Saturday, April 4, 2020

प्रतीकवाद : रूपवाद : प्रयोगवाद



प्रतीकवाद : रूपवाद : प्रयोगवाद

नए प्रतीकों की बहुलता एवं प्रधानता के कारण प्रयोगवादी धारा की कवि‍ताओं को 'प्रतीकवादी' भी कहा गया। कुछेक ने तो इसका अभिप्राय 'रूपवाद' में सीमित कर दि‍या, जबकि‍ रूपवाद प्रयोगवाद की समग्रता नहीं, एक शाखा-मात्र है, क्योंकि प्रयोगवादी केवल रूप-विधान या तकनीक पर ही ध्यान नहीं देते; उसमें अन्य तत्त्व भी हैं।
साहित्यि‍क पाठ के मूल्यांकन की वैसी आलोचनात्मक पद्धति रूपवाद कहलाती है, जि‍समें भाषि‍क वैशि‍ष्‍ट्य के आधार पर पाठ का विश्लेषण होता है। इसका उदय स्वच्छन्‍दतावाद की प्रतिक्रिया के रूप में बीसवीं सदी के प्रारम्‍भि‍क समय में हुआ। इसके अन्‍तर्गत व्याकरण, शब्‍दों एवं पदों की व्‍युत्‍पत्ति; छन्‍द, अलंकार जैसी साहित्यिक प्रयुक्तियाँ आदि ‍की दृष्‍टि ‍से पाठ पर विचार कि‍या जाता है। स्‍पष्‍टत: ‍आलोचना की इस पद्धति में कृति के कथ्य, लेखकीय जीवनानुभव एवं साहित्य के सांस्कृतिक, ऐतिहासिक सन्‍दर्भों का महत्त्व कमतर हो जाता है। जबकि स्वच्छन्‍दतावादी साहित्य सिद्धान्‍त में रचनाकारों की रचनात्मक प्रतिभा महत्त्वपूर्ण मानी जाती थी; जि‍से रूपवाद ने पाठ की संरचना को महत्त्व देकर रचना से वि‍स्‍थापि‍त कर दि‍‍या। यहाँ पाठ-वि‍श्‍लेषण के सहारे रूप-निर्मिति ‍की पद्धति ‍से रचना को महत्त्वपूर्ण बनाने की कोशि‍श की गई।
इस रूपवाद की शुरुआत प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान रूस के दो मुख्‍य शहर मॉस्को (सन्1915 में) और सेण्‍ट पीटर्सबर्ग (सन् 1916) में हुई। सोवियत संघ के गठन के बाद रूपवादियों का केन्द्र चेकोस्लोवाकिया की राजधानी प्राग बन गया। रूपवादियों ने वहाँ प्राग लिंग्विस्टिक सर्किल संगठन का गठन किया। बोरिस ईकेनबाम, विक्टर श्क्लोवस्की, रोमन जैकोब्सन, रेनेवेलक, जॉन मुकारोवस्की आदि की गणना प्रमुख रूपवादी रचनाकारों में होती है। बाद के दि‍नों में रूपवाद की दो धाराएँ प्रचलि‍त हुईं-- रूसी रूपवाद और आंग्ल अमेरिकी नई समीक्षा। द्वि‍तीय विश्व युद्ध के अन्‍त से लेकर सन् 1970 तक रूपवाद अमेरिकी साहित्यिक अध्ययन की प्रभावी पद्धति ‍बनी रही। रेनेवेलेक और ऑस्टिन वारेन के साहित्य सिद्धान्‍तों में यह विशेष रूप से दिखाता है। सन् 1970 के दशक के अन्‍त आते-आते नए साहित्य सिद्धान्‍तों द्वारा रूपवाद भी विस्थापित हो गया। इस पर क्रमश: समाज निरपेक्षता के नकारात्मक आरोप लगने लगे। नवागत नए सिद्धान्‍तों के कुछ लक्ष्य राजनीतिक भी थे, कि‍न्‍तु यह संकल्पना भी प्रभावी थी कि साहित्यिक रचनाओं को उसकी उत्पत्ति एवं उपयोग से अलगा कर देखना सम्‍भव नहीं है।
सन् 1926 में ईकेनबाम ने 'द थियोरी ऑफ द फॉर्मल मेथड' (रूपवादी पद्धति का सिद्धान्‍त) शीर्षक अपने एक निबन्‍ध में रूपवादियों द्वारा प्रस्तावित आधारभूत पद्धति‍यों पर विचार किया और कहा कि ‍इसका लक्ष्य साहित्य का ऐसा विज्ञान वि‍कसि‍त करना होगा जो स्वतन्‍त्र भी होगा और तथ्यपरक भी। इसे काव्य-शास्त्र कहने में भी उन्‍हें कोई संकोच नहीं था। उन्‍होंने स्‍वीकारा कि ‍साहित्य चूँकि भाषा द्वारा निर्मित होता है, इसलिए साहित्य के विज्ञान का आधारभूत तत्त्व भाषा-विज्ञान होगा। बाहरी स्थितियों से साहित्य के स्वायत्त होने के कारण उन्‍होंने साहित्यिक भाषा को सामान्य प्रयुक्‍ति‍यों की भाषा से विशिष्ट होना माना। उन्‍होंने रेखांकि‍त कि‍या कि साहित्य का अपना इतिहास होता है, इसलि‍ए रूपवादी संरचना में आविष्कार का इतिहास बाहरी भौतिक पदार्थों के इतिहास से निर्धारित नहीं होगा; मार्क्सवाद के संस्करणों में बताई गई पद्धति ‍से तो बि‍ल्‍कुल नहीं। साहित्यिक कृति जो, जैसे कहती है, उसे उससे अलगाया नहीं जा सकता। रूप और वस्तु अविच्छन्न होते हैं, एक दूसरे के अंश भी, पूरक भी।
रूपवादी शोध में जब शोधार्थी अपना लेखन प्रस्तुत करते हैं, पाठ का स्वामि‍त्‍व भाषा का होता है; कि‍न्‍तु जब सन्‍दर्भ को काटकर रचनाएँ पाठकों को पढ़ने दी जाती हैं, पाठ का स्‍वामि‍त्‍व भाषा के बजाय शिक्षक का होता है। रूप पर इस अतिशय जोर के कारण ही रूपवाद की आलोचना हुई। इस पद्धति ‍की समीक्षा में वि‍वेचक का समग्र लक्ष्‍य रूप-रचना एवं शैली पर ही केन्द्रित रहता है, लि‍हाजा, कला एवं साहित्य के अन्य सभी तत्त्व उपेक्षि‍त रह जाते हैं । रूपवाद के इस एकांगी आग्रह ने शीघ्र ही इसका अन्‍त कर दिया।
रूप-रचना एवं शैली की प्रधानता भारतीय पद्धति ‍में रही है। रीति‍ और अलंकार सम्प्रदाय के अधीन आचार्यों ने यहाँ भी पाठ की रचना-प्रक्रिया, पद्धति, शैली, अलंकार के महत्त्व को रेखांकित किया है। इन्होंने भी रीति या अलंकार जैसे काव्य-तत्त्व को काव्य की आत्मा माना है, किन्तु इस कारण अन्य तत्त्वों का बहिष्कार नहीं किया गया; बल्कि अन्य तत्त्वों को शामिल करते हुए चिन्‍तन को पूर्ण बनाने की चेष्टा की गई। इसलि‍ए रूप एवं शैली की प्रमुखता के कारण भारतीय रीति एवं अलंकार सम्प्रदाय को रूपवादी समीक्षा का समानधर्मा मानना उचित नहीं। ‍यूरोपीय रूपवादी चिन्तन में एकांगिकता प्रधान है, जबकि ‍भारतीय रीतिवादी चि‍न्‍तन में सर्वांगीणता।

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