‘पोस्ट ट्रुथ’ : 'सत्योत्तर' या ‘सत्य से परे’
(Post Truth : Reality of Truth and Beyond Truth)
हिन्दी में ‘पोस्ट ट्रुथ’ का शाब्दिक अनुवाद होगा ‘सत्य से परे’। अब ‘सत्य से परे’ तो झूठ ही होगा? इस कारण साहित्यिक प्रयुक्ति में मैं इसे ‘सत्योत्तर’ कहना चाहता हूँ, कुछ प्रयोक्ता इसके लिए ‘उत्तर सत्य’ पद का उपयोग करते हैं। पर इस पद में कभी-कभी ‘उत्तर’ के ‘सत्य’ का भ्रम होने लगता है, इस भ्रम से बचने के लिए ‘सत्योत्तर’ कहना श्रेयस्कर लगता है। ऐसे ‘सत्य से परे’ पद का प्रयोजन तब होता है, जब भावनाओं से निर्देशित जन-समुदाय, तथ्यहीन प्रसंगों को जाँचे-परखे बिना ग्रहण करते हैं। विदित है कि कुछ बीते दशकों से लोकतान्त्रिक दुनिया की जनता राजनीतिक फरेबियों के चंगुल में फँसी है। अपनी सत्ता सुरक्षित करने के लिए सारे रानीतिक आखेटक जनता का विश्वास जीतना चाहते हैं। वर्चस्व-प्रेमियों की तीव्र और नृशंस भूख के रहते औरों की भूख और प्रयोजन निरर्थक होते हैं। इसलिए वे जनता को तथ्यों की जानकारी देने के बजाय उनका विश्वास जीतने के लिए उन्हें मोहाविष्ट करना उचित मानते हैं। भावुक लोगों को मोहाविष्ट करना आसान होता है। इसलिए दुनिया भर के राजनीतिक दल जनता की भावनाओं से खिलवाड़ करते हैं। वे जानते हैं कि समुदाय को मोहाविष्ट करने के लिए तथ्य निरर्थक होगा, मनगढ़न्त प्रसंगों को तथ्य की तरह प्रस्तुत कर सार्वजनिक भावनाओं और विश्वासों का दुर्दोहन करना सर्वोपरि होगा। फलस्वरूप वे ऐसा ही करते हैं।
सत्योत्तर (पोस्ट-ट्रुथ) शब्द, किसी शब्द के पूर्व, विशेषण की तरह लगकर, उसका अर्थ बदल देता है। ‘सत्योत्तर समाज’ या ‘सत्योत्तर राजनीति’ जैसे पद इसी तरह बने हैं। जनमत संग्रह के लिए वस्तुनिष्ठ तथ्यों को तिरस्कृत कर जनास्था और जन-भावनाओं के आखेट की विचित्र प्रणाली प्रणाली अपनाई जाए; लोगों को प्रभावित करने के लिए भ्रामक सूचनाओं, तथ्यहीन वक्तव्यों, गढ़े गए प्रसंगों को आधिकारिक रूप से प्रसारित किया जाए; और सामुदायिक परिवेश में वह तथ्यहीन एवं भ्रामक बात तथ्य की तरह स्थापित हो जाए, तो ऐसे समाज को ‘सत्योत्तर समाज’ और इस विचार के लोगों द्वारा की जानेवाली राजनीति को ‘सत्योत्तर राजनीति’ की संज्ञा दी जाती है। यकीनन ऐसे समय को ‘सत्योत्तर समय’ कहा जाता है। ऐसे परिवेश में सरकार, संचार तन्त्र एवं मान्यता-प्राप्त संगठनों की विश्वसनीयता सन्दिग्ध हो जाती है। क्योंकि दिग्भ्रान्त सूचनाओं के पतित प्रसार में इन्हीं संस्थाओं की अहम भूमिका होती है। इस ‘सत्योत्तर राजनीति’ (पोस्ट-ट्रुथ पॉलिटिक्स) की शुरुआत ‘पोस्ट-फैक्चुअल’ या ‘पोस्ट-रियलिटी’ पॉलिटिक्स की क्रिया से हुई। ऐतिहासिक-राजनीतिक रूप से ऐसी संस्कृति के परिपोषक रानीतिज्ञ सार्वजनिक चिन्ता से परांग्मुख होते हैं, अपने द्वारा प्रचारित वक्तव्य को तथ्य की तरह सार्वजनिक स्वीकृति दिलाने में तत्पर रहते हैं।
इस प्रक्रिया में सत्ता के शातिर शिकारी सबसे पहले जनता की भावनाओं और आस्थाओं को सहलानेवाले प्रसंगों का अनुसन्धान करते हैं; क्योंकि उन्हें ज्ञात रहता है कि ऐसे प्रसंग जनसामान्य के लिए प्यारे और ग्रहणीय होते हैं, भले ही वे तथ्यात्मक या तार्किक न हों। ऐसा दुष्कर्म दुनिया में सबसे पहले संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति रिचर्ड मिल्हौस निक्सन (1913-1994) ने अपने ‘वाटरगेट स्कैम’ (सन् 1969-1974) को ढकने के लिए किया था। क्योंकि वे जान गए थे कि शासकीय वर्चस्व बनाने और मनमानी करने के लिए सत्य होना आवश्यक नहीं है, सत्य समझाना आवश्यक है। वे जान गए थे कि राजभवन का सत्य राजा का सत्य होता है और राजा द्वारा गढ़े गए वचनों का जन-जन तक प्रसार करना ‘जनता का’ ‘जनता के लिए’ सत्य होता है। जनरुचि को सहलानेवाले गढ़े हुए प्रसंगों को ‘सत्य’ की तरह परोसकर जनता को भ्रान्त करने से निर्विघ्न शासन सम्भव है। यह प्रसार संचार-तन्त्र से सम्भव था। इसलिए उन्होंने संचार-तन्त्र को साधा और और अपने दुष्कर्म को ढकने की चेष्टा की। लोकतान्त्रिक प्रणाली के लिए यह धारणा अत्यन्त अनिष्टकारी होती है, अलबत्ता हुई भी।
अपने शासन-काल में हुए वाटरगेट राजनीतिक घोटाले (सन् 1972) की कथा को लाख चेष्टा के बावजूद निक्सन दबा न सके, अन्तत: इस धाँधली में उनकी संलिप्ति प्रकाश में आ ही गई। पर महाभियोग के तहत पद-च्युति की प्रक्रिया शुरू होने से पूर्व ही, 9 अगस्त 1974 को त्याग-पत्र देकर उन्होंने अपना नाम उस पहले शासक में दर्ज करा लिया, जिन्हें धाँधली के कारण पदमुक्त होना पड़ा। उनके वरदहस्त से व्हाइट हाउस के अधिकारियों द्वारा निर्देशित और दाताओं से अवैध धन-उगाही का राजनीतिक जासूसी-अभियान उजागर हुआ। पत्रकार कार्ल बर्नस्टीन और बॉब वुडवर्ड ने यह सुराग हासिल किया।
बीसवीं सदी के अन्तिम चरण में ‘तथ्योत्तर’ (पोस्ट फैक्चुअल) या ‘यथार्थोत्तर’ (पोस्ट रिएलिटी) से उद्भूत सत्योत्तर (पोस्ट-ट्रुथ) के इस छद्म के कारण सार्वजनिक सत्य के दावे इक्कीसवीं सदी में विवाद के घेरे में आ गए। इस पदबन्ध के अकादेमिक सिद्धान्तों पर विचार करने और राजनीतिक-ऐतिहासिक घटनाओं पर इसके प्रभावों की व्याख्या अनिवार्य मानी जाने लगी। अकादेमिक-सार्वजनिक रूप से ‘सत्योत्तर राजनीति’ पद का चलन सदी के आरम्भ से ही है, पर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर प्रयुक्ति के आधार पर ऑक्सफ़ोर्ड डिक्शनरी ने सन् 2016 में इस ‘सत्योत्तर’ शब्द को वर्ष का सर्वश्रेष्ठ शब्द घोषित किया। इसके अनुसार एक खास किस्म की राजनीति के लिए विशेषण के रूप में प्रयुक्त इस पद का अभिप्राय वैसी परिस्थितियाँ हैं जिनमें जनभावनाओं और आस्थाओं को गुदगुदाकर जनमत सम्मोहन की क्रिया सम्पन्न होती है, इसमें वस्तुनिष्ठ तथ्य निरर्थकहोते हैं। निक्सन के बाद इस धूर्त प्रणाली की लोकप्रियता इतनी बढ़ी कि डोनाल्ड ट्रम्प सहित, दुनिया के अनेक देशों के आम चुनावों में जनमत संग्रह के लिए इसका भरपूर दुरुपयोग हुआ।
विकास के इस अधुनातन समय में हमारे आधुनिक होने की यह विडम्बना ही है कि आज के सार्वजनिक जीवन के लिए, सत्य-असत्य, निष्ठा-नीचता, ईमानदारी-बेईमानी के दार्शनिक या तार्किक या वैज्ञानिक भेद को समझ पाना दुष्कर है। नवसंचार प्रौद्योगिकी के आचरण ने सार्वजनिक जीवन को इस तरह भ्रान्त किया कि भ्रामक और तथ्यहीन राजनीतिक दावे आज के सामुदायिक सोच पर वैताल की भाँति चिपका है। इस राजनीतिक वर्चस्व की दुर्नीति में भ्रामक सूचनाओं के दुष्प्रचार और लोकलुभावन जुमले गढ़े जाने लगे, तथ्य की उपेक्षा होने लगी, आदर्श वातावरण की सम्भावनाएँ नष्ट होने लगीं। आत्म-मद के सु-स्थापन, राष्ट्र-हित और राष्ट्रीय गरिमा उपेक्षा करनेवाली क्रियाओं में शासकों की संलिप्ति बढ़ गई, सोशल मीडिया का बढ़ते उपयोग और पारम्परिक संचार-तन्त्र से जन-विश्वास समाप्त होने लगा। ऐसी जन-विरोधी व्यवस्था के संचालकों पर राष्ट्र-द्रोह का मामला दर्ज होना चाहिए था, जबकि जनमत उन्हें पूजने में लगे हैं।
माना जाता है कि सन् 1992 में सर्वप्रथम अमेरिकी नाटककार स्टीव टेसिच ने ‘द नेशन’ पत्रिका में प्रकाशित अपने एक निबन्ध में ‘पोस्ट-ट्रुथ’ शब्द गढ़ा, जिसमें उन्होंने वस्तुनिष्ठ सत्य से एक अलग दुनिया में रहकर स्वतन्त्र निर्णय लेनेवाले लोगों की सामुदायिक दशाओं का उल्लेख किया, जिसका सीधा सम्बन्ध ‘वाटरगेट स्कैम’ से दिखा। बाद के दिनों में राल्फ कीज़ ने भी सन् 2004 में ‘द पोस्ट-ट्रुथ एरा’ की अवधारणा को विस्तार दिया, जिसमें रचनात्मक हेरफेर से झूठ को सत्य से भी बड़े सत्य का स्वरूप दिए जाने और उस पर सार्वजनिक स्वीकृति की मुहर लगवाने की चेष्टा की जाती है।