पूरे देश में इन दिनों बड़ी बारीकी से भाषा का खेल खेला जा
रहा है। देखते-देखते दुनिया भर की हजारो बोलियाँ लुप्त हो गईं, किन्तु आन्दोलनधर्मियों
को लग रहा है कि बोलियों को परे ठेलकर वे कोई महान सेवा कर रहे हैं। उन्हें
भली-भाँति मालूम है, नहीं है तो होना चाहिए कि बोलियों से ही हर भाषा का विकास
होता है। जब बोलियों का व्याकरणसम्मत मानकीकरण हो जाता है, उसके प्रयोक्ता सहजता
से उसका अनुकरण करने लगते हैं, और उसमें लिखित साहित्य का रूप धारण करने की क्षमता
आ जाती है, उसे भाषा का दर्जा प्राप्त हो जाता है। शिक्षा, साहित्य और सामाजिक
व्यवहार में किसी बोली का योगदान जितना सघन होगा, वह बोली उतनी महत्त्वपूर्ण
होगी। कोई भी भाषा कई बोलियों के समेकित समर्थन से ही समृद्ध होती है। भाषा शब्द की व्युत्पत्ति जिस भाष् धातु
से हुई है, उसका अर्थ 'बोलना' या 'कहना' होता है। इस 'बोलने' या 'कहने' का सम्बन्ध
'ध्वनि' से है। मनुष्य के मन-मस्तिष्क में उमरा हुआ कोई विचार ध्वन्यात्मक
अभिव्यक्ति के बाद ही प्रकाशमान होता है; बोली के बिना हर विचार अन्धकार में
दबा रह जाता है।
अपनी मातृभाषा पर बात करते हुए जब कवि केदारनाथ सिंह की पंक्ति
''लोकतन्त्र के जन्म से बहुत पहले का/एक जिन्दा ध्वनि-लोकतन्त्र है यह/जिसके
एक छोटे-से 'हम' में/तुम सुन सकते हो करोड़ो/'मैं' की धड़कनें'' सामने आती है;
तो बोलियों के लोकतन्त्र का पूरा क्षितिज स्पष्ट हो जाता है। आज के आन्दोलनधर्मियों
को नामालूम कारणों से ऐसा भ्रम हो गया है कि बोलियों को मिटाकर ही किसी भाषा
का साम्राज्य स्थापित किया जा सकता है। वे अनदेखी कर रहे हैं कि भाषा का अपनी
बोलियों से वही सरोकार है जो लोकतन्त्र का आम नागरिक से है। आम नागरिक के
संवर्धन के बिना कोई लोकतन्त्र प्रशंसित नहीं हो सकता। ठीक उसी तरह बोलियों की
समृद्धि के बिना कोई भाषा आगे नहीं बढ़ सकती। जिस भाषा की बोलियाँ जितनी
उर्वर होंगी, उस भाषा का साहित्य उतना ही ताकतवर होगा। अपने समस्त प्राचीन साहित्य
पर नजर दौड़ाएँ तो स्पष्ट हो जाएगा कि बोलियों ने ही हमारे पूर्वज रचनाकारों
की रचनात्मकता को सम्न्न किया है। अमीर खुसरो, विद्यापति, कबीर, सूर, जायसी,
तुलसी से लेकर प्रेमचन्द, रेणु, नागार्जुन, त्रिलोचन, केदारनाथ सिंह प्रभृत्ति
की रचनाएँ इस बात का जीवन्त उदाहरण हैं।
चूँकि साहित्य जनचितवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है, इसलिए हर
भाषा के साहित्य में उस भाषिक-क्षेत्र की पूरी जीवन-धारा प्रवाहित रहती है;
वहाँ के नागरिक जीवन की सम्पूर्ण पद्धति अपने ऐतिहासिक एवं भौगोलिक सन्दर्भों
के साथ उसमें अनुरक्षित रहती है। और, यह अनुरक्षण बोलियों से ही सम्भव होता है।
'मोरा रे अँगनवाँ चनन केरि गछिया, ताहि चढ़ि कुररय काग रे; सोने चोंच बाँधि देब
तोयँ वायस, जओं पिया आवत आज रे' (विद्यापति) या 'ढाई आखर प्रेम का,
पढ़े सो पण्डित होय' (कबीर) या फिर 'समरथ को नहीं दोष गुसाईं' (तुलसीदास) जैसी पंक्तियाँ महज एक वक्तव्य
नहीं हैं; समकालीन जनजीवन की चितवृत्ति का समग्र अनुरक्षण है।
असल में भाषा जिन बोलियों की ताकत से समृद्ध होती है, उन बोलियों के स्वनिम,
रूपिम और प्रयुक्तियों का उद्भव कामगारों के बीच होता है। वे काम करते हुए,
नई-नई गतिविधियों और क्रियाओं को नई-नई संज्ञाएँ देते हैं। बीते कुछ दशकों
में, जब से उदारीकरण और वैश्विक बाजार की प्रथा का चलन हुआ है, नागरिक जीवन की
समग्र क्रियाशीलता करेन्सी जुटाने में एकाग्र हो गई है। मुहावरे, लोकोक्तियाँ,
प्रयुक्तियाँ आदि जो आम जनजीवन के काम-काज के दौरान पैदा होती थीं, उसके अवसर
समाप्त हो गए हैं। अब तो रोटियाँ बेलने, झाड़ू लगाने, खेतों में बीज बोने, मवेशियों
की पगहिया बटने, चटाई बिनने, दीया जलाने हेतु बाती गढ़ने, यहाँ तक कि पूजा के
लिए मिट्टी के महादेव गढ़ने जरूरत नागरिक जीवन से समाप्त हो गई। बाजार में सब
कुछ तैयार मिल जाता है, मनुष्य को केवल उपभोग करना है, उपभोग के इन संसाधनों पर
स्वामित्व पाने के लिए करेन्सी जुटाने की चिन्ता करनी है; और इस चिन्ता
के सारे रास्ते मनुष्य को अमानवीय एवं अनैतिक होने के लिए मजबूर करते हैं। ऐसे
में सर्वाधिक जरूरी अनैतिक के सूत्र ढूँढने की हो गई है।
इस एकाग्र चिन्ता ने जनजीवन को बोलियों से इस कदर विच्छिन्न किया
कि अब बोलियों की कई प्रयुक्तियाँ उन्हें गैरजरूरी लगने के साथ-साथ दुर्बोध
भी लगती हैं। ग्राम्य-बोध में जिस ‘कौवे के कुचरने’ से प्रियतम जन के आगमन की
कल्पना की जाती थी, चिट्ठियों में अभिव्यक्त जिन भावनाओं से मन विह्वल हुआ
करता था, मोबाइल सेवा ने उन अवसरों को समाप्त कर दिया। अब प्रतीक्षा करने का
सुख, या कि प्रतीक्षामग्न होने के दुख का सुख मनुष्य के जीवन में रह नहीं गया
है। वैज्ञानिक विकास से उपलब्ध संसाधन का उपभोग तो ठीक माना जा सकता है, किन्तु
सबसे घातक बात जो हुई है, वह यह कि लोग इन प्रसंगों को अब समझ भी नहीं पा रहे
हैं।
गौरतलब है कि अपनी तमाम सहजता के बावजूद बोलियों की प्रयुक्तियाँ भाषा
में अर्थध्वनियों का विस्तार भरती हैं। भाषा और बोली के इस अन्योन्याश्रय
सम्बन्ध को कवि केदारनाथ सिंह की कविता ‘देश और घर’ की इन पंक्तियों
में स्पष्टता से समझा जा सकता है--हिन्दी मेरा देश है/भोजपुरी मेरा घर/घर से
निकलता हूँ/तो चला जाता हूँ देश में/देश से छुट्टी मिलती है/तो लौट आता हूँ घर/इस
आवाजाही में/कई बार घर में चला आता है देश/देश में कई बार/छूट जाता है घर/मैं
दोनों को प्यार करता हूँ/और देखिए न मेरी मुश्किल/पिछले साठ बरसों से/दोनों में
दोनों को/खोज रहा हूँ। भाषा और बोली के सरोकार की ऐसी विलक्षण परिभाषा शायद
ही किसी भाषावैज्ञानिक सूत्र में हो।
जॉन स्टुअर्ट मिल ने यदि भाषा को मस्तिष्क का प्रकाश कहा, तो तय मानें कि
उसका ध्वन्यार्थ कहीं बोलियों के उस प्रभाव में ही है, जिसकी जीवनी ताकत से
भाषा यह प्रकाश पाती है। इस दृष्टि से हमें भाषा की समृद्धि के लिए बोलियों की
समृद्धि पर बल देना मुनासिब लगता है; हर घर समृद्ध रहे तो देश की समृद्धि पर
कोई प्रश्नचिह्न नहीं लगा सकता। हमारे पूर्वकालिक साहित्य के अवलोकन से स्पष्ट
है कि बोलियों के अनुरक्षण में लोक-कण्ठ की व्याप्ति के साथ-साथ साहित्य
में उपस्थित उनकी छवियों का भी बड़ा योगदान है। और, प्रमाणिक सत्य ता यह है
कि बोलियों का रिश्ता ध्वनियों से है, लोक-कण्ठ और साहित्य मात्र ही
इसके अनुरक्षण के अन्यतम उपाय हैं। एक ही मुहावरे का उच्चारण मिथिला, भोजपुर,
अवध, ब्रज, बंग, उत्कल, द्रविड़ में एक समान नहीं होगा। व्यक्ति और वाचिक-क्षेत्र
के परिवर्तन से ध्वनि विशेष के उच्चारण की विधियाँ बदलती रहती हैं; लिहजा
ये लोक-कण्ठ और साहित्यिक प्रस्तुति के सातत्य में ही सुरक्षित रह सकती
हैं। जनजीवन से बोलियों के महत्त्व के ऐसे विस्थापन का कारण बाजार है; जिस
हैरतअंगेज तथ्य से हमारे नागरिक-समाज को रहस्यमय ढंग से पृथक रखा गया है। लिहाजा
उनका परम्पराबोध, भाषाबोध, संस्कृतिबोध, अर्थात् वस्तुबोध और आत्मबोध घटा है।
अब वे अभिधा के अलावा अन्य कुछ समझने में अपनी क्षमता को लगाना निरर्थक समझते
हैं। इधर रचनाकारों की मुश्किलें इस तरह बढ़ी हैं कि वे जिन जीवन-सत्यों को उकेरना
चाहते हैं, कोशीय शब्दों के सहारे उनके चित्र प्रभावी नहीं हो पाते, वे कमजोर
लगते है; और बोलियों का सहारा लेने पर पाठक कहीं छूटने-से लगते हैं।
हम सब जानते हैं कि भाषा का जन्म पहले बोली के ही रूप में हुआ, और उसे
सार्वभौमिकता देने के लिए लिपि का आविष्कार सम्भव हुआ। बोली या भाषा की वास्तविक अभिव्यक्ति
की कसौटी ही किसी लिपि की सार्थकता है। सन् 1927 में जब भारत में जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने ‘ए
लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इण्डिया’ शीर्षक अपनी पुस्तक में सर्वप्रथम उपभाषाओं
एवं बोलियों में हिन्दी का वर्गीकरण किया, उससे पूर्व एक भाषाई एटलस बनाने के लिए
जर्मनी में जोहान एण्ड्रियास श्मेलर ने उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में बोलियों
का पहला तुलनात्मक अध्ययन कराया था। इन विशेष अध्ययनों ने ही भाषा और बोली का
ऐसा संघर्ष पैदा किया हो और देखते-देखते संसार की बेशुमार बोलियाँ नष्ट हो गई
हों, बची-खुची बोलियों पर आधुनिकता के वक्तव्यवीर और क्रान्ति शिरोमणि
फरसा चला रहे हों—ऐसा शतस: नहीं कहा जा सकता; किन्तु ओछे स्वार्थ की तृप्ति
हेतु दिग्भ्रान्त आखेटकों ने इन वर्गीकरणों का सहारा नहीं लिया, ऐसा भी नहीं
कहा जा सकता। ‘कितनी लाख चीखों/कितने करोड़ विलापों-चीत्कारों के बाद/किसी
आँख से टपकी/ एक बूँद को नाम मिला--/आँसू/कौन बताएगा/बूँद से आँसू/ कितना भारी
है।’ केदारनाथ सिंह की कविता ‘आँसू का वजन’ की ये पंक्तियाँ एक साथ
भाषा में बोलियों की रचनात्मक भूमिका का महत्त्व भी स्थापित करती है और
रचनात्मकता से क्रमश: गायब होती बोलियों की प्रयुक्तियों पर निकले आँसू का
वजन मापने को मजबूर भी करती हैं। हमें याद रखने की जरूरत है कि बोलियों की
प्रयुक्तियाँ खोते हुए हम अपने पाँव तले की जमीन खो रहे हैं।
बहुत बढिया सर !
ReplyDeleteज्ञानवर्द्धक आलेख ।
ReplyDeleteसादर,
किसलय कृष्ण,
मुम्बई