Monday, April 22, 2019

महान गुरु और महत्तर कवि‍ : केदारनाथ सिंह Kedarnath Singh : The Great Guru and The Great Poet



सामाजि‍क मनुष्‍य एवं मानवीय समाज के पक्षपाती कवि‍ प्रो. केदारनाथ सिंह से मेरी पहली मुलाकात सन् 1991 में हुई। उससे पूर्व उनके कवि‍ता-संग्रह--अभी बिल्कुल अभी (1960), जमीन पक रही है (1980), यहाँ से देखो (1983), अकाल में सारस (1988) और आलोचनात्‍मक कृति‍याँ-- कल्पना और छायावाद (1960 के आसपास) एवं आधुनिक हिन्‍दी कविता में बिम्‍ब विधान (1971) से मेरा परि‍चय हो चुका था। अकाल में सारस के लि‍ए उन्‍हें सन् 1989 के साहित्य अकादेमी सम्‍मान से सम्‍मानि‍त कि‍या जा चुका था। अपने लेखकीय वक्‍तव्‍य में उन्‍होंने पडरौना के दि‍नों की एक घटना का उल्‍लेख कि‍या था। वहाँ के जि‍स डि‍ग्री कॉलेज में वे प्राचार्य थे, उसके छात्रों के दो समूहों का आपसी संघर्ष कि‍सी कारण साम्‍प्रदायि‍क संघर्ष में तब्‍दील हो गया था। घटना की गम्‍भीरता के कारण स्‍थानीय प्रशासन को दखल देना पड़ा था। भीड़ को सम्‍बोधि‍त करते हुए प्रशासन ने दोनों पक्षों से कहा कि‍ अपना-अपना पक्ष रखने के लि‍ए दोनों समूह अपने एक-एक प्रति‍नि‍धि‍ का नाम पर्ची में लि‍खकर दें। प्राचार्य के कार्यालय में बैठे अधि‍कारि‍यों ने पर्ची खोली तो हि‍न्‍दुओं ने अपने प्रति‍नि‍धि‍ के रूप में प्रो. केदारनाथ सिंह का नाम लि‍खा था। मुस्‍लि‍म समुदाय की पर्ची खुलने पर सब के सब हैरत में रह गए। क्‍योंकि‍ उसमें भी केदारजी का ही नाम लि‍खा था। केदारजी उस घटना से वि‍ह्वल हो गए थे।...अपने वक्‍तव्‍य में उन्‍होंने कहा कि‍ मेरे लि‍ए इससे बड़ा सम्‍मान जीवन में और क्‍या होगा?


गुरुवर केदारनाथ सिंह के साथ अपने नि‍वास पर देवशंकर नवीन
ऐसे श्रेष्‍ठतर कवि‍ के काव्‍य-कौशल और कवि‍ता सम्‍बन्‍धी धारणाओं से मेरे जैसे असंख्‍य पाठक परि‍चि‍त हो चुके थे। 'तुम आईं' (सन् 1967), 'हाथ' (सन् 1980), 'जनहित का काम' (सन् 1981), 'दाने', 'नीम' (सन् 1984), 'हक दो', 'नमक' (सन् 1990) जैसी कालजयी कवि‍ताओं ने तो पत्‍थर तक को साहि‍त्‍यानुरागी बना दि‍या था, मैं तो साहि‍त्‍य का ही छात्र था। केदारजी की कवि‍ताओं के प्रति‍ ऐसा सम्‍मोहन मुझमें गत शताब्‍दी के नौवें दशक के पूर्वार्द्ध में ही हुआ था। उन्‍हीं दि‍नों मैंने राजकमल चौधरी की तीन कहानि‍याँ'जलते हुए मकान में कुछ लोग', 'एक चम्‍पाकली : एक वि‍षधर', और 'वैष्‍णव' पढ़ी भी थी। राजकमल की कवि‍ताओं से मेरा परि‍चय इसके बाद ही हुआ। इन दो घटनाओं ने मेरे सोच-वि‍चार की दि‍शा बदल दी थी। मैं वि‍ज्ञान छात्र था। उसे छोड़कर साहि‍त्‍य में एम.ए. करने लगा। एम.ए. पास करने के बाद 'राजकमल चौधरी : जीवन एवं साहि‍त्‍य' वि‍षयक पी-एच.डी. के कारण मैं राजकमल-साहि‍त्‍य में केन्‍द्रि‍त अवश्‍य हो गया; कि‍न्‍तु केदारनाथ सिंह की कवि‍ताओं की मोहकता सदैव आकर्षि‍त करती रही।
अब तक मनुष्‍य और समाज को देखने की मुझे दो-दो आँखें हो गई थीं। दोनों आँखों की अपनी-अपनी उज्‍ज्‍वलता और वि‍लक्षणता थीं। इन कवि‍ताओं ने मेरी जीवन-दृष्‍टि‍, रचनाधर्मि‍ता और साहि‍त्‍यि‍क समझ का परि‍ष्‍कार कर दि‍‍या था। 'कोमल स्‍वर की आक्रामकता' का सूत्र इन्‍हीं कवि‍ताओं से समझा था--'तुम आईं/जैसे छीमियों में धीरे-धीरे/आता है रस/जैसे चलते-चलते एड़ी में/काँटा जाए धँस/...और अन्त में/जैसे हवा पकाती है गेहूँ के खेतों को/तुमने मुझे पकाया/और इस तरह/जैसे दाने अलगाये जाते हैं भूसे से/तुमने मुझे खुद से अलगाया' पढ़ते हुए मैं मुग्‍ध हो उठा था। 'छीमियों में धीरे-धीरे रस के आने', 'फसल की तरह प्रेमी को हवा में पकाने' और 'भूसे से दाने की तरह खुद से अलगाने' की क्रि‍याओं के मोहक बि‍म्‍ब ने मुग्‍ध कर रखा था। जीवन, जगत, प्रकृति‍, कृषि‍-कर्म के गहन मर्म से जुड़े इस कवि‍ की संवेदना के बारे में सोचता रहता था कि छीमि‍यों में रस भरने का ऐसा अमूर्त्त रूपक इस कवि‍ ने कि‍तने और कि‍स तरह के चि‍न्‍तन से गढ़ा होगा। 'उसका हाथ/अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा/दुनिया को/हाथ की तरह गरम और सुन्‍दर होना चाहिए' जैसी पंक्‍ति‍यों ने मन-मस्‍ति‍ष्‍क में उजालों का उत्‍सव ला दि‍या था। 'उसके हाथ' का स्‍पर्श पाते ही दुनिया का स्‍मरण हो आने, और दुनि‍या के उस हाथ की तरह गरम और सुन्‍दर होने के कवि‍-चि‍न्‍तन ने मुझे असीम काव्‍य-दृष्‍टि‍ से भर दि‍या था। इस 'हाथ' और 'उसके हाथ' के अर्थ-गौरव ने मेरी चि‍न्‍तन-पद्धति‍ से इतना व्‍यायाम कराया कि‍ कई बार सोचते-सोचते, अर्थ-दोहन करते-करते थक-सा जाता। इस थकान के बाद तनि‍क रुककर जब फि‍र इस छोटी-सी कवि‍ता में वापस आता, तो बड़ी शान्‍ति‍ मि‍लती। फि‍र से उसमें डूबने का मन करता। कवि‍ के वि‍राट चि‍न्‍तन के आगे नत हो जाता। एक प्रेमाकुल मन से जीवन और जगत की इतनी वृहत् यात्रा कराकर पूरे अनुभव को इतनी छोटी-छोटी पंक्‍ति‍यों में भर देने का केदार-कौशल नि‍श्‍चय ही कि‍सी नई संज्ञा की माँग करता था।
अध्‍यवसाय की उस छोटी-सी दुनि‍या में मुझे ऐसा अर्थ-गौरव अन्‍यत्र नहीं मि‍लता। इस महान कवि‍ को नजदीक से देखने की लालसा से भर उठता। 'हाथ' और 'उसके हाथ' के इस बि‍म्‍ब की काव्‍य-व्‍यंजना मुझे दूर तक ले जाती। अपने कोशीय अर्थ की सीमा लाँघकर यह 'हाथ'  अपने तमाम सार्थक उपक्रमों तक पहुँच जाता और दुनि‍या के शुभद अंशों की रचना करता-सा दि‍खता। मि‍तभाषी दि‍खनेवाली केदारनाथ सिंह की ये कवि‍ताएँ व्‍यंजना में ‍सदैव वि‍राट और  मुँहजोड़ दि‍खतीं। उसका कारण सम्‍भवत: शब्‍द-प्रयोग का कौशल होता, जि‍समें वे शब्‍दों या पदों को हमेशा कोशीय-अर्थ की सीमा तोड़ देने को मजबूर कर देते। और चमत्‍कार यह कि‍ कि‍सी को कानोकान खबर नहीं होती कि‍ हुआ क्‍या है? अर्थ भरा जा रहा है, लेकि‍न जैसे छीमियों में धीरे-धीरे रस भर आता है!
उन्‍हीं दि‍नों समाज के उद्दण्‍ड लोगों के मुँह से दृष्‍टि‍-बाधि‍त लोगों को 'अन्‍धा' कहते भी सुनता था, अब भी कहते हैं। खुद मेरी दाईं आँख में तनि‍क बाँकपन था, जि‍स कारण लोग मुझे 'काना' कहकर चि‍ढ़ाते थे। उस नि‍जी दर्द में मैं तमाम दृष्‍टि‍-बाधि‍त लोगों का दर्द महसूस करता था। मगर राजकमल चौधरी और केदारनाथ सिंह की कवि‍ताओं को पढ़ते हुए मुझे उन्‍हीं दि‍नों स्‍पष्‍ट हो गया था कि 'अन्‍धा'‍ या 'काना' शब्‍द असल में उन दृष्‍टि‍-बाधि‍त लोगों अथवा मेरे जैसे लोगों के लि‍ए नहीं, उन तमाम लोगों के लि‍ए है, जो दुनि‍या को राजकमल चौधरी और केदारनाथ सिंह जैसे लोगों की तरह नहीं देखते। 
गुरुवर केदारनाथ सिंह के साथ अपने नि‍वास पर देवशंकर नवीन
बारि‍श के बाद जब मेघ खुल जाए तो खेत की मेड़ पर रखे हल की भीगी लकड़ी पर आदतन चोंच मारती चि‍ड़ि‍या को घनेरो लोगों ने देखा होगा। 'जनहित का काम' शीर्षक कवि‍ता पढ़कर कहना पड़ेगा कि दृष्‍टि‍-बाधि‍त व्‍यक्‍ति अपनी अक्षमता के कारण बेशक उस दृश्‍य को न देख पाए, पर चक्षुधारी तो सक्षम होते हुए भी नहीं देख पाते थे। केदारजी ने इसे यूँ देखा कि‍ 'मेह बरसकर खुल चुका था/खेत जुतने को तैयार थे/एक टूटा हुआ हल मेड़ पर पड़ा था/और एक चिड़िया बार-बार बार-बार/उसे अपनी चोंच से/उठाने की कोशिश कर रही थी/मैंने देखा और मैं लौट आया/क्योंकि मुझे लगा मेरा वहाँ होना/जनहित के उस काम में/दखल देना होगा'। केदारजी के इस तरह देखने के करतब को लोग बेशक फैण्‍टेसी कहें, पर यह उनका दोहरा दोष होगा। उनमें देखने की क्षमता तो नहीं ही है, कि‍सी के दि‍खा देने पर उसे समझने की क्षमता भी नहीं है। उस टूटे हुए हल पर छोटी-सी चिड़िया की छोटी-सी चोंच से बार-बार होती जोर-आजमाइश में कवि, भावकों को प्रेरणा देते दि‍ख रहे हैं कि‍ यहाँ जनहि‍त के सारे उपादान हैं, मेह बरसकर खुल चुका है, खेत जुतने को तैयार है, मेड़ पर एक हल भी पड़ा हुआ है, जनहित के वाजि‍ब काम अर्थात् खेत की जुताई हो सकती है, पर ऐन मौके पर वहाँ कोई जन नहीं है, वह जगह नि‍र्जन है, और ऐसी नि‍र्जनता में एक चिड़िया अपनी क्षीणप्राय शक्‍ति‍ के बावजूद अपनी चोंच से हल उठाने की कोशिश कर रही है, जनहित का काम कर रही है, जनशक्‍ति‍ के आलस्‍य-भाव को चि‍ढ़ा रही है, इस जनहि‍त में कि‍सी जन को दखल नहीं देना चाहि‍ए, कवि‍ को भी नहीं।
सन् 1984 में लि‍खी मात्र ति‍रपन शब्‍दों की एक महान कवि‍ता 'दाने' में खलिहान से वि‍दा होते दानों का वि‍द्रोह उन्‍होंने देख लि‍या था। मण्‍डी न जाने की जि‍द पर डटे, कि‍सानों को भवि‍ष्‍य के खतरों से सावधान कर रहे दाने कह रहे थेहम मण्डी नहीं जाएँगे/...जाएँगे तो फिर लौटकर नहीं आएँगे/...अगर लौट कर आए भी/तो तुम हमें पहचान नहीं पाओगे...।' यह भारतीय समाज की दुर्वह जीवन-दशा का समय था, जब जनजीवन का आर्थि‍क-ढाँचा चरमराया हुआ था; सूखा, बाढ़, दुर्भि‍क्ष, आपातकाल और सि‍लसि‍लेवार चुनाव-पर्व की राजनीति‍क अनस्‍थि‍रताओं ने उनकी कमर तोड़ दी थी। भारतीय राजनीति‍ज्ञ आम जनता की दुख-दुवि‍धाओं का संज्ञान लेने को राजी नहीं थे। दलगत शत्रुता में पहले से मदान्‍ध राजनेता कुछ और उग्र हो उठे थे। स्‍वयं को जनसेवक घोषि‍त करनेवाले राजनीति‍कर्मी राष्‍ट्र, जन और जनतन्‍त्र की सारी संवेदनाओं को ताख पर रखकर कुर्सी के ति‍कड़म में व्‍यस्‍त थे। आपराधि‍क राजनीति और राजनीति‍क अपराध का बोलबाला था। सन् 1980 के दशक में जनजीवन से परांग्‍मुख इन राजनीति‍क वि‍संग‍ति‍यों ने भारतीय जनजीवन को तरह-बेतरह प्रभावि‍त कि‍या था। लाल बहादुर शास्‍त्री द्वारा दि‍ए गए 'जय-जवान जय-कि‍सान' के नारे और चौधरी चरण सिंह द्वारा किसानों की पक्षधरता के बावजूद कि‍सानों की वास्‍तवि‍क दशा में कोई सुधार नहीं हुआ था। खलि‍हान से मण्‍डी जाते हुए दानों से कि‍सानों के मन में स्‍थि‍ति‍-सुधार का कोई भ्रम अवश्‍य हुआ था, पर वह एक घातक स्‍थि‍ति‍ थी। असल में राजनीति‍ज्ञों द्वारा पैदा की गई छलना को सामान्‍य लोग नहीं पहचान पाते; गहरी जीवन-दृष्‍टि‍ और जन-जन से नि‍जी सरोकार रखनेवाले महान कवि‍ ही देख पाते हैं। केदारनाथ सिंह ने देख लि‍या था। उन्‍हें कि‍सानों के प्रति‍ दानों का वह अनुराग और कृतज्ञताबोध स्‍पष्‍ट दि‍ख गया था। उनके वे दाने मण्‍डी नहीं जाना चाहते थे; क्‍योंकि वे दाने अपने उत्‍पादकों की सेवा में अपनी मौलि‍कता में खुद को खर्च करना चाहते थे; मण्‍डी जाकर, घाट-घाट का चक्‍कर लगाकर, बदले हुए स्‍वरूप में‍ फि‍र अपने उत्‍पादकों के पास आकर अजनबी नहीं होना चाहते थे; अपने उत्‍पादकों को लूटकर स्‍वरूप बदलनेवाले पूँजीपति‍यों का कोष भरना नहीं चाहते थे। इस छोटी-सी कवि‍ता में कवि‍ केदारनाथ सिंह ने कि‍सानों को बाजार और अर्थ-तन्‍त्र का शि‍कार होते देखा। इतनी सहजता से, इतने कम शब्‍दों में, इतनी बड़ी अर्थ-ध्‍वनि‍ उत्‍पन्‍न करना एक महान काव्‍य-कौशल और तत्त्‍वदर्शी चि‍न्‍तन का सूचक है। उन्‍हें आधुनि‍कता अथवा वि‍ज्ञान से कोई वैर नहीं था, पूरे जीवन उन्‍होंने तमाम जनोपयोगी आधुनि‍कता और जनहि‍तकारी वैज्ञानि‍क आवि‍ष्‍कार का स्‍वागत कि‍या। कि‍न्‍तु वि‍ज्ञान और आधुनि‍कता के कि‍सी आचरण से मनुष्‍य और प्रकृति‍ की मूल-वृत्ति‍ पर, उसकी सहजता-तरलता पर जब-जब उन्‍होंने आघात होते देखा, वे ति‍लमि‍ला उठे। 'दाने' कवि‍ता में सम्‍भवत: उन्‍हें इसीलि‍ए इतना दर्द हुआ।
सन् 1991 में ऐसे कवि‍ केदारनाथ सिंह को पहली बार अपने इण्‍टरव्‍यू में बैठे देखकर मन तोष से भर उठा था। सोचा कि‍ मेरा चयन हो चाहे न हो, केदारनाथ सिंह को इस तरह आमने-सामने बैठा देखना कि‍सी उपलब्‍धि‍ से कम नहीं। यह मुग्‍धता इतनी जबर्दस्‍त थी कि‍ अब स्‍मृति‍ पर जोर डालकर भी याद नहीं कर पा रहा हूँ कि‍ इण्‍टरव्‍यू में केदारजी ने क्‍या सवाल कि‍या था, शायद कोई सवाल नहीं कि‍या था। अधि‍कांश सवाल तो नामवरजी ने ही कि‍या था, केदारजी तो हर सवाल के मेरे जवाब पर मुस्‍कुराते रहे थे। नामवरजी से मेरी पहली भेंट उससे महीने-डेढ़ महीने पूर्व हो चुकी थी, देर तक बातचीत भी हुई थी। इस बार उनसे दुबारा भेंट हो रही थी। इण्‍टरव्‍यू ठीक ही हुआ, डायरेक्‍ट पी-एच.डी. में नामांकन हेतु मेरा चयन हुआ, नामांकन भी हो गया। परि‍सर के महान लोगों में नामवर सिंह से मि‍ल आने का मेरा धाक खुल चुका था। प्रो. मैनेजर पाण्‍डेय से भी मि‍लना-जुलना शुरू हो चुका था। केदारजी से नि‍कटता नहीं हो पाई थी। चलते-चलाते उन्‍हें कई बार नमस्‍ते करता था, अभयदान की मुद्रा में जब वे अपनी दाईं तलहत्‍थी सीने तक लाकर हि‍लाते और मुस्‍कुराते हुए आशीर्वाद देते, तो प्रतीत होता कि‍ कोई बड़ी-सी चीज मि‍ल गई है। वह चीज क्‍या होती थी, इसका आकलन आज तक नहीं कर पाया हूँ। डायरी लि‍खने की आदत रही होती तो हि‍न्‍दी साहि‍त्‍य या कहें कि‍ भारतीय साहि‍त्‍य के इस अनमोल रतन से अपनी पहली भेंट की ति‍थि ढूँढ पाता; पर ऐसा सम्‍भव नहीं। 
गुरुवर केदारनाथ सिंह के साथ अपने नि‍वास पर देवशंकर नवीन
सन् 1991 के मानसून सत्र की कोई ति‍थि‍ थी। भारतीय भाषा केन्‍द्र में पी-एच.डी. के गाइड तय होने की बात आई, नामवर जी ने घर पर बुलाया और कहा कि‍ अपने लि‍ए एक गाइड चुन लीजि‍ए और उनसे बात कर लीजि‍ए। मैंने कहा कि‍ चुनने की औकात यद्यपि‍ मुझे है नहीं पर चुन लि‍या है; बात अभी कर लेते हैं! लम्‍बी चर्चा हुई, नामवर जी ने कहा कि‍ मेरे साथ आपको दि‍क्‍कत हो जाएगी, थोड़े ही दि‍नों बाद आपको गाइड बदलनी पड़ेगी, इसलि‍ए अभी ही तय कर लीजि‍ए, ताकि‍ आनेवाले परि‍वर्तन से आप बच सकें। चर्चा समाप्‍त करते हुए नामवर जी ने संकेत कि‍या कि‍ केदार जी से बात करके देखि‍ए, वे मान गए तो आपके लि‍ए अच्‍छा होगा।
उल्‍लेख करूँ कि‍ शुरू-शुरू में दि‍ल्‍ली के शि‍ष्‍टाचार में स्‍वयं को समायोजि‍त करने में मुझे बड़ी तकलीफ हुई। मैं था ठेठ बि‍हारी, बि‍हार में बड़ों के लि‍ए 'बाबू' लगाकर सम्‍बोधन देने का पाठ सीखा था; जैसे केदार बाबू, नामवर बाबू...यहाँ पर सारे लोग 'जी' लगाकर सम्‍बोधन देते थे; जैसे केदार जी, नामवर जी...। काफी दि‍नों तक अजीब-सा लगता था; इस तरह की पुकार मुँह में बस ही नहीं पाती थी; फि‍र भी यहाँ का होकर रहना था तो करना ही पड़ा। ...और मैं केदार जी के घर 16, दक्षि‍णपुरम पहुँच गया। वैसे तो जे.एन.यू. के आवासीय परि‍सर का अधि‍कांश घर शान्‍त ही रहता है, पर उस घर के दरवाजे पर खड़ा होते हुए एक अलग-सी शान्‍ति‍ महसूस हुई थी। बन्‍द रहने के बावजूद उस घर के दरवाजे में एक मोहक आकर्षण, अपनापन, आलिंगन-भाव, स्‍वीकार और उदारता थी। घण्‍टी बजाई, एक सुन्‍दर-सी युवती ने दरवाजा खोला, बि‍ना कुछ पूछे-आछे भीतर ले गई। सौम्‍यता, नीरवता और सादगी से परि‍पूर्ण बड़े-से हॉल में डाइनिंग टेबल पर एक भव्‍य व्‍यक्‍ति‍त्‍व का नौजवान जलपान कर रहा था। नजर पड़ते ही उन्‍होंने अभि‍वादन कि‍या और नाश्‍ते का आग्रह कि‍या। ऐसे भव्‍य-दि‍व्‍य-सभ्‍य व्‍यवहार से मैं मुग्‍ध हो उठा था। धन्‍यवाद सहि‍त मैंने जलपान के लि‍ए शालीनतापूर्वक मना कि‍‍या और युवती के इशारे का अनुसरण करते हुए सोफे पर बैठ गया। बगल में बैठी एक सौम्‍य, शान्‍त बुजुर्ग महि‍ला हाथ में रि‍मोट लि‍ए टी.वी. देखने में तल्‍लीन थीं; एक नजर मेरी ओर डालीं, जैसे मेरे बैठने को अनुमोदन दे रही हों, और फि‍र टी.वी. देखने में तल्‍लीन हो गईं। सारा कुछ एक यान्‍त्रि‍क अनुशासन में होता चला जा रहा था। बि‍ना कि‍सी आग्रह-नि‍वेदन के। मेरे कहे बि‍ना वह युवती ऊपर के मंजि‍ल की ओर चली गईं। दो पल बाद आहट सुनकर मैंने पीछे की ओर नजर दौड़ाई तो कवि‍ केदारनाथ सिंह सीढ़ि‍यों से उतरते दि‍खे। तत्‍काल खड़े होकर मैंने प्रणाम कहा, उन्‍होंने उसी अनुपम मुद्रा में आशीर्वाद देते हुए बैठने को कहा। बगल के सिंगल सीटर सोफे पर खुद बैठे। मैंने अपना परि‍चय देना शुरू ही कि‍या कि‍ मोहक मुस्‍कान के साथ उन्‍होंने कहा--जानता हूँ, यहाँ तुम्‍हारा चयन डायरेक्‍ट पी-एच.डी. में‍ हुआ है, तुम मैथि‍ली और हि‍न्‍दी में लि‍खते भी हो, तुम्‍हारा इण्‍टव्‍यू बहुत अच्‍छा हुआ था, नामवर जी बड़े प्रसन्‍न थे।...मैंने तपाक से अपना बड़बोलापन यहाँ नि‍काल डाला, पूछ बैठासर, आप प्रसन्‍न नहीं हुए? केदारजी ने अपनी मुस्‍कान को थोड़ा और खि‍लाया, और कहा कि‍ मेरे कहे का अर्थ यह नहीं होता! फि‍र उन्‍होंने मेरे बगल में बैठी बुजुर्ग महि‍ला की ओर देखकर बतायामेरी माँ हैं।...मैंने उनके पैर छुए। उन्‍होंने सि‍र पर हाथ रखा। बड़ा शीतल था वह स्‍पर्श। पल भर के लि‍ए लगा कि कि‍सी मजबूत सुरक्षा की छाया में बैठा हूँ।‍ फि‍र केदार जी ने जलपान कर रहे उस युवक और दरवाजा खोलनेवाली उस युवती का परि‍चय दि‍या। वे केदारजी के पुत्र सुनील (अभी भारत सरकार के खाद्य आपूर्ति एवं उपभोक्ता मामले विभाग में स्‍पेशल कमि‍श्‍नर) और केदारजी की अत्‍यन्‍त दुलारी बेटी रॉली (मूल नाम डॉ. रचना सिंह, अभी दि‍ल्‍ली वि‍श्‍ववि‍द्यालय के हि‍न्‍दू कॉलेज में हि‍न्‍दी की अध्‍यापि‍का) थीं। बाद के दि‍नों में तो दादी, सुनीलजी और रॉली से नि‍रन्‍तर मि‍लना-जुलना होता रहा। परि‍चय सत्र समाप्‍त होते ही केदारजी ने पूछाबताओ, कि‍स उद्देश्‍य से आए? मैंने कहा--सर पी-एच.डी. से सम्‍बन्‍धि‍त कुछ बात करनी है। केदारजी सोफे से उठते हुए बोलेआ जाओ, उधर कमरे में बात करते हैं!
सीढ़ि‍याँ चढ़ते हुए उन्‍होंने एक सवाल कि‍यातुम्‍हारी मैथि‍ली में भी मेरे नाम का कोई कवि‍ है न? मैंने कहाजी, केदार कानन, मि‍त्र हैं मेरे, उनके पि‍ता भी बहुत बड़े कवि‍ थे, रामकृष्‍ण झा 'कि‍सुन'।...कोई जि‍ज्ञासा करने के बाद वे बि‍ल्‍कुल बच्‍चे की तरह हो जाते थे। अब कि‍सुन जी के बारे में जि‍ज्ञासु हो गए। कई बातें पूछीं। इस बीच हम दोनों उनके ऊपर के कमरे में आ गए थे। केदार जी फि‍र पुराने प्रसंग पर लौटेहाँ, बताओ क्‍या बात करनी है? कोई भूमि‍का बनाए बगैर मैंने सीधे कहामुझे आपके नि‍र्देशन में पी-एच.डी. पूरी करने की अभि‍लाषा है, आप स्‍वीकृति‍ दें। केदारजी कुनमुनाने लगे। बोलेमेरे पास भीड़ बहुत है, सेण्‍टर में कुछ लोगों के पास जगह है, उनसे बात करके देखो। वे लोग मेहनती भी हैं, तुम्‍हें सुवि‍धा होगी। मैं थोड़ा आहत तो हुआ, मगर घबड़ाया नहीं। मैं होठों-होठों में बुदबुदाया--मेहनती गाइड का मुझे क्‍या करना है, थि‍सि‍स तो मैं लि‍खूँगा! फि‍र प्रत्‍यक्ष रूप से कहासर, सुना है यहाँ के शोधार्थी पी-एच.डी. में छह वर्षों तक डटे रहते हैं, शायद इस आशंका में आप मुझे मना कर रहे हैं। मैं आपको वचन देता हूँ कि‍ न्‍यूनतम समय पूरा होते ही मैं शोध-प्रबन्‍ध जमा कर दूँगा। मैं यहाँ समय काटने नहीं आया हूँ। छह वर्षों की तदर्थ व्‍याख्‍याता पद की नौकरी त्‍यागकर आया हूँ। मेरे पास 'काटने' के लि‍ए समय नहीं है। सेवानि‍वृत अल्‍पवृत्तिभोगी‍ शि‍क्षक पि‍ता की सन्‍तान हूँ। परि‍वार के भरण-पोषण का दायि‍त्‍व मेरे कन्‍धों पर है। नामवरजी पहले ही मना कर चुके हैं। आप मेरा नि‍वेदन स्‍वीकारेंगे, तो मैं यहाँ पी-एच.डी. करूँगा, वर्ना वापस चला जाऊँगा। एक पी-एच.डी. तो है ही मेरे पास!...एक साँस में यह सब कह लेने के बाद केदारजी फि‍र मुस्‍कुराए और बोलेइतनी जल्‍दी नकारात्‍मक नहीं होना चहि‍ए। बोलो, वि‍षय क्‍या रखोगे? मेरी तो बाछें खि‍ल गईं। मैंने कहाआप कुछ इशारा करें तो ठीक, वर्ना कुछ सोचकर फि‍र मि‍लूँगा। वे बोलेतुलनात्‍मक साहि‍त्‍य पर कुछ सोचो। मैथि‍ली-हि‍न्‍दी कवि‍ताओं पर तुलनात्‍मक दृष्‍टि‍ से कभी सोचा है? मैंने कहा--नागार्जुन और राजकमल चौधरी की दोनों भाषाओं की रचनाएँ पढ़ते हुए ऐसे वि‍चार कभी-कभी मन में आए हैं, पर थि‍सि‍स की दि‍शा में ऐसा सोचा नहीं कभी।
वे बोले अपने उसी वि‍चार को वि‍स्‍तार दो। मैंने कहा कि‍ यह वि‍स्‍तार भी तो अधि‍क पीछे नहीं जा सकता! वे बोलेसही कह रहे हो, ठीक से वि‍चार करने के लि‍ए वि‍षय को सीमि‍त करना जरूरी होगा। ऐसा करो, साठ के बाद की हि‍न्‍दी-मैथि‍ली कवि‍ताओं के तुलनात्‍मक अध्‍ययन पर वि‍चार करो।
प्रसन्‍न मन से वापस आया। सि‍नॉप्‍सि‍स की तैयारी करने लगा। कुछेक दि‍न बाद सि‍नॉप्‍सि‍स लि‍खकर ले गया। उलट-पलट कर उन्‍होंने देखा और कहाइसे छोड़ जाओ। एक सप्‍ताह बाद मि‍लो। इस बीच कोई को-गाइड के नाम पर वि‍चार करो। मैं फि‍र ठमक गया। अब को-गाइड कहाँ से लाऊँ? उन्‍होंने मेरी चि‍न्‍ता भाँपते हुए कहाकोई मैथि‍ली का जानकार चाहि‍ए। मैंने कहासर, ऐसा दि‍ल्‍ली में सम्‍भव नहीं है। क्‍योंकि‍ यहाँ उपलब्‍ध दो लोगडॉ. गंगेश गुंजन और श्री मंत्रेश्‍वर झा हैं; और बाबा वैद्यनाथ मि‍श्र यात्री (नागार्जुन) हैं, जो कभी-कभी दि‍ल्‍ली आकर रहते हैं। पर इन तीनों की कवि‍ताओं पर थि‍सि‍स में चर्चा होगी। इसलि‍ए इन्‍हें तो को-गाइड नहीं बनाया जा सकता! केदारजी ने तनि‍क लम्‍बी साँस खींचकर कहाचि‍न्‍ता छोड़ो! कोई समस्‍या आई, तो मैं ही दावा करूँगा कि‍ मुझे मैथि‍ली आती है!...मैं प्रमुदि‍त मन से लौट आया और सप्‍ताह भर बाद फि‍र पूछने गया तो वे नीचे के हॉल में सोफे पर बैठे टी.वी. देख रहे थे। कोई क्रि‍केट मैच चल रहा था। मैंने नमस्‍ते कहा, उन्‍होंने अपने उसी स्‍थाई अन्‍दाज और शाश्‍वत मुस्‍कान के साथ आशीर्वाद देने के लि‍ए हाथ उठाया। नजर उनकी मगर टी.वी. से ही चि‍पकी थी। सचि‍न तेन्‍दुलकर धुआँधार बल्‍लेबाजी कर रहे थे। उन्‍होंने बैठने का इशारा कि‍या। बगल के सोफे पर मैं भी बैठ गया और टी.वी. देखने में उनका सहयात्री हो गया। दो तीन मि‍नट बाद कोई ब्रेक हुआ, तब केदारजी मेरी ओर मुखाति‍ब हुए और स्‍पष्‍टीकरण देते जैसे बोलेयही एक खेल है, जो मुझे पकड़ता है। तुम्‍हें भी अच्‍छा लगता है?...तथ्‍यत: सचि‍न तेन्‍दुलकर की बल्‍लेबाजी मुझे अति‍शय अच्‍छी लगती थी, मगर इस तरह आसन लगाकर खेल देखता रहूँ, ऐसी लालसा मुझमें सचि‍न के अलावा कि‍सी खेल के कि‍सी खि‍लाड़ी ने नहीं जगाई। हाँ, वॉलीबॉल के एक युवा खि‍लाड़ी अचल ति‍र्की ने डालटनगंज में उसी तरह मुग्‍ध कि‍या था। मैं कह नहीं सकता कि‍ इसमें दोष खेलों के बारे में मेरे अज्ञान का था, या कि‍ गरीबी के कारण उस समय तक टी.वी. के साथ मुझमें अपनापे के अभाव का। कि‍न्‍तु केदार जी को क्‍या कहता? कुछ इस तरह बुदबुदाया कि‍ मेरी हाँ या ना, कुछ भी स्‍पष्‍ट न हो। उन्‍होंने मगर मेरी उस बुदबुदाहट में 'हाँ' ही ढूँढी (वे तो स्‍वभाव से सकारात्‍मक व्‍यक्‍ति‍ थे, कि‍सी के दुर्दान्‍त नकारात्‍मक प्रसंग को भी अपनी व्‍याख्‍या से सकारात्‍मक बना देते थे), और फि‍र दो चार जुमले क्रि‍केट की तारीफ में देने के बाद मुद्दे पर लौटे और कहाबहुत ही सुगढ़ मसौदा तैयार कि‍या है तुमने, इसे सेण्‍टर में जमा कर दो। लि‍खा हुआ तो साफ-सुथरा है। सुन्‍दर लि‍खावट भी है तुम्‍हारी। इसी पर दस्‍तखत कर दूँ?... खुशी और संकोच के मारे मुस्‍कुराकर मैंने पलकें झुका लीं। उन्‍होंने कहा ऊपर चले जाओ, टेबल पर रखा हुआ है, ले आओ। मैं कूदता हुआ-सा ऊपर जाकर उनके स्‍टडी रूम से सिनॉप्‍सि‍स ले आया। दस्‍तखत के लि‍ए उनकी ओर बढ़ाया। दस्‍तखत के बाद मुझे वापस देते हुए उन्‍होंने आश्‍वस्‍ति‍ दी कि‍ वि‍षय पास हो जाएगा, जाओ अब पढ़ो-लि‍खो। उस दि‍न उस घर से नि‍कलते समय मैंने पहली बार केदार जी के पैर छुए थे और उन्‍होंने सि‍र पर हाथ रखा था। पीछे के जीवन में जि‍तने झंझावात झेले थे और जि‍तनी थकान जीवन में भर गई थी, उसका अधि‍कांश कुछेक माह पूर्व प्रो. नामवर सिंह के सहज व्‍यवहार से दूर हो गया था; उस दि‍न बची-खुची दुराशा वि‍लुप्‍त हुई-सी लगी। दरवाजे से बाहर आकर स्‍वयं को ताकतवर-सा महसूस करने लगा।
जे.एन.यू. में डाइरेक्‍ट पी-एच.डी. में दाखि‍ल होने की वजह से केदारजी अथवा नामवरजी की कक्षा में बैठने का सौभाग्‍य मुझे कभी नहीं मि‍ला। कक्षा में दि‍ए गए इनके व्‍याख्‍यानों की अगाध प्रशंसा वरि‍ष्‍ठ-कनि‍ष्‍ठ अध्‍येताओं से सुन-सुनकर मन कचोटता रहता था, कि‍न्‍तु संगोष्‍ठि‍यों में इनके व्‍याख्‍यान सुनकर उसकी भरपाई कर लेता था। जे.एन.यू. में पी-एच.डी. के अध्‍येताओं की कक्षा नहीं लगती, इसलि‍ए सेण्‍टर मैं कम ही जाता था। पुस्‍तकालय से कमरे तक की दूरी में दि‍नचर्या पूरी हो जाती थी। शोध-नि‍र्देशक की आधि‍कारि‍क अनुमति‍ के बि‍ना उन दि‍नों जे.एन.यू. के शोधार्थि‍यों के जीवन की हवा भी टस्‍स से मस्‍स नहीं होती थी। पर अपने शोध-नि‍र्देशक प्रो. केदारनाथ सिंह की इन अनुमति‍यों के लि‍ए सेण्‍टर जाने की अनि‍वार्यता मुझ पर कभी लागू नहीं हुई। काबेरी छात्रावास में रहता था, सामने में एक फर्लांग से भी कम की दूरी पर गुरु-मन्‍दि‍र; जो भी समस्‍या सामने आती, सुबह-सुबह घर जाकर नि‍राकरण करवा आता। सेण्‍टर आकर बात करने की अनि‍वार्यता का न तो उन्‍होंने कभी अपने कि‍सी वक्‍तव्‍य में संकेत कि‍या और न ही घर आ जाने के मेरे आचरण पर कभी कोई असहजता प्रकट की। वहाँ के घरेलू वातावरण से मैं भी तनि‍क ताजा हो जाता।...
कभी-कभार गुरुजी घर पर न मि‍लते, तो भी नि‍राशा नहीं होती। परि‍चय हो जाने के बावजूद सुनीलजी और रचना से औपचारि‍क बातों से अधि‍क कोई चर्चा नहीं होती; पर दादीजी तो नेहपूर्वक पारि‍वारि‍क बातें करतीं। वस्‍तुत: उनकी गहन मानवीय जि‍ज्ञासाओं से केदारजी की कवि‍ताई को जानने में मुझे बड़ा सहयोग मि‍ला। वे मेरे पारि‍वारि‍क जीवन, पारि‍वारि‍क संरचना और सामाजि‍क परि‍स्‍थि‍ति‍यों पर इस अनुराग से जि‍ज्ञासा करतीं कि‍ मैं वि‍ह्वल हो उठता। वे भोजपुरी में पूछतीं, मैं हि‍न्‍दी में जवाब देता। कुछ देर बति‍याकर वापस आ जाता।
तथ्‍यत: अच्‍छा मनुष्‍य होना अच्‍छे गृहस्‍थ होने की पहली शर्त है। अच्‍छा मनुष्‍य हुए बि‍ना कोई अच्‍छा कवि‍ तो क्‍या, कुछ भी अच्‍छा नहीं हो सकतान अच्‍छा माता-पि‍ता, न अच्‍छा शि‍क्षक, उपदेशक, नेता, अभि‍नेता, अधि‍कारी, पत्रकार...कुछ भी अच्‍छा नहीं हो सकता। केदारजी चूँकि‍ मनुष्‍य अच्‍छे थे, इसलि‍ए वे अच्‍छे पुत्र भी थे, अच्‍छे पि‍ता भी और अच्‍छे कवि‍, चि‍न्‍तक, अध्‍यापक, दोस्‍त...तो थे ही। यद्यपि‍ उन्‍हें पारि‍वारि‍क चौपाल बि‍ठाकर गप्‍पें लड़ाते मैंने कभी नहीं देखा; पर माता-पि‍ता के लि‍ए ऐसी भक्‍ति, सन्‍तानों के लि‍ए ऐसा प्‍यार, शि‍ष्‍यों के लि‍ए इतना स्‍नेह‍ कि‍सी पौराणि‍क कथा में ही सम्‍भव है। जि‍स दि‍न उनके घर मैं पहली बार गया था, उनकी बेटी और बेटे ने मुझे पहली बार देखा था, बि‍ना कि‍सी पूर्व परि‍चय के मेरे साथ इतना अनुरागमय व्‍यवहार कैसे कि‍या? नि‍श्‍चय ही वह उनके श्रेष्‍ठतर लालन-पालन और पारि‍वारि‍क आचार-वि‍चार का हि‍स्‍सा था। शि‍ष्‍यों के प्रति‍ उमरे स्‍नेहासि‍क्‍त व्‍यवहार सम्‍भवत: उनके प्रेममय पारि‍वारि‍क वातावरण का ही वि‍स्‍तार था। कोई-कोई पुराने जेएनयूआइट यह कि‍स्‍सा भी सुनाते हैं कि‍ वे कहीं केदारजी मि‍ले, अपना परि‍चय देते हुए कहा कि‍ मैंने अमुक वर्ष में भारतीय भाषा केन्‍द्र से पी-एच.डी. की है। इस पर उन्‍होंने प्रसन्‍नता व्‍यक्‍त करते हुए पूछा कि‍ गाइड कौन थे? उस व्‍यक्‍ति‍ ने कहासर, आपके ही साथ तो था मैं!...इस जवाब के बाद केदारजी झेंप गए। पर मैं समझता हूँ कि‍ ऐसे कि‍स्‍से सुनानेवालों को तनि‍क अपने व्‍यवहार के बारे में भी सोचना चाहि‍ए। केदारजी की स्‍मृति‍ में वे खुद को दर्ज नहीं कर पाए, तो इसमें उनका क्‍या कसूर? कुछ लोग उन दि‍नों ऐसे कि‍स्‍से भी सुनाते थे कि‍ केदारजी अपने शोधार्थि‍यों की थि‍सि‍स पढ़ते नहीं हैं। पर मैं अपना अनुभव कह सकता हूँ। सि‍तम्‍बर-अक्‍टूबर 1995 में कभी अपने शोध-प्रबन्‍ध का तीन अध्‍याय लि‍खकर उन्‍हें देने गया। उनके आवास पर ही। मसौदा हस्‍तलि‍खि‍त था। उन दि‍नों कम्‍प्‍यूटर का चलन नहीं के बराबर था। सभी शोध-प्रबन्‍ध टाइपराइटर पर टंकि‍त होते थे। मसौदा हाथ में लेते हुए उन्‍होंने कहातीन-तीन अध्‍याय एक साथ! इसे देखने में समय लगेगा। दो हफ्ते बाद ले जाना! मैं वापस आ गया। दो हफ्ते बाद गया, तो वे डाइनिंग हॉल में ही बैठे थे, मुझे देखते ही बैठ जाने का संकेत कि‍या, और ऊपर जाकर अपने स्‍टडी रूम से मेरा लि‍खा मसौदा ले आए। मुझे सौंपते हुए बोलेदेख लि‍या है, अच्‍छा लि‍खा है, कहीं-कहीं नि‍शान लगे हैं, उनका नि‍वारण कर लेना। तीन बातों का वि‍शेष ध्‍यान रखना। पहला अध्‍याय बहुत बड़ा है। उसके आरम्‍भि‍क उन्‍नीस पृष्‍ठ में तुमने तुलनात्‍मक साहि‍त्‍य के उद्भव-वि‍कास का गीत गाया है। वह नि‍रर्थक नहीं है। पर उसका उपयोग कहीं और कर लेना, यहाँ वह पृष्‍ठों का अपव्‍यय होगा। दूसरी बात यह कि‍ एक जगह तुमने नामवरजी के मत का किंचि‍त खण्‍डन कि‍या है, सम्‍भव है कि‍ तुम्‍हारे परीक्षक काशीनाथजी (जो नहीं हुए) हो जाएँ। तो क्‍या वाइवा में अपना पक्ष मजबूती से रख सकोगे? तीसरी बात यह कि‍ नागार्जुन प्रगति‍शील धारा के कवि‍ हैं, मैथि‍ली में तुमने यात्री की चर्चा 'नव कवि‍ता' में की है; क्‍या मैथि‍ली की नव कवि‍ता हि‍न्‍दी की नई कवि‍ता से अलग है? ऐसा कैसे सम्‍भव है कि‍ कोई द्वि‍भाषी कवि‍ भाषा के बदलाव से वैचारि‍कता बदल दे?...इन सभी बि‍न्‍दुओं पर गम्‍भीरता से वि‍चार कर लेना। अब कोई अध्‍याय दि‍खाने की जरूरत नहीं है। पूरी थि‍सि‍स बाइण्‍ड कराके ही लाना।...इतने वि‍वरण के बाद भी कि‍सी को लगे कि‍ केदारजी थि‍सि‍स पढ़ते नहीं थे, तो उनके लि‍ए क्‍या कहा जाए!
उनके शि‍ष्‍यों को अक्‍सर ऐसा भ्रम होता रहता था कि‍ वे सबसे अधि‍क उसी को चाहते हैं। ऐसा भ्रम मेरी जानकारी में हि‍न्‍दी के दो और लोगों के साथ होता थानागार्जुन और राजेन्‍द्र यादव के साथ। तीनों ही महर्षि‍ अपने अनुवर्ति‍यों को इतना प्‍यार देते थे कि‍ हर कोई उनके नि‍कटतम होने के मुगालते में रहते। मैं यद्यपि‍ इतना संयम और वि‍श्‍वास अवश्‍य रखता कि‍ उनके हृदय में मैंने जो जगह बनाई है, उसमें कमी-बढ़ोतरी मेरे ही आचरण से हो सकती है, कोई दूसरा प्रयास करके भी मुझे उनसे दूर नहीं कर सकता। अनासक्‍त प्राणी थे। राह चलते ऐसा कई बार हुआ कि‍ मैंने उन्‍हें सामने से आते हुए बाद में देखा, उन्‍होंने पहले देख लि‍या, मेरी नजर जब तक उन पर पड़े और मैं उन्‍हें नमस्‍ते करूँ, तब तक तो वे आशीर्वाद दे चुके होते थे। नजदीक आ जाने पर पूछतेकाफी दि‍नों से तुम्‍हें कैम्‍पस से अनुपस्‍थि‍त नहीं देखा। घर नहीं गए क्‍या?...अपने शोधार्थि‍यों से ऐसा सवाल, गाँव-घर के प्रति‍ उनके अपने लगाव से तो जुड़ता ही है, साथ-साथ इस बात की तरफ भी इशारा करता है कि‍ उन्‍हें हर नौजवान के गृहानुराग की चि‍न्‍ता रहती थी। कि‍सी से परि‍चय कराते समय प्रशंसा में इतने उदार हो जाते हमलोग संकोच से भर जाते। सन् 1991 के अधोकाल अथवा सन् 1992 के प्रारम्‍भ में कुछ फ्रीलांस काम माँगने मैं साहि‍त्‍य अकादेमी गया था। दि‍ल्‍ली में रहकर अपनी खर्ची जुटाने और घर-परि‍वार को भी समर्थन देने का दायि‍त्‍व मेरे ऊपर ही था। इसलि‍ए अखबार-पत्रि‍काओं से लि‍खने या कि‍ अनुवाद करने का काम माँगता रहता था। उन दि‍नों साहि‍त्‍य अकादेमी की पत्रि‍का 'इण्‍डि‍यन लि‍ट्रेचर' के सम्‍पादक मलयालम के सुपरि‍चि‍त कवि‍ के. सच्‍चि‍दानन्‍दन थे। 'समकालीन भारतीय साहि‍त्‍य' के सम्‍पादक गि‍रि‍धर राठी से तो परि‍चय हो चुका था, उसमें लि‍खने भी लगा था। सोचा यहाँ भी परि‍चय कर लूँ। मैं ज्‍यों ही उनके चैम्‍बर में घुसा, देखा कि‍ केदारजी वहाँ बैठे हुए हैं। मैं उल्टे पाँव भागा। केदारजी आवाज देते रहे, मैं तो नि‍कलकर बाहर बैठ गया। इतने में एक स्‍टाफ ने आकर कहा कि‍ आपको भीतर केदारजी बुला रहे हैं। मैं भीतर गया। दोनों को नमस्‍ते कि‍या। सच्‍चि‍दानन्‍दनजी ने बैठने का आग्रह कि‍या। मैं बैठ गया। अब केदारजी लगे मेरी तारीफ का पुल बाँधने। ये मैथि‍ली और हि‍न्‍दी के बहुत ही ऊर्जावान रचनाकार हैं। सौभग्‍य से मेरे ही साथ पी-एच.डी. करते हैं।...केदारजी की ऐसी प्रशंसा से मैं संकुचि‍त तो बहुत हुआ, पर उस प्रशंसा की रक्षा के दायि‍त्‍व से भर उठा। ऐसा कई स्‍थानों पर बड़े-बड़े लोगों के साथ परि‍चय कराते हुए उन्‍होंने कि‍या था। एक दि‍न अकेले पाकर मैं उनसे पूछ बैठासर, आप इतनी तारीफ क्‍यों करते हैं? मुझे शर्म आने लगती है।...उन्‍होंने कहा, शर्म मत कि‍या करो, इसे दायि‍त्‍व समझा करो।...तब जाकर मुझे समझ आया कि‍ कोई महान व्‍यक्‍ति‍ कि‍स रास्‍ते कौन-सी महत् प्रेरणा दे देते हैं।...फि‍र उन्‍होंने अपनी एक घटना सुनाई। कहा कि‍ मैं अपनी थि‍सि‍स का चैप्‍टर लि‍खकर पण्‍डि‍तजी (आचार्य हजारीप्रसाद द्वि‍वेदी) के अवलोकनार्थ दे आया था। कई दि‍न हो गए थे। सोचा कि‍ जाकर ले आऊँ। सुबह-सवेरे नहा-धोकर तैयार होने लगा। पैजामा पहन रहा था। इतने में कमरे के दरवाजे पर दस्‍तक हुई। दरवाजा खोला तो बगल में कुछ कोश-ग्रन्‍थ दबाए पण्‍डि‍तजी खड़े मि‍ले। अब मेरे तो होश उड़ गए। आशंकि‍त था, ऐसा क्‍या हुआ कि पण्‍डि‍तजी को मेरे कमरे तक आना पड़ा। खैर, पण्‍डि‍तजी भीतर आए और फौरन मेरी थि‍सि‍स के पन्‍ने पलटकर एक अंग्रेजी के शब्‍द पर अँगुली रखते हुए पूछायह शब्‍द मुझे इनमें से कि‍सी कोश में नहीं मि‍ला, इसका अर्थ क्‍या होता है?...मैं देखकर बहुत लज्‍जि‍त हुआ, उससे अधि‍क चकि‍त हुआ। क्‍योंकि‍ उसमें मैंने हि‍ज्‍जे का वि‍पर्यय कर दि‍या था। इतनी छोटी-सी बात, जि‍से पण्‍डि‍तजी बड़े आराम से काटकर ठीक कर दे सकते थे, उसके लि‍ए जि‍ज्ञासा करने यहाँ तक चलकर आ गए। मैं जब शर्माने लगा, तो उन्‍होंने कहामुझे भी कुछ-कुछ भान हो रहा था, पर मैंने सोचा, केदार ने लि‍खा है, हो न हो कोई नया शब्‍द हो।...प्रसंग में गाँठ लगाते हुए केदारजी ने कहा कि‍ ऐसी परम्‍परा में दीक्षि‍त होने की वजह से मेरा धर्म बनता है कि‍ अपने शोधार्थि‍‍यों की प्रति‍भा को पहचानूँ।
उनके नि‍जी जीवन में कोई पीड़ा न रही हो, ऐसी कल्‍पना असम्‍भव है, पर उनके वि‍शाल मि‍त्र-मण्‍डल में कि‍सी के पास केदारजी की पीड़ा अथवा द्वन्‍द्व का दृष्‍टान्‍त नहीं है। कैसे होगा? इन सबको तो वे अपनी कवि‍ताओं में संचि‍त करते थे। होते तो जरूर होंगे, पर कभी मुझे वे उदास नहीं दि‍खे। गहन परि‍चय के बावजूद कभी सुनीलजी अथवा रचना से मैंने यह सवाल नहीं कि‍या कि‍ 'सर कभी कि‍सी बात से परेशान, वि‍चलि‍त या द्वन्‍द्वग्रस्‍त दि‍खते हैं या नहीं?' सन् 1997 में प्राय: उनके पि‍ता का देहान्‍त हुआ था। सूचना पाकर मि‍लने गया था। शान्‍त चि‍त्त बैठे हुए थे। चेहरे से उस घनघोर पीड़ा को वे प्रयासपूर्वक हटाए हुए-से दि‍ख रहे थे, ऐसा मुझे पहली और आखि‍री बार दि‍खा कि‍ उनके चेहरे पर वह मृदुल मुस्‍कान नहीं थी। बातचीत के क्रम में उन्‍होने सुनाया कि‍ 'मनुष्‍य के जीवन में हर बात समझ-बूझ से ही हो, ऐसा जरूरी नहीं है। कभी-कभी मन का उल्‍लास इतना आवेगमय हो जाता है कि‍ समझ और तार्कि‍कता की सीमा लाँघ जाता है। एक बार मैं सेण्‍टर से घर लौटा तो देखा कि‍ बाबा नागार्जुन और मेरे पि‍ताजी एक चारपाई पर आमने-सामने कुछ कानाफूसी कर रहे हैं और दो में से कि‍सी की ऑडि‍यो-मशीन कान में लगी हुई नहीं है। उस कानाफूसी की ध्‍वनि‍ इतनी मद्धम थी कि‍ भली-भाँति‍ श्रवण-शक्‍ति‍ रखनेवाला व्‍यक्‍ति‍ मैं भी सुन नहीं पा रहा था। मगर वे एक दूसरे के कथन से इतने उल्‍लसि‍त हो रहे थे कि‍ दोनो अपने एक-एक हाथ के संयोग से ताली देकर ठहाके लगा रहे थे। अब देखो, तय है कि‍ दोनो ने एक दूसरे की बात नहीं सुनी, क्‍योंकि‍ दो में से कोई मशीन लगाए बि‍ना सुन ही नहीं सकते थे। फि‍र वे दोनो ठहाके कि‍स बात पर लगा रहे थे?...जाहि‍र है कि‍ यह उन दोनों के मन का उल्‍लास था।' उनके मुख से पि‍ता का संस्‍मरण सुनते हुए मैंने लक्ष्‍य कि‍या कि‍ उनके चेहरे पर पीड़ा को चीड़ती हुई मुस्‍कान की एक हल्‍की-सी रेख आनेवाली है, पर वह पूरी तरह आई नहीं। उनकी इस पीड़ा की मुखर अभि‍व्‍यक्‍ति‍ की प्रतीक्षा मन में लि‍ए मैं चलने को उद्यत हुआ तो उन्‍होंने श्राद्ध की तारीख बताई और कहा कि‍ आ जाना। थोड़े ही दि‍नों बाद उन्‍होने कवि‍ता लि‍खी 'पि‍ता के जाने पर'। मैं उन सौभाग्‍यशालि‍यों में से हूँ, जि‍सने उनकी यह कवि‍ता छपने से पहली पढ़ी, सम्‍भवत: जि‍स दि‍न वह लि‍खी गई, उसके दो-एक दि‍न बाद ही मैं उनसे मि‍ला था। उस कवि‍ता में उनकी मि‍तभाषि‍ता का उल्‍लेख है'जब थे बातें कम होती थीं/चुप्‍पा मैं ही था/वे तो बोलते ही रहते थे नि‍रन्‍तर/चाहे चुप ही बैठे हों.../जब भरी दोपहरी में मैंने एक दि‍न उन्‍हें देखा/एक पक्षी से बति‍याते हुए/मैं टोकना चाहता था/पर लगा/एक पक्षी से बति‍याते हुए पि‍ता को टोकना/सुन्‍दरता के खि‍लाफ है/और इसलि‍ए इस घूमती हुई पृथ्‍वी की/ गति‍ के खि‍लाफ भी...।' यहाँ उनके 'चुप्‍पा' होने की सूचना है, कि‍न्‍तु पि‍ता के बाचाल होने की नहीं। बल्‍कि‍ उनकी चुप्‍पी में भी वे कुछ न कुछ सुनते रहते थे। पक्षी से पि‍ता के बति‍याने के आयास में टोकारा देने तक की क्रि‍या को जो कवि‍ सुन्‍दरता और इसलि‍ए घूमती हुई पृथ्‍वी की गति‍ के खि‍लाफ माने, उनकी पि‍तृभक्‍ति‍ को साष्‍टांग दण्‍डवत्।
महान लोगों के देहावसान के बाद उन पर संस्‍मरण लि‍खने के बड़े खतरे हैं। कई बार संस्‍मरणकार इतने आत्‍ममुग्‍ध हो जाते हैं कि‍ दि‍वंगत के कन्‍धे पर बैताल की तरह सवार होकर अपना ही गीत गाने लगते हैं, बेशक दि‍वंगत रसातल चले जाएँ। यह संस्‍मरण लि‍खते हुए मेरी ऐसी मंशा कतई नहीं है। मैं न तो केदारजी को देवत्‍व देने की चेष्‍टा कर रहा हूँ, न ही स्‍वयं को उनका सर्वाधि‍क नि‍कटवर्ती और प्रि‍य होने का दावा कर रहा हूँ। क्‍योंकि‍ केदारजी ने कभी कहा नहीं कि‍ वे मुझसे कि‍तना प्‍यार करते हैं। दरअसल यह कहा नहीं जाता, देखा और महसूस कि‍या जाता है। व्‍यवहार से ऐसा दि‍खता रहता था कि‍ वे सदैव दूसरों की उपलब्‍धि‍यों में भोक्‍ता की तरह घुलमि‍ल जाते थे। अगस्‍त 1996 की कि‍सी तारीख को मैं अपना शोध-प्रबन्‍ध जमा कर चुका था। जे.एन.यू. का कावेरी हॉस्‍टल खाली कर आवास हेतु मुझे बाहर जाना था। जाने से पहले इतने प्‍यार देनेवाले गुरु को प्रणाम करना जरूरी लगा। इकतीस अगस्‍त की रात मि‍लने के लि‍ए उनके घर गया। अगली सुबह बाहर जाना सुनि‍श्‍चि‍त था। घण्‍टी बजाई। केदारजी ने स्‍वयं दरवाजा खोला। किंचि‍त रुष्‍ट-से बोले, इतनी रात को क्‍यों? मैंने पैर छूते हुए कहा कि‍ कल सुबह कैम्‍पस छोड़ रहा हूँ, इसलि‍ए आशीर्वाद लेने आया हूँ। आशुतोष की तरह केदारजी तुरन्‍त आशीर्वाद की मुद्रा में आ गए। उन्‍होंने तरकीब बताते हुए कहासुबह सेण्‍टर जाकर अनस अहमद (अनस अहमद उन दि‍नों भारतीय भाषा केन्‍द्र, जे.एन.यू. में कार्यालय प्रभारी थे) से पता करो कि मेरी संस्‍तुति‍ पर वाइवा होने तक तुम्‍हें हॉस्‍टल में रहने देने का कोई प्रावधान है या नहीं? मैं‍ने कहासर, दो-तीन महीने में दो-चार हजार रुपए बेशक बच जाएँगे, पर हॉस्‍टल के कनि‍ष्‍ठ छात्रों के बीच मेरी बड़ी इज्‍जत है, ति‍कड़म से कमरे में डटा रहूँगा तो सिंगल सीटर रूम की प्रतीक्षा कर रहे छात्रों के बीच मेरी बड़ी फजीहत होगी। गुरुजी तत्‍काल सहमत हो गए। बोलेसही कह रहे हो। नैति‍कता बचाने की इस चि‍न्‍ता को बचाए रखना। पर जा कहाँ रहे हो? मैंने कहासर, यहाँ से चौदह कि‍लोमीटर दक्षि‍ण, आयानगर नाम की एक कॉलोनी है, वहीं दो कमरे का एक मकान कि‍राए पर लि‍या है। कुछ दि‍नों में माँ-पि‍ता को ले आएँगे, वहीं रहूँगा। उन्‍होंने पूछाकि‍राया पर ही लेना था, तो वहाँ क्‍यों? मैंने कहासर, वहीं पर एक सौ गज जमीन खरीदी है, सोचा है वहीं रहकर धीरे-धीरे अपना घर बनवा लूँगा।...ऐसा सुनते ही वे प्रसन्‍नता से उत्तेजि‍त हो गए। कि‍शोरवय की तरह उन्‍मादि‍त-से अपने बेटे सुनीलजी को आवाज देने लगेसुनील! सुनील!!...सुनीलजी तेजी से बाहर आए। इन्‍होंने उन्‍हें हाँफते हुए-से सूचना दीसुना तुमने! नवीन ने दि‍ल्‍ली में जमीन खरीदी है।...फि‍र मुझे बोले--अब मुझे पता मत बताओ। अच्‍छे से व्‍यवस्‍थि‍त हो जाओ, फि‍र आकर मुझे ले चलो, मैं उसे जाकर देखूँगा। जाने में परेशानी नहीं होगी। सुनील ने गाड़ी खरीद ली है। तुम आ जाना बस!...मैं तो उनके इस उल्‍लास के मारे वि‍ह्वल हुआ जा रहा था। मुझे इस बात की प्रसन्‍नता है कि‍ वे आयानगर के मेरे दोनों घरों में आए थे।
एक बार मैंने उनसे पूछासर आपकी कवि‍ता में कभी-कभी गजब का कि‍स्‍सागो कहीं से झाँकता दि‍खता है। आपकी पीढ़ी के कुछ लोगों ने तो कहानी में हाथ आजमाया। कभी आपने कोशि‍श नहीं की? उन्‍होंने छूटते ही कहाकी थी। पर उन्‍हीं दि‍नों एक इतना बड़ा कहानीकार हि‍न्‍दी में कहानि‍याँ लि‍ख रहा था कि‍ मुझे लगा, इनको पार करना असम्‍भव है। और, जब वैसी कहानि‍याँ न लि‍खूँ, तो फि‍र लि‍खूँ ही क्‍यों?
उनकी उदारता पर मैंने उनसे दो बार उत्तेजना में बात की। पर दोनों ही बार उन्‍होंने मेरी उत्तेजना को उड़नछू कर दि‍या। कि‍सी अनाम मूल-गोत्र की अठपेजी पत्रि‍का में कुछ फि‍करे-सि‍करे गढ़नेवाले कवि‍यों की कवि‍ताओं के बीच मैंने उनकी दो कवि‍ताएँ छपी देखी, तो जाकर उन्‍हें दि‍खाया और सवाल कि‍याआप अपनी कवि‍ता जहाँ-तहाँ क्‍यों दे देते हैं? उन्‍होंने उसी मुस्‍कान के साथ सहजतापूर्वक उत्तर दि‍याजरा शान्‍ति‍ से सोचो! तुमको लगता है कि‍ मैंने ये कवि‍ताएँ खुद से दी होगी? मैंने कहा--नहीं, ऐसा लगता तो नहीं है! उन्‍होंने कहाफि‍र उत्तेजि‍त क्‍यों होते हो? ये कहीं पहले से छपी हुई कवि‍ताएँ हैं। अपने फायदे में इन्‍होंने इसका उपयोग कर लि‍या है। मुझसे अनुमति‍ न लेकर इन्‍होंने गलत अवश्‍य कि‍या है! पर इस कारण उत्तेजना में खून जलाना उचि‍त होगा? जाने दो!
एक बार ऐसी ही घटना लगभग 1997-98 में हुई। उन दि‍नों मै नेशनल बुक ट्रस्‍ट, इण्‍डि‍या में था। मेरे अग्रज मि‍त्र प्रो. सदानन्‍द साही उन दि‍नों गोरखपुर में हुआ करते थे। वहीं उन्‍होंने दो दि‍नों की एक संगोष्‍ठी आयोजि‍त की थी। आयोजक मण्‍डल में प्रो. परमानन्‍द श्रीवास्‍तव और डॉ. राजेश मल्‍ल भी थे। जे.एन.यू. से प्रो. केदारनाथ सिंह, प्रो. मैनेजर पाण्‍डेय के अलावा मैं, कृष्‍णमोहन, जीतेन्‍द्र श्रीवास्‍तव...कई लोग आमन्‍त्रि‍त थे। बनारस से श्रीप्रकाश शुक्‍ल भी आमन्‍त्रि‍त थे। उद्घाटन सत्र के मुख्‍य अति‍थि‍ केदारजी थे। मंच पर वि‍शि‍ष्‍ट अति‍थि‍ के रूप में कन्‍नड़ के कवि‍ और नेशनल बुक ट्रस्‍ट के तत्‍कालीन अध्‍यक्ष सुमतीन्‍द्र नाडि‍ग थे। केदारजी ने अपने भाषण में सुमतीन्‍द्र नाडि‍ग को बेन्‍द्रे की परम्‍परा का कन्‍नड़ कवि‍ कह दि‍या। मैं क्षुब्‍ध हो उठा। जब सत्र समाप्‍त हुआ, मैं टोह में लगा रहा और उन्‍हें अकेले पाकर सामने खड़ा हो गया।
-बोलो।
-आपने सुमतीन्‍द्र नाडि‍ग की कवि‍ता पढ़ी है?
-तुमने पढ़ी है?
-एक कवि‍ता और कवि‍ती जैसी कोई चीज पढ़ी है।
-मैंने भी उतनी ही पढ़ी है। तुम्‍हें कैसी लगी?
-हि‍न्‍दी में ऐसी वि‍चि‍त्र कवि‍ता गढ़नेवालों को कवि‍ की मान्‍यता सम्‍भवत: तीन सौ बरस पूर्व भी नहीं दी जाती होगी।
-सही कह रहे हो।
-फि‍र आपने उन्‍हें बेन्‍द्रे की परम्‍परा का कवि‍ कैसे कहा?
-अब तुम बच्‍चे जैसी बात करने लगे। देखो, अपनी जि‍स कि‍सी प्रति‍भा से, मगर वे नेशनल बुक ट्रस्‍ट जैसी संस्‍था के अध्‍यक्ष हैं न? हि‍न्‍दीपट्टी में पहली बार आए हैं। थोड़ा सम्‍मान दि‍या जाना चाहि‍ए।
-तो आप तारीफ में वही कहते न! इतना बड़ा तमगा क्‍यों दे दि‍या? हि‍न्‍दी के लोग तो आपकी बात को प्रमाण मानते हैं। आपकी इस अनुशंसा के कारण वे कल से इन्‍हें सचमुच बेन्‍द्रे की परम्‍परा के कवि‍ मानने लगेंगे!
-(मेरी पीठ पर हाथ रखते हुए) भवि‍ष्‍य के प्रति‍ चि‍न्‍ति‍त अवश्‍य रहा करो, भयभीत नहीं। कोई भी कवि‍ अनुशंसा के सहारे बड़ा नहीं होता, अपनी कवि‍ता से बड़ा होता है। नाश्‍ता-वास्‍ता कि‍ए क्‍या?
बात आई-गई हो गई। गोरखपुर रेलवे स्‍टेशन के गेस्‍ट हाउस में ही हमलोगों को रुकाया गया था। रात में सारे लोग खाना खा रहे थे। मैं और कृष्‍णमोहन एक ही मेज पर खाना खा रहे थे। केदारजी एक तो खाते ही थे बहुत कम, चि‍डि‍या की तरह, और वह भी बहुत जल्‍दी खा लेते थे। अपना खाना समाप्‍त कर वे सबकी मेज पर आ-आकर देखने लगे। उसी क्रम में हमारी मेज तक भी आए। उसी मुस्‍कान के साथ पूछादोनों मैथि‍ल क्‍या खा रहे हो?
हमने कहाआलू पालक की सब्‍जी है और दाल-चावल है।
उन्‍होंने पूछाहें? मछली नहीं है?
फि‍र इधर-उधर नजर दौड़ाई, राजेश मल्‍ल दि‍खे तो सवाल कि‍यासदानन्‍द कहाँ हैं?
सदानन्‍द साही कहीं गए हुए थे। फि‍र आदेश दि‍यापरमानन्‍द को बुलाओ!
हम दोनों (मैं और कृष्‍णमोहन) पशोपेश में पड़ गए कि‍ हमारे खाने के लि‍ए इतनी बात हो रही है! हम दोनों ने तय कि‍या कि‍ जल्‍दी से हम खाना सम्‍पन्‍न कर उठ जाएँ? इसी बीच परमानन्‍दजी आ गए। वे तो केदारजी के सामने सदैव ही मुस्‍कान लि‍ए प्रस्‍तुत होते थे। केदारजी ने कहाआपलोगों को तो मालूम होगा कि ये दोनों मैथि‍ल है। इन्‍हें बुलाया, तो मछली भी खि‍लाते!‍...उनका रोष शान्‍त करने के लि‍ए परमानन्‍दजी ने हल नि‍काला कि प्रबन्‍धकीय अव्‍यवस्‍था के कारण ऐसा हो न सका। अभी जो हुआ, सो हुआ, अगले भोजन में मछली अवश्‍य रहेगी।
अट्ठाइस वर्षों के रि‍श्‍ते का संस्‍मरण एक लेख में समाना तो असम्‍भव है! उनसे अन्‍ति‍म भेंट अखि‍ल भारतीय आयुर्वि‍ज्ञान संस्‍थान के प्राइवेट वार्ड में हुई थी। कोलकाता से रुग्‍ण अवस्‍था में दि‍ल्‍ली लाकर उन्‍हें यहाँ भर्ती कराया गया था। प्रो. चन्‍द्रा सदायत जी के साथ उन्‍हें देखने गया था। रॉली अपने कुछेक शि‍ष्‍यों के साथ उनकी परि‍चर्या में उपस्‍थि‍त थी। कमरे में दाखि‍ल हुआ, पैर छुए, सि‍र पर हाथ रखकर आशीर्वाद दि‍या और कहाअच्‍छा हुआ कि‍ तुम आ गए। कैसे हो?
-ठीक हूँ। आपकी अस्‍वस्‍थावस्‍था से चि‍न्‍ति‍त हो गया था।
-अब ऐसे ही रहेगा। उमर भी तो हुई!
-नहींऽऽऽऽऽऽऽऽ! कोई उमर नहीं हुई! अब आप ठीक हो गए हैं। जल्‍दी ही पुरानी दि‍नचर्या में लौट जाएँगे।
नीले रंग की चरखाना लुंगी और आधे बाजू की सफेद कमीज में वे पहले की तरह स्‍वस्‍थ और सुन्‍दर लग रहे थे। रॉली ने बतायाठीक से खा नहीं रहे हैं। बाकी तो ठीक है। दो-एक दि‍न में घर चले जा सकते हैं।...घर आ भी गए। घर जाकर मि‍लने का मन बना ही रहा था कि...।
पर्वतों में अपने गाँव का टीला, पक्षियों में कबूतर, भाखा में पूरबी, दिशाओं में उत्तर, वृक्षों में बबूल, अपने समय के बजट में एक दुखती हुई भूल, नदियों में चम्‍बल, सर्दियों में एक बुढ़िया का कम्‍बल...हो जाने का दावा करनेवाले केदारनाथ सिंह अपने पार्थि‍व शरीर से हमारे बीच बेशक नहीं हैं कि‍न्‍तु वे अपने वि‍चारों के साथ हर ठौर उपस्‍थि‍‍त रहकर कह रहे हैं--इस समय यहाँ हूँ/पर ठीक इसी समय/बगदाद में जिस दिल को/चीर गई गोली/वहाँ भी हूँ/हर गिरा खून/अपने अँगोछे से पोंछता/मैं वही पुरबिहा हूँ/जहाँ भी हूँ। क्‍योंकि‍ पृथ्‍वी के सारे नि‍वासि‍यों के नाम उन्‍हें एक जरूरी चि‍ट्ठी लि‍खनी थी, जि‍सके लि‍ए वे फुर्सत ढूँढ रहे थे, और जि‍स मसौदे में उन्‍हें सुझाव देना था कि‍--हर धड़कन के साथ/एक अदृश्‍य तार जोड़ दि‍या जाए/कि‍ एक को प्‍यास लगे/तो हर कण्‍ठ में जरा-सी बेचैनी हो/अगर एक पर चोट पड़े/तो हर आँख हो जाए थोड़ी-थोड़ी नम/और‍ कि‍सी अन्‍याय के वि‍रुद्ध/अगर एक को क्रोध आए/तो सारे शरीर/झनझनाते रहें कुछ देर तक...आराध्‍यवर गुरुवर को शत-शत नमन!

Tuesday, December 11, 2018

बोलि‍यों की ताकत Strength of The Dialects



पूरे देश में इन दि‍नों बड़ी बारीकी से भाषा का खेल खेला जा रहा है। देखते-देखते दुनि‍या भर की हजारो बोलि‍याँ लुप्‍त हो गईं, कि‍न्तु आन्‍दोलनधर्मि‍यों को लग रहा है कि‍ बोलि‍यों को परे ठेलकर वे कोई महान सेवा कर रहे हैं। उन्‍हें भली-भाँति‍ मालूम है, नहीं है तो होना चाहि‍ए कि‍ बोलियों से ही हर भाषा का विकास होता है। जब बोलियों का व्याकरणसम्‍मत मानकीकरण हो जाता है, उसके प्रयोक्‍ता सहजता से उसका अनुकरण करने लगते हैं, और उसमें लिखित साहित्य का रूप धारण करने की क्षमता आ जाती है, उसे भाषा का दर्जा प्राप्त हो जाता है। शिक्षा, साहित्य और सामाजिक व्यवहार में कि‍सी बोली का योगदान जि‍तना सघन होगा, वह बोली उतनी महत्त्‍वपूर्ण होगी। कोई भी भाषा कई बोलियों के समेकि‍त समर्थन से ही समृद्ध होती है। भाषा शब्द की व्‍युत्‍पत्ति‍ जि‍स भाष् धातु से हुई है, उसका अर्थ 'बोलना' या 'कहना' होता है। इस 'बोलने' या 'कहने' का सम्‍बन्‍ध 'ध्‍वनि‍' से है। मनुष्‍य के मन-मस्‍ति‍ष्‍क में उमरा हुआ कोई वि‍चार ध्‍वन्‍यात्‍मक अभि‍व्‍यक्‍ति‍ के बाद ही प्रकाशमान होता है; बोली के बि‍ना हर वि‍चार अन्धकार में दबा रह जाता है।
अपनी मातृभाषा पर बात करते हुए जब कवि‍ केदारनाथ सिंह की पंक्‍ति‍ ''लोकतन्‍त्र के जन्‍म से बहुत पहले का/एक जि‍न्‍दा ध्‍वनि‍-लोकतन्‍त्र है यह/जि‍सके एक छोटे-से 'हम' में/तुम सुन सकते हो करोड़ो/'मैं' की धड़कनें'' सामने आती है; तो बोलि‍यों के लोकतन्‍त्र का पूरा क्षि‍ति‍ज स्‍पष्‍ट हो जाता है। आज के आन्‍दोलनधर्मि‍यों को नामालूम कारणों से ऐसा भ्रम हो गया है कि‍ बोलि‍यों को मि‍टाकर ही कि‍सी भाषा का साम्राज्‍य स्‍थापि‍त कि‍या जा सकता है। वे अनदेखी कर रहे हैं कि‍ भाषा का अपनी बोलि‍यों से वही सरोकार है जो लोकतन्‍त्र का आम नागरि‍क से है। आम नागरि‍क के संवर्धन के बि‍ना कोई लोकतन्‍त्र प्रशंसि‍त नहीं हो सकता। ठीक उसी तरह बोलि‍यों की समृद्धि‍ के बि‍ना कोई भाषा आगे नहीं बढ़ सकती। जि‍स भाषा की बोलि‍याँ जि‍तनी उर्वर होंगी, उस भाषा का साहि‍त्‍य उतना ही ताकतवर होगा। अपने समस्‍त प्राचीन साहि‍त्‍य पर नजर दौड़ाएँ तो स्‍पष्‍ट हो जाएगा कि‍ बोलि‍यों ने ही हमारे पूर्वज रचनाकारों की रचनात्‍मकता को सम्‍न्‍न कि‍या है। अमीर खुसरो, वि‍द्यापति‍, कबीर, सूर, जायसी, तुलसी से लेकर प्रेमचन्‍द, रेणु, नागार्जुन, त्रि‍लोचन, केदारनाथ सिंह प्रभृत्ति‍ की रचनाएँ इस बात का जीवन्‍त उदाहरण हैं।
चूँकि‍ साहि‍त्‍य जनचि‍तवृत्ति‍ का संचि‍त प्रति‍बि‍म्‍ब होता है, इसलि‍ए हर भाषा के साहि‍त्‍य में उस भाषि‍क-क्षेत्र की पूरी जीवन-धारा प्रवाहि‍त रहती है; वहाँ के नागरि‍क जीवन की सम्‍पूर्ण पद्धति‍ अपने ऐति‍हासि‍क एवं भौगोलि‍क सन्‍दर्भों के साथ उसमें अनुरक्षि‍त रहती है। और, यह अनुरक्षण बोलि‍यों से ही सम्‍भव होता है। 'मोरा रे अँगनवाँ चनन केरि गछिया, ताहि चढ़ि कुररय काग रे; सोने चोंच बाँधि देब तोयँ वायस, जओं पिया आवत आज रे' (वि‍द्यापति‍) या 'ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पण्‍डित होय' (कबीर) या फि‍र 'समरथ को  नहीं दोष गुसाईं' (तुलसीदास) जैसी पंक्‍तियाँ महज एक वक्‍तव्‍य नहीं हैं; समकालीन जनजीवन की चि‍तवृत्ति‍ का समग्र अनुरक्षण है।
असल में भाषा जि‍न बोलि‍यों की ताकत से समृद्ध होती है, उन बोलि‍यों के स्‍वनि‍म, रूपि‍म और प्रयुक्‍ति‍यों का उद्भव कामगारों के बीच होता है। वे काम करते हुए, नई-नई गति‍वि‍धि‍यों और क्रि‍याओं को नई-नई संज्ञाएँ देते हैं। बीते कुछ दशकों में, जब से उदारीकरण और वैश्‍वि‍क बाजार की प्रथा का चलन हुआ है, नागरि‍क जीवन की समग्र क्रि‍याशीलता करेन्‍सी जुटाने में एकाग्र हो गई है। मुहावरे, लोकोक्‍ति‍याँ, प्रयुक्‍ति‍याँ आदि‍ जो आम जनजीवन के काम-काज के दौरान पैदा होती थीं, उसके अवसर समाप्‍त हो गए हैं। अब तो रोटि‍याँ बेलने, झाड़ू लगाने, खेतों में बीज बोने, मवेशि‍यों की पगहि‍या बटने, चटाई बि‍नने, दीया जलाने हेतु बाती गढ़ने, यहाँ तक कि‍ पूजा के लि‍ए मि‍ट्टी के महादेव गढ़ने जरूरत नागरि‍क जीवन से समाप्‍त हो गई। बाजार में सब कुछ तैयार मि‍ल जाता है, मनुष्‍य को केवल उपभोग करना है, उपभोग के इन संसाधनों पर स्‍वामि‍त्‍व पाने के लि‍ए करेन्‍सी जुटाने की चि‍न्‍ता करनी है; और इस चि‍न्‍ता के सारे रास्‍ते मनुष्‍य को अमानवीय एवं अनैति‍क होने के लि‍ए मजबूर करते हैं। ऐसे में सर्वाधि‍क जरूरी अनैति‍क के सूत्र ढूँढने की हो गई है।
इस एकाग्र चि‍न्‍ता ने जनजीवन को बोलि‍यों से इस कदर वि‍च्‍छि‍न्‍न कि‍या कि‍ अब बोलि‍यों की कई प्रयुक्‍ति‍याँ उन्‍हें गैरजरूरी लगने के साथ-साथ दुर्बोध भी लगती हैं। ग्राम्‍य-बोध में जि‍स ‘कौवे के कुचरने’ से प्रि‍यतम जन के आगमन की कल्‍पना की जाती थी, चि‍ट्ठि‍यों में अभि‍व्‍यक्‍त जि‍न भावनाओं से मन वि‍ह्वल हुआ करता था, मोबाइल सेवा ने उन अवसरों को समाप्‍त कर दि‍या। अब प्रतीक्षा करने का सुख, या कि‍ प्रतीक्षामग्‍न होने के दुख का सुख मनुष्‍य के जीवन में रह नहीं गया है। वैज्ञानि‍क वि‍कास से उपलब्‍ध संसाधन का उपभोग तो ठीक माना जा सकता है, कि‍न्‍तु सबसे घातक बात जो हुई है, वह यह कि‍ लोग इन प्रसंगों को अब समझ भी नहीं पा रहे हैं।
गौरतलब है कि‍ अपनी तमाम सहजता के बावजूद बोलि‍यों की प्रयुक्‍ति‍याँ भाषा में अर्थध्‍वनि‍यों का वि‍स्‍तार भरती हैं। भाषा और बोली के इस अन्‍योन्‍याश्रय सम्‍बन्‍ध को कवि‍ केदारनाथ सिंह की कवि‍ता ‘देश और घर’ की इन पंक्‍ति‍यों में स्‍पष्‍टता से समझा जा सकता है--हिन्दी मेरा देश है/भोजपुरी मेरा घर/घर से नि‍कलता हूँ/तो चला जाता हूँ देश में/देश से छुट्टी मि‍लती है/तो लौट आता हूँ घर/इस आवाजाही में/कई बार घर में चला आता है देश/देश में कई बार/छूट जाता है घर/मैं दोनों को प्यार करता हूँ/और देखिए न मेरी मुश्किल/पिछले साठ बरसों से/दोनों में दोनों को/खोज रहा हूँ। भाषा और बोली के सरोकार की ऐसी वि‍लक्षण परि‍भाषा शायद ही कि‍सी भाषावैज्ञानि‍क सूत्र में हो।
जॉन स्टुअर्ट मिल ने यदि‍ भाषा को मस्तिष्क का प्रकाश कहा, तो तय मानें कि‍ उसका ध्‍वन्‍यार्थ कहीं बोलि‍यों के उस प्रभाव में ही है, जि‍सकी जीवनी ताकत से भाषा यह प्रकाश पाती है। इस दृष्‍टि‍ से हमें भाषा की समृद्धि‍ के लि‍ए बोलियों की समृद्धि‍ पर बल देना मुनासि‍ब लगता है; हर घर समृद्ध रहे तो देश की समृद्धि‍ पर कोई प्रश्‍नचि‍ह्न नहीं लगा सकता। हमारे पूर्वकालि‍क साहि‍त्‍य के अवलोकन से स्‍पष्‍ट है कि‍ बोलि‍यों के अनुरक्षण में लोक-कण्‍ठ की व्‍याप्‍ति‍ के साथ-साथ साहि‍त्‍य में उपस्‍थि‍त उनकी छवि‍यों का भी बड़ा योगदान है। और, प्रमाणि‍क सत्‍य ता यह है कि‍ बोलि‍यों का रि‍श्‍ता‍ ध्‍वनि‍यों से है, लोक-कण्‍ठ और साहि‍त्‍य मात्र ही इसके अनुरक्षण के अन्‍यतम उपाय हैं। एक ही मुहावरे का उच्‍चारण मि‍थि‍ला, भोजपुर, अवध, ब्रज, बंग, उत्‍कल, द्रवि‍ड़ में एक समान नहीं होगा। व्‍यक्‍ति‍ और वाचि‍क-क्षेत्र के परि‍वर्तन से ध्‍वनि‍ वि‍शेष के उच्‍चारण की वि‍धि‍याँ बदलती रहती हैं; लि‍हजा ये लोक-कण्‍ठ और साहि‍त्‍यि‍क प्रस्‍तुति‍ के सातत्‍य में ही सुरक्षि‍त रह सकती हैं। जनजीवन से बोलि‍यों के महत्त्‍व के ऐसे वि‍स्‍थापन का कारण बाजार है; जि‍स हैरतअंगेज तथ्‍य से हमारे नागरि‍क-समाज को रहस्‍यमय ढंग से पृथक रखा गया है। लि‍हाजा उनका परम्‍पराबोध, भाषाबोध, संस्‍कृति‍बोध, अर्थात् वस्‍तुबोध और आत्‍मबोध घटा है। अब वे अभि‍धा के अलावा अन्‍य कुछ समझने में अपनी क्षमता को लगाना नि‍रर्थक समझते हैं। इधर रचनाकारों की मुश्‍कि‍लें इस तरह बढ़ी हैं कि‍ वे जि‍न जीवन-सत्‍यों को उकेरना चाहते हैं, कोशीय शब्‍दों के सहारे उनके चि‍त्र प्रभावी नहीं हो पाते, वे कमजोर लगते है; और बोलि‍यों का सहारा लेने पर पाठक कहीं छूटने-से लगते हैं।
हम सब जानते हैं कि‍ भाषा का जन्म पहले बोली के ही रूप में हुआ, और उसे सार्वभौमिकता देने के लिए लिपि का आविष्कार सम्भव हुआ। बोली या भाषा की वास्‍तवि‍क अभिव्यक्ति की कसौटी ही कि‍सी लिपि की सार्थकता है। सन् 1927 में जब भारत में जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने ‘ए लिंग्‍वि‍स्‍टि‍क सर्वे ऑफ इण्‍डि‍या’ शीर्षक अपनी पुस्‍तक में सर्वप्रथम उपभाषाओं एवं बोलियों में हिन्दी का वर्गीकरण किया, उससे पूर्व एक भाषाई एटलस बनाने के लि‍ए जर्मनी में जोहान एण्‍ड्रियास श्मेलर ने उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के अन्‍ति‍म चरण में बोलि‍यों का पहला तुलनात्मक अध्ययन कराया था। इन वि‍शेष अध्‍ययनों ने ही भाषा और बोली का ऐसा संघर्ष पैदा कि‍या हो और देखते-देखते संसार की बेशुमार बोलि‍याँ नष्‍ट हो गई हों, बची-खुची बोलि‍यों पर आधुनि‍कता के वक्‍तव्‍यवीर और क्रान्‍ति‍ शि‍रोमणि‍ फरसा चला रहे हों—ऐसा शतस: नहीं कहा जा सकता; कि‍न्‍तु ओछे स्‍वार्थ की तृप्‍ति‍ हेतु दि‍ग्‍भ्रान्‍त आखेटकों ने इन वर्गीकरणों का सहारा नहीं लि‍या, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। ‘कि‍तनी लाख चीखों/कि‍तने करोड़ वि‍लापों-चीत्‍कारों के बाद/कि‍सी आँख से टपकी/ एक बूँद को नाम मि‍ला--/आँसू/कौन बताएगा/बूँद से आँसू/ कि‍तना भारी है।’ केदारनाथ सिंह की कवि‍ता ‘आँसू का वजन’ की ये पंक्‍ति‍याँ एक साथ भाषा में बोलि‍यों की रचनात्‍मक भूमि‍का का महत्त्‍व भी स्‍थापि‍त करती है और रचनात्‍मकता से क्रमश: गायब होती बोलि‍यों की प्रयुक्‍ति‍यों पर नि‍कले आँसू का वजन मापने को मजबूर भी करती हैं। हमें याद रखने की जरूरत है कि‍ बोलि‍यों की प्रयुक्‍ति‍याँ खोते हुए हम अपने पाँव तले की जमीन खो रहे हैं। 

धूर्तसमागम का पुनर्पाठ Revisiting The Dhoorthasamagam



सन् 2017 में दिल्ली के राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय सम्मुखप्रेक्षागृह में 4-5 जून और फिर मिथिला रंग महोत्सवमें 4 दिसम्बर को मैलोरंग के तत्त्वावधान में लगभग सात सौ वर्ष पुरानी धरोहर, कविशेखराचार्य ज्योतिरश्वर ठाकुर (सन् 1290-1350) विरचित धूर्तसमागम का मंचन हुआ। अधुनातन मैथिली में इस प्राचीन कृति का नाट्यालेख युवा रंग निर्देशक प्रकाश चन्द्र झा ने तैयार किया, जिसका भव्य मंचन मैलोरंग (रंगमण्डल) द्वारा उन्हीं के निर्देशन में हुआ। यह उद्यम राष्ट्रहित में एक पुनीत कार्य है। अब इसका आत्मसातीकृत पाठ, मूल पाठ एवं प्रस्तुति पर प्राप्त प्रतिक्रिया के साथ पुस्तकाकार छप रहा है; यह अतीव प्रसन्नता की बात है। ध्यातव्य है कि अनुवाद अध्ययन के क्षेत्र में किसी पाठ का मंचन, अन्तर्भाषिक रूपान्तरण और मूल पाठ की व्याख्या (वार्तिक), यहाँ तक कि किसी साहित्यिक रचना पर नृत्य-प्रस्तुति...अनुवाद का ही अनुषंग है।
इस  पुस्तक में विभिन्न आयुवर्ग के रंगकर्मियों और रंगप्रेमियों के लगभग डेढ़ दर्जन छोटे-बड़े आलेख संकलित हैं। दो-तीन के अलावा सारे आलेखों में ज्योतिरीश्वर प्रणीत, प्रकाश चन्द्र झा द्वारा मैथिली में आत्मसातीकृत (एप्रोप्रिएटेड) और मैलोरंग द्वारा अभिनीत धूर्तसमागम की प्रस्तुति पर प्रेक्षकों की अन्तरंग प्रतिक्रिया व्यक्त हुई है। अलग से कहने का प्रयोजन नहीं कि प्रेक्षकों की प्रतिक्रिया रंगकर्म के समग्र प्रभाव के कारण होता है। रंगकर्म का समग्र प्रभाव कई घटकों के समन्वित प्रयास से बनता है--उपादेय विषय-वस्तु, श्रेष्ठ नाट्यालेख, विलक्षण नाट्य-शैली, रचनात्मक निर्देशन, जीवन्त अभिनय...सब मिलकर किसी प्रस्तुति को प्रभावकारी और स्मरणीय बनाता है। इस क्रिया में सारे ही घटक समान रूप से महत्त्वपूर्ण होते हैं, किन्तु निर्देशन और अभिनय तनिक विशेष अर्थ रखता है। कारण, विलक्षण से विलक्षण नाट्यालेख, इन दोनो पक्षों की दुर्बलता से प्रेक्षागृह में निष्प्रभ रह जाता है। इसलिए कहना अनुपयुक्त न होगा कि प्रेक्षकों की अधिकांश प्रतिक्रियाएँ मूलतः धूर्तसमागम की प्रस्तुति पर है, नाट्यालेख पर गौणतः। पुस्तक के समाहर्ता प्रकाश चन्द्र झा ने आरम्भ में ही अपने वक्तव्य में धूर्तसमागम के मैथिली नाट्यालेख तैयार करने और उसके मंचन की सारी प्रक्रिया पर्याप्त निष्ठा से समाविष्ट कर दी है।
यहाँ मैलोरंग द्वारा धूर्तसमागमकी अधुनातन प्रस्तुति पर विचार करते हुए मैलोरंग की रंगयुक्ति के साथ धूर्तसमागमकी समकालीन उपादेयता पर भी विचार करने की जरूरत है। किन्तु उससे पूर्व यह विचार करना आवश्यक है कि किसी कालखण्ड के कलाकार अपने प्राचीन पाठ की पुनर्प्रस्तुति अथवा अनुवाद अथवा आत्मसातीकरण क्यों करते हैं? ऐसी क्या मजबूरी थी कि कवीश्वर चन्दा झा ने सन् 1889 में महाकवि विद्यापति रचित पुरुष परीक्षा का मैथिली अनुवाद किया (मायानन्द मिश्र ने यद्यपि इस अनुवाद का समय सन् 1881 माना है) और क्यों कर सन् 1886 में मिथिला भाषा रामायणलिखा? भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने सुविख्यात संस्कृत नाटककार विशाखदत्त रचित मुद्राराक्षस (सन् 1878 में) और अंग्रेजी के प्रसिद्ध नाटककार विलियम शेक्सपियर रचित मर्चेण्ट ऑफ वेनिस’ (‘दुर्लभ बन्धुशीर्षक से सन् 1880 में) का हिन्दी अनुवाद; महावीर प्रसाद द्विवेदी ने प्रसिद्ध अंग्रेज दार्शनिक फ्रान्सिस बेकन के निबन्ध (बेकन-विचार-रत्नावलीशीर्षक से सन् 1901 में); हर्बर्ट स्पेन्सर रचित एजुकेशन’ (‘शिक्षाशीर्षक से सन् 1906 में); जॉन स्टुअर्ट मिल रचित ऑन लिबर्टी’ (‘स्वाधीनताशीर्षक से सन् 1907 में) और कालिदास रचित रघुवंशमहाकाव्य (रघुवंशशीर्षक से सन् 1912 में) का हिन्दी अनुवाद तथा आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने प्रसिद्ध जर्मन प्राणिशास्त्री और भौतिकवादी दार्शनिक अन्स्र्ट हेक्कल रचित रिड्ल ऑफ द युनिवर्स’ (‘विश्वप्रपंचशीर्षक से) का हिन्दी अनुवाद क्यों किया? इस जिज्ञासा में यह प्रश्न भी समाहित है कि आधुनिक मैथिली में लगभग सात सौ वर्ष पुराने इस पाठ का नाट्यालेख प्रकाश चन्द्र झा ने क्यों तैयार किया और मैलोरंग ने इसका मंचन क्यों किया?
पहलेे अनुवाद, अनुकूलन अथवा आत्मसातीकरण की प्रक्रिया पर बात करें। अपनी कालजयी गुणवत्ता के कारण प्रत्येक विशिष्ट पाठ सार्वत्रिक और सर्वकालिक महत्त्व का होता है। संगत भाषा और भूगोल के हर अनुवाद-उद्यमी अपने समय, क्षेत्र और समाज के लिए उसकी उपादेयता देखकर अनुवाद, अनुकूलन अथवा आत्मसातीकरण की प्रक्रिया तय करते हैं। गौर करने पर स्पष्ट होगा कि उक्त अनुवाद-कर्म से कवीश्वर चन्दा झा, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल भारतीय स्वाधीनता संग्राम की पृष्ठभूमि बनाने में अपना सारस्वत योगदान कर रहे थे। भारतीय स्वाधीनता संग्राम के सिपाहियों को इन अनुवादों के कारण निजत्वका बोध हो रहा था। अंग्रेज की दुर्नीति के कारण भारतीय नागरिक में जिस कोटि का हीनताबोध और दुराशा भरी जा रही थी, उसका प्रतिपक्षीय विमर्श रखती हुई ये सारी पुस्तकें भारतीय नागरिक के मनोबल को ऊँचा करने में और अपने कर्तव्यबोध को समझने में सहज योगदान दे रही थी। उल्लेखनीय है कि ई.पू. प्रथम शताब्दी की (महाकवि कालिदास का अनुमानित समय) विशिष्ट रचना अभिज्ञानशाकुन्तलम्का अनुवाद विदेशी भाषाओं में अठारहवीं शताब्दी में ही शुरू हो गया था! किन्तु उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दी में आकर भारतीय भाषाओं में इसके अनुवाद की शृंखला चल पड़ी। इतने अनुवाद या कि पुनर्कथन अकारण ही नहीं हुए! यह उन अनुवादकों का समाजसेवा भाव था। इस अनुवाद-शृंखला से वे समकालीन जनचेतना और नागरिक-दायित्व को उद्बुद्ध करना चाहते थे, और जनसामान्य को स्मरण दिलाना चाहते थे, कि कदाचित आप लोग दुष्यन्त की अँगूठी की तरह अपना दायित्व भूल गए हैं, परम्परा-रक्षण के सूत्र से बेफिक्र हो गए हैं। इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक के अधोभाग में आकर मैलोरंग की ओर से धूर्तसमागमकी यह प्रस्तुति कदाचित ऐसे ही दायित्व का निर्वहन है।
हमलोग इन दिनों जिस दुर्वह समय में जीवन-यापन कर रहे हैं, वह किसी यातना-शिविर से कम भयावह नहीं है। चारो ओर राष्ट्र-भक्ति की रंगशाला चल रही है; अभिनीत राष्ट्रप्रेम के चकाचैंध से अर्थात् राष्ट्रप्रेम के स्वांग से समस्त नैष्ठिक राष्ट्रवादी दिग्भ्रान्त हो रहे हैं; कभी-कभी उन्हें अपनी ही राष्ट्रीय-चेतना की मौलिकता पर संशय होने लगा है। ऐसे नाटकीय राष्ट्रवाद के उपवन में नवोद्भूत नवगछुली किस राष्ट्रवाद के अनुगमन से अपने राष्ट्र-बोध को बेदाग रखे, यह तय करना असम्भव है। सामान्यतः नवागन्तुक पीढ़ी का मानसिक गठन अग्रज पीढ़ी के अनुकरण और आसन्न पूर्वज पीढ़ी के कृतिकर्म की प्रेरणा से होता है। कवि, चिन्तक, शिक्षक, उपदेशक, नेता, अभिनेता, पत्रकार...ये लोग पहले नई पीढ़ी के लिए सहज ही प्रेरणा-स्रोत बन जाते थे। कारण, उनके कृतिकर्मों के आदर्श रूप उस पीढ़ी को सम्मोहित करते थे। आज की पीढ़ी को इन पदधारियों में कोई आदर्श नहीं दिखता। यह नई पीढ़ी समस्त सामाजिक कार्यकर्ताओं (?) के ढोंग, पाखण्ड, दायित्वहीनता, धूर्तता, दुष्टता, अनैतिकता, नृशंसता को अपनी आँखों देख रही है; क्षुब्ध और हतप्रभ हो रही है। दूसरी ओर यह नई पीढ़ी पारिवारिक बुजुर्गों और सामाजिक मान्यताओं के दवाब से व्याकुल है। माँ-बाप अब अपनी सन्तानों को मनुष्य नहीं, पैसे बरसानेवाली मशीन बनाना चाहते हैं। नई पीढ़ी यह भी देख रही है कि सामाजिक मान-मर्यादा पैसेवालों को दी जा रही है, जीवनादर्श के पुरोधाओं को नहीं। ऐसे में नई पीढ़ी का सम्मोहन प्रबन्धकों की ओर बढ़ना स्वाभाविक है। चूँकि आज का प्रबन्धन परिवार में नहीं, प्रतिष्ठान में सीखा जाता है, इसलिए इसमें धूर्तता का भरपूर समावेश हो गया है। संचार माध्यम के किसी संसाधन पर नजर डालें, तो बात साफ हो जाएगी। दूरदर्शन, अखबार, पत्रिका, वेबसाइट, ब्लाॅग अथवा अन्य सोशल मीडिया पर क्रियाशील प्रेक्षक देख सकते हैं कि मौजूदा भोर से अगले भोर तक के कार्यक्रमों में माला की मानिन्द गूँथे विज्ञापन क्या कहते हैं। देश भर के नायक-नायिकाएँ जनसाधारण से मान्यता और सम्मान पाकर आज सिर पर बैठे हैं, उनकी कृतघ्नता देखिए कि प्राणपन से जन-जन को धोखा देने में लिप्त हैं। पूँजीपतियों के सामान्य उत्पाद को श्रेष्ठ घोषित करते हुए जनसाधारण के साथ धूर्तता करने में उन्हें तनिक भी लाज नहीं आती। मालूम नहीं उन्हें औरों की धूर्तता में साथ देकर धन कमने में क्या सुख मिलता है! सुधीजन चाहें तो तेल, मलहम, क्रीम, चाॅकलेट, बिस्कुट, मसाला, अन्तर्वस्त्र, दवाई, दन्तमंजन, कण्डोम आदि बेचते अपने हीरो-हीरोइन को देखें, कि उनके मुखमण्डल पर ऐसी धूर्तता करते हुए तनिक भी ग्लानि नहीं रहती। जीवन-यापन के अन्य अनुशासनों में भी इस धूर्तता के संकेत ढूँढे जा सकते हैं। ऐसे दुष्काल में धूर्तसमागमकी पुनर्प्रस्तुति एक राष्ट्रीय उद्बोधन है, जिसके द्वारा कविशेखराचार्य ज्योतिरीश्वर ठाकुर ने जन-जन को सन्देश दिया था, आज हमारे सामाजिक, राजनीतिक, प्रशासनिक परिवेश को ऐसे ही प्रेरक नाट्यालेख और रंगयुक्ति का प्रयोजन था। प्रकाश चन्द्र झा द्वारा आत्मसातीकृत धूर्तसमागम के नाट्यालेख की मैलोरंग द्वारा अभिनीत प्रस्तुति आधुनिक समाज की विकृति/विसंगति की सूचना देनेवाली ऐसी ही घटना है।
विदित है कि ज्योतिरश्वर ठाकुर मैथिली साहित्य के आदिकालीन रचनाकार हैं। विद्वानों ने उनकी कृति धूर्तसमागम को मिथिला ही नहीं, सम्पूर्ण उत्तर भारत में रचित पहला नाट्यलेख माना है और इसी तरह विश्वकोश की कोटि में परिगणित उनकी विशिष्ट कृति वर्णरत्नाकर को सम्पूर्ण उत्तर भारत में रचित प्राचीनतम गद्य-ग्रन्थ कहा है। धूर्तसमागमके प्रस्तावना-वाक्य रामेश्वरस्य पौत्रोण तत्रभवतः पवित्रकीर्तेर्धीरेश्वरस्यात्मजेन महाशासनश्रेणिशिखरभ्रामत्पली जन्मभूमिना कविशेखराचार्य-ज्योतिरीश्वरेण निजकुतूहल विरचित धूर्तसमागमनाम प्रहसनमभिनेतुमादिष्टोऽस्मि...के अनुसार ज्योतिरश्वर ठाकुर के पिता का नाम रामेश्वर ठाकुर और पितामह का नाम धीरेश्वर ठाकुर तय होता है। वे मिथिला के कर्णाटवंशीय राजा हरिसिंहदेव (सन् 1300-1324) के राजकवि थे। पूर्ववर्ती श्रेष्ठ भारतीय चिन्तक भरतमुनि, भामह और वात्स्यायन की रचनाधारा का तीव्र विकास उनके तीनो प्रसिद्ध ग्रन्थ में देखा जा सकता है--नाट्यशास्त्र के प्रभाव में धूर्तसमागम’, कामसूत्र के प्रभाव में पंचशायक, और काव्यालंकार के प्रभाव में वर्णरत्नाकर। यद्यपि धूर्तसमागमके नाट्यालेख, कविशेखराचार्य ज्योतिरीश्वर ठाकुर के समय और उनके रचनादि के विषय में गहन चिन्तन-मनन करते हुए रमानाथ झा, शशिनाथ झा विद्यावाचस्पति’, शैलेन्द्र मोहन झा, जयकान्त मिश्र, गोविन्द झा...आदि विद्वानों ने यथेष्ट चर्चा कीे है। इसी क्रम में हरिसिंह’, ‘नरसिंह’, ‘हरसिंहनाम पर पाठ-विश्लेषण करते हुए यथेष्ट मतामत और तर्क प्रस्तुत हुए हैं; इन तीनो के संग अथवा किसी एक के संग ज्योतिरीश्वर ठाकुर का सरोकार तय करते हुए कर्णाटवंशी राजा हरिसिंह देव पर पर्याप्त चर्चा हुई है। किन्तु तथ्य है  कि मिथिला में कर्णाटवंशी राजा के शासनकाल में संस्कृत के अलावा मैथिली को भी पर्याप्त राजकीय प्रोत्साहन मिलता था और मिथिला गेय काव्य का केन्द्र था।
उल्लेख होता है कि ई.पू. छठी शताब्दी में भारत में कर्मकाण्ड के विरुद्ध जिस बौद्ध-धर्म का नवोदय हुआ था; वह समकालीन राजनीति और अर्थनीति तक को प्रभावित करने लगा था। किन्तु कालान्तर में इसका पराभव शुरू हो गया। बौद्ध के प्रतिपक्ष में कुछ सनातन धर्मावलम्बी सुनियोजित रूप से क्रियाशील हुए। इस बार उन लोगों ने प्राचीन कर्मकाण्ड के बदले ज्ञान और भक्ति का प्रचार अपनाया था। कुमारिल भट्ट, मण्डन मिश्र, शंकराचार्य, उदयनाचार्य जैसे प्रकाण्ड विद्वानों की मीमांसा और वेदान्त दर्शन के प्रतिपादन से बौद्ध-धर्म का तत्त्वज्ञान परोक्ष होने लगा। इस प्रक्रिया में परवर्ती वैष्णव सन्तों को भी भक्ति के प्रसार में प्रभूत बल मिला। अनेक हिन्दू राजा इन धर्म-प्रचारकों के समर्थन में आगे आए। तेरहवी शताब्दी आते-आते नाट्यकला को राजशाही प्रोत्साहन मिलने लगा। चैदहवी शताब्दी में मिथिला में कर्णाटवंशी शासक हरिसिंह देव ने नाट्यकला और नाटककारों को पर्याप्त प्रश्रय दिया। ज्योतिरीश्वर ठाकुर विरचित धूर्तसमागमउन्हीं के दरबार में रचित नाटक है ।
धूर्तसमागमके रचनाकाल को लेकर विद्वानों के बीच मतभिन्नता है। कुछ लोग सन् 1320 और कुछ सन् 1325 मानते हैं। किन्तु धूर्तसमागम का रचनाकाल सन् 1320 तर्कसम्मत लगता है, कारण, उनके जिन तीन उल्लेखनीय ग्रन्थों की सर्वाधिक चर्चा होती है, वे हैं --धूर्तसमागम, पंचशायक, वर्णरत्नाकर। उपलब्ध सूचना और इन तीनो ग्रन्थों के पाठ-विश्लेषण के अनुसार वर्णरत्नाकर का रचनाकाल (सन् 1324 के आसपास) प्रथम दोनो के बाद समीचीन लगता है। वर्णरत्नाकर की परिपक्व रचना-शैली से यह अनुमान सहज होगा कि मिथिला के रचनात्मक क्षेत्र में ऐसे सावधान गद्य-ग्रन्थों की परम्परा पूर्व में भी रही होगी। यह कृति मध्ययुगीन भारतीय समाज के जीवन और संस्कृति को विशिष्टता से रेखांकित करता है। इसकी एक पाण्डुलिपि एशियाटिक सोसाइटी, कोलकाता में (पाण्डुलिपि संख्या-4834) संरक्षित है।
ज्योतिरश्वर ठाकुर की किसी स्वतन्त्रा काव्य-कृति की सूचना यद्यपि नहीं देखी गई है, किन्तु कविशेखराचार्यउपाधि से अनुमान करना सहज है कि वे श्रेष्ठ कवि भी थे। मातृभाषा मैथिली के आरम्भिक उद्गाता के साथ-साथ वे संस्कृत के प्रकाण्ड ज्ञाता भी थे।
मैथिली-गीतों के यथेष्ट समावेश के बावजूद धूर्तसमागम (सन् 1320) को प्रो. रमानाथ झा ने मैथिली कृति कदापि नहीं माना, जबकि डॉ. जयकान्त मिश्र ने इसे मैथिली की रचना स्वीकारते हुए कीर्तनियाँ नाटक का आदिरूप कहा। इसमें समाविष्ट मैथिली गीत कवित्व की दृष्टि से अत्यन्त सामान्य है; किन्तु समग्रता में इसका सम्पूर्ण पाठ तीक्ष्णतर व्यंग्य का उद्घोष करता है। असल में विचारकों के मुँह से प्रहसन शब्द सुनते-सुनते भावकों के कान और चेतना अब इतनी अधिक अभ्यस्त हो गई है कि अन्य कोई व्याख्या करने पर भी इनके कान और चेतना तक प्रहसन ही पहुँचता है; जैसे आप मैथिलों के कान में जबरन उड़ेल दीजिए कि मण्डन मिश्र कभी किसी शंकराचार्य से पराजित नहीं हुए और उनके बचाव में कभी उनकी पत्नी को सामने नहीं आना पड़ा’, किन्तु वे सँभलकर उठेंगे, कान उलटा कर, आपका सन्देश वापस फेकेंगे,और फिर वही गीत गाने लगेंगे--जहाँ भारती से हार गए शंकर।
वस्तुतः हमलोगों को साहित्य पढ़ने-गुनने की पद्धति का भी अभ्यास करना चाहिए। धूर्तसमागम को हास्यरस से ओतप्रोत माना जाता है। हास्य रस का स्थायी भाव है हास’, और हास उत्पन्न होता है, विकृति से। किसी को फिसलकर गिरते देखकर या कि किसी अनुपयुक्त स्थिति में देखकर, आपको हँसी आ जाती है। किन्तु यह हँसी कितनी दारुण होती है, यह स्वयं को उलटे स्थान पर रखकर देखने से स्पष्ट होगा। फिसलकर गिरनेवालों के स्थान पर स्वयं रह कर सोचेंगे, तो समझ आ जाएगा कि गिरने पर लोगों को अपने ऊपर हँसते देखकर गिरनेवालों के मन पर क्या असर होता है। विकृति को देखने की दृष्टि विवेकशील रहे तो हास के स्थान पर करुणा भी उत्पन्न हो सकती है। मैथिल परिवेश में भाव-ग्रहण की जल्दबाजी और व्याख्या-पद्धति की उल्टी हवा चलाने के कारण ढेरो श्रेष्ठ कृतियों की उल्टी और उथली व्याख्या होती रही है। हरिमोहन झा जीवन भर रूढ़ि और पाखण्ड पर व्यंग्य करते रह गए, किन्तु सब दिन वे हास्य-सम्राट कहाते रहे। अब समय आ गया है कि मैथिली के भावक-विवेचक अपने प्राचीन ग्रन्थों की तत्त्वदर्शी व्याख्या करें, और ऐसा धूर्तसमागम के लिए बहुत ही प्रयोजनीय है।
नागारिक समुदाय से मेरा निवेदन है कि इस कृति के अवगाहन के समय दो बातों से खास परहेज करें--पहला कि इस कृति को प्रहसन मात्र न मानें; और दूसरा कि इसमें अश्लीलता ढूँढने में अपना मूल्यवान समय न गमाएँ। कारण, यह कृति प्रहसन मात्र नहीं है। तत्कालीन समाज-व्यवस्था के विकृत स्वरूप को रेखांकित करने के लिए कविशेखराचार्य ज्योतिरश्वर ठाकुर ने हास का उपयोग मात्र किया है।
विदित है कि चैदहवी शताब्दी (कविशेखराचार्य ज्योतिरीश्वर का समय) के भारतीय समाज की सांस्कृतिक धार्मिक स्थिति अनेक खींच-तान से जकड़ी हुई थी। इस समय के आते-आते भारतीय समाज में ईश्वरीय लीला की नाटकीय और लौकिक प्रस्तुति पसर चुकी थी। वाद्य-यन्त्रों के सहारे वैष्णव सन्त नृत्य-संगीत में लीन होते रहते थे। यह लीला और नृत्य-संगीत क्रमशः धार्मिक उन्नयन का साधन बन गया था। उस कालखण्ड में कविशेखराचार्य ज्योतिरीश्वर को प्रायः जयदेव विरचित गीतगोविन्द की सांगीतिक प्रस्तुति की लोकप्रियता देखकर लोकनाट्य का महत्त्व समझ में आया होगा। इसी के साथ यह भी विचारणीय है कि हर समय के श्रेष्ठ रचनाकार अपने समय की विसंगति को रेखांकित करने में जितनी सावधानी विषय-वस्तु के निर्धारण की रखते हैं, उतनी ही सावधानी रचना-शिल्प की भी रखते हैं। विषय उपस्थापन के लिए शिल्प ही ऐसा अमोघ अस्त्र है जो रचनाकार के उद्देश्य को सही-सही सुनिश्चित जगह पर पहुँचाता है। ज्योतिरीश्वर ने धूर्तसमागम में मैथिली गीतों का ऐसा समायोजन अकारण ही नहीं किया है। लोकरुचि और जनभाषा की शक्ति से वे भली-भाँति अवगत थे। धूर्तसमागम में जनपदीय भाषा के गीत और हासमय शिल्प का उपयोग उनकी सामाजिक चिन्ता और नागरिक अन्तर्मन की शिनाख्त का परिचायक है। हासमय प्रसंग द्वारा सामाजिक विकृति पर ऐसा गम्भीर आघात करने का उद्यम उस काल के साहित्य में पहली ही बार देखा गया, इसकी पुनरावृत्ति फिर कई शताब्दी तक नहीं देखी गई। भावकों को उपयुक्त लगे तो वे इस शिल्प का उपयोग फिर हरिमोहन झा और बाबा वैद्यनाथ मिश्र यात्री के यहाँ ढूँढ सकते हैं।
यहाँ आकर सामाजिक जीवन-व्यवस्था में साहित्य और कला की उपादेयता को समझना उचित होगा। हमलोगों के मानस में नाटक खेलनापदबन्ध संस्कार की तरह बसा हुआ है। अर्थात् नाटक खेलने की वस्तु है। इस नाटक खेलनेकी चलन और नाट्यालेख की सामाजिक उपादेयता पर गौर करें तो स्पष्ट होगा कि मानव सभ्यता के विकासक्रम में किसी भी कला का विज्ञापन कभी, मात्र स्वान्तः सुखाय या कि मात्र मनोरंजन के लिए नहीं होता होगा। कला और साहित्य अपने उद्भव-काल से ही मनुष्य को सामाजिक और समाज को मानवीय बनाता आ रहा है। सभ्यता-संचरण के किसी खण्ड में इसके द्वारा मनोरंजन भी होता हो, ऐसा सम्भव है, किन्तु तथ्यतः यह सदैव समकालीन समाज-व्यवस्था का संशोधन-परिस्कार करता रहा है। व्यवस्था की विकृति-विसंगति पर प्रश्न करते हुए उसके स्वेच्छाचार और अनैतिकता पर अंकुश लगात रहा है। नाटक खेलनेकी क्रिया निश्चय ही इस उद्देश्य से पृथक नहीं रहा होगा। चूँकि नाट्यालेख का मंचन होता था, इस कला-विधा के बूते खेल-खेल में नागरिक जीवन की विसंगति जन-जन तक पहुँचाई जा सकती थी, प्रायः इसीलिए नाटक खेलनेजैसा पदबन्ध अस्तित्व में आया होगा। यहाँ धूर्तसमागम की आधुनिक प्रस्तुति की उपादेयता, आज के समाज और ज्योतिरीश्वरकालीन समाज का अनुशीलन करते हुए तनिक इतिहास  में भी झाँक लेना उचित होगा।
साहित्यिक सन्दर्भ में दारुण स्थिति के चित्रण के लिए आत्यन्तिक प्रतिकूलता, अर्थात् एकदम से विरुद्ध पद्धति, सदैव प्रभावी होती रही है; जैसे कि अट्टहासी हास्य में तीव्र करुणा का उदय। धूर्तसमागम का सम्पूर्ण पाठ अपने विषय-वस्तु और शिल्प-- दोनो स्तरों पर यही काम करता है, जो हरिमोहन झा और बाबा यात्री के यहाँ भी ठीक वैसा ही दिखता है। इसलिए हमलोगों को इस पाठ के तत्त्वदर्शी अनुशीलन में अपना दृष्टि-विधान बदलना पड़ेगा और मानना पड़ेगा कि हासमय तत्त्व के समावेश के बावजूद यह कृति प्रहसन नहीं है, किसी महान समाज-शास्त्र और राजनीति-शास्त्र का श्रेष्ठ स्रोत है। उस काल के धार्मिक पाखण्ड, साधु-संन्यासियों की लम्पटइ, सामन्ती और न्यायिक प्रक्रिया के चरम अधःपतन का चित्रण है।
जहाँ तक अश्लीलता का प्रश्न है, यह तो किसी निरर्थक शुचितावाद, मुखविलास और सौविध्य-योजना का द्योतक है। भारतीय समाज में श्लील-अश्लील प्रकरण पर अभी तक कोई तर्कपूर्ण विचार हुआ नहीं है। जो हुआ है वह कोई विचार नहीं, वर्गीय सम्प्रदाय की सुविधा-परस्त व्यवस्था है। जिस समाज में अभी तक मानव-मूल्य पर विचार नहीं हुआ है, नागरिकों को योग्यतानुसार रोजगार और जीवन-यापन की बुनियादी सुविधा उपलब्ध कराने की योजना पर विचार नहीं हुआ है, अफवाह के कारण मनुष्य की हत्या कर देने की घटना पर विचार नहीं हुआ है, तकनीकी सुविधा के सदुपयोग से मानवीय भव्यता बढ़ाने के बदले समाज में दुर्भावना फैलाने की अनैतिकता पर विचार नहीं हुआ है, दुर्बल और अक्षम को न्याय-च्युत रखने की दानवीयता पर विचार नहीं हुआ है, उस समाज के लोग किसी रचना में स्त्री-प्रसंग के उल्लेख को अश्लील कहें, तो इससे बड़ा अश्लील और क्या हो सकता है?
क्षुब्धकारी है कि भारत देश के नागरिक सुबह से शाम तक दूरदर्शन पर अश्लीलता ही देखते रहते हैं, किन्तु उन्हें वे सब अश्लील नहीं लगती, आधुनिकता लगती है। चाय-बिस्कुट, दवा-दारू, कपड़े-लत्ते, कम्मल-चादर, तेल-मलहम, साबुन-सोडा, नैपकिन-कण्डोम, अन्तर्वस्त्र, प्रसाधन सामग्री, इण्टीरियर डेकोरेशन खरीदने के उपदेश देने लिए नायक-नायिकाएँ परदे पर आते हैं; चीख-चीखकर कहते हैं; कि आप यही खरीदिए। इस स्वार्थी आग्रह में वे जिस कोटि के झूठ बोलते हैं, उससे भी बड़ा अश्लील क्या हो सकता है? अपना और धन्नासेठों का खजाना भरने के लिए जनसाधारण को ठगते हैं। ऐसा झूठ बोलते हुए उन्हें तिनका भर भी लाज आती है? खास कम्पनी की गंजी पहनकर अकेला एक हीरो दो दर्जन पहलवानों को लुढ़का मारता है; यदि यह सत्य होता, तो क्या ऐसी गंजी सीमा पर युद्ध करते सिपाहियों के लिए उपादेय न होती, कि गंजी पहनकर वे विपक्षी सैन्य को भूलुण्ठित कर देते!... खास कम्पनी का इत्र लगा कर, खास कम्पनी के उस्तुरे से दाढ़ी बनाकर एक से एक सुन्दरी को सम्मोहित करने की बात आज के सन्दर्भ में स्त्री अस्मिता के लिए कितना अपमानजनक है?...अश्लील इसे कहते हैं। अश्लीलता है कि हमारे ही समाज के मनुष्य, हमीं से मान्यता पाकर, हमें ही ठगता है, और पूँजीपतियों की गाँठ भरता है, फिर भी हम उन्हें ठग या कि ठगनी नहीं मानते हैं।
धूर्तसमागम की प्रस्तावना और भरतवाक्य में कविशेखराचार्य ज्योतिरश्वर ठाकुर ने बेशक इस कृति को प्रहसन कहा, किन्तु यह उनकी विनम्रता(मोडेस्टी) है। असल में यह हास्य के टीले पर दहकते व्यंग्य की फुत्कार है, जिसमें विलासिता, आडम्बर, मिथ्याचार, भ्रष्टाचार, कपट, धूर्तता से आक्रान्त तत्कालीन समाज के विकृत स्वरूप को निर्ममता से उजागर किया गया है।...पूर्व में जैसा उल्लेख हुआ कि उस काल का सकल समाज क्रमशः अराजक हुआ जा रहा था। पतनोन्मुख नीति, विवेक, निष्ठा की ओर ध्यान देना निरर्थक था। आठवीं शताब्दी के आसपास निर्वाण से ऊबे हुए कुछ बौद्ध धर्मानुयायी सहज आनन्द की खोज करने लगे थे। महासुखवाद की धारणा के साथ वज्रयान का उदय उसी की परिणति था। वज्रयानियों के इस महासुखवाद में एक ओर उच्च धार्मिकता थी तो दूसरी ओर निम्नकोटि के अनैतिक आचरणों की चसक। अनैतिकता और पाखण्ड का भेद छिपाने के लिए इस पन्थ के उपदेश में सन्ध्या भाषाका उपयोग होता था, द्विअर्थी शब्द-प्रयोग की भाषा; जिससे लोगों को भरमाने की सुविधा हो। इसी महासुख के अत्यधिक विस्तार से वज्रयानी शाखा में घोर अनाचार फैला, जो उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया। ज्योतिरश्वर ने वर्णरत्नाकर में बौद्धपक्ष अइसन आपात भीषणऔर उदयनक सिद्धान्त अइसन प्रसन्नजैसे पदबन्धों का उपयोग यूँ ही नहीं किया होगा। जनसमुदाय को सम्मोहित करने के लिए उस काल के सन्त सिद्धान्त बघारा करते थे, किन्तु व्यावहारिक तौर पर वे सांसरिकता में लीन-तल्लीन हुए जा रहे थे; परस्त्री-गमन की महिमा-गान में लिप्त होने लगे थे। महासुखवाद के दार्शनिक आवरण में उन्मुक्त पंचमकार के भोगवाद को प्रचुर प्रश्रय मिल रहा था। भोगमय जीवन के ऐसे स्वच्छन्द वातावरण की ओर नैतिक रूप से दुर्बल मनुष्यों की आसक्ति बढ़ना सहज था। इसलिए इस भोगमय प्रवृत्ति की ओर न केवल संन्यासी, बल्कि सामान्य गृहस्थ भी लुब्ध होने लगे थे। ऐसे लिप्सामय वातावरण की ओर आतुरता से बढ़ रहे मनुष्य को किसी भी गर्हित आचरण से परहेज क्यों हो? फिर इस वातावरण से आक्रान्त समाज की जीवन-व्यवस्था कैसी हो? रचनाकार ज्योतिरीश्वर के लिए यह विचारणीय विषय था। शारीरिक व्याधि से तुलना करें तो यह वातावरण कुठाँव के पके बलतोड़ जैसा था, जिसकी टहकती पीड़ा से समाज की मुक्ति आवश्यक थी। अवांछित स्थिति से मुक्ति का उद्वेग कोई विधान नहीं मानता, किसी तरह मुक्ति का मार्ग ढूँढता है। उस काल की समाज व्यवस्था जिस लिप्सामय वातावरण में तल्लीन थी, ज्योतिरीश्वर को तदनुकूल ही कोई मार्ग ढूँढना था, इसलिए विनोदमय शिल्प में तत्कालीन सामाजिक विकृति को प्रस्तुत करने का उद्यम ढूँढा गया। लिप्साग्रस्त आसक्तिमय विषय की हास्यमय प्रस्तुति मात्र से उस विकृति को उजागर किया जा सकता था। और ऐसा ज्योतिरीश्वर ने किया। इसलिए भावकों को इस कृति केे हास और कामुकता में उस समाज की विकृति और विडम्बना ढूँढनी चाहिए; न कि विनोद और अश्लीलता। सोचना चाहिए कि रचनाकार ने यहाँ उस विचित्र अश्लीलता को बेपर्द किया है, जिसमें उस काल का समाज (संन्यासी, सामन्त, व्यवस्थापक, गृहस्थ) न केवल संलिप्त था, बल्कि उसे सहने के लिए विवश भी था। इस कृति की विधा, विषय और शिल्प ज्योतिरीश्वर ने उद्योगपूर्वक तय किया है। समकालीन समाज के हर वर्ग तक इस सामाजिक विकृति को पहुँचाने के लिए लोकधर्मी नाट्य से अधिक प्रभावकारी अन्य कुछ भी नहीं हो सकता था। इस कृति में समाविष्ट मैथिली गीतों की प्रचुरता में भाषा-गीत की लोकधर्मी सम्प्रेषणीयता के प्रति रचनाकार की रचनात्मक आश्वस्ति दिखती है।
इस नाटक में तीन भाषाओं का उपयोग हुआ है। सारे गीत मैथिली में हैं। सूत्रधार, विश्वनगर, मृतांगार ठाकुर, असज्जाति मिश्र...मात्र चार ही पात्रों के संवाद संस्कृत में हैं। शेष समस्त पुरुष पात्र--स्नातक, विदूषक, मूलनाशक तथा समस्त स्त्री-पात्र नटी, सुरतप्रिया, अनंगसेना के संवाद प्राकृत में हैं। अधिकांश जगह प्राकृत संवाद के संस्कृत अनुवाद दिए गए हैं। कोई रचना किस भाषा की है, इसकी कसौटी क्या हो? दस में से मात्र चार ही पात्रों के गिने-चुने संवाद संस्कृत में हैं। इतने क्षीणकाय संस्कृत संवाद के कारण इस कृति को संस्कृत की रचना मान लेने का आग्रह जिन्हें हो, रखें; किन्तु तथ्यतः विषय, वातावरण, शिल्प, संवाद के चरित्र, और अन्ततः समग्र गीतों के प्रभावकारी स्वरूप से यह कृति विशुद्ध मैथिली की रचना है। मैथिली गीतों के कारण ही यह कृति इतनी दोलनशील (वाइब्रेण्ट) और उद्यमशील है।
धूर्तसमागमका हास एक गणिका-विलासी लम्पट संन्यासी विश्वनगर और तदनुकूल उनके शिष्य स्नातक के भिक्षाटन से शुरू हुआ। भिक्षाटन के इस सहज सन्धान में दोनो परम कृपण धनशाली मृतांगार ठाकुर के यहाँ पहुँच गए, जिनके लिए धन का मोल प्राण से अधिक था। कृपण-कलंक के कारण पड़ोसीगण उनका नाम नहीं लेते थे। मृतांगार ठाकुर से निरास हुए, किन्तु उन्हीं की अनुशंसा पर गुरु-शिष्य मासोपवासिनी सुरतप्रिया के घर पहुँच गए, फिर अतीव-सुन्दरी, स्वाधीन-यौवना वेश्या अनंगसेना से भेंट हुई, अनंगसेना के यौवन पर कामासक्त गुरु-शिष्य में प्रतिस्पद्र्धा होने लगी, अनंगसेना की सलाह पर वे पंचैती के लिए असज्जाति मिश्र के दरवाजे पहुँचे, असज्जाति मिश्र स्वयं परम स्त्री-प्रेमी थे और उनके द्यूतप्रेमी, परधनहारी मित्र बन्धुवंचक विदूषक उपस्थित थे। गुरु-शिष्य के गाँजा-भाँग की पोटली शुल्क के तौर पर जमा करबा कर पंचैती की प्रक्रिया शुरू ही हुई थी; असज्जाति मिश्र और बन्धुवंचक अपने-अपने दाँव-पेंच खेल ही रहे थे कि कहीं से मूलनाशक आ गए और अनंगसेना से पूर्व में किए गए मदन-मन्दिरक्षौरकर्म का वेतन माँगने लगे; नहीं देने पर नालिश करने की धमकी भी दे डाली। अनंगसेना ने असज्जाति मिश्र द्वारा वेतन चुकाने कह बात कही। दोनो संन्यासियों से हड़पी हुई गाँजा-भाँग की पोटली असज्जाति मिश्र ने मूलनाशक को दे दी। वेतन में वह पोटली पाकर मूलनाशक प्रसन्न हुए और असज्जाति मिश्र के हाथ-पैर ढँककर बाल काटने को उद्यत हुए।
यहाँ सगौरवं गृहीत्वा सप्रमोदमाघ्राय किंचिद् विनियुज्य च मिश्रस्य करचरणयोर्बन्धनं कृत्वा व्यापारं नाट्यतिपंक्ति का अर्थ अधिकांश विद्वानों ने मूलनाशक हजाम वेतन स्वरूप गाँजा-भाँग की पोटली पाकर गौरवान्वित हुआ और असज्जाति मिश्र के हाथ-पैर बाँधकर बाल काटने का अभिनय करने लगे...किया है। यह दोषपूर्ण अनुवाद है। यहाँ अर्थ होना चाहिए हाथ-पैर ढँककर बाल काटने को उद्यत हुए।कारण, कृति में मूलनाशक हजाम का जैसा विवरण पूर्व में दिया गया है, और उस काल की जैसी समाज-व्यवस्था थी, उसमें कोई अंग-भंग हजाम द्वारा किसी व्यवस्थित(?) गृहस्थ का हाथ-पैर बाँधा जाना सम्भव नहीं था।... तदुपरान्त असज्जाति मिश्र की हृदय-पीड़ा और अस्थि-सन्धि में दर्द आदि गाँजा की पोटली सूँघने के कारण सवार हुए नशे की परिणति थी। इस समग्र दृश्य के सोद्देश्य समायोजन पर गम्भीरतापूर्वक विचार होना चाहिए। चलताऊ समीक्षा से इस कृति का अनुशीलन सम्भव नहीं है। भावकों को स्मरण रहे कि बहुत सहज दिखनेवाला पाठ अधिकांश समय में बहुत जटिल संवेदना से भरा रहता है। मैथिलों के लिए यह गौरव का विषय है कि इस शिल्प की पुनरावृत्ति फिर दो मैथिल महर्षियों ने ही किया--हरिमोहन झा और वैद्यनाथ मिश्र यात्री ने।
ऐसा ही एक दृश्य तब उपस्थित हुआ जब विदूषक ने अनंगसेना को किनारे ले जाकर पटाने का प्रयास किया और कहा कि असज्जाति मिश्र बूढ़े हैं, विश्वनगर निर्धन, स्नातक व्यभिचारी, इसलिए इनका समागम छोड़कर मेरे समागम से आपका यौवन सफल होगा। उस समय अनंगसेना मुस्काती हुई, अपनी ओर देखती हुई बोलीं--इस  धूर्तसमागम प्रहसन का सिरा आब स्पष्ट हुआ (एतत् धूर्तसमागमप्रहसनं संमवृत्तम्)! और इसी समय विश्वनगर ने वैराग्यपूर्वक गीत गाना शुरू किया--
अरे रे सनातक! तोरिहि कुमान्ति। अनंगसेना हरि लेल असजाति।।
कतए विचार कराओल आनि। जन्हिक चरित मूलनाशक जानि।।
हेरितहि हरि धन लय गेल चोर। हाथक रतन हरायल मोर।।
कके होएबह (खिन) हरि अनुरागे। जोंकक आँग जोंक न लागे।।
कविशेषर जोतिक एहु गाव। राए हरसिंह बुझए रस भाव।।
विदूषक, वेश्या और संन्यासी के बुद्धि, विवेक और वक्तव्य का यह समेकित प्रभाव इस दृश्य में घनघोर व्यंग्य उत्पन्न करता है। बौद्धिक दृष्टि अपनाने पर ही यहाँ किसी भावक को व्यंजना का प्रभाव दिखेगा। जहाँ पंच, गृहस्थ, सामन्त, शिष्य, संन्यासी...सब के सब अपनी-अपनी पद्धति से दुर्वृत्ति में लीन हैं; स्त्री-देह की मोहासक्ति में किसी का विवेक जग नहीं पाता है; सब अपनी पराजय का कलंक दूसरों पर थोप रहा है; वहाँ एक वेश्या (देह ही जिनके व्यापार की पूँजी है) के स्मित हास और एतत् धूर्तसमागमप्रहसनं संमवृत्तम्जैसे वक्तव्य से विराट व्यंजना उत्पन्न होती है। संयोगवश आज सात सौ बरस बाद ऐसे ही वातावरण में हमलोग जीवन-यापन कर रहे हैं।
सम्पूर्ण भारत के समस्त सांस्थानिक/सामाजिक/शासकीय उद्यम में एक से एक खूनी, आतंकी, फरेबी आचरण निरीह लोगों की गरदन दबाने में लीन है। जिस राष्ट्र में कदम-कदम पर मनुष्य असुरक्षित हो, प्रभुत्व-सम्पन्न लोग दुर्बलों का हिस्सा हरप लेने पर आमादा हो, अन्न-वस्त्र-आवास के लिए लोगों को स्वाभिमान बेचना पड़े, मानवाधिकार का कोई भी संकेत जहाँ बचा नहीं रह गया हो, लिंग-जाति-सम्प्रदाय के पदक्रम से जहाँ मनुष्य का बुनियादी पदक्रम तैयार होता हो, जहाँ सामुदायिक जीवन में संशय और आतंक का ताण्डव मचा हो...वहाँ कोई सामान्य मनुष्य अपने लिए किस राष्ट्र और किस राष्ट्रवाद की कल्पना करेगा! भारतीय परम्परा में ज्ञानाकुल लोग पहले दर्शन की ओर प्रवृत्त होते थे, अब अभिभावकगण अपनी सन्तानों को प्रबन्धन की ओर प्रवृत्त करते हैं। शिक्षा अब सार्थक जीवन के लिए नहीं, सफल जीवन के लिए होती है। नीति, निष्ठा, विवेक...ये तीनो सफल जीवन के सब से बड़े बाधक बन गए हैं। राष्ट्रीयता एक धर्म है, जिसे लोग धारण करते हैं, किन्तु राजनीतिक ऊधम से उद्वेलित सामाजिक व्यवस्था ने समस्त आचरणों की परिभाषा बदल दी है; पारिभाषिक शब्दावली बदल गई है। ऐसी परिस्थिति में धूर्तसमागमके पाठ को याद करना हर संवेदनशील और ज्ञानचेता मनुष्य का दायित्व होता है। संयोगवश अपने इसी दायित्व को प्रकाश चन्द्र झा और मैलोरंग ने समझा है, इस राष्ट्रीय उद्यम लिए रूपान्तरकार और प्रस्तोता संगठन सम्पूर्ण राष्ट्र की ओर से बधाई के पात्र हैं।
किन्तु आधुनिक मैथिली में धूर्तसमागमका नाट्यालेख प्रस्तुत करते हुए रूपान्ताकार प्रकाश चन्द्र झा द्वारा विश्वनगर, स्नातक, मृतांगार ठाकुर, असज्जाति मिश्र का नाम बदल देना और मूलनाशक को अनुपस्थित कर देना नाटक के प्रभाव को कुन्द करता है। ये सारे नाम सहज नहीं हैं, सारे नामों में कोई न कोई व्यंग्य भरा हुआ है। और, मूलनाशक की उपस्थिति तो अनिवार्य है। इस पात्र की अनुपस्थिति से धूर्तता की एक सम्पूर्ण शाखा वंचित रह जाएगी और धूर्त समाज का समावेशी रूप सामने नहीं आ पाएगा। इस कोटि के प्राचीन भारतीय ग्रन्थों के अनुवाद, वार्तिक, भाष्य, पुनर्कथन, आत्मसातीकरण के द्वारा ही वर्तमान भारत के आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांकृतिक पराभव की सायास विडम्बना को रेखांकित जा सकेगा; अर्थात् अनुवाद ही इस समाज की आँखों में अँगुली डालकर कहेगा कि उठो, तुम वह नहीं हो, जो तुम्हें बताया जा रहा है; तुम्हारे पूर्वजों ने बड़े-बड़ों के अकल ठिकाने लगाए हैं, तुम भी लगाओ...।

Saturday, September 22, 2018

पखवाड़ों का मौसम आया The Pakhwada Season Arrived



हर भाषा के विकास एवं प्रचार-प्रसार में लोककी भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। समाजशास्त्रीय दृष्टि से विचार करते हुए प्रमाणित हो चुका है कि भाषा, लोकजीवन के विविध प्रसंगों में प्रवहमान रहकर, समृद्धि पाती है, भि‍न्‍न-भि‍न्‍न प्रयुक्‍ति‍यों से सम्पन्न होती है; बुद्धिजीवियों, वैयाकरणों और भाषाशास्त्रियों के सहयोग से लिखित रूप में आकर स्थिरता पाती है; और राजसत्ता द्वारा मान्य होकर सर्वस्वीकृत हो जाती है। इन तीन चरणों से जो भाषा बार-बार गुजरती है, उसका विकास सर्वाधिक होता है। हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी का यह सौभाग्य है कि इसे ये तीनों अवसर निरन्तर प्राप्त होते रहे। पर हिन्दी का दुर्भाग्य साथ-साथ चलता आ रहा है कि लोकजीवन के प्रयोगशील क्षणों को छोड़कर, शेष दो क्षणों में यह पल-पल छद्म का शिकार होती गई।
भारतीय स्वाधीनता के सात दशक गुजर चुके। सन् 1955 में प्रथम राजभाषा आयोग का गठन हुआ। सन् 1956 में इस आयोग द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट पर संसद के दोनों सदनों ने विचार किया और राष्ट्रपति के पास वह रिपोर्ट भेजी गई। राष्ट्रपति द्वारा, 27 अप्रैल 1960 को जारी आदेश में कहा गया कि वैज्ञानिक, प्रशासनिक एवं कानूनी साहित्य सम्बन्धी हिन्दी शब्दावली तैयार करने के लिए और अंग्रेजी कृतियों के हिन्दी अनुवाद के लिए एक आयोग का गठन किया जाए। प्रथम राजभाषा आयोग की रिपोर्ट के अनुसार अनुच्छेद 343 के अधीन संसद ने राजभाषा अधिनियम, 1963 बनाया। अनुच्छेद 351 के अधीन संघ का यह कर्तव्य बताया गया कि वह हिन्दी भाषा का प्रसार और उसका विकास करे ताकि वह भारत की मिली-जुली संस्कृति के सभी तत्त्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके। यह भी बताया गया कि उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिन्दुस्तानी के, और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं के प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात करे, जहाँ आवश्यक या वांछनीय हो, वहाँ उसके शब्द-भण्डार के लिए मुख्यतया संस्कृत से और गौणतया अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे। भाषा सम्बन्धी उपबन्धों, अनुच्छेद-343, 344 तथा 351 का अन्तिम लक्ष्य हिन्दी का प्रचार-प्रसार करना और शासकीय प्रयोजन तथा सम्पर्क भाषा के रूप में हिन्दी को प्रतिस्थापित करना माना गया।

समस्त संवैधानिक सूचनाएँ भी मोटे तौर पर यही जानकारी देती हैं कि हिन्दी भाषा के विकास एवं प्रचार-प्रसार की अनन्त सम्भावनाएँ, लोकजीवन की शब्दावलियों में, हिन्दी क्षेत्र की विभिन्न उपभाषाओं के शब्दों में, तथा अन्य भारतीय भाषाओं के शब्द-भण्डार में दिखती है। विद्यापति-पदावली, रामचरितमानस अथवा ऐसे अन्य किसी भी सर्वप्रचलित कृति के शब्द-भण्डार का अवलोकन किया जाए, तो यह तथ्य और स्पष्ट हो उठता है।
परन्तु परांगमुखी हम भारतीयों की गुलाम मानसिकता को कौन समझाए कि सब कुछ का स्वामी होने के बावजूद, अपनी राष्ट्रभाषा से दूर रहने का तमगा उनके सिर मढ़ा हुआ है। हिन्दी नवजागरण का बिगुल फूँकते हुए भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति कौ मूल यूँ ही नहीं कहा था...। लोक-प्रचलित तथ्‍य है कि क्षेत्रीय बोलियों से, संस्कृत अथवा पड़ोसी राज्य की मातृभाषाओं से लिए गए शब्दों से हिन्दी भाषा की सहजता और प्रवाहमयता बढ़ेगी; संवैधानिक निर्देश भी इस बात की पुष्‍टि‍ करते हैं, पर हम भारतीय हैं कि लगातार अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग से अपनी भाषा को दूषित करते जा रहे हैं।
किसी भी भाषा के प्रचार-प्रसार में संचार माध्यमों की अहम् भूमिका होती है। जब से मुद्रण और ध्वन्यांकन के जरिए आम जन तक सूचनाएँ पहुँचाने की बात आई, यह बात और मुखर हो उठी। असल में साधारण जनता के भाषा-संस्कार का विकास या ह्रास इस बात पर निर्भर करता है कि वह क्या सुनता है, क्या पढ़ता है, क्या देखता है। पुराने लक्षण ग्रन्थों में भी यह प्रमाण दिया जा चुका है कि रंगमंच के माध्यम से किसी भाव अथवा घटना विशेष का प्रभाव लोकमानस पर गहरा पड़ता है। यह प्रभाव केवल घटना और मुद्रा-भंगि‍मा का ही नहीं; भाषा का भी होता है। दृष्‍टि‍ उदार करने पर आज रेडियो, दूरदर्शन, सिनेमा, अखबार, पत्रिका, पुस्तक, सी.डी., कैसेट, वी.डी.ओ. कैसेट, इण्टरनेट...सब के सब संचार-माध्यम के अन्तर्गत ही आते हैं।
मुद्रित सामग्री के रूप में आज हमारे सामने दो दृश्य हैंसस्ती लोकप्रि‍यता की धारणा एवं गलीज मानसि‍कता से लि‍खी-छपाई गई घटिया पुस्‍तक-पुस्तिका-पत्रिकाएँ तथा पीत-पत्रकारिता की सामग्री  और श्रेष्ठ साहित्य। पहली कोटि की मुद्रित सामग्री हमारे समाज के भाषा-संस्कार और चिन्तन-प्रणाली को किस तरह दूषित कर रही है, पूरी की पूरी किशोर पीढ़ी हमारे यहाँ कैसे बर्बाद हो रही है, यह बात किसी से छिपी नहीं है। ऐसी सामग्री छाप-बेच कर धन कमाने वाले भी देशद्रोही ही हैं, पर हमारी शासन-व्यवस्था और सामाज-व्यवस्था इस दिशा में कुछ नहीं कर पा रही है। इण्टरनेट पर ये सब काम पहले तो हि‍न्‍दी में नहीं होते थे, कि‍न्‍तु अब हिन्दी की दुनि‍या भी इस दि‍शा में कि‍सी से पीछे नहीं है। श्रव्य-दृश्‍य कैसेट/सी.डी./डी.वी.डी., दूरदर्शन, सिनेमा में तो यह प्रक्रिया अब बड़े पैमाने पर चल रही है। रेडियो अभी तक इन वि‍संगति‍यों से बचा हुआ है। इसका कारण सम्‍भवत: यह हो कि रेडियो में निजी चैनलों की भरमार नहीं है। पर इन सभी माध्यमों के जिस खण्ड में अश्लीलता और सस्तापन नहीं है, वहाँ भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं दिखती।
हम सब जानते हैं कि संचार-माध्यमों का काम केवल सूचना पहुँचाना नहीं होता। हर समय का संचार-माध्यम एक सभ्य सामाजिक व्यवस्था का सृजन करता है। संचार-माध्यम अपने समय की लोकसत्ता और राजसत्ता--दोनों के जिज्ञासु मन का गुरु और उद्दण्ड मन का नियन्त्रक होता है। सभ्य नागरिक और ज्ञानी शासक के बिना कहीं भी एक अच्छी सामाजिक व्यवस्था की कल्पना नहीं की जा सकती और कोई भी नागरिक श्रेष्ठ भाषा-संस्कार के बिना सभ्य और ज्ञानी नहीं हो सकता। मात्र तीन दशक पहले के संचार-माध्यमों को याद करें, तो उक्त बातें साफ दिखने लगती हैं। समय, उच्चारण और व्याकरण के लिए हमारे यहाँ रेडियो को प्रमाण माना जाता था, पर आज उच्चारण और व्याकरण की बात तो दूर, जिस खिचड़ी भाषा का प्रयोग रेडियो-दूरदर्शन में हो रहा है, उसे सुनकर भाषा-शिल्प के मामले में सचर व्यक्ति अपनी सन्तानों और अपने शिष्यों को सावधान करने में लगे हुए हैं कि वे अपना भाषा-संस्कार रेडियो-दूरदर्शन के वजन पर न बनाएँ।
दूरदर्शन और रेडियो में भाषा-संस्कार का राजपाट सँभालने वाले अधिकारियों-कर्मचारियों का कथन है कि भाषा का मूल उद्देश्य है सम्प्रेषण। इसलि‍ए संचार-माध्यमों में सम्प्रेषण का ध्यान रखना जरूरी होता है। इन अधिकारियों की इस तरह की उक्ति में कितनी बड़ी विडम्बना है कि वे अपनी एक पंक्ति के उद्धरण से अपने समस्त पूर्वजों के किए-कराए पर पानी फेर देते हैं। सम्प्रेषण मात्र, न तो संचार-माध्यमों का लक्ष्य होता, न भाषा का उद्देश्य। हजारों-हजार वर्षों की लम्बी विकास-प्रक्रिया में मानव-सभ्यता जहाँ आ पहुँची है, वहाँ भाषा और सम्प्रेषण का सौष्ठव साथ-साथ न दिखे, तो न तो किसी संचार-माध्यम की कोई आवश्यकता है और न ही किसी भाषा परिवार की।
वि‍गत दिनों दूरदर्शन पर युद्ध के जैसे दृश्य दिखाए गए थे, उनमें कोई भाषा, कोई चित्र न भी दिखाए जाते, तो तोपों और बमों के विस्फोट से बात सम्प्रेषित हो जाती कि विनाश की लीला शुरू है; लेकिन वह न तो समाचार होता, न सूचनाओं का सम्प्रेषण। ठीक इसी तरह रेल के गार्ड द्वारा दिखाई गई झण्डी, सम्प्रेषण तो है, पर भाषा नहीं है; सड़क कि‍नारे बैठकर भीख माँगते अपाहि‍जों के दयनीय इशारे में मन्तव्य का सम्प्रेषण तो है, पर वह भाषा नहीं है;...और ये सारी हरकतें किसी भी मूल्य पर किसी सभ्य नागरिक और श्रेष्ठ सामाजिक व्यवस्था का सृजन नहीं कर सकती।
व्यावसायिक उन्नति को ध्यान में रखकर परिवेश के तमाम व्यापार इन दि‍नों राष्‍ट्र-भाषा हिन्दी की दुर्दशा करने में लिप्त हैं; नागरिक परिवेश से लेकर प्रशासनिक मण्डल तक इस कृत्य में जी-जान से जुटे हुए हैं। वे सोचने को राजी नहीं हैं कि‍ यह भाषा उनकी नि‍जी पहचान है, क्‍योंकि‍ अपनी भाषि‍क-साहि‍त्‍यि‍क गरि‍मा से ही कि‍सी राष्‍ट्र की सांस्‍कृति‍कता ऊँची होती है। भाषिक धरोहर के प्रति‍ समकालीन नागरिकों की ऐसी विरक्ति निश्चय ही आत्मघाती है; सभ्यता एवं संस्कृति के विनाश का सूचक है।
जि‍स भारत के प्राचीन धरोहरों की ओर पश्‍चि‍मी वि‍चारक खिंचे चले आते हैं, वहाँ के नागरि‍क अपनी परम्‍पराओं को भदेस और पि‍छड़ा मानकर त्‍यागने में लगे हुए हैं। अपनी भाषा के प्रति‍ ऐसा वि‍राग-भाव तो शायद ही दुनि‍या के कि‍सी खण्‍ड में हो। हिन्दी लिखने-बोलने वालों को वर्तमान भारतीय परि‍वेश में अबौद्धि‍क और भदेस समझनेवाला हमारा समाज अवनति‍ के जि‍स मार्ग पर चल पड़ा है, उसे कौन सद्बुद्धि‍ दे, यह दि‍ख तो नहीं रहा। कार्यालयों में काम करने वाले लोग अशुद्ध और हास्यास्पद अंग्रेजी बोलकर अपना गौरव बढ़ाते हैं, पर शुद्ध हिन्दी बोलना-लिखना तौहीन समझते हैं। याद रहे कि‍ मौलि‍कता का त्‍याग, अपनी पहचान का त्‍याग है; पहचानवि‍हीन मनुष्‍य राह पर लुढ़का पत्‍थर होता है, जि‍से कोई भी ठोकर मार सकता है। 

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