राजकमल चौधरी की स्मृति में बेशुमार शोक-सभाएँ आयोजित हुईं, कविताएँ एवं संस्मरणात्मक लेख लिखे गए, पत्रिकाओं के विशेषांक छपे। प्रेमचन्द के अलावा किसी भी भारतीय रचनाकार पर सम्भवतः इतने विशेषांक प्रकाशित नहीं हुए। इनमें से अधिकांश संस्मरणात्मक लेखों में छवि-ध्वंस की दानवीय चेष्टा प्रबल दिखती है; उनकी रचनाओं की मूल्यगत समालोचना गिने-चुने आलेखों में ही हुई। किसी सामान्य बातचीत में हिन्दी के चर्चित कवि पंकज सिंह ने एक बार उल्लेख किया कि राजकमल चौधरी अकविता के दौर के ऐसे आलोक-पुंज थे, जिनकी आभा में उस दौर के बहुत सारे रचनाकार दिखाई देते थे, उनके आकस्मिक निधन के बाद, उस आभा में दिखने वाले रचनाकार अलक्षित होने लगे; तो ‘खिसियानी बिल्ली, खम्भा नोचने’ पर उतर आए, राजकमल चौधरी पर प्रतिकूल टिप्पणियाँ चस्पाँ करने लगे। पंकज सिंह की इस धारणा की शतशः पुष्टि उसी दौर के विशिष्ट कवि धूमिल की विलक्षण कविता ‘राजकमल चौधरी के लिए’ से होती है।
धूमिल जब समय और समाज के प्रति ईमानदार रचनाकार राजकमल चौधरी की रचनात्मक स्मृतियों के समस्त तिनकों को सहलाते हुए यह कविता लिख रहे थे; असल में वे कोई कविता नहीं लिख रहे थे, अपने समय के समाज, मूल्य और मानवता के लिए आर्तनाद कर रहे थे; उस दौर के बौद्धिक दायित्व एवं रचनात्मक सरोकार से परांग्मुख क्षुद्रों को उग्रता से फटकार रहे थे। संस्मरणात्मक उद्घोषकों, शृंखलाबद्ध शोक-सभा आयोजित कर कुतूहल फैलानेवाले साहित्यिकों की छुद्रताओं से वे वस्तुतः खिन्न हो उठे थे। उन शोक-सभाओं में उपस्थित होना उन्हें कष्टकर लगता था, क्योंकि उन आयोजकों की नीयत में उन्हें राजकमल की कविताई को ध्वस्त कर उनके रूपकों से राजकमल को कलंकित करने की चेष्टा प्रबल दिख रही थी।...मेरे दोस्त चायघरों में/अगली शोकसभा का कार्यक्रम तैयार कर रहे हैं/मगर मैं उन में शरीक नहीं होना चाहता/मैं कविताओं में उनका पीछा करना चाहता हूँ/इसके पहले कि वे उसे किसी संख्या में/या व्याकरण की किसी अपाहिज धारणा में बदल दें/मैं उन तमाम चुनौतियों के लिए/खुद को तैयार करना चाहता हूँ/जिनका सामना करने के लिए छत्तीस साल तक/वह आदमी अन्धी गलियों में/नफरत का दरवाजा खटखटाकर/कैंचियों की दलाली करता रहा...
ध्यातव्य है कि धूमिल की कविताओं में भाषा एवं शब्दों की प्रयुक्ति अनेक व्यंजनाओं से भरी रहती है। यहाँ लोकजीवन के एक प्रसंग का उल्लेख तर्कपूर्ण होगा कि पैर में चुभे काँटे, काँटे से ही निकाले जाते हैं। उसी तरह धूमिल काँटे से काँटा निकाल रहे थे, अर्थात् जनसमूह की शब्दावली में उन्हीं की वस्तुस्थिति सम्प्रेषित कर रहे थे; उन्हें शासकीय षड्यन्त्रों से सावधान कर आमूल परिवर्तन के लिए तैयार करना चाह रहे थे। जैसे राजकमल चौधरी करते आ रहे थे। क्योंकि दोनों की गहन संवेदना सदैव सामान्य जन के पक्ष में थी। वे भारतीय स्वाधीनता के जश्न में मटियामेट हो रही जनाकांक्षा को गौर से देख रहे थे; सत्ता के तिकड़मियों द्वारा बेरहमी से कुचले जा रहे जनसामान्य के अस्तित्व और देश की अस्मिता को देख रहे थे। आजाद भारत के शासकीय आचरण में नागरिक-जीवन की दुरवस्था अपने शरीर में भोगते हुए राजकमल चौधरी ने लिखा कि ‘मेरे देश और मेरे मनुष्य का भविष्य निर्धारित करने के लिए अतीत/निर्धारित करने के लिए/मैं इतिहास-पुस्तक की तरह खुला पड़ा हुआ हूँ/लेकिन मेरा देश मेरा पेट मेरा ब्लाडर मेरी अँतड़ियाँ खुलने से पहले/सर्जनों को यह जान लेना होगा/हर जगह नहीं है जल अथवा रक्त अथवा माँस/अथवा मिट्टी/केवल हवा कीड़े जख्म और गन्दे पनाले हैं अधिक स्थानों पर इस देश में/...अब राख ही राख बच गया है पीला मवाद...।’ वे यह भी देख रहे थे कि ‘लोक-सभा में अन्न-मन्त्री कहते हैं/बसते हैं कोई पाँच अरब चूहे/इस देश में.../आदमी खुद बिके अथवा बेच ही डाले अपनी स्त्री अपनी आँखें अपना देश/मगर भीड़ अब खाने के लिए गेहूँ/और सो जाने के लिए किसी भी गन्दे बिस्तरे के सिवा कोई बात/नहीं कहती है...।’ लोकतन्त्र उन्हें अत्यधिक अनुराग था। मगर लोकतन्त्र की उनकी परिभाषा मनुष्य को मजबूर नहीं करती थी। भारत के उपलब्ध लोकतन्त्र में उन्हें मदारी का करतब दिख रहा था, इसीलिए उन्होंने कहा कि ‘आदमी को तोड़ती नहीं हैं लोकतान्त्रिक पद्धतियाँ/केवल पेट के बल/उसे झुका देती हैं धीरे-धीरे अपाहिज/धीरे-धीरे नपुंसक बना लेने के लिए उसे शिष्ट राजभक्त देशप्रेमी नागरिक/बना लेती हैं/आदमी को इस लोकतन्त्री संसार से अलग हो जाना चाहिए/...मसानों में/अधजली लाशें नोचकर/खाते रहना श्रेयस्कर है जीवित पड़ोसियों को खा जाने से/हम लोगों को अब शामिल नहीं रहना है/इस धरती से आदमी को हमेशा के लिए खत्म कर देने की/साजिश में...(मुक्ति प्रसंग/राजकमल चौधरी)।
अपने देश और पेट का ब्लाडर खोलने से पहले चिकित्सकों को दी गई इस चेतावनी (कि हर जगह नहीं है हवा और पानी; अधिक स्थानों पर इस देश में केवल कीड़े, जख्म, गन्दे पनाले, मवाद और रक्तमिश्रित पेशाब ही हैं) से शासी-निकाय को सोचने की सदीच्छा बेशक नहीं हुई, इस त्रासद अमंगल के इशारे से बौद्धिक समुदाय को तो कम से कम सचेत हो जाना चाहिए था; पर धूमिल जैसे कुछ गिनती के लोगों के अलावा कोई इस त्रासदी को भाँप नहीं सके। इस पूरे प्रसंग पर विवेकशील दृष्टि डालने के बजाय अधिकांश लोग उनके चित्रण में जुगुप्सा और अश्लीलता ढूँढने लगे; चारित्रिक लांछण चिपकाने लगे। जबकि शब्द कोई अश्लील नहीं होता, अश्लीलता मनुष्य के सोच में होती है। चिकित्सा-शास्त्र में जो शब्द किसी अंग अथवा क्रिया की संज्ञा है, वही शब्द साहित्य में आकर अश्लील कैसे हो जाता है? राजकमल चौधरी या कि धूमिल को ऐसे पुलिसिया विचार के लोगों से परहेज था। वे अपनी रचनाओं में रूपक बनाने, प्रतीक रचने और व्यंजना पिरोने में सृजनात्मक रूप से लक्ष्य-केन्द्रित रहते थे। वस्तुतः वे जीवन-क्रियाओं में पूरी तरह अश्लील हो गए समाज की अश्लीलता से निरपेक्ष रहने की क्रिया को अश्लील मानते थे। क्योंकि उस दौर की शासकीय बेईमानी एवं राजकीय प्रपंच में नागरिक संवेदना इतनी भोथरी हो चुकी थी कि गहरे खरोंच के बिना जागृति असम्भव थी। यही खरोंच पैदा करने के लिए ये दोनों कवि या इन जैसे अन्य कवि भी, ऐसे उद्वेलन भरे शब्दों का इस्तेमाल करते थे। ये प्रयुक्तियाँ साहित्य में अश्लीलता फैलाने के लिए नहीं, संवेदनाओं को कुरेदने के लिए होती थीं।
भारत देश की दो दशकों की आजादी के शासकीय आचरण एवं नागरिक जीवन-पद्धति में चूँकि धूमिल भी ये स्थितियाँ देख रहे थे, इसीलिए उन्हें ऐसे समझदार एवं मानवीय घोषणाओं, मान्यताओं, वैचारिकताओं वाले राजकमल चौधरी के मानवीय सरोकार से प्यार था। वे राजकमल की कविताओं मे दर्ज रूपकों की वस्तुनिष्ठता पर विचारक की तरह चिन्तन करते थे; शोक-सभा के समकालीन आयोजकों की तरह उनकी कवतिाओं के रूपकों का आरोपण उनके चरित्र में नहीं करते थे। वे इस धरती से आदमी को हमेशा के लिए खत्म कर देने की साजिश में शामिल नहीं होना चाहते थे। उनकी दृष्टि में भारत या दुनिया के पाँच अरब (उल्लेखनीय है कि मुक्तिप्रसंग शीर्षक यह कविता राजकमल चौधरी ने सन् 1966 में लिखी, और उस समय भारत की आबादी 50.96 करोड़ और दुनिया की आबादी 339.39 करोड़ थी) नागरिक, निस्सहाय नागरिक थे, पाँच अरब चूहे नहीं।
धूमिल को अपने अग्रज कवि राजकमल चौधरी की इस धारणा से अनुराग था कि वे अपने जीवन को भी दुनिया के हर नागरिक के साथ जी रहे थे, वे अपनी शारीरिक व्याधि को भी देश और दुनिया की व्याधि के साथ भोग रहे थे। उन्हें इस बात से सुख मिलता था कि उनके अग्रज कवि अपने ब्लाडर के आॅपरेशन से पूर्व भी अपनी पीड़ा किनारे कर, देश और दुनिया की पीड़ा से परेशान थे। धूमिल अपने पूरे जीवन और अपनी पूरी कविताई में इसी तरह देश और दुनिया की व्याधियों से परेशान रहे। उन्हीं परेशानियों में उन्हें राजकमल चौधरी की चिन्ता, चिन्तन और भाषा मुनासिब लग रही थी। प्रसिद्ध समालोचक नामवर सिंह ने धूमिल को ‘गँवई अनुभव और किसानी संस्कार’ का सच्चा कवि सही ही माना। यकीनन ग्राम्य-परिवेश के भदेस आचरणों में प्रयुक्त शब्दों, मुहावरों, कहावतों के सहयोग से उन्हें अपनी कविताओं में सहज सम्प्रेषण की नई दुनिया रचने की सुविधा मिलती थी। लोक-जीवन एवं ग्रामीण संस्कृति से रचे गए रूपक उनकी कविता के कथ्य को इतना तीक्ष्ण और उर्वर बना देता था कि कविता सामान्य जन की चेतना को उद्बुद्ध कर देती थी। शिष्टोक्ति के प्रचलित प्रतिमानों से रची गई कविता से उन्हें कोई विरोध नहीं था, किन्तु जिस गुंजलक धूर्तता से उस दौर की व्यवस्था संचालित हो रही थी, उसमें भद्राचरण के किसी रूपक का सही अर्थान्वेष असम्भव था, शास्त्रीय कौशल से रची गई पंक्तियों में शासकीय चतुराई के नीचे अर्थ-ध्वनि दब जाती थी। वे आश्वस्त हो चुके थे कि ‘अब वहाँ कोई अर्थ खोजना व्यर्थ है/पेशेवर भाषा के तस्कर-संकेतों/और बैलमुत्ती इबारतों में/अर्थ खोजना व्यर्थ है।’ ‘कविता’ शीर्षक उनकी कविता में भाषा की विवशता, सभ्यता एवं संस्कृति से ‘प्रभुओं’ की परांग्मुखता और समाज-व्यवस्था का पाखण्ड भली-भाँति उजागर है। व्यवस्था के पूरे भाषा-विधान में ऐसा सम्मोहक जादू मिलाया जा चुका था कि हितैषी और हत्यारे का भेद मिट चुका था। यहीं पर तनिक ठहरकर धूमिल की उस चिन्ता पर विचार कर लेना श्रेयस्कर होगा कि वे राजकमल केन्द्रित शोक-सभा के आयोजकों से क्यों खिन्न थे!
क्योंकि उन्हें उन आयोजकों के आयास में पेशेवर भाषा के नए संकेतक रचे जा चुके थे। अब सामान्य ज्ञान-बोध से जीवन-यापन करनेवाले किसान-श्रमिक उन शातिर शिकारियों की चतुर भाषा की अर्थ-व्यंजकता कैसे समझे? उन्हें जनपदीय शब्दावली की जरूरत इसीलिए हुई। ‘बैलमुत्ती इबारत’ पद सुनकर भदेस प्रयुक्ति का बोध बेशक हो, पर इस रूपक का सन्दर्भ एक दुर्निवार विमर्श की अर्थ-व्यंजकता प्रस्तुत करता है। इस इबारत का अर्थ-सन्दर्भ व्याख्येय है। अपने मालिक के हितार्थ बोझ ढोता बैल उत्सर्जन की विवशता में भी खड़े होकर पेशाब करने की मोहलत नहीं पाता; चलते हुए पेशाब करते हुए, धरती की धूल पर जैसी आरी-तिरछी अर्थहीन लकीर बनाता है, उसमें कोई अर्थ-संकेत नहीं होता, उसके मालिक उसमें मनोनुकूल अर्थ-सन्दर्भ डालते हैं, जबकि दो पल बाद वह इबारत ही गायब हो जाती है। इस बैलमुत्ती इबारत की अर्थ-ध्वनियाँ जिस गहनता से जनसामान्य तक सम्प्रेषित हो सकती थी, दूसरा कोई भी रूपक ऐसा कर पाने में अक्षम था। वे अपने समकालीनों द्वारा आयोजित शोक-सभाओं में इसलिए शरीक नहीं होना चाहते थे, कविताओं में इसलिए उनका पीछा करना चाहते थे, कि उन्होंने नागर बौद्धिक आचरणों के छद्म की शिनाख्त कर ली थी, जैसा राजकमल ने भी कर ली थी। व्याख्येय है कि धूमिल या कि राजकमल को केवल उस दौर के राजनीतिक षड्यन्त्र एवं शासकीय विधान से ही चिढ़ नहीं थी, उस दौर के बौद्धिकों के छद्म भी उन्हें अत्यधिक परेशान करते थे।
राजनीतिज्ञों की धूर्तता से तो कमोबेश जनसामान्य भी सावधान हो गए थे; किन्तु जिन उपदेशकों, निदेशकों को जनसमूह अपना पथ-प्रदर्शक मानता था, उसके फरेबी आचरण की पहचान थोड़ी जटिल थी, राजकमल और धूमिल ने उनकी जातिमूलक पहचान कर ली थी, और अपनी कविताओं में उन्हें सरेआम वे नंगा करने लगे थे। अब आत्मरक्षा के निमित्त बौद्धिक-जन आनन-फानन राजकमल को अश्लील घोषित करने का फरेब न रचते, तो उनकी अश्लीलता स्थापित हो जाती! वे चाहते थे कि राजकमल चौधरी को न पढ़ा जाए! वे मृत राजकमल को वाकई मार देने की तरकीब रच रहे थे। वे आश्वस्त थे कि ऐसा वे कर सकेंगे; पर उनके इस फरेब की पहचान धूमिल ने कर ली। इसीलिए वे कविताओं में राजकमल का पीछा करते हुए उन फरेबियों को भयभीत रख रहे थे, उन्हें बताना चाह रहे थे कि राजकमल कोई निर्वंश कवि नहीं था! बल्कि धूमिल उन बौद्धिकों के कलुष में अपना भी भविष्य देख रहे थे; उन चुनौतियों के लिए खुद को भी तैयार कर रहे थे, जिनका सामना राजकमल ने अन्धी गलियों में नफरत का दरवाजा खटखटाकर जीवन भर किया...।
उल्लेखनीय है कि भाषा, भारतीय लोकतान्त्रिाक शासन-व्यवस्था के प्रारम्भिक दौर में ही बड़ी चिन्ता का विषय बन गया था। ‘भाषा’ उस दौर के क्रूर कठघरे में खड़ी थी, जिसकी ध्वनि सचेत मनुष्य की ‘जुबान’ तक जाती थी। कोई भी चेतन मनुष्य अपने असन्तोष पर भाषा में ही सवाल कर सकता है। सत्ता (शास्ता) सवाल सुनना पसन्द नहीं करती, उसे प्राश्निक नहीं, आदेशपालक (शासित) की आवश्यकता थी। इसलिए उस दौर की जनता को भाषाविहीन बनाना, अर्थात् उनकी जीभ काट लेना जरूरी था। भारतीय सोच-विचार में ‘जीभ काटना’, ‘भाषा बदलना’ और ‘भाषा छीनना’ जैसे पदों का उपयोग व्यंजना में होता है। धूमिल जब लोगों से भूख और भाषा के बीच की दूरी तय करने की सिफारिश कर रहे थे, उसमें भाषा की इसी व्यंजना का चरम अर्थ शामिल था। मनुष्य की जीभ काटने की क्रिया भूख की छुरी से हो रही थी। विद्यमान परिस्थितियों में कवि को मालूम हो चुका था ‘कि शब्दों के पीछे/कितने चेहरे नंगे हो चुके हैं/और हत्या अब लोगों की रुचि नहीं/आदत बन चुकी है/वह किसी गँवार आदमी की ऊब से/पैदा हुई थी और/एक पढ़े-लिखे आदमी के साथ/शहर में चली गई...।’ जी हाँ, शब्द का भी अपना नेपथ्य होता है। उस नेपथ्य में नग्न हुए चेहरों की वास्तविकता तनिक ठहरकर ही देखी जा सकती है।
गौरतलब है कि किसी का गला रेत देना ही हत्या नहीं होती, मनुष्य के जीवन से सहजता छीन लेना भी हत्या ही होती है। सभ्यता-विकास के दौर में आदिमानव जिजीविषा-पूर्ति के लिए जंगली पशुओं की हत्या करते थे। आधुनिक समय में वर्चस्व-निर्माण की प्रक्रिया में हत्या का यह आचरण गँवारों की रुचि नहीं, सभ्य-सुशिक्षित कहलानेवालों की आदत बन गई। लिप्सा-पूर्ति का हर आचरण उनकी आदतों में समाविष्ट हो गया। ‘यत्रनार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ का मन्त्र जपनेवाला या ‘कुँआरी कन्याओं को देवी’ माननेवाला या स्त्रिायों से प्यार करनेवाला समाज इतना नृशंस हुआ कि स्त्री को धर्मशाला बना डाला। स्त्री उसकी दृष्टि में कोई मानवीय इकाई नहीं, कुछ पल रुककर विश्राम करनेवाली धर्मशाला बन गई--‘एक सम्पूर्ण स्त्री होने के पहले ही/गर्भाधान कि क्रिया से गुजरते हुए/उसने जाना कि प्यार/घनी आबादी वाली बस्तियों में/मकान की तलाश है/लगातार बारिश में भीगते हुए/उसने जाना कि हर लड़की/तीसरे गर्भपात के बाद/धर्मशाला हो जाती है और कविता/हर तीसरे पाठ के बाद।’ ऐसी परिस्थिति में जीवन-व्यवहार के अनगढ़ प्रसंग ही काव्य-कथ्य को जन-चेतना में पहुँचा सकते थे। इसलिए उन्होंने खीज भरी घोषणा की कि ‘...हो सके तो बगल के गुजरते हुए आदमी से कहो/लो, यह रहा तुम्हारा चेहरा/यह जुलूस के पीछे गिर पड़ा था...।’ यह घोषणा उन परिस्थितियों और परिस्थितियों से बेफिक्र इन्सानों की विडम्बना पर है जिसमें मनुष्य की पहचान (चेहरा) तक किसी वस्तु में परिवर्तित हो गई थी, गमछा या रुमाल की तरह, जो किसी भी जुलूस में चलते समय गिर जाता था, और, मनुष्य को इल्म तक नहीं हो पाता था कि उसकी पहचान किसी जुलूस में उत्सर्जित हो गई। ‘वह बहुत पहले की बात है/जब कहीं किसी निर्जन में/आदिम पशुता चीखती थी और/सारा नगर चैंक पड़ता था/मगर अब/अब उसे मालूम है कि कविता/घेराव में/किसी बौखलाए हुए आदमी का/संक्षिप्त एकालाप है...।’ यह कवि के आत्मबोध से उपजी पीड़ा है, जिसमें वे कविता जैसे ताकतवर औजार को भी अशक्य होता देख रहे थे। आदिम पशुता की चीख सुनकर पूरे नगर के चैंक पड़ने की सभ्यता जिस लोकतान्त्रिक व्यवस्था ने जड़ से मिटा दी, उस व्यवस्था पर यह धूमिल की क्रोधाग्नि है। ऐसे ही समय में कविता के लिए बासी नहीं, किसी ताजा और खरोंचदार भाषा का प्रयोजन था, जिसका आविष्कार राजकमल चौधरी कर चुके थे और धूमिल कर रहे थे; इसी कारण वे राजकमल चौधरी का पीछा उनकी कविताओं में करना चाहते थे।
जिस देश में मनुष्य की भूख ‘प्रदर्शन’ से शुरू होकर ‘दर्शन’ बन जाए; जहाँ सबूत के बिना सच को बचा पाना मुश्किल हो जाए; और दाना-पानी के देवतागण घोषणा करें कि इस स्वाधीन भारत में लोकतान्त्रिाक सरकार है; उसी देश का एक गाँव ‘खेवली’ धूमिल का गाँव है; जो हर भारतीय गाँव का प्रतीक है। धूमिल ने स्वाधीन भारत के इस गाँव को कुछ ऐसा देखा कि वहाँ ‘...न जंगल है न जनतन्त्र/भाषा और गूंगेपन के बीच कोई/दूरी नहीं है/एक ठण्डी और गाँठदार अँगुली माथा टटोलती है/सोच में डूबे हुए चेहरों और/वहाँ दरकी हुई जमीन में/कोई फर्क नहीं है/...वहाँ कोई सपना नहीं है। न भेड़िये का डर/बच्चों को सुलाकर औरतें खेत पर चली गई हैं/खाए जाने लायक कुछ भी शेष नहीं है/वहाँ सब कुछ सदाचार की तरह सपाट/और ईमानदारी की तरह असफल है (खेवली) -- खेवली गाँव की यह स्थिति स्वाधीन भारत के मनुष्य-विरोधी व्यवस्था की निर्लज्ज छवि है, जहाँ मनुष्य की चेतना से भाषा, सपना और भय...इस तरह गायब कर दिया गया कि औरतें बच्चों को सुलाकर बेफिक्री से खेत पर जाने लगीं; निर्भीकता में नहीं, विवशता में। उन्हें भेड़िये का डर नहीं है, क्योंकि घर में खाए या कि चुराए जाने लायक कुछ शेष नहीं है। मूल्य-निरपेक्ष जनतन्त्र की दुव्र्यवस्था और आतंक में निरन्तर जीते हुए नागरिक ने भय से निरपेक्ष होकर जीना बेहतर समझा और भय को अंगूठा दिखाने लगा। भाषा और गूंगेपन के बीच पहचान सुनिश्चित करने के लिए माथा टटोलती ‘गाँठ’दार ‘ठण्डी’ ‘अंगुलियाँ’ उपस्थित हुईं। नहीं होतीं, तो भाषा और गूंगेपन के बीच कोई नया विमर्श घुसा दिया जाता--‘मौनम् स्वीकार लक्षणम्’! धूमिल के यहाँ इसका उल्टा अर्थ होता है--‘मौनम् प्रतिकार लक्षणम्’! उनके मौन में भी पुरजोर हुँकार होता है। इसलिए गौर करना श्रेयस्कर होगा कि ये अशक्य ‘भेड़िये’ कौन हैं? मनुष्य और सम्बन्ध की पहचान के लिए अंगुलियों के स्पर्श का प्रयोजन क्यों हुआ? अंगुलियों में गाँठ और ठण्डापन क्यों आया? खेवली गाँव में जंगल और जनतन्त्र की एक साथ अनुपस्थिति, भाषा और गूंगेपन के बीच का अभेद, मेहनतकश मजदूरों की अंगुलियों की गाँठें और ठण्डापन, माथा टटोलकर स्पर्श द्वारा पहचानन की क्रिया...उन तस्करों के लिए वस्तुतः चुनौती थी।
धूमिल की कविता वाकई समसामयिक शासन-व्यवस्था से विद्रोह की कविता है; जिसकी जमीन आजादी के बाद के सत्ता-सुखलीन लोगों की बाजीगरी और निर्लज्जता से निर्मित हुई थी। सत्ताधीशों के नृशंस आचरणों से हताश जनसामान्य का मोह-भंग हो चुका था। नई कविता की क्षणानुभूति में भी उन्हें विद्रोह की मुखरता दुर्बल ही दिख रही थी। हिन्दी में अकविता का उदय उसी आधी-अधूरी आजादी के वातावरण में हुआ। अपने नूतन भाषिक चमत्कार के आन्दोलनात्मक रवैये के साथ धूमिल तनकर खड़े हुए थे। उनकी सूत्रबद्ध व्यंग्यात्मक भाषा में उस दौर के युवा पीढी की आकांक्षाओं, उम्मीदों, सपनों और संघर्षों को अभिव्यक्ति मिल रही थी। भारतीय लोकतन्त्र के संचालकों के प्रति उस अभिव्यक्ति में तीक्ष्ण घृणा भरी हुई थी। उनकी काव्य-चेतना वस्तुतः स्वातन्त्र्योत्तर युवा पीढ़ी के विद्रोह की अनुगूँज थी। उनकी कविता सत्ता-संचालकों की धूर्तता को उजागर करनेवाला बयान है, और बेबस जनता की पक्षधरता का गीत है।
बीसवीं शताब्दी के छठे-सातवें दशक की राष्ट्रीय पर्यवस्थिति और काव्य-चेतना अपने-अपने कारणों से तथ्यतः उद्वेलित थीं। अस्तित्व पर मँडराते संकटों के बादल को टाल पाने के उद्योग में जनसामान्य हाँफ रहे थे; जबकि ‘प्रभु-सम्प्रदाय’ उनके हिस्से का पवन-प्रकाश अपने नाम करने की आखेटक-वृत्ति में तल्लीन। इधर उस दौर के प्रतिबद्ध कवि-समाज व्यग्रता से नए विचारों की कविता द्वारा जन-चेतना के प्रसार में लगे हुए थे। इस लीन-तल्लीन शास्ताओं की ओर आकांक्षा-भरी दृष्टि से देखती हुई जनता किंकर्तव्यविमूढ़ थी। चौथे आम चुनाव के बाद भारतीय लोक-तन्त्र की नई परिस्थितियों को देखते हुए राजकमल चौधरी ने लिखा था कि ‘‘...वस्तु-मूल्य, नीति-मूल्य, अर्थ मूल्य और वचन-मूल्य, चुनाव के बाद किसी भी ‘मूल्य’ अथवा किसी भी स्थिति में कोई विशेष या साधारण भी, परिवर्तन देश की नई और कांग्रेस-विपरीत सरकारों ने भी, नहीं किया है।...लादी गई अंकुशहीन शासन-व्यवस्था से जनता ऊब गई है।...सारे मोर्चों पर क्रान्ति के लिए--आमूल परिवर्तन के लिए--जनता को प्रस्तुत करना, केवल हमलोगों का कर्तव्य है--क्योंकि, अन्य सभी सामाजिक कार्यकर्ता, अर्थात पत्रकार, उपदेशक, शिक्षक, नेता, संन्यासी और राज्याश्रित बुद्धिजीवी स्वार्थ लाभ और सत्ता की राजनीति में इस तरह उलझ गए हैं कि खेतों में काम करने वाली जनता उनके पास पहुँच नहीं पाती है, और वे लोग जनता के पास जाने की इच्छा नहीं रखते...(आलोचना, अप्रैल-जून-1967, युयुत्सा, अगस्त-1967)।’’ ऐसे दुर्निवार समय में, जब ‘जंगल’ और ‘जनतन्त्र’ का भेद समाप्त कर दिया गया था; ‘भाषा’ और ‘गूंगेपन’ के बीच की दूरी मिटा दी गई थी; अपने दायित्व का बोध रखनेवाले गिने-चुने बौद्धिक थे, जिन्हें ‘पेशेवर भाषा के तस्कर-संकेतों और बैलमुत्ती इबारतों में अर्थ खोजना व्यर्थ’ लग रहा था, ‘शब्दों के पीछे, न जाने कितने चेहरे नंगे हो चुके थे’, आदत के बजाय ‘हत्या लोगों की रुचि’ बन गई थी। राजकमल चौधरी या धूमिल या उन जैसी वैचारिकता से सहज सहमति रखनेवाले सृजनशील उन्नायक उस दौर के काव्य में नए भाषा-सन्दर्भ की प्रयुक्ति से अपने कहन को प्रभावी बनाने की चेष्टा में व्यग्र थे। नागरिक-दृष्टि उन्नत करने, उनमें नई कव्याभिरुचि एवं नए सौन्दर्यबोध पैदा करने के उनके जनसरोकार स्पष्ट दिख रहे थे।
स्वाधीनता के बाद की लोकतान्त्रिाक व्यवस्था में भारतीय जनता किसी अच्छे कल की प्रतीक्षा में एक-एक साँस गिन-गिनकर बिता रहे थे। पर, दशक बीत जाने के बाद भी उन्हें अपने सपनों के पूरे होने के आसार नहीं दिख रहे थे। राजनीतिक शिकारियों के करतबों में स्वाधीनता किसी खिलौने की तरह बेबस दिख रही थी। राजकमल चौधरी ने देखा कि शहीद स्मारक के नीचे स्वाधीनता, अर्थात् ‘पागल काली एक मरी हुई स्त्री/उजाड़ आसमान में दोनों बाँहें फैलाकर रोने के लिए/रोते हुए सो जाने के लिए पानी और अनाज के देवताओं से भीख माँगती है/तिरंगा फहराने के अपराध में मार डाले गए/1942 के छात्रों के नाम पर...।’ भारतीय स्वाधीनता एवं लोकतन्त्र के नियन्ताओं की कुटिल नीति की ऐसी गहन पड़ताल और चीड़-फाड़ राजकमल चौधरी और धूमिल जैसे कुछेक सृजेता ही कर रहे थे। दीर्घ-काल से पोषित जनाकांक्षाएँ मोहभंग में तब्दील हो चुकी थीं। आक्रोश दहक रहा था। विद्रोह की सारी स्थितियाँ मौजूद थीं। जनचेतना के इस स्वरूप की पहचान हर समय के समर्थ और सावधान कवि को होती है। कर्मवीर जनसामान्य की निष्ठा और मानवीयता के साथ व्यवस्था के बहुविध दुराचारों से धूमिल परिचित हो चुके थे; जिनकी स्पष्ट छवि ‘बीस साल बाद’, ‘कुत्ता’, ‘अकाल दर्शन’, ‘भाषा की रात’, ‘शहर का व्याकरण’, ‘नक्सलबाड़ी’, ‘प्रौढ़ शिक्षा’, ‘मोचीराम’, ‘विद्रोह’, ‘हर तरफ धुआँ है’, ‘रोटी और संसद’, ‘लोहे का स्वाद’, ‘जनतन्त्र: एक हत्या सन्दर्भ’, ‘हरित क्रान्ति’, ‘जनतन्त्र के सूर्योदय में’, ‘लोहसाँय’ जैसी उनकी अनेक कविताओं में उजागर हुईं। वैसे तो उनकी सारी ही कविताएँ लोहसाँय पर बैठे जनवृत्त का प्रतिबिम्ब है; जिसे प्रखरता से अभिव्यक्त करने के लिए वे जनजीवन के व्यावहारिक सन्दर्भों के मुहावरों का इस्तेमाल करते थे; और इसी निष्ठा एवं अभिव्यक्ति के कौशल के कारण राजकमल चौधरी उनकी चेतना में सारे सन्दर्भों के साथ चहलकदमी करते रहते थे।
धूमिल अपनी काव्य-चेतना का सही-सही सन्दर्भ राजकमल चौधरी की कविताओं में देख रहे थे। इसीलिए वे बौद्धिकों द्वारा किसी संख्या, या व्याकरण की किसी अपाहिज धारणा में बदले जाने से पूर्व कविताओं में उनका पीछा करना चाहते थे। ध्यातव्य है कि शब्द स्वयं में विराट नहीं होता, कविता में उसकी प्रयुक्ति से बनी व्यंजना उसे वैराट्य देती है। धूमिल यहाँ कविताओं में उनका पीछा करना चाहते थे और इसके लिए वे जल्दबाजी में थे, क्योंकि वे उन्हें संख्या या व्याकरण की अपाहिज धारणा में बदल देने की जुगत में तल्लीन समकालीन साहित्यिकों की नीयत देख रहे थे। इस व्यंजना को गम्भीरता से समझने की जरूरत है। किसी व्यक्ति के संख्या में तब्दील किए जाने का अभिप्राय है, व्यक्ति का एक अंक में रूढ़ हो जाना; उसकी समस्त गुणवत्ता, भावुकता, चेतना, सोच...सब कुछ को निरर्थक कर देना। इसी तरह मनुष्य को व्याकरण की अपाहिज धारणा में तब्दील कर देने का अर्थ है उसे निष्प्रयोजक बना देना। किसी भाषा के लिए व्याकरण, निश्चय ही एक महान शास्त्र है। इसके बिना किसी भाषा की प्रतिष्ठा नहीं होती। मगर इस अपाहिज धारणा ने व्याकरण में अपनी खेती-बारी से ढेरो विसंगतियाँ पैदा की हैं। इसी अपाहिज धारणा एवं सोच-विचार के मनुष्य अपने प्रतिपक्षियों को निरर्थक घोषित कर देते हैं, क्योंकि उन्हें भय रहता है कि वे उनकी असंगत और अमानवीय प्रवृत्तियों को उजागर कर देंगे।
धूमिल, भाषा के मानक अनुशासन की महान व्यवस्था ‘व्याकरण’ के विरोधी नहीं थे, किसी व्यवस्था या अनुशासन के निर्दिष्ट भंजक नहीं थे; वस्तुतः वे व्याकरण या व्यवस्था या संख्या की उस परिभाषा के विरुद्ध थे जो अनाज-पानी के देवताओं द्वारा विरूपित सन्दर्भों से निर्मित किए गए थे; जिसने पवित्र भाषिक अनुशासन को अपाहिज धारणा बना दी थी; अब वहाँ मानव-जीवन के अनुकूल कुछ भी शेष नहीं रह गया था। मनुष्य का सब्र उसे जानवर बनने को मजबूर कर रहा था, हत्या व्यवस्थापतियों की आदत बन गई थी, बेशुमार भूख उपजानेवाले शिकारियों की पहचान सुनिश्चित नहीं हो पा रही थी, आजादी और गाँधी के नाम पर अबूझ-से मुहावरे गढ़े जा रहे थे...इन सबसे न तो भूख मिट रही थी, न मौसम बदल रहा था। उन्हें वे लोग भी ‘...अपराध के असली मुकाम पर/अँगुली रखने से मना’ कर रहे थे जिनके ‘आधे से ज्यादा शरीर/भेड़ियों ने खा लिया’ था। अपनी निजता तक से परांग्मुख हो गए ऐसे ही जनसमूह की निश्छलता और निष्क्रियता से या कि चतुर बौद्धिकता से धूमिल चिन्तित थे; राजकमल चौधरी चिन्तित थे। वे जनता को उनकी स्थिति की सही सूचना देना चाहते थे; उन्हें आमूल परिवर्तन के लिए तैयार करना चाहते थे; क्योंकि वे समकालीन बौद्धिकों एवं उपदेशकों के दायित्व-बोध की बेफिक्री से भी दुखी थे।
इधर धूमिल अपनी आँखों में सभ्यता के गर्भाशय की दीवारों का सुरमा लगाए बौद्धिकों को देख रहे थे कि ‘एशिया में दाएँ हाथों की मक्कारी ने/विस्फोटक सुरंगें बिछा दी हैं/उत्तर-दक्षिण-पूरब-पिश्चम-कोरिया, वियतनाम/पाकिस्तान, इसराइल और कई नाम/उसके चारों कोनों पर खूनी धब्बे चमक रहे हैं’, मगर लोग-बाग ‘अपनी भूखी अँतड़ियाँ हवा में फैलाकर/पूरी नैतिकता के साथ अपने सड़े हुए अंगों को सह’ रहे हैं, ‘भेड़िये को भाई कह’ रहे हैं और ‘कबूतर का पर लगाकर/विदेशी युद्धप्रेक्षकों ने/आजादी की बिगड़ी हुई मशीन को/ठीक कर दिया है’ (शान्ति-पाठ)। उधर राजकमल चौधरी अपने समय के वैश्विक और राष्ट्रीय सवालों से व्यग्र थे--‘क्यों बर्लिन की दीवार/क्यों देशप्रेम क्यों अफीम की गोलियाँ क्यों चैप्लिन की फिल्में/क्यों ताशकन्द-सम्मेलन क्यों रीढ़ की हड्डियों में/गैंग्रीन/मादाम नू क्यों क्यों दास-क्ै$पिटल/क्यों सुकरात क्यों सेगाँव की बौद्ध भिक्षुणियाँ जल मरती हैं/क्यों गर्गातुआँ की कहानियाँ क्यों काश्मीर के लिए/सेनाएँ क्यों अजन्ता/क्यों एक ही युद्ध मेरी कमर की हड्डियों में और कभी वियतनाम में/होता है क्यों इन्दिरा गाँधी क्यों तुम वह/मैं क्यों क्ु$छ नहीं क्ु$छ नहीं/...देह की राजनीति से विकट सन्निकट और कोई राजनीति नहीं है संजय/अन्न और अफीम की राजनीति यहीं शुरू होती है/जन्म लेता है यहीं मृग-मारीच (मुक्ति प्रसंग)। देश और दुनिया की इन तमाम व्याधियों को राजकमल और धूमिल एक ही सतह पर खड़े होकर अपने शरीर और मन-प्राण में झेल रहे थे। इन विकराल स्थितियों को प्रभावकारी रूप से उजागर करने में स्थापित भाषा-फलक उन्हें लाचार दिख रहा था, काव्य के प्रचलित प्रतिमान अशक्य लग रहे थे। इसलिए ये दोनों कवि हिन्दी कविता को नई भाषा और नए मुहावरों का नया परिधान दे रहे थे। मगर ऐसे दुर्निवार समय की अशुभ वेला में राजकमल चौधरी का निधन हो गया।
धूमिल की दृष्टि में उनका निधन किसी द्रष्टा का निधन था, जिससे राष्ट्र और समाज और इसलिए खुद धूमिल को एक अपूरणीय क्षति हुई थी। जबकि समाज के अधिकांश बौद्धिकों और साहित्यिकों की दृष्टि में धूमिल ऐसी वेदना नहीं देख रहे थे। वे समय के बौद्धिक और भाषिक पाखण्ड से तो पहले से परेशान थे, जिसका रूपांकन उनकी कविताओं में जगह-जगह होता आया था। इस घटना के बाद एक समानधर्मा महान कवि के गत हो जाने के अलावा उन्हें दो बातें सर्वाधिक असंगत लग रही थीं--राजकमल की स्मृति में शोक-सभा के शृंखलाबद्ध आयोजनों में घड़ियाली आँसू बहाने का बौद्धिक नाटक और राजकमल चौधरी की कविताओं में प्रयुक्त यौन-प्रतीकों एवं रूपकों का उनके चरित्र में आरोपण। ऐसे बौद्धिक उद्यम उन्हें वस्तुतः उन सियासी तिकड़मों के अनुषंग ही लग रहे थे, जो पूरे समुदाय को दासानुदास बनाने के उद्योग रचने में तल्लीन थे।
राजकमल के गत होते ही, उनके समकालीन अपनी अशक्यता और अक्षमता को छिपाने के लिए संस्मरणों और उद्गारों में उनके चरित्र को लांछित करने लगे। उनके रूपकों को उनके चरित्र में आरोपित करने लगे; धूमिल के लिए यह बात असह्य थी। उन्होंने साफ-साफ घोषणा की कि ‘उसे जिन्दगी और जिन्दगी के बीच/कम से कम फासला/रखते हुए जीना था/यही वजह थी कि वह/एक की निगाह में हीरा आदमी था/तो दूसरी निगाह में/कमीना था/...एक बात साफ थी/उसकी हर आदत/दुनिया के व्याकरण के खिलाफ थी...राख और जंगल से बना हुआ वह/एक ऐसा चरित्र था/जिसे किसी भी शर्त पर/राजकमल होना था/-- वह सौ प्रतिशत सोना था...’ यकीनन धूमिल को राजकमल की जिन्दगी, वैचारिकता और कविताई--तीनों से आत्मीय अनुराग था। क्योंकि राजकमल को दोहरी जिन्दगी से नफरत थी। चूँकि उन्हें किसी अतिरिक्त, हिस्से से अधिक, गैरमुनासिब सुविधा की आकांक्षा नहीं थी, इसलिए जीवन में कोई दुविधा नहीं थी। क्षणिक सुविधा की पूर्ति के लिए नीति-विवेक-धर्म को ताख पर रखनेवाले लोगों के लिए निश्चय ही राजकमल कमीना थे, क्योंकि उनकी हर आदत दुनिया के व्याकरण की अपाहिज धारणाओं के खिलाफ थी।
अपने दिववंगत स्वजनों की स्मृति में कविता या डायरी या संस्मरण लिखने की असंख्य घटनाएँ हिन्दी अथवा अन्य भारतीय भाषाओं में हुई हैं, किन्तु राजकमल चौधरी की स्मृति में रची गई धूमिल की इस कविता जैसी घनीभूत पीड़ा वस्तुतः गिनी-चुनी कविताओं में दिखती है। वैयक्तिक शोक को अन्तर्राष्ट्रीय विस्तार देनेवाली यह एक असाधारण कविता है। राजकमल चौधरी की ही स्मृति में नागार्जुन की लिखी दो कविताएँ--‘चौधरी राजकमल’ और ‘अच्छा किया उठ गए हो दुष्ट’ तथा बेटी की स्मृति में निराला की ‘सरोज स्मृति’ का स्मरण यहाँ उचित है! धूमिल की यह कविता न केवल राजकमल चौधरी पर लिखी गई सर्वाधिक विशिष्ट कविता है, बल्कि धूमिल की भी विशिष्ट कविताओं में से एक है। ऐसा कहा जा सकता है कि धूमिल की यह अकेली कविता राजकमल चौधरी के काव्य-कर्म की समझ बनाने की कई खिड़कियाँ एक साथ खोल देती है। इस कविता की रचना-तिथि का उल्लेख कहीं नहीं हुआ है, किन्तु इस कविता की एक पंक्ति से गणना सहज है कि निश्चय ही इसकी रचना सन् 1967 में 19 जून के बाद हुई होगी। भारत की आजादी के बीस वर्ष बाद भी राजकमल चौधरी भारतीय लोकतन्त्र और समकालीन बौद्धिकों का जैसा असंगत एवं मानव-विरोधी आचरण चारो ओर देख रहे थे, अपनी प्रसिद्ध कविता ‘मुक्तिप्रसंग’ एवं अन्य कई रचनाओं में उन्हीं को बेरहमी से उधेड़ रहे थे; धूमिल उन्हीं आचरणों को समर्थन दे रहे थे--‘वर्तमान की बजबजाती हुई सतह पर/हिजड़ों की एक पूरी पीढ़ी लूप और अन्धा कूप/के मसले पर/बहस कर रही है/आजादी--इस दरिद्र परिवार की बीससाला ‘बिटिया’/मासिक धर्म में डूबे हुए कुँवारेपन की आग से/अन्धे अतीत और लँगड़े भविष्य की/चिलम भर रही है/वर्तमान की सतह पर/अस्पताल की अन्तर्धाराओं और नर्सों का/सामुद्रिक सीखने के बाद...।’ इन दिनों लिंगबोध विमर्श एवं शारीरिक अक्षमता पर चर्चा होने लगी है। कोई भावक इन प्रयुक्तियों की अर्थ-ध्वनि उस मद में निकालने की चेष्टा कतई न करें, क्योंकि ये दोनों कवि इन विषयों को लेकर जितने संवेदनशील थे, उतना चिन्तनशील मानस आज भी कम देखने को मिलता है। ये प्रसंग उस दौर के भारतीय समाज के सोच-विचार के हैं, जनपदीय प्रयुक्तियों के हैं। शासकीय व्यवस्था की यह विचित्रता थी कि अज्ञ और अनुभवहीन लोग लिंग-बोध के वैशिष्ट्य के विमर्शक बने हुए थे; वैचारिक रूप से दरिद्र समाज की स्वाधीनता का अतीत दृगान्ध था, भविष्य पंगु; चिकित्सालय के सफेदपोशों का कर्तव्य समाज की व्याधियों का उपचार करना था, पर वे नर्सों, अर्थात् अधीनस्थ युवतियों को सामुद्रिक विद्या की शिक्षा दे रहे थे। मानव-शरीर के विभिन्न अंगों की बनावट के आधार पर उसके गुण-कर्म-स्वाभावादि का निरूपण करने वाली सामुद्रिक विद्या में मुख, मुखमण्डल तथा सम्पूर्ण शरीर के अध्ययन की प्रथा भारत में प्राचीन काल से ही प्रचलित है। इस प्रथा के सहारे भी सफेदपोशों ने किसिम-किसिम की अनैतिकता बरतने में अपनी बरकत बना रखी थी, बना रखी है। जिस चिकित्सालय का धर्म मानव-शरीर के अंगों के जैविक आचरण का पठन करना है, वहाँ उनकी यौनिकता का आखेट किया जा रहा था! राजकमल चौधरी अपने समय की ऐसी राजनीतिक, प्रशासनिक, बौद्धिक आचार-पद्धति से व्यथित रहते थे। इसीलिए उन्होंने स्वस्थ-सबल नागरिक को शिष्ट राजभक्ति एवं देशप्रेम का वास्ता देकर धीरे-धीरे अपाहिज बनाने, नपुंसक बनाने की लोकतान्त्रिाक पद्धति एवं शासकीय नीति-प्रवृत्ति की ओर इशारा किया। इस धरती से आदमी को हमेशा के लिए खत्म कर देने की साजिश में शामिल रहने के बजाय उन्हें इस लोकतन्त्री संसार से अलग हो जाना बेहतर लगा; जीवित पड़ोसियों को खा जाने की तुलना में मसानों में अधजली लाशें नोचकर खाते रहना श्रेयस्कर लगा (मुक्तिप्रसंग)।
‘राजकमल चौधरी के लिए’ शीर्षक से लिखी गई धूमिल की कविता उनके दुख, शोक, परिताप, क्रोध, चिन्ता...जैसे कई भावों का समेकित सम्प्रेषण है। उन्हें अपने आसपास पसरे वैसे निश्चेष्ट बौद्धिकों के प्रति घोर पीड़ा उत्पन्न होती थी, जो भेड़ियों को अपना आधा शरीर खिलाकर भी ‘अपराध के असली मुकाम पर किसी को अँगुली रखने से मना’ कर रहे थे। इसीलिए उन्होंने इस कविता का उपशीर्षक दिया-- यूकलिप्टस के दरख्त में एक भी पत्ती नहीं है अब/बरामदे में पड़ी लाश का चेहरा/ढँकने के लिए--राजकमल चौधरी... यह उपशीर्षक भी उस क्रोध और चेतावनी का परिचायक है। यूकलिप्टस भारत में आया हुआ विदेशी मूल का एक पेड़ है। जिसके बारे में यह कहा जाता है कि यह जमीन की नमी बहुत सोखता है। यह यूकलिप्टस का दरख्त पदबन्ध इस देश के उन सफेदपोशों के लिए है, जिन्होंने भारत में जनसामान्य के हिस्से की नमी सोख कर स्वयं को सुपुष्ट किया है। इसका अर्थ थोड़ी गम्भीरता से लगाना होगा। इस पेड़ में वैसे भी पत्तियाँ बहुत कम होती हैं। सामान्य नागरिक इससे किसी छाया की उम्मीद नहीं करते, यहाँ तो उसकी बची-खुची पत्ती भी समाप्त हो गई है। पूरी जमीन, पूरी आबादी के हिस्से की नमी सोखकर खुद को सुपुष्ट, चिकना और सुशोभन बनानेवाले ये सफेदपोश अब इस काबिल भी नहीं रहे कि बरामदे में पड़ी लाश तक को छाया दे सके; उसमें एक भी पत्ती नहीं बची, जो इस लावारिस लाश का चेहरा ढक सके। इस लाश का रूपक व्याख्येय है। यह लाश वस्तुतः वह मानवीयता है, जो दुर्भाग्यवश भारतीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था के चिन्तन से सिरे से गायब थी। भारत के बौद्धिक परिवेश को इस विकृत-विसंगत परिस्थिति से उबरने के लिए सही मार्ग राजकमल चौधरी को समझकर ही निकाला जा सकता था, जिसका रूपांकन उनके विचारों, उनकी कविताओं में हुआ था; इसलिए उनकी चेतना की सावधान स्मृति से ही वह जागृति सम्भव थी, जो धूमिल कर रहे थे।
एक सामूहिक भ्रम और सन्नाटे से शुरू हुई धूमिल की इस कविता में ‘कहीं कुछ भी नहीं है, सिर्फ उसका (राजकमल चौधरी का) मरना है इस भ्रम के साथ-साथ/जिसे मैंने अपनी कविता का गवाह/कर लिया है। औरतें/योनि की सफलता के बाद/गंगा का गीत गा रही हैं/देह के अन्धेरे में/उड़द और अजवाइन के पौधों का सपना/उग रहा है...।’ पर ऐसे दिग्भ्रान्तों की शिनाख्त कविता की पच्चीस पंक्तियों के बाद होती है जहाँ ‘उसका मर जाना पतियों के लिए/अपनी पत्नियों के पतिव्रता होने की/गारण्टी है...।’ जिस समाज में जिस्मानी, जेद्दी और दिमागी तौर पर ऐसे अकलमन्दों (बौद्धिकों) की भरमार हो, जो अपनी कमजोरी की बजाय पत्नी की यौनिकता के लिए चिन्तित रहें, उन्हें राजकमल चौधरी की कविता का रूपक निश्चय ही भ्रम में डालेगा, वे बेशक कविता के रूपकों को कवि का चरित्र मानेंगे; उनके लिए ऐसे कवि, कोई कवि नहीं, बदनाम व्यक्ति ही नहीं, पुंशत्व से भरे एक पूरे मर्द दिखेंगे, जिनकी मृत्यु में उन्हें अपनी पत्नी की यौनिक सुरक्षा दिखेगी। क्योंकि उस दौर का पुरुष समाज इतना सामथ्र्यहीन हो चुका था, जिन्हें अपनी क्षमता से अधिक भरोसा अपनी अक्षमता पर हो रहा था, और अपनी अक्षमता की समझ के अहंकार पर ही वे तुष्ट थे। एक पुरुष के मर जाने से जो समाज अपनी पत्नी के पर-पुरुषगामिनी होने के भाव से मुक्त हो जाए, धूमिल ऐसे पुरुषों की पुंशत्व-चेतना से खिन्न थे। पत्नी के पातिव्रत्य सुरक्षित रहने का जिक्र, वस्तुतः उन बौद्धिकों के प्रति धूमिल के उग्र क्रोध की अभिव्यक्ति है, जो इतने पुंशत्वहीन हैं, निश्चेष्ट हैं, बेफिक्र हैं कि उन्हें देश-दुनिया तो क्या, खुद अपनी ही वास्तविकताओं की कोई सुधि नहीं थी, वे राजकमल चौधरी की कविताओं के रूपकों में यौन-चित्रण का अर्थान्वेष करने के बजाय उसकी वास्तविकता तलाशते हुए अपनी पत्नी की चारित्रिक शुचिता पर जा टिके थे!...
यकीनन धूमिल की कविता की वास्तविक समझ बनाने के लिए हर पाठक को जीवन-जगत के भदेस प्रकारणों के प्रति जागरूक होना होगा! पड़ताल करना होगा कि जिस बात को धूमिल ने अपनी कविता का गवाह कर लिया, वही बात औरों के लिए सन्नाटे का भ्रम क्यों थी? केवल एक पुंशपूर्ण पुरुष का मर जाना क्यों था? वह मृत्यु एक जनहितैषी, राष्ट्रवादी मनुष्य का अवसान क्यों नहीं बन पाया? धूमिल की यह कविता उस दौर की बौद्धिक दिग्भ्रान्ति की क्रूर अभिव्यक्ति है। भावकों को गौर करना होगा कि इस कविता में ‘योनि की सफलता के बाद औरतों का गंगा का गीत गाना’ या कि ‘देह के अन्धेरे में उड़द और अजवाइन के पौधों के सपने उगने’ का ध्वन्यार्थ क्या है? इन पदबन्धों में भावकों को यौन विषयक रूपकों के ध्वन्यार्थ पर गौर करने की जरूरत है। अभिधा में इन शब्दों के अर्थ लगाने पर धूमिल की आत्मा को एक बार फिर से क्रोध उपजेगा। इन पंक्तियों में भारतीय लोकतान्त्रिक समाज के उन पाखण्डी बौद्धिकों को धिक्कारा गया है जो धर्मभीरुता के अधीन न केवल टोटकों और किंवदन्तियों में जीने के अभ्यस्त हो गए थे, बल्कि धर्म तक के साथ वंचना करते रहते थे। आज भी करते हैं, उन दिनों तो करते ही थे। ‘तन’ और ‘मन’ के उमंगों से वे इतने आक्रान्त थे, तात्कालिक लाभ/लोभ/लिप्सा में इस तरह संलिप्त थे कि चेतना से उनका साथ छूट गया था। वे धार्मिक या नैतिक होने का दावा तो करते थे, पर थे नहीं। धर्म-विरुद्ध, नीति-विरुद्ध आचरण कर लेने के बाद प्रायश्चित की औपचारिकता पूरी करने में जुट जाते थे। उड़द मेंे वीर्यवर्द्धन, अजवाइन में रजोधर्म-पीड़ा-नाशन का नुस्खा तलाशकर काम-तृप्ति की जुगत में लग जाते थे, फिर गंगा का गीत गाकर पाप-मुक्त होने का प्रयास करते थे। भ्रम, अन्धकार एवं पापाचार के लोलार्क-कुण्ड में गहरे डूबे ऐसे लोगों को राजकमल चौधरी के रूपकों में चरित्र ढूँढते देखकर धूमिल बेचैन थे।
धूमिल को...लोलार्क कुण्ड की बनावट पर गौर करते हुए/उसने (राजकमल चौधरी) कहा था/मासिक धर्म रुकते ही सुहागिन औरतें/सोहर की पंक्तियों का रस/(चमड़े की निर्जनता को गीला करने के लिए)/नए सिरे से सोखने लगती है/जाँघों में बढ़ती हुई लालच से/भविष्य के रंगीन सपनों को/जोखने लगती है/मगर अब वह नहीं है...धूमिल ने स्वयं भी इस लोलार्क कुण्ड की बनावट पर गौर किया था, उसकी बनावट पर भी, और उसकी महिमा के प्रचार पर भी। प्रचार है कि बनारस में तुलसीघाट के निकट सूर्य के रथ का पहिया गिरने से बने इस कुण्ड की बड़ी महिमा है। इसकी संरचना और यथार्थ की जानकारी रखनेवाले जानते-समझते हैं कि स्त्री-योनि जैसी बनावट वाले इस कुण्ड में नहाने से क्या होता है? प्रचार है कि इसमें नहाने से असाध्य चर्मरोग ठीक हो जाता है। सूर्य षष्ठी के दिन इसमें नहाने से निःसन्तान स्त्रिायाँ फलवती हो जाती हैं। इस कारण यहाँ श्रद्धालुओं की भीड़ जुटती रहती है। परन्तु कुण्ड-कीर्तन के नेपथ्य का व्यूह जानना जटिल है। साधुु-सन्त धर्म का चरखा चलाते रहते हैं! धर्म, धाँधली, धूर्तता में चमत्कारी ताकत होती है, इसके बल पर बड़े-बड़े धूर्त-मक्कार पल भर में धर्मात्मा और बड़े-बड़े महात्मा फरेबी घोषित हो जाते हैं। पुण्य-फल-कामी समाज के भोलेपन के कारण पण्डों-पुजारियों का धार्मिक उद्योग और भोग-विलास चलता रहता है। कविता में राजकमल चौधरी का पीछा करते हुए धूमिल लोलार्क कुण्ड के नेपथ्य की सचाई भली-भाँति जान रहे थे। सुहागिन औरतों के मासिक धर्म रुकने, चमड़े की निर्जनता गीली होने, भविष्य के रंगीन सपने जोखे जाने का व्यूह समझ रहे थे। जिन्हें नहीं मालूम है, या जिन्हें नहीं मालूम करना है, वे राजकमल के पीछे लगे रहें, पर धूमिल को तो पूरा ‘...शहर/श्मशान के पिछले हिस्से के परिचित अन्धेरे में/किसी ‘मरी’ की तरह बँधा खड़ा...’ दिख रहा था और ‘भीड़ किसी अपभ्रंश का शुद्ध रूप जानने के लिए/उस प्रागैतिहासिक कथा की मुट्ठी/खोलने में व्यस्त है जहाँ रात/बनैले पशुओं ने विश्राम किया था...’
मानवता की मद में यह हृदय-विदारक है कि पूरा का पूरा शहर एक कवि को श्मशान के अन्धेरे में किसी ‘मरी’ की तरह खड़ा दिखे। नेता-अफसर, अनुदेशक-उपदेशक, सेठ-साहूकार...सब मिलकर आम नागरिक के जीवन को ऐसे बेबस कर दे कि किसी अपभ्रंश शब्द के शुद्ध रूप की तलाश में उसे प्रागैतिहासिक कथा की मुट्ठी खोलनी पड़े, जहाँ बीती रात बनैले पशुओं की चहलकदमी हुई हो! इस कविता की हरेक प्रयुक्ति में विराट व्यंजना रेखांकित है। श्मशान के अन्धेरे में पूरे शहर का ‘मरी’ की तरह खड़ा दिखने की विडम्बना उस दौर के भद्राचरण-प्रेमी उस समाज के मुँह पर झन्नाटेदार तमाचा है, जिन्हें अपने समय की विडम्बनाएँ विचलित नहीं करतीं। ‘अपभ्रंश’ शब्द यहाँ जनसमूह के सहज हो गए भदेस जीवन का प्रतीक है, जिसकी सहजता बाधित कर परम्परा और संस्कृति के आदिम स्वरूप के नाम पर बेचैन बनाने के लिए, आदिम परिष्कृत रूप तलाशने के लिए, वहाँ जाने को मजबूर किया जाता था, जहाँ बीती रात बनैले पशुओं की चहलकदमी हुई थी, अर्थात् जहाँ उसके शिकार हो जाने सारी सम्भावनाएँ मौजूद थीं। धूमिल ने अपनी ऐसी कविताई के द्वारा वस्तुतः काव्य-प्रयुक्तियों की समझ को विस्तार देने की भी सिफारिश की है।
राजकमल चौधरी की पूरी रचनात्मकता में वस्तुतः स्वाधीन भारत के आरम्भिक दो दशकों की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक स्थितियों का आर्तनाद व्यक्त हुआ है, जिसे उनके सहधर्मा अनुज धूमिल शिद्दत से महसूस कर रहे थे। राजकमल ने स्पष्ट देखा कि धरती को ‘...टुकड़ों में बाँटकर अलग-अलग चाहते हैं/भोग करना बनिये-सौदागर/इस दुनियाँ की सबसे नंगी सबसे मजबूत औरत का नाम है वियतनाम/उत्तर वियतनाम और दक्षिण वियतनाम/उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया/...पाकिस्तान और हिन्दुस्तान/सफेद अमरीका और काला अमरीका/जॉन्सन का अमरीका और एलेन गिन्सबर्ग का अमरीका/इन्दिरा गाँधी का हिन्दुस्तान/और मलय रायचौधुरी का हिन्दुस्तान/इस दुनियाँ की प्रत्येक मजबूत औरत नंगी और दो टुकड़ों में बँटी हुई/यह औरत मेरी माँ और मेरी बीवी मेरा देश और मेरी जिन्दगी/...और गुलाम शहरों का एकमात्र एकमात्र बच गया है लोकनायक अब/007 जेम्स बॉण्ड/चीनी अजदहे के पेट को चीरकर बाहर खींच लाएगा/हमारे देश की चौदह हजार पाँच सौ वर्गमील पुण्यभूमि वही केवल वही/नायक है 007...(मुक्ति प्रसंग)। विदित है कि राजकमल चौधरी अपने समय के सर्वाधिक अधीत रचनाकार थे। उनकी एवं धूमिल की रचनात्मक दृष्टि सदैव देश-दुनिया में मानवता की पूजक दृष्टि थी। उनकी धारणा में मानवता से बड़ा धर्म कुछ नहीं था। इन दोनों महान कवियों की चेतना का विस्तार इतना संवेदनशील था कि वे पूरी दुनिया के दुख-दर्द को अपनी शारीरिक व्याधि की तरह देखते थे। इनकी सृजनात्मक चिन्ता में वैश्विक राजनीति की कलाबाजियाँ भी तार-तार दिखती थीं।
सुधी जन जानते हैं कि पचास देशों के हस्ताक्षर के साथ 24 अक्टूबर 1945 को गठित संयुक्त राष्ट्र के घोषणापत्र में मानवाधिकार के प्रबल सुरक्षा का उल्लेख हुआ। फिर मनुष्य की मुक्तिकामना से भी बड़ा मानवाधिकार क्या है कि शीतयुद्ध के दौरान 1 नवम्बर 1955 से 30 अप्रैल 1975 तक शृंखलाबद्ध वियतनामी युद्ध के सर्वाधिक भीषण सैन्य संघर्ष में दारुण नरसंहार हुआ। एक ओर चीनी जनवादी गणराज्य समर्थित उत्तरी वियतनामी सेना और दूसरी ओर अमेरिकी सैन्य समर्थित दक्षिणी वियतनामी सेना की मुठभेड़ हुई। साथ-साथ डटकर लड़ने के अपराध में उत्तरी वियतनामी सेना एवं ‘लाओस’ पर क्रुद्ध अमेरिकी फौज ने भीषण हवाई हमले किए, घनघोर बमबारी करवाई। सूचनानुसार सन् 1964-1973 के बीच अमेरिका ने यहाँ हर आठ मिनट में बम गिराए। साम्राज्यवादी दुष्चक्र से मुक्ति के अभिलाषी वियतनाम के नागरिकों को अपनी कामना इतनी मँहँगी पड़ी कि वे नेस्तनाबूद हो गए। मनुष्य की मुक्ति-कामना की पक्षधरता के संकेत राजकमल चौधरी के छात्र-जीवन के आचरणों में ही परिलक्षित होने लगे थे। सन् 1942 के आन्दोलन में भी वे बड़ी उग्रता से शामिल थे। टुकड़ों में बाँटकर साम्राज्य-सुख का भोग करनेवालों की नीयत वे भली-भाँति जान चुके थे। इसीलिए तो उन्होंने ऐसे भोगी लोगों की दृष्टि में भूखण्ड को ‘दुनियाँ की सबसे नंगी सबसे मजबूत औरत’ का दर्जा दिया। क्योंकि साम्राज्य-भोग के लिए वे स्त्री-देह-सुख की तरह लालायित दिखते थे। फूट डालकर, टुकड़ों में बाँट कर साम्राज्य-भोग के सौदागरों को वे पहचान चुके थे।
उत्तर वियतनाम, दक्षिण वियतनाम, उत्तर कोरिया, दक्षिण कोरिया, पाकिस्तान-हिन्दुस्तान, सफ्े$द अमरीका, काला अमरीका, जॉन्सन का अमरीका, एलेन गिन्सबर्ग का अमरीका, इन्दिरा गाँधी का हिन्दुस्तान, मलय रायचौधुरी का हिन्दुस्तान... इनमें से कौन-सा भूखण्ड मानवीय था, कौन-सा अमानवीय, इसकी पहचान कम से कम उस दौर के बौद्धिकों को होनी चाहिए थी; जो हो नहीं रही थी। इसलिए उन्होंने भोग-लोलुप सौदागरों की दृष्टि में दुनियाँ को मजबूत, नंगी और दो टुकड़ों में बँटी हुई औरत करार दिया; यह औरत कवि की माँ या बीवी या देश या जिन्दगी...कुछ भी हो सकती थी। ऐसे तमाम लज्जाजनक उपमानों से उस दौर के बौद्धिकों की मनःस्थिति पर बेशक कुछ फर्क न पड़े, राजकमल चौधरी के लिए यह आर्तनाद की स्थिति थी। कोई सावधान कवि जब दुनियाँ की दुर्दशा को अपनी माँ, बीवी, देश या जिन्दगी की दुर्दशा की तरह देखे; उसे कामान्धों द्वारा सर्वाधिक मजबूत नंगी औरत की तरह लुटते देखने का रूपक दे, तो बौद्धिकों के लिए यह घोर धिक्कार की स्थिति है। इसके साथ-साथ यह भी विदित है कि दुनिया भर में ख्यात जेम्स बाॅण्ड का किरदार, इस शृंखला के जासूसी उपन्यास-लेखन के लिए ख्यात अंग्रेजी लेखक एवं खुफिया नौसेना अधिकारी इयान लैंकेस्टर फ्लेमिंग (28 मई 1908 से 12 अगस्त 1964) के मनोजगत की उपज थी, जिसे सामाजिक यथार्थ से कोई लेना-देना नहीं था; फिर भी वह राजकमल एवं धूमिल के ऊर्जस्वित रचनाकाल के दौर में लोकप्रिय था। सन् 1952 में ‘कसीनो राॅयल’ से शुरू हुई फ्लेमिंग की इस शृंखला में सन् 1966 आते-आते ग्यारह उपन्यास और दो कहानी संग्रह प्रकाशित हुए। इनमें जेम्स बॉण्ड को 007 कोड से जाना जाता था। समाज निरपेक्ष पात्र के महिमा-मण्डन की वजह से उस दौर के समीक्षकों ने इन रचनाओं को घिनौनी, अस्वास्थ्यकर, स्कूली छात्रों की बदमाशी, कुण्ठित किशोर की यान्त्रिाक द्वि-गामी यौन-कुत्सा एवं उन्मादी वयस्कों के दम्भ से भरी रचना के रूप में कठोर आलोचना की। पर विडम्बना है कि उस दौर की बौद्धिक मनोदशा पर इस नायक की लोकप्रियता छाई रही और इसीलिए राजकमल ने प्रहारक व्यंग्य किया कि अब गुलाम शहरों का एकमात्र लोकनायक 007 जेम्स बॉण्ड बच गया है, जो चीनी अजदहे के पेट को चीरकर हमारे देश की चौदह हजार पाँच सौ वर्गमील पुण्यभूमि बाहर खींच लाएगा। सूचना के अधिकार के तहत विदेश मन्त्रालय से ली गई जानकारी के अनुसार हर सचेत भारतीय को मालूम है कि सन् 1962 के सीमा-संघर्ष के समय से भारत के जम्मू कश्मीर क्षेत्र के पश्चिमी सेक्टर के 38,000 वर्गकिलोमीटर (14671.88 वर्गमील) क्षेत्र पर चीन ने कब्जा कर लिया था। उक्त पद्यांश में चीनी अजगर का पेट चीरकर अपने देश की उसी पुण्यभूमि को बाहर खींच लाने के लिए राजकमल चौधरी ने 007 जेम्स बॉण्ड जैसे लोकनायक का आवाहन किया है, जो स्वयं घिनौने कृत्यों में संलिप्त है। यह उस दौर के पदलुब्ध नायकों के प्रति धिक्कार-तिरस्कार का संकेत है। इस प्रहारक व्यंग्य की समझ बनाने के लिए जैसी चेतना की जरूरत थी, उस दौर के नायकों ने उसे गैरजरूरी समझ रखा था, क्योंकि उनकी जैविक और बुनियादी प्राथमिकता में देश या देश की अस्मिता कुछ भी नहीं थी। उस यूकलिप्टस के दरख्तों में सचमुच एक भी पत्ती नहीं बची थी। धूमिल वस्तुतः इस परांग्मुखता से व्यथित थे कि ऐसी विडम्बनाओं से देश के नायक, नागरिक, उपदेशक, निदेशक...सब के सब किस कारण विमुख हैं।
वैश्विक-चेतना जाग्रत रखे बिना वस्तुतः राजकमल एवं धूमिल की समग्र रचनात्मक ध्वनियाँ हासिल कर पाना असम्भव था, असम्भव है। वैचारिक-विस्तृति के कारण इन रचनाओं का अर्थान्वेष कई परतों में होता है। इनकी रचनाओं में शिल्प-संरचना का उत्कर्ष एवं प्रयुक्तियों का चमत्कार जिन उपादानों से सम्भव होता है, उसका गहनतर जुड़ाव यकीनन जनपदीय बोली-बानी, स्थानीय आचार-विचार, क्षेत्रीय लौकिकता के साथ-साथ शास्त्रीय शील-संस्कार से भी रहता है; पर इनकी वैचारिक-दृष्टि वैश्विक है; इसलिए अवगाहन के समय वैश्विक-दृष्टि से सावधान रहना अनिवार्य है। उक्त वैश्विक परिदृश्य धूमिल की विलक्षण परीक्षण-दृष्टि में स्पष्ट थे। शासकीय एवं राजनीतिक खेल में दुनिया भर की ये परिस्थितियाँ जिस तरह राजकमल चौधरी की दृष्टि में निस्सहाय दिख रही थीं; राजकमल की मृत्यु के बाद धूमिल की दृष्टि में भी उतनी ही निस्सहाय थीं। क्योंकि वे स्वयं को अकेला अनुभव कर रहे थे। उन्हें समकालीन विडम्बनाओं से निरपेक्ष उस दौर के आयोजनधर्मी साहित्यिकों की प्रवृत्ति पर क्रोध आ रहा था। उसी क्रोध के मारे उन्होंने उन रचनाकारों को यह कहते हुए इस कविता का अन्त किया कि ‘उसका मरना मुझे जीने का सही कारण देता है/जबकि वे (आयोजनधर्मी साहित्यिक)/याने कि मेरे दोस्त/पहियों और पाण्डुलिपियों की रायल्टी तय करने की/होड़ में/यह नहीं जानते/कि वह (राजकमल चौधरी)/फूलदानों, मछलियों, अन्धेरों और कविताओं/को कौन-सा अर्थ/देने के लिए/किस जंगल/किस समुद्र/किस शहर के अन्धेरे में जाकर/गायब हो गया है/...उन्होंने, सिर्फ, उसे/एक जलते हुए मकान की छत्तीसवीं खिड़की से/हवा में.../फाँदते हुए देखा है। यहाँ ‘जलते हुए मकान’ एक रूपक है। भावक यहाँ चाहें तो राजकमल की ‘जलते हुए मकान में कुछ लोग’ शीर्षक कहानी को भी याद कर लें। इस ‘जलते हुए मकान’ की परिभाषा व्याख्येय है, जिसमें जीवन के हरेक वर्ष राजकमल ने झुलसते हुए बिताया, जिसकी तपिश को महसूस करने के बजाय लोगों को उनका फाँदकर भाग जाना ही दिखा, क्योंकि वे स्वयं तो सदैव पहियों पर लुढ़कते हुए कुछ पा लेने और पाण्डुलिपियों की रायल्टी तय करने की होड़ में व्यस्त रहे। उन्हें यह जानकारी कभी हुई ही नहीं, या कभी वे यह जानकारी लेने के अभिलाषी ही नहीं हुए कि राजकमल चौधरी ‘फूलदानों, मछलियों, अन्धेरों और कविताओं’ (2 जुलाई, 1967 को धर्मयुग में प्रकाशित राजकमल चौधरी की सात उपखण्डों की कविता ‘मछलियाँ, शिवलिंग, फूलदान, शब्द शय्या पर अनावृत, सृष्टिमुखी, और कविता के विषय में असम्पूर्ण’ में इस रूपक का अर्थान्वेष किया जा सकता है।) को कौन-सा अर्थ देने के लिए कितने बेचैन रहे? वस्तुतः निजी जीवन की त्रासदी तक से विमुख उस दौर के बुद्धिवादियों की सुखलीनता एवं आलस्य ने उनकी संवेदना को इतनी भोथड़ी कर दी थी कि उन्हें कोई गुदगुदी लगती ही नहीं थी।
यहाँ छत्तीसवीं खिड़की का अर्थ राजकमल चौधरी की आयु से है, इस गणना में थोड़ी-सी त्रुटि है। उनकी मृत्यु साढ़े 37 वर्ष की आयु में हुई। ताउम्र अनिर्णय एवं नियति के भरोसे जीवन जीनेवालों और जीभ एवं जाँघ के लालच को सहलाने के लिए सारी अनैतिकता अपनानेवालों को धिक्कारते हुए धूमिल ने राजकमल चौधरी को यूँ परिभाषित किया कि ‘जीभ और जाँघ के चालू भूगोल से/अलग हटकर उसकी कविता/एक ऐसी भाषा है/जिसमें कहीं भी/‘लेकिन’, ‘शायद’, ‘अगर’, नहीं है/उसके लिए हम इत्मीनान से कह सकते हैं कि वह/एक ऐसा आदमी था जिसका मरना/कविता से बाहर नहीं है।’ ऐसे कवि जब भारत देश के उस जटिल समय में, जटिल राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक परिवेश में उपस्थित नहीं रहे तो धूमिल का दुखी होना स्वभाविक था कि ‘बुद्धिमानों का अन्धापन और अन्धों का विवेक/मापने के लिए/सफेद पालतू बिल्ली/अपने पंजों के नीचे से कुछ शब्द/काढ़कर रख देती है/अचानक सड़कें/इश्तिहारों के रोजनामचों में बदल जाती है/‘सिरोसिस’ की सड़ी हुई गाँठ/समकालीन कवियों की आँख बन जाती है/नफरत के अन्धे कुहराम में सैकड़ों कविताएँ/कत्ल कर दी जाती हैं/मरी हुई गिलहरी की पीठ पर पहली मुहर/लगाने के लिए और यूकलिप्टस का दरख्त/एक सामूहिक अफवाह में नंगा हो जाता है...।’ धूमिल की इन भाषिक प्रयुक्तियों में आजाद भारत की लोकतान्त्रिाक व्यवस्था एवं बौद्धिक दुरवस्था का स्पष्ट चित्र उभरा है, जिसमें उन्हें चतुर्दिक सिरोसिस की लाइलाज सड़ी हुई गाँठ दिख रही थी। जिन समकालीन कवियों की आँखों को जनहित में साकांक्ष सावधानी की अपेक्षा थी, उनमें वे मरी हुई गिलहरी की पीठ पर पहली मुहर लगाने की अशक्यता और नफरत के अन्धे कुहराम में जरूरी कविताओं को अलक्षित कर देने की व्यग्रता दिखाई दे रही थी। वे सामूहिक अफवाह के यत्नशील सफेदपोशों (यूकलिप्टस के दरख्तों) को आपादमस्तक नग्न देख रहे थे। पालतू बिल्ली के पंजों द्वारा जमीन की सतह खुरचकर काढ़े गए चन्द शब्दों का अर्थ स्पष्ट करने और इश्तिहारों के रोजनामचों में अचानक तब्दील हुई सड़कों की अर्थवत्ता तय करने में व्यस्त समाज से वे हताश हो चुके थे। ‘बिल्ली के पंजों से काढ़े गए शब्द’ और ‘इश्तिहारों के रोजनामचों में तब्दील हुई सड़क’ का वास्तविक संकेत सुधी जनों को समझना होगा कि ‘बिल्ली के पंजे’ कोई शब्द काढ़ नहीं सकते, उन निरर्थक खरोंचों में समकालीन आखेटक भोली जनता के लिए शब्द का भ्रम डाल देते हैं। इसी तरह जब सड़कें इश्तिहारों के रोजनामचों में तब्दील होती हैं, तो उस पर चलनेवाली भोली जनता उन इश्तिहारों में रोजनामचा देखने को मजबूर हो जाती है।
धूमिल की सबसे बड़ी पीड़ा यही थी कि वे उस दौर के हर नागरिक में राजकमल चौधरी जैसी साहसिकता, नैतिकता, विवेक, मानवीय सौहार्द, नैष्ठिक रचनात्मकता, ईमानदार राष्ट्रीयता, दुविधाहीन जीवन... देखना चाहते थे; क्योंकि उनके अपने जीवन में कोई द्वैध नहीं था, उनकी दृष्टि में मनुष्य की निजता का महत्त्व वरेण्य था; उनकी अपनी जीवन-चर्या में आत्मसुखलीन उपदेशकों का व्याकरण अमान्य था, यही कारण था कि राजकमल चौधरी औरों की निगाह में कुछ भी हों, उनकी निगाह में हीरा था, सौ प्रतिशत सोना था। वे स्पष्ट देख रहे थे कि यहाँ ‘वक्त की कैंची’ मानव विरोधी नीतियों के सहारे कबूतर जैसी सहज, निश्छल, भोले और स्वाभाविक रूप से चंचल मनुष्य के पंख (क्रियाशीलता) कतर रही है। यहाँ ‘कबूतर’ का बिम्ब अनेक संवेदनाओं से लदा हुआ है। पक्षी विशेषज्ञ बताते हैं कि इसे पालतू बनाना बहुत आसान है। यह स्वभावतः निष्कलुष होता है, इसे तनिक भान नहीं होता कि सामने फेंके दाने उसके चुगने के लिए नहीं, दाना चुगते समय उसकी हत्या करने के लिए बिखेरे गए हैं। देश के पूरे जनसमूह को गुमराह कर जीवन गँवाने को मजबूर करनेवाले तन्त्र के शासन में जीवन-बसर करता हुआ भारतीय नागरिक वस्तुतः एक विडम्बना जी रहा था। राजकमल चौधरी और धूमिल का सृजन सरोकार इसी चिन्तन और चिन्ता को रेखांकित करता है। ‘कल उसे लोगों ने/गाँव की तरफ जाते हुए देखा था/उसके पैर वर्तमान की कीचड़ से लथपथ थे/उसकी पीठ झुकी हुई थी/उसके चेहरे पर/अनुभव की गहरी खराश थी: ‘पूरा का पूरा यह युद्ध-काव्य/मैंने गलत जिया है/गलत किया है मैंने इस/कमरे को समझकर/जहाजी बेड़ों का बन्दरगाह.../...इस अकालबेला में जम्बूद्वीप के प्रारम्भ से ही अन्धकार/बन गया था हमारा अंतरंग संस्कार।’ धूमिल ने कविता के इस अंश का बिम्ब-निर्माण राजकमल चौधरी की दो कविताओं--‘मछलियाँ, शिवलिंग, फूलदान, शब्द शय्या पर अनावृत, सृष्टिमुखी, और कविता के विषय में असम्पूर्ण व्याख्यान’ तथा ‘बीमार कमरा बन्दरगाह’ की कुछेक पंक्तियों को मिलाकर न केवल उनकी मान्यता को, बल्कि उन कविताओं को भी जीवन्त कर दिया है। मानने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि राजकमल चौधरी और धूमिल उस दौर के जनजीवन की चिन्ता रखने वाले, मनुष्य मात्र की चिन्ता के तनाव में दुनिया छोड़ देने वाले ऐसे कवि हैं, जिनका जीवन एक उपदेशक के रूप में समाजहित को समर्पित था, जो ताउम्र बुराइयों, दुर्वृत्तियों से लड़ते रहे। इस कविता में एक वैचारिकता के दो कवियों की चिन्ताएँ एकमेक हो गई हैं। आजाद भारत के दो प्राथमिक दशकों के शर्मनाक समय और दर्दनाक सामाजिक जीवनचर्या को रेखांकित करती हुई सन् 1967 में लिखी ‘राजकमल चौधरी के लिए’ शीर्षक कविता भारतीय साहित्य की एक महान कविता है।
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