सुविख्यात कवि कुँवर नारायण के कृति-कर्म पर विस्तृत चर्चा किए बगैर
हिन्दी की समकालीन कविता पर कायदे से कोई भी बात पूरी नहीं हो सकती। उनकी रचनात्मक
यात्र तब शुरू हुई, जब हिन्दी
कविता में प्रयोगवाद का बोलबाला था; तार सप्तक और दूसरा सप्तक का प्रकाशन हो चुका था। अपने पहले ही
कविता-संग्रह चक्रव्यूह(1956) से
उन्होंने हिन्दी कविता में समर्थ और सार्थक पहचान बना ली थी। इस संकलन के प्रकाशन
के थोड़े ही दिनों बाद समर्थ कवि सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ के सम्पादन में प्रकाशित तीसरा सप्तक में उनकी कविताएँ
संकलित हुईं।
हिन्दी के अग्रणी कवि/चिन्तक कुँवर नारायण का जन्म 19 सितम्बर 1927 को फैजाबाद में हुआ। शुरू मंे वे विज्ञान के छात्र
थे। बाद में लखनऊ विश्वविद्यालय से अंगे्रजी भाषा-साहित्य में सन् 1951 में एम.ए. किया। स्कूल कॉलेज तथा
विश्वविद्यालय की शिक्षण-व्यवस्था से सदा मन विद्रोह करता रहता था, लिहाजा कभी उत्कृष्ट छात्र में नहीं गिने गए।
सन् 1966 में भारती गोयनका से
उनका विवाह हुआ और सन् 1967 में
उन्हें एक बेटा हुआ, जिनका नाम
अपूर्वा है।
छात्र जीवन से ही वे साहित्यानुरागी हैं। यात्र और अध्ययनशीलता उनका प्रिय
आचरण रहा है। दिल्ली बसने से पूर्व जब वे लखनऊ स्थित अपने मकान में रहते थे,
उनका आवास साहित्यिक सम्मिलन और कलात्मक
प्रस्तुति का केन्द्र हुआ करता था। फिलहाल वे अपनी पत्नी और पुत्र के साथ दिल्ली
में रहते हैं। भारत के महाकाव्यों, उपनिषदों
से लेकर कबीर, अमीर खुसरो,
बुद्धकालीन इतिहास और मिथकीय परम्परा,
गालिब, महात्मा गाँधी, कबीर आदि महान ग्रन्थों और चिन्तकों के विचारों का,
उनके आचरण एवं कृतिकर्म का महत्त्वूपर्ण
प्रभाव है। आचार्य नरेन्द्र देव और आचार्य कृपालानी से उनका व्यक्तित्व और विचार
गहरे तौर पर प्रभावित हुआ है। सन् 1955 में यूरोप, रूस और चीन
यात्र के दौरान वे नाजिम हिकमत रैन, अन्तोन स्लोनीमिस्की और पाब्लो नेरूदा से मिले। बाद के दिनों में उन्होंने
मलार्मे और बेलरी जैसे प्रतीकवादी फ्रैंच कवियों की कविताओं का अनुवाद किया,
उनकी काव्य कला के विकास में इसका
महत्त्वपूर्ण योगदान है। हिन्दी की कविता, कहानी, आलोचना आदि
विधाओं में उनका लेखन पर्याप्त चर्चित-प्रशंसित रहा है। विश्व विख्यात सिनेमा,
इतिहास, शास्त्रीय संगीत तथा संस्कृति पर उनके लिखे महत्त्वपूर्ण
निबन्धों की गरिमामय पहचान है। विश्व की कई भाषाओं में उनकी रचनाएँ अनूदित एवं
प्रशंसित हैं। भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार, साहित्य अकादेमी सम्मान, कबीर
सम्मान, व्यास सम्मान, लोहिया सम्मान, शलाका सम्मान आदि से सम्मानित कुँवर नारायण को वारसोवा
विश्वविद्यालय के मानद पदक और विशिष्ट अन्तर्राष्ट्रीय रचनाकार के रूप में इटली के
प्रेमियो फेरोनिया जैसा महत्त्वपूर्ण सम्मान भी दिया गया, जो पहली बार किसी भारतीय लेखक को दिया गया। यह सम्मान
इससे पहले जर्मनी के गुण्टर ग्रास, दक्षिणी
अफ्रीका के जे.एम. कोजी, चीन के
गाओ जिंगजियान, सीरिया के एडोनीस,
क्यूबा के राॅबर्ट एफ रेटमार, पैलेस्टिन के महमाडर डारविप्टा, इराक के सादी योसेफ, फ्रांस के माइकेल बुटोर और एल्बानिया के इसमाइल कदारे
को दिया गया है।
अंगे्रजी में लिखना तो उन्होंने सन् 1947 में ही आरम्भ कर दिया था, पर शीघ्र ही हिन्दी की ओर प्रवृत्त हो गए। युग चेतना
पत्रिका के सम्पादक मण्डल में सन् 1946 से अन्त तक रहे।
सन् 1956 में उनकी
कविताओं का पहला संग्रह चक्रव्यूह प्रकाशित हुआ और अपने इस पहले संग्रह के प्रभाव
से कुँवर नारायण हिन्दी पाठकों के प्रिय कवि के रूप में समादृत हो गए। यह दौर नई
कविता का था। सन् 1943 में
प्रयोगवाद की घोषणा के साथ तार सप्तक के संकलक/सम्पादक हीरानन्द सच्चिदानन्द
वात्स्यायन अज्ञेय ने जिन सात प्रयोगधर्मी कवियों की कविताएँ वक्तव्य सहित
प्रकाशित की थी, उस शृंखला का
तीसरा संकलन तीसरा सप्तक शीर्षक से सन् 1959 में प्रकाशित हुआ। कुँवर नारायण तीसरा सप्तक संकलन के
महत्त्वपूर्ण कवि के रूप में जाने जाते हैं। लेकिन इस संकलन के प्रकाशन से पूर्व
ही कुँवर नारायण हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं में अपनी कविताई के उत्कर्ष का संकेत
देने लगे थे। उस दौर की अत्यन्त प्रतिष्ठित पत्रिका नई कविता के तीसरे अंक में
प्रसिद्ध आलोचक जगदीश गुप्त ने उन्हें ‘आधुनिक जीवन की विषमताओं के प्रति जागरूक एवं अनुभूतिशील व्यक्तित्त्व,
परिष्कृत सौन्दर्य-बोध तथा निहित
शिल्प-कौशल’ से परिपूर्ण कवि
घोषित करते हुए विशेष कवि के रूप में उनका परिचय दिया, और उनकी कविताएँ प्रकाशित कीं। चक्रव्यूह कविता सबसे
पहले उसी में प्रकाशित हुई, जो
बाद में उनके पहले कविता-संग्रह की शीर्षनाम-कविता हुई। जगदीश गुप्त ने इस संकलन
को पढ़कर लिखा--‘लगता ऐसा ही है
कि जैसे गहरे में पैठकर उस(कुँवर नारायण) ने जीवन के कण-कण और क्षण-क्षण को जीने का
यत्न किया है और तमाम उलझनों और विषमताओं के बावजूद वह उसे प्यार भी करता
है।...चक्रव्यूह का कवि जीवन की घनीभूत भावनात्मक जटिलता के बीच उसकी विषमताओं का
स्वयं अनुभव करते हुए एक सुस्थिर गम्भीर जीवन-दृष्टि पाने के लिए ईमानदारी के साथ
यत्नशील है।’
तीसरा सप्तक के प्रकाशन से दो वर्ष पूर्व ही उनके इस पहले कविता संग्रह
चक्रव्यूह को पढ़ने के बाद प्रसिद्ध साप्ताहिक द लीडर वीकली में बालकृष्ण राव ने
लिखा--ऐसा कैसे हुआ कि कुँवर
नारायण की तरह लिखने वाले कवि...अर्से तक अपना काव्य संग्रह प्रस्तुत करने के
प्रलोभन से बचा रह पाया?
इस संकलन के बारे में नेमिचन्द्र जैन ने कहा कि ‘कुँवर नारायण की काव्यभूमि निस्सन्देह बड़ी सूक्ष्म
सम्वेदनशीलता की और गहनतम जीवन-सत्यों की है, जिसमें पूरी अनुभूति की प्रामाणिकता आने पर आज की
कविता को नया ही स्तर प्राप्त होने का आश्वसन है।’
गरज यह, कि किसी भी नए
कवि के पहले संकलन से ही सुधी समालोचक और सामान्य पाठकवृन्द यदि इस हद तक आश्वस्त
और जागरूक हो जाते हैं, तो यह
निश्चय ही उस कवि की ऊर्जस्वित तीक्ष्णता का परिचायक है। और इन जानकारियों के आधार
पर यह मानने में कतई कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि ‘तीसरा सप्तक’ में कुँवर नारायण की कविताओं का समावेश निस्सन्देह उस संकलन की गरिमा
बढ़ाता है।
प्रमाणिक सत्य है कि किसी रचनाकार की कृतियों और उनके कृतिकर्मों के
विवेचन में उनकी रचना-दृष्टि, जीवन
के प्रति उनका दृष्टिकोण, और
उनका सामाजिक-नागरिक सरोकार बहुत सहायक होता है। बड़े-बड़े समालोचकों के वक्तव्यों
से पृथक कुँवर नारायण के प्रारम्भिक दिनों के वक्तव्य पर नजर जाती है, जो उन्होंने तीसरा सप्तक में दिया था, तो दंग रह जाना पड़ता है। अपने उस छोटे-से
वक्तव्य में कवि ने गागर में सागर भर दिया है। एक-एक वाक्य-खण्ड विस्तृत व्याख्या
की दरकार रखता है। उनका मानना है कि--
·
साहित्य
जब सीधे जीवन से सम्पर्क छोड़कर वादग्रस्त होने लगता है, तभी उसमें वे तत्त्व उत्पन्न होते हैं, जो उसके स्वाभाविक विकास में बाधक हों।...
·
कलाकार
या वैज्ञानिक के लिए जीवन में कुछ भी अग्राह्य नहीं; उसका क्षेत्र किसी वाद या सिद्धान्त-विशेष का संकुचित
दायरा न होकर सम्पूर्ण मानव-परिस्थिति है जो उसके लिए एक अनिवार्य वातावरण बनाती
है और जिसे उसका जिज्ञासु स्वभाव बराबर सोचता-विचारता रहता है।...
·
मैं
आर्नल्ड के शब्दों में व्यापक अर्थ में कविता को जीवन की आलोचना मानता हूँ।...
·
मुझे वह
एप्रोच पसन्द है जो किसी भी सत्य को स्वयं अन्त न मानकर उसे अगले सत्य तक पहुँचने
का साधन मानता है: जिसके लिए सत्य का अर्थ अपने से बड़े सत्य में विकसित हो सकने की
सक्रियता है, रास्ते का पहाड़ बन
जाने की जड़ता नहीं।...
·
कविता
मेरे लिए कोई भावुकता की हाय-हाय न होकर यथार्थ के प्रति एक प्रौढ़ प्रतिक्रिया की
माार्मिक अभिव्यक्ति है।...मैं कविता के किसी पूर्व-निर्मित आकार को ही अन्त न
मानकर उसकी विकासशील सम्भावनाओं को अधिक महत्त्व देता हूँ।...
सन् 1943 में तार सप्तक
की भूमिका लिखते हुए अज्ञेय ने जिन ‘राहों के अन्वेषी’ कवियों
की प्रयोगशीलता का जिक्र किया था; सन्
1963 आते-आते उन ‘प्रयोगी’ को ‘सन्दर्भ’
हुआ कह दिया और ‘तब की सम्भावना’ को ‘अब
की उपलब्धि’ में परिणत मान लिया।
उस ‘प्रयोग’ शब्द पर कुँवर नारायण ने साफ-साफ कहा कि ‘प्रयोग का महत्त्व किसी वाद से सम्बन्धित करके
समझना गलत है।... प्रयोग वैज्ञानिक दृष्टिकोण का स्वाभाविक उपप्रमेय है--एक ऐतिहासिक आवश्यकता है। मेरी कविताओं में
प्रयोग का आधार मुख्यतः भाषा-शास्त्र और सौन्दर्य-शास्त्र सम्बन्धी प्रश्न रहे
हैं।’
सृजन कर्म के सम्बन्ध में कवि की इन घोषणाओं के साथ, जब कुँवर नारायण की सृजनात्मक यात्र पर नजर
जाती है तो बड़ी स्पष्टता से जीवन और साहित्य के पारस्परिक सम्बन्धों के गुणसूत्रों
के बारे में कवि की समझ और दृष्टिकोण की तस्वीर सामने आ जाती है। ऐसा शायद इसलिए
भी सम्भव हुआ कि कुँवर जी जितने विराट फलक के कवि हैं, उससे भी विराट मानवीय सम्वेदना के इनसान भी हैं।
मनुष्य जाति की मानवीयता और उसकी सृजनशीलता को वे जीवन भर बड़ी उदारता और सकारात्मक
स्वीकृति के साथ परखते रहे हैं। सामाजिक परिदृश्य और आम जनों के जीवन संघर्ष से
गहन अनुराग बनाए रखना और अपने अध्ययन फलक को निरन्तर विराट बनाते रहना उनकी मूल
प्रवृत्ति रही है। यह बात उनके मित्रों, और करीब रहे कई लोगों द्वारा व्यक्त संस्मरणों के साथ-साथ उनकी कविताओं
एवं वक्तव्यों में ध्वनित होती है। उन्होंने साफ-साफ कहा है--अपने को ठीक से समझे बिना हम दूसरों को भी ठीक
से नहीं समझ सकते। अच्छे सर्जनात्मक लेखन की एक बड़ी पहचान यह भी है कि उसके पीछे
किस स्तर का लेखकीय व्यक्तित्व और सोच समझ झलकता है--अपने बारे में भी, और दूसरों के बारे में भी।...
अपने इसी सोच के बूते कुँवर नायारण अपनी कविताई में पूरी तरह आश्वस्त और
आस्थावान दिखते हैं। सामान्य स्थिति में ऐसा देखा जाता है कि लोग खुद को पहचानने
से पूर्व दूसरों को पहचानने लगते हैं। लिहाजा वे अपने आसपास ऐसे आभामण्डल की रचना
कर बैठते हैं, जो कवि को दूसरों
से भिन्न साबित करने में लग जाते हैं। कुँवर नारायण ने इसके विपरीत खुद को पहचानना
शुरू किया, फलस्वरूप उनके इर्द-गिर्द
कोई प्रभाव-क्षेत्र नहीं बना, कोई
आभामण्डल नहीं बना, जो उन्हे
औरों से, अपने समाज, संस्कृति और परिवेश से अलग करे। उन्होंने अपनी
कविताओं की भाषा संरचना तक में खुद को किसी सीमा रेखा में नहीं बाँधा। शब्द प्रयोग
की कोई सीमा निर्धारित नहीं की। उन्हें न तो उर्दू की शब्दावलियों से परहेज रहा,
न संस्कृत से। न केवल बोलचाल की भाषा
में अपने को सीमित किया, न ही
काव्य भाषा के किसी स्थापित भाषा विधान में अपने को बाँधा। उन्हें इस बात की
चिन्ता सदा परेशान करती रही कि दी हुई परिस्थितियों में एक कम शिक्षित समाज में
गम्भीर लेखन की जगह हाशिए पर चली गई है। सत्य है कि शैक्षिक दृष्टि से जो समाज
पिछड़ा हुआ है, उसमें ढेर सारे
गम्भीर विमर्श अप्रासंगिक लग जाएँ तो यह कोई अनहोनी नहीं है। दिन-रात अस्तित्व के
संकटों से जूझता हुआ मनुष्य, अज्ञान
और अशिक्षा के अन्धकार से भरे जंगल में भटकता हुआ नागरिक; अपने खून, प्राण, पसीना खर्च कर
दूसरों के लिए सुरक्षा कवच तैयार करने वाला मजबूर नागरिक अपने समय में ऐसा सुअवसर
कब पाएगा कि वह समाज-व्यवस्था, नागरिक
संस्कृति और राष्ट्रीय अस्मिता के बुनियादी विमर्श का हिस्सा बने। पर कुँवर नारायण
इन परिस्थितियों से कभी हताश नहीं हुए। उन्होंने साफ-साफ देख लिया था कि--जीवन को सीधे-सादे ढंग से प्रस्तुत करने वाली
कविता भी महान कविता हो सकती है, लेकिन
यह यकीन भी इतना बेलोच नहीं होना चाहिए कि उसके रहते एक नजीर अकबरावादी की
सम्भावनाएँ बनें, लेकिन एक गालिब
के लिए मुश्किलें पैदा हो!
दरअसल अपने लम्बे रचनात्मक जीवन काल में कुँवर नारायण ने नागरिक जीवन की
उथल-पुथल के कई रूप देखे हैं। स्वाधीनता पूर्व के नागरिक जीवन की दमित और दयनीय
स्थिति जैसी थी, स्वाधीनता
प्राप्ति के पश्चात उससे बहुत बेहतर नहीं हो पाई। फिरंगियों की बर्बरता से प्रेरणा
लेकर हमारे स्वदेशी नागरिक कुछ नया और सकारात्मक करने के बजाए, उनका नकल करने लगे। हर किसी पर शक करना,
अपनी बुद्धि और निर्णय पर आश्वस्त रहना;
और शासितों की कामनाओं, दुविधाओं से निरपेक्ष रहना, उन पर फब्तियाँ कसना हमारे स्वदेशी नियामकों
का मूल धर्म-सा हो गया। और इन प्रवृत्तियों ने हमारे नागरिक परिवेश को
दुर्गन्धियों से भर दिया। स्वाधीन होकर भी हम स्वाधीन नहीं हो पाए। और इस तरह,
उत्तर उपनिवेशकाल के औपनिवेशिक छाया में
हम जीवन बसर करने लगे। किन्तु कुँवर नारायण इस भयावह परिस्थिति में भी हताश नहीं
हुए। भारत का बौद्धिक समाज, खासकर
हिन्दी पट्टी का बौद्धिक वर्ग सामाजिक-सांस्कृतिक सम्वर्द्धन की चिन्ता छोड़कर आजाद
भारत की शासकीय व्यवस्था में कहीं कोई अपनी जगह आरक्षित करने के फिक्रमन्द हो गए
थे। ऐसे समय में कुछेक रचनाकार ही बच गए थे, जो उन परिस्थितियों में अपने दायित्वों के प्रति
सावधान थे। कुँवर नारायण उनमें अग्रगण्य हैं। उन्होंने उन बौद्धिक वणिकों को खुली
चुनौती देते हुए अपने आत्मसंघर्ष की घोषणा की--
कौन कल तक बन सकेगा कवच मेरा?
युद्ध मेरा मुझे लड़ना
इस महाजीवन सफर में अन्त तक कटिबद्ध:
सिर्फ मेरे ही लिए यह व्यूह घेरा
मुझे हर आघात सहना...
अजीब-सी बात यह है कि अपने को सभ्य और सुसंस्कृत कहने वाले हम आज के लोग,
किसी को गाली देने के लिए ‘जंगली’ और ‘जानवर’
शब्द का इस्तेमाल करते हैं। जरा हम इस
बात पर गौर करें, तो पाते हैं कि
जिस किसी व्यवस्था, वातावरण,
और भूखण्ड में कोई जानवर एक बार चोट खा
जाता है, उधर दुबारा रुख नहीं
करता। कोई त्रसदी सामने आ जाए तो पूरे जंगल के सभी जानवर उसका संज्ञान लेते हैं।
पर मनुष्य ही एक ऐसा समूह है जो हर समय, हर परिस्थिति से उल्टी दिशा में प्रेरणा लेता है। आजादी के बाद भारत के
जिन नागरिकों के चारों ओर अन्धेरा ही अन्धेरा छाया था, और उनकी इस त्रसदी को देखकर जिन बौद्धिक समाज को अपनी
विरासत की भव्यता तक याद नहीं आ रही थी, सबके सब खामोश बैठे थे, उस
समय कुँवर नारायण को चिन्ता हुई कि--
कितना खामोश है मेरा कुछ आसपास
और उन्होंने बहुत गम्भीरता से इच्छा व्यक्त की
कि--
इन मुरदा महलों की मीनारें हिल जाएँ
इन रोगी ख्यालों की सीमाएँ धुल जाएँ
अन्दर से बाहर आ सदियों कि कुण्ठाएँ
बहुत बड़े जीवन की हलचल से मिल जाएँ...
कुँवर नारायण का बचपन फैजाबाद और आयोध्या में बीता। सरयू तट पर बसे इन
दोनों ही शहरों की सांस्कृतिक विरासत से उनकी रचनात्मकता भरी-पूरी है। जब वे
ग्यारह वर्ष के थे, तभी उनकी माँ
टी.बी की बीमारी के कारण चल बसीं। उनकी बहन का देहान्त भी उन्हीं दिनों हुआ। बचपन
के तमाम खट्टे-मीठे अनुभवों ने उन्हें अपने रचनात्मक विवेक और जीवन-दर्शन तय करने
में सहयोग दिया।
सन् 1971 में आत्मजयी
पुस्तक के लिए उन्हें हिन्दुस्तानी अकादेमी पुरस्कार, सन् 1973 में आकारों के आस-पास के लिए प्रेमचन्द पुरस्कार, सन् 1982 में अपने सामने के लिए कुमारान आसान सम्मान, सन् 1995 में कोई दूसरा नहीं के लिए साहित्य अकादेमी सम्मान, व्यास सम्मान, शतदल पुरस्कार, भवानी प्रसाद मिश्र पुरस्कार; सन् 2001 में अखिल भारतीय स्तर का सर्वश्रेष्ठ काव्य सम्मान कबीर सम्मान समेत कई
अन्य पुरस्कारों से उन्हें सम्मानित किया गया है। चक्रव्यूह (1956), परिवेश: हम तुम (1961), अपने सामने (1979), कोई दूसरा नहीं (1993), इन दिनों (2002) जैसे महत्त्वपूर्ण काव्य संकलनों के साथ-साथ पौराणिक
कथाओं के आश्रय और समकालीन व्याख्या के साथ दो कथा-काव्य आत्मजयी (1965) तथा वाजश्रवा के बहाने (2008) प्रकाशित और बहुप्रंशसित हैं। इसके अलावा उनकी
कहानियों का संग्रह आकारों के आस-पास (1973), आलोचनात्मक कृति आज और आज से पहले (1998), मेरे साक्षात्कार (1999) और ढेर अनुवाद प्रकाशित हैं। कई संस्थाओं के
मानद पदों को उन्होंने सुशोभित किया है, कई पत्रिकाओं के सम्पादन परिषद और कई संगठनों के शासी निकाय के मानद सदस्य
रहे हैं। कई देशों की साहित्यिक यात्र और रचना पाठ में भाग लेकर वहाँ हिन्दी भाषा
और भारत देश की गरिमामय उपस्थिति दर्ज की है। हिन्दी में गजानन माधव मुक्तिबोध से
लेकर आज तक की पीढ़ियों के लगभग सभी क्रियाशील रचनाकारों ने उनकी रचनाशीलता की
सराहना की और गरिमामय ढंग से उन्हें रेखांकित किया। हिन्दी में ऐसे गिने-चुने ही
रचनाकार हैं, जिन पर अन्य
पीढ़ियों के आलावा उनकी पीढ़ी के लगभग रचनाधर्मियों ने महत्त्वपूर्ण आलोचनात्मक लेख
लिखे, कुँवर नारायण उनमें से
प्रमुख हैं। गौरतलब है कि उनकी पहली कृति से लेकर बाद तक की सभी कृतियों का भारतीय
साहित्य में पुरजोर स्वागत हुआ। अपनी रचनात्मकता में एक वृहत्तर मानवीय सन्दर्भ का
समावेश करने की जिद ठाने हुए कवि कुँवर नारायण को इस बात की ‘गहरी निराशा होती है...कि अपने लेखकीय जीवन के
पचास वर्षों के बाद भी एक बड़ा प्रबुद्ध पाठक वर्ग तैयार नहीं हो पाया है। हमारी नई
पीढ़ी का बड़ा हिस्सा हमारे साहित्यिक और सांस्कृतिक जीवन से लगभग कटा-सा लगता है।
विदेशी प्रभाव उथले अर्थों में हमारे यहाँ आ रहा है। हमलोगों में से कई अंग्रेजी
साहित्य के विद्यार्थी रहे हैं और अधिकांश विदेशी साहित्य को पढ़ा, और जाना है; लेकिन हमारी भारतीय जड़ें हमेशा मजबूत रहीं। लेकिन आगे
की पीढ़ियों के लिए एक विश्वास भी है कि वे अपने आधारों को बृहत्तर परिप्रेक्ष्य
में समझेगी।’
भारतीय जड़ों के प्रति इस तरह के आश्वस्त कवि की प्रतिबद्धता न केवल उनके
वक्तव्य में बल्कि रचनाशीलता के दौरान उनकी भाषा संरचना में, विषय के साथ रचनात्मक बर्ताव में, और बिम्ब-विधान एवं प्रतीक-योजना तक में दिखता
है। पौराणिक प्रतीकों और मिथकीय बिम्बों से भरी उनकी रचनाएँ इन घोषणाओं का सबूत
है। चक्रव्यूह (1956) उनकी लगभग
सत्तर कविताओं का संकलन है। जाहिर है कि इस संकलन की सारी कविताएँ कवि के उस
मानस-भूमि की उपज होंगी, जो उससे
पूर्व के वर्षों में भारतीय परिवेश को जीते हुए कवि ने अपनी जीवन दृष्टि के आधार
पर तय की होगी। इस समय तक कवि तरुणाई की समस्त फैण्टेसी से निश्चय ही मुक्त हो गए
थे। यूँ, अपनी पीढ़ी के अधिकांश
कवियों की तुलना में कुँवर नारायण सोच के स्तर पर समय से पहले ही काफी गम्भीर हो
चुके थे। भारतीय स्वाधीनता के भी दशक पूरे होने को थे। भारत के राजनीतिक तिकड़मी और
बौद्धिक वणिक लोग एक साझी संस्कृति गढ़कर आजादी का जश्न मनाकर निश्चिन्त हो चुके
थे। साहित्यिक क्रियाशीलता का छद्म, बौद्धिकता का पाखण्ड, और
प्रतिबद्धता का ढोंग कुँवर नारायण जैसे समकालीन रचनाकारों के समक्ष स्पष्ट हो चुका
था। पुरजोर ध्वनि के साथ कहा जाता है कि हर समय की जनक्रान्ति का अगुआ समाज का
मध्यवर्गीय बौद्धिक वर्ग होता है। पर आजाद भारत के पहले दशक के बुद्धिजीवियों की
लोलुपता और व्याकुलता देखकर कोई भी सम्वेदनशील प्राणी व्यथा से भर सकता था। ऐसे
माहौल में यदि कुँवर नारायण ने एक कवि के रूप में खुद को अभिमन्यु माना और अपने
देश के पैतृक युद्ध में टूटे हुए पहिए के साथ घोषणा की कि--
मैं नवागत वह अजित अभिमन्यु हूँ
प्रारब्ध जिसका गर्भ ही से हो चुका निश्चित
परिचित
अपरिचित जिन्दगी के व्यूह में फेंका हुआ
उन्माद
बँधी पंक्तियों को तोड़
क्रमशः लक्ष्य तक बढ़ता हुआ जयनाद...
तो यह वाजिब ही है। बल्कि दी हुई परिस्थितियों में किसी सम्वेदनशील कवि के
पास खुद को सुरक्षित, सम्बद्ध,
और तल्लीन बनाए रखने के लिए आत्मबल की
घोषणा के अलावा और कोई रास्ता शेष भी नहीं रह जाता है। जहाँ आजाद होकर भी भारतीय
नागरिक ठगा हुआ-सा मुँह देखता रहे, जन-प्रतिनिधि
अपनी गरिमा-महिमा साबित करने लगे और देश भर की जनता के लिए अनाज-पानी के आपूरक
बनने की घोषणा करने लगे; बौद्धिक
वर्ग इस तन्त्रा में अपने लिए कोई सुरक्षित और बेहतर जगह बनाने लगे और साहित्य की
दुनिया में खुद को समय का देवता घोषित करने में व्याकुलता से तल्लीन हो जाए;
वहाँ कोई ईमानदार रचनाकार अपने को
अभिमन्यु के अलावा और मान भी क्या सकेगा? निश्चय ही उस दौर की स्थिति किसी ईमानदार रचनाकर्मी को हतप्रभ करने लायक
थी। पूरा का पूरा परिदृश्य इस गहरे अवसाद से इस तरह भरा था कि प्रचलित भाषा-रूप
उसे अभिव्यक्त करने में अक्षम हो रहा था। राजनीतिक और प्रशासनिक तिलिस्म एवं
समाज-व्यवस्था के नियायकों का आचरण पूरी तरह मानव-मूल्य, और नैतिक-मूल्य के प्रतिकूल था। ऐसे में अधिकांश
ईमानदार रचनाकारों की संघर्ष-पद्धति मानसिक तौर पर वैयक्तिक हो ही जाएगी। अकारण
नहीं है कि आज के समय में भी सामाजिक विषमताओं, विद्रूपताओं से संघर्ष करता हुआ चेतना-सम्पन्न रचनाकार
खुद को अभिमन्यु-सा निहत्था महसूस करने लगता है। हिन्दी में इस पौराणिक-रूपक का
उपयोग अपने-अपने तरीकों से कई रचनाकारों ने किया है। आलोचक इस बात की झाल बजाते
रहें कि किसी कवि के लिए यह स्थिति ‘मानसिक संघर्ष का वैयक्तिक रूप’ है, ‘पौरणिक रूपक को दूर
तक निबाहने...का आग्रह कविता की मूल सम्वेदना से पाठक के ध्यान को पृथक कर देता
है।’ पर सचाई है कि यही
वैयक्तिकता उस रचनाकार की आत्मशक्ति को पुष्ट करती है, जो उसे समाज से लुप्त होती नैतिकता और नियन्ताओें की
स्वार्थपरता के विरुद्ध संघर्षरत रहने की ऊर्जा देती है। वस्तुतः कुँवर नारायण की
कविताएँ बर्फ से ढके सर्द माहौल में भी जीवन-संघर्ष की ऊष्मा बचाए रखने की प्रेरणा
देती हैं। जहाँ तक पौराणिक रूपकों और मिथकीय बिम्ब-प्रतीकों के सहारे अभिप्रेत को
अभिव्यक्त करने का सवाल है, उसे
इस तरह से देखना श्रेयस्कर होगा कि भारतीय मानस में पौराणिक आख्यान ने इस सघनता से
अपनी जड़ें जमा रखी है, और भारतीय
भाषाओं में पारम्परिक गाथाओं का संस्कार इस तरह रचा-बसा है कि वह हर समय की
सामाजिक विद्रूपताओं को जीवन्त कर देता है। इन अर्थों में कुँवर नारायण की कविताएँ
पाठकों के ध्यान को पृथक नहीं करती, बल्कि उसे और अधिक आकृष्ट करती हैं। वस्तुतः पौरणिक प्रतीक ही वह मूल कारण
है जो कुँवर नारायण की रचनाशीलता के भारतीय सरोकारों को रेखांकित करता हुआ उसे
अधिक प्रभावकारी बनाता है, और
जनसम्वेदना को खरोंचकर उद्बुद्ध करता है। ‘पैतृक युद्ध’ और ‘विरासत’ जैसी इस संकलन की कई कविताएँ इन बातों का प्रमाण है।
‘अन्धेरे के किसी संकेत को पहचानता-सा’ या ‘उजागर
इस क्षितिज से उस क्षितिज तक/जागता-सा’ या ‘एक क्षण की
सिद्धि/प्रामाणिक, परिष्कृत
चेतना से/युगों-युगों को माँजता-सा’ जैसी कवि की पंक्तियाँ उनकी जीवन-दृष्टि को रेखांकित करती हैं कि कवि को
अन्धेरे का संकेत पहचानने, क्षितिज
तक जाने और उसे उजागर देखने, जागते
रहने, प्रामाणिक और परिष्कृत
चेतना से क्षण भर की सिद्धि को माँजने की आकांक्षा पूरी तरह भरे रहती है। निश्चय
ही ऐसे शब्द संस्कार कवि के मानवीय सरोकार और निरन्तर धनात्मक सोच का सूचक है।
परिवेश: हम तुम (1961) संग्रह
की कविताओं में कवि का क्रोध थोड़ा कम हुआ है। चक्रव्यूह की कविताओं में जिस तरह व्यंग्य,
धिक्कार और उत्साह भरी घोषणाएँ, स्थापनाएँ दी गईं; चतुर्दिक व्याप्त स्वार्थपरता और मानव-मूल्य के प्रति
निरपेक्षता देखकर कवि जिस मानसिक तनाव, आन्तरिक द्वन्द्व में चेतना की फुफकार सुन रहे थे; वस्तुतः वह उस समय की माँग थी। अपनी तमाम आग और ताप को
खोकर जब पूरी बौद्धिक दुनिया राख का ढेर बन जाने को तत्पर थी, उसमें अपनी चिनगारी का तेज और भविष्य की
परिणति को घोषित करना वाजिब ही था। इस कारण ही शायद चक्रव्यूह की कविताओं में उन
विडम्बनाओं से जूझते रहने और निरन्तर किसी सुखद परिस्थिति तक पहुँच पाने की
कामनाएँ भरी हुई हैं। जबकि परिवेश: हम तुम में कवि का क्रोध कम और प्रौढ़ता अधिक
दिखती है।
दरअसल इस समय के आते-आते स्थिति थोड़ी और भ्रष्ट हो गई थी। जनता व्याकुल,
अवसाद की काली चादर ओढ़े किसी अगली
त्रसदी की प्रतीक्षा करती जा रही थी; शासक, सामाजिक
कार्यकत्र्ता और जन-प्रतिनिधि स्व-निर्मित पाखण्ड को मनवांछित परिणति तक पहुँचाने
में तल्लीन थे; और शिक्षक
पत्रकार, रचनाकार, एवं अन्य बौद्धिक समुदाय अपने महत्त्व की
मीनार पर अगली ईंट जोड़ते जाने में बेहाल थे। ऐसी परिस्थिति में कुँवर नारायण जैसे
थोड़े-से ईमानदार और निष्ठावान रचनाकारों का बचा रह जाना; भीड़ में शामिल न होना पर्याप्त सुखकर है। पर इतने
झंझावातों को झेलते हुए थक जाना भी गैरमुनासिब नहीं। इस परिस्थिति को देखते हुए
गजानन माधव मुक्तिबोध की पंक्तियाँ सतर्क और सार्थक लगती हैं--‘महत्त्व की बात यह है आज जबकि साधारणतः लेखक
और कवि इसी व्यवहार क्षेत्र में कार्य कुशल होकर अपने को अधिकाधिक सफल और
प्रभावशाली बनाने के प्रयत्न में लीन रहते हैं और इसके लिए बिक जाते हैं, कुँवर नारायण ऐसा कवि है जो उसी व्यवहार
क्षेत्र के विरुद्ध तीव्र सम्वेदनात्मक प्रतिक्रियाएँ करता हुआ, पीड़ित अन्तरात्मा के स्वर को उभारता है। उसे
वास्तविक मानवीय सार्थकता की तलाश है।’
वैसे यह कोई जरूरी भी नहीं कि कोई रचनाकार अपने पूरे रचनात्मक सन्धान में
एक ही लकीर को पीटता रहे। जिन्दगी के अनुभव बदलते रहते हैं, परिणतियाँ नई निष्पत्तियों का सामना कराती रहती हैं।
इसलिए फैसलों का बदलता रहना वाजिब ही है। महत्त्वपूर्ण यह है कि उस पूरे दौर में
कवि की जीवन-दृष्टि क्या है, जीवन-मूल्य
की वस्तुनिष्ठता को देखने का दृष्टिकोण क्या है। कहना पड़ेगा कि कुँवर नारायण का यह
रचनात्मक दृष्टिकोण बहुत ही ठोस, सुविचारित,
और मानव-जीवन की मूल्यवत्ता एवं आदर्श
को, कवि की प्रतिबद्धता को
रेखांकित करता है। कवि देख रहे हैं कि--
या तो अ ब स की तरह बेसबब जीना है
या तो सुकरात की तरह जहर पीना है...
---
भूख से जैसे बिलखता हुआ बालक
सिरहाने रखे दीये की रोशनी में
अभी थककर सो गया...
---
सारी परिस्थिति की एक और भी सूरत थी
शायद उस आदमी को मदद की जरूरत थी...
इन तमाम गैरमानवीय परिस्थिति में कवि की पंक्तियाँ उचित जान पड़ती हैं कि
इस दौड़ में इतना थक चुका हूँ
कि अब केवल आराम चाहता हूँ...
पर इस आराम में भी कवि निसपन्द और निष्क्रिय नहीं हैं, वे चाहते हैं कि
चुपचाप एक बन्द कमरे में पड़े-पड़े
बिस्तर से लेकर तारों तक धड़कता रहूँ
इस नासमझ, दयनीय जिन्दगी की
अनधिकार कल्पनाओं में...
कवि घोषणा करते हैं कि
विश्वास रखो
मैं तुम्हारे साथ हूँ
उस तम विवश उम्मीद में
जो रोशनी को प्यार करती हैं...
वे कहते हैं
मैं समूह से विच्छन्न हूँ
क्योंकि कुछ भिन्न हूँ...
वे उस समूह से पूछते हैं कि
क्यों चाहते हो समर्पित कर दूँ तुम्हें
यह मुक्ति भी
जो तुम नहीं हो...
वे निवेदन करते हैं
सीले, व्यथावादी अक्षरों के बीच
ताजी धूप आने दो:
इन्हें लाखों दिलों की खुशी में जी भर नहाने
दो
तमाम त्रसदी के बावजूद कवि अशक्य होने के बजाय अपने हासिल पर आश्वस्त होते
हैं--
डूब कर जो कुछ उबारा
जिन्दगी है
टूटकर जो कुछ सँवारा
जिन्दगी है...
और अपने जिस लक्ष्य के लिए कवि कृत संकल्प हैं, तथा जिस भावी उपलब्धि पर विश्वस्त हैं, उसकी घोष्णा करते हैं--
आज नहीं
वर्षों बाद शायद पा सकूँ
वह विशेष सम्वेदना जिसमें उचित हूँ...
वस्तुतः किसी भी रचनाकार का मूल्यांकन उनकी समग्र सोच-प्रक्रिया और जीवन
के प्रति रचनात्मक दृष्टिकोण के आधार पर होना चाहिए। कोई रचनाकार अपनी रचनाओं के
शब्दों, वाक्यों, वर्णों, पदों के प्रयोग और उनके बीच छिपे निहितार्थ से भी बहुत
कुछ कहता है। इस संकलन की कविताएँ जिस सामाजिक परिवेश में लिखी गई हैं, उस दौर के अन्य कविता परिदृश्य को भी देखने की
जरूरत है। हिन्दी ही नहीं, अन्य
भारतीय भाषाओं में भी वह ऐसा समय था जो गम्भीरता से रचनाशील लोगों के मन में एक
विचित्र तरह का नकार भाव भरता जा रहा था, जो आगे चलकर भूखी पीढ़ी, आहत
पीढ़ी और अकविता आन्दोलन में तब्दील हुई। पर कुँवर नारायण के कवि मन पर इन
परिस्थितियों ने जो प्रभाव डाला था, उसका असर यूँ प्रकट हुआ कि ‘निरर्थक जीने’ और ‘सुकरात की तरह जहर पीने’ की स्थिति में भी विकल्प चुनने की बात सामने
आई। किन्तु जहर पीने से पहले सुकरात की तरह ‘जीने’ और
‘जीवन संग्राम’ में डटे रहने की बात कवि भूल न सके। वर्षों
बाद ‘उचित’ पा लेने की सम्भावना से वे निराश नहीं हुए;
टूटकर भी जिन्दगी को सँवारते गए;
अवांछित आचरण में लिप्त समूह को
धिक्कारते रहे; अन्धकार के पराभव
में फँसी, लेकिन रोशनी से प्यार
करने वाली उम्मीद में साथ रहने का आश्वासन देते गए; लाखों दिलों की खुशी में ताजा धूप के आने और नहाने का
अनुभव करते गए...ये सारे परिदृश्य, जीवन
के प्रति कवि के दृष्टिकोण को रेखांकित करते हैं और अपने रचना-सन्धान में निरन्तर
प्रौढ़ होते जाने तथा अपने ही बनाए फलक को लगातार विस्तार देते जाने के संकेत देते
हैं। इस संकलन की कविताओं के लिए कवि की घोषणा बहुत सुचिन्तित है कि यहाँ ‘बाहरी जीवन को स्नेह और समझदारी से छूने का
प्रयत्न किया है, कभी गम्भीरता
से कभी छोटे-छोटे खिलवाड़ी वाक्-चित्रों द्वारा।’ प्रकृति के मानवीकरण का बहुत ही अप्रतिम और ममत्व भरा
उदाहरण इस संकलन में दिखता है। प्रकृति के मानवीकरण का यह स्वरूप जिन्हें छायावाद
की याद दिलाता है, उन्हें इस
नजरिए को अपनाना होगा कि वे इसे कवि के जुड़ाव के रूप में देखें और इस बात पर अपने
को राजी करें कि जड़ों से कटकर कोई भी इनसान विकास की कोपलें नहीं खिला सकता। ‘प्यार के सौजन्य से’, ‘रोशनी’, ‘एक स्थापना और समझौता’, ‘अजामिल
मुक्ति’, ‘सबेरे सबेरे’,
‘एक मूड’, ‘कार्निस पर’, ‘कमरे में धूप’ आदि इस
संकलन की महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं।
कुँवर नारायण की अठाइस शृंखलाबद्ध कविताओं के संकलन आत्मजयी(1965) है, में कठोपनिषद के पात्र और ऋषि वाजश्रवा के पुत्र नचिकेता के आख्यान की
प्रस्तुति हुई है। हिन्दी में मूल्यांकन की जो पद्धति वस्तुतः इन दिनों विकसित,
पल्लवित, पुष्पित हुई है; उसकी बुनियाद तारसप्तक के प्रकाशन के दिनों में ही
विकसित हो गई थी। खेमेबाजी जैसे शब्दों का प्रचलन उसी प्रवृत्ति के लिए हुआ है,
पर मेरी समझ से इस प्रवृत्ति को
अखाडे़बाजी कहना कुछ श्रेयस्कर होगा। भारतीय परिवेश में दो ऐसी विद्याएँ अभी भी
बची हुई हैं, जिसमें गुरु का
कद्र होता है, वे हैं पहलवानी और
संगीत। पर इन दिनों में एक भयानक गड़बड़ी है--और वह है अहमन्यता; अर्थात् इस संसार में मुझसे बड़ा पहलवान, या संगीतज्ञ कोई है नहीं; हाँ, मेरी तुलना में एक व्यक्ति थोड़ा बीस पड़ते हैं, वे हैं मेरे गुरुजी। किन्तु संगीत की दुनिया के लोग
ऐसा केवल सोचते हैं, सार्वजनिक
रूप से अभद्रता पर नहीं उतरते। ऐसा सिर्फ पहलवानी में ही होता है कि लंगोट धारण कर
अखाड़े पर उतरते ही लोग मदान्ध हो जाते हैं, अपने गुरु के अलावा उन्हें कोई चेहरा याद नहीं रहता,
ऐसा अब साहित्य में भी होने लगा है।
उन्हें अपने अखाड़े के लेखकों के अलावा कोई और अच्छे नहीं लगते। जिन दिनों आत्मजयी
प्रकाशित हुआ, इस पुस्तक के
बहाने कवि कुँवर नारायण पर कई लेख लिखे गए, पर्याप्त चर्चा हुई, लोग अपने-अपने चश्मे से उनकी कविताओं का मूल्यांकन
करने लगे। अब औरों की बात तो क्या करंे, नन्द दुलारे वाजपेयी जैसे सचर और सावधान आलोचक तक ने (धर्मयुग,
6-20, अगस्त 1970 में) लिखा कि ‘इसे काव्य की अपेक्षा कहानी का रूप अधिक दिया गया है,
क्योंकि विभिन्न अध्यायों में आख्यान के
विविध पक्ष समय के पल पर अंकित किए गए हैं। यह कथा या आख्यान का शिल्प है, वह भी कुछ पुराना। काव्य-शिल्प इसकी अपेक्षा
नहीं रखता। यदि कुँवर नारायण ने इस काव्य का आरम्भ नचिकेता की आत्महत्या के
प्रयत्न से किया होता और आत्मबोध की उपलब्धि के साथ नचिकेता के चरित्र को दिखाया
होता, तो शिल्प की दृष्टि से ही
नहीं, कदाचित् वस्तु-उपस्थापना
की दृष्टि से भी अधिक सुन्दर और मूल्यवान वस्तु प्रस्तुत की जा सकती थी।’ मुझे लगता है कि किसी रचनाकार के मूल्यांकन का
इस तरह का कोई आधार बनाना मुनासिब नहीं है। यदि इसी तरह का आधार बनाकर कुँवर
नारायण कहें कि आलोचक ने अपना चश्मा लगाकर यह किताब पढ़ ली, वे जरा रससिद्ध साहित्यज्ञ का चश्मा लगाकर, अथवा मेरा चश्मा लगाकर इस संकलन को पढ़ें,
तो वे कैसा महसूस करेंगे? भारतीय साहित्य में कथा-काव्य की प्राचीन
विरासत है, जो आदिकाव्य ‘रामायण’ से अब तक चली आ रही है, और पर्याप्त प्रशंसित-पल्लवित है, फिर आत्मजयी की कथात्मकता पर अरुचि का क्या
कारण हो सकता है? सचाई है कि
आत्मजयी काव्य पुस्तक कठोपनिषद के आख्यान, वाजश्रवा-नचिकेता-यम सम्वाद की पुनप्र्रस्तुति नहीं है, बल्कि उस आख्यान का समकालीन संस्करण है।
आत्मजयी का नचिकेता, कठोपनिषद के
नचिकेता की तरह सशरीर यमलोक नहीं जाता, आत्महत्या करने की चेष्टा करता है और बचा लिया जाता है, और मूच्र्छा में उसे स्वप्न आता है कि यम के
साथ उसे साक्षात्कार हुआ। अब इस प्रसंग में चिकित्सा विज्ञान का यथार्थ ढूँढा जाने
लगता है कि मूच्र्छा की अवस्था में मनुष्य स्वप्न नहीं देख सकता। यहाँ आकर मेरी
समझ से आलोचना-कर्म की साहित्यिक सम्वेदना खत्म हो जा रही है। साहित्य के उद्देश्य
की सीमा खण्डित हो जाती है। किसी आलोचक को किसी साहित्यिक कृति का मूल्यांकन करते
हुए कितना साहित्यिक रहना चाहिए और कितना वैज्ञानिक--यह बात उनकी समझ या कहिए कि जीवन-दृष्टि के आधार से तय
होती है। साहित्य का मूल्यांकन करते हुए कोई आलोचक यदि जीव विज्ञान का सहारा लेना
शुरू कर दें तो उन्हें सारे ही पौराणिक, मिथकीय और लोक-साहित्य को खारिज करना पड़ेगा। वाजश्रवा-नचिकेता-यम सम्वाद
में आत्मजयी के कवि कुँवर नारायण की मंशा सिर्फ नई-पुरानी पीढ़ी के सोच का संघर्ष
दिखाना था। मूलकथा के जिन सन्दर्भों को आधुनिक सन्दर्भ में देखने का उद्यम दिखाया
गया है। उनका जिक्र उन्होंने भूमिका में स्पष्ट रूप से कर दिया है, इसलिए यह भी नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने
मिथक या पौराणिक रूपकों को विरूपित किया है। यह भी नहीं दिखता कि आधुनिकता की होड़
में कवि ने पुरातन को सिरे से खारिज कर दिया है। कवि का उद्देश्य सिर्फ इस बात को
रेखांकित करता है कि नई पीढ़ी को नचिकेता की तरह निर्भीक, तार्किक, दृढ़, दुर्दम्य मुमुक्षु
और नैतिक रहना चाहिए। यूरोप से उठी भोग-विलास और निर्लजता की आँधी का जो प्रभाव
दुनिया भर के सामाजिक जीवन पर पड़ रहा था, आत्मजयी की काव्य-दृष्टि उस दिग्भ्रम को खण्डित करने का हथियार साबित हुई।
इस काव्य के जरिए और नचिकेता के आत्म-सन्धान के सहारे कवि कम से कम उस काल-प्रवाह
के दौरान नई पीढ़ी को यह सन्देश अवश्य देते हैं कि यदि यज्ञ-कर्म के दौरान किए जा
रहे दान-पुण्य के द्वारा पिता भी इस तरह का पाखण्ड कर रहे हों, जो समाज सम्मत नहीं है, और खुद को एक अन्धविश्वास और पाखण्ड के कुएँ में डाल
रहे हैं, तो शालीनतापूर्वक डटकर
उनका विरोध किया जाए और यदि यम वरदान माँगने को कहें, तो पिता के क्रोध-शमन का वर भी माँग लिया जाए। वस्तुतः
इस कृति के मूल्यांकन के समय आलोचक को यह भी सम्वेदना रखने की आवश्यकता थी कि जिस
दौर में हिन्दी कविता में तरह-तरह के आन्दोलनों की आँधी चल पड़ी थी, उस दौर में उन्हीं आन्दोलनों के मैदान से
निकला एक ताजा-तरीन कवि अपने समय को एक पौराणिक रूपक में किस तरह देख रहा है।
वस्तुतः अस्तित्ववाद से सीधे मुठभेड़ करते हुए कुँवर नारायण का काव्य-पुरुष किस तरह
आत्मजयी होता है, वह इन
पंक्तियों में साफ-साफ परिलक्षित है--
यदि पीना ही हो जहर
उसे दो तरह पिया जा सकता है--
डरते-डरते
मरने से पहले मरकर!
या उसी चरम भय से
कोई अन्धा बल पा या
जीवन से भी ऊपर उठकर...!
ध्यातव्य है कि यह समय हिन्दी कविता में निषेधात्मक ध्वनियों के तुमुल
कोलाहल से भरा हुआ था। पर उस कोलाहल में भी कुँवर नारायण पहाड़ की तरह डटे रहे,
उनकी दृढ़ता को किसी तरह की कोई आँच नहीं
आई।
अपने सामने (1979) उनकी
इकहत्तर कविताओं का संकलन है। यह संकलन काफी अन्तराल के बाद आया। तीन खण्डों में
विभक्त इस संकलन की समस्त कविताएँ कवि की असन्तुष्ट चेतना की उग्रता और
प्रश्नाकुलता को; समाज और शासन
व्यवस्था की विडम्बनाओं से डटकर मुकाबला करने की आत्मशक्ति को उजागर करती हैं।
विदित है कि इस संकलन के प्रकाशन से पूर्व के सम्पूर्ण परिदृश्य ने भारतीय नागरिक
के जीवन को किसी भी तरह सहज नहीं रहने दिया था। राजनीतिक उथल-पुथल, जनहित से परांग्मुख सामाजिक आचार संहिता,
जन-जन के शंकालु स्वभाव, संशयों से भरे हुए नागरिक परिदृश्य, सही पहल को हमेशा गलत साबित करते जाने की नीति,
शासन व्यवस्था की क्रूरता, समाज-व्यवस्था की हृदयहीनता, सम्बन्धों का पाखण्ड, जनाक्रोश की लहर, राजनीतिक दलों में आपसी फूट, बँटवारा और विभाजित दलों के नेतृत्व के मसले पर
वैमनस्य, सीमा संघर्ष का सिलसिला,
राजनीतिक परिदृश्य में आन्तरिक और बाह्य
संकट...ये तमाम बातें इन्हीं दौरान हुईं। जाहिर है कि कुँवर नारायण की कविताओं ने
इन्हें गम्भीरता से रेखांकित किया। ये कविताएँ अपने पूरे दौर की इसी सिलसिलेवार
दुर्घटनाओं का ब्यौरा प्रस्तुत करती हैं, जिसमें कवि सदा प्रश्नाकुलता और आत्म-मन्थन के साथ सावधानी से डटे हुए हैं,
और नृशंसता, निरंकुशता, अमानवीयता, पाखण्डपूर्ण
मैत्री, धूत्र्तता और संशय के
पर्वतों से टकराकर थकी हुई सामान्य जनता को, न हारने की, डटे रहने की, प्रेरणा
देते हैं--
जब तुम अपने मस्तक पर बर्फ का पहला तूफान
झेलोगे और काँपोगे नहीं--
तब तुम पाओगे कि कोई फर्क नहीं
सब कुछ जीत लेने में
और अन्त तक हिम्मत न हारने में...
अपने समय की नृशंसताओं, बर्बरताओं
को रेखांकित करते हुए कवि ने बार-बार अपने इतिहास की नृशंसताओं को भी याद किया है;
उन प्रतीक-प्रसंगों के सहारे, स्थिति-छवि कुछ बेहतर और प्रभावी हो पाई हैं।
इतिहास की उन नृशंसताओं, बर्बरताओं,
निरंकुशताओं के बरक्श समकालीन आत्याचार,
अहंकार, दुर्भावना, षड्यन्त्रा, नीचता...कहीं
अधिक नग्न होकर सामने आई हैं। ‘भागते
हुए’, ‘आज का जमाना’, ‘फौजी तैयारी’, ‘दिल्ली की तरफ’, ‘इब्नेबतूता’, ‘मस्तक विहीन बुद्ध प्रतिमा’, ‘कुतुबमीनार’ आदि कविताओं
को इस नजर से प्रमुखता से देखा जा सकता है। इतिहास-पुराण के रूपकों के सहारे अपना
मन्तव्य स्पष्टता से प्रस्तुत करने में कुँवर नारायण की ख्याति तो है ही, वे इस बात के लिए भी ख्यात हैं कि कविताओं में
कवि का क्रोध कभी बम-पिस्तौल की भाषा में नहीं, बल्कि व्यंग्य की तीक्ष्ण धार के साथ कविता का संस्कार
बन जाता है, तेज जहर की तरह
पूर्ण त्वरा से फैलकर आहत करता है। मानवीय रिश्तों के प्रति कवि का आग्रह यहाँ
बहुत स्पष्टता से सामने आता है, जब
कवि कहते हैं--
मुझे एक मनुष्य की तरह पढ़ो, देखो और समझो
ताकि हमारे बीच एक सहज और खुला रिश्ता बन सके
माँद और जोखिम का रिशता नहीं...
कवि का यह अनुभव उस दौर के नागरिक परिवेश में समाए हुए संशय को रेखांकित
करता है। वे इस बात से चिन्तित हो उठते हैं कि--
क्यों खोजना पड़ता है मिथकों में, वक्रोक्तियों में, श्लेषों में, रूपकों में
झूठ की उलटी तरफ क्यों इतना रास्ता चलना पड़ता
है
एक साधारण सचाई तक भी पहुँच पाने के लिए...
यह चित्र पूरी समाज-व्यवस्था के आचार-विचार की उस प्रक्रिया में निर्मित
हुई, जिसमें शासन-पद्धति की
निरंकुशता, थोड़े से लाभ-लोभ के
कारण समस्त मानवीय सम्बन्धों की हत्या करते हुए लोगों का जी तनिक भी नहीं घबराया।
पाखण्ड और विश्वासघात का हाल ऐसा बन गया, हर परिस्थिति को अपने दुष्कर्मों के पक्ष में कर लेने की पद्धति इतनी
कारगर हो गई, कि कवि को कहना पड़ा--
उसके दोनों हाथ उसके पीछे बाँध दो
और एक बेहतरीन झूठ उसकी आँखों पर
शायद वह कुछ नहीं कहेगा...
वह छटपटाएगा
लेकिन छटपटाना कोई तर्क नहीं...
यह ‘छटपटाना कोई तर्क
नहीं’ कहकर कवि ने कितने बड़े पाठ
को रेखांकित किया है, सामथ्र्यवानों
और सामथ्र्यहीनों के बीच चल रहे दो मानवीय भावनाओं के संघर्ष को कितनी सूक्ष्मता
से रेखांकित किया है--यह गौर
करने लायक है। इस संकलन की तमाम कविताएँ अपने शीर्षक के अनुकूल, कवि और नागरिक को, कभी खुद के, तो कभी नागरिक परिदृश्य और समाज व्यवस्था के, ‘अपने सामने’ खड़ा करती हैं। ये कविताएँ वस्तुतः हमारी आँखों में ऊँगली डालकर समकालीन
परिदृश्य की वास्तविकता से परिचय कराती हैं।
इस संकलन के लगभग चौदह वर्ष बाद कुँवर नारायण की सौ कविताओं का संकलन कोई
दूसरा नहीं (1993) प्रकाशित हुआ।
सम्भव है कि इसमें उनकी पहले की लिखी कुछ कविताएँ भी शामिल हों, पर इन कविताओं को सन् 1979-1993 के दौर के नागरिक परिदृश्य, शासन-पद्धति, और समाज-व्यवस्था के साथ मिलाकर देखें तो बड़ी स्पष्टता
से चित्र सामने आते हैं। यह सम्पूर्ण परिदृश्य भारतीय जनजीवन की त्रसदियों से भरा
रहा है। आपातकाल के परिणाम स्वरूप जो विद्रोह की भावना जन-जन में उठी थी और आम
चुनाव के बाद जो नई व्यवस्था भारतीय नागरिक के सिर पर आई, उसमें भारत के नागरिक, खासकर युवा वर्ग, अपने ही किए पर पछताने की स्थिति में आ गए। शायद जनता
ने सोचा था कि सड़ाँध को भी उधेसने से किसी बेहतरी का संकेत मिले, पर हुआ इसके विपरीत। चुनाव-दर-चुनाव, एक सिलसिला चल पड़ा। राजनीतिक दल के लोग अपने
तमाम बचे-खुचे संस्कारों को त्यागकर जन निरपेक्ष हो गए। जन प्रतिनिधियों की नजर
में नागरिक अभिलाषा और जनहित का कोई कद्र नहीं रह गया। राजनीतिक अनस्थिरता के कारण
मँहगाई सिर चढ़कर बोलने लगी। अपराध का राजनीतिकरण और राजनीति का अपराधीकरण आम
शिष्टाचार की तरह होने लगा। क्रान्ति में धोखा खाए नौजवान पिछले दरवाजे की तलाश
में जुट गए। साम्प्रदायिक दंगा, मन्दिर
मस्जिद विवाद को निरन्तर अधिक घातक बनाने की कोशिश, जातीय द्रोह, धार्मिक उन्माद, क्षेत्रीय
समस्याएँ, क्षेत्रवाद का प्रेत
पूरे देश में ताण्डव पर उतर आया। आसाम और पंजाब की स्थिति बेकाबू होने लगीं। बाढ़,
तूफान, आँधी, अकाल,
सूखा आदि के कारण किसान समुदाय की शामत
आ गई। घूसखोरी और बेरोजगारी इस तरह बढ़ी कि सारे के सारे मानव-मूल्य उस आग में जलकर
स्वाहा हो गए। इन्दिरा गाँधी और राजीव गाँधी की नृशंस हत्या ने प्रमाणित कर दिया
कि ईष्र्या, द्वेष और प्रतिशोध
की आग में झुलसकर मनुष्य पूरी तरह राक्षस बन गया है। राजनीति से प्रेरित हत्याओं,
अपहरण, फिरौती, लूट-पाट का सिलसिला चल पड़ा। कवि कुँवर नारायण की रचनात्मक सम्वेदना को इन
परिस्थितियों ने बड़ी बेरहमी से आहत किया। एक ही साँस में उन्होंने मँहगाई और मानव
मूल्य के Ðास को रेखांकित किया--
आज जबकि हर चीज का दाम सिर्फ बढ़ने की ओर है
आदमी की कीमत में भारी छूट का शोर है...
इन तमाम परिस्थितियों में कहीं बचाव का एक रास्ता ढूँढ पाने, अपने लिए कोई सुरक्षित समय और जगह ढूँढ लेने
को बेचैन नागरिक के प्रतिनिधि के रूप में व्याकुल कवि कुँवर नारायण कहते हैं--
आज मैं शब्द नहीं
किसी ऐसे विश्वास की खोज में हूँ
जिसे आदमी में पा सकूँ...
विडम्बनाओं से भरी शासन व्यवस्था पर व्यंग्य का तीखा प्रहार ‘सफलता की कुंजी’ कविता में रोमांचक है--
उस वक्त वहाँ वे दो ही थे
लेकिन जब गोलियाँ चली
मारा गया एक तीसरा जो वहाँ नहीं
चाय की दुकान पर था...
पकड़ा गया एक चौथा
जो चाय की दुकान पर भी नहीं
अपने मकान पर था, उसकी गवाही पर
रगड़ा गया एक पाँचवाँ जिसे किसी छठे ने
फँसवा दिया था--सातवें की शिनाख्त पर
मुकदमा जिस आठवें पर चला, उसके फलस्वरूप
सजा नवें को हुई
और जो दसवाँ बिल्कुल साफ छुटकर
एक ग्यारहवें के सामने गिड़गिड़ाने लगा वह
उसकी मार्फत
एक नई सफलता तक पहुँचने की कुँजी को
ऊँगलियों पर नचाने लगा...
वस्तुतः सफलता के इस तिलिस्म में इस पूरे दौर की अन्तःप्रक्रिया रेखांकित
है। इस पूरी प्रक्रिया का तन्त्राजाल इस तरह गढ़ा जाता है कि दोषी की कौन कहे;
कोई निर्दोष भी अपने को निर्दोष करार
दिए जाने से सुकून की साँसें लेता है। जहाँ की न्याय व्यवस्था इतनी जन-निरपेक्ष हो
कि--
जिन्हें सुनाई गई
मौत की सजा
कब के मर चुके थे...
और
जिन्हें रिहाई दी गई
पूरी सजा काट चुके थे...
जैसी स्थिति हो, वहाँ
कवि हिसाब लगाकर देखते हैं--
...एक दिन जब
कुल जमा पूँजी में से
घटाकर देखा पिछला सब रहा सहा
तो ढूँढे नहीं मिल रहा था
वह ख्वाब जो लगा था जिन्दगी से भी बड़ा...
पर कवि की जीवनी शक्ति फिर भी अपराजेय ही रहती है, जीवन मूल्यों के प्रति सकारात्मक भाव उनमें भरे रहते
हैं। वे कहते हैं--
अगर आँखें हूँ
तो तिल भर जगह में भी वह सम्पूर्ण विस्तार हूँ
जिसमें जगमगा सकती हैं--असंख्य सृष्टियाँ...
उनका विश्वास है कि
कि सूर्योदय हो रहा
उसकी कोमल टहनियों से झाँकती धूप
देखते-देखते...
भर उठेगा पूरा घर...
वे बड़े विश्वास के साथ कहते हैं--
अब की अगर लौटा तो
हताहत नहीं
सबके हिताहित की सोचता
पूर्णतः लौटूँगा...
वर्तमान सन्दर्भ के जीवन-यापन में सुलह-समझौते की महत्त्वपूर्ण भूमिका और
उसकी व्याख्येय सत्ता को रेखांकित करते हुए ‘गोलकुण्डा की एक शाम’ में ये पंक्तियाँ समकालीन सन्दर्भ की विषद् व्याख्या
की ओर संकेत करती हैं--
टैक्सी ड्राइवर रहमत अली शाह
या गाइड मत्सराज के पूर्वजों के युद्धों से
कहीं ज्यादा कठिन है
वर्तमान से उन दोनों की लड़ाई
उससे पराजित न होने के उनके मनसूबे....
बारूद में आग लगाने के इतिहासों से अलग
एक तीसरा इतिहास भी है
रहमत शाह की बीड़ियों और
मत्सराज की माचिस के बीच सुलहों का...
सन् 1993 में प्रकाशित
इस संकलन की सौ में से अधिकांश कविताएँ भले ही लिखी गई हो पिछले चौदह वर्षों में;
कवि का ताजा-तरीन अनुभव भले ही आपातकाल
के बाद के चुनाव और मध्यावधि चुनाव से लेकर मन्दिर-मस्जिद प्रकरण के दुरुपयोग और
राजनीति के घिनौने खेल से उपजे हों; पर इतना तय है कि कवि के सोच-विचार का फलक और जीवन-दृष्टि की गहनता उस समय
तक के गुजारे गए पूरे जीवन, अध्यवसाय
और सामाजिक परिवेश की रही होगी।
वस्तुतः कवि-मनुष्य के आस-पास परिस्थितियाँ कितनी भी भयावह हो जाएँ,
उसकी आत्मशक्ति और उसका विवेक उसे टूटने
नहीं देता। सन् 1947 से 1993 तक के साढ़े चार दशक से अधिक दिनों की प्रौढ़
आजादी के बावजूद भारत के नागरिक परिदृश्य में ऐसा कुछ कायदे का दिख नहीं रहा था।
जिसे बहुत सन्तोष के साथ आशावान होकर देखा जाए। विडम्बनाओं की अग्निवृष्टि थमने का
नाम ही नहीं ले रही थी। और इस विकराल परिस्थितियों में भी कवि की आशा बनी हुई थी,
उजाले के प्रति उनका आकर्षण बना हुआ था।
‘सम्मदीन की लड़ाई’ कविता में उन्होंने साफ-साफ कहा--
बचाए रखना
उस उजाले को
जिसे अपने बाद
जिन्दा छोड़ जाने के लिए
जान पर खेलकर आज
एक लड़ाई लड़ रहा है
किसी गाँव का कोई खब्ती सम्मदीन...
विपरीत परिस्थितियों, घिनौनी
करतूतों, मानव विरोधी
आचार-संहिताओं के तूफान के बीच भी ये कविताएँ कई बार विडम्बनाओं से टकराकर हिलती
हुई दिखती हैं। पर हर समय कवि के जीवन मूल्यों के प्रति सकारात्मक सोच को रेखांकित
करती हैं, ज्योति कलश की दीप शिखा
को बचाकर रखती हैं, जनशक्ति की
अपराजेय ताकत को चिह्नित करती हैं।
आकारों के आस-पास (1972) उनकी
सतरह कहानियों का संकलन है, और
पहला कहानी संकलन है। इन कहानियों के बुनावट और भाषा संरचना में कुँवर नारायण का
कवि रूप, और कहानी की सम्पूर्णता
में उनका विचारक रूप, हर जगह
परिलक्षित होता रहता है। बावजूद इसके यह ईमानदारीपूर्वक कहा जा सकता है कि भाषा और
बुनावट की यह काव्यमयता और उद्देश्य की विचारशीलता में ये कहानियाँ कहीं उलझाऊ,
अबूझ, और बोझिल नहीं हुई हैं, बल्कि इन कहानियों में चमक पैदा करती रही हैं।
राजा-रानी की कहानियाँ पढ़ने के अभ्यस्त पाठकों को यहाँ किसी-किसी कहानी में
किस्सागोई का अभाव दिख जाए, तो
और बात है; पर हिन्दी कहानी-लेखन
के विभिन्न आन्दोलनों से गुजरते हुए भी कुँवर नारायण उस धारा में बह नहीं गए,
अपने कथा-लेखन का एक खास शिल्प बरकरार
रखा, यह बड़ी बात है। कुँवर
नारायण की कविताई से परिचित पाठकों को ये कहानियाँ निश्चय ही बड़ी आध्ादित करती
हैं। क्योंकि यहाँ न केवल घटनाओं के क्रम को सहेजा गया है, बल्कि एक चमत्कृत करने वाली काव्यमयता और उस काव्यमयता
के कारण परत-दर-परत उनका अर्थोत्कर्ष एक नएपन का अहसास कराता है। यद्यपि ‘मुगल सलतनत और भिश्ती’ तथा ‘कमीज’
जैसी कहानियाँ अपनी किस्सागोई में भी
सबसे आगे है। इन कहानियों में वस्तुतः रचनाकार कोई दूर की कौड़ी लाने की कोशिश करते
नहीं दिखते। वे अपने परिवेश से, आस-पास
की जिन्दगी के सुपरिचित अनुभवों से ही अपनी बात शुरू करते हैं; पर उन घटना-प्रसंगों को देखने का नजरिया और
उसे अभिव्यक्त करने का भाषा-रूप उसमें नया चमत्कार भरता है। इनमें से करीब-करीब
कहानियों में मानवीय सम्बन्धों की परतें प्याज के छिलकों की तरह परत-दर-परत उधेड़कर
देखी गई हैं। यथार्थ और फैण्टेसी के तालमेल से शिल्प का जैसा विस्मयकारी सौन्दर्य
इन कहानियों में है, वस्तुतः वही
उसका वैशिष्ट्य है; पर सचाई है
कि अपनी परिणति में ये कहानियाँ निर्मम यथार्थ और समकालीन जन-जीवन का अनुवाद हैं। ‘सन्दिग्ध चालें’, ‘दो आदमियों की लड़ाई’, ‘अफसर’, ‘गुड़ियों का खेल’, ‘जनमति’,
‘दूसरा चेहरा’, ‘आत्महत्या’, ‘बड़ा आदमी’, ‘आशंका’
आदि इस संकलन की विशिष्ट कहानियों में
से हैं। समग्रता से कहें तो इस संकलन की सारी कहानियाँ तब और अर्थवान लगने लगती
हैं जब इसकी भूमिका में लिखे कथाकार के वाक्य याद आते हैं। कुँवर नारायण ने यहाँ ‘पाठक से एक नए दृष्टिकोण की माँग की है,
जिसमें वह कहानी के जादू से मुग्ध होकर
नहीं, कहानीकार के साथ पूरी तरह
जागा रहकर अपने आपसे तर्क-वितर्क करता चलता है। इस कोशिश में कहानियाँ कभी-कभी
कविता और निबन्ध की विधा के काफी निकट आ गई हैं लेकिन शायद इस तरह नहीं कि उनकी
बुनियादी पहचान गुम हो गई हो।’ वस्तुतः
कुँवर नारायण की कहानियाँ मनोरंजन और निठल्लेपन को मिटाने का साधन नहीं हो सकतीं,
ये कहानियाँ मनुष्य की निष्क्रियता को
झकझोड़ती हैं; निश्चेष्टता,
शिथिलता और निरपेक्षता को उद्वेलित करती
हैं; स्वार्थपरता और क्रूरता के
दंश की कलई खोलती हैं; मनुष्य को
आत्मालोचन के लिए प्रेरित करती हैं, कभी-कभी धिक्कारती भी हैं। इन कहानियों का वैशिष्ट्य पाठकों को काम में
लगाने के इसी तकनीक में निहित है। व्यंग्य, विद्रूप, और विडम्बनाओं की तल्ख धार से ये कहानियाँ बहुत प्रभावी बन सकी हैं।
आज और आज से पहले उनके वैचारिक और आलोचनात्मक निबन्धों, टिप्पणियों का संकलन है, जो पुस्तकाकार सन् 1998 में प्रकाशित हुआ। ये सारे निबन्ध सन् 1957 से 1995 तक विभिन्न अवसरों पर लिखे, पढ़े गए तथा प्रकाशित हुए। इनमें साहित्य, समाज एवं वैचारिक शृंखला के विविध प्रसंगों पर
विचार किया गया है। कविता से सम्बन्धित लेख अपेक्षाकृत अधिक हैं। चार खण्ड में
विभक्त इस पुस्तक में कुल इक्यावन निबन्ध हैं। पहले खण्ड में भाषा, परम्परा, विचार, विचार-व्यवस्था,
कविता आदि विषयों पर कुल बाइस लेख हैं।
दूसरे खण्ड में अज्ञेय, नेमिचन्द्र
जैन और अशोक वाजपेयी की गद्य पुस्तकों पर, पूर्वग्रह पत्रिका पर और एक संस्कृत पुस्तक पर आलेख हैं। तीसरे खण्ड में
जय शंकर प्रसाद, निराला, अज्ञेय, मुक्तिबोध, शमशेर बहादुर सिंह, विजयदेव
नारायण साही, श्रीकान्त वर्मा,
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, रघुवीर सहाय तक की कविताओं पर दस निबन्ध हैं। चौथे
खण्ड में प्रेमचन्द, यशपाल,
अमृतलाल नागर, भगवती चरण वर्मा, अज्ञेय, हजारी प्रसाद द्विवेदी, निर्मल
वर्मा, श्रीलाल शुक्ल तक के
कथा-साहित्य पर चौदह निबन्ध संकलित हैं। इन बड़े-बड़े रचनाकारों और उनकी
महत्त्वपूर्ण कृतियों पर लिखे गए उनके ये आलेख परवर्ती काल के तमाम लेखकों के लिए
प्रेरणास्पद हैं। स्पष्ट ही है कि हर तरह से अपनी मौलिक चिन्तन पद्धति के हिमायती
रचनाकार कुँवर नारायण की वैचारिक दृष्टि अलग होगी। एक विराट् कवि की लगभग चार
दशकों की विचार-दृष्टि को समग्रता से देखने का अवसर यहाँ मिलता है, और यहाँ आकर उनकी काव्य-चेतना के भी कई रंग,
कई अर्थ-रूप उजागर होने लगते हैं। खासकर
उनके अन्तिम कविता संग्रह कोई दूसरा नहीं की कविताओं का करीब-करीब मर्म कोई पाठक
चाहे तो इस निबन्ध संग्रह की भूमिका की इन पंक्तियों देख ले सकता है कि--‘पहचान’ या ‘अस्मिता’
की समस्या को जब हम अपने ही राष्ट्र,
राज्य, देश, प्रदेश,
जाति, धर्म, समाज,
संस्कृति, भाषा, साहित्य,
परम्परा, राजनीति, स्थानीयता, परिवार आदि
जैसे स्थूल आधारों को सबसे आगे रखकर सोचते हैं, तो वह सुलझने के बजाय और भी उलझती चली जाती है। हमारे
आपसी सम्बन्धों में दरारें और दूरियाँ बढ़ने लगती है।--बीसवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में आम नागरिक की नजरों
के सामने फैले इस धुन्ध ने जैसा मानव-द्रोह पैदा किया, उसमें न केवल मनुष्य को बल्कि साहित्यिक प्रसंग और
साहित्यकारों के रचना-कर्म को पहचाने के लिए भी बड़ी पैनी नजर की आवश्यकता थी।
स्थापित सत्य है कि हर समय के साहित्य का समकालीन समाज के गुण-सूत्रों से
रागात्मक सम्बन्ध होता है और हर समय का सामाजिक जीवन-यापन समकालीन राजनीतिक
गतिविधियों और आचरणों का भोक्ता होता है। इस स्थिति में हर समय के साहित्य का
रिश्ता किसी हद तक समकालीन राजनीतिक व्यवस्था से बनता है। इस प्रसंग से कुँवर नारायण
अपनी पुस्तक की भूमिका में स्पष्ट उल्लेख करते हैं कि-- साहित्य और राजनीति के बीच, मैं समझता हूँ कभी भी गठबन्धन का रिश्ता वांछनीय नहीं।
राजनीति की पहली जरूरत है सत्ता और शक्ति: इसके बिना वह कुछ नहीं कर सकती, और इसके लिए वह कुछ भी कर सकती है--उन्हीं लोगों के साथ धोखा तक, जिनका समर्थन उसे सत्ता देता है।...बड़ा
साहित्य न तो राजनीति का गुलाम रहा है, न ही उसका दुश्मन। साहित्य चिन्ता के मूल में रहते हैं वे जीवन मूल्य जो
मनुष्य के हित में हों--जो उसकी
रक्षा कर सकें उसकी अपनी ज्यादतियों से, और दूसरों की ज्यादतियों से भी। सन्तुलित बुद्धि और उदार सम्वेदनशीलता से
साहित्य अपने चारों तरफ देखता है, केवल
राजनीति की तरफ नहीं...यह चौतरफा दृष्टि तभी सम्भव है जब...एक निरीक्षक और विवेचक
की तरह अपने समय और समाज पर चौकन्नी नजर रखे।-- इस संकलन के सभी निबन्धों में कुँवर नारायण अपनी इस
आलोचकीय दृष्टि का परिचय देते हैं। इन तमाम विषयों पर हिन्दी में बहुत कुछ लिखा
जाता रहा है, पर ये निबन्ध,
इन प्रसंगों की व्याख्या के लिए निश्चय
ही पाठकों को एक चौकन्नी दृष्टि अपनाने की प्रेरणा देते हैं।
वाजश्रवा के बहाने (2008) खण्डकाव्य
वस्तुतः पूर्व प्रकाशित खण्डकाव्य आत्मजयी की ही अगली कड़ी है। इसमें दो खण्ड हैं--नचिकेता की वापसी और वाजश्रवा के बहाने। पहले
में दस शृंखलाबद्ध कविताएँ हैं और दूसरे में ग्यारह। प्रथम खण्ड में जीवन का
आह्नान है तो दूसरे में आसन्न अवसान। जीवन से मृत्यु की ओर देखते जाने की वाजश्रवा
की कोशिश एक तरह के आत्मालोचन का भाव देती है, पर अपने अनुभवों का एकालाप भी वहाँ दिखता है।
पिता-पुत्र के इस द्वन्द्व को हम आज के सन्दर्भ में देखें तो इसकी झलक बड़ी आसानी
से मिल जाती है। पूर्वकथन में कवि ने स्वयं लिखा है--जीवन का अपना सम्मोहन होता है, जो मृत्यु के सन्त्रास के बावजूद हमें जीने की शक्ति
देता है। ...‘आत्मजयी’ में यदि मृत्यु की ओर से जीवन को देखा गया है,
तो ‘वाजश्रवा के बहाने’ में जीवन की ओर से मृत्यु को देखने की एक कोशिश
है।...वाजश्रवा के मन में गहरा विक्षोभ भी है अपने उस ‘अशुभ क्रोध’ को लेकर जिसके कारण जीवन-यज्ञ में इतना बड़ा व्यवधान पड़ जाता है।
वस्तुतः इन दोनों खण्डकाव्यों में उल्लिखित सन्दर्भों को हमें आधुनिक
सन्दर्भों से जोड़कर देखने की चेष्टा करनी चाहिए। दो पीढ़ियों के वैचारिक द्वन्द्व
को जितने सन्तुलित रूप में यहाँ रेखांकित किया गया है, वह सन्तुलन वस्तुतः कुँवर नारायण की चिन्तनशीलता का
सन्तुलन है। वे इतने आधुनिक भी नहीं होना चाहते कि अपने सारे अतीत, सारी परम्परा से मुँह मोड़कर कर चल पड़ते;
और न ही परम्परा-मोह के कैद में बैठकर
आत्मालाप करते। उनकी यह सन्तुलन वृत्ति न केवल चिन्तन पद्धति, बल्कि उनके भाषा-व्यवहार और रचना शिल्प तक में
दिखती है। सम्भवतः यही कारण हो कि जब कभी उन्हें अपनी बात स्पष्ट रूप से तर्क
सम्मत ढंग से कहने की जरूरत होती है, और उन्हें लगता है कि ऐतिहासिक, पौराणिक, मिथकीय
रूपक-प्रसंगों से इसे बेहतर कहा जा सकता है, तो वे तनिक भी देर नहीं लगाते और उन्हीं पौराणिक
प्रसंगों में आधुनिक जनजीवन में मानवीय जीवन-मूल्यों को बखूबी पिरो देते हैं।
नचिकेता की आँखें खुलने से व्रजश्रवा को नई दृष्टि और नई सृष्टि की
उपलब्धि होती है, क्योंकि अब तक
उन्हें यह समझ आ गई होती है--
कि एक संसार इतना पर्याप्त हो सकता है
सबके लिए
और वही इतना छोटा हो सकता है
किसी एक के लिए
...कि इतना बड़ा अहं
डूब सकता है एक पल में...
और उसे इस बात का भी अनुभव हो गया होता है कि--
मैंने उसकी चीखों को सुना
उसकी सिसकियों को नहीं
...मेरी सब से प्रिय वस्तु!--भूल हुई
‘वस्तु’ माना अपने सबसे ‘प्रिय’ को
अपना अभिन्न नहीं...
उसके मन में यह बात भी अच्छी तरह बैठ चुकी है--
कि समय हमें कुछ भी
अपने साथ ले जाने की अनुमति नहीं देता
पर अपने बाद
अमूल्य कुछ छोड़ जाने का पूरा अवसर देता है...
पुरानी पीढ़ी के लोग नई पीढ़ी से थोड़े समय के लिए अलग रहकर यदि नई पीढ़ी की
नवता और तार्किकता को, और
जीवन-मूल्य के गूढ़ार्थ को इतनी सूक्ष्मता से समझ ले, तो यह इस काव्य शृंखला की अतिरिक्त खूबी दिखती है। साथ
ही यहाँ नई पीढ़ी के प्रतीक-प्रसंग में, नवता का कोई उच्छृंखल आचरण, या विद्रोह जैसा कोई स्वर नहीं दिखता। वहाँ बड़े सामान्य और शालीन आचरण के
साथ दृढ़ इच्छा शक्ति से भरी असहमति है, जिसमें वैचारिक वैषम्य है, वैयक्तिक
द्रोह नहीं। आखिरकार इसीलिए तो नचिकेता यम से एक वरदान यह भी माँगता है कि लौटने
पर पिता नाराज न दिखें। और वापसी के बाद--
पिता से गले मिलते
आश्वस्त होता नचिकेता कि
उनका संसार जीवित है!
...उसकी इच्छा होती
कि यात्रओं के लिए
असंख्य जगहें और अनन्त समय हो
और लौटने के लिए
हर समय हर जगह अपना एक घर...
यह वापसी, सम्बन्धों की
मासूमियत में कोई खिंचाव तक पैदा नहीं करती। वाजश्रवा के अनुभवों से कवि ने
जीवन-दर्शन की कितनी बड़ी-बड़ी बातें रेखांकित की हैं--
तुम्हें खोकर मैंने जाना
हमें क्या चाहिए--
कितना चाहिए
क्यों चाहिए सम्पूर्ण पृथ्वी?
जबकि उसका एक कोना बहुत है
देह-बराबर जीवन जीने के लिए...
फिर आगे कहते हैं--
दल और कतारें बनाकर जूझते सूरमा
क्या जीतना चाहते हैं एक दूसरे को मार कर
जबकि सब कुछ जीता--
हारा जा चुका है
जीवन की अन्तिम सरहदों पर?...
इन उद्धरणों को पौराणिक कथा-प्रसंग की पुनप्र्रस्तुति, अथवा जीवन-स्मरण की दार्शनिक व्याख्या के बजाय,
इस तरह देखना श्रेयस्कर होगा कि मानव
जीवन का अन्तिम सत्य यही है, इसलिए
जो लोग खुद को समय का देवता साबित करने में जुटे हैं, और अपने सिंहासन की ऊँचाई बढ़ाने के चक्कर में सर्वाधिक
प्रिय और अपरिहार्य वस्तु ‘मानवीयता’
को कूड़ेदान में डाल रहे हैं, उनके लिए यह समझना अधिक जरूरी है कि--
हर निर्माण में
यह कैसी कमी
कि दुश्मन होकर घेर लेते हमें
हमारे ही प्रियजन...
वस्तुतः कुँवर नारायण की रचनाएँ प्रकारान्तर से व्यवस्था के शिकारियों की
चालबाजी, और उन चालबाजियों से
खुद को किसी तरह बचाए रख पाने में सफल-विफल कोशिशों और संघर्षों में पेरशान हो रहे
शिकारों के चित्र-खण्डों की कोलाज हैं। पर उनकी रचनाओं के तीक्ष्ण और प्रहारक
निशाने पर सदा वे ‘शिकारी’
ही रहते हैं। उन शिकारियों के लिए कुँवर
नारायण ने अपने वाजश्रवा के अनुभव से बेहतरीन वाक्य कहलवाया है--
बार-बार देखता हूँ
सिर घुमाकर
कोई तो-कुछ तो--
आ रहा होगा
मेरे पीछे-पीछे?
नहीं, कोई नहीं! कुछ भी नहीं
मेरी अपनी छाया तक नहीं
जब ऐसी स्थिति है, तब
फिर लोग किस सम्पत्ति, किस शक्ति,
किस सत्ता, किस साम्राज्य के लिए नृशंसता की इतनी क्रूर सीढ़ियाँ
चढ़ते जाते हैं? कभी तो वे खुद के
आमने-सामने हों, फिर कुँवर
नारायण के आमने-सामने होने में लाज न आएगी और वे खुद आत्मजयी हो जाएँगे।