पुष्टिमार्ग एवं अष्टछाप
शुद्धाद्वैतवाद दर्शन के आधार पर महाप्रभु वल्लभाचार्य (सन् 1479-1530) द्वारा संस्थापित भक्ति-सम्प्रदाय पुष्टिमार्ग
कहलाता है। इसे वल्लभ सम्प्रदाय या वल्लभ मत भी कहते हैं। भक्ति की इस साधना-व्यवस्था
दृष्टि में उन्होंने श्रीमद्भागवत के 'पोषणं तदनुग्रह:' के भगवत् अनुग्रह के लिए 'पुष्टि' शब्द का प्रयोग
किया। पुष्टिमार्ग की भक्ति कर्म निरपेक्ष होती है, इसमें भगवान के प्रति
आत्मसमर्पण कर भक्त सुखी होता है। वह फल की कामना नहीं करता। इसे प्रेमलक्षणा-भक्ति
भी कहते हैं। इसमें दृढ़ता लाने के लिए प्रीति अनिवार्य है। यह भक्ति-साधना
कुसंग और विषय के त्याग से सम्पन्न होती है। यह भगवान के भजन, गुण-श्रवण, कीर्तन
तथा महापुरुषों के सत्संग से साधित होती है। सूरदास के यहाँ इसका समुचित उल्लेख
है। पुष्टिमार्ग साक्षात् पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण के शरीर से उत्पन्न हुआ माना
गया है। शुद्धाद्वैत के अनुसार ब्रह्म सत्, चित्, आनन्द स्वरूप है। उसका अनुयायी
आत्म-समर्पण के रसात्मक प्रेम से भगवान की आनन्दलीला में लीन होने का इच्छुक
होता है। वह भगवान के अनुग्रह पर निर्भर होता है। जीवो पर अनुग्रह करने के लिए ही
भगवान अवतार होता है। जीव के लिए भगवान के इस अनुग्रह या पोषण की आवश्यकता बताते
हुए वल्लभाचार्य कहते हैं कि लीला-विलास के लिए जब एक से अनेक होने की ब्रह्म की इच्छा
होती है, तो अक्षर-ब्रह्म के अंश-रूप असंख्य जीव उत्पन्न हो जाते हैं। इस जीव में
केवल सत् और चित् अंश होता है, आनन्द अंश तिरोहित रहता है, इस कारण उनमें भगवान
के छह गुण –
ऐश्वर्य, वीर्य, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य नहीं होते; वे दीन, हीन, पराधीन, दुखी,
जन्म-मरण के दोष से युक्त, अहंकारी, विपरीत ज्ञान में भ्रमित और आसक्तिग्रस्त रहते
हैं। भगवान अपने अनुग्रह से उसे पुष्ट कर उसकी दुर्बलता दूर कर देते हैं। किन्तु
इस अनुग्रह के अधिकारी सभी जीव नहीं होते। केवल कर्म और ज्ञान द्वारा मुक्ति सुलभ
हो सकती है; दुष्ट आसुरी जीवों का उद्धार नहीं होता, वे निरन्तर जन्म-मरण के बन्धन
में पड़े रहते हैं। पुष्टिमार्ग में दीक्षित होते समय ही भक्त गुरु-आज्ञा से
'श्रीकृष्ण: शरणम् नमः' मन्त्र के उच्चारण द्वारा अपने तन-मन-धन-पुत्र-कलत्र आदि
श्रीकृष्ण को समर्पित करने का संकल्प करता है और समस्त सांसारिक दोषों से
निवृत्ति पा लेता है। इसके बाद भगवान को समर्पित किए बिना वह कोई भी वस्तु ग्रहण
नहीं कर सकता।
पुष्टिमार्ग के निरूपण में जीव-सृष्टि को – दैवी और आसुरी – दो वर्गों में बाँटा गया है। दैवी जीव
के भी दो वर्ग हैं – पुष्टिजीव और मर्यादाजीव। पुष्टिजीव
फिर चार प्रकार के होते हैं – शुद्धपुष्ट, पुष्टिपुष्ट,
मर्यादापुष्ट, प्रवाहपुष्ट। ये चारो जीव भगवान की सेवा के लिए ही जन्म
लेते हैं। परमानन्द ब्रह्म श्रीकृष्ण के साथ लीन रहनेवाले सिद्ध भक्त शुद्धपुष्ट
और सहज भगवत्कृपा के अधिकारी भक्त पुष्टिपुष्ट जीव होते हैं। मर्यादापुष्ट
और प्रवाहपुष्ट जीवों को सदैव भगवान के अनुग्रह की अपेक्षा रहती है। विषयभोग
के साथ निरन्तर जन्म-मरण के प्रवाह में पड़े रहनेवाले सांसारिक जीवन का ही दूसरा
नाम प्रवाहमार्ग है, जबकि वेद-विहित कर्म का अनुसरण और ज्ञानप्राप्ति का
प्रयत्न करना मर्यादामार्ग कहलाता है।
समय की आवश्यकता देखते हुए ही वल्लभाचार्य ने पुष्टिमार्ग की
स्थापना की थी। इसका विशद चित्रण उनके 'कृष्णाश्रय' शीर्षक प्रकरण ग्रन्थ
में है। वह ऐसा समय था, जब समस्त देश म्लेच्छाक्रान्त था, गंगादि तीर्थ भ्रष्ट
हो रहे थे। अधिष्ठाता देवता अन्तर्धान हो गए थे। वेद-ज्ञान का लोप हो गया था, यज्ञादि-अनुष्ठान
सम्भव नहीं था, ऐसे अवसर पर भक्ति-मार्ग ही एकमात्र विकल्प था। उन्होंने भक्ति
का ऐसा प्रशस्त मार्ग बनाया, जिस पर चलने के लिए सभी श्रेणियों, वर्गों, सम्प्रदायों
के लोग सहज रूप से आमन्त्रित थे, पुष्टिमार्ग में किसी का तिरस्कार नहीं था। इससे
कृष्ण-भक्ति आन्दोलन को व्यापकता मिली। इस नवीन नागरिक चेतना के परिणामस्वरूप
तत्कालीन समाज के सामुदायिक जीवन में नई चेतना का संचार हुआ, सदैव से तिरस्कृत-उपेक्षित
वर्ग के लोगों को सम्मान दिया गया; जाति, लिंग, सम्प्रदाय का भेद-भाव समाप्त
हुआ, रूढ़ि-जर्जर समाज के नवीकृत रूप की सम्भावना दिखी। इस निष्काम प्रेम-भक्ति
में कर्मकाण्ड की कोई चिन्ता नहीं थी, संन्यासी होने की विवशता नहीं थी,
धार्मिक आचार्य भी सम्पूर्ण गृहस्थ होते थे; इसमें त्याग का नहीं, समर्पण का महत्त्व
था। माना जाता था कि समर्पण से ही मानसिक वैराग्य दृढ़ होता है। इसमें सदाचार का कोई
स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं था, भगवन्मय जीवन में वह स्वत:सिद्ध माना जाता था। अर्थात्,
पुष्टिमार्ग एक प्रवृत्ति-मार्ग है, जिसमें मानसिक निवृत्ति पर ही विशेष बल दिया जाता
है।
इसी पुष्टिमार्ग के संस्थापक आचार्य वल्लभ के चार
प्रमुख शिष्यों -- कुम्भनदास (सन् 1468 से
1582), सूरदास (सन् 1478 से 1580
या 1585), कृष्णदास (सन् 1495
से 1575 या 1581), परमानन्द दास (सन् 1491 से 1583)
और उनके पुत्र विट्ठलनाथ (सन् 1515 से 1585) के चार प्रमुख शिष्यों -- गोविन्दस्वामी
(सन् 1505 से 1585),
छीतस्वामी (सन् 1510 से 1585),
नन्ददास (सन् 1533
से 1586) और चतुर्भुजदास (सन् 1540 से 1585)
को मिलाकर आठ
कृष्ण भक्त-कवियों
के समूह द्वारा रचे/गाए गए पदों, कीर्तनों के संग्रह को हिन्दी साहित्य में अष्टछाप
(आठ मुद्राएँ) शीर्षक से जाना जाता है।
इन गीतों में श्रीकृष्ण की लीलाओं का गुणगान है। ये सभी अष्टछाप के कवि एवं सम्प्रदाय
के इष्टदेव श्रीनाथजी के अत्यन्त निकटवर्ती रूप में प्रसिद्ध थे। भक्ति की
प्रबलता और सम्पूर्ण समर्पण के कारण इनकी प्रसिद्धि श्रीनाथजी के अष्टसखा के रूप
में थी। इन्हें भगवदीय
भी कहा जाता था। इन
भक्त कवियों का रचनाकाल सन् 1500 से 1586 के
बीच का अनुमान किया गया है। इस सम्प्रदाय का संस्थापन सन् 1565 के आसपास हुआ। ये सभी भिन्न-भिन्न जातियों,
वर्गों के थे। परमानन्द कान्यकुब्ज ब्राह्मण,
कृष्णदास शूद्र, कुम्भनदास राजपूत (किसान), चतुर्भुजदास कुम्भनदास के पुत्र और
वंश-परम्परा के सम्पोषक किसान, सूरदास सारस्वत ब्राह्मण या ब्रह्मभट्ट, गोविन्ददास
और नन्ददास (कुछ लोग नन्ददास को गोस्वामी तुलसीदास के चचेरे भाई समझते हैं) सनाढ्य ब्राह्मण, छीतस्वामी माथुर चौबे थे। ये लोग बड़े उदार स्वभाव
के थे।
कहा जाता है कि सन् 1492 में गोवर्धन पर श्रीनाथजी प्रकट हुए,
उन्हीं दिनों महाप्रभु वल्लभाचार्य ब्रज आए थे, उन्होंने गोवर्धन के एक छोटे-से
मन्दिर में श्रीनाथजी को प्रतिष्ठित किया। उन्हीं दिनों गोवर्धन के निकटवर्ती गाँव
जमुनावती के निवासी गोरवा क्षत्रिय कुम्भनदास उनकी संगति में आए, जिन्हें वल्लभाचार्य
ने दीक्षा देकर श्रीनाथजी की कीर्तन-सेवा में नियुक्त कर दिया। जब वे दूसरी बार
ब्रज आए, तब सन् 1499 में श्रीनाथजी के बड़े मन्दिर की नींव
पड़ी। तीसरी ब्रज-यात्रा में वे आगरा-मथुरा के बीच गऊघाट पर मिले संन्यासी सूरदास
को साथ ले आए और मन्दिर में कीर्तन-सेवा में लगा दिया। इसी अवसर पर सन् 1509 में श्रीनाथजी की मूर्ति नए मन्दिर में
स्थापित की गई और गुजरात के एक गाँव के कुनबी वंश के कृष्णदास को भी कीर्तन-सेवा में
लगाया। अपनी जगन्नाथपुरी-यात्रा में चैतन्य महाप्रभु से मिलने के बाद जब
वल्लभाचार्य सन् 1519 के आसपास अपने स्थाई निवास अडैल
पहुँचे, तो कान्यकुब्ज ब्राह्मण परमानन्दस्वामी नाम के एक प्रसिद्ध कवि-कीर्तनकार
को स्वप्न देकर अपनी ओर आकृष्ट किया और अपने सम्प्रदाय में दीक्षित किया
सन् 1530
में महाप्रभु
वल्लभाचार्य के दिवंगत होने के बाद पुष्टिमार्ग के आचार्य पद पर उनके ज्येष्ठ
पुत्र गोपीनाथ प्रतिष्ठित हुए। आठ वर्ष
बाद सन् 1538 में उनका भी निधन हो गया। गोपीनाथ के
पुत्र पुरुषोत्तम का देहावसान पहले ही हो चुका था, फलस्वरूप गोपीनाथ के छोटे भाई
विट्ठलनाथ ने आचार्य पद सँभाला और बड़ी निष्ठा से सम्प्रदाय के संघटन का दायित्व
निभाया। सन् 1566 से वे स्थाई रूप से अडैल छोड़कर ब्रज में रहने लगे। इसी वर्ष
उन्हें शहंशाह अकबर की ओर से अभयदान का आज्ञा-पत्र भी प्राप्त हुआ। श्रीनाथजी के
मन्दिर में कीर्तन-सेवा के साथ-साथ उन्होंने सम्प्रदाय के प्रचार-प्रसार और
साहित्य-संगीत की उन्नति में अपूर्व योगदान दिया। उन्होंने पिता तथा अपने सैकड़ों
शिष्यों में से काव्य-प्रतिभा-सम्पन्न 'परम भगवदीय' चार-चार शिष्य छाँटकर आठ
भक्तों की प्रतिष्ठा 'अष्टछाप' नाम से दी, जो सम्प्रदाय-हित में विट्ठलनाथ की
सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सेवा मानी जाती है। पुष्टिमार्गीय भक्ति का जैसा विस्तार
इन भक्त कवियों के कारण हुआ, वैसा सम्भवत: अन्य किसी साधन से संभव नहीं था।
'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' तथा 'दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता' से प्राप्त सूचनानुसार
इस सम्प्रदाय में दीक्षित होने के पूर्व इनमें से कई भक्तों का जीवन अत्यन्त हीन
कोटि का था। किंवदन्ती के अनुसार सूरदास किसी स्त्री पर मुग्ध थे, उसी से
उन्होंने अपनी आँखें फोड़वा लीं; किन्तु इस तथ्य की पुष्टि किसी प्रमाणिक
स्रोत से नहीं होती। यद्यपि तरुणाई में सूरदास का रसिक होना अकल्पनीय भी नहीं है।
कृष्णदास के चरित्र में गुणावगुण का अद्भुत मिश्रण है। नन्ददास भी दीक्षित होने
से पूर्व किसी स्त्री के अनुचित प्रेम में फँसे थे। अर्थात् समर्पणपूर्वक श्रीनाथ-शरण
में आने से पतित चरित्र भी पावन होने की योग्यता पा जाते हैं। इस सम्प्रदाय में सूरदास,
परमानन्ददास, गोविन्दस्वामी और नन्ददास का विशेष महत्त्व था; इनके दीक्षा-गुरु
भी इन्हें उतने ही सम्मानित भाव से देखते थे, जितने स्वयं को।
धन,
मान, मर्यादा की इच्छाओं से पूरी तरह विरक्त
कुम्भनदास मूलत: किसान थे। पुष्टिमार्ग में दीक्षित तथा श्रीनाथ मन्दिर के
कीर्तनकार पद पर होने के बावजूद उन्होंने अपनी वृत्ति नहीं छोड़ी; अन्त-अन्त तक किसानी
करते हुए निर्धनावस्था में अपने परिवार
का भरण-पोषण किया। परिवार में पत्नी, सात पुत्र, सात बहुओं के अलावा एक विधवा भतीजी भी थी।
उन्होंने कभी कोई दान स्वीकार नहीं किया। राजा मानसिंह ने उन्हें एक बार सोने की आरसी और एक हज़ार मोहरों की थैली
भेंट करनी चाही, किन्तु कुम्भनदास ने उसे
अस्वीकार कर दिया। जनश्रुति है कि एक बार उन्हें अकबर ने फ़तेहपुर सीकरी बुलाया था। अपने इष्टदेव के अलावा अन्य किसी का यशोगान नहीं करने की कुम्भनदास की
प्रवृत्ति से अकबर
परिचित थे, फिर भी
उन्होंने कुम्भनदास से कुछ माँगने का अनुरोध किया; कुम्भन दास ने माँग की कि मुझे
फिर कभी न बुलाया जाए।
कहते हैं कि एक बार गोस्वामी
विट्ठलनाथ ने उनसे जब पुत्रों की संख्या पूछी, तो उन्होंने कहा कि वास्तव में
उनके डेढ़ ही पुत्र हैं, क्योंकि पाँच लोकासक्त
हैं, एक चतुर्भुजदास
भक्त हैं और आधे कृष्णदास हैं,
क्योंकि वे भी श्रीनाथ
की गायों की सेवा करते हैं। 'राग-कल्पद्रुम' 'राग-रत्नाकर' तथा सम्प्रदाय के कीर्तन-संग्रहों में संकलित पदों से
कुम्भनदास के लगभग 500 पदों
की जानकारी मिलती है। कृष्णलीला से
सम्बद्ध प्रसंगों में कुम्भनदास के पद नित्यसेवा, प्रभुरूप वर्णन आदि विषयों से
सम्बद्ध हैं।
अग्रणी कृष्ण भक्त महाकवि सूरदास वात्सल्य रस-सम्राट माने जाते हैं। शृंगार और शान्त रस की
भी उन्होंने मर्मस्पर्शी
रचनाएँ की हैं।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल उनका काल सन् 1483-1563
के आसपास मानते हैं। अभिलेखों में कई सूरदास के उल्लेख के कारण उनके परिचय में जन्म,
जन्म-स्थान, जाति और जीवन-वृत्त सम्बन्धी कई असहमतियाँ हैं। कुछ लोग उनका
जन्म-स्थान मथुरा-आगरा के
बीच रुनकता गाँव मानते हैं, जबकि कुछेक की राय में
उनका जन्म सीही गाँव में एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ, बाद में वे
आगरा-मथुरा के बीच गऊघाट पर आकर रहने लगे। 'आईना-ए-अकबरी' और 'मुंशियात अब्बुलफजल' में बनारस के एक सन्त सूरदास का उल्लेख है। जनुश्रुति के
अनुसार सूरदास का यशोगान सुनकर
शहंशाह अकबर (सन् 1542-1605) उनसे मिलने को प्रवृत्त हुए; सुविख्यात संगीतविद् तानसेन के माध्यम से मथुरा में दोनों की भेंट सम्भव
भी हुई। सूरदास के भक्तिपूर्ण पद-गान
सुनकर अकबर बहुत प्रसन्न हुए; उन्होंने सूरदास से अपने यशोगान का निवेदन भी किया,
किन्तु सूरदास ने एक पद गाकर उन्हें सूचित कर दिया कि कृष्ण के अलावा वे अन्य
किसी का यशोगान नहीं करते। सूरदास के
काव्यानुशीलन से स्पष्ट होता है कि वे राधा-कृष्ण के न केवल परम भक्त थे, बल्कि
उन्हीं के रंग में ढले हुए थे। उनमें कृष्ण जैसी
गम्भीरता एवं विदग्धता तथा राधा जैसा
वाक्चातुर्य एवं आत्मोत्सर्ग भरा हुआ था। वे
अनुभवी, विवेकवान एवं चिन्तनशील भक्त
थे। उनका हृदय सरल, संवेदनशील, स्नेह-कातर था। 'भक्तमाल' एवं 'चौरासी
वैष्णवन की वार्ता'
से मिली सूचना के अनुसार
वे मेधा-चक्षु थे, साधु की तरह रहते थे। गऊघाट पर वल्लभाचार्य
से भेंट होने तक वे कृष्ण की आनन्दमय ब्रजलीला से परिचित नहीं थे, दास्य-भाव से पतितपावन
हरि-भक्ति में अनुरक्त थे, उसी भाव की पद-रचना कर गाते थे। वल्लभाचार्य से पुष्टिमार्ग
में दीक्षित होने और लीलागान का उपदेश सुनने के बाद वे कृष्ण-चरित विषयक पदों की
रचना करने लगे। वल्लभाचार्य उनकी आशु-कवि प्रतिभा और मधुर पद-गायन से सम्मोहित
हो गए; उन्होंने उन्हें भागवत की सम्पूर्ण अनुक्रमणिका सुनाई; सूरदास इस
ज्ञानयुक्त प्रेम-भक्ति का रहस्य हृदयंगम कर पदों में गाकर सुनाने लगे। सूरदास के
रचे-गाए कृष्ण-लीलापरक हजारों पद पुष्टिमार्ग के शास्त्र के रूप में सम्मानित
हैं। कहा जाता है कि पुष्टिमार्ग का जैसा विषद् परिचय सूरसागर से मिलता
है, वैसा अन्य किसी एक साधन से सम्भव नहीं है। उनकी सर्वसम्मत प्रामाणिक रचना 'सूरसागर' में प्रस्तुत कृष्ण-लीलाओं का वर्णन
सदियों से सुधी-जनों की चित्त-वृत्ति पर छाया हुआ है। किसी भी महाकाव्य की
रचना किए बिना भी वे जन-चित्त में महाकवि विशेषण से विराजमान हैं, यही उनकी लोकप्रियता
का प्रमाण है। पुष्टिमार्ग में उनके कथन का स्वागत सिद्धान्त की तरह होता था। उन्हें
अष्टछाप का जहाज, पुष्टिमार्ग का जहाज, खंजन नयन, भावाधिपति, वात्सल्य रस सम्राट आदि जन-विशेषणों से भी जाना
जाता है।
कृष्णदास का जन्म गुजरात के एक कुनबी परिवार में
हुआ था। सन् 1509 में वे पुष्टिमार्ग में दीक्षित हुए। बाल्यकाल से ही वे असाधारण धार्मिक प्रवृत्ति के
थे। बारह-तेरह वर्ष की आयु
में उन्होंने अपने
पिता की एक चोरी पकड़वा दी थी; जिस कारण उन्हें घर से निकाल दिया गया था। वे घूमते-भटकते ब्रज आ गए। वहीं उनकी भेंट वल्लभाचार्य से हुई।
उनकी बुद्धिमत्ता, व्यवहार-कुशलता और संघटन से प्रसन्न
होकर वल्लभाचार्य ने उन्हें श्रीनाथ मन्दिर का अधिकारी पद सौंपा। भली-भाँति इस दायित्व
का निर्वाह करते हुए उन्हें मन्दिर से गौड़ीय वैष्णव
सम्प्रदाय के
बंगाली ब्राह्मणों को
बाहर निकालने में सफलता मिली। अपने सम्प्रदाय मेंवे सिद्धान्तों के श्रेष्ठ ज्ञाता
माने जाते थे। जन्मना शूद्र होने के बावजूद वल्लभाचार्य ने उन्हें श्रीनाथ मन्दिर
का प्रधान बनाया। अन्य कृष्णभक्त कवियों की तरह उन्होंने भी राधाकृष्ण प्रेमविषयक शृंगारिक पद गाए। जुगलमान चरित, भ्रमरगीत,
प्रेमतत्त्व निरूपण – उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं। 'राग-कल्पद्रुम', 'राग-रत्नाकर' और सम्प्रदाय के कीर्तन संग्रहों में संकलित
इनके पदों के विषय लगभग वही है जो कुम्भनदास के हैं।
परमानन्ददास का जन्म कन्नौज (उत्तर प्रदेश) के एक निर्धन कान्यकुब्ज ब्राह्मण
परिवार में हुआ। बाल्यावस्था से ही वे विरक्त होकर भगवत भजन में जीवन बिताने लगे
थे। उन्होंने अपने पदों में श्रीकृष्ण की
लीलाओं का वर्णन किया है। परमानन्दसागर में उनके 835 पद हैं। इसके
अलावा उनकी दो और कृतियाँ – 'ध्रुव चरित्र' और 'दानलीला' हैं। महाकवि सूरदास के बाद अष्टछाप में इनका नाम श्रद्धा से लिया
जाता है।
गोविन्दस्वामी का जन्म अँतरी गाँव (भरतपुर, राजस्थान)
के सनाढ्य ब्राह्मण परिवार में हुआ। उनका रचनाकाल सन् 1543 से 1568
के आसपास माना जाता है। वे कवि के साथ-साथ अच्छे गायक भी थे।
जनश्रुति है कि तानसेन कभी-कभी इनका गाना सुनने के लिए आया
करते थे। ये गोवर्धन पर्वत पर रहते थे। सन् 1585 में ये गोस्वामी विट्ठलनाथ से पुष्टिमार्ग
की विधिवत दीक्षा लेकर अष्टछाप में सम्मिलित हुए। इनके पदों में श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन है।
छीतस्वामी का जन्म मथुरा के एक सम्पन्न चतुर्वेदी ब्राह्मण परिवार
में हुआ। पारिवारिक पेशा यजमानी था। प्रारम्भ में ये बड़े द्दण्ड थे। जनश्रुति
में इनके बीरबल के पुरोहित होने की बात भी आती है। इनके
पदों में श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन है। विभिन्न
स्रोतों से उपलब्ध इनके सभी 64
पदों की मधुर सांगीतिकता, ताल और पदलालित्य अत्यन्त सम्मोहक
है।
सोलहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण के कवि नन्ददास को जड़िया कवि के नाम से भी जाना जाता है। सूरदास के बाद सर्वाधिक प्रसिद्धि इन्हीं की
हुई। कुछ चर्चा में इन्हें तुलसीदास का भाई भी माना जाता है, जिसकी प्रमाणिकता
संन्दिग्ध है। किंवदन्ती है कि द्वारिका जाते समय ये सिन्धुनद ग्राम में एक
रूपवती खत्रानी
पर आसक्ति के कारण
उसके घर का चक्कर लगाने लगे थे। घरवाले तंग आकर गोकुल चले गए, तो ये वहाँ भी पहुँच गए। वहीं इनकी
भेंट गोस्वामी विट्ठलनाथ से हुई, और उनके उपदेश से उस स्त्री से इनकी आसक्ति
समाप्त हुई और ये भगवत्भजन में तल्लीन हुए। इनकी प्रमुख कृतियाँ हैं -- भागवत
दशमस्कन्ध, रुक्मिणीमंगल, सिद्धान्त पंचाध्यायी, रूपमंजरी, मानमंजरी, विरहमंजरी,
नामचिन्तामणिमाला, अनेकार्थनाममाला, दानलीला, मानलीला, अनेकार्थमंजरी, ज्ञानमंजरी,
श्यामसगाई, भ्रमरगीत, सुदामाचरित्र, हितोपदेश, नासिकेतपुराण।
कुम्भनदास के पुत्र, गोंडवाना के गढ़ा गाँव के
निवासी चतुर्भुजदास ने अपने समय के दम्भ, पाखण्ड और रूढ़ियों का दृढ़ता से
खण्डन किया। उनकी ब्रजभाषा पर बैसवाड़ी और बुन्देली का गहन प्रभाव है। द्वादशयश, भक्तिप्रताप, हितजू को मंगल –
उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं।