भाषा, संस्कृति और मूल्य-बोध
Language Culture and Value Perception
वैश्विक बाजार की चमक-दमक परवान चढ़ी है। उसकी लिप्सा ने हमारे समय और समाज को उग्र कामनाओं से भर दिया है। कुछ इस तरह कि स्वार्थ-सिद्धि और अधिकाधिक धनार्जन द्वारा वर्चस्व हासिल करने की वृत्ति यहाँ की जीवन-व्यवस्था का अंग बन गई है। ऐसे में निष्ठा और विवेक का विनष्टीकरण अवश्यम्भावी था। इस उग्र लालसा में भाषा और संस्कृति की उज्ज्वलता के लिए कोई जगह नहीं रह गई। भाषाई व्यवहार को लोग सम्पेषण का माध्यम भर समझने लगे। संस्कृति का तो स्वरूप ही अमूर्त्त होता है, परिणामस्वरूप वह चिन्ता से बाहर ही रही। तात्कालिक सुविधा और स्वेच्छाचारिता ही समाज की संस्कृति बन गई। जानकारी के अभाव में अधिकांश लोग भाषा का प्रयोजन मन्तव्य का सम्प्रेषण मात्र हैं, इसलिए जैसी-तैसी भाषा-फलक में बात कर संवाद कर लेते हैं। यह गलत सोच है; उन्हें यह जानने की जरूरत है कि उनके मन्तव्य की जन्मभूमि भाषा ही होती है, भाषा के बिना वे कोई भी बात सोच ही नहीं सकते। यहाँ तक कि उस सोच एवं सोच की भाषा तथा शब्दावली उसकी संस्कृति से निर्देशित रहती है।
कामचलाऊ भाषा-व्यवहार ने मनुष्य का बहुत नुकसान किया है। भाषा चूँकि संस्कृति-संचरण का माध्यम होती है, इसलिए भाषा के प्रति निरपेक्षता ने उन्हें अपने मौलिक वैशिष्ट्य से दूर कर दिया। अपनी भाषिकता से क्षेत्रीयता और सांस्कृतिकता विलुप्तीकरण उन्हें समझ नहीं आया। भाषिक मौलिकता से कटा मनुष्य अपनी संस्कृति से कट जाएगा। उन्हें समझना होगा कि भाषा की हर युक्ति में संस्कृति का मर्म छिपा होता है। उस सांस्कृतिक परिवेश में ही मनुष्य की जीवन-दृष्टि निर्मित होती है, मानसिक भावभूमि निर्धारित होती है।
संस्कृति अमूर्त्त धारणा होती है, जो वैयक्तिक या सामुदायिक जीवन-विधियों को दिशा-निर्देश देती है; उनके आहार-व्यवहार, वेश-भूषा, बोली-बानी, आचार-विचार में प्रकट होती है; इन आचारों एवं आचरणों में सूचित होती है। कला, साहित्य, संगीत, दर्शन, धर्म, विज्ञान, वास्तु, शिल्प... सारे के सारे संस्कृति के प्रकट पक्ष हैं। हम जिन शब्दावलियों के गीत रचते-गाते-पसन्द करते हैं; जैसे चलचित्र बनाते-देखते हैं; जैसी मूर्तियाँ हमें अनुरक्त करती हैं; हमारे खान-पान, वेश-भूषा की पृष्ठभूमि में जैसी वृत्तियाँ क्रियाशील रहती हैं; सामने आए मनुष्यों को हम जिस धारणा से परिभाषित करते हैं; अपने उत्थान के लिए जैसे आचरण करते हैं ...सारा कुछ हमारी संस्कृति को रेखांकित करता है।
इसीलिए जनपदीय रीति-रिवाज, तीज-त्यौहार, परम्परा, जीने के तौर-तरीके, जीवन के विभिन्न पक्षों पर व्यक्ति विशेष का निजी दृष्टिकोण...सब कुछ संस्कृति की छवियाँ प्रस्तुत करती हैं। संस्कृति उस विधि का प्रतीक है, जिसके आधार पर हम कुछ सोचते हैं; कोई कार्य करते हैं। समाज और परिवार से उत्तराधिकार के रूप में मिले हमारे सारे अमूर्त्त भाव और विचार हमारे हर आचरण में सम्मिलित होते हैं। ये सब हमें समाज के सदस्य होने के नाते ही प्राप्त होते हैं।
यही कारण है कि समाज और देश बदलने से संस्कृति में बदलाव आ जाता है। हमारा लालन-पालन जिन वृत्तियों के बीच होता है, वे हमारे संस्कार पर गहन प्रभाव छोड़ते हैं। संस्कृति के माध्यम से ही हमारे अभिवादन की विधि, पहनावा-ओढ़ावा, खान-पान, स्वाद-स्वभाव, रुचि-संस्कार, पारिवारिक सम्बन्ध, सामाजिक-धार्मिक रीति-रिवाज...सब पर समाज और देश का नियन्त्रण होता है। अर्थात् संस्कृति-संवर्द्धन का गहन सम्बन्ध समाज अथवा राष्ट्र की ऐतिहासिकता, उनकी राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियों से होता है। इसी कारण संस्कृति किसी व्यक्ति अथवा समूह की पहचान सुनिश्चित करती है।
कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी (सन् 1887-1971) ने मनुष्य के जीवन में व्यवहार, लगन, विवेक पैदा करनेवाली, व्यवहारों को निश्चित करनेवाली और जीवन के आदर्शों, सिद्धान्तों को प्रकाशित करनेवाली अवस्थाओं को संस्कृति कहा। इसी कारण सामूहिक, पारिवरिक, वैयक्तिक सन्दर्भ में मनुष्य के जीवन का हर आचरण उसकी संस्कृति का सूचक होता है।
भारतीय गणराज्य के प्रथम प्रधान मन्त्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने तो संस्कृति का अर्थ ‘मनुष्य का आन्तरिक विकास और उसकी नैतिक उन्नति’ लगाया; इसे ‘पारम्परिक सद्व्यवहार’ और ‘एक-दूसरे को समझने की शक्ति’ माना। पण्डित नेहरू द्वारा रेखांकित इस वैशिष्ट्य में भारतीय संस्कृति की व्यापकता के साथ-साथ जनपदीय दायित्व और विवेक भी चिह्नित है। भारतीय संस्कृति की इस व्यापकता में इसके मूर्त्त-अमूर्त्त दोनो रूपों पर गौर करना होगा कि एक ओर यह भारतीय नागरिक के विचार, भावना, मूल्य, विश्वास, मान्यता, चेतना, भाषा, ज्ञान, कर्म, धर्म जैसे अमूर्त तत्त्वों से चिह्नित होती है, तो दूसरी ओर विज्ञान, प्रौद्यागिकी, श्रम, उद्यम से सृजित भोजन, वस्त्र, आवास में भी लक्षित होती है।
मनुष्य की भाषा में उसके सांस्कृतिक मूल्यों का परीक्षण कुछ वाक्यों के उदाहरण से हो सकते हैं। अंग्रेजी के वाक्य The babysitter went away. का हिन्दी अनुवाद भिन्न-भिन्न सांस्कृतिक परिवेश के तीन लोगों ने तीन तरह से किया। एक ने किया ‘आया भाग गई’, यह अनुवाद नितान्त सामन्ती संस्कार के व्यक्ति ने किया, जिनके लिए ‘आया’ स्त्री है और सेविका है, इस कारण उन्हें उनके लिए किसी सम्मानबोधक पद या क्रियापद का उपयोग उचित नहीं लगा। दूसरे ने किया ‘दाई चली गई’, ये अनुवादक सामन्ती स्वभाव के तो नहीं हैं, पर इनके लिए यह एक घटना की सूचना से अधिक कुछ भी नहीं है। पर, जिन्हें ऐसा लगा कि इस स्त्री ने मेरे घर और बच्चे की देख-रेख की है, उनकी ममता के लिए कृतज्ञ होते हुए उन्होंने अनुवाद किया ‘धाई माँ चली गईं’। यह अनुवाद उस अनुवादक के मानवीयता और उनके चेतना-मूल्य को रेखांकित करता है।
इसी तरह एक दूसरा उदाहरण एक प्रश्न के जवाब को लेकर है। किसी के घर जाने पर पूछा जाए कि आपकी बेटी नहीं दिख रही है, कहाँ गई है? और जवाब आए कि She has gone to the market with her in-laws. तो यह जवाब जब तक अंग्रेजी में है, कोई समस्या नहीं है; पर ज्यों ही किसी जनपदीय भाषा में इसका अनुवाद होगा, जनपदीय संस्कृति और आचार-विचार के प्रश्न खड़े होने लगेंगं। ये ‘इनलॉज’, अर्थात् ‘ससुरालवाले’, कौन ये हैं -- देवर, ननद, जेठ, जेठानी, देवरानी, सास, ससुर... कौन हैं? जिस किसी के साथ गई होगी, उसके जाने के तौर-तरीके उस सम्बन्ध की जनपदीय संस्कृति से संचालित प्रचलित पद्धति के अनुसार हुई होगी।
भाषा में संस्कृति और संस्कृति में भाषा के भाव का आकलन इसी तरह होता है। पर हमारे समाज में आधुनिकता क्या आ गई, कि सारी ही मान्यताओं को रौंद डालने की स्थिति उग्र हो गई। क्या से क्या हो गई संस्कृति? सम्भव है कि अति अत्याधुनिक लोग बेताबी में इस चिन्ता को स्थगित और रूढ़ घोषित कर दें। फटाफट निर्णय दे दें कि लोग आधुनिक होना ही नहीं चाहते! फिर सोचता हूँ, कि पारम्परिकता और संस्कृति का परित्याग मात्र ही आधुनिक होने की निशानी है? संस्कृति-रक्षण के भाव मात्र से कोई मनुष्य पाखण्डी हो जाता है?
विदित है कि परम्परा-बोध मनुष्य को मूलोच्छिन्न होने से बचाता है। किसी भी समुदाय का कोई भी मनुष्य स्वयम्भू नहीं होता। उसकी वंशानुगत परम्परा होती है, जो माता-पिता से होते हुए पीछे की अनेक पीढ़ियों से सम्बद्ध होती है। आधुनिकता एक पारस्परिक और स्वयं में गतिशील अवधारणा है। इस गतिशीलता की भी अपनी परम्परा होती है। अपने प्रभाव और परिणति के क्रम में जब कोई पद्धति स्थगन की ओर उन्मुख होती है, उसका द्वन्द्वात्मक भाव प्रतिपक्ष में खड़ा हो जाता है। इस अर्थ में पिछली आधुनिकता नई आधुनिकता की परम्परा हो जाती है। आज की आधुनिकता भी सौ बरस बाद परम्परा हो जाएगी और किसी नई आधुनिकता या नवता के उदय का कारण बनेगी। नदी गतिशील होती है, पर स्रोत से कटकर नदी गतिशील नहीं रहेगी, सदानीरा नहीं रहेगी।
पारम्परिकता और संस्कृति के नाम पर बिदकने मात्र की प्रवृत्ति ने भाषा और संस्कृति का बड़ा नुकसान किया है। मनुष्य के पाँव तले की जमीन खिसका ली जाती है, उन्हें पता तक नहीं चल पाता। प्राचीन काल से भारत में ही प्रचलित एक ही वजन के दो मुहावरों -- 'मन्दिर बनते ही भिखमंगों की पंगत लगना' या 'दुकान लगते ही गिरहकट का आना' पर गौर करने से कुछ बातें साफ होंगीं। इन आधुनिकता-प्रेमियों के आगे ऐसा धुन्ध छाया है कि इन भिखमंगों और गिरहकटों की पहचान उनके लिए असम्भव हो गई है। वेश-भूषा और भाषा से ये इतने कुलीन और सम्मोहक लगते हैं; माँगने या लूटने या सेन्ध लगाने का इनका कौशल इतना प्रीतिकर होता है कि भारतीय जनता को कभी प्रतीत ही नहीं होता कि वे उन्हें लूट रहे हैं। असल में ये सब के सब भारतीय जनता की मनोभूमि को अच्छी तरह पहचान गए हैं।
वे जान गए हैं कि स्वाधीनता-संग्राम के बलिदानी सिपाहियों की निष्ठा ने भारतीय नागरिकों को उच्च कोटि का उपदेशित बना दिया है। वे नेतृत्व की निष्ठा पर आश्वस्त सज्जन हो गए हैं। उपदेष्टा के छद्म को पहचानने की चेष्टा भी नहीं करते। तभी तो गत शताब्दी के सातवें दशक में 'भाषा की रात' शीर्षक से लिखी कविता से वे सचेत नहीं हुए, अपनी भाषा का महत्त्व भूलते गए, शासकीय तिकड़म के शिकार होते रहे। इस कविता में धूमिल ने सावधान किया कि --
चन्द चालाक लोगों ने --
(जिनकी नरभक्षी जीभ ने
पसीने का स्वाद चख लिया है)
बहस के लिए
भूख की जगह
भाषा को रख दिया है
उन्हें मालूम है कि भूख से
भागा हुआ आदमी
भाषा की ओर जाएगा
उन्होंने समझ लिया है कि --
एक भुक्खड़ जब ग़ुस्सा करेगा,
अपनी ही अँगुलियाँ
चबाएगा
+++
भाषा उस तिकड़मी दरिन्दे का कौर है
जो सड़क पर और है
संसद में और है
इसलिए बाहर आ!
संसद के अन्धेरे से निकलकर
सड़क पर आ!
भाषा ठीक करने से पहले आदमी को ठीक कर
+++
... रोटी के टुकड़े पर
किसी भी भाषा में देश का नाम लिखकर
खिला देने से
कोई देशभक्त नहीं होता है।
सम्भवत: इस कविता की भाषा में शिष्टोक्ति न होने के कारण इसकी वस्तुनिष्ठता की पहचान नहीं हुई। सम्मोहक भाषा की गुदगुदी, अर्थात् तस्करी की भाषा या भाषा की तस्करी सज्जन भारतीयों को अधिक आकर्षित करती है।
जन-मन का आकलन करते हुए अगली दुनिया के अन्वेषकों ने तय पाया कि ये लोग अपनी त्रासदी से भी निरपेक्ष हैं। इन्हें उपदेश की भाषा खूब भाएगी, ये सुनेंगे भी, मानेंगे भी। उन उपदेष्टाओं को नीति विवेक से तो कुछ लेना-देना होता नहीं! उपदेश का झण्डा लहराकर, झण्डा-प्रेमियों को लूटना उनका परम-चरम उद्देश्य होता है! एक हालिया उदाहरण शायद इसे स्पष्ट हो!
कोरोना महामारी की अन्तर्राष्ट्रीय आपदा ने ज्यों ही भारत में डैने फैलाए; क्षुद्र धनकामी सारे कला-व्यापारी दूरदर्शन पर धनपशुओं के उत्पाद बेचने पहुँच गए। वैश्विक आपदा से बचने के लिए इनके गिरोह साबुन के घोल बेचने और मुखौटे की उपादेयता बताकर व्यापारियों के साथ-साथ अपने खजाने भी भरने लगे। क्रीतदास लेखकों-चिन्तकों ने फटाफट विज्ञापन का संवाद लिखा; अदा बेचने के बाजीगर उस संवाद के साथ परदे पर आए, और विपत्ति में पड़े आम उपभोक्ताओं का भरपूर शोषण कर अपने खजाने भर डाले। राष्ट्रव्यापी बन्दी की घोषणा के अगले ही क्षण से पूरा देश दहशत में था, पर ये धनार्जन के तिकड़म में लिप्त हो गए। उस आपद घड़ी की स्मृति आज भी किसी संवेदनशील प्राणी को सिहरा देती है; पर इन्हें दया नहीं आई। पटकथा में दिन-रात राजनीतिज्ञों की निन्दा चीख-चीख कर करनेवाले, अवसर पाते ही दूसरों की आपदा को अपना अवसर बनाने लगे। पल भर की देर न लगाई। इनके पास विलक्षण कला है। ये भारतीयों के भोलेपन से भली-भाँति परिचित हैं।
पारम्पपरिकता और सदाशयता की दुहाई देकर दूसरों के मातम से भी धन उगाहने की जुगत भारतीय नागरिक पुराने समय से अपनाते आए हैं। सामाजिक विधानों को मानवीय दृष्टि से देखनेवाले लोग अपने आसपास ऐसी घटनाएँ अक्सर देखते होंगे। ऐसे दृश्य सामान्यतया मृत्यूपरान्त होनेवाले क्रिया-कर्म के समय दिखते हैं। परिवार के वयोवृद्ध किसी सदस्य की अन्त्येष्टि या श्राद्ध के समय पाखण्डी कर्मकाण्डियों या धार्मिक-पारम्पिरिक ठेकेदारों का लालची आचरण लोग दिवंगत वृद्ध की भक्ति में सह लेते हैं; पर जब किसी परिवार में किसी बच्चे, किसी जवान या किसी परिवार के एक मात्र संचालक की अकाल-मृत्यु होती है, और छाती पर पत्थकर रखकर उस परिवार के बाकी बचे लोग पारम्परिक रिवाज के अनुपालन में जुटे रहते हैं, उस समय दक्षिणा और नेग के लिए ये ठेकदार जैसा नृशंस आचरण करते हैं, उसे देखकर जुगुप्सा से मन भर उठता है। पारम्परिकता की झूठी दुहाई देकर इस तरह शोकग्रस्त परिवार को आहत करना यदि धर्म का निर्वाह है, तो फिर अधर्म की परिभाषा तय करनी होगी।...क्योंकि बेवश को सताने की रवायत भारतीय धर्म के निर्वाह की पारम्परिकता कभी नहीं रही। स्वयं बादरायण व्यास ने कहा है कि 'अष्टादस पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम्, परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीडनम्।'
स्वातन्त्र्योत्तरकालीन भारतीय नागरिक की चतुराई के अध्येता को निश्चय ही यह परिणाम हाथ लगेगा कि इन्हें ज्ञान का बेशक अभाव हो, बेशक ये अशिक्षित या अल्प-शिक्षित हों, पर इनकी जटिल और कुटिल चतुराई से हाथ मिलाने की हिमाकत दुनिया का कोई दूसरा देश नहीं कर सकता।
सैकड़ो वर्षों तक अंग्रेजों के अधीन जीवन-बसर करने और उनके द्वारा हीन बताए जाते रहने के प्रतिशोध में इन्होंने अपनी ही पारम्परिकता से प्रपंच करने की विधियाँ बना लीं। इन्हें ईश्वर तक को ठगने आ गया है। ईश-भक्ति भी इनके लिए अब पण्य-विधान हो गया है। प्रमाण जानने के आग्रही किसी दुकान में जाकर पूजा के लिए घी, तिल, गमछा माँगें, तो देखें कि दुकानदार उन्हें क्या दिखाते हैं? इस धर्मभीरु समाज को ईश्वर तक का ढर नहीं होता।
अपनी तेजस्विता के लिए ख्यात भारत के नागरिकों को ऐसी धूर्तता सिखानेवाले गुरु कौन हुए, यह शोध का विषय हो सकता है!...आप कहीं अंग्रेजों पर तो शक नहीं कर रहे हैं? यदि कर रहे हैं, तो सोचें कि उनसे धूर्तता सीखना ही सर्वाधिक उचित था? अपने ही देश के नागरिकों को ठगना सबसे उचित था?
॰॰॰
इस समय हम भारतवासी सांस्कृतिक विप्लव से जूझ रहे हैं। धनार्जन का प्रेत हमारे सिर इस तरह नाच रहा है कि हम इस विप्लव की झनझनाहट तक महसूस नहीं करते। नृत्य सर्कस में, संगीत कोलाहल में, अभिनय अश्लीलता में तब्दील हुआ जा रहा है; घटिया उत्पाद के दिग्भ्रान्त विज्ञापन से हमारी रुचि भ्रष्ट की जा रही है; नई व्याख्या और पुनरावलोकन के नाम पर हमारे इतिहास-पुराण की कथाओं को विरूपित किया जा रहा है; और हम बर्दाश्त किए जा रहे हैं। क्योंकि हम आश्वस्त हैं कि इन बातों का प्रतिरोध निष्फल जाएगा। कोई हमारी बात नहीं सुनेगा। क्योंकि समाज के अधिसंख्य प्रतिनिधि अपनी मूल संस्कृति त्यागकर एक झूठी संस्कृति और विकृत आधुनिकता की ओर दौड़ पड़े हैं। क्योंकि इस विप्लवी विज्ञापन के युग में कला-साहित्य की संस्थाओं पर ऐसे कौशलविहीन लोगों का आधिपत्य हो गया है, जो सांस्कृतिक रूप से स्वयं तो मूलोच्छिन्न हैं ही, सकल समाज को मूलोच्छिन्न करने में लिप्त हैं। इस विप्लव का बीजारोपण तीन-चार दशक पूर्व ही होने लगा था। पर उन दिनों स्थिति इतनी विकराल नहीं हुई थी। अपने सांस्कृतिक मूल्य से भटकते मनुष्य को जरा-सी खट-खुट भी सावधान कर देती थी, जैसा श्रेष्ठ कवि केदारनाथ सिंह की ‘नीम’ शीर्षक कविता के काव्य-नायक के साथ हुआ था।
यह कविता सन् 1984 के परिवेश और परिस्थिति में लिखी गई थी, पर सुधी जनों को उसकी याद आज भी उसी तरह आती है। इसका कारण उसका शाश्वत मूल्य है। खेतों में विचरते हुए काव्य-नायक के दाँतों में बसे नीम के दतुअन का विस्मृत स्वाद, नीम का घना पुराना पेड़ देखते ही जग उठा और वह नीम की छरहरी टहनी तोड़ने पहुँच गया। अचानक उसे पेड़ तले आँखें मूँदे मौन बैठे किसी मनुष्य का छायाभास हुआ, उसने टहनी छोड़ दी, उसे नहीं तोड़ा। वह छाया किसकी थी?...इस सवाल का जवाब कवि नहीं देते, यह कविता देती है।
असल में वह छाया नहीं, उस नायक की संस्कृति थी, जिसने उसके विवेक को जगा दिया। उसे चेताया कि तुम अनाचार की ओर बढ़ रहो हो, सावधान हो जाओ! विस्मृत विवेक को जगाने के लिए मनुष्य की संस्कृति हर पल उसके साथ रहती है। नीति-विवेक से परांग्मुख होते मनुष्य को बरजने के लिए संस्कृति के पास कोई हाथ नहीं होते; चित्त-वृत्ति को जगाकर ही वह किसी को रोकती है; जैसे उस काव्य-नायक को रोका।
किन्तु फरेब, दम्भ और मूढ़तापूर्ण आत्मविश्वास से आक्रान्त परिवेश में आज मानवीय वृत्तियाँ बड़े उधेड़बुन में रहने लगी हैं। विवेक उसे जीवन-मूल्य की रक्षा की ओर खींचता है, तो स्वार्थ क्षुद्रता की ओर। इस द्वन्द्व में विवेक उसी का विजयी होता है, जिसकी संस्कृति बलिष्ठ होती है। जिस कर्ता के भीतर यह द्वन्द्व चल रहा होता है, उसके लिए यह समय बड़े तनाव का होता है। किसी भोगे हुए सुख की स्मृति या अनुमानित सुख की कल्पना में जब कर्ता का मन बेचैन रहता है, उसका विवेक उसे सावधान करता है। ऐसी स्थिति में दुर्बल संस्कृति के कर्ता को अपनी सारी नैतिकता बेवकूफियों से भरी दिखती है, क्योंकि विवेक के पल्लू में उसे कोई तात्कालिक लाभ नहीं दिखता; इसलिए वह बेलगाम घोड़े की तरह छलांग माड़कर लिप्सा के बाड़े में कूद पड़ता है। अपनी दुर्बलता के कारण ऐसे द्वन्द्व में संस्कृति पराजित हो जाती है, क्योंकि कर्ता का विवेक एकदम से मर गया रहता है। संस्कृतिसेवियों का विवेक तो कभी नहीं मरता, पर संस्कृतिजीवियों का विवेक मरा ही रहता है।
प्रश्न उचित होगा कि संस्कृति दुर्बल होती ही क्यों है?...दुर्बल असल में संस्कृति नहीं होती, संस्कृति से कर्ता का जुड़ाव दुर्बल होता है, जो उसके दुर्बल परवरिश का नतीजा होता है। पूरे परवरिश के दौरान उसे या तो संस्कृति से परिचय ही नहीं कराया जाता, या गलत परिचय कराया जाता है। परिणामस्वरूप बड़े होने पर उन्हें अपनी संस्कृति में रूढ़ियाँ दिखने लगती हैं। आधुनिकता के दबाव में पिचके हुए ये लोग सोचते तक नहीं कि संस्कृति बहती हुई नदी है; जो किसी व्याकरण का बन्धन नहीं स्वीकारती; निरन्तर परिष्कृत होती रहती है; उसका गठबन्धन केवल नैतिक जीवन-मूल्य से होता है। सामुदायिक जीवन का सौविध्य और सौहार्द बनाए रखने के लिए वह कई बार धार्मिक सीमाएँ भी लाँघ जाती है। पर उनकी दिलचस्पी संस्कृति से संचालित रिवाजों को जानने या उनमें जीवन-मूल्य के संकेत ढूँढने के बजाय उसमें निरर्थकता और रूढ़ियाँ आरोपित करने में होती है।
ध्वन्यार्थ निकालें तो दिखेगा कि दूल्हा-दुल्हन को जुए पर बैठाकर विवाह कराने की प्रथा में रूढ़ि नहीं, संयुक्त शक्ति से जीवन की गाड़ी आगे बढ़ाने का संकल्प और पारस्परिक प्रतिज्ञा है। और यह प्रतिज्ञा भी कोई बन्धन नहीं, वैदिक साहित्य की सूक्ति तक में इसकी गतिकता मौजूद है, जहाँ पति की मृत्यु हो जाने पर स्त्री को व्यावहारिक और व्यवस्थित जीवन जीने की प्रेरणा दी गई है कि –-
‘उदीर्ष्वि नार्यभि जीवलोकं गतासुमेतमुप शेष एहि।
हस्तग्राभस्य् दिधिषोस्तवेदं पत्युर्जनित्वमभि सं बभूथ...
(ऋग्वेद 10-18-8/दसवाँ मण्डल, 18वाँ सुक्त , 8वाँ मन्त्र)
(अर्थात्, हे स्त्री! उठो! दिवंगत का मोह त्यागो और जीवलोक की ओर बढ़ो! जिस पति के साथ तुम ने जीवन का कर्तव्य किया, वे चले गए; अब इनको छोड़कर शेष घर-परिवार-जीवन पर विचार करो!...)
॰॰॰
अब संस्कृति किसी से जबर्दस्ती तो करेगी नहीं, प्रेरणा ही देगी! सो देती है। सन् 1984 के दुर्मुख वातावरण में जीवन-यापन की बुनियादी शर्तों ने केदारनाथ सिंह के काव्य-नायक को भी आहत कर दिया होगा, तभी उसके भोगे हुए सुख की स्मृति ने नैतिकता की नींव हिला दी। किन्तु उसका विवेक एकदम से मर नहीं गया था, इसलिए अनीति की ओर जाते समय उसकी संस्कृति-छाया उसके सामने आ गई और सावधान कर दिया, उसने पर्यावरण के हित में नीम की टहनी तोड़ने की इच्छा त्याग दी।
लिप्सा तो मनुष्य की जैविक वृत्ति है, पल-पल सम्मोहित किए रहती है; पर नैतिकता मूल्यगत बोध से लदा एक अमूर्त्त भाव है, जो उसकी संस्कृति से पैदा होती है। कर्ता की दिग्भ्रान्त चेतना में बसी लिप्सा उसे भोग-सुख के लिए सताती है, जबकि विवेक और नैतकिता उसे बोध का दिग्दर्शन देती है। ऐसे में दुर्बल विवेक का स्वामी अपनी ऐन्द्रिय लिप्सा के आगे घुटने तो टेकेगा ही! पर केदारनाथ सिंह के काव्य-नायक ने ऐसा नहीं किया, क्योंकि उसका विवेक बलिष्ठ था। उसके द्वन्द्व में गहन संघर्ष फिर भी बसा था, क्योंकि टहनी तोड़ने का विचार त्यागने के बाद भी उसका मानसिक द्वन्द्व चलता रहा। वह सोचता रहा कि --
तोड़ ही लेता
कुछ हरी कच्ची उमगती हुई शाखें
तो उसका क्या होता
जो उन्हीं के नीचे बैठा था...
पर वह, ‘जो उन्हीं के नीचे बैठा था’, अन्य कोई नहीं, उसकी सबल संस्कृति का बिम्ब था, जिसने उसे दुर्वृत्ति से बचाया, और, अब वह अपने उस अमूर्त्त विवेक के दायित्व का लेखा-जोखा करने लगा। संस्कृति यही करती है, किसी से कुछ नहीं कहती, बस प्रकट हो जाती है।
इधर के वर्षों में ऐसा क्या हो गया कि दुनिया भर में अपनी भव्यता, व्यापकता और प्राचीनता के लिए ख्यात भारतीय संस्कृति की छाती पर यहीं के संस्कृतिकर्मी मूँग दल रहे हैं?
उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर रोम और यूनान के अलावा भारतीय संस्कृति से अधिक प्राचीन कहीं की संस्कृति नहीं है; मिस्र, असीरिया एवं बेबीलोनिया की संस्कृति तो इसके समकालीन ही है। प्राचीनता के बावजूद इसकी निरन्तरता बनी रही है। आक्रान्ताओं की बर्वरता झेलकर भी यहाँ के नागरिकों ने इसकी मौलिकता कायम रखी। इसकी ग्रहणशीलता, सहिष्णुता, लचीलापन, आध्यात्मिकता एवं भौतिकता के समन्वय, अनेकता में एकता के सूत्र जैसी विशेषताओं ने इस संस्कृति को इतनी भव्यता दी।
शास्त्रों की संहिताओं एवं लोक की पद्धतियों का इसमें समानता से स्वागत हुआ। एक के कारण कभी दूसरे की उपेक्षा नहीं हुई। पूरा भारतीय जीवन-विधान ‘लोक-बेद’ के समन्वय से संचालित है। संविधान स्वीकृत बाइस भाषाओं एवं अनेक बोलियों के बावजूद समस्त भारतीय सहित्य में भाषिक पहचान और जीवन-मूल्य के बुनियादी सूत्र दर्ज हैं। क्षेत्रीय भिन्नता के कारण आहार-व्यवहार, तीज-त्योहार, लोकाचार में तनिक भिन्नता बेशक आ जाए, पर नीति-विवेक का सदैव-सर्वत्र सन्तुलन है।
जनजीवन के हर शुभाशुभ में सामूहिकता के सम्मान और ‘प्रकृति-औजार-पशु’ की पूजा का रिवाज है, क्योंकि इन्हीं के अमूल्य योगदान से मानव सभ्यता का विकास और संवर्द्धन सम्भव हुआ है। भारतीय संस्कृति का यह प्रेरणास्पद रिवाज –
· हर भारतीय को विवेक, नैतिकता और कृतज्ञता की सीख देता है।
· सहायता करनेवालों के प्रति कृतज्ञ और दुर्बलों के लिए सदाशय होने का विवेक देता है।
फिर भी यहाँ सोशल मीडिया से लेकर धरातल तक पर एक दूसरे के प्रति आक्रामक क्यों हैं? किसने किसका खेत चरा लिया? अपरिचित चेहरों पर भी खुशियाँ उड़ेलने के लिए ख्यात भारत में परिचित चेहरों पर दहशत पोतने की रवायत कहाँ से आई? सांस्कृतिक विप्लवी ने सचमुच यहाँ की संस्कृति बदल दी?...
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