित्व होता है, उनका नगर-प्रवेश वर्जित होता है। ये कविताएँ समकालीन शासन-व्यवस्था की इन्हीं विडम्बनाओं की चित्र-छवि है।
राष्ट्रीय प्रशासनिक व्यवस्था का विलक्षण रूपक इस शृंखला की छठी कविता में उजागर हुआ है --
जन्म मृत्यु मत्र्यलोक का नियम है राजन
कहा राजगुरु ने आगे बढ़कर अतिशय विनम्र होकर
स्मृति तेज थी राजन की
कहा -- लाखों मरते हैं लोग हर बरस, हाँ लाखों
नानाविध, नाना रोगों से
इसमें नया क्या है -- पूछा राजन ने धिक्कार कर
...
हम घिर गए हैं राजन चारों तरफ से
राजधानी घेर ली गई है, कहा दूसरे अमात्य ने भक्ति-भाव से
-- कौन है नामुराद? किसने की हिमाकत?
इसी मुल्क के हैं?...
देशद्रोही हैं वे। घेर लो कीलों-कँटीलों तारो-बाड़ों से
कहा राजन ने, भक्त मयूर को चुग्गा चुगाते हुए
फिर राजन ने देशद्रोह की नई परिभाषा दी...
जहाँ का पूरा तन्त्र व्यवस्थापति की जघन्यता सहलाने में ही तल्लीन हो, वहाँ ये कविताएँ भी एक चुनौती तरह ही प्रकट होती हैं। शृंखला की आठवीं कविता में कवि ने खुश होने और खुश दिखने के फर्क को रेखांकित करते हुए बड़ी सूक्ष्मता से इशारा किया है कि
औरतों को खुश देखना चाहता था घटोत्कच
नाचती-गाती मनोरंजन करती औरतें...
वो दुनिया की तमाम
नायाब रक्काशाएँ चाहता था...
उसकी उँगली ऊपर की ओर उठी रहती
वो हमेशा ऊपर देखता
दूर तक देख सकता था इस तरह
नीचे देखना तौहीन था उसके लिए
उसे भाते न थे उदास और पीड़ित चेहरे धरती के
दूर रखना चाहता था उन्हें अपने दृष्टिपथ से
हमारे भाषा-परिदृश्य में ‘दूर-दृष्टि’, ‘ऊपर देखने’ और ‘दृष्टिपथ’ की कई चर्चाएँ हैं। पर समकालीन शासन-व्यवस्था को रेखांकित करने में कवि ने इन तमाम प्रसंगों सहित ऊपर की ओर उँगली उठाए रखने की क्रिया तक को अर्थ-विकृति के साथ देखा है। इस विचित्र विडम्बना को रेखांकित करना भी जहाँ अपराध माना जाए, दुखियों के दुख मिटाकर सुखी बनाने के बदले जहाँ दुखियों की मण्डली को मिटा देने की क्रूरता प्रचण्ड हो जाए, ऐसे राजतन्त्र में स्पष्टतः सुखी तो वही होगा जो लेट जाए! लेट जाने पर यकीनन सीधी रेखा भी वृत कहलाने लगेगी।
जब राजा की मंशा अमर होने की हो जाए तो लोकतन्त्र का मिट जाना सुनिश्चित हो जाता है। नए मगध में, अर्थात शासन की इस नई व्यवस्था में --
टाइम मशीन उलट गई थी
मुसोलिनी मगध में था
जहाँ ढेरों लोग थे और थोड़े बाग
‘लोग-बाग’ जैसे प्रचलित अव्यवयवाची पदबन्ध की खण्डित प्रयुक्ति से कवि ने यहाँ एक बड़े अर्थ की ओर इशारा किया है। जहाँ हम तरह-तरह के पेड़-पौधों, रंग बिरंगे फूलों, घास-फूस-झाड़ियों से बने बाग देखते आए हैं; अलग-अलग किस्म के लोगों से बनी बस्तियाँ और समाज देखते आए हैं; वहाँ सारे वैविध्य को मिटाकर एक रंग करने की प्रथावाले लोकतन्त्र की कामना और आचरण किया जाने लगा है। मुसोलिनी ऐसा ही राज चाहता था। तो क्या हम अपने को मुसोलिनी का शासित मान लें? हम भूल जाएँ कि रंग-रूप-गन्ध के वैविध्य के साथ ही हमारी एकता विकसित होती रही है? इस वैविध्य ने हमें कभी ‘भेद’ करना तो नहीं सिखाया! पर राजा की इच्छाहै कि सारे पेड़-पौधों की एक-सी सिंचाई हो, सभी फूलों में एक-से रंग-गन्ध हों, सभी मनुष्यों के एक-से खानपान और वस्त्रा हों, पत्ते हरगिज हरे न हों... सामुदायिक जीवन-दशा का वैविध्य रौंद डालने, प्रकृति के सारे नियम बदल देने की दुष्कृति जिस लोकतान्त्रिक व्यवस्था का आचरण बन जाए, ये कविताएँ उन्हीं दुर्गतियों को रेखांकित करती हैं।
‘नेता’ या ‘मार्गदर्शक’ के लिए जर्मन भाषा में ‘फ्यूहरर’ शब्द का उपयोग होता है। नाजी जर्मनी के तानाशाह एडॉल्फ हिटलर (शासनकाल सन् 1933-1945) ने अपने लिए यह उपाधि घोषित की थी। श्रेष्ठ रूपक के साथ इस शृंखला की ग्यारहवीं कविता का अर्थान्वेष दो रास्तों से किया जा सकता है। पहले रास्ते में लोकतन्त्र के देवता को सावधान किया गया है, जहाँ वैश्विक राजनीति और अन्तर्राष्ट्रीय कूटनीतिक सम्बिन्धों के मद्देनजर, बात-बात में बेवजह दहाड़नेवाले तानाशाह की बोलती बन्द की गई है, जब पूछा जाता है कि हिटलर की मानिन्द स्वाघोषित फ्यूहरर तुम्हारी वफादारी चाहता है तानाशाह, तुम क्या करोगे?...दूसरे रास्ते में जन-गण-मन को सारे खतरों की सूचना देते हुए, तानाशाह के बैलून में भरी हवा निकाली गई है। इस कवि-उद्यम की प्रशंसा की जानी चाहिए। कवि तानाशाह को या कि जन-गण-मन को बता रहे हैं कि --
मातृभूमि के प्रति
स्पष्ट करो अपना पक्ष
या तो तुम उसके साथ हो
या उसके शत्रुओं के साथ
ऐसी पंक्तियों के बीच वाचक की अगली घोषणा कि --
जान लो -- तुम्हारा मन तुम्हारा नहीं
जन गन मन में मन केवल फ्यूहरर का
जो मन की करोगे तो केवल उसके मन की
जो उसकी नहीं तो किसी की नहीं
शत्रुओं के साथ दिखोगे या माने जाओगे
तो मारे जाओगे
दिन-दहाड़े लटका दिए जाओगे नुक्कड़ पर
और तुम्हारे नाम के साथ लिखा होगा शव पर -- गद्दार
वह सहस्त्राबाहु है अनगिन उसकी आँखें
वह हर तरफ से देख रहा है तुम्हें
देख रहा है। आठो याम
कहीं भी दबोच सकती है उसकी बाँहें
बच कर कहाँ जाओगे।
अपनी बाहों में औरों को दबोचनेवाले ऐसे सहस्रबाहु, सहस्राक्षि को आज का समाज अपनी समझ से नहीं पहचान पाता। तानाशाह ने ‘सत्योत्तर समाज’ की समझ पर पहले से कोष्ठक लगा रखा है, वह समझे कैसे? वह तो अपनी आँखों से न देखने, अपने कानों से न सुनने को विवश है। दिखाई हुई को देखने और सुनाई हुई को सुनने को विवश है। यहाँ फ्यूहरर का अर्थ रूपक से निकालना श्रेयस्कर होगा। लोगों को, और अन्ततः तानाशाह को भी इशारा किया गया है कि ‘फ्यूहरर’ रंगे सियार, मोर-पंख लगाए कौवे, पुनर्मूषिको भव की कहावतें भूल गया है। जन-गण चाहे तो फ्यूहरर को ही वफादारी सिखा दे; पर कैसे सिखाए? यहाँ तो उसका अपना फ्यूहरर ही तुगलक होना चाहता है।
बेटियों के लिए देश में बड़े-बड़े नारे लगते हैं, पर सारे निरर्थक; क्योंकि आज भी स्कूल जानेवाली बेटियों को जाने से पहले अपनी पारिवारिक व्यवस्था के अनुरूप गृह-संचालन में कई भूमिकाएँ निभानी पड़ती है, फिर भी जाते-आते न जाने कितनों की दीठ-कुदीठ झेलनी पड़ती है। बेटियों को इस संकट से उबार लेने की कोई व्यवस्था करने की कोई सदिच्छा लोकतन्त्र के देवता को नहीं है। इस शृंखला की बारहवीं कविता में बेटियों की उन्नति के इसी पाखण्ड का उल्लेख है। अगली कविता में संस्कृति को विकृति की ओर धकेलनेवाली आधुनिकता की चकाचैंध की ओर इशारा है कि --
हत्यारे पकड़ लेंगे राहगीर को चोर-चोर कहकर
पुलिस हत्यारों को शाबाशी देगी फोटो खिंचवाएगी
किसी को शक्ल से पहचाना जाएगा किसी को खान-पान से
किसी को दाढ़ी और खतने से
बपतिस्मा से पहचाने जाएँगे कई
कपड़ों के रंग से पहचाने जाएँगे
उन्हें घुसपैठिया और हत्यारा कहा जाएगा
क्रियाशीलता की उज्ज्वल संस्कृति-प्रकृतिवाले देश में क्रियाशील मजदूरों-कारीगरों की चौक-चौराहे बिक्री; खिलाड़ियों की नीलामी; स्त्रिायों, बाबूओं, नेताओं की खरीद...जैसी विकृतियों पर व्यंग्यात्मक प्रहार तेरहवीं-चौदहवीं कविता में किया गया है। गुप्त-वंशोद्भव मूढ़-क्रूर शासक की शासकीय व्यवस्था के रूपक से लोकतन्त्रिक विकृतियाँ यहाँ सहजता से उजागर हुई हैं। शासकीय उठापटक के लिए सांसदों-विधायकों की तस्करी करनेवाले इन अधिनायकों को, पता नहीं, कभी लज्जा आती या नहीं! पाँच के पाँचो वर्ष ये जनहित-राष्ट्रहित त्यागकर ऊधम मचाने में गँवा देते हैं। इन कविताओं में ऐसी ही विकृति के अति विकृत छवि-चित्र निखर उठे हैं। पर इससे भी क्या? इससे भी बड़ा व्यंग्य यह है कि इन पर कोई असर नहीं होता। ये या तो ऐसे समाचारों के दमन के लिए कोई नया उपद्रव रचकर सामुदायिक दृष्टि में भटकाव ला देते हैं, या अर्थ-विकृति के जघन्य आचरण से उसे अपने पक्ष में भुनाने लगते हैं। लिख लोढ़ा पढ़ पत्थर के ये उस्ताद बड़े-बड़े ज्ञानियों को ऐसे दिग्भ्रान्त कर देते हैं कि वे तय नहीं कर पाते --
...पहले कौन बिका?
पहला, दूसरा, तीसरा या चौथा पाया लोकतन्त्र का
और जनता थी जिसका कोई चेहरा न था, सिर्फ मुखौटा
कुछ अवाक् थी, कुछ कीर्तनया मण्डली में शामिल
मालूम ना था उसे कि जिस जमीन पर खड़ी है
उसे चुपचाप बेचने की तैयारी है
इन विकृतियों में मस्सा भर दोष हम नागरिकों का भी तो है! आखिरकार हम कब समझेंगे कि इस लोकतान्त्रिक समाज में हम किसी बाजार में खड़े हैं, हमारा जीवन हमारे लिए है ही नहीं, हम बाजार में खड़े कोई वस्तु हैं, जिसे हर पल कोई खरीद रहा है, कोई बेच रहा है। हम जो कुछ देख रहे हैं, वह सच नहीं, सच का आभास है।
हमारे लिए सच देखना दुश्वार कर दिया गया है। धर्म, सम्प्रदाय और जाति के मुखौटों को कानून बनाकर सच को ढक दिया गया है; घृणा करने के दीक्षान्त समारोह से हमें बाहर नहीं जाने दिया जाता है। यहाँ शान्ति का मुखौटा सबसे हिंस्र दिखता है; ज्ञानपीठ पर अज्ञान का अन्ध कूप चढ़ बैठा है। इन सभी प्रसंगों पर रूपक के सहारे छवि-चित्र उकेरने का कवि-कौशल इन कविताओं में सराहणीय है।
अतीत-मोह को रेखांकित करती कविता ‘लौट आऊँगा’ में पुनरागमन की घोषणा कवि-चेतना की जागृति का परिचायक है, जिसमें अतीत-मोह की विलक्षणता स्पष्ट हुई है। महानगर की ऊब या फिर क्षुद्र सुविधाओं की ऊब से मुक्त होकर बेहतर जीवन की प्रत्याशा में जनपद लौट आने की घोषणा शाश्वत चेतना के पुनरान्वेष का उद्घोष है --
मैं लौट आऊँगा
अपने छोटे से शहर में एक दिन...
लौटूँगा
जैसे लौटते हैं साइबेरियाई पक्षी...
लौटूँगा जैसे लौटती है सुबह रात के बाद
जैसे लौटता है लोकतन्त्र लम्बी तानाशाही के बाद
जैसे लौट आता है जीवन
लोकतन्त्र के लिए लड़ाई में मारे जाने के बाद
जनपदीय संस्कृति के सम्मोहन की इस विलक्षण कविता में कवि ने लोकतान्त्रिक व्यवस्था की विसंगतियों को भी आड़े हाथों लिया है। ‘जलते देखा’ शीर्षक कविता में माँ की समृद्धि, गीली लकड़ी-सी धुआँती उसकी जीवन-क्रिया और अन्त्येष्टि के समय धुआँती उनकी चिता के समन्वित चित्र-संग्रह द्वारा कवि ने पारिवारिक जीवन की करुणा और संवेदना को रेखांकित कर विह्वल कर दिया है। माँ की स्मृति में लिखी इनकी अनेक कविताओं में से ‘माँ’ शीर्षक की एक विलक्षण कविता है, जिसमें माँ ने अपनी मृत्यु के बाद भी चार भाइयों को एक होने का अवसर दे दिया। अस्थि-प्रवाह के लिए चारो भाइयों की एक साथ यात्र और माँ के अस्थि-शेष प्रवाह के समय एक-दूसरे का हाथ थामना, माँ की स्मृति और अवदान को विराट बनाता है। माँ की स्मृति के कारण इस तरह भाईचारे का भेद-भाव मिटना, एक होना, घटना के स्तर पर यकीनन बहुत छोटी बात है, पर संवेदना के स्तर पर यह बहुत बड़ी बात है।
‘किसान’ शृंखला से इस संकलन में तीन कविताएँ हैं, जिनमें घर और किसान की अहमियत रेखांकित हुई है। घर को ‘घर’ बनाए रखने के लिए इस कविता में दीवारों से अधिक बल खिड़कियों, दरवाजों, बरामदे और आँगन पर दिया गया है, जो पारिवारिकता के बन्धन को सशक्त करते हैं, क्योंकि इन्हीं के योगदान से सदस्यों के सम्बन्ध-बन्ध दृढ़ होते हैं। घर सम्बन्धी ऐसे विचार जनसरोकार के गम्भीर प्रसंगों की ओर इशारा करते हैं ...
घर बनाने के लिए हमने दीवारें खड़ी कीं...
जिसे घर कहा उसमें अलगाव का बोध भरा
दीवारें क्या जरूरी हैं घर के लिए...
हमने खिड़कियाँ बनाई और दरवाजे और बरामदे
जोड़े रखा कमरों लोगों और भावनाओं को
घर के लिए कहीं ज्यादा जरूरी हैं बरामदे और आँगन...
सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए दीवारें खड़ी करने की धारणा इस काव्यांश में यकीनन प्रश्न करती है कि सुरक्षा किससे? वैर-भाव पनपने ही न दिया जाए, स्नेह-प्रेम के लिए सतत बाँहें खुली रहें, तो सुरक्षा का प्रयोजन क्यों हो? आँगन और बरामदे की वस्तुनिष्ठता पर वास्तु-शास्त्री भी चुप ही रहते हैं! खेतों-खलिहानों में ऊँचे मचान बनाकर समावेशी संस्कृति विकसित करने वाले किसानों पर लोग बेशक कलंक थोप दें! पर, तोहमतियों को स्मरण नहीं रहता कि यह देश उन किसानों का भी है!
‘घर’ शृंखला की अपनी दोनों कविताओं कवि ने झुग्गियों में, छोटे घरों में रहनेवालों की उदारता बताते हुए सच कहा है कि सारी बहुमंजिली इमारतें उन्हीं की बनाई हुई हैं। पर क्या इन ऊँचे घरों में रहनेवालों को उन्हें हिकारत और दयार्द भाव से देखने का हक है? पलायन और घर की भावना का मनोरम रूप अंकित करते हुए इस कविता में उन्होंने अपनी सारी स्मृतियों को जीवन्तत कर दिया है। ‘घर’ से वस्तुतः मनुष्य जाति का अस्तित्व जुड़ा होता है; सम्भवतः इसीलिए जब-जब कोई प्राश्निक प्रश्न करता है, उसे चुप करने के लिए उसका घर ढहा दिया जाता है...।
हस्तिनापुर, अयोध्या, मिथिला, किष्किन्धा, कोसल, चित्तौड़गढ़ की स्त्रिायों के साथ पुराण और महाजनपद काल में हुई सारी अवहेलनाओं को रेखांकित करते हुए कवि ने स्त्री को पत्थर बना देने, नाक-कान काटने, विष पिलाने, जिन्दा जला देने तक की घटना की भत्स्र्ना की है और समाज में स्त्री को भी सहज स्थिति में रहने देने की संस्तुति दी है। ‘प्रतिरोध’ शीर्षक कविता में कवि ने प्रेम को इतनी ऊँचाई दी है कि प्रेम हर हाल में मनुष्य को मुक्त करता है, हर बन्धन को ढीला कर देता है, इतना हल्का बना देता है कि मनचाही उड़ान सम्भव हो जाता है।
‘बाबूजी के लिए’ शृंखला की पाँच कविताओं में बाबूजी के सन्देश को गम्भीरता से स्मरण किया गया है। तभी तो सदैव चिन्तित और उदास रहनेवाले, बहुत कम बोलनेवाले, बाबूजी आखिरी दिनों में सन्देश देते हैं कि तुम्हारे जैसे अत्यन्त साधारण लोग ही विध्वंसकर्ताओं की सारी साजिशें नाकाम करेंगे। पूर्वज के इसी सन्देश की प्रेरणा अन्ततः साजिश खत्म करने में सहायक होती है।
‘आदमियत’ शीर्षक कविता में कई तरह के जन्तुओं की क्रियाओं के स्मरण के बाद उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि जन्तुओं से मनुष्यों ने कुछ भी नहीं सीखा, क्योंकि तिलचट्टे को अपनी नग्नता पर शर्म नहीं आती, चूहों-बिल्लियों को पेट की चिन्ता अवश्य सताती है, पर उन्हें किसी की चाकरी में विपथगामी होते नहीं देखा गया कभी। विश्व नागरिक बनी चिड़ियों ने अपनी उड़ान में कभी नहीं बाँटा अपना आकाश। कुत्तों ने नहीं खाया कुत्तों का माँस। पर मनुष्यों ने वह सब किया जो उसे नहीं करना चाहिए था; इन जन्तुओं से मनुष्यों ने कुछ भी नहीं सीखा। आदमी होकर भी उन्होंने आदमियत का मर्म नहीं जाना। ‘तुम्हारा होना’ शृंखला की पाँच कविताओं में प्रेम के मूल्य की विलक्षण स्थापनाएँ दी गई हैं। जनहित में जमीन को सार्थक करना और आत्महित में प्रेम का स्मरण इस शृंखला का अनुपम सन्देश है। ऊषा उत्थुप, नाजिया हसन जैसे लोकप्रिय व्यक्तित्वों की प्रशंसा में लिखी गई श्रेष्ठ कविताएँ प्रशंसनीय हैं। रंगों के रूपकार्थ भी इनकी कविताओं में गहन सन्देश के साथ उपस्थित हुए हैं।
ईश्वर को सम्बोधित ढेरो कविताएँ हिन्दी में लिखी गई हैं, ईश्वर करें या न करें, पर लगभग बड़े कवियों ने ईश्वर से कुछ न कुछ करवाने की चेष्टा की है। किन्तु भक्तों की बढ़ती संख्या के बावजूद ईश्वर को सम्बोधित ‘सुनो ईश्वर’ शीर्षक कविता में राकेशरेणु ने बड़ी गम्भीरता से निवेदन किया है कि उनके अप्रासंगिक होने का समय आ गया है, वे अप्रासंगिक हो ही जाएँ। यह निवेदन सृष्टि के ईश्वर से लेकर लोकतन्त्र के ईश्वर तक पर लागू होता है।
क्योंकि चोरों, हत्यारों, धोखेबाजों, मुखौटाधारियों के मार्ग प्रशस्त करनेवाले लोकतन्त्र के देवता मेहनतकशों के लिए अनुशासन के नियम बनाने में व्यस्त हैं। उन्हें अपनी आलोचना बर्दाश्त नहीं होती। इस व्यवस्था की ‘सभ्यता कथा’ यह है कि यहाँ मनुष्यों में श्रेष्ठ होने के बजाय जातियों, धर्मों, भाषाओं, सीमाओं, हथियारों में श्रेष्ठ होने का विकल्प अपनाया जा रहा है। ‘शान्ति के नाम पर’ यहाँ बड़ी-बड़ी बातें होती हैं -- सभाएँ, बहस, युद्ध, समझौते, पुरस्कार, पुरस्कारों के समाचार पर चर्चाएँ होती रहती हैं; शान्ति के लेख और किताबें लिखी जाती हैं; पूरे देश को अशान्त रखने के लिए शान्ति के गीत हर तरफ गाए जाते हैं।
महात्मा गाँधी के सिद्धान्तों के प्रति राकेशरेणु अत्यन्त मोहाविष्ट रहते हैं। ‘महात्मा गाँधी के लिए’ शीर्षक कविता में उनका यह सम्मोहन स्पष्ट दिखता है। स्वाधीनता-संग्राम में प्रयुक्त महात्मा गाँधी के सारे मूल्यों की स्वाधीन भारत में अवहेलना देखकर राकेशरेणु ही नहीं आज के सारे सचेत और राष्ट्रप्रेमी आहत हैं --
गर्त हुआ उसका चेहरा तब भी
जब चमका उसका राम हथियार बनकर
बनकर लाठी पिस्तौल तलवार
जब आँख में चमका नफरत और हत्या की कौंध लेकर...
जब आदमियत गरीबतर हुई जात-धर्म-कुनबा बनकर...
यह धरती उसके लिए बनी न थी
उसका न था देश
डेढ़ सौवें जनम वर्ष में
बहुत शर्मसार था वह...
सत्ता द्वारा आयोजित गाँधीजी की डेढ़ सौवीं जयन्ती मनाते हुए सबसे बड़ी कृतज्ञता तो यह होती कि उनके संस्तुत मूल्यों का ध्यान रखा जाता; पर ऐसा कभी नहीं हुआ। घृणा की खेती लहलहाती रही। शर्मसार होते रहें गाँधी बाबा, पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को ‘खेत चाहिए’ तो चाहिए ही, विकल्प कुछ नहीं, किसानों के खेत एक्वायर होंगे, उन खेतों में किसानों की फसलें नहीं, पेप्सिको की इच्छाएँ लहलहाएँगी। बहुमंजिली इमारतें बनेंगीं, इसलिए पेप्सिको को खेत चाहिए, स्वचालित कारखाने और स्मार्टसिटी बनाने और बाजार बसाने के लिए राजदुलारों को खेत चाहिए। उन्हें वैसा कुछ भी नहीं चाहिए जो किसानों को चाहिए --
धूल नहीं चाहिए उन्हें
न मिट्टी कीचर ऊबड़-खाबड़
न खेती और खेतिहर बस खेत चाहिए
किसान की सन्तान को काम देगी कम्पनी
किसान को मकान देंगे बिल्डर्स...
विकास की इस आँधी से किसानों के सपनों को विरूपित कर
उनको निस्सहाय बनानेवाली व्यवस्था देश से अनाज का स्रोत छीन रही है, जिस पर ठहरकर
विचार करना उनकी चर्या से बाहर है। प्रयोजन है इन सबका संज्ञान लेने का। ये सब कुछ
नए जैसे मगधीय वातावरण में कठिन अवश्य है, पर जनजागृति से सब
कुछ सम्भव है। आखिरकार जन-गण-मण की संस्तुति से ही तो सब कुछ हुआ है। क्रूर
व्यवस्था का प्रतिपक्ष रचती, जनजागृति का सन्देश देती
राकेशरेणु की कविता का जन-जन से निवेदन है कि वे अपने लिए, अपनी
सन्ततियों के लिए और अपने राष्ट्र के लिए कुछ करें! उन्हीं के किए सब होगा! इसके
साथ ही इन कविताओं में उन्होंने अपने समय के बुद्धिजीवियों से भी प्रकारान्तर से
निवेदन किया है कि आत्मसुखलीनता की अश्लील हरकत त्यागकर अपने समय के बौद्धिकों
जैसा कुछ करें! कदाचित वे कर पाएँ! ...
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