मनुष्य की परिभाषा खोजता लेखक
गंगेश गुंजन का रचना-कर्म
मेरे हाथ का पूरा वजन
मेरी ही गर्दन पर झूल गया है
यही तो उस दिन की बात है
अस्पताल में प्लास्टर हुआ था
मेरा बेटा नोचता हुआ अपने सिर के बाल
उगलता हुआ आँखों से चिनगारियाँ
पढ़ते-पढ़ते ही पुस्तकों को अलग फेंककर
बिजली की नाईं चमककर अकस्मात खड़ा हो गया
है...
गंगेश गुंजन की उक्त पंक्तियाँ लेखकीय मान्यताओं एवं अवधारणाओं
को रेखांकित करती हैं। सन् 1961 से वे मैथिली में लेखन शुरू कर निरन्तर
मातृभाषा की सेवा करते आ रहे हैं। गत शताब्दी के सातवें दशक में गुंजन हिन्दी
कहानियाँ एवं कविताएँ लिखने में काफी सक्रिय रहे, खूब
प्रकाशित भी होते रहे। सम्भवतः मातृभाषा के अनुराग के कारण बाद के दिनों में उनका
मैथिली लेखन तीव्र और हिन्दी में प्रकाशन सुस्त हो गया। वृत्ति के लिए आरम्भिक
दिनों से ही वे आकाशवाणी से सम्बद्ध रहे।
उल्लेखनीय है कि कोई रचनाकार किसी विधा विशेष का गुलाम नहीं
होता। अपनी जीवनानुभूतियों की अभिव्यक्ति हेतु लेखक जिस विधा का चयन करता है, उसमें उनका जनसरोकार अहम होता है। सारी
ही सृजनात्मक विधाओं में अपने लेखन हेतु गुंजन को पाठकों से समुचित प्रतिष्ठा मिली
है। युगीन जन-जीवन की जटिल पद्धतियों से उपजी कुटिलताओं, त्रासदियों और विडम्बनाओं के सुलझे हुए
कथा-शिल्पी गुंजन के गद्य में एक लयात्मकता और पद्य में एक कथात्मकता अनुगुम्फित
रहती है।
यूँ तो आज का सारा साहित्य ही व्यवस्था का विरोध और मेहनतकश की
तरफदारी करता है, बल्कि इसीलिए आज का साहित्य ईमानदार भी
है। लेकिन गुंजन का साहित्य बड़ी लकीर मिटाकर छोटी लकीर को बड़ी लकीर बनाने की
हिमायत नहीं करता। उनका साहित्य मेहनतकश की ताकत की दुहाई देता है, अपनी अस्मिता की नींव खोजता है, उसे मजबूत करता है। उनका हर पात्र अपनी
ताकत की समीक्षा करता है। व्यवस्था की यान्त्रिकता में पिल पड़ने वाले बड़े-बड़े
मगरमच्छों से गुंजन का पात्र न तो डरता है और न ही घड़ियाली आँसू बहाने हेतु किनारे
बैठकर रोता है। यहाँ तक कि सीमान पर खड़े कुत्तों की तरह भौंकता भी नहीं, वह इत्मीनान से अपनी जीवन प्रक्रिया में
लगा रहता है। उसे अपनी शक्ति और अपनी कार्य पद्धति पर पूरा भरोसा रहता है।
अभिप्राय यह नहीं कि गुंजन के पात्रों को, उनके
काव्य पुरुष को क्रोध नहीं आता। आता है, लेकिन
इस हेतु वह अपने आलस्य से लड़ता है और विजय पाता है। इस सन्दर्भ में जीवनपर्यन्त
रक्तभोजी समुदाय का तिरस्कार कर अपने युद्ध, अपने
सन्धान में अपनी मान्यता के साथ अग्रसर रहने वाले कबीर उचित ही याद आएँगे। गुंजन
का सम्पूर्ण साहित्य एक तरफ विषय और सोच के स्तर पर कबीर की याद दिलाता है, तो दूसरी ओर भाषा की शालीनता और शिष्टता
में अज्ञेय की। कई-कई बातों को,
कई-कई अनुभूतियों को
कम से कम शब्दों द्वारा पाठकों तक पहुँचाने में गुंजन ने मैथिली साहित्य में
सर्वथा एक अलग स्थान बनाया है।
हर कृति में गुंजन की गहन जीवन-दृष्टि अपने पूरे फलक के साथ
उपस्थित है। बारह कहानियों के संकलन ‘उचितवक्ता’ में इस शीर्षक की एक भी कहानी नहीं है।
इस नाम की सार्थकता सारी ही कहानियों और लेखक की पैनी निगाह में है, जो कहीं युगीन भौतिकता की दौड़ में
बेतहाशा भागते हुए मनुष्य के पतन,
राजनीतिक लोलुपता और
संक्रमण के कीड़ों की तरह फैलती हैवानियों के पीछे आकर्षित लोगों को गम्भीरता से
देख-परख रही है। ‘संगी’ जैसी
कहानियाँ भी, जिसका केन्द्रीय सरोकार प्रेम से
है--मनुष्य की आदिम प्रवृत्तियाँ और समकालीन विवशता का संश्लिष्ट सूत्र खोजती है
और ‘अपन समांग’ जैसी कहानियाँ युगीन आँधी में सूखे
पत्ते की भाँति फड़फड़ाते मानवीय सम्बन्धों की खण्डित अस्मिता पहचानती है। गुंजन
रचनात्मकता हेतु और किसी चीज से अधिक आवश्यक ‘मनुष्य’ को मानते हैं। ‘मनुष्य जो आज भी कुछ खोज रहा है। उस
मनुष्य का परिचय मैं स्वयं खोज रहा हूँ...।’ गुंजन
का सारा रचना-संसार इसी मनुष्य और इसी मनुष्य के परिचय की तलाश है। ‘हम एकटा मिथ्या परिचय’ भी वही तलाशती है जो ‘अपन समांग’ तलाशती है। ‘मनुक्ख आ गोबर’ वही तलाशती है जो ‘मुर्दा मुर्दाक भाग्य’ तलाशती है।
यूँ तो प्रकाश,
सचाई, यथार्थ, खुशियाली
आदि हर्षातुर उपादान आम जनजीवन में ही कम मिलते हैं। गुंजन की कविताओं में खासकर
अन्धकार, मिथ्या परिचय, स्वप्न, दमघोंटू
वातावरण, पीड़ा, बधिर-गूंगे
लोग, प्रतीक्षारत लोग, अपमान, निराशा
आदि शब्द अधिकतर आते हैं। रचनाकार अपने आसपास बिखरे जिन सन्दर्भों और सूत्रों से
अपने रचना का विषय लेता है,
उसी में अपना
व्यक्तित्व भी गढ़ता है,
दृष्टि पैनी करता है
और इसी परिवेश में अपने काव्य पुरुष की शक्ल भी गढ़ता है। ऐसे में यह अकारण नहीं
हुआ कि गुंजन के साहित्य में ऐसे शब्द विस्तार से जगह लेने लगे। यह सकारण और
सन्दर्भयुक्त ढंग से हुआ;
ये शब्द इनके साहित्य
में महज शब्द नहीं रहकर एक-एक घटना बन गए हैं और अपने साथ लम्बे-लम्बे दृष्टान्त
रखने लगे हैं। उनकी ऐसी रचनाओं से रू-ब-रू होते हुए उन दृष्टान्तों से परिचित होना
आवश्यक होगा, वर्ना हड़बड़ी में कुछ लोगों के लिए कह
देना सहज होगा कि अर्थोंष्कर्ष जटिल है।
व्यक्तित्व से अत्यन्त सहज, सरल
दिखने वाले गुंजन अपने व्यवहार में कई स्तर पर अपनी पारम्परिक धरोहर के रक्षक
प्रतीत होते हैं, लेकिन मानीवय संवेदना के सन्दर्भ में वे
सर्वथा एक नई जमीन पर नई परम्परा की नींव डालते प्रतीत होते हैं। इस नवारम्भ के
आग्रही वे इस अर्थ में भी दिखते हैं कि उनके काव्य पुरुष हर जगह अपनी थोथी रूढ़ियों
को त्यागकर जीवन के सुखमय दौर के लिए नया संसार खोज लेता है, नया रास्ता अख्तियार कर लेता है। यह काम
‘आइ भोर’ का
नायक भी करता है और एक सीमा तक ‘अपन समांग’ का नायक भी।
गुंजन का साहित्य इसी
नई जमीन की तलाश में एक नई रोशनी का काम करता है।
मानवता की परिभाषा
खोजता एक लेखक, राष्ट्रीय सहारा, 13.04.1995/कुबेर टाइम्स, 25.05.1997